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अमेरिका में भेदभाव

अमेरिका में जातिगत विवाद एक बार फिर सिर उठाने लगा है जबकि राष्ट्रपति बराक ओबामा स्वयं अश्वेत हैं. हुआ यह था कि 26 फरवरी, 2012 को सैनफोर्ड शहर में रात को एक अश्वेत युवा ट्रेवौन मार्टिन को स्थानीय स्वयंसेवी रक्षक ने सड़क पर चलते हुए बुलाने की कोशिश की. मार्टिन ने क्या किया, यह स्पष्ट नहीं परंतु रक्षक जौर्ज जिम्मरमैन ने अपनी पिस्तौल उस पर चला दी और उस की मृत्यु हो गई.

विवाद अब खड़ा हुआ है जब एक अदालत में आम लोगों की एक जूरी ने जिम्मरमैन को रिहा कर दिया. अमेरिका में आम लोगों में से चुनी गई जूरी का आपराधिक मामलों में फैसला माना जाता है. भारत में भी ऐसा ही नियम था पर 1959 में कमांडर नानावटी द्वारा अपनी पत्नी के प्रेमी प्रेम आहूजा को मारने के आरोप में बरी कर देने के बाद जूरी प्रणाली समाप्त कर दी गई. चूंकि इस अमेरिकी जूरी में केवल श्वेत महिलाएं थीं, इसलिए अभियुक्त को बरी करने को रंगभेद की सोच का नाम दिया जा रहा है.

बराक ओबामा ने भी इस फैसले पर टिप्पणी करते हुए कहा कि 35 साल पहले वे खुद मार्टिन जैसे की जगह पर हो सकते थे. स्पष्ट है कि अमेरिका रंगभेद की नीति से डेढ़ सदियों में भी नहीं निकल पाया है और अभी?भी श्वेत नागरिक अश्वेतों को अपराधी, दूसरे दरजे का मानते हैं. उन्हें पूरी तरह बराबरी देने में आज भी आनाकानी की जाती है. यह लगभग हर देश में हो रहा है. नई सोच, बराबरी के मूल्यों की जोरदार वकालत, स्वतंत्रता, सभी को सामान्य एक जैसे अवसरों की बातें चाहे जितनी कर ली जाएं, लोग किसी न किसी वजह से ‘हम’ और ‘उन’ में?भेद निकाल ही लेते हैं और फिर उन के साथ स्पष्ट या छिपा हुआ भेदभाव होता है.

तमाम संविधानों, अदालतों, प्रस्तावों, अंतर्राष्ट्रीय मान्यताओं के बावजूद यह भेद निकल नहीं पाता और हर समाज में एक वर्ग अपने को दूसरों से?श्रेष्ठ समझता है. इस का एक बड़ा कारण धर्म है जो कट्टरता के बीज बोने में सब से आगे रहता है. कट्टरता का यह जहर रंग, जाति, भाषा, क्षेत्र के भेदभाव पर भी फैल जाता है. जो जितना धार्मिक होगा वह उतना ज्यादा कट्टर व ‘हम’ और ‘उन’ में भेद करने वाला होगा क्योंकि उसे बचपन से सिखाया जाता है कि जो दूसरे धर्म का है, अलग है, बैरी है.

अमेरिका आधुनिक सोच, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और भेदभाव रहित समाज के संकल्पों के बावजूद हार रहा है तो दूसरों का क्या कहना? 

जनता का वोट

वर्ष 2014 के चुनावों का परिणाम क्या होगा, यह सवाल अगर भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के लिए महत्त्व का है तो जनता के लिए परेशान करने वाला है  कि अगर इन दोनों बड़ी पार्टियों को 100-125 सीटें ही मिलीं तो क्या होगा. 1998 और 2009 में दोनों बड़ी पार्टियों ने छोटी पार्टियों को जोड़ कर काम चला लिया पर 1975, 89, 96 में छोटी पार्टियों को मिला कर सरकार बनाने का जो प्रयोग हुआ वह बेहद निराशाजनक रहा.  विश्वनाथ प्रताप सिंह, चौधरी चरण सिंह, एच डी देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल जैसों की सरकारें पहले ही दिन से लकवाग्रस्त रहीं.

