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रणवीर की मूंछें

रणवीर सिंह ने फिल्म ‘रामलीला’ के  किरदार के लिए हैंडलबार मूंछें रखी हैं. संजय लीला भंसाली निर्देशित इस फिल्म में उन के साथ दीपिका भी है. एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा कि वे खुश हैं कि हैंडलबार मूंछें एक बार फिर चलन में हैं. क्रिकेटर भी इसे रख कर अपना भविष्य चमका रहे हैं. मेरा कैरियर अगर मेरी मूंछों की वजह से चमकेगा तो मुझे खुशी होगी क्योंकि इस का चलन मैं ने ही शुरू किया है. गौरतलब है कि रणवीर सिंह इस से पहले अपनी किसी भी फिल्म में मूंछों में नजर नहीं आए हैं.

मूंछें कामयाबी दिलाने में समर्थ होंगी या नहीं, यह तो पता नहीं रणवीरजी, इतना जरूर है कि फिल्म हिट होगी तो ही आप की मूंछें प्रचलित होंगी.

 

नीतू की सोच

एक फिल्म में नीतू चंद्रा को पौर्नस्टार सनी लियोनी को ‘किस’ करना था. नीतू  ने यह कह कर इस सीन को ही नहीं बल्कि फिल्म को भी करने से इनकार कर दिया कि वे औनस्क्रीन किसी लड़की को ‘किस’ नहीं करेंगी. उन के इस फैसले का सम्मान करते हुए फिल्मकार ने यह फिल्म किसी और ऐक्ट्रेस की झोली में डाल दी है. हालांकि, नीतू ने पहले एक बिकनी शूट के दौरान एक लड़की के साथ लैस्बियन स्टाइल में फोटो खिंचवाए थे. खैर, नीतूजी, यह आप की मरजी है लेकिन क्या आप औफस्क्रीन किसी लड़की को ‘किस’ कर सकती हैं?

 

एनैमी

‘एनैमी’ 1980 के दशक में बनी फिल्मों की तरह ऐक्शन थ्रिलर क्राइम फिल्म है, जिस में शुरू से अंत तक बहुत ज्यादा खूनखराबा है. ऐक्शन के अलावा इस में और भी बहुत मसाले हैं.

फिल्म की कहानी मुंबई क्राइम ब्रांच के 4 जांबाज अफसरों, एकलव्य उर्फ भाऊ (सुनील शेट्टी), नईम शेख (के के मेनन), माधव सिन्हा उर्फ मैडी (महाअक्षय चक्रवर्ती) और एरिक (जौनी लीवर) की है. इन चारों को मुंबई में गैंगवार खत्म करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है. चारों एक बड़े डौन मुख्तार (जाकिर हुसैन) को पकड़ कर जेल में डाल देते हैं.

केंद्र से एक राजनीतिक नेता आर जी (अक्षय कपूर) एक सीबीआई अफसर युगांधर (मिथुन चक्रवर्ती) को मुंबई भेजता है. युगांधर पता लगाता है कि मुख्तार के 500 करोड़ रुपए रामगढ़ ऐक्सप्रैस हाइवे पर लूट लिए गए थे. यह पैसा उसे आर जी को देना था. इसीलिए मुख्तार शहर में गैंगवार करा रहा है. वह यह भी पता लगाता है कि वह पैसा इन चारों पुलिस वालों के पास है.

पैसों के लिए खूब घमासान होता है. मुख्तार मारा जाता है. 500 करोड़ रुपए बरामद हो जाते हैं. फिल्म की यह कहानी कुरसी पर बैठे भ्रष्ट नेताओं की पोल खोलती है कि कैसे वे बिल्डर लौबी या तंबाकू लौबी से चुनाव में खर्च करने के लिए करोड़ों रुपए लेते हैं.

सुनील शेट्टी फुलफौर्म में है. मिथुन चक्रवर्ती अब बूढ़ा हो चला है. हां, उस के बेटे महाअक्षय ने अच्छा परफौर्म किया है. जौनी लीवर ने इस बार दर्शकों को बिलकुल नहीं हंसाया. गीतसंगीत साधारण है.       

