सरित प्रवाह, अप्रैल (प्रथम) 2014
संपादकीय टिप्पणी ‘भारत के हीरे’ में विदेशों में बसे भारतीयों की उपलब्धियों पर अच्छा प्रकाश डाला है. क्या कारण है कि जो भारत में कमाखा नहीं पाते वे विदेशों में ऊंची कुरसी पा जाते हैं? यह व्यंग्य भी अच्छा है कि भारतीय अच्छे पदों पर बैठ कर कोई तीर नहीं मार रहे हैं. यह काम तो वहां चीनीजापानी भी कर रहे हैं. अलबत्ता, गांधी के देश के होने के कारण उन्हें अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा अधिक तरजीह देते हैं.
आप का खंगालने वाला सुझाव भी अच्छा है कि भारत के कंकड़पत्थर दूसरे देशों में हीरे कैसे बन जाते हैं? भारत की मिट्टी में जहर इसलिए भरा है कि यहां लोगों को जातियों में बांट उन का शोषण किया जाता है. कुछ नमूने पेश हैं :
भारतीय मूल के उद्योगपति चेत कन्नौजिया ने अपने आविष्कार द्वारा अमेरिकी टीवी उद्योग की नींद उड़ा दी है. यदि वे भारत में होते तो अछूत बना, विद्याविहीन रखे जाते. ऐसा ही हाल गीता पासी का है जिन्हें ओबामा ने अपना राजदूत बना रखा है, इसीलिए भारत के कंकड़ विदेश में हीरे बन जाते हैं.
माताचरण पासी, देहरादून (उत्तराखंड)
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‘गुजरात के सच की पोल’ शीर्षक से प्रकाशित टिप्पणी में अत्यंत उत्कृष्ट, सामाजिक व सामयिक आप के विचार हैं. आप का यह कहना कि आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल ने अपने 3 दिन के दौरे में गुजरात के झूठे विकास के प्रचार की पोलपट्टी खोल कर नरेंद्र मोदी पर कस कर प्रहार किया है, अक्षरश: सत्य है. नरेंद्र मोदी जो गुजरात विकास का नारा लगा रहे थे, उस की जांच आमतौर पर कोई नहीं कर रहा था पर टीवी कैमरामैनों के साथ चल रहे अरविंद केजरीवाल उन्हीं जगहों पर गए जहां विकास नहीं हुआ और इस तरह उन्होंने गुजरात की दूसरी छवि प्रस्तुत कर दी.
जब अरविंद केजरीवाल उन से मिलने जाने लगे तो नरेंद्र मोदी ने भयाक्रांत हो कर 5 किलोमीटर पहले उन का रास्ता ही रुकवा दिया. एक पूर्व मुख्यमंत्री अपनी ओर से मिलने की पेशकश करे, वह भी उस जने से जिस के दरवाजे हर किसी से मिलने के लिए खुले होने चाहिए और जो मौजूद भी हो, तो उस मुख्यमंत्री को मिलने से इनकार नहीं करना चाहिए.
यह सत्य है कि अरविंद केजरीवाल छापामार राजनीति कर रहे हैं और विरोधियों के मर्मस्थल पर वार कर रहे हैं. लोग उन्हें विदेशी मामलों, रक्षानीति, कश्मीर के प्रश्न, राज्यों के पुनर्गठन के मामलों में उलझाना चाहते हैं, पर वे इन से बच कर अदानी, अंबानी व रौबर्ट वाड्रा के मामले दोहरा रहे हैं जो भारतीय जनता पार्टी और कांगे्रस के कमजोर पहलू हैं. अब बात लोगों के दिलोदिमाग की है कि वे किस को वोट दे कर विजयी बनाते हैं.
कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)
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संपादकीय ‘प्रगति लेकिन कैसी’ में आप ने भारतीय प्रगति का बहुत ही सही आकलन किया है. आज बहुत से किसान अपनेअपने खेत बेच कर शहर का रुख कर रहे हैं. शहर से 30 किलोमीटर दूर मेरी भी कुछ पुश्तैनी खेती है. पिछले साल हमारे पूरे इलाके में सोयाबीन, अरहर व तिल्ली की फसल जून से सितंबर तक की लगातार हुई अतिवृष्टि में पूरी की पूरी ऐसी चौपट हुई कि एक दाना तक नहीं मिला. जैसेतैसे कर के रबी की फसल के मौसम में गेहूं और चना बोए.
बरसात के कारण जमीन में अच्छी नमी के चलते फसल अच्छीखासी लहलहा उठी थी, खासकर गेहूं की फसल तो बहुत अच्छी थी. पिछले मार्च की शुरुआत में मौसम का मिजाज बिगड़ा. ऐसे तेज ओले पड़े कि सारी फसल मटियामेट हो गई.
मेरा स्वयं खरीफ की फसल में 60 हजार रुपए व रबी की फसल में 70 हजार रुपए का नुकसान हो गया.
सोचता हूं कि इन्हीं 1.3 लाख रुपयों से यदि शहर में एक छोटामोटा प्लौट खरीद लेता तो बड़े ही फायदे में रहता. अपनी पूरी पेंशन मैं खेती में लगाता हूं कि धरती की छाती फाड़ कर कुछ सही पैदावार की जाए, पर आज तो मैं अपने बाबा की इस कहावत के सम्मुख नतमस्तक हूं-
कच्ची खेती गाभिन गाय
तब जानो जब मुंह में जाए
मेरे इलाके के 2 किसानों ने इसी साल आत्महत्या कर ली है. सरकार के पटवारी, नुकसान का सर्वे करने में खासी उगाही कर रहे हैं. जो उन के हाथ गीले नहीं कर पाते उन के लिए आत्महत्या ही विकल्प बचता है. दलाल व व्यापारी किसानों की फसल की बदौलत लगातार मालामाल होते जा रहे हैं जबकि दिनरात खूनपसीना बहाने वाला किसान नंगाभूखा है. देश के कर्णधार ही तो किसानों के खेत औनेपौने पर खरीद कर वहां कंक्रीट के जंगल तैयार करने में जुटे हैं. जब उन की इसी में पौबारह हो तो वे सच्ची प्रगति की ओर ध्यान क्यों देंगे?
गंगा प्रसाद मिश्र, नागपुर (महाराष्ट्र)
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ऐसा दौर कभी नहीं देखा
‘आम चुनाव में नदारद सामाजिक मुद्दे’ शीर्षक से अप्रैल (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख में कई मुद्दे स्पष्ट नहीं हो पाए, जैसे आने वाली सरकार वर्षों से लंबित मुकदमों को कब तक निबटाएगी? पूरे देश की पुलिसव्यवस्था कब तक पुराने ऐक्ट के भरोसे चलती रहेगी? कोई भी नेता मुद्दे की बात न कर के सामने वाले की टांग खींचने और अपशब्द बोलने में लगा है और चुनाव आयोग असभ्य भाषा बोलने वालों पर क्या लगाम कस पाया है?
दलबदल का ऐसा दौर कभी नहीं देखा. दलबदलू नेताओं से कारण पूछो तो वे कहते हैं कि हमारे बीच मतभेद हैं, मनभेद नहीं. कांगे्रस महासचिव कहते हैं कि चाय बनाने वाले की इज्जत करो, उल्लू बनाने वाले की नहीं. मगर चुनाव करीब आते ही टैलीविजन पर बड़ेबड़े सरकारी विज्ञापन हमें क्या बना रहे हैं, यह सभी जानते हैं. चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाने से भ्रष्टाचार को और बल मिलेगा. जो जितना लगाएगा, उस से कई गुना पाने की कोशिश भी करेगा.
मुकेश जैन ‘पारस,’ बंगाली मार्केट (न.दि.)
