Download App

भारत भूमि युगे युगे

दलितब्राह्मण भाईभाई

समाज व देशभर से दबदबा टूटने के अलावा और भी कई वजहें हैं जिन के चलते ब्राह्मण समुदाय दुखी है. नई वजह पिछड़े वर्ग के नरेंद्र मोदी हैं जिन्हें भाजपा प्रधानमंत्री पद का अपना उम्मीदवार घोषित करने को उतारू है. बसपा सुप्रीमो मायावती ने लखनऊ में हालिया संपन्न ब्राह्मण भाईचारा सम्मेलन में बदली भाषा का इस्तेमाल किया.  नरेंद्र मोदी को निशाने पर रखते हुए उन्होंने कुछ ऐसे शब्दों का भी इस्तेमाल किया जिस की उम्मीद उन से नहीं थी. माया को मालूम है कि दलितों और ब्राह्मणों में भाषा का भी बड़ा फर्क है. लिहाजा, बजाय तीर्थयात्रा के चलन को कोसने के उन्होंने मोदी की क्षेत्रीय मानसिकता को कोसा. दलितों के पास अभी तीर्थयात्रा करने लायक पैसा भी नहीं है लेकिन अगर वाकई भाईचारा पनप पाया तो दलित भी सशुल्क वैतरणी पार करने में सवर्णों की बराबरी करने लगेंगे.

 

ज्योति धुन

किसी भी प्रदेश के सब से लंबे वक्त तक मुख्यमंत्री रहने का रिकौर्ड बनाने वाले पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु की जन्मशती इस साल मन रही है. माकपा मार्क्सवाद का दुखद और सीधासादा अंत देखने को तैयार नहीं है, इसलिए ज्योति बसु को उस ने देवता सरीखा बना दिया है. लोगों की थोड़ीबहुत दिलचस्पी ज्योति बसु में तो है पर माकपा और मार्क्सवाद में कतई नहीं.  दूसरी बड़ी दिक्कत बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हैं, जिन की अप्रिय बातों और घटनाओं के बाद भी उन की लोकप्रियता घट नहीं रही है. बहरहाल, इस फीकी जन्मशती से बंगाल के लोग हैरान हैं कि माकपा ज्योति बसु की आड़ क्यों ले रही है.

 

पांच रुपए पर बवाल

नरेंद्र मोदी की प्रस्तावित 11 अगस्त की हैदराबाद रैली का शुल्क 5 रुपए रखने पर कांग्रेस की तिलमिलाहट स्वाभाविक है पर विरोधाभास की बात इस मामले में यह है कि राजनीतिक दलों व नेताओं पर आरोप लगते रहते हैं कि वे पैसे दे कर भीड़ खरीदते हैं. इस मामले में उलटा हो रहा है कि भीड़ से ही पैसा लिया जा रहा है.  यह पैसा हालांकि राममंदिर निर्माण के चंदे सरीखे सा अरबों रुपए का नहीं है पर भाजपाइयों को इस बात का भी गहरा तजरबा है कि सिर्फ हाथ जोड़ने से कोई भक्त नहीं हो जाता, भक्त वह होता है जो जेब भी ढीली करे. तभी श्रद्धारूपी वोट मिलता है. काला पैसा ठिकाने लगाने का जरिया तो इसे नहीं माना जा सकता पर हास्य कलाकार राजू श्रीवास्तव जरूर इस से प्रेरणा लेते खासा पैसा बटोर सकते हैं जो कानपुर सीट से सपा के उम्मीदवार हैं.

 

कौकपिट में अभिनेत्री

कौकपिट क्या होता है, यह आम लोग नहीं जानते और जो जानते हैं वे इतना भर बता सकते हैं कि जैसे पुराने  जमाने की खटारा बसों में बोनट होता था, कुछकुछ वैसा ही हवाईजहाज में कौकपिट होता है. फर्क सिर्फ इतना है कि बस ड्राइवर अपनी मरजी से बोनट पर सवारी बिठा सकता है पर पायलट कौकपिट में नहीं.  बीते दिनों हैदराबाद-बेंगलुरु फ्लाइट में एअर इंडिया के 2 पायलटों ने दक्षिण भारतीय फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री निथाया मेनन को बैठाया तो एवज में उन्हें निलंबित होना पड़ा. कौकपिट आम यात्रियों के लिए सुरक्षा कारणों से नहीं होता पर दिल और मनमानी पर किसी का जोर नहीं चलता. सफर चाहे बस का हो, रेल का या फिर हवाईजहाज का, हर किसी की ख्वाहिश होती  है कि बगल में कोई खूबसूरत बाला हो  पर निथाया मेनन पायलटों के लिए बला साबित हुई.

विज्ञापन के लिए पाठक और दर्शक की अहमियत

विज्ञापन पत्रपत्रिकाओं की जान होते हैं. यदि विज्ञापन नहीं हों तो अखबार और पत्रिकाएं 10 गुना अधिक कीमत पर भी उपलब्ध नहीं हों. यहां भी प्रसार संख्या महत्त्वपूर्ण है. जिस की प्रसार संख्या जितनी अधिक होगी उस की विज्ञापन की दर भी उसी दर से बढ़ेगी. प्रसार और पाठक संख्या का प्रमाणपत्र पत्रपत्रिकाओं को सरकारी एजेंसी से मिलता है जिस के बल पर बड़ेबड़े होर्डिंग दावा करते हुएकहते हैं कि देश की सर्वाधिक प्रसार संख्या वाला समाचारपत्र या सब से अधिक पढ़ा जाने वाला अखबार आदि.

दरअसल, पत्रिकाओं की प्रसार संख्या उन के विज्ञापन का आधार होती है. इधर, टैलीविजन चैनलों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. उन्हें कितने लोग देख रहे हैं या उन्हें साप्ताहिक स्तर पर मिली टीआरपी के आधार पर विज्ञापन मिलते हैं और विज्ञापन की दर उसी आधार पर तय होती है.  विज्ञापनदाता को अपना सामान बेचना होता है, इसलिए वह ज्यादा से ज्यादा ग्राहकों तक अपने विज्ञापन के जरिए पहुंचना चाहता है और इस के लिए वह टैलीविजन, समाचारपत्रपत्रिकाओं का सहारा लेता हैं.

विज्ञापन दुनिया की प्रमुख कंपनी डाबर और नेस्ले ने साप्ताहिक आंकड़ा नहीं मिलने के कारण 8 टीवी चैनलों के विज्ञापन बंद कर दिए हैं. उन का कहना है कि टीवी कंपनियों की साप्ताहिक दर्शक संख्या यानी टैलीविजन औडियंस मेजरमैंट का डाटा नहीं मिल रहा है. टैम मीडिया रिसर्च का डाटा नहीं मिलेगा तो कंपनी टीवी चैनलों को विज्ञापन देना बंद कर देगी. टीवी चैनलों में इस निर्णय से हड़कंप मचा हुआ है. चैनलों को करोड़ों रुपयों का नुकसान हो रहा है. इन कंपनियों का कहना है कि टैम 14 साल से देश में टीवी दर्शकों का आंकड़ा प्रस्तुत करता रहा है और उस के आंकड़ों के आधार पर ही विज्ञापन देने की योजना बनाई जाती रही है लेकिन इधर टैम का आंकड़ा नहीं आया तो विज्ञापन देने के निर्धारण में दिक्कत खड़ी हो गई.

टैम का कार्य अब ब्रौडक्रास्ट औडियंस रिसर्च कौंसिल को मिलने की बात चल रही है लेकिन कौंसिल को काम की शुरुआत करने में अभी महीनों लगने की संभावना है. बहरहाल, पाठक और दर्शक या श्रोता किसी मीडिया संस्थान के लिए कितने महत्त्वपूर्ण हैं, इस का अंदाजा इन विज्ञापन कंपनियों के फैसले से लगाया जा सकता है. इसलिए आम आदमी की ताकत का सदैव सम्मान किया जाना जरूरी है.  

संप्रग सरकार के वालमार्ट प्रेम की कुछ तो वजह

पिछले साल वालमार्ट यानी दुनिया की सब से बड़ी खुदरा कंपनी को भारत में कारोबार करने की इजाजत देने जैसे मुद्दे पर संसद रिकौर्ड समय तक ठप रही. विपक्ष वालमार्ट पर सरकार की चुप्पी से परेशान हो गया लेकिन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी संप्रग सरकार का कोई नेता या घटक यह बताने को तैयार नहीं कि संसद को किन कारणों से ठप किया जा रहा है.

विपक्ष वालमार्ट को नहीं लाने की जिद पर अड़ा रहा तो संप्रग सरकार हर हाल में इस खुदरा कंपनी को भारत में काम करने की इजाजत देने के लिए कानून बनाने की बात पर अड़ी थी. इस बीच वालमार्ट से जुड़े घोटालों की कहानियां भी परत दर परत खुलती रहीं. अमेरिका में भी उस के घूसकांड की कहानियां गूंजीं लेकिन संप्रग सरकार उस के खिलाफ कुछ भी सुनने को राजी नहीं थी. इस बार फिर वालमार्ट का भूत दोबारा आ गया है.

केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो यानी सीबीआई ने कहा है कि वालमार्ट ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई में रिजर्व बैंक व विदेशी विनिमय मेंटिनैंस अधिनियम यानी फेमा कानून का उल्लंघन किया है. शिकायत में कहा गया है कि वालमार्ट ने 2010 के अपने भारतीय सहयोगी भारती को 593.1 करोड़ रुपए खुदरा व्यापार के जरिए भेजे हैं जबकि उस समय तक देश के खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की इजाजत नहीं थी. सीबीआई के अनुसार, यह आरबीआई के दिशानिर्देशों व फेमा का उल्लंघन है. इस की शिकायत राज्यसभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद एम पी अच्युतन ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भी की है. एक शिकायत तो पिछले वर्ष सितंबर में की गई थी लेकिन संप्रग सरकार ने इस शिकायत पर कोई ध्यान नहीं दिया.

राज्यसभा सांसद ने इस सौदे को अवैध करार दिया था लेकिन डा. सिंह ने इस दिशा में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. वालमार्ट रिश्वत दे कर अपना कारोबार बढ़ाने के लिए बदनाम है. उस पर वर्ष 2007 में किसी अन्य देश में कारोबार शुरू करने के लिए लाखों डौलर की रिश्वत देने का आरोप है और इस बारे में उस पर मुकदमा भी चल रहा है.

 

भारत में सस्ती कारों की बिक्री की गारंटी

वाहन निर्माता कंपनियां तेजी से भारत का रुख कर रही हैं. भारत वाहन निर्माण करने वाला दुनिया का सब से बड़ा देश है. सस्ती कार बनाने के लिए दुनिया की दिग्गज कार निर्माता कंपनियां भारतीय बाजार में संभावनाएं तलाश रही हैं. छोटी और सस्ती कार का कौंसैप्ट सब से पहले टाटा समूह ने दिया. उस की सस्ती कार नैनो ने पूरी दुनिया की कार निर्माता कंपनियों का ध्यान खींचा है. उस के बाद भारतीय बाजार की सभी प्रमुख कंपनियों में सस्ती कार बनाने की होड़ सी लग गई. रिनौल्ट निसान भी सस्ती कार ले कर भारतीय बाजार में आने की घोषणा कर चुकी है.

भारत छोटी कारों का आकर्षक बाजार है. सस्ती कार को खरीद कर यहां हर आदमी कार रखने का शौक पूरा करना चाहता है. देश में सड़कों का जाल बिछा है और सार्वजनिक वाहनों के भरोसे नहीं रहा जा सकता है. दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु जैसे महानगरों में सड़कें कम पड़ने लगी हैं. सड़कें चौड़ी की जा रही हैं लेकिन वाहनों की बढ़ती संख्या के कारण वे फिर भी छोटी पड़ रही हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में भी कारों, खासकर छोटी और सस्ती कारों का बाजार बढ़ रहा है. निसान कंपनी का तो यहां तक कहना है कि यदि वह कुछ बेहतर करती है तो छोटी कार भारतीय बाजार में बिक्री की गारंटी है. किसी दूसरे देश के लिए इस तरह की गारंटी नहीं दी जा सकती है.

कंपनी के सीईओ कार्लोस घोसन कहते हैं कि वे नैनो से सस्ती कार तो नहीं बेच सकते लेकिन उन के पास आंकड़े हैं कि भारतीय बाजार में छोटी कारों की बिक्री की संभावना है. वे कहते हैं कि अमेरिका में 1 हजार में से 800 लोगों के पास कारें हैं, यूरोपीय देशों में करीब 600 लोगों के पास हैं जबकि रूस में 280, ब्राजील में 200, चीन में 60 व भारत में 15 लोगों के पास कारें हैं. इस तरह से भारतीय बाजार में संभावनाएं काफी हैं. यही नहीं, भारत में लोगों के पास पैसा तेजी से आ रहा है और हर आदमी अपनी आमदनी का दिखावा करना पसंद भी करता है. पुरानी कार ले कर लोग कार रखने का शौक पूरा कर रहे हैं और यदि उन्हें सस्ती दर पर नई और बेहतर कार मिल जाती है तो खरीदार पुरानी कार के बजाय नई कार खरीदना पसंद करेगा, इसलिए भारत में छोटी कार का बाजार संभावनाओं से भरा है.

 

सूचकांक बीस हजार के पार

जून में महंगाई की दर बढ़ने और रुपए के लगातार कमजोर बने रहने के बावजूद शेयर बाजार में चमक रही और सूचकांक एक बार फिर 20 हजार अंक के पार जा पहुंचा. बौंबे शेयर बाजार के सूचकांक के इस ऊंचाई पर पहुंचने से निवेशकों में उत्साह का माहौल है. रिजर्व बैंक ने लघु बचत योजनाओं पर ब्याजदर बढ़ाई तो इस का बाजार पर विपरीत असर जरूर हुआ लेकिन प्रधानमंत्री के विकास दर के बारे में दिए गए बयान और वित्त मंत्री पी चिदंबरम की विदेश यात्रा में भारत के आर्थिक परिदृश्य को मजबूती से पेश करने की वजह से बाजार में रौनक रही. इस की दूसरी वजह कंपनियों के तिमाही परिणामों का सकारात्मक रहना भी रहा.

जुलाई 19 को समाप्त सप्ताह में सूचकांक लगातार आखिरी 3 दिनों में तेजी पर बंद हुआ. पहले दिन तो सूचकांक ने 20 हजार अंक के मनोवैज्ञानिक स्तर को पार किया. सप्ताह के आखिरी दिन टीसीएल, रिलायंस अन्य महत्त्वपूर्ण कंपनियों के अच्छे तिमाही परिणाम की बदौलत सूचकांक 6 सप्ताह के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया. नैशनल स्टौक एक्सचेंज यानी निफ्टी भी 6 हजार अंक के मनोवैज्ञानिक स्तर से आगे निकल गया. जानकारों का कहना है कि बाजार के लिए माहौल उत्साह भरा है. सरकार के आर्थिक स्तर पर उठाए जा रहे कदमों का बाजार पर अच्छा असर है और आने वाले दिनों में भी बाजार की यही गति रहेगी. हालांकि कुछ विश्लेषकों का मानना है कि ईंधन की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी और रुपए में सुधार नहीं होने का प्रतिकूल असर बाजार पर देखने को मिलेगा लेकिन यह बहुत निराशाजनक नहीं होगा.

 

कठघरे में जातीयता

सियासी दलों ने धर्म और जाति को वोटबैंक की राजनीति से जोड़ कर हमेशा से ही अपना उल्लू सीधा किया है. लेकिन हाल ही में आए एक अदालती फैसले से जातिधर्म की मजबूत होती जड़ों पर पानी फिरता दिख रहा है. क्या है यह मामला, बता रहे हैं शैलेंद्र सिंह.

अंगरेजों की गुलामी से मुक्त होने के बाद जब देश आजाद हुआ  तो लगा कि जाति, धर्म और छुआछूत जैसे आडंबरों व कुरीतियों से समाज मुक्त हो सकेगा. सब को समान अधिकार और आगे बढ़ने के अवसर हासिल होंगे. लेकिन राजनीतिक दलों ने बड़ी चतुराई से जाति और धर्म को वोटबैंक की राजनीति से जोड़ दिया. इस के बाद तो जाति और धर्म की कुरीतियों का विरोध कम होता गया. भले ही इस के खिलाफ बोलने वालों की तादाद लगातार कम होती गई हो पर दिल्ली प्रैस प्रकाशन समूह ने अपनी पत्रिकाओं, प्रमुख रूप से ‘सरिता’ और ‘सरस सलिल’ के जरिए जाति और धर्म की मजबूत होती जड़ों पर हमला जारी रखा. इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच ने जनहित याचिका की सुनवाई करते जाति आधारित राजनीतिक रैलियों और सम्मेलनों पर रोक लगा  दी तो साबित हो गया कि कानून भी जातीयता को कठघरे में खड़ा कर रहा है. फौरीतौर पर राजनीतिक दलों ने भले ही अदालत के फैसले का स्वागत किया हो पर अंदरखाने वे इस की काट तलाशने में जुट गए हैं.

जाति और धर्म की दीवारें इतनी ऊंची हो गई हैं कि समाज के लोग इन में बंट कर रह गए हैं. इन ऊंची दीवारों के चलते ताजी हवा नीचे तक नहीं आ पा रही है जिस से समाज की सोच में सड़ांध सी आने लगी है. आजादी के पहले बात केवल जाति और धर्म की थी अब तो जाति के अंदर उपजातियों को ले कर भी खेल शुरू हो गया है.