घनचक्कर

हिंदी फिल्मों में पहले पुरुष किरदार ही गालियां बकते थे लेकिन अब महिला किरदारों से गालियां बकवा कर या छिछोरे संवाद बुलवा कर फिल्म निर्देशक दर्शकों का टेस्ट बदलने की कोशिश कर रहे हैं. हाल ही में रिलीज फिल्म ‘फुकरे’ को ही देख लें. रिचा चड्ढा ने जम कर गालियां दी हैं.

इस से पहले ‘आमिर’ और ‘नो वन किल्ड जेसिका’ जैसी फिल्में बनाने वाले निर्देशक राजकुमार गुप्ता ने इस फिल्म को फनी बनाने के चक्कर में गोलगोल घुमाया है. फिल्म की कहानी में क्या होने वाला है, यह 10 मिनट में ही पता चल जाता है.

संजू (इमरान हाशमी) और नीतू (विद्या बालन) पतिपत्नी हैं. संजू तिजोरियां तोड़ने में माहिर है. पंडित (राजेश शर्मा) और इदरीस (नमित दास) उसे बैंक रौबरी का औफर देते हैं. तीनों बैंक का लौकर तोड़ कर करोड़ों रुपए ले उड़ते हैं. पंडित और इदरीस पैसे छिपाने के लिए सूटकेस संजू को दे देते हैं. संजू की याददाश्त चली जाती है. 3 महीने बाद जब पंडित व इदरीस अपना हिस्सा मांगते हैं तो संजू उन्हें नहीं पहचानता. पंडित व इदरीस संजू के घर डेरा जमा लेते हैं. संजू पैसों से भरे सूटकेस को ढूंढ़ने की कोशिश करता है परंतु उसे कुछ भी याद नहीं आता. अंत में डौन जैसा एक गुंडा पैसे न मिलने पर चलती लोकल टे्रन में पहले पंडित व इदरीस को मार डालता है, फिर संजू और नीतू को भी गोली मारता है. जातेजाते उस गुंडे के कानों में संजू के सैलफोन पर आ रही उस की मां की आवाज सुनाई पड़ती है कि बेटा, घर आ कर अपना सूटकेस ले जाओ. लेकिन तभी उस का पैर फिसलता है और संजू के हाथ में पकड़ा फोर्क उस के गले में घुस जाता है और वह मर जाता है. घायल अवस्था में भी संजू और नीतू मुसकरा देते हैं. यहीं फिल्म का द एंड हो जाता है. यानी नायक ने सभी किरदारों के साथसाथ दर्शकों को भी घनचक्कर बना दिया.

फिल्म की यह कहानी कहींकहीं आप को सिर धुनने पर मजबूर कर देगी. नायक का 2 गुंडों से पूरी फिल्म में पिटते रहना, इदरीस का अंडरवियर पहन कर घूमते रहना और फोन पर सैक्सी बातें कर उत्तेजना से भर जाना, करोड़ों की बैंक डकैती के बाद भी पुलिस का गायब होना, तिजोरी का आसानी से खुल जाना आदि बातें आप का सिर घुमा सकती हैं.

निर्देशन साधारण है. इमरान हाशमी ने किसर की इमेज से हट कर अभिनय किया है. विद्या बालन ने कौमेडी करने की कोशिश की है. गीतसंगीत साधारण है.

 

लुटेरा

‘लुटेरा’ ओ हेनरी की कहानी ‘द लास्ट लीफ’ पर आधारित है. लव स्टोरी पर बनी यह फिल्म सादगी से भरी है. इस प्रेम कहानी में छिछोरापन नहीं है बल्कि ऐसा प्रेम दिखाया गया है जिस में आंखों ही आंखों में बातें की जाती हैं. इस फिल्म में सोनाक्षी सिन्हा जैसी नायिका आप को चटकमटक रंगों वाले कपड़े पहन कर बागों में नायक से रोमांस करती नजर नहीं आती बल्कि हलकेफुलके मेकअप में साड़ी पहने हुए दिखती है और अच्छी लगती है.

