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हिम्मतवाला

1983 में आई जितेंद्र और श्रीदेवी की फिल्म ‘हिम्मतवाला’ को साजिद खान ने दोबारा बना कर कोई तीर नहीं मारा है. न तो उन की फिल्म की कहानी में नयापन है, न ही मेकिंग में कोई बदलाव है. फिल्म के नायकनायिका जितेंद्र और श्रीदेवी की नकल करते नजर आते हैं.

साजिद खान ने इस फिल्म की रिलीज से पहले यह दावा किया था कि उन्होंने मसालों से लबरेज फार्मूलों के आधार पर इस फिल्म को बनाया है. इस में कोई शक नहीं है कि फिल्म में मसालों की भरमार है लेकिन ये मसाले बदहजमी पैदा करने वाले हैं.

कहानी रामपुर नाम के एक काल्पनिक गांव की है. गांव में मुखिया शेरसिंह (महेश मांजरेकर) का आतंक है. उस ने गांव के पुजारी पर चोरी का इल्जाम लगा कर उसे मरने पर मजबूर कर दिया था और उस की बीवी सावित्री (जरीना वहाब) और उस की बेटी को गांव से निकाल दिया था. एक दिन गांव में एक नौजवान रवि (अजय देवगन) आता है. उस की मुलाकात शेरसिंह की नकचढ़ी बेटी रेखा (तमन्ना) से होती है. रवि उसे शेर से बचाता है तो वह उस से प्यार कर बैठती है.

शेरसिंह रवि की बहन पद्मा की शादी अपने साले नारायणदास (परेश रावल) के बेटे शक्ति (अध्ययन सुमन) से करा देता है और पद्मा को परेशान करता है. एक दिन शक्ति को पता चलता है कि रवि उस का भाई नहीं है. वह रवि की पोल खोलता है तो सचाई सामने आती है कि रवि शहर में एक ऐक्सिडैंट में मर चुका है. लेकिन सावित्री उसे ही अपना बेटा मानने लगती है. अब रवि शेरसिंह, नारायणदास, शक्ति और उन के गुंडों से उन के अत्याचारों का बदला लेता है और गांव वालों को उन के आतंक से मुक्त कराता है.

फिल्म का निर्देशन धीमा है. साजिद खान ने बाघ पर फिल्माए गए 5-7 मिनट के दृश्यों को रिपीट कर दिखाया है, जिस से कि दर्शकों में सनसनी पैदा हो सके. अजय देवगन ने ‘सिंघम’ सरीखी ऐक्टिंग की है. महेश मांजरेकर और परेश रावल ने जोकरों जैसी ऐक्टिंग कर दर्शकों को हंसाने की कोशिश की है.

 

चश्मे बद्दूर

‘चश्मे बद्दूर’ 1981 में आई सई परांजपे द्वारा निर्देशित फिल्म का रीमेक है. फिल्म युवाओं को ध्यान में रख कर बनाई गई है. चूंकि फिल्म डेविड धवन द्वारा निर्देशित है, इसलिए चालू मसाले, घटिया जोक्स, ‘साला’, ‘कमीना’, ‘उल्लू का पट्ठा’ जैसी गालियां न हों, ऐसा हो ही नहीं सकता. ओरिजनल फिल्म में फारुक शेख, राकेश बेदी, रवि वासवानी और दीप्ति नवल ने इतना बढि़या काम किया था कि दर्शक आज भी उसे भूले नहीं हैं.

नई ‘चश्मे बद्दूर’ सई परांजपे की फिल्म से एकदम अलग है. कौमेडी उस फिल्म में भी थी, इस में भी है मगर ब्रेनलैस है. फिल्म के गीतों में घटिया लफ्जों का इस्तेमाल किया गया है. ‘हर एक दोस्त कमीना होता है…’, ‘…इश्क महल्ला, यहां सबकुछ खुल्लमखुल्ला…’ कई संवाद भी इसी तरह के हैं. एक संवाद में तो लिलिट दुबे को ‘ढकी हुई मल्लिका शेरावत’ तक कह दिया गया है. ऋषि कपूर का इस्तेमाल सही ढंग से नहीं हो पाया है. ओरिजनल फिल्म में यही रोल लल्लन मियां यानी सईद जाफरी का था, जिसे आज भी याद किया जाता है.

डेविड धवन ने पुरानी कहानी को अपने अंदाज में फिट किया है. पिछली फिल्म की कहानी दिल्ली की थी, इस फिल्म की कहानी गोआ की है. सिद्धार्थ उर्फ सिड (अली जफर), जय (सिद्धार्थ) और ओमी (दिव्येंदु शर्मा) 3 दोस्त हैं और गोआ में जोसफीन (लिलिट दुबे) के किराएदार हैं. तीनों कड़के हैं, किराया देने तक का उन के पास पैसा नहीं है. एक दिन ओमी की नजर सीमा (तापसी पन्नू) पर पड़ती है. वह उसे पटाने की कोशिश करता है परंतु पिट जाता है. जय भी सीमा को पटाने की कोशिश करता है परंतु सफल नहीं हो पाता. दोनों सिड को सीमा और अपनेअपने चक्कर के बारे में बढ़ाचढ़ा कर बताते हैं. एक दिन अचानक सीमा की मुलाकात सिड से हो जाती है. दोनों में प्यार हो जाता है. ओमी और जय से यह देखा नहीं जाता. वे उन का ब्रेकअप करा देते हैं. लेकिन जब उन्हें अपनी गलती महसूस होती है तो वे दोनों को फिर से मिलवा देते हैं. इसी कहानी में जोसेफ (ऋषि कपूर) और जोसफीन के बीच प्रेमप्रसंग भी है.

फिल्म का यह रीमेक काफी लाउड है. फिल्म के 2 पात्रों ओमी और जय जबतब द्विअर्थी संवाद बोलते रहते हैं. भले ही इन संवादों को सुन कर आज के युवाओं को हंसी आए लेकिन ये वाहियात हैं. डेविड धवन ने इस के अलावा कौमेडी क्रिएट करने के लिए अनुपम खेर का किरदार फिल्म में डाला है. यह किरदार जबतब अपनी मां के हाथों थप्पड़ ही खाता रहता है और इसे देख के दर्शकों को खूब हंसी आती है.

डेविड धवन ने अपने चिरपरिचित अंदाज में ही फिल्म को निर्देशित किया है. वैसे तो अली जफर फिल्म का केंद्रीय पात्र है लेकिन सिद्धार्थ और दिव्येंदु ने कुछ अच्छा काम कर लिया है. वैसे उन की ऐक्टिंग में बनावटीपन ?ालकता है. तापसी पन्नू की हिंदी की यह पहली फिल्म है. फिल्म में बारबार उस ने ‘दम है बौस…’ संवाद बोला है. लेकिन खुद उसी में दम नहीं है. ऋषि कपूर का गैटअप अच्छा लगता है. लिलिट दुबे का काम भी अच्छा है.

फिल्म का गीतसंगीत लाउड है. ‘हर एक दोस्त कमीना होता है…’ और ‘ढिच्कियाओं ढुमढुम…’ गीत सुनने में कुछ अच्छे लगते हैं. छायांकन अच्छा है.

केन्या की अनोखी दहेज प्रथा: ब्राइड प्राइज

केन्या में अपने 30 वर्षों के प्रवास के दौरान मैं ने वहां की अनेक सामाजिक कुरीतियों तथा रीतियों का गहन अध्ययन किया. वहां की दहेज प्रथा मुझे बहुत आश्चर्यजनक लगी.

भारत में लड़की वाले लड़के वालों को दहेज देते हैं हालांकि यह गैरकानूनी है. इस के विपरीत केन्या में लड़के वाले लड़की के मातापिता को भारी रकम देते हैं. दहेज देने के बाद ही विवाह कानूनी तौर पर स्वीकृत होता है. इस प्रथा को केन्या में ‘ब्राइड प्राइज’ के नाम से जाना जाता है.

अचंभे वाली बात यह लगी कि केन्या सरकार ने इस प्रथा को पूर्ण मान्यता दे रखी है. ऐसा केवल केन्या में ही नहीं बल्कि केन्या के समीप के देशों, तंजानिया तथा युगांडा में भी इस प्रकार की दहेज प्रथा का प्रचलन है.

विभिन्न अफ्रीकी व्यक्तियों से संपर्क करने पर पता चला कि वे इस प्रकार की दहेज प्रथा का शिकार हुए. मेरे साथ एक अध्यापिका मिस रोज कार्यरत थीं. उन का एक ही बेटा था. उस के जन्मदिवस पर मु?ो आमंत्रित किया गया. वहां उन्होंने अपने पतिदेव मिस्टर पीटर से मेरा परिचय करवाया. मैं ने पीटर से पूछा कि क्या कारण है तुम्हारी पत्नी अपने नाम के साथ मिस लिखती हैं? पीटर ने बताया कि जो ब्राइड प्राइज रोज के मातापिता के साथ तय हुई है जब वह चुक जाएगी तब हमारा विवाह चर्च में होगा.

ब्राइड प्राइज यहां के अलगअलग कबीलों में अलगअलग ढंग से अदा की जाती है. कई कबीले जैसे कि किकूयू, लुओ, कलेंजिन आर्थिक तौर पर संपन्न हैं उन्हें कोई दिक्कत नहीं आती. जो कबीले, जैसे कि मसाई, तुरकाना, मिजीकेंडा आर्थिक तौर पर संपन्न नहीं हैं, वे अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार ‘ब्राइड प्राइज’ तय करते हैं.

मेरे एक अफ्रीकी मित्र मिस्टर साइमन, जोकि लगभग 55 वर्ष के थे, मु?ो एक निमंत्रण पत्र दे गए. पूछने पर बोले कि आप को मेरे विवाह समारोह में अवश्य आना है. साइमन के बच्चे विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे. ब्राइड प्राइज पूर्ण होने के बाद उन का चर्च में विधिवत विवाह हो रहा था.