अब 2014 के बारे में संशय इसलिए है क्योंकि कांग्रेस रिश्वतखोरी के काले कोलतार में गरदन तक डूबी है और उस पर देश की शिक्षित जनता को भरोसा नहीं है. दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी अहंकारी, कट्टर, हिंदुत्व के मर्चेंट नरेंद्र मोदी को महाराजाधिराज बनाने का संकल्प ले चुकी है. जनता के लिए एक तरफ आग है तो दूसरी तरफ गंगा की बाढ़, गिरते मकान, होटल, मंदिर और रिजोर्ट हैं.  इन के अलावा राज्यों में मजबूत नेता हैं पर मनमरजी के मालिक, बेपेंदे के लोटे, जिन्हें न विदेश नीति से मतलब है न देश की आर्थिक प्रगति से और जिन की निगाहें अपने राज्य की राजधानी से बाहर जाती ही नहीं हैं. 

क्या चुनाव सुधार कर के कुछ किया जा सकता है कि देश में 2 या 3 जिम्मेदार पार्टियां ही रहें जिन पर जनता समय की जरूरत के अनुसार विश्वास व्यक्त करने का मौका पा सके?  अमेरिका से जलन होती है जहां केंद्र और राज्यों, सभी जगह केवल 2 पार्टियां हैं और जनता जब एक से ऊब जाती है तो दूसरी को चुन लेती है. एक पार्टी गलतियां करती है तो दूसरी को मौका देने में कठिनाई नहीं होती.

कई देशों ने कई प्रयोग किए हैं. जरमनी में संसद की आधी सीटों पर चुनाव भारतीय चुनावी तरीके से होता है पर बाकी आधी सीटें, इन चुनावों में पार्टियों को मिले वोटों के अनुसार उन्हें मिलती हैं. पर इस से भी वहां एक पार्टी को बहुमत नहीं मिलता क्योंकि प्रमुख पार्टी, एंजेला मार्केल की क्रिश्चियन डैमोक्रेटिक यूनियन को 598 स्थानों में से दोनों तरीकों से भी 237 सीटें ही मिलीं और उन्हें गठबंधन सरकार बनानी पड़ी.  जब तक देश की जनता धर्म, जाति, भाषा और राज्य के संकुचित विचारों से अपने को नहीं उबारती, शायद किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत न मिलेगा. यह पक्का लगता है कि जनता 2014 में न तो रिश्वतखोरों पर पक्की मोहर लगाएगी न धार्मिक कट्टरता पर.

 

हिंदू राष्ट्रवादी मोदी

नरेंद्र मोदी को आगे रख कर भारतीय जनता पार्टी किला फतह करेगी या आत्महत्या करेगी, यह 2014 में पता चलेगा पर इतना साफ है कि नरेंद्र मोदी विकास की चाहे जितनी बात कर लें वे असल में कट्टर हिंदूवादी नेता हैं और अपनी वही सोच वे देश पर लादने की कोशिश करेंगे. एक इंटरव्यू में उन्होंने साफ कहा भी है कि वे हिंदू राष्ट्रवादी हैं जिस का अर्थ केवल एक है, हिंदू कट्टर हैं.

उन का कहना कि वे हिंदू हैं, वे राष्ट्रवादी हैं इसलिए हिंदू राष्ट्रवादी कहलाने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं, उन के लिए चाहे सही हो पर देश के लिए घातक है. इसी तरह के शब्दों से मुसलिम राष्ट्रीयता का जन्म हुआ था जिस का नतीजा देश का विभाजन और 66 सालों से लगातार चलता आ रहा झगड़ा है.  धर्म राष्ट्रीयता तो हो ही नहीं सकता क्योंकि यह थोपा हुआ विचार है. धर्म प्रचारक बचपन से ही लोगों को अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं और उन का इकलौता मकसद अपने भक्तों से पैसा कमाना होता है. हर धर्म दान और धर्म के दुकानदारों की सेवा पर टिका होता है, भक्त को संतोष देने की दवा पर नहीं.

आज आदमी ने पहचान लिया है कि सुख तकनीक से मिलता है, प्रकृति को अपने अनुसार ढालने से मिलता है. पिछले 400 सालों की वैज्ञानिक उन्नति ने जीवन बदल दिया है पर अफसोस है कि सोच पर उस का असर नहीं है. इस का कारण विज्ञान की कमजोरी नहीं बल्कि धर्म प्रचारकों का जोर और धर्म पर विश्वास न करने वालों की चुप्पी है.   नरेंद्र मोदी हिंदू धर्म के नाम पर अगर वोट पाने का सपना देख रहे हैं तो पक्का है कि देश में तनाव फैलेगा. धर्म प्रचारकों की इतनी खूबी तो है कि वे लच्छेदार बातों में उलझा कर अच्छोंअच्छों को कायल कर देते हैं कि उन के साथ जो बुरा हो रहा है वह दूसरे धर्म के लोगों के कारण है. भारतीय जनता पार्टी ने 1990 के दशक में यह रास्ता अपनाया और अब फिर अपनाने की कोशिश में हैं.