‘लुटेरा’ में बौक्स औफिस के फार्मूले भी नहीं हैं. भले ही फिल्म की गति धीमी हो लेकिन फिल्म का ट्रीटमैंट काफी अच्छा है. संजय लीला भंसाली के सहायक रह चुके विक्रमादित्य मोटवानी ने भंसाली की तरह ही अपनी इस फिल्म का कैनवास काफी बड़ा रखा है. उस ने पटकथा लिखने से पूर्व काफी रिसर्च की है, ऐसा फिल्म देख कर लगता है. भले ही फिल्म में कमर्शियल वैल्यू न हो लेकिन फिल्म दिल को छू जाती है.

फिल्म की कहानी 1953 की है. वरुण (रणवीर सिंह) खुद को पुरातत्त्व विभाग का अफसर बता कर माणिकपुर के एक जमींदार के घर आता है. वह जमींदार से मंदिर के आसपास की जमीन की खुदाई की आज्ञा लेता है. जमींदार उसे और उस के साथी को अपने घर में रहने की जगह देता है. जमींदार की बेटी पाखी (सोनाक्षी सिन्हा) को वरुण से प्यार हो जाता है.

इधर, देश में जमींदारी उन्मूलन कानून लागू हो जाता है. वरुण जमींदार से पाखी के साथ शादी करने की बात कहता है. जमींदार मान जाता है. लेकिन सगाई से पहले ही वरुण जमींदार के मंदिर से कीमती मूर्तियां और खुदाई में मिला कीमती सामान ले कर गायब हो जाता है. दरअसल, वह एक ऐसे गिरोह से जुड़ा है जो पुरातत्त्व विभाग की कीमती वस्तुओं को चुरा कर विदेशों में बेचता है. इस सदमे से जमींदार की मौत हो जाती है. पिता की मौत के बाद पाखी डलहौजी आ कर रहने लगती है. वह वरुण को भुला नहीं पाती. अचानक एक दिन वरुण लौट आता है. पाखी उसे माफ नहीं कर पाती. पुलिस वरुण को ढूंढ़ते हुए डलहौजी पहुंचती है. मुठभेड़ में पहले वरुण का दोस्त मारा जाता है, बाद में निराश हो कर जब वरुण डलहौजी से भागना चाहता है तो पुलिस की गोलियों से मारा जाता है.

आज के फास्ट रोमांटिक दौर में 1950 के दशक की ‘आंखों आंखों में बात होने दो’ जैसी प्रेम कहानी पर बनी इस फिल्म की पटकथा बेहतरीन है. मध्यांतर से पहले का भाग दर्शकों को बांधे रखता है, मगर क्लाइमैक्स कुछ निराश करता है.

2 घंटे 20 मिनट की इस फिल्म को अभी और छोटा किया जा सकता था. मध्यांतर के बाद वरुण और उस के पीछे पुलिस का भागना काफी लंबा खिंच गया है.

फिल्म में पाखी को दमे के दौरे पड़ते दिखाया गया है. दौरों के समय उस का चेहरा नीरस और नौन ग्लैमरस लगता है मगर परफौर्मेंस की दृष्टि से सोनाक्षी का काम बहुत बढि़या है. रणवीर सिंह मध्यांतर से पहले शांत दिखा है, लेकिन मध्यांतर के बाद उस ने ऐक्शन सीन किए हैं.

फिल्म की विशेषता उस का संगीत है. गीतों के बोल सुंदर हैं. अमित त्रिवेदी ने गीतों को गुनगुनाने लायक धुनें दी हैं. छायाकार ने डलहौजी की ढलानों पर खूब सारी बर्फ दिखा कर आंखों को ठंडक प्रदान की है.

 

भाग मिल्खा भाग

‘भाग मिल्खा भाग’ भारत के जानेमाने धावक मिल्खा सिंह की जीवनी पर बनी फिल्म है. मिल्खा सिंह के बारे में आज तक ज्यादा कहासुना नहीं गया है. मिल्खा सिंह 1960 में रोम ओलिंपिक में भारत की तरफ से दौड़ा था, मगर हार गया था. वह क्यों हारा था? 1956 में मेलबोर्न में हुई क्वालिफाइंग दौड़ में भी उसे हार का मुंह क्यों देखना पड़ा था, इन सब बातों पर रोशनी डालती इस फिल्म में मिल्खा सिंह के 13 वर्षों की दौड़ के जीवन को दिखाया गया है.