पर पिछले कुछ वर्षों से केन्या की युवा पीढ़ी में जागृति आई है. बहुत से युवकयुवतियां अब इकट्ठे रहने लगे हैं पतिपत्नी के तौर पर. जो युवतियां ये कदम उठाती हैं उन्हें संपत्ति से वंचित कर दिया जाता है तथा किसी भी प्रकार की सहायता उन को अपने मांबाप से नहीं मिलती.

ब्राइड प्राइज तय कैसे होती है यह भी बहुत रोचक है. ब्राइड प्राइज की रकम गायों की संख्या से तय की जाती है. गरीब लड़के अपनी वधू के लिए 10 से 50 गायों तक का सौदा कर सकते हैं पर मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग के लड़के वाले 200 से 400 गायों तक भी देना स्वीकार कर लेते हैं. यह मोलभाव सामूहिक और सांस्कृतिक गीतों और नृत्यों के साथसाथ तय होता है. इस के साथ बजने वाले वाद्ययंत्र चमड़े के ड्रम, मंजीरे और गायों के सींगों से बने वाद्य यंत्र होते हैं. नर्तक पारंपरिक वेषभूषाएं पहनते हैं जिन में पत्तों, चमड़ों की पोशाकें तथा कौडि़यों और हड्डियों के आभूषण होते हैं. सिर पर पंखों के मुकुट भी पहने जाते हैं और चेहरे पर सफेद और लाल मिट्टी घोल कर चित्रकारी की जाती है.

यह परंपरा बहुत सालों से चली आ रही है. पर आजकल गायों की संख्या के बराबर रकम ही दी जाती है. जो लोग सारी रकम नहीं दे सकते वे किस्तों में भी चुका सकते हैं. कुछ कबीलों में वर अपनी वधू के भाईबहनों की पढ़ाई का खर्चा उठा कर भी ब्राइड प्राइज की रकम पूरी कर सकता है.

जिस प्रकार भारत में विवाह के बाद अनेक लड़कियां दहेज की हिंसा का शिकार हो जाती हैं उसी प्रकार केन्या में जो लोग ब्राइड प्राइज की पूरी रकम चुका देते हैं उन में से कुछ अपनी पत्नियों के साथ खरीदे हुए गुलामों जैसा व्यवहार करते हैं.

दुख की बात तो यह है कि तलाक लेने की स्थिति में ब्राइड प्राइज लड़की वालों को लौटाना पड़ता है. यही कारण है कि बहुत से जोड़े बगैर विवाह के पतिपत्नी के तौर पर रहते हैं, संतान पैदा करते हैं और कोई भी मतभेद होने पर अलगअलग रहने लगते हैं. ऐसी औरतें ‘सिंगलमदर’ कहलाती हैं. स्कूलों के रजिस्टरों में ऐसे बच्चों के अभिभावकों की जगह मां का ही नाम लिखा जाता है. हालांकि ऐसी माताएं स्कूल फीस की मांग इन बच्चों के पिताओं से कर सकती हैं.

ऐसे बच्चे अवैध नहीं माने जाते पर कहीं न कहीं इन के मन का कोना सूना ही रहता है जो एक पिता ही दूर कर सकता है. दहेज की कुप्रथा के शिकार ये बच्चे भी हो सकते हैं पर मां की ओर का पूरा परिवार बच्चों को पूरा सहयोग देता है और आगे बढ़ने को प्रेरित करता है.

बहरहाल, केन्या में यह कुप्रथा न होती तो शायद हर बच्चा अपने मांबाप के साथ संतुलित जीवन निर्वाह कर सकता.

सरकार ओर विपक्ष के 4 साल दोनों नाकाम

मौजूदा सरकार और विपक्षी दल भ्रष्ट और नाकाम सियासी सिक्के के दो पहलू हैं. सरकार भ्रष्ट और घोटालेबाज है तो विपक्ष भ्रष्टाचार का मूक समर्थक. दोनों ही सत्ता की मलाई जीमने और अपनी कारगुजारियों का ढोल पीटने में जरा?भी शर्मिंदगी महसूस नहीं करते. चोरचोर मौसेरे भाई की तर्ज पर सरकार और विपक्ष की सियासी व जनविरोधी जुगलबंदी का विश्लेषण कर रहे हैं लोकमित्र.

सियासत को छोड़ दें तो शायद ही ऐसा कोई दूसरा क्षेत्र हो जहां अपने मुंह अपनी तारीफ करने का चलन हो. यहां तक कि उस मनोरंजन उद्योग क्षेत्र में भी नहीं है जहां का सारा खेल ही छवि का है. लेकिन सरकारें बड़ी बेशर्मी से सार्वजनिक पैसे से अपना गुणगान करती हैं. आजकल संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी संप्रग सरकार अपने 4 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में यही कर रही है.

कितनी बड़ी विडंबना है कि जिस सरकार के पिछले 4 साल एक के बाद एक घोटाले सामने आने में और बारबार देश को राष्ट्रीय शर्म में डुबोने में गुजरे हों वह जश्न मना रही है. किस बात का जश्न? क्या इस बात के लिए कि बारबार घोटालों में पकड़े जाने के बाद भी सरकार बड़ी निर्लज्जता और अपनी जोड़तोड़ की बदौलत अभी तक बरकरार है? अगर महज अस्तित्व में बने रहने के लिए यह सरकार जश्न मना रही है तो यह उस की कोई उपलब्धि नहीं है बल्कि उसे अपने षड्यंत्र में मिली कामयाबी है और यह आम जनता पर सरकार का विद्रूप व्यंग्य है.

एक विद्रूप तमाशा जहां सत्तारूढ़ कांगे्रस पार्टी कर रही है वहीं प्रमुख विपक्षी पार्टी के रूप में भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा भी उसी तमाशे को दुहरा रही है. यह कितनी हास्यास्पद बात है कि जिस भाजपा ने बारबार मौका मिलने के बावजूद कांगे्रस को कभी संसद में घेर कर उसे तमाम घपलोंघोटालों के लिए देश के समक्ष शर्मसार होने के लिए मजबूर नहीं किया उलटे खुद ही ऐसी परिस्थितियां खड़ी कीं कि कांगे्रस तमाम नाजुक मौकों और मसलों में संसद का सामना करने से बच गई.

अंतर्कलह में उलझा रहा विपक्ष

भाजपा ने संसद को ज्यादातर मौकों में पिछले 4 सालों में ठप रखा. अब भाजपा कह रही है कि कांगे्रस को बेनकाब करने के लिए वह गांवगांव, शहरशहर जनजागरण अभियान चलाएगी. जब संसद में मौका था तब भाजपा के ज्यादातर नेता संसद में उपस्थित रहने के बजाय टीवी चैनलों का चक्कर लगाया करते थे.

बिहार में भाजपा और जनता दल (यूनाइटेड) की सरकार भले ही अभी तकनीकी रूप से चल रही हो लेकिन जहां तक वैचारिक और मजबूत दोस्ताना वाले गठबंधन की बात है तो यह भी अंदर ही अंदर टूटफूट चुका है.

नीतीश कुमार ने राजधानी दिल्ली में बिहार स्वाभिमान रैली की, उस में भाजपा को पूछा तक नहीं जबकि भाजपा रैली के लिए तैयारियां कर रही थी. यही नहीं, नीतीश ने रैली के मंच से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री पी चिदंबरम की तारीफ भी की, साथ ही यह भी कहा कि चुनावों तक कुछ भी हो सकता है. राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता. भाजपा के जले पर नमक छिड़कते हुए नीतीश कुमार ने यह कह कर अपना भाषण खत्म किया कि जो बिहार को स्पैशल राज्य का दरजा देगा, हम उस के साथ हैं.

कहने का मतलब यह है कि भले ही  अभी नीतीश और भाजपा के बरतनभांडे अलग न हुए हों लेकिन वे देहरी तक आ गए हैं, कभी भी एक  झटके में वे बाहर आ सकते हैं और इस का सब से बड़ा कारण है नरेंद्र मोदी. दरअसल, नरेंद्र मोदी सोच के स्तर पर तानाशाह हैं. संयोग से उन्होंने गुजरात में जीत की हैट्रिक भी लगा ली है जिस वजह से उन की तानाशाही का पारा और भी ऊपर चढ़ गया है. वे अपनेआप को पार्टी से ऊपर और विशिष्ट सम झते हैं. यही कारण है कि गुजरात में वे नरेंद्र मोदी के चलते भाजपा का अस्तित्व सम झते हैं न कि भाजपा के चलते नरेंद्र मोदी का अस्तित्व. इस वजह से भाजपा में अंदर ही अंदर बिखराव और एकदूसरे की टांग खींचने का दौर जारी है. कर्नाटक की जबरदस्त पराजय के पीछे भी भाजपा की आंतरिक कलह है.

दरअसल, नीतीश कुमार जैसे मुसलिमों की राजनीति करने वाले ही नहीं बल्कि भाजपा में भी बड़े पैमाने पर ऐसे लोग मौजूद हैं जो सोचते हैं कि अगर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया तो भाजपा को नुकसान होगा क्योंकि इस से सैक्युलर हिंदू वोट भी नहीं मिलेंगे इसलिए भाजपा में अंदर ही अंदर नरेंद्र मोदी का तमाम धड़े विरोध कर रहे हैं, यहां तक कि अपने को हिंदुओं का मसीहा बताने वाली शिवसेना भी नहीं चाहती कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हों. इसीलिए शिवसेना ने सुषमा स्वराज का राग छेड़ा है.

इस का एक बड़ा कारण नरेंद्र मोदी की एमएनएस मुखिया राज ठाकरे से नजदीकी है. वास्तव में किसी भी तानाशाह की तरह नरेंद्र मोदी भी चापलूसी पसंद हैं. राज ठाकरे उन्हें हर तीसरे दिन हिंदू हृदय सम्राट घोषित करते रहते हैं, ऐसे में मोदी उन के लिए विशेष जगह तो रखेंगे ही. भाजपा और उस की अगुआई वाले गठबंधन में अंदर ही अंदर अगर अविश्वास की खिचड़ी पक रही है तो इस के पीछे एक कारण तीसरे मोरचे की खिचड़ी भी है.