भारतीय जनता पार्टी के साथ कठिनाई यह है कि उस के समझदार नेताओं के हाथ बंधे हुए हैं. उन के पास कुछ नया कहने या करने को नहीं बचा. संसद में व टैलीविजन पर बोलबोल कर वे थक गए हैं और जमीनी नरेंद्र मोदी को टक्कर देने में असमर्थ हैं. उन के पास अब चारा यही बचा है कि वे फिर उसी रास्ते पर चलें जिस पर नरेंद्र मोदी हांक रहे हैं, चाहे अंत में नदी में क्यों न कूदना पड़े.

मैडिकल शिक्षा, सरकार और अदालत

व्यावसायिक मैडिकल शिक्षा को बल देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में मैडिकल काउंसिल औफ इंडिया द्वारा आदेशित कौमन मैडिकल एंट्रैंस टैस्ट के नियम को असंवैधानिक करार दे दिया है.  इस से लगभग 300 कालेज खुश होंगे जो निजी सैक्टर के हैं. कौमन टैस्ट के कारण वे अपनी मनमरजी के अनुसार छात्रों को मैडिकल कालेजों में प्रवेश नहीं दे पा रहे थे. छात्रों को अब अलगअलग संस्थानों में प्रवेश पाने के लिए अलगअलग टैस्टों में बैठना पड़ेगा और वे देशभर में मारेमारे फिरेंगे.

शिक्षा सरकारी हो या निजी, यह बहस कभी खत्म न होने वाली है. सरकारी शिक्षा का तो शिक्षकों, शिक्षा प्रबंधकों और अफसरों ने ऐसा कबाड़ा किया है कि अरबों रुपए हर साल खर्च करने के बावजूद स्तर नीचे ही गिरता चला गया है. दशकों से शिक्षा संस्थान विवादों, हड़तालों, लूट, हेरफेर, चमचागीरी के केंद्र रहे हैं और वहां पढ़ाई के अलावा सबकुछ होता रहा है. सरकारी शिक्षा सस्ती होने के कारण सरकारी कालेजों के सामने लंबी लाइनें लगती रहीं और उच्च शिक्षा पर कुछ वर्गों और कुछ जातियों का एकाधिकार बनाए रखने के नाम पर सरकार ने इन की गिनती नहीं बढ़ाई.

इन सस्ते सरकारी संस्थानों में प्रवेश के लिए लंबी लाइनें लगीं और लाखों की रिश्वतें दी जाने लगीं. इन के पर्याय के रूप में प्राइवेट मैडिकल कालेज खुले और थोड़ीबहुत आनाकानी के बाद सरकार ने उन्हें स्वीकार कर लिया.  यह अच्छा था क्योंकि सरकार के बस में और कालेज खोलना न था. पर इन में चूंकि बहुत पूंजी लगती है, छात्रों से मोटी फीस देने की जबरदस्ती की गई, उन से कैपिटेशन फीस भी वसूली जाने लगी.

मैडिकल शिक्षा इस तरह बेहद महंगी हो गई और साथ ही, प्रवेश में ढेरों धांधलियां भी होने लगीं. मैडिकल काउंसिल औफ इंडिया ने इसे रोकने के लिए कौमन एंट्रैंस टैस्ट की व्यवस्था थोपी थी पर चूंकि इस से निजी कालेजों के प्रबंधकों के मौलिक अधिकार छिन रहे थे, सर्वोच्च न्यायालय ने उसे गलत ठहरा दिया.  इस समस्या का हल आसान नहीं. नाम वाले निजी कालेज अब पुराने सरकारी कालेजों की तरह ख्याति पाने लगे हैं और प्रवेश के लिए इच्छुकों की भीड़ कम नहीं हुई. बच्चों पर खर्च करने के लिए मातापिता के पास अब पैसा ज्यादा है तो उस की लूट मच गई है. बजाय कोई सही रास्ता सुझाने के सुप्रीम कोर्ट ने समस्या को अधर में छोड़ दिया है और अब सरकार उस पर कोई फैसला भी नहीं कर सकती. 

देश को चिकित्सा कालेजों की बहुत जरूरत है और गांवगांव में चिकित्सा उपलब्ध हो सके, इस के लिए हर तरह के चिकित्सक चाहिए ही. इस मामले में ज्यादा ढीलढाल आगे चल कर महंगी साबित होगी.