फिल्म का निर्देशन राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने किया है.  निर्देशक और उस की टीम ने मेहनत की है. फिल्म भले ही मिल्खा सिंह की रियल लाइफ पर बनी हो पर निर्देशक ने फिल्म को फनी बनाने के लिए कुछ प्रसंग ऐसे भी जोड़े हैं जो फिल्म को रोचक बनाते हैं. उड़ते जहाज में मिल्खा सिंह का सीट से खड़े हो कर शोर मचाना कि जहाज काफी ऊंचाई पर उड़ रहा है, पायलट जरूर इसे ठोकेगा. इस के अलावा मिल्खा सिंह का देसी घी से भरे 2-2 किलो के डब्बों को पी जाना जैसे प्रसंग ऐसे ही हैं. मेलबोर्न में क्वालिफाइंग दौड़ के लिए मिल्खा सिंह का एक पब में जा कर बीयर पी कर अंगरेज युवती के साथ नाचना और रात में अनजाने में ही सही, उस के साथ सैक्स करना जैसी बातें गले नहीं उतरतीं.

इस बायोग्राफिकल फिल्म में मिल्खा सिंह का किरदार ऐक्टर फरहान अख्तर ने निभाया है. मिल्खा सिंह जैसी बौडी बनाने के लिए उसे 6 महीने तक कड़ी मेहनत और अभ्यास करना पड़ा. मिल्खा सिंह की भूमिका के लिए निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने पहले अक्षय कुमार को एप्रोच किया था. अक्षय को लगा था, वह इस भूमिका के लिए फिट नहीं है. इसलिए उस ने मना कर दिया था. ‘भाग मिल्खा भाग’ के लिए फरहान अख्तर ने न सिर्फ मिल्खा सिंह जैसी बौडी बनाई है वरन अपने सिक्स पैक भी दिखाए हैं, जो हर वक्त फड़कते दिखते हैं. अधिकांश समय उसे बनियान पहने ही टे्रनिंग लेते दिखाया गया है. इस फिल्म में मिल्खा सिंह दौड़ा तो बहुत है परंतु फिनिश लाइन पर पहुंचतेपहुंचते उसे 3 घंटे से ज्यादा का समय लग जाता है यानी फिल्म 3 घंटे से ज्यादा लंबी है. फिल्म की लंबाई कम से कम आधा घंटा कम होती तो फिल्म में जान आ सकती थी. आर्मी कैंप, भारतपाक बंटवारे और प्रेमप्रसंग के दृश्यों को आसानी से छोटा किया जा सकता था.

फिल्म की कहानी रोम ओलिंपिक से शुरू होती है. मिल्खा सिंह प्रतियोगिता में हार जाता है. यहीं से फिल्म फ्लैशबैक में चली जाती है. भारतपाक बंटवारे के दौर में उस का परिवार पाकिस्तान के मुलतान शहर में रहता था. दंगाइयों ने उस के परिवार के सभी सदस्यों को मार डाला था. उस वक्त मिल्खा सिंह 10-12 साल का था. वह अपनी जान बचा कर भाग निकला था. दिल्ली पहुंचा मिल्खा सिंह एक रिफ्यूजी कैंप में अपनी बहन (दिव्या दत्ता) से मिला. दिल्ली में शाहदरा में अपनी बहन के घर में रहते हुए मिल्खा का दिल पड़ोस में रहने वाली निर्मल कौर (सोनम कपूर) पर आ गया. निर्मल के कहने पर मिल्खा सिंह ने आवारागर्दी छोड़ कर फौज में जाने का फैसला कर लिया. यहां मिल्खा के टैलेंट को फौज के कोच (पवन मल्होत्रा) ने पहचाना और फिर मिल्खा सिंह ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. उस ने अपने जख्मी पैरों के साथ दौड़ कर देश को कई पदक दिलवाए. एक बार पाकिस्तान के धावक को पछाड़ कर उस ने देश के गौरव को बढ़ाया. तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने मिल्खा सिंह की इच्छा को पूरी करते हुए देश में एक दिन की छुट्टी की घोषणा की.