इस साल अपने पुराने संगीसाथियों से होली खेलते हुए अचानक मुलायम सिंह यादव को इल्हाम हुआ कि देश में सब से ज्यादा ईमानदार राजनेता लालकृष्ण आडवाणी हैं. उन की जबान से ये शब्द निकलते ही हजारों कान खड़े हो गए. दरअसल, एनडीए में आंतरिक कलह को लोगों ने इन छिटपुट पटखनियों के रूप में भी देखा है. कांगे्रस पर भाजपा या उस के साथी दलों का अगर कोई खास असर नहीं पड़ा तो सब से बड़ी वजह यही है कि दोनों की राजनीति में कोई खास फर्क नहीं है. कांगे्रस के भ्रष्टाचार से दो हाथ आगे बढ़ कर नितिन गडकरी का भ्रष्टाचार उजागर हुआ है.  झुग्गियों में चलते कौर्पोरेट दफ्तर, घर के ड्राइवर से ले कर चौकीदार तक को गडकरी ने अपने भ्रष्टाचार का हिस्सा बना दिया तो ऐसे में भला एक चोर दूसरे चोर को चोर कहे तो लोग गंभीरता से क्यों लेंगे.

सरकार के खोखले दावे

अब बात करते हैं संप्रग सरकार की. संप्रग सरकार के मुखिया के रूप में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने और संरक्षक के रूप में सोनिया गांधी ने 22 मई को पिछले 9 सालों का बखान करने के लिए 33 पृष्ठों का जो खाका पेश किया, वह वास्तव में  झूठ का पुलिंदा है. अब सरकार के इस पहले दावे को ही लें कि सरकार 4 सालों से अबाध गति से चल रही है तो सच यह है कि सरकार समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की राजनीतिक कमजोरियों और उन कमजोरियों की लगाम इस सरकार के हाथ में होने की वजह से चल रही है.

वर्ष 2009 में जब सरकार बनी थी तो सरकार बनाने वाले इस गठबंधन में 11 पार्टियां शामिल थीं. इस समय इस में केवल 9 हैं. इस में भी अजित सिंह का राष्ट्रीय लोकदल बाद में आया है. 2009 के बाद से विपक्ष को, सरकार विशेषकर कांगे्रस के नेताओं ने नकारात्मक राजनीति के लिए जम कर कोसा. स्वयं सोनिया गांधी ने अपने भाषण का एक बड़ा हिस्सा भाजपा की तीखी आलोचना पर केंद्रित किया.

कांगे्रस अपनेआप में कितनी आत्ममुग्ध है, इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बड़ी बेशर्मी से अपने रिपोर्टकार्ड में खुद ही सरकार ने सभी क्षेत्रों के लिए खुद को डिस्टिंक्शन मार्क्स दे दिए हैं. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से ले कर संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी तक ने 22 मई के अपने भाषण में आंतरिक सुरक्षा से ले कर विदेश, अर्थव्यवस्था जैसे सभी क्षेत्रों में कीर्तिमान बनाने की गाथा गाई. यही नहीं, जो कुछ नहीं हो सका, उस के लिए विपक्ष को दोषी ठहरा दिया.

आज सरकार जिन विधेयकों के नाम पर अपनी पीठ थपथपा रही है उन में से कइयों का तो अभी भविष्य ही तय नहीं है. सोनिया गांधी के ड्रीम प्रोजैक्ट खाद्य सुरक्षा विधेयक का भविष्य क्या होगा, कोई नहीं जानता. लेकिन उस की सहानुभूति लेने के लिए सरकार कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती. यही वजह है कि चौथी वर्षगांठ के मौके पर सब से ज्यादा सोनिया गांधी ने इसी का जिक्र किया. दरअसल, सरकार इस गफलत में है कि जैसे पिछली बार मनरेगा ने उस की नैया पार लगाई थी, वैसे ही इस बार खाद्य सुरक्षा बिल लगा देगा. मनरेगा को भी सरकार ने भारत का नक्शा बदलने वाला आइडिया बताया, तब इस प्रोजैक्ट की बजट राशि क्यों घटाई जा रही है? हकीकत यह है कि मनरेगा भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा जरिया बन चुका है.

वास्तव में चौथी वर्षगांठ से भी कई दिन पहले जो बड़ेबड़े सरकारी विज्ञापन हर जगह दिखने शुरू हो गए हैं, दरअसल, भारत निर्माण के नाम पर वे उसी ‘शाइनिंग इंडिया’ की याद दिला रहे हैं जो प्रमोद महाजन के नेतृत्व में वाजपेयी सरकार ने वर्ष 2008 में शुरू किया था, चुनावों के कुछ दिन पहले. लेकिन कांगे्रस को याद करना चाहिए कि  झूठमूठ की शेखी कितनी भारी पड़ती है. एनडीए तब से आज तक लौट कर सत्ता का स्वाद नहीं चख सका.

बजट कहीं बिगड़ न जाए

अचानक अखबार में छपे एक समाचार पर नजर पड़ी. खबर कुछ यों थी :

‘छंटनी के बाद नौकरी से निकाले गए कुछ सौफ्टवेयर इंजीनियर्स रात के समय लूट करते हुए पकड़े गए. जब पुलिस ने तहकीकात की तो पता चला कि नौकरी के दौरान जरूरत से ज्यादा ऋण लेने के कारण ईएमआई यानी मासिक किस्त चुकाने के लिए इन लोगों ने वारदात को अंजाम दिया.’

दरअसल, लोगों में अनावश्यक खरीदारी को ले कर रुझान बढ़ा है. जिस के चलते अन्य लोगों की देखादेखी घर में सामान का जमावड़ा लगा देते हैं. ऐसा क्यों होता है कि जब लोग बाजार में जाते हैं तो दिखाई दे रही हर वस्तु उन के लिए जरूरी लगने लगती है? इस के पीछे कौन सी मानसिकता काम करती है?

मशहूर लेखक डेल कारनेगी कहते हैं कि आदमी के अंदर बड़ा बनने की लालसा जन्मजात होती है. उन्होंने यह भी कहा है कि लालसा बहुत गहराई से आती है. और इसी का फायदा बाजार भी उठा रहा है.

एक मध्यवर्गीय परिवार में घर की अलमारी में कपड़ों का अंबार लगा रहता है. ऐसे भी कपड़े मिल जाएंगे जिन्हें साल में एक बार भी पहनने का मौका नहीं आया हो.

महिलाओं की बात तो पूछिए मत. वे अपने को महत्त्वपूर्ण दिखाने के लिए क्या कुछ नहीं करतीं. इस आलेख का उद्देश्य किसी के व्यक्तिगत शौक पर कटाक्ष करना नहीं है बल्कि यह बताना है कि खरीदारी करने से पहले अच्छे से विचार कर लें कि क्या वाकई आप को उस चीज की जरूरत है या किसी मित्र व रिश्तेदार को देख कर खरीद रहे हैं या फिर उन्हें नीचा दिखाने के लिए तो ऐसा नहीं कर रहे हैं. इस बात का भी ध्यान रखें कि इस खरीदारी से घर का बजट तो नहीं गड़बड़ाएगा जिस की कीमत परिवार को कष्ट उठा कर चुकानी पड़े. यदि जवाब ईमानदारी से आप के परिवार के पक्ष में जाता है तो आगे बढ़ें वरना रुक जाएं.

ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो महीने दो महीने में टैलीविजन, मोबाइल और गाड़ी बदलते हैं पर एक निश्चित आमदनी वाले को तो यह समझना ही पड़ेगा कि वह अपने बजट को न बिगाड़े. त्योहारों के समय तो कंपनियों द्वारा बड़ेबड़े इश्तिहार दे कर ग्राहकों को लुभाने की कोशिश की जाती है. इस चक्कर में पड़ कर कई लोग लंबी किस्तों के चक्कर में भी पड़ जाते हैं. यह आप को तय करना है कि इस झमेले में पड़ना है या नहीं. किसी भी किस्त के लंबे समय तक भुगतान का अंतिम कष्ट सिर्फ आप को ही सहन करना है.

घर के मुखिया को सारी बातें सोच कर निर्णय लेना चाहिए. हर दिन नएनए इलैक्ट्रौनिक उपकरण खरीदने से पहले अपनी जरूरत का विवेकपूर्ण विश्लेषण करें. बजट के साथ लयताल बैठ रही है या नहीं, सुनिश्चित करें फिर खरीदें. खरीदार की कमजोरी व्यवसायी अच्छी तरह से जानता है. धंधे में वह अपना मुनाफा नहीं छोड़ता. कुछ लोगों को घर में जब तक कोई नई वस्तु या इलैक्ट्रौनिक आइटम न आ जाए, संतुष्टि नहीं होती और बाद में वे किस्त भरने और कर्ज चुकाने में परेशान रहते हैं.

एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मध्यवर्ग के लोगों में भीड़ को देख कर चलने की आदत होती है. भीड़ की चाल भेड़चाल की तरह होती है, कोई बौद्धिक लक्ष्य उन के सामने नहीं होता. कुछ लोग इस खुशफहमी में रहते हैं कि उन के पास दूसरों से बेहतर कोई सामान होगा तो वे समाज में विशिष्ट कहलाएंगे. नतीजतन, हर समय वे इसी उधेड़बुन में लगे रहते हैं कि क्या करने से वे खास दिखने लगेंगे. आज तक उन्हें यह सम?ा नहीं आया कि दुनिया की नजर बहुत पैनी है. विशेष आदमी और सामान्य आदमी में भेद आसानी से कर लेती है. मेरे एक सहकर्मी थे, हमेशा कहते थे कि खाते में 10 हजार रुपए बने रहने का सुख बड़ा होता है न कि 10 हजार रुपए का मोबाइल लो और 100-50 का बैलेंस रखो. अनावश्यक खरीदारी के बजाय बुरे वक्त के लिए पैसा बचाना  ही समझदारी है ताकि भविष्य में किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़े.