आप के पत्र

सरित प्रवाह, जुलाई (प्रथम) 2013

भजभज मंडली में पिछले दिनों नेतृत्व को ले कर उठे सवालों और उन के भविष्य में होने वाले परिणामों पर ‘गठबंधन की गांठ’ शीर्षक के अंतर्गत आप के संपादकीय विचार पढ़े. धर्म, जाति, संप्रदाय के नाम पर लोगों को उल्लू बना कर अपनी सत्ता बनाए रखने की खातिर जुगाड़ और गठबंधन के खेल का अंत यही होता है. अनपढ़ लोग इन नकाबी नेताओं के घडि़याली आंसुओं के बहकावे में भले ही आ जाएं लेकिन पढ़ेलिखे लोग भी जब इस तरह की ओछी, स्वार्थी राजनीति के शिकार बनें तो वाकई आश्चर्य होता है. कलियुगी रावणों ने राम का सहारा ले कर केवल अपना स्वार्थ सिद्ध किया है, इंसानियत का भला नहीं.

छैल बिहारी शर्मा ‘इंद्र’, छाता (उ.प्र.)

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आप की टिप्पणी ‘व्यवस्था में अव्यवस्था’ पढ़ कर निसंकोच ऐसी सल्तनत के लिए यह कहा जा सकता है कि ‘अंधेर नगरी चौपट राजा टका सेर भाजी टका सेर खाजा’. आज जनसाधारण में ‘चोरचोर मौसेरे भाई’ की धारणा फैली हुई है. यह तनिक भी गलत नहीं. वर्तमान में देश में हुए घोटालों, महाघोटालों से इस तथ्य की पुष्टि भी हो जाती है. मात्र ईमानदारी का ढोल पीटने या वैसा नकाब ओढ़ लेने से कोई सत्यवादी हरिश्चंद्र नहीं बन जाता. उस के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति, कर्तव्यपरायणता व उचित कदम उठाने की कूवत भी तो होनी चाहिए. ऐसा तभी संभव हो सकता है जब नेता अपनी सात पुश्तों हेतु हराम की कमाई इकट्ठा करने की नीयत को बदलें. मगर जब किसी की सोच ही ‘जब मिल जाए खाने को, तो क्यों  जाएं कमाने को’ जैसी होगी, तो फिर भ्रष्टाचारियों, लुटेरों, कानून की धज्जियां उड़ाने वालों व हराम की मिलबांट कर खाने वालों का गठबंधन तो होगा ही.  यों भी कहावत प्रचलित है कि ‘जब सैंया भए कोतवाल तो डर काहे का.’ ऐसे में हम चाहे जितना होहल्ला मचा लें, न तो देश की गरीबी ही कम होगी, न लूटखसोट रुकेगी और न ही जनसाधारण को कानून के नाम पर दी जाने वाली प्रताड़ना से मुक्ति? मिलेगी.

ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘व्यवस्था में अव्यवस्था’ पढ़ी. इस में आज के शासनतंत्र का सही चित्रण है. हम इस ‘भ्रष्ट तंत्र’ के नियमों में फंसे हुए हैं. भ्रष्टाचार की गाड़ी बेरोकटोक आगे बढ़ रही है. बेईमानी का खेल जारी है. जनता की नजरों पर नियमों का परदा पड़ा है. सरकारी भ्रष्टाचार पर न्यायाधीश वक्तव्य दें या विदेशों में आलोचना हो, भ्रष्टाचारियों पर फर्क नहीं पड़ता. लोकतंत्र तो शाश्वत है पर क्या इस तंत्र का उपरोक्त स्वरूप भी शाश्वत होना चाहिए?

कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

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आप की टिप्पणी ‘भाजपा का खयाली पुलाव’ सामाजिक, सामयिक, सचाई से ओतप्रोत व ज्ञानवर्द्धक है. आप ने यह बिलकुल ठीक लिखा है कि नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी का मुख्यतम नेता मान लेने में ही जिन्हें भलाई दिख रही है, उन्होंने जिस तरह का हंगामा खड़ा किया वह आने वाले दिनों का संकेत दे रहा है. आप का यह कहना काबिलेतारीफ है कि नरेंद्र मोदी का बुलडोजर देश के प्रति चिंता करने वाले भारतीय जनता पार्टी के रहेसहे नेताओं को रौंद कर धार्मिक संकीर्णता की कंटीली ?ाडि़यों के लिए जगह खाली करने को चल पड़ा है.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘धर्मजनित विचार शून्यता’ में नेता, बुद्धिजीवियों और प्रचार माध्यमों की अच्छी खबर ली गई है. आजकल विपक्ष और सत्तापक्ष के नेताओं में मात्र टांगखिंचाई का खेल चल रहा है. देश की गंभीर समस्याओं के लिए न तो समय है और न ही नेता इन की परवा करते हैं. नक्सली जो करना चाहें वह करें.  एक आम चुनाव हो जाने के बाद विपक्षी पार्टी अगले 5 साल तक केवल अपना प्रधानमंत्री बनाने का प्रोग्राम चलाती है. कई अखबारपत्रिकाएं उस की मुट्ठी में हैं जो रहरह कर उस के प्रधानमंत्री पद के दावेदार का प्रचार बेवजह करती रहती हैं, बिना बहुमत पाए प्रधानमंत्री बनाने का खेल केवल भारत में ही संभव है.  धर्मजनित विचारशून्यता तो जानबू?ा कर हमारी कमजोरी बनाई जा रही है वरना बीते दशकों में यह विचारशून्यता देश में कमजोर हो गई थी.

माताचरण, वाराणसी (उ.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘धर्मजनित विचार- शून्यता’ के तहत आप के विचारों से हम सब (मैं, मेरे दोस्त और हम सब के परिवार) पूरी तरह सहमत हैं. हमें भी ताज्जुब होता है कि जब हमारे देश में हर जना (करोड़पतियों और नेताओं को छोड़ कर) दुखी हो कर सड़क पर उतर रहा है तो उस का कोई उपाय क्यों नहीं ढूंढ़ा जाता? टैलीविजन पर आजकल एक नया जोश देखा जा रहा है. सारे न्यूज चैनल, चाहे  वे हिंदी के हों या अंगरेजी के, विशेषज्ञों का पैनल बैठा देते हैं. किसी भी मुद्दे को वे बड़ा बना कर बहस शुरू कर देते हैं. अजीब यह है कि बहस पर जो भी बोलना शुरू करता है, उसे बीच में ही रोक देते हैं. कभी?भी कोई हल निकलता तो मैं ने देखा नहीं. पैनल में शामिल होने वाले विशेषज्ञ अधिकतर राजनीतिक दल के होते हैं या फिर रिटायर्ड लोग होते हैं.

मुझे लगता है यह भी एक धंधा हो गया है. स्वयं पार्टी में होने के बावजूद कोई काम करते नहीं हैं. इसी तरह कुरसी पर जब बैठे थे तब कुछ किया नहीं और रिटायर होने के बाद गलतसही के मसीहा बन बैठे.  मैं समझता हूं मीडिया चाहे वह टैलीविजन हो या समाचारपत्र और या फिर मैगजीन, सार्वजनिक बहस केवल गंभीर व पेचीदा मामलों पर ही होनी चाहिए और कोशिश हल?ढूंढ़ने की होनी चाहिए. आम चुनाव 2014 में होंगे और सब अपनेअपने काम छोड़ कर चुनाव जीतने की तैयारी में लग गए हैं. क्या इस तरह देश चलता है? मीडिया ने एक नई चीज पकड़ ली है. लोगों के ट्विटर और ब्लौग से खबरें ला कर चर्चा का विषय बना रहे हैं. ये लोग आप का संपादकीय नहीं पढ़ते?

ओ डी सिंह, वडोदरा (गुजरात)

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प्रकृति का प्रकोप

उत्तराखंड में प्रकृति का प्रकोप एक अवर्णनीय विभीषिका है. समस्त उत्तराखंड के लिए यह चिंता का विषय है. सवाल यह है कि क्या हिंदी या किसी भारतीय भाषा के पंचांग में इस प्रकार के भीषण संकट का संकेत था?

डा. के सिंघल, तमिलनाडु (चेन्नई)

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गुजरात में बिजली

जुलाई (प्रथम) अंक में ‘विकसित गुजरात की अविकसित तसवीरें’ शीर्षक से प्रकाशित पूरक लेख पढ़ा.  केवल एक घटना को माध्यम बना कर गुजरात में 24 घंटे मिलने वाली बिजली को गलत साबित करने की कोशिश गलत है. 24 घंटे बिजली न मिलने से होने वाले नुकसान को भुक्तभोगी ही जानते हैं. महाराष्ट्र में कहीं ज्यादा किसान आत्महत्या करते हैं. लेख में जो अन्य विषय उठाए गए हैं वैसे किसी भी राज्य के लिए लिखे जा सकते हैं. भ्रष्टाचार के लिए हमारी राजनीतिक, आर्थिक (कर प्रणाली), कानूनी व्यवस्था जिम्मेदार है.  मोदी की उपलब्ध्यों को बढ़ाचढ़ा कर बताना उतना ही गलत है जितना कि उन्हें नकारना. क्या अच्छे काम की प्रशंसा नहीं होनी चाहिए? क्या सब चीजें काली या सफेद ही होती हैं?