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शिवराज दूध के धुले नहीं
अप्रैल (प्रथम) अंक के लेख ‘युवा भविष्य का भक्षक शिक्षा माफिया’ पढ़ कर कहा जा सकता है कि जब कभी भी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और आम चुनाव में भाजपा के पीएम पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी के गुणावगुणों का बखान किया गया तो चौहान को ही ‘दूध का धुला’ यानी नमो से बेहतर बताने का प्रयास किया गया, लेकिन मध्य प्रदेश के इस शिक्षा घोटाले की दास्तां चीखचीख कर बयां कर रही थी कि राजनीति की काली कोठरी में ‘काला’ होने से कोई बच नहीं सकता. मसलन, प्रदेश में इतना बड़ा कोई घोटाला हो और प्रदेश के मुख्यमंत्री को इस का पता न हो, बात कहीं से भी और किसी के भी गले नहीं उतर सकती.
राज्य के ‘व्यापमं शिक्षा घोटाले’ की कालिख चाहे हम राज्य के शिक्षामंत्री (पूर्व) लक्ष्मीकांत शर्मा तथा उन के गुर्गों पर जितनी मरजी पोत दें मगर प्रदेश के मुख्यमंत्री का चेहरा ‘पाकसाफ’ कैसे रह सकता है? इस कलंक कथा की स्याही सीएम के चेहरे पर भी ठीक उसी तरह से पुती नजर आ रही थी जिस तरह सलाखों के पीछे से सहारा के बेसहारा महानायक (खलनायक) सहाराश्री के चेहरे पर नजर आ रही थी. समझ नहीं आता कि आज लोगों के पेट क्यों कुएं बन कर, हिंदमहासागर तक बनते जा रहे हैं, जिन में जितना मरजी सफेदकाला धन या फिर जरूरतमंद जनताजनार्दन से लूटा हुआ धन डाल दो, पेट भरते ही नहीं हैं.
ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)
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स्त्रियों का हो सम्मान
आप जिस माहौल में रहेंगे, वैसे हो जाएंगे. कुछ औरतों की दुनिया घर तक ही सीमित होती है. वे भी शिक्षित हैं. उन्होंने अपने घर के कामों के अनुसार अपने को ढाल रखा है. घर का काम करना ही उन की नियति है. अचानक उन के घर में कोई मेहमान आ जाए तो वह उस घर की महिला को घरेलू लिबास में देखेगा. घर भी अकसर अस्तव्यस्त सा दिखता है. जब कहा जाता है तुम्हें आएगए का खयाल रखना था तो महिला की तरफ से इस का उत्तर होता है ‘पहले से बता देते.’
इस के विपरीत एक कामकाजी औरत को देखें. वह घर के समय घर के कामों में मस्त रहती है. कामकाजी होने पर भी साफसफाई, रसोई आदि में पूरा दखल रखती है. चूंकि वह बाहरी दुनिया से जुड़ी होती है, पुरुषों के बीच में रह कर भी वह हर स्थिति के लिए सचेत रहती है. बाहरी पुरुष, बाहरी परिवेश उस का कुछ नहीं बिगाड़ पाते क्योंकि इस से लड़ने का उस में माद्दा है. वह यही कहना चाहती है- घर की दहलीज न रहा दायरा मेरा, मुकाम अपना बना लूंगी जिधर जाऊंगी. इसलिए स्त्रियों का बाहर निकलना समझदारी भरा प्रयास है.
दिलीप गुप्ता, बरेली (उ.प्र.)
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सराहनीय प्रयास
अप्रैल (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘आम चुनाव में नदारद सामाजिक मुद्दे’ में व्यक्ति व समाज को विकास के लिए अहम सामाजिक मुद्दों को आम जनता को बताने का जो प्रयास किया गया है वह सराहनीय है. वास्तव में देश के नेताओं, चाहे वे किसी भी दल के हों, को एकदूसरे पर व्यक्तिगत आरोपों के बजाय समाज के विकास के मुद्दे उठाने चाहिए. ऐसे मुद्दों पर बात हो तो देश की तसवीर बदल सकती है.
आजादी के बाद से देश में ज्यादातर कांगे्रस पार्टी ने राज किया और पिछले 10 वर्षों से कांगे्रस नीति गठबंधन यूपीए की सरकार चल रही है. गठबंधन की सरकार इस के पहले भारतीय जनता पार्टी और तीसरे मोरचे, जिस की आजकल फिर बात हो रही है, ने भी चलाई है, चाहे वह कम समय के लिए ही सही.
आज भाजपा नीत गठबंधन एनडीए द्वारा व यूपीए सरकार द्वारा क्या गलत कार्य किए गए, आम जनता को बताना चाहिए और अगर भाजपा शासन में आती है तो वह किस प्रकार देश का विकास करेगी, ऐसे मुद्दों की जानकारी देनी चाहिए. उसी प्रकार कांगे्रस यूपीए के दल आम जनता के सामने देश के विकास के मुद्दे रखें. साथ ही, आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल पर हमला करना, चांटा मारना, स्याही फेंकना, काले झंडे दिखाना, उन की गाडि़यों के शीशे तोड़ने वाले लोगों की देश की सभी पार्टियां आलोचना कर ऐसा करने वालों को समझाएं कि वे ऐसा कृत्य न करें.
भाजपा के कार्यकर्ता मोदी के नाम के बजाय पार्टी का प्रचार करें. क्योंकि हमारे देश में अमेरिका की तरह राष्ट्रपति का चुनाव तो होता नहीं. 273 सीट प्राप्त करने वाला दल ही प्रधानमंत्री बनाता है. इसलिए व्यक्तिपूजा पार्टी हित में नहीं है.
जगदीश प्रसाद पालड़ी, जयपुर (राज.)
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सब अपनी आंखें बंद किए बैठे हैं?
अप्रैल (प्रथम) अंक में ‘भारत भूमि युगे युगे’ के अंतर्गत ‘शीला चलीं केरल’ पढ़ कर अच्छा भी लगा और खराब भी. अच्छा इसलिए कि अरविंद केजरीवाल से करारी हार के बाद उन्हें दिल्ली से काफी दूर फेंक दिया गया है और चाहते हुए भी अब वे दिल्ली में गड़बड़ नहीं कर सकेंगी. खराब इसलिए लगा कि करारी हार के बावजूद उन्हें सजा की जगह, बतौर इनाम गवर्नर बना दिया गया है. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि उन की हार की वजह कुछ और न हो कर उन के नेतृत्व वाली भ्रष्टाचारी हुकूमत थी. एक समय था जब रिश्वत मेज के नीचे से ली जाती थी परंतु अब तो लोग इतने निडर हो चुके हैं कि सब के सामने रिश्वत दी या ली जा सकती है. जिस को शिकायत करनी है करता रहे, पहले तो पकड़े ही नहीं जाएंगे और यदि पकड़े गए तो सालों बेल पर निकाल देंगे. कोर्ट का फैसला तो जल्दी आएगा नहीं.
इसी तरह आजकल अपने लोगों को ऊंचे पदों पर बैठाना, खासतौर पर उन्हें जिन्होंने देश की कम जबकि अपनी और हाईकमान की ज्यादा सेवा की हो, काफी आसान हो चुका है. पुराने समय में किसी भी गलत फैसले पर तुरंत चर्चा हो जाती थी परंतु आजकल सब की आंखों के सामने इस तरह की हरकतें हो रही हैं, फिर भी सब अपनी आंखें बंद किए बैठे हैं. जैसा मुझे मालूम है, गवर्नर और राष्ट्रपति, हमारे संविधान के हिसाब से वही बन सकते हैं जो देश की राजनीति से ऊपर हों, परंतु मैं तो आएदिन इस का उल्लंघन होता ही देखता हूं. थोड़े दिन पहले प्रणब मुखर्जी, जो वित्त मंत्री थे, उन्हें राष्ट्रपति चुना गया था. लेखक ने ऐसा प्रश्न उठा कर बहुत अच्छा किया.