सब से बड़ी बात यह कि जाति और धर्म को वोटबैंक बनाने वाले उन की तरक्की की नहीं, वोट की बात करते हैं. अपने हितों के लिए लोगों को बांटते हैं. इस वजह से समाज में दंगे, लड़ाई?ागडे़ और वैमनस्यता फैलती है. जातियों के भीतर ऊंची सोच वाले लोग फैल चुके हैं. वे अपनी जाति में नए मनुवादी बन बैठे हैं. ऐसे लोग अपनी ही जाति को मिलने वाले आरक्षण का लाभ भले ही उठाते हों पर अपनी जाति के कमजोर लोगों से वैसे ही छुआछूत वाला व्यवहार करते हैं  जैसे ऊंची जातियों के लोग करते थे. आजादी के 66 साल के बाद भी देश में जाति और धर्म कमजोर नहीं हो सका जिस के कारण अदालत को यह फैसला करना पड़ा.

जातीयता पर सवाल

लखनऊ के रहने वाले वरिष्ठ वकील मोतीलाल यादव रोजरोज की जातीय रैलियों से खफा थे. समाज के लिए सही सोच रखने वाले मोतीलाल यादव ने इन जातीय रैलियों का पूरा अध्ययन किया. उन को लगा कि प्रदेश में जाति पर आधारित राजनीतिक रैलियों की बाढ़ आ गई है. सियासत करने वाले दल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य सम्मेलन कराने के लिए रैलियों पर जोर देने में जुटे हैं. उन्होंने महसूस किया कि इस से सामाजिक समरसता और एकता को नुकसान हो रहा है.

अपनी बात कहने के लिए उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ के जस्टिस उमानाथ सिंह और जस्टिस महेंद्र दयाल के सामने अपनी याचिका दाखिल कर मांग की कि अदालत चुनाव आयोग से ऐसी रैलियों पर रोक लगाने का आदेश दे. ऐसी राजनीतिक रैलियां करने वाले राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने से रोका जाए. ऐसे राजनीतिक दलों की मान्यता रद्द करने के लिए भी उन की ओर से मांग की गई.  इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने वकील मोतीलाल यादव की याचिका पर सुनवाई की और अपना फैसला देते हुए जाति आधारित राजनीतिक रैलियों व सम्मेलनों पर रोक लगा दी. अदालत ने मामले के पक्षकारों, केंद्र सरकार, उत्तर प्रदेश सरकार, निर्वाचन आयोग और 4 राजनीति दलों, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को नोटिस जारी किया है.

दरअसल, हर चुनाव के पहले राजनीतिक दल जातीय सम्मेलन और रैलियां करने लगते थे. बसपा ने खासतौर पर ऐसे सम्मेलनों की भरमार कर दी. 2014 के लोकसभा चुनावों में ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने के लिए बसपा की मुखिया मायावती ने ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित कर अपने को ब्राह्मणों का रहनुमा साबित करने की कोशिश की.

जातीयता बनी पहचान

बसपा ने 40 जिलों में इस तरह के ब्राह्मण भाईचारा सम्मेलन आयोजित किए. इस के लिए पार्टी के ब्राह्मण नेताओं-सतीश चंद्र मिश्र, ब्रजेश पाठक और रामवीर उपाध्याय को जिम्मेदारी दी गई थी. इस के जवाब में समाजवादी पार्टी ने भी ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित करने शुरू किए. ब्राह्मण महापुरुष परशुराम के जन्मदिन पर छुट्टी की घोषणा भी कर दी.  जातीयता ने महापुरुषों के सामाजिक कामों को तय करने का पैमाना बदल दिया. इन महापुरुषों की पहचान उन की जाति से होने लगी. जिस महापुरुष का नाम सब से बड़ा था वह उतना ही बड़ा वोटबैंक बन गया. एक तरह से देखें तो राजनीतिक दलों ने इन महापुरुषों को जाति का ब्रांड ऐंबैसेडर बना दिया. 

डा. भीमराव अंबेडकर को जब संविधान बनाने वाली सभा का अध्यक्ष बनाया गया था तब उन की जाति को नहीं काबिलीयत को आधार बनाया गया था. जब दलित वोटों की राजनीति शुरू हुई तो उन को दलित वर्ग से जोड़ कर देखा जाने लगा. इस के बाद सरदार वल्लभभाई पटेल को कुर्मी बिरादरी से जोड़ दिया गया.  राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण ने अपना पूरा जीवन जाति के मकड़जाल से लड़ने में लगा दिया पर वोटबैंक ने उन को भी जातीय खांचे में फिट कर दिया.

वोट के लिए महापुरुषों का महिमामंडन शुरू हुआ तो उन की मूर्तिपूजा का नया दौर शुरू हो गया. छत्रपति शाहूजी महाराज, नारायण गुरु, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले जैसी दलित वर्ग की हस्तियां ही नहीं, शिवाजी, परशुराम, महाराणा प्रताप, दीनदयाल उपाध्याय जैसे अगड़ी जातियों के लोगों को भी वोटबैंक से तोला जाने लगा. इन की मूर्तियां लगाई जाने लगीं व इन के नाम के पार्क बन गए. समाजवादी पार्टी ने ऐसे लोगों के नाम पर छुट्टियों की घोषणा कर के इन के नाम पर वोट पाने का रास्ता निकाल लिया. परशुराम जयंती पर छुट्टी का ऐलान  कर के ब्राह्मणों का दिल जीतने की कोशिश की. इसी तरह से सिंधी बिरादरी के लिए चेट्टीचंद जयंती, पिछड़ों के लिए विश्वकर्मा जयंती, वैश्य बिरादरी के लिए अग्रसेन जयंती, कायस्थों के लिए चित्रगुप्त जयंती और दलितों के लिए वाल्मीकि जयंती के दिन छुट्टी देने का चलन शुरू हो गया.

जिस पार्टी का वोटबैंक उस जाति के महापुरुष के लिए उपयोगी नहीं होता है उस की उपेक्षा भी इसी दौर में देखी गई. बसपा सरकार ने कांशीराम की जयंती और पुण्यतिथि पर छुट्टी घोषित की थी. समाजवादी पार्टी की सरकार के समय  इन छुट्टियों को खत्म कर दिया गया. मुसलिम बिरादरी के लिए ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के नाम पर छुट्टी शुरू कर दी गई.

जातीय रंग में डूबे दल

जब जातीय राजनीति की बात होती है तो सब से पहले सपा और बसपा जैसे दलों का नाम सब से ऊपर आता है. ऐसा नहीं है कि दूसरे दल दूध के धुले हैं. भाजपा, कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, लोक जनशक्ति पार्टी, जनता दल (युनाइटेड) और झारखंड मुक्ति मोरचा जैसे तमाम दल इस रंग में रंगे नजर आते हैं.   90 के दशक में जब अगड़ी जातियां राजनीतिक रूप से हाशिए पर पहुंचने लगीं तो भाजपा ने बड़ी चतुराई से लोध बिरादरी के कल्याण सिंह को आगे किया. उमा भारती को भी ऐसे ही समय पर भाजपा की मुख्यधारा में लाया गया था. यह बात और है कि काम निकल जाने के बाद ये नेता फिर हाशिए पर ढकेल दिए गए.

बसपा से भ्रष्टाचार के आरोप में निकाले गए बाबूसिंह कुशवाहा को गले लगाने में भाजपा ने देरी नहीं की थी. क्षत्रियों के लिए भाजपा ने महाराणा प्रताप और रानी लक्ष्मीबाई का उपयोग कर उन की मूर्तियां लगवाईं. उन के नाम पर अस्पताल खोले. कांग्रेस का नारा ‘जात पर न पात पर, मोहर लगेगी हाथ पर’ होता है. इस के बाद भी वह चुनावों में जातीय राजनीति का उपयोग करने से पीछे नहीं हटती है. सैम पित्रोदा को चुनाव के समय बढ़ई बिरादरी का बताया जाता है. मुसलिमों को रिझाने के लिए आरक्षण देने की बात भी कही जाती है.

जाति का खेल पुराना है. 70 के दशक में जब कांग्रेस 2 गुटों में बंट गई तो उस समय की कांग्रेस नेता इंदिरा गांधी ने ब्राह्मण, दलित और मुसलिम गठजोड़ तैयार किया. उस के सहारे लंबे समय तक भारतीय राजनीति में अपना सिक्का जमाए रखा. इस के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह जब कांग्रेस से अलग हुए तो जातीय राजनीति में अगड़ों के आधार को तोड़ने के लिए पिछड़ी जातियों का सहारा लिया. उस के चलते ही मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू हुईं. इस के बाद का सारा राजनीतिक खेल दलित और पिछड़ी जातियों में सिमट गया.

