‘भाग मिल्खा भाग’ भारत के जानेमाने धावक मिल्खा सिंह की जीवनी पर बनी फिल्म है. मिल्खा सिंह के बारे में आज तक ज्यादा कहासुना नहीं गया है. मिल्खा सिंह 1960 में रोम ओलिंपिक में भारत की तरफ से दौड़ा था, मगर हार गया था. वह क्यों हारा था? 1956 में मेलबोर्न में हुई क्वालिफाइंग दौड़ में भी उसे हार का मुंह क्यों देखना पड़ा था, इन सब बातों पर रोशनी डालती इस फिल्म में मिल्खा सिंह के 13 वर्षों की दौड़ के जीवन को दिखाया गया है.

फिल्म का निर्देशन राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने किया है.  निर्देशक और उस की टीम ने मेहनत की है. फिल्म भले ही मिल्खा सिंह की रियल लाइफ पर बनी हो पर निर्देशक ने फिल्म को फनी बनाने के लिए कुछ प्रसंग ऐसे भी जोड़े हैं जो फिल्म को रोचक बनाते हैं. उड़ते जहाज में मिल्खा सिंह का सीट से खड़े हो कर शोर मचाना कि जहाज काफी ऊंचाई पर उड़ रहा है, पायलट जरूर इसे ठोकेगा. इस के अलावा मिल्खा सिंह का देसी घी से भरे 2-2 किलो के डब्बों को पी जाना जैसे प्रसंग ऐसे ही हैं. मेलबोर्न में क्वालिफाइंग दौड़ के लिए मिल्खा सिंह का एक पब में जा कर बीयर पी कर अंगरेज युवती के साथ नाचना और रात में अनजाने में ही सही, उस के साथ सैक्स करना जैसी बातें गले नहीं उतरतीं.

इस बायोग्राफिकल फिल्म में मिल्खा सिंह का किरदार ऐक्टर फरहान अख्तर ने निभाया है. मिल्खा सिंह जैसी बौडी बनाने के लिए उसे 6 महीने तक कड़ी मेहनत और अभ्यास करना पड़ा. मिल्खा सिंह की भूमिका के लिए निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने पहले अक्षय कुमार को एप्रोच किया था. अक्षय को लगा था, वह इस भूमिका के लिए फिट नहीं है. इसलिए उस ने मना कर दिया था. ‘भाग मिल्खा भाग’ के लिए फरहान अख्तर ने न सिर्फ मिल्खा सिंह जैसी बौडी बनाई है वरन अपने सिक्स पैक भी दिखाए हैं, जो हर वक्त फड़कते दिखते हैं. अधिकांश समय उसे बनियान पहने ही टे्रनिंग लेते दिखाया गया है. इस फिल्म में मिल्खा सिंह दौड़ा तो बहुत है परंतु फिनिश लाइन पर पहुंचतेपहुंचते उसे 3 घंटे से ज्यादा का समय लग जाता है यानी फिल्म 3 घंटे से ज्यादा लंबी है. फिल्म की लंबाई कम से कम आधा घंटा कम होती तो फिल्म में जान आ सकती थी. आर्मी कैंप, भारतपाक बंटवारे और प्रेमप्रसंग के दृश्यों को आसानी से छोटा किया जा सकता था.

फिल्म की कहानी रोम ओलिंपिक से शुरू होती है. मिल्खा सिंह प्रतियोगिता में हार जाता है. यहीं से फिल्म फ्लैशबैक में चली जाती है. भारतपाक बंटवारे के दौर में उस का परिवार पाकिस्तान के मुलतान शहर में रहता था. दंगाइयों ने उस के परिवार के सभी सदस्यों को मार डाला था. उस वक्त मिल्खा सिंह 10-12 साल का था. वह अपनी जान बचा कर भाग निकला था. दिल्ली पहुंचा मिल्खा सिंह एक रिफ्यूजी कैंप में अपनी बहन (दिव्या दत्ता) से मिला. दिल्ली में शाहदरा में अपनी बहन के घर में रहते हुए मिल्खा का दिल पड़ोस में रहने वाली निर्मल कौर (सोनम कपूर) पर आ गया. निर्मल के कहने पर मिल्खा सिंह ने आवारागर्दी छोड़ कर फौज में जाने का फैसला कर लिया. यहां मिल्खा के टैलेंट को फौज के कोच (पवन मल्होत्रा) ने पहचाना और फिर मिल्खा सिंह ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. उस ने अपने जख्मी पैरों के साथ दौड़ कर देश को कई पदक दिलवाए. एक बार पाकिस्तान के धावक को पछाड़ कर उस ने देश के गौरव को बढ़ाया. तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने मिल्खा सिंह की इच्छा को पूरी करते हुए देश में एक दिन की छुट्टी की घोषणा की.

फिल्म की यह कहानी सुस्त रफ्तार से चलती है. निर्देशक ने मिल्खा सिंह से जुड़ी तमाम बातों को जरूर प्रभावशाली ढंग से दिखाया है. मसलन, एक ब्लैजर पाने के लिए मिल्खा सिंह को अपमान भी सहना पड़ा. फौज में रहते हुए दूध और अंडों के मोह ने उसे रेसिंग ट्रैक का रास्ता दिखाया.

फिल्म का निर्देशन अच्छा है. शंकर एहसान लोय का संगीत काबिलेतारीफ है. फरहान अख्तर ने तो अपनी भूमिका में जान फूंकी ही है, पवन मल्होत्रा का काम भी तारीफ के लायक है. सोनम कपूर आई और रोमांस कर के गायब हो गई. मिल्खा सिंह के बचपन का किरदार निभाने वाले कलाकार जाबतेज सिंह का तो जवाब नहीं. फिल्म का छायांकन काफी अच्छा है.

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