सियासी अखाड़े में दिग्गजों के सपूत

वे अपने पिता की तरह दरगाहों पर सिर  झुकाते हैं, चादर चढ़ाते हैं. भीड़ में खड़े किसी बड़ेबूढ़े के कंधे पर हाथ रख कर उस का हालचाल पूछते हैं, उस के पैर छू कर आशीर्वाद लेते हैं. मुसलिम टोपी पहन कर फोटो खिंचवाते हैं. पिछड़ी और दलित बस्तियों में घूमते हैं, गरीबों की  झोंपडि़यों में जा कर पानी, दूध और लस्सी पीते हैं. भीड़ को देख हाथ जोड़ कर प्रणाम करते हैं. गरीबों की तरक्की की बातें करते हैं. समाज के पिछड़े लोगों को इंसाफ और अधिकार न मिलने पर राज्य और केंद्र सरकारों को कठघरे में खड़ा करते हैं.

दरअसल, राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और लोक जनशक्ति पार्टी सुप्रीमो रामविलास पासवान के बेटे अपनेअपने पिताओं के सियासी हथकंडों को सीखने की कवायद में जुटे हैं. अपनेअपने पिताओं की दलितों और पिछड़ों की सियासत को आगे बढ़ाने व उन की लस्तपस्त पार्टी में नई जान फूंकने का बो झ इन्होंने अपनेअपने कंधों पर उठा लिया है. अगले लोकसभा चुनाव में पार्टी की नैया पार लगाने की जिम्मेदारी इन्हें ही सौंपी गई है.

दिलचस्प बात यह है कि लालू और पासवान के बेटों का पहला शौक राजनीति नहीं है. पिता की राजनीतिक विरासत को संभालने के बजाय बेटों ने अलग राह बनाने की पूरी कोशिश की पर वे कामयाब नहीं हो सके. लालू के बेटे तेजस्वी यादव क्रिकेट खिलाड़ी बनना चाहते थे. दिल्ली अंडर-19 क्रिकेट टीम में खेलने के बाद उन्हें आईपीएल की दिल्ली डेयर डेविल्स टीम के लिए चुना गया लेकिन कुछ कमाल न दिखा सके. लालू यादव के एक और बेटे तेजप्रताप यादव भी राजनीति में सक्रिय हैं.

इसी तरह रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान ने बौलीवुड में फिल्म ‘मिले न मिले हम’ से ऐक्टिंग के क्षेत्र में कदम रखा लेकिन असफल रहे. चिराग भी अपने पिता की पार्टी लोजपा की  झोंपड़ी (लोजपा का चुनाव चिह्न) को रोशन करने की जुगत में लग गए हैं. वे पार्टी की सभाओं और जलसों में हिस्सा ले कर भाषण  झाड़ रहे हैं.

लालू और पासवान के बेटों की नजर बिहार के युवा वोटरों पर है, जो राजनीति से कटा हुआ है और वोट डालने से कतराता है. बिहार में 1,71,09,728 युवा वोटर हैं. इन में 18 से 19 साल के वोटरों की संख्या 19 लाख के करीब है. 20 से 29 साल के वोटरों की संख्या 1 करोड़ 53 लाख के आसपास है. तेजप्रताप कहते हैं कि युवाओं को सियासत के प्रति जागरूक करने के बाद ही सियासत का तौरतरीका बदलेगा और सूबे की तरक्की हो सकेगी.

बिहार में लालू यादव और रामविलास पासवान की डगमगाती सियासी नैया को संभालने के लिए उन के बेटों ने पतवार थाम ली है. अपनेअपने पिताओं के ठेठ गंवई अंदाज से इतर बेटों ने अपने अलग अंदाज गढ़ते हुए अपनी पार्टियों को नए सिरे से एकजुट करने और राज्य सरकार पर हल्ला बोलने की रणनीति बनानी शुरू कर दी है. लालू और पासवान ने अपनेअपने बेटों को खासी छूट भी दे रखी है और अब उन के बेटे मंच पर पिता की गैरमौजूदगी में भी पार्टी के कार्यक्रमों में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं.

पिछले दिनों मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गढ़ बिहारशरीफ में युवा राजद के कार्यकर्ता सम्मेलन में 23 साल के तेजस्वी यादव ने नीतीश सरकार पर जम कर हमला बोला. उन्होंने कहा कि बिहार में पढ़ाईलिखाई की व्यवस्था पूरी तरह से चौपट है. अपराध बढ़ता जा रहा है. शासन नाम की कोई चीज नहीं रह गई है. यह बात वे हर सभा में बोलते हैं, ‘बिहार बीमार है, बिहार लाचार है, इस का सही इलाज कराए जाने की जरूरत है, और यह काम युवा ही कर सकते हैं.’

लालू के लाल तेजस्वी और तेजप्रताप यादव केवल लफ्फाजी ही नहीं कर रहे हैं बल्कि उन्होंने तो पार्टी के लिए नई रणनीति भी गढ़ ली है. तेजस्वी कहते हैं कि अगले लोकसभा चुनाव में पार्टी 50-60 फीसदी टिकट युवाओं को देगी और उम्मीदवारों का चयन नेता नहीं बल्कि जनता करेगी. जनता के बीच सर्वे करा कर उम्मीदवार तय किए जाएंगे. उन्होंने कहा कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे, जनता के बीच रह कर राजनीति का काम करेंगे. उन्होंने राहुल गांधी को मेहनती और अच्छा नेता करार देते हुए कहा कि वे बेहतर प्रधानमंत्री साबित होंगे.

तेजस्वी इस बात पर जोर देते हैं कि महिला आयोग और बाल आयोग की तरह युवा आयोग बनाने की जरूरत है, इस से युवाओं को अपनी बात रखने का मौका मिल सकेगा.

पिछले दिनों चौहरमल महोत्सव में वे रामविलास के साथ चिराग भी मंच पर नजर आए. बारबार बातबेबात मुसकरा कर और हाथ जोड़ कर जनता को प्रणाम कर चिराग सियासत की एबीसीडी तेजी से सीख रहे हैं. चिराग कहते हैं कि नीतीश चिकनीचुपड़ी बातों से सत्ता पर कब्जा जमाए हुए हैं, पर जनता अब उन की चालों को सम झ चुकी है और अगले लोकसभा चुनाव में बिहार में राजग गठबंधन की हवा निकल जाएगी.
चिराग आगे कहते हैं कि वे बौलीवुड में जमने की कोशिश कर रहे हैं पर राजनीति तो उन की रगों में दौड़ती है. वे कहते हैं,  ‘मैं राजनीति से न दूर था, न हूं और न रहूंगा.’

दलित और पिछड़ों की राजनीति कर बिहार से ले कर दिल्ली तक अपना रौब और धौंस गांठने वाले लालू यादव और रामविलास पासवान के बेटे आंखें मूंद कर अपने पिता के राजनीतिक फार्मूले के इस्तेमाल करने के मूड में नहीं हैं. पिता जहां दलित और पिछड़ों को आवाज देने को ही अपनी कामयाबी मानते हैं वहीं उन के बेटे साफ कहते हैं कि पिछड़ों को तालीम दिलाने के बाद ही असली तरक्की हो सकेगी. पढ़ने के बाद हर कोई अपना रास्ता खुद बना ही लेता है, उसे किसी बैसाखी की दरकार नहीं रहती है.

बिहार में लोकसभा की कुल 40 सीटें हैं. इन में से 32 पर राजग का कब्जा है. साल 2009 के आम चुनाव में जदयू के खाते में 20 सीटें गई थीं और 12 भाजपा की  झोली में गई थीं. राजद को 4 सीटों पर जीत मिली जबकि लोजपा को एक भी सीट पर जीत नहीं मिली थी. कांगे्रस और निर्दलीय ने 2-2 सीटों पर कब्जा जमाया था. 2004 के आम चुनाव में राजद के खाते में 22 और लोजपा के पास 4 सीटें थीं. अब 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव के नतीजे ही बताएंगे कि लालू और पासवान के लड़के खुद को बाप से बढ़ कर साबित कर पाते हैं या नहीं.

तेजस्वी की चौपाल यात्रा

लालू के बेटे तेजस्वी यादव ने राजद की परिवर्तन रैली के बाद ‘चौपाल यात्रा’ शुरू करने का ऐलान किया है. उन्होंने कहा कि वे युवाओं को जगाने और उन्हें एक मंच पर लाने के लिए यात्रा पर निकलेंगे. गांवों और पंचायतों की चौपालों में सभा कर के युवाओं को राजनीति से जोड़ने व वोट के अधिकार का इस्तेमाल करने के लिए उन्हें प्रेरित किया जाएगा.

अपने पिता को अपना रोल मौडल मानने वाले तेजस्वी कहते हैं कि बिहार में मतदान का प्रतिशत काफी कम होता है. इसलिए जब तक युवाओं को राजनीति से नहीं जोड़ा जाएगा तब तक सियासत और सरकार का ढर्रा नहीं बदल सकता.
आरक्षण के मसले पर तेजस्वी कहते हैं कि यह जरूरी है पर समय के साथ इस में कुछ बदलाव करने की जरूरत है.

दीपक भारद्वाज हत्याकांड- रिश्तों पर भारी दौलत

बहुजन समाज पार्टी के अरबपति नेता दीपक भारद्वाज ने रियल एस्टेट के कारोबार में बेशुमार दौलत कमाई और यही दौलत उन की मौत का कारण बनी. पढ़ेलिखे बेटे ने बाप की हत्या की सुपारी दे कर हमारे बदलते समाज की एक घिनौनी तसवीर पेश की है. बता रहे हैं किशोर नैथानी.