जातीय कार्ड को काटने के लिए भाजपा ने धर्म का कार्ड खेल दिया. इस के बाद तो सदियों से दबी पड़ी जाति और धर्म की राजनीति सतह पर आ गई. वोट के लिए राजनीतिक दलों ने इस रंग को गहरा करने की हर चाल चलनी शुरू  कर दी.

फैसले का क्या होगा असर

अब यह सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या कोर्ट के फैसले के बाद जातीयता से नजात मिल सकेगी? वरिष्ठ पत्रकार योगेश श्रीवास्तव कहते हैं, ‘‘अदालत के फैसले से जातीय सम्मेलन और जातीय रैलियां रुक जाएंगी पर राजनीति को जातीयता से नजात नहीं मिल सकेगी. राजनीतिक दल बड़ी चतुराई से इस का उपयोग ढकेछिपे रूप में करना शुरू कर देंगे.’’

वे कहते हैं, ‘‘वोट की पूरी राजनीति ही जाति पर टिकी है. हर पार्टी अपने उम्मीदवार का चयन जाति और धर्म के आधार पर करती है. जिस क्षेत्र में जिस बिरादरी के वोट ज्यादा होते हैं वहां से उस बिरादरी के उम्मीदवार को ही टिकट दिया जाता है. जाति के प्रभाव को खत्म करने के लिए खुद जनता को आगे आना होगा. उसे जाति और धर्म के नाम पर वोट देना बंद करना होगा. तभी जाति का यह खेल खत्म हो सकेगा.’’  राजनीतिक दलों ने वैसे तो अदालत के फैसले का स्वागत किया पर इस फैसले में पेंच डालना भी शुरू कर दिया है.  

मिड डे मील मामला – स्कूलों में बंटता जहर

स्कूली बच्चों के लिए शुरू की गई मिड डे मील योजना का जहरीला पहलू उस वक्त सामने आया जब बिहार के एक स्कूल में इसी योजना के तहत मिलने वाले विषाक्त भोजन को खा कर कई बच्चे मौत की नींद सो गए. सरकारी स्कूलों की लापरवाही, भ्रष्ट आचरण और जरूरी मानकों की अनदेखी ने कैसे इस भयावह हादसे को अंजाम दिया, पड़ताल कर रहे हैं बीरेंद्र बरियार ज्योति.

बच्चों की लाशों से लिपट कर रोते उन के मांबाप और घर वालों को देख कर अच्छेअच्छों का कलेजा दहल गया. मांबाप अपने बच्चों को उठा कर इधरउधर इलाज के लिए दौड़ लगा रहे थे. जबकि अस्पतालों में डाक्टर और दवा का पुख्ता इंतजाम नहीं था. अपने दोनों बच्चों राहुल और प्रहलाद को खो चुके हरेंद्र मिश्रा की मानो आवाज ही गुम हो गई तो अपनी मासूम बेटी की लाश देख कर अजय के करुण क्रंदन से अस्पताल की दीवारें हिल उठीं.

वे रोते हुए कहते हैं कि बेटी को पढ़ने के लिए सरकारी स्कूल भेजा था, पर क्या पता था कि इस की कीमत बेटी की जान दे कर चुकानी पड़ेगी. राजू साव के घर का इकलौता चिराग शिव हमेशा के लिए खामोश हो चुका है.  बच्चों को उन के गरीब मांबाप ने इस उम्मीद से स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा था कि उन्हें मुफ्त में भरपेट खाना मिल जाएगा और पढ़ाई कर के वे बड़े आदमी बन सकेंगे. 16 जुलाई की दोपहर में स्कूल में बच्चों को सरकारी खाना दिया गया पर 1 निवाले ने उन की जिंदगी ही लील ली. खाना खाते ही किसी को उलटी होने लगी तो किसी को दस्त होने लगे. किसी का सिर चकराने लगा तो कोई बेहोश हो गया. देखते ही देखते समूचे गांव में यह खबर फैल गई और मांबाप अपनेअपने बच्चों की सलामती की दुआ करते हुए स्कूल की ओर भागे. कुछ की स्कूल में ही मौत हो गई तो कोई अस्पताल पहुंचतेपहुंचते रास्ते में ही दम तोड़ गया. गांव भर में रोनेचिल्लाने की दर्दनाक आवाज ने इंसानियत को हिला कर रख दिया. सरकार ने बच्चों की लाशों की कीमत लगाते हुए मुआवजे का ऐलान कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया.

बिहार के सारण जिले के मशरख प्रखंड से 5 किलोमीटर दूर जजौली पंचायत के धरमसती गंडामन गांव में नए बने धरमसती प्राइमरी स्कूल में मिड डे मील यानी मध्याह्न भोजन में मिली खिचड़ी खाने से 23 बच्चों की मौत ने एक बार फिर से इस योजना में मची धांधली और लापरवाही की पोल खोल दी है.  100 से ज्यादा बच्चे जिंदगी और मौत से जूझते हुए विभिन्न अस्पतालों में भरती कराए गए. भोजन बनाने वाली मंजू की भी हालत खराब है. वहीं दूसरी भोजन बनाने वाली पन्ना देवी के भी 2 बच्चों की मौत हो गई. स्कूल में बच्चों को खाने के लिए दाल, चावल और आलू व सोयाबीन की सब्जी दी गई थी.

दोपहर के 12 बजे घंटी बजते ही बच्चे अपनेअपने क्लासरूम से दौड़ते हुए बाहर निकले और लाइन लगा कर खाना खाने के लिए पालथी मार कर बैठ गए. जिन गरीब परिवार के बच्चों को घर में ठीकठाक खाना नसीब नहीं हो पाता है, वे खाना खाने के लालच में ही स्कूल जाते हैं और उन के मांबाप भी यही सोच कर अपने बच्चों को स्कूल भेज देते हैं कि कम से कम दोपहर में तो उन का लाड़ला पेटभर खाना खा सकेगा.  खाना खाते ही बच्चों को बेचैनी महसूस होने लगी. कई बच्चे बेहोश हो कर जमीन पर गिरने लगे. देखते ही देखते 2 बच्चों ने तड़पतड़प कर दम तोड़ दिया, तब स्कूल प्रशासन की नींद टूटी और बच्चों को प्राइमरी हैल्थ सैंटर पहुंचाने का काम चालू हुआ. बदहाल हैल्थ सैंटर भला बच्चों का क्या इलाज कर पाता. वहां न दवा थी और न ही सेलाइन वाटर. डाक्टरों को तो बुला लिया गया पर दवा के बगैर वे सही इलाज करने में लाचार रहे.

परोसा गया जहर

डाक्टरों का मानना है कि बच्चों को दिए गए खाने में जहरीला तत्त्व आर्गेनो फासफोरस होने की वजह से बच्चों की मौत हुई है. जिन बच्चों को एंटी आर्गेनो फासफोरस का डोज दिया गया उन की हालत में काफी तेजी से सुधार हुआ. गौरतलब है कि आर्गेनो फासफोरस से हाई क्वालिटी की कीटनाशक दवाएं बनाई जाती हैं.  पटना मैडिकल कालेज व अस्पताल के सुपरिंटैंडैंट अमरकांत झा ‘अमर’ ने बताया कि अगर छपरा से बच्चों को सही समय पर पटना रेफर कर दिया गया होता तो कई बच्चों की जान बच सकती थी.

स्थानीय लोगों का कहना है कि चावल को कीड़ों से बचाने के लिए उस में कीटनाशक दवा डाली गई थी, चावल को बनाने से पहले उसे ठीक तरह से धोया नहीं गया था, जिस से खाने के बाद बच्चों की तबीयत खराब होनी शुरू हो गई. कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि कीटनाशक के डब्बे में सरसों का तेल रखा गया था, जिस से बनी सब्जी से बच्चों की मौत हुई. अस्पताल के डाक्टरों का मानना है कि सोयाबीन में फंगस लगने और तेल में कीटनाशक होने से बच्चों की हालत खराब हुई.

स्कूल की प्रिंसिपल मीना कुमारी ने बताया कि जिन बच्चों ने सब्जी खाई थी उन्हीं की तबीयत खराब हुई. 16 जुलाई को स्कूल में जो खाना बनाया गया था उस का चावल स्कूल में ही था, जबकि सरसों का तेल और सब्जी लोकल मशरख के बाजार से ही खरीदी गई थी. पिं्रसिपल इस बात को छिपा गईं कि सरसों का तेल, दाल, मसाला और सब्जी वगैरह उन के ही पति अर्जुन राय की दुकान से मंगवाया जाता था.  शिक्षा मंत्री पी के शाही ने बिहार विधानमंडल में कहा कि गंडामन स्कूल की मीना कुमारी के पति अर्जुन राय ने  14 जुलाई को सिद्धवलिया चीनी मिल से जहरीला मोनो प्रोटोफास खरीदा था.

