‘लुटेरा’ ओ हेनरी की कहानी ‘द लास्ट लीफ’ पर आधारित है. लव स्टोरी पर बनी यह फिल्म सादगी से भरी है. इस प्रेम कहानी में छिछोरापन नहीं है बल्कि ऐसा प्रेम दिखाया गया है जिस में आंखों ही आंखों में बातें की जाती हैं. इस फिल्म में सोनाक्षी सिन्हा जैसी नायिका आप को चटकमटक रंगों वाले कपड़े पहन कर बागों में नायक से रोमांस करती नजर नहीं आती बल्कि हलकेफुलके मेकअप में साड़ी पहने हुए दिखती है और अच्छी लगती है.

‘लुटेरा’ में बौक्स औफिस के फार्मूले भी नहीं हैं. भले ही फिल्म की गति धीमी हो लेकिन फिल्म का ट्रीटमैंट काफी अच्छा है. संजय लीला भंसाली के सहायक रह चुके विक्रमादित्य मोटवानी ने भंसाली की तरह ही अपनी इस फिल्म का कैनवास काफी बड़ा रखा है. उस ने पटकथा लिखने से पूर्व काफी रिसर्च की है, ऐसा फिल्म देख कर लगता है. भले ही फिल्म में कमर्शियल वैल्यू न हो लेकिन फिल्म दिल को छू जाती है.

फिल्म की कहानी 1953 की है. वरुण (रणवीर सिंह) खुद को पुरातत्त्व विभाग का अफसर बता कर माणिकपुर के एक जमींदार के घर आता है. वह जमींदार से मंदिर के आसपास की जमीन की खुदाई की आज्ञा लेता है. जमींदार उसे और उस के साथी को अपने घर में रहने की जगह देता है. जमींदार की बेटी पाखी (सोनाक्षी सिन्हा) को वरुण से प्यार हो जाता है.

इधर, देश में जमींदारी उन्मूलन कानून लागू हो जाता है. वरुण जमींदार से पाखी के साथ शादी करने की बात कहता है. जमींदार मान जाता है. लेकिन सगाई से पहले ही वरुण जमींदार के मंदिर से कीमती मूर्तियां और खुदाई में मिला कीमती सामान ले कर गायब हो जाता है. दरअसल, वह एक ऐसे गिरोह से जुड़ा है जो पुरातत्त्व विभाग की कीमती वस्तुओं को चुरा कर विदेशों में बेचता है. इस सदमे से जमींदार की मौत हो जाती है. पिता की मौत के बाद पाखी डलहौजी आ कर रहने लगती है. वह वरुण को भुला नहीं पाती. अचानक एक दिन वरुण लौट आता है. पाखी उसे माफ नहीं कर पाती. पुलिस वरुण को ढूंढ़ते हुए डलहौजी पहुंचती है. मुठभेड़ में पहले वरुण का दोस्त मारा जाता है, बाद में निराश हो कर जब वरुण डलहौजी से भागना चाहता है तो पुलिस की गोलियों से मारा जाता है.

आज के फास्ट रोमांटिक दौर में 1950 के दशक की ‘आंखों आंखों में बात होने दो’ जैसी प्रेम कहानी पर बनी इस फिल्म की पटकथा बेहतरीन है. मध्यांतर से पहले का भाग दर्शकों को बांधे रखता है, मगर क्लाइमैक्स कुछ निराश करता है.

2 घंटे 20 मिनट की इस फिल्म को अभी और छोटा किया जा सकता था. मध्यांतर के बाद वरुण और उस के पीछे पुलिस का भागना काफी लंबा खिंच गया है.

फिल्म में पाखी को दमे के दौरे पड़ते दिखाया गया है. दौरों के समय उस का चेहरा नीरस और नौन ग्लैमरस लगता है मगर परफौर्मेंस की दृष्टि से सोनाक्षी का काम बहुत बढि़या है. रणवीर सिंह मध्यांतर से पहले शांत दिखा है, लेकिन मध्यांतर के बाद उस ने ऐक्शन सीन किए हैं.

फिल्म की विशेषता उस का संगीत है. गीतों के बोल सुंदर हैं. अमित त्रिवेदी ने गीतों को गुनगुनाने लायक धुनें दी हैं. छायाकार ने डलहौजी की ढलानों पर खूब सारी बर्फ दिखा कर आंखों को ठंडक प्रदान की है.

 

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