शानोशौकत की जिंदगी, समाज में बड़े रुतबे की चाहत, विरासत गंवाने का डर, आपसी रंजिश, प्रतिस्पर्धा, अवैध संबंध, धोखाधड़ी और लालच, ये कुछ ऐसे अनबु?ो सवाल हैं जिन का जवाब खुद दीपक भारद्वाज ही दे सकते थे. बहुजन समाज पार्टी के अरबपति नेता दीपक भारद्वाज की 24 मार्च को उन के फार्महाउस में पेशेवर शूटरों ने गोलियों से भून कर हत्या कर दी.

दीपक भारद्वाज हरियाणा के एक छोटे से गांव को छोड़ कर 70 के दशक में दिल्ली आ गए थे. बढ़ई के घर पैदा हुए दीपक का रियल एस्टेट का धंधा ऐसा चल पड़ा कि कुछ ही सालों में दौलत उन के कदम चूमने लगी. दीपक इसी मद में इतना चूर हो गए कि पहले उन्होंने नातेरिश्तेदारों से किनारा कर लिया और फिर मातापिता द्वारा दिया गया नाम देवी सिंह खाती को बदल कर दीपक भारद्वाज रख लिया.

घरपरिवार व रिश्तेदारों के लिए दीपक की गतिविधियां वर्षों तक रहस्यमय बनी रहीं. लेकिन जब 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने सब से धनी प्रत्याशियों की सूची में देवी सिंह खाती की अखबारों में फोटो देखी, तो लोग हैरत में पड़ गए. बसपा उम्मीदवार के रूप में वे चुनावी मैदान में थे. उन्होंने अपनी आमदनी के जानकारी ब्योरे में 602 करोड़ रुपए की संपत्ति दर्ज की थी. वे सब से धनी प्रत्याशी के रूप में चर्चा में रहे थे.

नेताओं के करीबी थे भारद्वाज

भले ही वे चुनाव में अपनी जमानत नहीं बचा पाए थे लेकिन यह चुनावी कदम उन के कारोबार के लिहाज से सार्थक और फायदेमंद रहा. राजनीति में कूदने का सब से बड़ा फायदा यह मिला कि वे दिग्गज नेताओं के बेहद करीब आ गए और उन रिश्तों को खूब भुनाया. कई राज्यों खासकर उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में बतौर बिल्डर उन्होंने कई प्रोजैक्टों पर काम किया. अपने गृहराज्य हरियाणा के बहादुरगढ़ में उन का 30 एकड़ जमीन को ले कर स्वामी प्रतिभानंद से विवाद चल रहा था. स्वामी प्रतिभानंद वही शख्स है जिसे दीपक हत्याकांड का मास्टरमाइंड कहा जा रहा है. प्रतिभानंद की हैसियत दीपक को पटकनी देने की नहीं थी, इसलिए वह दमदार व्यक्ति की तलाश में था जिस के कंधे पर बंदूक रख कर उस का मकसद पूरा हो जाता. उस के इरादे जब प्रौपर्टी डीलिंग पार्टनर बलजीत सिंह को पता चले तो उस ने स्वामी की मुलाकात दीपक के बेटे नितेश से करवाई.

नितेश प्रौपर्टी और पैसों के विवाद को ले कर पिता को रास्ते से हटाना चाहता था. उस के पिता उसे अपनी संपत्ति से बेदखल करने की कई बार धमकी दे चुके थे. मां के प्रति पिता के दुर्व्यवहार के कारण भी उस की खुन्नस थी. उसे शक था कि कहीं पिता उस की मां से तलाक ले कर सारी जायदाद अपनी महिलामित्र के नाम न कर दें. ऐसे में उसे लग रहा था कि पिता को रास्ते से हटाने के बाद वह खुदबखुद खरबों की संपत्ति का वारिस बन जाएगा.

नितेश का वकील दोस्त बलजीत सहरावत इस योजना में इसलिए शामिल हुआ कि वह आर्थिक रूप से मजबूत हो कर बड़ी हैसियत वाला नेता बन जाएगा. उधर, अपनी आदतों के चलते आश्रमों से निकाले जाने से परेशान स्वामी प्रतिभानंद पैसों से अपना आश्रम खोलना चाहता था. यानी दीपक की हत्या में तीनों के अपनेअपने हित जुड़े थे. बातचीत का दौर चलता रहा और अक्तूबर में तीनों ने दीपक को ठिकाने लगाए जाने की योजना बनाई. नितेश से 5 करोड़ की सुपारी पर बात बनी. नितेश ने स्वामी प्रतिभानंद को बतौर पेशगी 10 लाख रुपए दिए.

स्वामी प्रतिभानंद ने अपने बेहद करीबी ड्राइवर पुरुषोत्तम को मालामाल करने का लालच दे कर दीपक की हत्या करने की योजना में शामिल कर लिया. पुरुषोत्तम ने अपने दोस्त अमित के घर पर योजना बनाई. सुनील, नीरज और राकेश उस में शामिल हुए. सभी चाहते थे कि इस हत्याकांड को जल्दी से जल्दी अंजाम दिया जाए.

लालच में बुरे फंसे

नितेश, बलजीत और प्रतिभानंद की इच्छा शीघ्र ही मालामाल होने की थी. इसी कारण जनवरी से मार्च महीनों के बीच दीपक पर 2 बार कातिलाना हमले हुए हालांकि वे बालबाल बच गए. हत्यारों को पैसों की जल्दी थी. वे इस बार कोई मौका नहीं चूकना चाहते थे.

उधर, दुश्मनों के इरादों ने दीपक को सावधान कर दिया था. उन्होंने बाहर निकलना बंद कर दिया था और किसी भी हमले से बचने के लिए सुरक्षा प्रबंधों को चुस्त कर लिया था. सीसीटीवी कैमरे पलपल पर नजर रखे हुए थे. बेहद करीबी लोगों को ही फार्महाउस में घुसने की अनुमति थी. नितेश की भले ही पिता से अनबन रहती थी लेकिन पिता की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए उस का आनाजाना लगा रहता था. वह लौट कर सारी जानकारियां स्वामी प्रतिभानंद को देता था. इस आधार पर प्रतिभानंद हत्या का जाल बुनता रहता था.

दीपक वैसे तो प्रौपर्टी के धंधे में आने के बाद दुश्मनी की हर चाल से वाकिफ हो चुके थे लेकिन उन्होंने सोचा भी नहीं था कि उन का बेटा भीतरघात करेगा. नितेश से उन का गहरा लगाव था इसलिए उसे उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए विदेश भेजा था. बापबेटे में बारबार अनबन होने के बावजूद पिछले दिसंबर महीने में दीपक ने नितेश को प्रौपर्टी खरीदने के लिए 50 लाख रुपए दिए थे. नितेश ने सुपारी की पहली किस्त देने के लिए पिता से बड़ा फ्लैट लेने के लिए पैसा देने का दबाव बनाया था. यही पैसा नितेश ने वकील दोस्त बलजीत सहरावत के माध्यम से स्वामी प्रतिभानंद को दिया था.

बेहद शातिर दिमाग वाले प्रतिभानंद ने अपने ड्राइवर पुरुषोत्तम के माध्यम से उस के दोस्त और रिश्तेदारों को हत्या के लिए तैयार किया. बाहरी दिल्ली के राजू नामक व्यक्ति से इन्होंने हथियार खरीदे और हत्याकांड को अंजाम देने के बाद उन्हें हरियाणा की एक नहर में फेंक दिया.

हत्यारे पूरी तरह से पेशेवर नहीं थे, इसलिए पुलिस की जांच का दायरा बढ़ने के साथ ही कुछ दिनों के भीतर वे पकड़ लिए गए. हत्यारों से सब से बड़ी गलती यह हुई कि जिस कार का उन्होंने इस्तेमाल किया था उस की नंबर प्लेट बदलने तक की जहमत नहीं उठाई. कार नंबर का पता लगते ही पुलिस मालिक के घर पहुंच गई.

हत्यारे फार्महाउस में शादी की बुकिंग के बहाने घुसे थे. उन्हें यह पता था कि दीपक सुबह घास पर टहलते हैं. इसलिए वे आसानी से उन का शिकार बन सकते हैं. लेकिन वे इस बात से अनजान थे कि सीसीटीवी कैमरे उन की सारी गतिविधियों को कैद कर रहे हैं. फुटेज में उन के चेहरे पहचान लिए गए. एक शूटर के पकड़े जाने के बाद उस पर पुलिस का डंडा बरसा तो उस ने एकएक कर के अपने साथियों के नाम गिना दिए.

सलाखों के पीछे पहुंचे आरोपी

फिलहाल 9 में से 8 आरोपी सलाखों के पीछे पहुंच गए हैं. शेष एक आरोपी पुलिस की गिरफ्त से दूर है. पुलिस ने बलजीत सहरावत को गिरफ्तार कर जब नितेश के सामने पेश किया तो नितेश टूट गया. पुलिस के मुताबिक उस ने पिता की हत्या के लिए 5 करोड़ रुपए की सुपारी दी थी. वैसे इस हत्याकांड में अभी कई खुलासे हो सकते हैं. दीपक की पत्नी से ले कर दूसरे कई लोगों पर पुलिस की नजर है.

दीपक का जीवन हमेशा से काफी विवादास्पद रहा है. उन की मौत भी विवादास्पद बन गई है. बेशुमार दौलत कमाने के साथ उन्होंने कई ऐब पाल रखे थे. उन के कई महिलाओं से करीबी संपर्क थे. इसी कारण पत्नीबच्चों से नहीं बनती थी. उन की दौलत रिश्तों पर भारी पड़ गई थी. अपनी विलासिता वाली जिंदगी में पत्नी को बाधा बनते देख उन्होंने उसे अपनी जिंदगी से निकाल फेंका. दोनों बेटे द्वारका में 8 साल से 1 कमरे के मकान में रहते थे, जबकि दीपक 35 एकड़ में फैले अरबों रुपए के आलीशान फार्महाउस में अकेले रहते थे.