महाराजगंज के सांसद प्रभुनाथ सिंह कहते हैं कि मामले का पता चलने के बाद भी जिलाधीश पूरी तरह से हरकत में नहीं आए. लापरवाही का यह आलम था कि जिस बस में पीडि़त बच्चों को मशरख से छपरा भेजा गया, उस में पूरा डीजल ही नहीं था. डीजल खत्म हो जाने की वजह से बस काफी देर तक रास्ते में रुकी रही.  मिड डे मील में आएदिन गड़बडि़यां मिलती रहती हैं. कभी खिचड़ी में छिपकली मिलती है तो कभी दाल में तिलचट्टा मिलता है. छोटेमोटे कीड़े- मकोड़े मिलना तो रोज की बात है. खाने के सामानों की जांच करने का कोई इंतजाम ही नहीं है. स्कूल प्रशासन अपनी जेबें भरने के लिए घटिया सामानों का इस्तेमाल करते रहते हैं, जिस पर रोक लगाने वाला कोई नहीं है. अकसर स्कूल में दोपहर को दिया जाने वाला सरकारी खाना खा कर बच्चों के बीमार होने की घटनाएं होती रहती हैं पर प्रशासन और सरकार कान में तेल डाले सोए रहते हैं.

दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया और पटना के ए एन सिन्हा इंस्टिट्यूट औफ सोशल स्टडीज ने मिड डे मील को ले कर अपनी जांच रिपोर्ट में भोजन की क्वालिटी पर सवालिया निशान लगाया था और केंद्र सरकार से इस के लिए पुख्ता उपाय करने का सुझाव दिया था. केंद्र सरकार ने दोनों रिपोर्ट्स बिहार सरकार को भेज दी थीं. इन सब के बाद भी सरकार ने खाने की क्वालिटी पर ध्यान नहीं दिया. जामिया मिलिया ने बिहार के भागलपुर, बांका, कैमूर, पूर्णियां और किशनगंज जिलों के और ए एन सिन्हा इंस्टिट्यूट ने दरभंगा, सीतामढ़ी, सहरसा और शिवहर जिलों के 40-40 सरकारी स्कूलों में मिड डे मील के तहत परोसे जा रहे खाने की जांच की थी.

जांच का काम 1 अप्रैल से 30 सितंबर, 2012 के बीच किया गया था. दोनों ही रिपोर्ट्स में कहा गया था कि स्कूलों में खाना बनाने का तरीका और रखरखाव बच्चों के हैल्थ के लिए ठीक नहीं है. जामिया की रिपोर्ट में 43 से 75 फीसदी स्कूलों में खाना बनाने और उस के सामानों के रखने का इंतजाम काफी खराब बताया गया था. वहीं ए एन सिन्हा इंस्टिट्यूट की रिपोर्ट में महज 27 फीसदी स्कूलों में ठीकठाक तरीके से खाना पकाए जाने की बात कही गई थी.

इन रिपोर्ट्स के आधार पर ठोस इंतजाम करने के बजाय सरकार ने इसे कूड़ेदान में डाल दिया. अब जब छपरा में मामला हद पार कर गया तो सरकार की आंखें खुलीं और ताबड़तोड़ कई ऐलान कर दिए गए. सवाल यह उठता है कि क्या ऐसी जांचों की कभी रिपोर्ट आ पाएगी? रिपोर्ट आ गई तो क्या सरकार कुछ ऐसा इंतजाम कर पाएगी कि दोबारा ऐसे हादसे न हों?

बिहार में 72 हजार प्राइमरी और मीडिल स्कूलों में 2 करोड़ बच्चों को मिड डे मील योजना के तहत दोपहर का खाना दिया जाता है. साल 2005 में जब इस योजना की शुरुआत हुई थी तो क्लास 1 से 5 तक के बच्चों को इस का फायदा दिया जाता था. साल 2008 में इसे बढ़ा कर क्लास 8 तक के बच्चों के लिए लागू किया गया. इस के लिए केंद्र सरकार से हर साल 1,400 करोड़ रुपए मुहैया कराए जाते हैं.

स्कूलों में बच्चों की अटैंडैंस बढ़ाने के मकसद से शुरू की गई इस योजना के तहत हर दिन खाने का अलगअलग मैन्यू होता है, पर ज्यादातर स्कूलों में खाने के नाम पर बच्चों को खिचड़ी ही खिलाई जाती है और बाकी पैसा स्कूल प्रशासन खुद ही हजम कर जाता है. स्कूल में हर दिन के मैन्यू का चार्ट लगाने का नियम है पर इस का पालन नहीं किया जाता है.

मिड डे मील निदेशालय ने 26 मार्च, 2012 को सभी स्कूलों के लिए यह हिदायत जारी की थी कि खाना बनने के बाद उसे पिं्रसिपल, मास्टर और रसोइया टैस्ट करेंगे, उस के बाद ही उसे बच्चों को परोसा जाएगा. इस का कहीं भी पालन नहीं होता है. अगर इस का पालन होता तो छपरा में इतने बच्चों की मौत नहीं होती. इस के अलावा आईएसआई मार्का सरसों का तेल, रिफाइंड तेल, मसालों का इस्तेमाल ही मिड डे मील में करने की हिदायत है, पर ज्यादा पैसा कमाने के लालच में स्कूल प्रशासन बच्चों की जिंदगी को दांव पर लगाने में जरा भी नहीं हिचकते हैं.

शिक्षा मंत्री का सियासी चश्मा

बिहार के शिक्षा मंत्री प्रशांत कुमार शाही बच्चों की मौत पर अफसोस जताने और आगे फिर कभी ऐसा हादसा न होने देने के उपाय करने के बजाय समूचे मामले को राजनीतिक चश्मे से देख रहे हैं और मामले से ध्यान भटकाने की कोशिश कर सरकार की और छीछालेदर करने पर तुले हैं. वे मिड डे मील के तहत खाना खाने से बच्चों की हुई मौत की सियासी साजिश करार देते नहीं थक रहे हैं. उन्होंने बताया कि जांच के बाद जो तथ्य सामने आए हैं, उन से सियासी साजिश से इनकार नहीं किया जा सकता है. स्कूल की प्रिंसिपल मीना देवी के पति अर्जुन राय की दुकान से ही बच्चों के लिए भोजन का सामान मंगवाया जाता था और अर्जुन एक सियासी दल के नेता हैं.

मंत्री ने बताया कि भोजन बनाने वाली मंजू ने सरसों के तेल की खराब क्वालिटी के बारे में प्रिंसिपल मीना देवी को बताया तो मीना ने उसे डांटते हुए कहा कि घर में ही पेराई किया हुआ तेल है, खराब कैसे होगा? चलो, उसी में खाना पकाओ. इतना ही नहीं, खाना खाते हुए बच्चों ने भी सब्जी के स्वाद को खराब बताया तो मीना देवी ने बच्चों को भी फटकार लगाते हुए जबरन खाना खाने के लिए मजबूर किया.  बच्चों की जिंदगी से खिलवाड़ करने के इस हादसे को अगर बिहार सरकार गंभीरता से नहीं लेती है और दोषियों के खिलाफ सख्त कदम नहीं उठाती तो भविष्य में भी ऐसे हादसे होते रहेंगे और बच्चे समय से पहले ही मौत के शिकार होते रहेंगे.

 

बीसीआई की बलि चढ़ते विधि महाविद्यालय

बीसीआई की निरंकुश नीतियों और बेलगाम रवैए के चलते देशभर में कई विधि महाविद्यालय बंदी के कगार पर हैं. कुछ राज्यों में तो कई महाविद्यालयों पर ताला भी लग चुका है. जाति व राजनीति का चश्मा पहने बीसीआई की तानाशाही कानून और कानूनी शिक्षा के भविष्य के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं है.

‘‘अगर हालात यही रहे और जल्द कुछ न किया गया तो साल 2014 तक मध्य प्रदेश में विधि महाविद्यालयों की तादाद 15 भी नहीं रह जाएगी. अभी तक 47 में से  25 कालेजों की मान्यता रद्द की जा  चुकी है और इस का जिम्मेदार  बीसीआई यानी बार काउंसिल औफ इंडिया को ही ठहराया जाएगा.’’ ऐसा मध्य प्रदेश के शिवपुरी शहर में स्थित एसएमएस स्नातकोत्तर महाविद्यालय की जनभागीदारी समिति के अध्यक्ष अजय खेमरिया बेहद तल्ख लहजे में कहते हैं.

कानून और कानूनी शिक्षा के लिहाज से बात वाकई चिंता की है. इस का सारा खमियाजा छात्रों को उठाना पड़ रहा है. राज्य में धड़ल्ले से बंद हो रहे विधि महाविद्यालयों की चिंता किसी को है, ऐसा भी नहीं लग रहा.  बीसीआई की खलनायकी भूमिका क्या है और इस के माने क्या हैं, इस से ज्यादा दिलचस्पी की बात यह है कि विधि महाविद्यालयों का आर्थिक संचालन राज्य सरकार उच्च शिक्षा विभाग के जरिए करती है लेकिन विधि महाविद्यालयों के मानक तय करने का हक उस के पास नहीं है. तमाम कोशिशों व इन पर पानी की तरह पैसा बहाने के बाद भी उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार क्यों नहीं आ रहा, इस यक्ष प्रश्न का जवाब मध्य प्रदेश के बंद होते विधि महाविद्यालय इस लिहाज से भी हैं कि शिक्षा की गुणवत्ता तय करने वाली एजेंसियां बेलगाम हो कर नियम व शर्तें थोपती हैं. बीसीआई उन का अपवाद नहीं है.