फिल्म की यह कहानी सुस्त रफ्तार से चलती है. निर्देशक ने मिल्खा सिंह से जुड़ी तमाम बातों को जरूर प्रभावशाली ढंग से दिखाया है. मसलन, एक ब्लैजर पाने के लिए मिल्खा सिंह को अपमान भी सहना पड़ा. फौज में रहते हुए दूध और अंडों के मोह ने उसे रेसिंग ट्रैक का रास्ता दिखाया.

फिल्म का निर्देशन अच्छा है. शंकर एहसान लोय का संगीत काबिलेतारीफ है. फरहान अख्तर ने तो अपनी भूमिका में जान फूंकी ही है, पवन मल्होत्रा का काम भी तारीफ के लायक है. सोनम कपूर आई और रोमांस कर के गायब हो गई. मिल्खा सिंह के बचपन का किरदार निभाने वाले कलाकार जाबतेज सिंह का तो जवाब नहीं. फिल्म का छायांकन काफी अच्छा है.

मिल्खा सिंह का जीवन समाज के लिए प्रेरणादायक – फरहान अख्तर

फिल्म ‘दिल चाहता है’ से निर्देशन के क्षेत्र में उतरने वाले फरहान अख्तर सिनेमा जगत से जुड़े दूसरे क्षेत्रों में भी धीरेधीरे कदम बढ़ाते रहे. उन की गिनती आज मशहूर फिल्म निर्माता, निर्देशक, लेखक व अभिनेता के रूप में होती है. इन दिनों वे फिल्म ‘भाग मिल्खा भाग’ में मिल्खा सिंह का किरदार निभा कर चर्चा में हैं. हाल ही में शांतिस्वरूप त्रिपाठी ने उन से मुलाकात की. पेश हैं मुख्य अंश :

फिल्म ‘भाग मिल्खा भाग’ करने से पहले आप मिल्खा सिंह से कितना वाकिफ थे?

सच कहूं तो उन्हें बहुत ज्यादा नहीं जानता था. मुझे यह पता था कि मिल्खा सिंह बहुत बड़े ऐथलीट हैं और उन्होंने तमाम रिकौर्ड बनाए हैं. लेकिन मुझे यह नहीं पता था कि उन्होंने 80 रेसों में भाग लिया और 77 में जीत हासिल की. उन की जिंदगी में क्याक्या हुआ, इस के बारे में भी मुझे जानकारी नहीं थी.

यह कैसी फिल्म है?

यह फिल्म एक ऐसे इंसान के जीवन पर आधारित है जो समाज के लिए प्रेरणादायक है. मेरा मानना है कि समयसमय पर देश की युवा पीढ़ी को जगाने के लिए इस तरह की प्रेरणादायक कहानियों पर फिल्में बनाई जानी चाहिए.

‘भाग मिल्खा भाग’ में अभिनय करने से आप के जीवन या आप की सोच में क्या बदलाव आया?

मिल्खाजी ने देश को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान दिलवाया है. इंसानी तौर पर उन्होंने जो कुछ भी अपनी जिंदगी में सहा है, वह हमारे लिए प्रेरणादायक है. उन के प्रति मेरे मन में आदर बहुत ज्यादा बढ़ गया है.

मिल्खा सिंह से आप की पहली मुलाकात कब और कहां हुई?

फिल्म की स्क्रिप्ट के आधार पर इस फिल्म का हिस्सा बनने के लिए मेरी सहमति देने के बाद मैं सिनेमाई परदे पर मिल्खा सिंह जैसा दिखने के लिए टे्रनिंग ले रहा था. हमारी ‘दौड़ने’ की टे्रनिंग मुंबई के प्रियदर्शनी पार्क में चल रही थी, जहां पर 400 मीटर का एक ट्रैक है. एक दिन जब मैं टे्रनिंग ले रहा था, उसी दौरान फिल्म के निर्देशक राकेश ओम प्रकाश मेहरा के साथ मिल्खा सिंहजी वहां पहुंचे. तभी उन से मुलाकात हुई.

किसी जीवंत लीजैंड का किरदार निभाना तलवार की धार पर चलना होता है. इस बात का कितना दबाव था?