गोपाल कृष्ण, मुंबई (महा.)

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सरिता की दिशा

जुलाई (प्रथम) अंक के मुखपृष्ठ पर छपे चित्र को देख कर आश्चर्यमिश्रित कष्ट हो रहा है. मेरी नन्ही सी पोती इस चित्र को देख कर पूछ रही है, ‘अम्मा, यह क्या है?’ मु?ो शर्म आ रही है कि मैं उसे क्या बताऊं.  घरघर में पढ़ी जाने वाली सरिता, जिसे मैं अत्यंत स्नेह और आत्मीयता के साथ 40 वर्षों से पढ़ रही हूं, देश की लाखों बहनें जिस पत्रिका के नए अंक का बेसब्री से इंतजार करती हैं, जिस में प्रकाशित होने वाली कहानियां, कविताएं, लेख दिल को अंदर तक भिगो देते हैं, उस पत्रिका के मुखपृष्ठ पर सस्ती लोकप्रियता के लिए ऐसा चित्र प्रकाशित करने की मजबूरी कैसे आन पड़ी? अंधविश्वास और कुरीतियों पर प्रहार करने वाली, ज्ञानवर्धक, स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करने का सरिता का जो उत्कृष्ट रूप है, कृपया उसे विकृत मत कीजिए. सैक्स के नाम पर अश्लील सामग्री को देख कर देश में अमर्यादित यौनाचार ही बढ़ेगा.

डा. वीना अग्रवाल, हरिद्वार (उत्तराखंड)

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स्वस्थ सैक्स यानी स्वस्थ जीवन

जुलाई (प्रथम) अंक ‘सैक्स स्वास्थ्य विशेषांक’ में आधुनिक लाइफस्टाइल में सैक्स की महत्ता की जानकारी दी गई है जिसे हर पतिपत्नी को जानना चाहिए. अच्छा स्वास्थ्य व स्वस्थ जीवनशैली का संतुलन बना कर जिंदगी गुजारनी चाहिए. गलत जीवनशैली का सैक्स लाइफ पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. देर रात तक पार्टियां, धूम्रपान व शराब का सेवन नकारात्मक जीवनशैली को जन्म देता है. इस से शुक्राणुओं की संख्या व गतिशीलता में कमी आ जाती है. इसी तरह गुस्सा, काम का अनावश्यक बो?ा, उच्च रक्तचाप आदि स्वस्थ सैक्स से लोगों को दूर ले जाते हैं. तनावरहित सैक्स दवा का काम करता है.

रीता सिन्हा, गाजियाबाद (उ.प्र.)

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बच्चों के प्रति मातापिता की जिम्मेदारी

जुलाई (प्रथम) अंक में लेख ‘बच्चों की परवरिश : न बरतें लापरवाही’ पढ़ा. इस में कोई दोराय नहीं कि मांबाप बड़े अरमानों से औलाद को पालते हैं. उन के भविष्य के सपने देखते हैं और उन्हीं के लिए मेहनत कर पैसा कमाते हैं. बच्चों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सब से पहले मातापिता की ही बनती है. बात अमीरी और गरीबी की नहीं है बल्कि बच्चों की जिंदगी की है. माना पैसा एक बड़ी कमी है पर एहतियात बरतने में तो कुछ खर्च नहीं होता.

बच्चों को दैनिक जीवन में आने वाले छोटेबड़े खतरों से अवगत कराएं ताकि वे सचेत रहें. सुरक्षा से देर भली, यह बात उन के जेहन में रहनी चाहिए क्योंकि आज बच्चों में उतावलापन, गुस्सा, आगे बढ़ने की होड़ कुछ ज्यादा ही है. बच्चों के जीवन में मातापिता की अहम भूमिका होती है. उन के सही दिशानिर्देश उन्हें जीवन में सही राह दिखाते हैं. अत: बच्चों की उचित परवरिश उन का संपूर्ण व्यक्तित्व निखार देती है.

मीना टंडन, कृष्णा नगर (न.दि.)