कानून की पढ़ाई में बहुत ज्यादा तामझाम की जरूरत नहीं पड़ती है. एलएलबी करने वाले 50 प्रतिशत छात्र भी वकालत को व्यवसाय के रूप में नहीं अपनाते. जाहिर है अधिकतर छात्र कानून जानना चाहते हैं और यह जरूरी भी है कि ज्यादा से ज्यादा लोग कानून पढ़ कर उन्हें जानें ताकि पुलिस और अदालतों की तकलीफदेह कार्यवाही से निबटने के लिए उन के पास जरूरी महत्त्वपूर्ण जानकारियां हों.  आजादी के पहले उच्च घरानों के युवा ही कानून की पढ़ाई कर पाते थे. विदेशों से कानून की डिगरी ले कर आए मध्यवर्गीय युवा जल्द ही उच्च वर्ग में शुमार होने लगते थे क्योंकि उन्हें भारीभरकम फीस और समाज व राजनीति में सम्मानजनक स्थान मिलता था. पर  70 के दशक से यह सिलसिला टूटा तो हर कोई एलएलबी कर वकील बनने लगा.

ऊंची जाति वालों का दबदबा जो कानून और कानूनी पढ़ाई से टूटा तो आज तक थमने का नाम नहीं ले रहा है. पिछड़े, दलित और आदिवासी युवा भी तेजी से एलएलबी करने लगे. इस की एक बड़ी वजह कानून की पढ़ाई का सुलभ होना और वकीलों की बढ़ती जरूरत होना थी.  छोटे तबके के छात्र और वकील बढ़े तो देखते ही देखते अदालतों का नजारा भी बदल गया. कुछ साल पहले तक जहां ब्राह्मण, कायस्थ और जैन समुदायों के वकील ही दिखते थे वहां उन टेबल, कुरसियों पर बराबरी से पिछड़े वर्ग के वकील भी बैठने लगे. हर जाति का अपना अलग एक नामी वकील होने लगा. नतीजतन, सवर्णों का दबदबा कम होने लगा.

कानूनी पढ़ाई

कानून की पढ़ाई कैसी और कैसे हो,  इस की जिम्मेदारी बीसीआई को मिली तो उस ने भी दूसरी एजेंसियों की तरह सवर्णों के हक में आंखें तरेरनी शुरू कर दीं. सरकारी विधि महाविद्यालयों में आज भी 50 फीसदी छात्र ओबीसी, एससी  या एसटी कोटे के होते हैं जिन्हें  सालाना 15-20 हजार रुपए का खर्च अखरता नहीं. निजी महाविद्यालयों की 40-50 हजार रुपए तक की फीस का भार आज भी इस वर्ग के छात्र नहीं उठा पाते.   बीसीआई ने शासकीय विधि महाविद्यालयों के लिए जो पैमाने बनाए और वक्तवक्त पर उन में बदलाव किए उन का एक बड़ा फर्क यह पड़ रहा है कि फिर से कानूनी शिक्षा और वकालत का पेशा सवर्णों के कब्जे में जा रहा है. विदिशा के एक 90 वर्षीय अधिवक्ता रामनारायण वर्मा की मानें तो, ‘‘बार काउंसिल की उपयोगिता पहले इतनी भर थी कि वह नए विधि स्नातकों को सनद देता था. हम वकीलों को भी खुशी रहती थी कि हमारा कोई राष्ट्रीय संगठन है जो कहने को ही सही वकीलों के हितों का खयाल रखता है.’’

पहले छात्र एलएलबी की डिगरी ले कर कालेज से निकलता था तो उसे सनद हासिल करने में सहूलियत रहती थी. रामनारायण वर्मा कहते हैं, ‘‘मुझे याद नहीं कि 70 के दशक में बहुत ज्यादा वकील छोटी जाति के थे. उस दौरान अधिकांश वकील ऊंची जातियों के हुआ करते थे. वजह, आरक्षित कोटे से आए युवाओं की पहली पसंद सरकारी नौकरी हुआ करती थी जो आरक्षण की सहूलियत के चलते उन्हें स्नातक होने के बाद ही मिल जाती थी. पर जब आरक्षण में भी सरकारी नौकरी मिलना मुश्किल हो गया तो  लोग एलएलबी करने लगे और वकीलों की भीड़ बढ़ने लगी. उस समय एक छोटे  शहर के अधिवक्ता संघ में  50-60 सदस्य भी नहीं होते थे जबकि अब वकीलों की तादाद 2 हजार का आंकड़ा छूने लगी है. लड़कियां भी इफरात से कानून की पढ़ाई करने लगी हैं.’’

जाहिर है बार काउंसिल औफ इंडिया को ताकत और अधिकार वकीलों की बढ़ती संख्या से मिले जो कसबों और देहातों से निकल कर आते हैं. यही बीसीआई बेहद कू्रर और साजिशाना तरीके से, गैर इरादतन ही सही, नए विधि स्नातक और वकीलों को पैदा होने से रोक रही है तो लगता यह भी है कि कहीं इस की वजह जातिगत पूर्वाग्रह तो नहीं. इस संभावना से एकदम इनकार नहीं किया जा सकता.

सख्त नियम, कड़ी शर्तें

कानूनी पढ़ाई के अलावा विधि महाविद्यालयों के मामले में बीसीआई ने नियम, शर्तें इतने कठोर बनाए हैं कि व्यवहार में उन का पालन करना असंभव है इसलिए धड़ल्ले से ला कालेजों की मान्यता रद्द की जा रही है.  बीसीआई का पहला पैमाना यह है कि ला कालेज 15 से 18 हजार वर्गफुट क्षेत्रफल में निर्मित होना चाहिए और उस की अलग से इमारत होनी चाहिए.   अगर ऐसा नहीं हो तो कहां का पहाड़ टूट पड़ेगा, इस सवाल का जवाब शायद ही बीसीआई के पास हो. वजह, इस नियम के वजूद में आने से पहले एलएलबी की कक्षाएं स्नातकोत्तर महाविद्यालयों में इतमीनान से चलती थीं और अधिकांश कालेजों में कानून की पढ़ाई शाम को होती थी जब क्लासरूम खाली हो जाते थे. नियमित प्राध्यापकों के अलावा वरिष्ठ अधिवक्ता भी अनुबंध पर पढ़ाते थे पर अब बीसीआई का कहना है कि विधि का प्राचार्य भी अलग होना चाहिए और कम से कम 4 प्राध्यापक होने चाहिए और इतने ही अंशकालिक प्राध्यापक भी होने चाहिए.

कानून की पढ़ाई का कालेज के क्षेत्रफल से कोई खास ताल्लुक नहीं है पर 15 से 18 हजार वर्गफुट क्षेत्रफल थोपने का मतलब है सीधेसीधे कालेज को बंद कर देने का एलान कर डालना. इस शर्त पर भी कई कालेज खरे उतरने लगे तो नया फरमान यह जारी कर दिया गया कि प्राध्यापकों के आवास भी महाविद्यालय परिसर में होने चाहिए.  इस प्रतिनिधि ने भोपाल स्थित विधि महाविद्यालय का मुआयना किया तो यह शर्त मजाक लगी. वजह, राज्य स्तरीय ला कालेज है तो पौश इलाके जहांगीराबाद में लेकिन वहां सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं  है. एक भी आवास उस के परिसर में नहीं है. अलबत्ता भोपाल की ही नैशनल  ला यूनिवर्सिटी (एनएलआईयू) जरूर आवासीय है. मगर इन दोनों में जमीन- आसमान का फर्क है. न तो इन की तुलना की जा सकती और न ही यह उम्मीद की जा सकती कि हर एक ला कालेज एनएलआईयू जैसा हो जाएगा या होना ही चाहिए.

एनएलआईयू दरअसल सरकार ने प्रबंधन कालेजों की तर्ज पर अमीर तबके के छात्रों के लिए खोले हैं जहां पढ़ाई का माध्यम अंगरेजी है और छात्रों का जीवनस्तर औसत कानूनी छात्र से हजार गुना ज्यादा बेहतर है. इस में पढ़ाई का सालाना खर्च 5 लाख रुपए आता है और छात्रों को प्लेसमैंट की भी गारंटी मिलती है.