मुझे कभी तनाव नहीं रहा. सिर्फ जिम्मेदारी का एहसास था. अब जिम्मेदारी से आप दब सकते हैं या उस जिम्मेदारी से प्रेरित हो सकते हैं. मैं इस जिम्मेदारी से दबने के बजाय पे्ररित होता गया.

मिल्खा सिंह का किरदार निभाने से पहले कोई टे्रनिंग ली?

मिल्खा सिंह की स्टाइल आम ऐथलीट से बहुत अलग रही है तो उस स्टाइल को पकड़ने के लिए हमारे लिए टे्रनिंग लेनी बहुत जरूरी थी. उन की खासीयत थी कि भागते समय उन का एक हाथ थोड़ा आगे जाता था. शूटिंग से पहले 6 माह तक हर दिन, रविवार को छोड़ कर सुबह और शाम 4-4 घंटे की टे्रनिंग होती थी. पूरे डेढ़ साल तक मैं ने एक समर्पित ऐथलीट की जिंदगी जी है. इस के अलावा संवाद अदायगी की भी टे्रनिंग होती थी.

तो क्या आप को पंजाबी भी सीखनी पड़ी?

फिल्म का फ्लेवर पंजाबी है पर भाषा ज्यादातर हिंदी या उर्दू ही है. आप को जान कर हैरानी होगी कि मिल्खा सिंह बचपन में अपने खास दोस्त सम्प्रीत के साथ मदरसे में पढ़ा करते थे. इसलिए उन की उर्दू व हिंदी की जबान बहुत साफ है. वे उर्दू में लिखते भी थे. लेकिन पिछले 50 साल से वे चंडीगढ़ में रह रहे हैं, इसलिए अब उन की भाषा में पंजाबी ऐक्सेंट आ गया है.

आप ने आर्मी बैकग्राउंड पर एक फिल्म ‘लक्ष्य’ बनाई थी. अब फिल्म ‘भाग मिल्खा भाग’ के लिए जब आप आर्मी कैंप के पास हुसैनीवाला बौर्डर गए, उस वक्त आप की कौन सी यादें ताजा हुईं?

हमें अच्छी तरह याद है कि जब हम फिरोजपुर पहुंचे और हुसैनीवाला बौर्डर के लिए गए, आर्मी वालों को पता था कि हम वहां शूटिंग करने वाले हैं. उन लोगों ने हमें वहां शाम को फ्लैग सेरेमनी के लिए बुलाया था. शाम को फ्लैग सेरेमनी के वक्त दोनों देशों के सैनिक अपनेअपने देश के झंडे नीचे करते हैं और देशभक्ति के गीत बजाते हैं. मुझे बहुत अच्छा लगा जब उन्होंने हमारी फिल्म ‘लक्ष्य’ का गाना बजाया. वहां पहुंच कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए.

आप खुद भी एक निर्देशक हैं. ऐसे में जब आप सैट पर पहुंचते थे तो क्या अपने भीतर के निर्देशक को घर पर छोड़ कर आते थे?

यह बात आप भी समझते हैं कि ऐसा हो नहीं सकता था. आखिर इंसान तो एक ही है. एक ही इंसान में दोनों चीजें हैं पर एक निर्देशक होने की वजह से मुझे पता है फिल्म एक निर्देशक का विजन होती है. मैं निर्देशक के विजन की कद्र करता हूं.

हर ऐथलीट के साथ कुछ न कुछ राजनीति या समस्याएं वगैरह भी होती रहती हैं?

हां, हर किसी की जिंदगी में बहुत बड़ा स्ट्रगल होता है. हम सभी को पता है कि एक ऐथलीट को दूसरे खिलाडि़यों के मुकाबले बहुत कम अहमियत दी जाती है. इस वजह से तमाम मातापिता अपने बच्चों को स्पोर्ट्स के प्रति बढ़ावा नहीं देते. मैं कुछ नहीं कर सकता पर मैं यह जरूर चाहूंगा कि फिल्म ‘भाग मिल्खा भाग’ देख कर लोग इंस्पायर हों और खेल मंत्रालय के कानों पर भी जूं रेंगे.

