जिस दिन देशभर में संसद पर 22 साल पहले हुए हमले की चर्चा थी, ठीक उसी दिन एक बार फिर कुछ नौजवानों ने संसद में दाखिल हो कर जो किया उस से हर कोई सकते में है. जिस तरीके से वारदात को अंजाम दिया गया वह निहायत ही पुरानी हिंदी फिल्मों सरीखा था जिन में विलेन और उस के गिरोह के सदस्य सुरक्षा को धता बताते इमारत में घुसते हैं और बाहर पुलिस वाले सीटियां बजाते इधर से उधर दौड़ते एकदूसरे से क्या हुआ, क्या हुआ पूछते रह जाते हैं.

नीलम, सागर, मनोरंजन और अमोल न तो विदेशी एजेंट हैं न रूरल नक्सली या अर्बन नक्सली हैं, न किसी अलगाववादी आतंकवादी संगठन से जुड़े हैं. वे मुसलमान भी नहीं हैं और न ही खालिस्तानी हैं. वे, और तो और, वामपंथी भी नहीं हैं, वे शुद्ध भारतीय हैं और बहुत स्पष्ट शब्दों में बता भी रहे हैं जिस का सार यह है कि वे बेरोजगार हैं, छात्र हैं, किसी संगठन से जुड़े नहीं हैं.

उन के मातापिता छोटेमोटे काम करते हैं. सरकार हर जगह उन जैसे लोगों की आवाज दबाने की कोशिश करती हैं फिर उन के अंदर की भड़ास जबान पर यह नारा लगाते आती है कि तानाशाही नहीं चलेगी, नहीं चलेगी.

सकते में है भाजपा

इस सुनियोजित हमले को ले कर भाजपा सकते में है कि अब ठीकरा किस के सिर फोड़ अपनी नाकामी को ढका जाए. संसद पर 2001 का हमला तो खालिस आतंकवादी हमला था जिस में सुरक्षाकर्मियों सहित 9 लोग मारे गए थे. तब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी. आरोपी पकड़े गए थे. इन में से अफजल गुरु को 9 फरवरी, 2013 को फांसी पर लटका भी दिया गया था.

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