राष्ट्रीय शिक्षा अभियान- अरबों स्वाहा नतीजा सिफर

भारत में सब को शिक्षित करने के इरादे से चलाई गई ‘सर्वशिक्षा अभियान’ योजना सफेद हाथी की शक्ल अख्तियार कर चुकी है. आम लोगों के मेहनत की गाढ़ी कमाई के अरबों रुपए सरकार द्वारा खर्च कर दिए जाने के बावजूद भारतीय शिक्षा का स्तर व गुणवत्ता बेहद शर्मनाक है. पढि़ए कपिल अग्रवाल का लेख.

हिंदी माध्यम के 10वीं पास विद्यार्थी को सादा जोड़घटाना तो दूर, अक्षरों व मात्राओं तक का ज्ञान नहीं होता. अंगरेजी माध्यम के स्कूलों की हालत इस से भी ज्यादा खराब है. हिंदी पर ध्यान नहीं दिया जाता और अंगरेजी केवल किताबी ज्ञान तक सीमित कर दी जाती है. विद्यार्थी सही ढंग से अंगरेजी में एक प्रार्थनापत्र तक नहीं लिख सकता. यानी 3 तरह से देश को नुकसान झेलना पड़ा रहा है. पहला, हर साल सरकार की शिक्षा के नाम पर खर्च होने वाली अरबों रुपए की राशि मिट्टी में मिल रही है. दूसरा, मांबाप अपनी गाढ़ी कमाई पब्लिक स्कूलों में झोंकने के बावजूद कोई नतीजा हासिल नहीं कर पाते. पर इस सब से परे एक ऐसा नुकसान है जिस का अंजाम देश को कदमकदम पर भुगतना पड़ता है और वह है महत्त्वपूर्ण कामकाज में त्रुटियां व अज्ञानता. यह हाल तो तब है जब हमारी सरकार हर साल शिक्षा के मद में अरबों रुपए का प्रावधान बजट में करती है. इस बार 50 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है.

यह सब सिर्फ हमारे यहां ही नहीं है, उन्नत समझे जाने वाले विश्व के तमाम देशों में भी कुछ ऐसी ही हालत है. हाल ही में कनाडा की 2 कंपनियों को मात्र एक अर्द्धविराम गलत जगह लगा देने के कारण कई अरब डौलर के करार से हाथ धोना पड़ा. गत दिनों विश्व बैंक की एक टीम ने तमाम देशों के अलावा अपने देश के कई राज्यों का दौरा कर शिक्षा के स्तर व गुणवत्ता की माप की. इस में हिंदी माध्यम के सरकारी स्कूल व अंगरेजी माध्यम के तमाम मशहूर स्कूलों को लिया गया. टीम ने पाया कि आजकल शिक्षा का वैश्विक स्तर काफी गिर चुका है. विश्वभर में कुछ चुनिंदा स्कूल व संस्थान ही हैं जो वास्तव में सही शिक्षा प्रदान कर रहे हैं.

दरअसल, काम चाहे कंप्यूटर से किया जाए चाहे मैनुअल, जब तक करने वाला ऐक्सपर्ट न हो तब तक सब बेकार ही है. टैंडरों, करारों, साझेदारी, व्यापारिक सौदे, सरकारी और अदालती कार्यवाहियां आदि में बेहद सतर्कता, ज्ञान, गुणवत्ता व सावधानी की जरूरत पड़ती है. एक बिंदु की मामूली सी गलती से बड़ेबड़े नुकसान झेलने पड़ जाते हैं.

गत दिनों रेलवे के एक टैंडर में बोलीदाता कंपनी एसआईआईएल को लिपिकीय त्रुटि की वजह से एक बहुत बड़े करार से हाथ धोना पड़ा. मात्र दशमलव की गलती से पूरे टैंडर का गणित ही बदल गया और मामला अदालती कार्यवाही के बाद ही निबटा. फ्रांस में तो एक मशहूर विश्वविद्यालय के पासआउट स्नातक ने एक सरकारी टैंडर में 500 अरब यूरो के स्थान पर 5 अरब यूरो लिख दिया  जिस के कारण 54 बोलीकर्ताओं को अदालत की शरण लेनी पड़ी और मामला लेदे कर बमुश्किल निबटा.

भारत में शिक्षा की गुणवत्ता व स्तर इतना ज्यादा खराब है कि इस तरह के मामले आएदिन सामने आते रहते हैं. चतुर व काइयां प्रवृत्ति की पार्टियां ऐसी गलतियों का फायदा सांठगांठ कर के, जम कर उठाती हैं.

तमाम क्षेत्रों की तरह इस क्षेत्र में भी भारत सरकार को हर साल अरबों रुपए की आर्थिक मदद ब्रिटेन, विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष व अमेरिका से प्राप्त होती है. पर जैसा कि होता चला आया है, करीब 80 फीसदी से भी ज्यादा की राशि मौजमस्ती व कोठीकारों में उड़ा दी जाती है.

भारत में शिक्षा पर राष्ट्रीय अभियान की शुरुआत वर्ष 2000 में दक्षिण अफ्रीका में संपन्न विश्व शिक्षा सम्मेलन के बाद हुई. इस सम्मेलन के बाद ही तय किया गया कि तमाम अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों व शक्तिशाली अमीर राष्ट्रों की मदद से भारत की गरीब अशिक्षित जनता को पढ़ालिखा कर विद्वान बनाया जाएगा. देशभर के 6 से 14 वर्ष तक के हर बच्चे के लिए मुफ्त शिक्षा की घोषणा कर दी गई. इसी के तहत एक शैक्षिक कार्यक्रम ‘सर्वशिक्षा अभियान’ की शुरुआत की गई. इस के बाद सन 2012 तक के कुल 13 सालों के दौरान कई खरब रुपए की महाविशाल राशि स्वाहा कर दी गई. ऐसीऐसी जगह पंखे, एसी, कंप्यूटर लगा दिए गए जहां बिजली तो दूर उस के खंभे भी नहीं थे.

हाल ही में भारत के सर्वशिक्षा अभियान के तहत ब्रिटिश सरकार ने भारत को 34 करोड़ पौंड की मदद दी थी. कैग के एक औडिट में यह बात सामने आई कि इस रकम में से 7 करोड़ पौंड (करीब 500 करोड़ रुपए) भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए. करीब 1.4 करोड़ पौंड तो ऐसे साजोसामान की खरीद में खर्च कर दिए गए जिन का स्कूलों से दूरदूर तक वास्ता नहीं था. ब्रिटिश मीडिया में सुर्खी बनी रिपोर्ट के मुताबिक, देशभर में इस राशि से अधिकारियों ने महंगी आलीशान गाडि़यां, कोठियां, कंप्यूटर, लैपटौप आदि खरीदे. स्कूलों के खर्चे में डाली गई रकम से फोटोकौपियर, महंगे मोबाइल, एयरकंडीशनर व एलसीडी टैलीविजन की खरीद भी पकड़ी गई.

कैग का हवाला देते हुए ब्रिटिश मीडिया में बताया गया कि यह सब सामग्री ऐसे स्कूलों के नाम पर खरीदी गई जो अस्तित्व में ही नहीं थे. इसी प्रकार बगैर कोई स्पष्टीकरण के 11 लाख पौंड (करीब 10 करोड़ रुपए) की राशि कई बैंक खातों में जमा कर दी गई. एक महिला ने 60 लाख पौंड की राशि गबन कर रियल एस्टेट व फिल्म निर्माण में लगा दी. ऐसे ही एक अन्य मामले में विश्व बैंक से प्राप्त 1400 करोड़ रुपए की अनुदान राशि से दुबई, गोआ, मुंबई व ग्रेटर नोएडा में 7 आलीशान फार्म हाउस व होटल खरीदे गए.

देश के सर्वाधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश को वर्ष 2010-11 में 15 हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा की राशि शिक्षा का स्तर सुधारने व विकसित करने हेतु दी गई पर विश्व बैंक के सर्वेक्षण में ऐसा महसूस किया गया कि वहां 100 करोड़ रुपए भी सही ढंग से खर्च नहीं किए गए. मेरठ महानगर के इंचौली स्थित नया गांव प्राथमिक विद्यालय में जब टीम पहुंची तो 2 छोटेछोटे बच्चे बरामदे में झाड़ू लगाते मिले और अंदर 4-5 बच्चे रोटी बनाने में लगे हुए थे. इस स्कूल में 5वीं तक पढ़ाई होती है और प्रधानाचार्य समेत कुल 4 शिक्षक हैं.

गांव वालों से पूछने पर मालूम पड़ा कि शिक्षकों की ड्यूटी अकसर तमाम अन्य सरकारी कार्यों तथा वोटर लिस्ट, वोटर आईकार्ड, जनगणना आदि में लगा दी जाती है और माह में कुल 4-5 दिन ही पढ़ाई हो पाती है. कमरे की टूटी छतें, क्लासरूम में एक तरफ ईंटों के ढेर व दूसरी तरफ उपले व लकडि़यां, सूखे हैंडपंप, शौचालय के स्थान पर गंदी, बदबूदार नालियां, टूटे व जर्जर ब्लैकबोर्ड और एक पेड़ के नीचे जमीन पर बैठ कर पढ़ रहे गिनती के बच्चे देख कर टीम हैरान रह गई. मेरठ के 78 फीसदी स्कूलों की हालत लगभग ऐसी ही पाई गई. केवल मेरठ ही में 906 प्राइमरी व

432 जूनियर हाईस्कूल हैं. उत्तर प्रदेश में वर्ष 2011 में प्रति स्कूल 5 से 10 लाख रुपए की राशि जीर्णोद्धार के लिए आवंटित की जा चुकी थी पर उस का कोई हिसाबकिताब नहीं. विश्व बैंक जैसी संस्थाओं की रियायती मदद से चलाए जा रहे सर्व शिक्षा अभियान के तहत स्कूल का भवन, किताबकौपी आदि समस्त स्टेशनरी, स्कूल ड्रैस, मिड डे मील आदि की व्यवस्था का प्रावधान है मगर विभिन्न स्वतंत्र एजेंसियों, भारत के महालेखाकार (कैग) और स्वयं विश्व बैंक की रिपोर्टें बताती हैं कि 85 फीसदी से भी ज्यादा की राशि का भारी दुरुपयोग हो रहा है.