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हिंसा समस्या का समाधान नहीं

जून (द्वितीय) अंक में ‘लोकतंत्र की पोल खोलता लालतंत्र’ लेख पढ़ा. लेख में आदिवासियों की समस्याएं उजागर की गई हैं. रेखांकित करने की कोशिश की गई है कि सालों से शोषितपीडि़त आदिवासी ही आज नक्सली के रूप में हैं. ऐसा लग रहा है कि लेख नक्सलियों के समर्थन में लिखा गया है. आदिवासी दशकों से शोषित किए जा रहे हैं. आजादी के बाद उन के विकास के नाम पर अरबों रुपए खर्च किए गए लेकिन उन के इलाकों में आज भी विकास कहीं नहीं दिखता. सारी रकम नेताओं और अफसरों की तिजोरी में चली गई. वहीं, यह भी सही है कि विधानमंडलों और संसद में उन का प्रतिनिधित्व बहुत कम है.

इस सब के बावजूद आदिवासी हिंसा का समर्थन नहीं किया जा सकता. आदिवासी इसलिए कह रहा हूं कि नक्सली कहीं से आयातित नहीं हैं. इन्हीं आदिवासियों के दबंग तबके ने बंदूकें उठा ली हैं. जरा सोचिए, इन नक्सलियों ने अब तक हजारों बेगुनाहों की हत्या कर के कितनों को यतीम कर दिया. जबकि ये बेचारे दूरदूर तक इन के शोषण के जिम्मेदार नहीं थे. क्या अब भी नक्सलियों और आतंकवादियों में कोई फर्क बचा है? आतंकवादी भी मौत का नंगा नाच करते हैं और ये भी मौत का तांडव करते हैं. दोनों का एक ही मकसद है आतंक फैलाना.

नक्सली अब आदिवासियों के हितों की अनदेखी कर रहे हैं. बंदूक के बल पर वे हर साल 600 करोड़ रुपए की लेवी लेते हैं. लेकिन इस भारीभरकम रकम से वे आदिवासियों के जीवन सुधार के लिए शायद ही कोई काम करते हों. यह अति गरीब तबका आज भी दो जून की रोटी का मुहताज है. कुछ जगहों पर मैं ने देखा है कि आदिवासी महुआ और रोटी खा कर जीते हैं. लेकिन फिर भी हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं बन सकती. इसलिए आदिवासियों के भले के लिए ईमानदारी से प्रयास किए जाने चाहिए.           

शाहिद नकवी, इलाहाबाद (उ.प्र.) 

नेताओं पर अदालती हथौड़ा

सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व कानून की एक धारा को असंवैधानिक करार देते हुए यह व्यवस्था की है कि जिन जनप्रतिनिधियों  को किसी आपराधिक मामले में 2 साल से ज्यादा की सजा किसी अदालत से मिल चुकी हो, वह अपील के बावजूद जनप्रतिनिधि न रहेगा और उस की सीट खाली मानी जाएगी. राजनीति में पिछले वर्षों में बड़ी संख्या में अपराधी आए हैं क्योंकि अपराध साबित होने पर वे अपील कर देते थे और चूंकि अपीलें महीनों नहीं, सालों बाद सुनी जाती थीं, वे बारबार चुने जाते रहे हैं.

यह मांग जनता बहुत दिनों से कर रही है कि राजनीति में साफसुथरे लोग ही आएं तथा जिन लोगों पर आपराधिक मामले चल रहे हैं वे न चुनाव लड़ सकें न पद पर बने रह सकें. अब तक चूंकि बहुत मामलों में अपीलों का सहारा था और अंतिम निर्णय नहीं आया हुआ होता है, जनप्रतिनिधि बच निकलते थे.

राजनीति में से अपराधी गायब होने चाहिए क्योंकि उन्होंने ही अफसरशाही से मिल कर प्रशासन को खराब किया है. अफसरशाही उस तरह के नेताओं का स्वागत करती है जिन पर दाग लगे हों क्योंकि उन के साए में भ्रष्टाचार करने पर दोष दागियों को लगता है पर मलाई अफसरों को मिल जाती है. अफसरशाही नहीं चाहती कि शरीफ नेता आएं क्योंकि तब उन्हें मनमानी करने का मौका नहीं मिलेगा.

जिस सरकारी अत्याचार व अनाचार से जनता कराह रही है वह नेताओं से ज्यादा अफसरशाही का है और अफसरशाही पर लगाम कसने के लिए जरूरी है कि नेता शरीफ, साफ छवि वाला हो जो निडर हो कर काम कर सके. लेकिन जब ऐसे नेताओं की बाढ़ आ जाए जो ऊपर से नीचे तक कोलतार से रंगे हों तो नौकरशाही तो उस का लाभ उठाएगी ही.