आप एक एनजीओ मर्द (मैन अगेंस्ट रेप ऐंड डिस्क्रिमिनेशन) के साथ जुड़े हुए हैं. क्या इस के साथ जो काम शुरू किया था वह बंद कर दिया?

यह मेरा ‘लाइफ टाइम कमिटमैंट’ है. यह कभी बंद नहीं होगा. इस वक्त यह सोशल मीडिया पर बहुत ऐक्टिव है. इस का बहुत अच्छा रिस्पौंस मिल रहा है. 

पाठकों की समस्याएं

मैं 35 वर्षीया विवाहिता, 12 साल के बेटे की मां हूं. मेरा बेटा पढ़ाईलिखाई में अच्छा है. आजकल उस के व्यवहार में कुछ बदलाव आ गया है. कुछ समय से वह बड़ों की तरह व्यवहार कर रहा है. जब हम ने इस की वजह जानने की कोशिश की तो पता चला कि मेरी देवरानी, जिस के विवाह को 6 साल हो गए हैं, मेरे बेटे के साथ कुछ अजीब व्यवहार करती है. वह मेरे बेटे को जबरदस्ती अपने साथ सुलाती है और उस के साथ अश्लील व्यवहार करती है. एक बार मेरे पति ने भी उसे ऐसा करते हुए देखा. जब हम ने बेटे से इस बारे में पूछा तो उस ने बताया कि चाची ऐसा 2-3 सालों से कर रही हैं. जब हम ने इस बारे में देवर और सासससुर से बात की तो वे डर कर बोले कि अगर हम कुछ कहेंगे तो वह दहेज के झूठे केस में फंसवा देगी. घर में सभी उस से डरते हैं. वह अपनी मनमरजी करती है. इस समस्या से कैसे निकलें?

इस तरह की बातें कम होती हैं पर नहीं होतीं, कहा नहीं जा सकता. इस तरह का पीडोफीलिया दुनियाभर में होता है. अब जब आप को अपनी देवरानी की अश्लील हरकतों का पता चल गया है तो अपने बेटे को उस से दूर रखें. बेटे के उज्ज्वल भविष्य के लिए चाहें तो उसे होस्टल में भेजने का निर्णय लें. देवरानी को घर से अलग करने की बात कहें या फिर खुद अलग घर में चली जाएं. आप जितना उस से डरेंगी वह आप पर हावी होगी. जहां तक दहेज के झूठे केस में फंसाने की बात है, आप पहले ही किसी पुलिस अफसर से मिल कर सलाह ले लें. हो सकता है वह दहेज का झूठा केस बनाने की कोशिश में आप का साथ दे. यह समझना होगा कि आप का देवर भी अपनी पत्नी की बात को सही मानेगा और भतीजे की बात को झूठ.

मैं 67 वर्षीय पुरुष हूं. मृत्यु के बाद देहदान करना चाहता हूं. इस बारे में जानकारी दीजिए.

देहदान ऐसी प्रक्रिया है जिस में इंसान अपनी मृत्यु के बाद अपने अंगों का दान कर के किसी दूसरे शख्स की जिंदगी बचा सकता है. वे व्यक्ति जो यह समझते हैं कि मृत्यु के बाद उन की देह किसी के काम आए तो वे अपना पंजीकरण किसी भी मैडिकल शिक्षण संस्थान के एनाटोमी विभाग में करवा सकते हैं. इस के लिए हर मैडिकल संस्थान में एक सहमति फार्म निशुल्क उपलब्ध होता है. अंग रिट्रीवल बैंकिंग संगठन यानी ओआरबीओ मैडिकल साइंसेज के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स, नई दिल्ली में स्थित है. इस संगठन का संबंध अस्पतालों, संगठनों के साथ रहता है. यह अंगदाता और बीमार रोगियों की प्रतीक्षा सूची रखता है. आप यहां से भी देहदान के लिए फार्म ले सकते हैं. इस फार्म पर 2 गवाहों के हस्ताक्षर होने जरूरी होते हैं. आप भले ही किसी भी धर्म या जाति के हों, अपने दिल, फेफड़े, जिगर, गुर्दा, हड्डियां व त्वचा आदि का दान कर सकते हैं.