जालंधर के पास के एक गांव कुराल ढोल में 859 बच्चों की सरकारी प्राइमरी पाठशाला का हाल देख कर टीम अचंभित रह गई. स्कूल में बच्चे जमीन पर बैठे हुए मिले और केवल 2 स्थायी शिक्षक वहां नियुक्त थे. वहां मिड डे मील की स्कीम भी बंद थी. जबकि इस के खर्चे बराबर दिखाए जा रहे थे. लुधियाना, अमृतसर, पठानकोट आदि तमाम जगह समान हालत पाई गई.

पंजाब में सरकार के प्राइमरी स्कूलों व हाईस्कूलों की कुल संख्या 20 हजार से भी ज्यादा है और इन में कई लाख बच्चे पढ़ाई करते हैं. एजेंसियों की रिपोर्ट के मुताबिक पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे गरीब व मध्य वर्गीय परिवारों से हैं, जिन में पढ़ने की अकूत ललक है. लेकिन इन्हें कैसी शिक्षा मिल रही है, स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं हैं भी या नहीं और शिक्षक बच्चों को सही तालीम देने के लिए कितने काबिल हैं, इस की सुध लेने वाला कोई नहीं है.

केंद्र व राज्य सरकारें शिक्षा के प्रचारप्रसार पर हर वर्ष करोड़ों रुपए खर्च कर रही हैं. नएनए अधिनियम बना रही हैं और नए स्कूलों को खोलने की जरूरत पर बल दे रही हैं परंतु देश में शिक्षा की तसवीर कुछ और ही कहानी कह रही है पर राज्यों में शिक्षा के तीव्र गति से हो रहे निजीकरण और व्यवसायीकरण के चलते गरीब बच्चों से शिक्षा दूर की कौड़ी होती नजर आ रही है.

सरकार की शिक्षा नीति का वास्तविक उद्देश्य तो यही लगता है कि वह शिक्षा माफिया की संस्थाओं को अनुदान बांटने के अलावा कुछ नहीं कर रही है. एक ओर निजी स्कूल जहां सभी प्रकार की सुविधा उपलब्ध कराने के नाम पर मोटी फीस वसूलते हुए ऊंचीऊंची आलीशान इमारतें खड़ी कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर सरकारी स्कूलों की स्थिति भारीभरकम अनुदान के बावजूद दिनोंदिन खस्ता होती जा रही है. दोपहर का भोजन, मुफ्त स्कूल ड्रैस देने, पुस्तकें देने के बाद भी सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या तेजी से घट रही है.

स्थिति इतनी अधिक दयनीय हो गई है कि देश भर में 70 फीसदी सरकारी स्कूल बंद होने के कगार पर हैं. शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2010 के तहत शिक्षा हर बच्चे का मूलभूत अधिकार है और 6 से 14 वर्ष के बच्चे को नजदीकी स्कूल में मुफ्त आधारभूत शिक्षा प्राप्त करने का प्रावधान है. इस के बावजूद सरकार की शिक्षा नीति बेअसर साबित हो रही है.

महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, झारखंड आदि कई राज्यों की रिपोर्टें बताती हैं कि पढ़ने की ललक होने के बावजूद दुर्व्यवहार व खराब सुविधाओं के चलते विद्यार्थी बीच में ही पढ़ाई छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं. कई राज्यों में तो 10 हजार से भी ज्यादा विद्यालय ऐसे हैं जहां मात्र 1 से ले कर 5 विद्यार्थी हैं. इन सब से यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार की शिक्षा नीतियां कितनी खोखली व हास्यास्पद हैं.

एक ओर जहां मठाधीशों की संस्थाओं की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है, वहीं सरकारी स्कूलों को विद्यार्थियों के लाले पड़ रहे हैं. अब शिक्षा सत्र के प्रारंभ में शिक्षक विद्यार्थियों को ढूंढ़ते फिरते हैं और तरहतरह के लालच दे कर स्कूल में लाने का प्रयास करते हैं. इतना करने के बाद भी सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों का न आना चिंता का विषय है. फिर भी ऐसा नहीं लगता कि सरकार अपनी शिक्षा नीतियों की खामियों को दूर करने के प्रति गंभीर है.

टीम के महाराष्ट्र दौरे के दौरान पाया गया कि पुणे, मुंबई, औरंगाबाद, नागपुर आदि जिलों में पढ़ने आने वाले बच्चे झोंपड़पट्टी में रहने वाले या दिहाड़ीमजदूरों के होते हैं, इसलिए शासनप्रशासन इन सरकारी स्कूलों की ओर गंभीरता से ध्यान नहीं देता है. इन स्कूलों का कामकाज ‘सब चलता है’ के सिद्धांत पर निबटाया जाता है. कई जगह तो यह भी देखा गया है कि एक ही बच्चे का नाम 2-2 स्कूलों में दर्ज रहता है. इस की वजह यह है कि इन स्कूलों में कार्यरत शिक्षक व अन्य कर्मचारी किसी तरह विद्यार्थियों की पर्याप्त संख्या दर्शा कर अपनी ड्यूटी पूरी मान लेते हैं. उन को अपने वेतन की चिंता रहती है, शिक्षा स्तर से कोई लेनादेना नहीं.

यह तथ्य भी सामने आया है कि जिस बच्चे का नाम स्कूल में दर्ज है वह कभीकभार ही स्कूल गया है पर उस की उपस्थिति बराबर दर्ज की गई है. इस के अलावा कई स्कूलों में छात्रों की संख्या 3-4 है, पर शिक्षक 4 हैं, कई जगह स्थिति बिलकुल उल्टी है यानी विद्यार्थियों की संख्या ज्यादा पर शिक्षक 1 है. मेटाकुटीला नामक गांव में पहली से चौथी तक की पढ़ाई के लिए एक स्कूल है, जिस में 53 विद्यार्थी पढ़ने आते हैं पर यहां मुख्याध्यापक सहित मात्र 2 शिक्षक हैं. इस स्कूल की एक और खासीयत है कि यहां 52 लड़कों के बीच में मात्र 1 लड़की पढ़ने आती है, जबकि इस गांव की आबादी करीब 1 हजार लोगों की है. ये उदाहरण हमारी शिक्षा नीति की खामियों को उजागर ही तो करते हैं.

यह बड़ी अजीब बात है कि जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है. बच्चों के हिसाब से स्कूल पर्याप्त नहीं हैं, फिर भी सरकारी स्कूलों में कोई आना नहीं चाहता है. योजना आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, 40 फीसदी बच्चे प्राइमरी स्तर पर ही स्कूल छोड़ देते हैं. इस के अतिरिक्त स्कूल में नामांकित बच्चों के लगभग 23 फीसदी यानी करीबकरीब 4 करोड़ बच्चे स्कूल जाते ही नहीं.

40 फीसदी बच्चे 10वीं तक और 60 फीसदी छठी तक ही स्कूल में टिकते हैं. बच्चों को आकर्षित करने के लिए चलाई गई मिड डे मील योजना किसी भी प्रांत में ठीक से नहीं चलती. ज्यादातर स्कूलों में तैनात 1 या 2 अध्यापक जबतब मतगणना, पल्स पोलियो, बालगणना, चुनावी ड्यूटी जैसे तमाम गैर शैक्षिक कार्यों को निबटाने के बाद नून, तेल, लकड़ी, आटा, सब्जी में उलझे नजर आते हैं.

ऐसी स्थिति केवल भारत ही में नहीं बल्कि ब्रिटेन, अमेरिका, लैटिन अमेरिका व अफ्रीकी देशों में भी है. इस में विद्यार्थियों से ज्यादा कुसूर पढ़ाने वालों का है जिन्हें खुद ही ठीक से भाषा का व साधारण ज्ञान तक नहीं है. इसीलिए राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारीभरकम कामकाजी त्रुटियां होती रहती हैं जिन का खमियाजा कभीकभी भुगतना पड़ जाता है.

पहचान बनते ब्रैंड

‘मैं सिर्फ नाइकी के ही जूते पहनता हूं, हमारे स्कूल की यूनीफौर्म एडिडास की है, पहन कर मजा आ जाता है, ब्लैकबैरी के मोबाइल का तो कोई मुकाबला ही नहीं है, जब भी मैं पार्टी में जाती हूं, गुच्ची के ही बैग ले जाती हूं. वैसे तो मम्मी उसे हाथ नहीं लगाने देतीं, कहती हैं कि मैं अभी छोटी हूं.’

ये कुछ ऐसे संवाद हैं जिन्हें हम अकसर किशोर होते बच्चों के मुंह से सुनते रहते हैं. स्कूलकालेज में पढ़ने वाली यह पीढ़ी न सिर्फ अपनी ब्यूटी व हैल्थ के प्रति सजग है बल्कि ब्रैंडेड वस्तुओं से इतनी प्रभावित है कि उस की जिंदगी से जुड़ी हर चीज ब्रैंडमय होती जा रही है. फिर चाहे कपड़े हों या जूते, घड़ी हो या मोबाइल, कार हो या मोटरसाइकिल, पेय पदार्थ हो या चौकलेट. ये वे बच्चे हैं जिन्हें आप केवल उच्चवर्ग के कह कर नजरअंदाज नहीं कर सकते, क्योंकि मध्यवर्ग भी ब्रैंडेड वस्तुओं की जकड़ से अब अछूता नहीं रहा है. वहां भी इस की घुसपैठ तेजी से हो चुकी है, क्योंकि इसे ही आज फैशन, स्टाइल, स्टेटस और लग्जरी का प्रतीक माना जा रहा है. ब्रैंडेड वस्तुएं खरीदने के लिए अगर जेब भी खाली करनी पड़े तो भी न अभिभावकों को आज इस बात पर ऐतराज है और न किशोरों को.