सुप्रीम कोर्ट का फैसला नेताओं पर तो अंकुश लगाएगा ही, उस से ज्यादा यह अफसरशाही के पर कतरेगा. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को मानना अब हर दल को अनिवार्य है क्योंकि आज माहौल ऐसा है कि कोई दल संविधान संशोधन की भी बात नहीं कर सकता. इसीलिए सभी दलों को, जिन्होंने बेईमानों और गुंडों को पनाह दे रखी है, इस फैसले का स्वागत करना पड़ा.

बस, कठिनाई यह है कि अब पहली अदालत अति शक्तिशाली हो गई है. हर नेता उसे खरीदने का प्रयास करेगा और जिलों या तहसीलों के जज इस दबाव को सह पाएंगे, इस में संदेह है. उच्च न्यायालय तक पहुंचतेपहुंचते न्यायाधीश पक्के हो जाते हैं पर अब अच्छेबड़े नेताओं की चाबी एक मजिस्ट्रेट के हाथ में रहेगी. अब राजनीति में विरोधी को पछाड़ने के लिए झूठे मामले दर्ज कराए जाने भी ऐसे बढ़ जाएंगे जैसे दहेज हत्याओं या बलात्कार के मामलों में हो रहे हैं. देश इस से ढंग से निबट पाएगा, इस में संदेह है.

 

मनोव्यथा

पलक झपकते ही मन में

तुम ने कैसी प्रीत जगा दी

मधुरमधुर मुसकरा कर तुम ने

तन में कैसी अगन लगा दी

 

इसे बुझाने का कितना भी

यत्न करूं, सब निष्फल होगा

 

शर्म से दहके गाल बन गए

वे सिंदूरी आम तुम्हारे

दो नटखट वे नैन बन गए

दो अंगूरी जाम तुम्हारे

 

नशा चढ़ा है, क्या उतरेगा?

यत्न करूं, सब निष्फल होगा.

 डा. महेंद्र कौशिक

इन्हें भी आजमाइए

  1. धुलाई करने के बाद अगर परदे में रौड डालने में असुविधा हो तो किसी पुराने बेकार प्लास्टिक के थैले का एक कोना काट कर रौड के सिरे पर लगा दें. ऐसा करने से रौड आसानी से परदे में पड़ जाती है.
  2. कांच के 2 गिलास एकदूसरे में फंस जाएं तो अंदर वाले गिलास में थोड़ा ठंडा पानी डाल कर दोनों गिलासों को गरम पानी में खड़ा कर दीजिए. गिलास निकल जाएगा.
  3. क्रेप के ब्लाउज या फ्रौक धोते समय उन में कलफ दे दीजिए. इस से उन पर प्रैस करना आसान होगा, साथ ही वे हैंगर में टंगे रहने पर भी ठीक रहेंगे.
  4. कपड़ों से पसीने का दाग हटाने के लिए पानी में एक चम्मच सिरका डाल कर उस में कपड़ों को भिगो दें. कुछ देर बाद साबुन से धो लें.
  5. सिलाई मशीन में तेल डालने के बाद एक ब्लौटिंग पेपर को 3-4 बार सी लें ताकि तेल से कपड़े खराब न हों.
  6. सच्चे मोतियों के हार आदि आभूषणों को साफ करने के लिए उन्हें चावल के आटे से मलिए.
  7. जूतों या सैंडिल पर पौलिश करते समय किसी पुराने मोजे का प्रयोग करना चाहिए ताकि हाथ खराब न हों.

सितारे बुलंदी पर

श्रीलंका मूल की बौलीवुड अदाकारा जैक्लीन फर्नांडिस के इन दिनों उत्साहित होने की कई वजहें हैं. पहले तो उन की पिछली रिलीज दोनों फिल्में ‘हाउसफुल’ और ‘रेस’ सुपरहिट साबित हुईं और अब वे टौप अदाकार सलमान खान के साथ फिल्म ‘किक’ की शूटिंग भी जल्द ही शुरू करने वाली हैं.

इस फिल्म का पहला शैड्यूल लंदन में शूट होगा. लिहाजा, वे सलमान के साथ ब्रिटेन जाने के लिए खूब उत्सुक हैं. यही नहीं, जैक्लीन का अभिनेता प्रभुदेवा के साथ आइटम सौंग ‘जादू की झप्पी’ भी खासा पौपुलर हो रहा है.  जैक्लीन मैडम, लगता है इन दिनों आप के सितारे वाकई बुलंदीं पर हैं.

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