ओ डी सिंह, बड़ौदा (गुजरात)
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समलैंगिकता कोई नशा नहीं
मैं पिछले कई सालों से सरिता की नियमित पाठिका रही हूं. इस के अधिकतर लेख तथा कहानियां पाठकों को नए सिरे से सोचने पर मजबूर करते हैं. परंतु मार्च (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘समलैंगिकता : अपराधों को निमंत्रण’ मुझे अपरिपक्व मानसिकता से भरा लगा. लेख के परिचय में लिखा गया है ‘समलैंगिक रिश्तों के नशे में डूबे लोग समाज से छिप कर एक अलग दुनिया में जीते हैं.’
शायद लेखक ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि क्यों इन लोगों को समाज के हाशिए से दूर रहना पड़ता है. इस का कारण है समाज और उस की अविकसित सोच. समाज में मौजूद अधिकतर लोगों द्वारा समलैंगिकों के साथ एड्स या कोढ़ पीडि़तों की तरह असंगत व्यवहार किया जाता है. ऐसे में ये लोग अपने लैंगिक अनुकूलन को छिपाए रखने में ही अपनी भलाई समझते हैं.
समलैंगिकता कोई नशा नहीं है. इस के उद्भव के पीछे कई जैनेटिक, हार्मोनल और सामाजिकमानसिक कारण होते हैं. यदि समाज इसे विकृति भी मानता है तो मैं यही कहना चाहूंगी कि कोई भी विकृति सामने आने से नहीं बल्कि उसे छिपाने से और ज्यादा पनपती है. जहां तक लेखक ने आपराधिक मनोवृत्ति की बात की है तो उन के द्वारा दिए गए उदाहरणों को यदि हम इस नजर से देखें कि पीडि़त का संबंध समलैंगिक न हो कर साधारण (प्रकृति, समाज, कानून और लेखक के अनुसार) भी होता तो भी शायद यही परिणाम होते.
यहां बात समलैंगिक या विषमलैंगिक होने की नहीं है, बात है आपराधिक मानसिकता की. हवस के भूखे आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों का कोई निर्धारित लैंगिक अनुकूलन नहीं होता. जरूरत उन की आपराधिक मनोवृत्ति का निदान करने की है न कि उन्हें लैंगिक अनुकूलन के तौर पर विभाजित कर नकार देने की.
प्राची त्रेहन, जयपुर (राजस्थान)
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अपनी भी सोच होनी चाहिए
अप्रैल प्रथम अंक में प्रकाशित लेख ‘आम चुनाव में नदारद सामाजिक मुद्दे’ पढ़ा. स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी हमारे नेता किस प्रकार की राजनीति कर रहे हैं, उस का लेख में अच्छा पर्दाफाश किया गया. यह बिलकुल सही है कि सभी दल वोटबैंक की राजनीति के चलते देश को जाति व धर्म के आधार पर बांट रहे हैं.
जनता को जागरूक होना चाहिए कि जब राजनीतिक दल के लोग वोट मांगने आएं तो वह उन से पूछे कि सड़कें टूटी हैं, चारों ओर गंदगी का अंबार लगा हुआ है, बिजलीपानी की समस्या से लोग जूझ रहे हैं, आखिर इन समस्याओं का निदान कब होगा? अस्पताल की दवाएं क्यों आरएचएम घोटालों में गुम हो जाती हैं? लेकिन जनता कुछ पूछती नहीं, वह जातिधर्म के नाम पर वोट डाल आती है.
दरअसल, गलती जनता की है जो ऐसे सामाजिक मुद्दों पर आवाज नहीं उठाती. इस के लिए जनता को जागरूक होना पड़ेगा, अपनी सोच बदलनी पड़ेगी. साथ ही, अपनी भी कुछ सोच होनी चाहिए तभी देश का विकास होगा.
कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)
 
 

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