मैं 20 वर्षीया, मध्यवर्गीय अविवाहिता हूं. मेरे पिता नहीं हैं और मां एक सरकारी स्कूल में टीचर हैं. मैं देखने में सुंदर हूं और अभिनय में रुचि रखती हूं, अभिनेत्री बनना चाहती हूं पर मेरी मां और बौयफ्रैंड नहीं चाहते कि मैं फिल्मलाइन में जाऊं. आप मुझे अभिनेत्री बनने का कोई आसान रास्ता बताइए?

आप की अभिनय में रुचि है और आप अभिनेत्री बनना चाहती हैं. इस में कोई बुराई नहीं है. आप अभिनेत्री बनने के लिए आसान राह जानना चाहती हैं. देखिए, सफल होने की राह आसान नहीं होती फिर चाहे वह अभिनय की ही क्यों न हो. वहां भी संघर्ष करना पड़ता है. अपनी मां की मरजी के खिलाफ कोई रास्ता न अपनाएं. अगर आप समझती हैं कि आप में सचमुच काबिलीयत है तो अपनी मां को इस का विश्वास दिलाएं व उन की मरजी के अनुसार ही कोई निर्णय लें. इस क्षेत्र में जोखिम है पर सफलता उन्हें ही मिलती है जो जोखिम लेते हैं.

मैं 36 वर्षीय विवाहित, 2 बच्चों का पिता हूं. ससुराल में केवल सास हैं जो बीमार रहती हैं. मेरी पत्नी उन की इकलौती संतान है. सास की बीमारी के कारण मैं और मेरे घर वाले पत्नी को हर 10-15 दिन में मायके भेज देते थे. पत्नी अब बच्चों व घरपरिवार की जिम्मेदारी नहीं समझती. सास भी बेटी को समझाने के बजाय बारबार अपने पास बुलाती रहती हैं. एक बार तो पत्नी ने हद ही कर दी, 1 वर्षीय बेटी को मेरे पास छोड़ कर मां के पास चली गई और वहां से उन्हें उन की बहन के घर ले गई. मुझे इस बारे में कुछ नहीं बताया. जब मैं ने फोन किया तो फोन काट दिया. मुझे कहीं से असलियत पता चली तो मैं उन के घर गया. सास की तबीयत खराब थी.  मैं ने इलाज करवाया व पत्नी को समझाबुझा कर घर ले आया. लेकिन पत्नी के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया. सास भी बारबार फोन कर के बेटी को सिखाती रहती हैं कि घर का काम मत करना आदि. पत्नी गैरजिम्मेदार होती जा रही है. जिंदगी बहुत तनावपूर्ण हो गई है. आप ही राह सुझाइए.

आप की पत्नी आप की उदारता व आजादी का गलत फायदा उठा रही है. मां की बीमारी को हथियार बना कर वह घरपरिवार की जिम्मेदारियों से भाग रही है, जो सरासर गलत है. ऊपर से आप की सास भी बेटी को सही सीख देने के बजाय गलत राह दिखा रही हैं. आप को अपनी पत्नी से सीधेसीधे बात करनी चाहिए. पत्नी से कहें कि आप उसे मायके तभी भेजेंगे जब वहां वास्तव में जरूरत होगी और घर की जिम्मेदारी समझने के लिए भी पत्नी से कड़े शब्दों में कहें. आप पत्नी से कहें कि जिस तरह आप अपनी सास के बारे में सोचते हैं उसी तरह उसे भी आप के परिवार के बारे में सोचना होगा, तभी गृहस्थी की गाड़ी पटरी पर आएगी.

 

पथरीले रास्ते

कहीं धूप मिली, कहीं छांव मिली

हर मौसम को हंस कर बिताया हम ने

दर्द ओ प्यार की कशमकश में

हंसतेहंसते आंसू बहाए हम ने

 

सफर ये आसां न होगा

जान कर भी कदम बढ़ाया हम ने

खुशी और गम जो भी मिले

दोनों को गले लगाया हम ने

 

इस दुर्गम रास्ते के कांटों से

आशियां अपना सजाया हम ने

जीवन के पथरीले रास्ते पर

कुछ खोया, कुछ पाया हम ने.

श्रेया आनंद

 

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