इस की वजह है बहुत ही कम उम्र में बच्चों का कंज्यूमर बनते जाना. मीडिया व इंटरनैट की दुनिया से अत्यधिक करीबी की वजह से खरीदारी से जुड़े उन के निर्णयों को अब मान्यता दी जाने लगी है. खरीदारी करते समय उन का निर्णय अब महत्त्वपूर्ण हो गया है. वे अपने मातापिता को बताते हैं कि क्या खरीदना है और क्या नहीं. बाजार में क्या लेटैस्ट ब्रैंड्स उपलब्ध हैं, उस की जानकारी मातापिता को वही देने लगे हैं.

मध्यवर्ग व उच्चवर्ग के परिवारों में टीवी की घुसपैठ इतनी ज्यादा हो गई है कि वह उन की जिंदगी, उन की सोच और उन के खरीदारी करने के निर्णय पर हावी हो चुका है. बच्चे चूंकि ईजी टारगेट होते हैं और उन की बात को टालना अभिभावकों के लिए कठिन होता है इसलिए विक्रेता कंपनियां उन के नाम से चीजें बाजार में उतार कर लुभावने विज्ञापनों से उन्हें लुभाती हैं. बच्चों को ब्रैंड ऐंबैसेडर बनाने के पीछे भी उन की यही सोच काम करती है. मीडिया में प्रदर्शित ब्रैंड के नाम से आज 5 साल का बच्चा तक प्रभावित होने लगा है. जब तक वह स्कूल जाने लायक होता है, उसे हजारों ब्रैंड्स के नाम रट जाते हैं.

फास्ट फूड, खिलौने व कपड़े बनाने वाली कंपनियां इस तरह से आज की पीढ़ी पर हावी होती जा रही हैं कि उन के लिए ब्रैंड ही उन की पहचान का पर्याय बनते जा रहे हैं. प्रिंट व इलैक्ट्रौनिक मीडिया में लगातार दिखने वाले विज्ञापन युवाओं को यकीन दिलाने में सफल हो रहे हैं कि फलां ब्रैंड ज्यादा विश्वसनीय व सही है.

रजत 12वीं में पढ़ता है और रेबेन का चश्मा व टाइटन की घड़ी पहनता है. उस के लिए ब्रैंडेड चीजें स्टेटस सिंबल हैं. वह कहता है, ‘‘आज हर कोई ब्रैंड की महत्ता को समझता है. अच्छी चीजें ही महंगे दामों में मिलती हैं और इन्हें पहन कर एक क्लासी लुक आ जाता है. रीबौक के जूते में जो आराम मिलता है वह आम जूतों में कहां. आज उस का ही सम्मान किया जाता है जो बढि़या चीजें पहनता है. ब्रैंडेड चीजों से दूसरों पर रोब तो पड़ता ही है साथ ही पर्सनैलिटी में भी निखार आता है.’’

दूसरों पर अपना प्रभाव जमाने के लिए योग्यता या अच्छा छात्र होना उतना आवश्यक नहीं रहा है जितना कि महंगी चीजों को अपने शरीर से चिपकाए घूमना. ब्रैंड का मतलब है ग्लैमर की दुनिया में फिट होना. यही वजह है कि ब्रैंड बड़ी तेजी से हमारे जीवन पर हावी होते जा रहे हैं. ‘‘ब्रैंड एक इंप्रैशन छोड़ते हैं,’’ यह कहना है 16 वर्षीय वत्सल का.

आज स्थिति यह है कि वयस्कों की दुनिया का हिस्सा बन चुकी ब्रैंडेड वस्तुएं किशोरों और बच्चों के लिए स्टेटस सिंबल बनती जा रही हैं. नाइकी, एडिडास, डियोर, हाईडिजाइन, रीबौक, टाइटन आदि नाम उन के कान में संगीत की मधुर लहरियों की तरह गूंजते हैं. किसी ब्रैंड का टैग लगते ही उन के लिए आम चीज भी विशेष हो जाती है. जहां तक कार का सवाल है तो एक अध्ययन से यह बात सामने आई है कि लगभग 32 प्रतिशत किशोर हुंडई सैंट्रो को पसंद करते हैं. घडि़यों में उन का मनपसंद ब्रैंड टाइटन है और टीवी के लिए एलजी  व म्यूजिक सिस्टम में सोनी को प्राथमिकता देते हैं. यहां तक कि कोला, चौकलेट, बिस्कुट व चिप्स तक में उन की पसंद में व्यापक बदलाव आया है.

आलम यह है कि कोई भी चीज ब्रैंड के लेबल से अछूती नहीं है, फिर चाहे कपड़े हों, बिजली के उपकरण, ऐक्सैसरीज, कौस्मैटिक या खाने की चीजें. टूथपैस्ट से ले कर बाथरूम के इंटीरियर तक, सनग्लास से ले कर पैन तक में ब्रैंड का ठप्पा लग चुका है.

फोर्टिस ला फेम अस्पताल के मनोवैज्ञानिक डा. रोहित जयमन का कहना है, ‘‘आज हमारा समाज भौतिकवाद के पश्चिमी संस्करण के अधीन हो चुका है. इसलिए लोगों की पहचान नैतिक मूल्यों या उन की शैक्षिक उपलब्धियों की अपेक्षा उन के पास उपलब्ध चीजों से होती है. इस सोच से हमारी युवा पीढ़ी भी बच नहीं सकी है. ये ब्रैंड भीड़ से अलग दिखने का एहसास देते हैं.

ब्रैंड व्यक्ति के अंदर आत्मविश्वास व खास होने का एहसास भरते हैं. लक्जरी और स्टेटस का पर्याय होने के साथसाथ वे व्यक्ति को आकर्षण का केंद्र बनाते हैं. युवाओं के अंदर अपने साथियों के बीच लोकप्रिय होने की चाह बहुत तीव्र होती है. इस से उन के अहं को भी संतुष्टि मिलती है, इसी वजह से वे आज बहुत ही ब्रैंडकौंशस हो गए हैं.

बात ऐसे बनी

मेरे पति रामकृष्ण अपने डाक्टर मित्र की क्लिनिक पर बैठे थे, तभी कलैक्ट्रेट औफिस में काम करने वाला बाबू अपने इलाज के लिए आया. डाक्टर साहब ने पूछा, ‘‘क्या तकलीफ है?’’

जवाब में मरीज ने कहा, ‘‘साहब, पूरे समय पेट में जलन रहती है, एसिडिटी रहती है, इस से जी घबराता है.’’

डाक्टर साहब ने पूछा, ‘‘चाय तो अधिक नहीं पीते?’’

बाबू ने दुखी स्वर में कहा, ‘‘औफिस में लोग मुझ से काम निकलवाने आते हैं और जबरन चाय पिला देते हैं, इसी के कारण मेरी तबीयत खराब रहती है.’’

डाक्टर साहब ने कहा, ‘‘अब जो भी काम के बदले में चाय पिलाए तो उसे कहना, अभी तो मैं चाय नहीं पीऊंगा आप औफिस की कैंटीन में मेरे पैसे जमा करा दें, मैं बाद में पी लूंगा.’’

और जब घर जाना हो तो जाते समय चाय न पीएं और दिनभर के जो पैसे कैंटीन वाले के पास रखे हों, उन्हें घर ले जाएं. इस से तबीयत भी ठीक रहेगी और पैसे अलग मिलेंगे.

बाबू बहुत खुश हुआ और बोला, ‘‘डाक्टर साहब, आप बहुत अच्छे हैं. मेरी चाय भी छुड़ा दी और चार पैसे भी मुझे मिल गए.’’

प्रतिभा रामकृष्ण श्रीवास्तव, इंदौर (म.प्र.)

 

मेरी एक सहेली और उस के पति अपने को बहुत चालाक और स्मार्ट समझते हैं. सहेली सीमा की आदत थी कि वह समयबेसमय अपने पति के साथ आ धमकती. नाश्ते से ले कर खाना आदि खा कर ही जाती. उस की इस आदत से मुझे बड़ी झल्लाहट होती, किंतु हम लोग संकोचवश कुछ कह नहीं पाते. जब भी हम लोग उस के घर जाने की बात कहते तो कहती कि मुझे एक रोज पहले ही फोन कर देना. फोन पर जब मैं उस के घर जाने की बात करती तो झट से बोल पड़ती, ‘‘अरे, नीरा, मैं तो शौपिंग करने आई हूं. प्लीज, दूसरे दिन आना.’’

एक दिन हम लोगों ने उसे सबक सिखाने की ठान ली. पति ने सुबह 8 बजे ही फोन किया किंतु उस ने फोन उठाया ही नहीं. उस की आदत को जानते हुए हम लोग उस के घर पहुंच गए. दरवाजे के किनारे खड़े हो कर पति ने फोन लगाया और कहा कि हम तुम्हारे घर आ रहे हैं. आदतानुसार वह झट से बोल पड़ी, ‘‘अरे, मैं तो मैडिकल कालेज मां को देखने आई हूं.’’ अभी उस की बात भी पूरी नहीं हुई कि हम लोग अंदर पहुंच गए. हमें देखते ही सकपका कर इधरउधर की बातें बनाने लगी. पति ने कहा, ‘‘आज आप की कोई बहानेबाजी नहीं चलेगी, आज तो हम सब नाश्ते से ले कर रात का खाना खा कर ही जाएंगे.’’ उस दिन के बाद वह फोन कर के आती और जल्दी ही लौट जाती.      

पुष्पा श्रीवास्तव, गोरखपुर (उ.प्र.) 

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