अब अगर राज्य सरकार इन 2 शर्तों को पूरा करने की सोचे भी तो उसे लगभग  5 अरब रुपए खर्चने पड़ेंगे, जो निहायत ही गैरजरूरी हैं.  उच्च शिक्षा विभाग के एक अधिकारी का नाम न छापने की शर्त पर कहना है, यह बेवकूफी भरी बात है. विभाग वैसे ही तंगी से जूझ रहा है, ऐसे में अरबों रुपए कहां से आएंगे. यहां तो प्राध्यापकों को यूजीसी के मानदंडों के अनुसार वेतनमान देने और एरियर्स देने के लाले पड़े हैं. ला कालेज बंद हों, यह कोई नहीं चाहता लेकिन बीसीआई अगर कर रहा है तो हमें सहूलियत ही है.

यह सहूलियत है कम कालेज तो कम काम, लेकिन दिख यह भी रहा है कि उच्च शिक्षा विभाग विधि महाविद्यालयों को चलाने की अपनी जिम्मेदारी पर खरा नहीं उतर रहा है. ला कालेजों का वजूद बनाए रखने के लिए विभाग ने 26 अप्रैल को विधि महाविद्यालयों के प्राचार्यों की एक मीटिंग बुलाई थी जिस में चर्चा के केंद्र में बीसीआई ही था. इस मीटिंग में शामिल एक प्राचार्य का कहना है कि माहौल हताशा का था. थोड़ी सी औपचारिक चर्चा के बाद ही मान लिया गया कि विभाग बीसीआई के मानकों के अनुरूप विधि महाविद्यालयों को बदल नहीं सकता.

इस प्राचार्य का कहना है कि बीसीआई की टीम जब निरीक्षण के लिए आती है तो हमें दामादों की तरह उन की आवभगत करने में जेब का पैसा खर्च करना पड़ता है. इस बाबत हमें चंदा भी करना पड़ता है. बीसीआई की टीम को महंगे होटल में ठहराने से ले कर महंगे खानेपीने का इंतजाम करने से हम छोटीमोटी गाज से बच जाते हैं.  इस प्राचार्य का डर यह भी है कि अगर इसी तरह ला कालेज बंद होते रहे तो कानून के प्राध्यापकों का क्या होगा? विभाग तनख्वाह देने पर भले मजबूर होगा पर काम तो तरहतरह के लेगा जो हमारी हैसियत व प्रतिष्ठा से काफी नीचे भी हो सकते हैं.

दरअसल, एक तलवार विधि प्राध्यापकों के सिर पर भी लटक रही है कि कल को उच्च शिक्षा विभाग और यूजीसी मिल कर यह न कहने लगें कि चूंकि अब आप की आवश्यकता नहीं है इसलिए क्यों न आप को अनिवार्य सेवानिवृत्ति दे दी जाए.  बहरहाल, इस मीटिंग में यह तय नहीं हो पाया  कि बीसीआई के कड़े मानदंडों से कैसे बचा जाए या कैसे उन्हें पूरा किया जाए. विधि के एक प्राध्यापक की मानें तो ‘बीसीआई की शर्तें हास्यास्पद और अव्यावहारिक हैं. उन्हें किसी भी सूरत में पूरा नहीं किया जा सकता. अधिकांश विधि महाविद्यालय सालों से चल रहे हैं. नए नियम उन पर लागू करना सरासर  ज्यादती है. इस से तो बेहतर होगा कि बीसीआई ही अपने मानदंड बदले या फिर अपने बनाए मानक पूरे करने के लिए 50 फीसदी पैसा दे या फिर राज्य सरकार विशेष कानून बना कर उस से निरीक्षण करने और मान्यता रद्द करने का अधिकार छीने.’

अगर बात बिहार की करें तो वहां का नजारा भी कुछ अलग नहीं है. पटना के सिविल कोर्ट में भीड़भाड़ और चिल्लपौं के बीच सड़क के किनारे पेड़ के नीचे टेबल और कुरसी लगा कर काला कोट पहन कर बैठे लोगों की लंबी कतारें हैं. कहीं पर 10-12 काले कोट वाले मजमा लगा कर गप्पें हांक रहे होते हैं तो कहीं अकेले में बैठे लोग शून्य में कुछ घूर रहे होते हैं. हर सुबह 10 बजे से ले कर शाम 5 बजे तक काले कोट वालों का ग्रुप इधरउधर घूमता मिल जाता है.

3 साल एलएलबी की पढ़ाई करने के बाद वकालत में कैरियर का सपना देखने वाले ज्यादातर युवा वकील के बजाय ‘एजेंट’ बन कर रह जाते हैं. उन का काम है किसी तरह से पट्टी पढ़ा कर क्लाइंट को फांसना और फिर केस जल्द से जल्द खत्म कराने की गारंटी दे कर सालों तक कोर्ट के चक्कर लगवाना. ज्यादातर वकीलों का यही धंधा बना हुआ है. राज्य में 80 हजार लाइसैंसधारी वकील हैं जिन में से  5-6 हजार वकीलों की ही प्रैक्टिस अच्छी चल रही है, 10-15 हजार वकीलों की प्रैक्टिस महज इतनी है कि परिवार चलाने लायक खर्च निकल आता है. इन के अलावा करीब 20 हजार वकील ऐसे हैं जो किसी भी तरह से कुछ कमाई कर लेते हैं, बाकी वकील तो मुकदमे की आस में रोज घर से निकल कर कोर्ट आते हैं और खाली हाथ ही वापस लौट जाते हैं.

पटना हाईकोर्ट के एक सीनियर वकील दबी जबान में कहते हैं कि ला की पढ़ाई का सरकार के द्वारा कोई ठोस इंतजाम नहीं किया गया है और न ही इस में इंजीनियरिंग, मैडिकल, एमबीए जैसा स्कोप और ग्लैमर ही दिखता है. बार काउंसिल औफ इंडिया के दखल और उस के सदस्यों की सियासी महत्त्वाकांक्षा के बीच कानून की पढ़ाई के लिए बने कालेजों और संस्थानों की हालत बदतर है. बार काउंसिल को ला इंस्टिट्यूटों की देखरेख का जिम्मा तो मिला है पर पढ़ाई की क्वालिटी तय करने में उन की दिलचस्पी काफी कम होती है. बार काउंसिल औफ इंडिया के अध्यक्ष मनन कुमार मिश्रा पिछली बार कांग्रेस के टिकट पर गोपालगंज जिले के बैकुंठपुर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ कर अपनी सियासी जमीन तलाश चुके हैं.

बिहार में सरकारी लेवल के कुल  26 ला कालेज और इंस्टिट्यूट हैं, जिन में न ठीक तरह से पढ़ाई होती है और न ही परीक्षाएं समय पर होती हैं. सैशन हमेशा लेट चलता है. उन में दाखिला लेने वाले ज्यादातर स्टूडैंट्स पढ़ाई के नाम पर टाइमपास ही करते हैं. कई सीनियर वकीलों का मानना है कि कानून की पढ़ाई का ‘कानून’ ही अजबगजब है. ऐसे संस्थानों के खर्च का काम तो सरकार के जिम्मे है पर उस की गुणवत्ता और पढ़ाई का तौरतरीका तय करने का काम बार काउंसिल करती है, जिस की वजह से ही कानून की पढ़ाई और कैरियर में अराजक हालात बने हुए हैं.

मुंबई में एक बड़ी कंपनी में कानूनी सलाहकार का काम कर लाखों रुपए के सालाना पैकेज की नौकरी कर रहे सोनल वर्मा कहते हैं, ‘‘किसी भी फील्ड में कैरियर बनाने से पहले उस के बारे में जाननेसमझने के साथ उस में रुचि होनी भी जरूरी है, तभी पढ़ाई और कैरियर बढि़या हो सकेगा.’’

एलएलबी की डिगरी लेने के बाद बार काउंसिल से वकालत करने का लाइसैंस लेने के लिए मोटी रकम खर्च करनी पड़ती है. युवाओं को लाइसैंस देने के लिए 10 से 20 हजार रुपए की फीस वसूली जाती है. एलएलबी किए रिटायर सरकारी अफसरों से 40 से 50 हजार रुपए तक वसूले जाते हैं. पढ़ाई में समय और पैसा लगाने के बाद वकालत करने का लाइसैंस लेने में काफी कुछ गंवा चुके हजारों वकीलों का कैरियर अंधेरे में है.

कालेजों पर लटक रही तलवार

बिहार और मध्य प्रदेश की तर्ज पर महाराष्ट्र और गोआ में इस समय विधि महाविद्यालय की संख्या तकरीबन 112 है, जिन में से 30 को बंद किए जाने के लिए बीसीआई ने नोटिस जारी किए हैं.  मुंबई यूनिवर्सिटी के विधि विभाग के प्रमुख डा. अशोक येंडे बताते हैं कि पहले जब वे मुंबई के सी ला कालेज में प्रमुख थे तो वहां 900 छात्रों पर केवल 3 प्राध्यापक थे जबकि बार काउंसिल औफ इंडिया के मुताबिक वहां 10 प्राध्यापक होने चाहिए. वहां छात्र की फीस 8 हजार रुपए है. अगर प्राध्यापक ज्यादा नियुक्त किए जाएंगे तो उन के वेतन का भार कालेज पर पड़ेगा. नतीजतन, छात्रों की फीस बढ़ानी पड़ेगी, जो शायद संभव नहीं है. इसलिए  32 विजिटिंग प्राध्यापक रखे गए हैं.

ये प्राध्यापक सीरियस नहीं होते. किसी तरह पढ़ा कर चले जाते हैं जबकि कालेज के 3 प्राध्यापकों पर पढ़ाने का भार अधिक होने के चलते वे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं दे पाते. यही वजह है कि ला कालेज से 7 साल की शिक्षा प्राप्त कर के भी छात्र बेरोजगार हो कर इधरउधर भटकते हैं.  बीसीआई के सदस्य एडवोकेट सतीश आबाराव देशमुख का इस बारे में कहना है कि परिषद राज्य सरकार को सारी बातें बताती है पर वह नहीं सुनती. हर ला कालेज में प्राध्यापक कम हैं अगर हैं भी तो प्रशिक्षित नहीं हैं. राज्य सरकार की ओर से कोई सहायता न मिलने की वजह से परिषद को कई बार कड़े कदम उठाने पड़ते हैं. वे कहते हैं कि बीसीआई किसी भी विधि महाविद्यालय को बंद करने के पक्ष में नहीं है.

बात चाहे कुछ भी हो पर इतना सही है कि बीसीआई अपनी करतूत को राज्य सरकार के मत्थे मढ़ रही है लेकिन इस का खमियाजा छात्रों को भुगतना पड़ता है.

सरसुना कालेज पर टेढ़ी नजर

जहां तक पश्चिम बंगाल की बात है तो पूरे बंगाल में 25 सरकारी ला कालेज हैं, जिन में 8 प्राइवेट हैं. बंगाल में बीसीआई के अध्यक्ष अंसर मंडल का कहना है कि इस का कारण यह है कि यहां ज्यादातर ला कालेज सरकारी हैंऔर विश्वविद्यालय परिसर में हैं. कुछ ला कालेजों की अपनी बिल्डिंग हैं जहां आधारभूत ढांचा पूरी तरह से मुकम्मल है. बंगाल में जिन ला कालेजों ने बीसीआई की मान्यता के लिए आवेदन किया?था, 3 महीने पहले उन कालेजों में बीसीआई की ओर से निरीक्षण किया गया और कोई खास समस्या नहीं नजर आई है, सिवा दक्षिण कोलकाता के बेहाल स्थित सरसुना ला कालेज के.

बीसीआई की ओर से निरीक्षण के लिए?भेजी गई टीम के एक सदस्य प्रो. जे के दास का कहना है कि कालेज में आधारभूत सहूलियत बीसीआई के मानदंड के अनुरूप नहीं है. सब से बड़ी समस्या कालेज के प्रधानाध्यापक की नियुक्ति है. प्रो. दास का कहना है कि वे इस पद के लिए उपयुक्त नहीं हैं. एक कालेज के प्रधानाध्यापक के लिए बीसीआई ने जो मानदंड स्थापित किए हैं, कालेज के प्रधानाध्यापक उन पर खरे नहीं उतरते हैं. उन के पास पीएचडी की डिगरी नहीं है.

इस के अलावा लंबे समय से सरसुना ला कालेज के प्रबंधन को ले कर भी कुछ समस्या है, जिस को देखते हुए बंगाल उच्च शिक्षा विभाग की ओर सरकार ने कोलकाता विश्वविद्यालय के अंतर्गत आशुतोष कालेजों के डीन डा. शुभ्रांशु शेखर चटर्जी को गवर्निंग बौडी का सदस्य मनोनीत किया है. डा. चटर्जी, जो बंगाल के कई ला कालेज से जुड़े हुए हैं, का कहना है कि सरसुना ला कालेज प्रबंधन ने आज तक कभी उन्हें बैठक में आमंत्रित नहीं किया. दूसरी तरफ वे समस्या से इनकार करते हैं.

मनमानी की मिसाल

ऐसा भी नहीं है कि बीसीआई ईमानदारी से अपना काम कर रही हो अगर उस के निरीक्षण दल की पांचसितारा आवभगत की जाए यानी घूस दी जाए तो यह अपने ही बनाए नियमकायदे ताक पर रखती  हुई मान्यता दे भी देती है. तमाम खामियों, जो उस के नियमों और शर्तों की देन हैं, को भूलने के लिए वह तैयार भी रहती है.  अजय खेमरिया की मानें तो बीसीआई के निरीक्षण दल के सदस्य नामी वकील होते हैं जिन का मान्यता के एवज में रिश्वत खाना साफ दिख रहा है. प्राइवेट ला कालेजों को मध्य प्रदेश में धड़ल्ले से मान्यता दी जा रही है, बावजूद इस के कि वे सरकारी कालेजों के मुकाबले रत्तीभर भी मानदंडों पर खरे नहीं उतरते हैं. चंबल, ग्वालियर इस की बेहतर मिसाल हैं.

बात सच इसलिए भी है कि बीसीआई निरीक्षण टीम की शिकायत ग्वालियर के ब्रिटिश काल से चल रहे एलएलबी कालेज के प्राचार्य ने लिखित में भी दी थी कि उन से मान्यता के एवज में महंगी सुविधाओं की मांग की गई. इस कालेज की मान्यता महज इसलिए रद्द कर दी गई कि कालेज प्रबंधन निरीक्षण दल के सदस्यों को महंगा विदेशी रेजर मुहैया नहीं करा पाया था.

प्राइवेट कालेज घूस का पैसा अपनी जेब से नहीं देते बल्कि फीस बढ़ा कर छात्रों से वसूलते हैं. राज्य में यह चर्चा आम है कि बीसीआई की यह मार अप्रत्यक्ष रूप से  निम्न और मध्यमवर्गीय छात्रों पर पड़ रही है. पर हकीकत में यह छोटी जाति के छात्रों पर पड़ रही है जो बड़े अरमान ले कर कानून की पढ़ाई कर वकालत को अपना पेशा बनाना चाहते हैं.

जहां तक पढ़ाई की गुणवत्ता की बात है तो वह प्राइवेट कालेजों के मुकाबले सरकारी कालेजों में बेहतर इसलिए है कि सरकार नियुक्ति योग्यताओं पर करती है. अधिकांश प्राध्यापक स्नातकोत्तर और पीएचडी हैं पर प्राइवेट कालेजों में एलएलबी पास प्राध्यापक ही पढ़ा रहे हैं.

एक बड़ी दिक्कत की बात इस तानाशाही से गांवों व कसबाई छात्रों से कानून की पढ़ाई की सहूलियत कालेजों के बंद होने से छिनना है. ऐसे में समस्या का इकलौता हल यही दिख रहा है कि बीसीआई की दादागीरी पर अंकुश लगाया जाए, उस से मान्यता का अधिकार छीना जाना चाहिए या फिर क्षेत्रफल, आवास और दूसरी कड़ी शर्तों में ढील देने के लिए दबाव बनाया जाए वरना प्रदेश के सरकारी विधि महाविद्यालय, यूजीसी, उच्च शिक्षा विभाग और बीसीआई के बीच उलझ कर रह जाएंगे.

 

– पटना से बीरेंद्र, मुंबई से सोमा घोष, कोलकाता से साधना शाह

तेलंगाना और कांग्रेस

आंध्र प्रदेश को काट कर तेलंगाना को बनाने का केंद्र सरकार का निर्णय ठीक ही रहा है. इस मामले को ले कर आंध्र प्रदेश में आएदिन बेवजह दंगेफसाद होते रहते थे. छोटे?राज्य देश की अखंडता को मजबूत करते हैं, कमजोर नहीं क्योंकि छोटे राज्य का मुख्यमंत्री लुंजपुंज, प्रभावहीन बन कर रह जाता है. आजकल जनता अपने शासकों से बहुतकुछ चाहने लगी है और राज्य बड़ा हो या छोटा, भाव तो मुख्यमंत्री को ही मिलता है. बड़े राज्य का मुख्यमंत्री संतुलन बैठाने व अलगअलग क्षेत्रों के लोगों से मिलने में इतना समय खर्च कर देता है कि उस के पास राज करने की फुरसत ही नहीं रहती.

राज्य इतने छोटे हों कि मुख्यमंत्री हैलिकौप्टर से आधे घंटे में हर जगह पहुंच सकें. अब समय आ गया है कि मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल को काटा जाए. गोआ, पौंडिचेरी, उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों को दूसरों से मिलाया भी जा सकता है. तेलंगाना चाहे कांग्रेस की मजबूरी रही हो पर गलत नहीं है.        

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें