इटली यूरोप का ऐसा पर्यटन स्थल है जहां सभ्यता, संस्कृति, विकास, कला और कारीगरी की अनूठी दास्तानें सुनने व देखने को मिलती हैं. सैलानी यहां सिर्फ घूमते ही नहीं बल्कि यहां के रंगीन नजारों, खानपान और सांस्कृतिक कलेवर को खुद में समेटने को आतुर भी दिखते हैं. खिली धूप, नीला आकाश और बिखरी चांदनी में इटली की फिजा देखते ही बनती है.
31 मई, 2012 की सुबह 7.30 बजे हम लोगों ने आस्ट्रिया का होटल क्रोमा छोड़ दिया. वजह? इटली का रंगीन मिजाज वाला शहर वेनिस हमारा इंतजार कर रहा था. वेनिस के नाम से ही एक अत्यंत रूमानी शहर का चित्र दिमाग में आ जाता है. ऐसा शहर जहां सड़कें नहीं हैं, उस की जगह पानी ही पानी है. इस महल्ले से उस महल्ले जाना हो तो पतलीपतली नावों से ही जाना पड़ेगा. ये नावें गोंडोला कहलाती हैं. एड्रियाटिक समुद्र के किनारे बसे इस शहर को ‘क्वीन औफ एड्रियाटिक’ यानी एड्रियाटिक की रानी भी कहा जाता है. यह एक जमाने में बहुत व्यस्त बंदरगाह हुआ करता था.
वहां पहुंचने के लिए जेट्टी से ही हम ने एक बड़ी नाव ली. किनारे पर उतर कर हम एक विस्तृत प्लाजा में आए. वहां पहले से ही काफी भीड़ थी. समुद्र के किनारेकिनारे शहर काफी दूर तक बसा हुआ है. पहली पंक्ति के भवन समूह के पीछे सैंट मार्क नामक विशाल चर्च है. इस के सामने एक विशाल प्रांगण है जो चारों ओर से दो- मंजिले भवनों से घिरा है. पूरा प्रांगण सैलानियों से भरा था. सैकड़ों की संख्या में कबूतर बिखरे दाने चुग रहे थे. प्रांगण के फ्लोर में एक सफेद पट्टी पर लैटिन भाषा में कुछ लिख कर ‘1625’ लिखा हुआ था. शायद उसी वर्ष में इस प्रांगण का निर्माण हुआ था. मन हुआ किसी से पूछूं कि इस का मतलब क्या है, पर देखा, सभी देशीविदेशी अपने में ही मस्त हैं. किसे फुरसत है इतिहास कुरेदने की. प्रांगण में ही 2 ओपन एअर होटल भी थे, जिन के कुछ हिस्से बरामदे में भी थे. तेज धूप के कारण ग्राहकों के लिए रंगीन छाते लगाए गए थे.
उसी परिसर में मुरान्हो ग्लास वर्क्स शौप भी है. यहां दिखाया गया कि ब्लो ग्लास कैसे बनाया जाता है. हमारे सामने ही एक कारीगर ने आग की भट्ठी में से एक लंबा पाइप निकाला जिस के अंतिम सिरे पर पानी में सने आटे की लोई की तरह द्रवित शीशा था. 2 मिनट के अंदर ही कारीगर ने बारीबारी से उसे ठोंकपीट कर एक सुंदर फूल रखने वाला जार बना दिया. दूसरी बार उसी तरीके से एक दौड़ता हुआ घोड़ा बना दिया. कमाल का हुनर था उस के हाथों में. वर्कशौप के साथ ही उन का विक्रय सह शोरूम भी था. विभिन्न आकारों व रंगों में कप, प्लेट, गिलास, गुलदस्ता, चूड़ी, हार, तरहतरह के जानवर, चिडि़या और झाड़फानूस दिखे.
स्थानीय भाषा में वेनिस को ‘वेनेजिया’ कहा जाता है. यह शहर 170 छोटेबड़े द्वीपों को मिला कर बना है. एक द्वीप से दूसरे द्वीप के बीच समुद्र जल है. स्वाभाविक है कि एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए जल मार्ग का सहारा लेना पड़ेगा. कुल 150 नहरें हैं. सभी नहरें आगे जा कर छोटेबड़े चौराहों पर मिलती हैं. इस तरह नाव खेतेखेते एक महल्ले से दूसरे महल्ले में जाया जा सकता है. नहर में चलते समय हमारी नाव अकसर ओवर हेड व रोड ब्रिज से गुजरती. उस समय ब्रिज पर खड़े लोग नीचे से गुजर रही नावों के यात्रियों को हाथ हिलाहिला कर बायबाय करते. कुछ ताली भी बजाते.
नहर के दोनों तरफ बने मकानों की हालत एक जैसी नहीं थी. जहां बाईं तरफ के मकानों की दीवारें मजबूत पत्थर से बनीं चमकदार दिख रही थीं, वहीं दाईं तरफ की दीवारें गरीबी की कहानी बयान कर रही थीं. बहुत जगह प्लास्टर झड़ गए थे, अंदर की ईंटें झांक रही थीं. गरीबअमीर तो दुनिया में हर जगह हैं. कुल मिला कर गोंडोला से यात्रा करना आनंददायी रहा. वैसे इलाहाबाद और बनारस में भी हम ने नौकाविहार किया है, पर वहां चारों ओर खुलाखुला सा रहता है, वेनिस में मकानों के बीच नाव चलती हैं.
जल विहार के उपरांत हम लोगों ने एक ऐसे होटल में खाना खाया जिस का नाम था ‘रिस्तरांतो इंदियानो गांधी’. बड़ा अजीब लगा. वहां साईं बाबा की मूर्ति के अलावा राजस्थानी पेंटिंग्स भी प्रमुखता से टंगी थीं. कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि हम अपने देश में ही हैं. यूरोप के बहुत से हिस्सों में ‘ट’ की जगह ‘त’ व ‘ड’ की जगह ‘द’ का उच्चारण किया जाता है इसीलिए होटल के नाम का उच्चारण ऐसा लिखा गया है. 1 जून, 2012 की सुबह करीब साढ़े 3 घंटे की ड्राइव के बाद ‘ झुकती हुई मीनार’ को देखने पीसा पहुंचे. यह मात्र 1 लाख की आबादी वाला छोटा सा शहर है. कहा जाता है कि प्रसिद्ध वैज्ञानिक गैलिलियो ने इस मीनार पर चढ़ कर यह ऐक्सपेरिमैंट किया था कि क्या पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति हर वस्तु को एक ही तरह आकर्षित करती है.
इस मीनार का निर्माण 1174 में प्रारंभ हुआ. योजनानुसार इसे संगमरमर की घंटा वाली मीनार बनाया जाना था. पर 3 मंजिलें बनने के बाद ही यह झुकने लगी. तब निर्माण बंद कर दिया गया. 70-80 वर्षों बाद फिर काम शुरू किया गया और उसी झुकती स्थिति में 5 मंजिलें और जोड़ दी गईं. आज इस की ऊंचाई 55.8 मीटर है. ऊपरी मंजिल तक कम लोग ही चढ़ते हैं. वहां तक पहुंचने के लिए तकरीबन 1 हजार रुपए आप को खर्च करने पड़ेंगे.
यह मीनार एक विशाल अहाते के भीतर है जिसे ‘स्क्वैयर औफ मिरैकल्स’ कहते हैं यानी चमत्कारों का चौराहा. करीब 18-20 फुट ऊंची दीवार से घिरे इस इलाके में जैसे ही घुसते हैं, बाईं ओर एक चर्च और बपतिस्मा करने वाला गुंबददार भवन मिलता है. उस के बाद अंत में दिखाई पड़ता है यह झुकता हुआ टावर.
फ्लोरैंस
पीसा के बाद हम यूरोप की सांस्कृतिक राजधानी फ्लोरैंस आए. यह शहर प्रख्यात मूर्तिकार और चित्रकार माइकेल एंजेलो की कर्मभूमि थी. शहर के मुख्य चौराहे सिग्नोरिया स्क्वैयर, जहां तत्कालीन शहर के मुखिया का मकान था, के चारों ओर संगमरमर की बड़ीबड़ी मूर्तियां स्थापित की गई हैं. इस चौराहे को चौराहा न कह कर ‘ओपन एअर म्यूजियम’ कहा जा सकता है. इसी में है डेविड की संगमरमर की विश्व प्रसिद्ध मूर्ति है जो कम से कम 10-12 फुट से कम नहीं होगी. सभी मूर्तियां 5-6 फुट ऊंचे चबूतरे पर स्थापित की गई हैं. वहीं पर बाइबिल में चर्चित कई संतमहात्माओं की मूर्तियों के साथ दांते, वर्जिल जैसे कवियों की भी मूर्तियां थीं.
रोम
रोम को क्षेत्रीय भाषा में ‘रोमा’ कहते हैं. आज यूरोप के हर देश में भवन निर्माण कला, ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में रोमन प्रभाव हर जगह दिखाई देता है. सर्वोत्कृष्टता का मानदंड रोमन पद्धति ही रहा है. उसी रोम की यात्रा पर आज हम निकले थे. इस विचार मात्र से ही उत्सुकता एवं रोमांच हो रहा था. शुरू में यह शहर अत्यंत अव्यवस्थित एवं छोटा था. परंतु राजधानी बन जाने के बाद से इस में भव्य भवनों का निर्माण शुरू हुआ और एक समय ऐसा आया कि यह नगर रोमन साम्राज्य की सत्ता का केंद्र बन गया. पूरे यूरोप में इस की तूती बोलती थी. इस की भव्यता को देख कर यह कहा जाता था कि ‘रोम वाज नौट बिल्ट इन अ डे’ यानी इतने महान शहर का निर्माण एक दिन में नहीं हो सकता. इस का अर्थ यह भी लगाया जाता है कि किसी भी महान कार्य को करने के लिए समय व परिश्रम की जरूरत होती है.
वैटिकन सिटी : रोम आने पर सब से पहले हम लोगों ने वैटिकन सिटी की यात्रा शुरू की. संसारभर के रोमन कैथोलिक मत के मानने वाले ईसाइयों के लिए इस से बड़ा कोई स्थान नहीं है. 44 हैक्टेअर क्षेत्र में बसा यह संसार का सब से छोटा देश होने के साथ संयुक्त राष्ट्र का सदस्य भी है. इस का निर्माण यद्यपि सन 800 ई.पू. में शुरू हुआ, परंतु वर्तमान रूप प्राप्त हुआ 1929 में ही. कहते हैं कि करीब 25 हजार लोग प्रतिदिन इसे देखने आते हैं. वैटिकन सिटी कौंप्लैक्स किसी राजमहल से कम नहीं है. इस की अलग से प्रशासन व्यवस्था, पुलिस व सुरक्षा गार्ड्स हैं. सिटी के अंदर रहने वाले सभी निवासियों को परिचयपत्र दिया जाता है ताकि कोई अनाधिकृत व्यक्ति यहां न रह सके. यहां देखने वाले स्थानों में वैटिकन म्यूजियम, सेंट पीटर्स और सिस्टाइन चैपल प्रसिद्ध हैं.
म्यूजियम में ईसाई धर्म के संतों व महापुरुषों के चित्र देखने को मिले. इस के टैपस्ट्री सैक्शन में कमाल की कारीगरी देखने को मिली. कमाल की बात तो यह थी कि ये चित्रण पेंटिंग के द्वारा न कर के बुनाई के माध्यम से किए गए हैं. सेंट पीटर्स बैसिलिका के अंदर लगभग सभी जगह पर छतों व दीवारों पर पेंटिंग हैं.
सिस्टाइन चैपल में माइकल एंजेलो की बनाई ‘पियेटा’ नामक मूर्ति देखने ही लायक है. सूली पर से उतारे घायल ईसा मसीह को मेरी अपने दोनों पैरों पर रख कर उन की ओर द्रवित हो कर देख रही हैं. ईसा मसीह के शरीर में लिपटे वस्त्र अस्तव्यस्त हो कर नीचे लटक रहे हैं. करुणामयी मेरी उन्हें असहाय हो कर देख रही हैं. कठोर पत्थर में इस प्रकार के भावों का संचार करना हर कलाकार के बस की बात नहीं.
कोलोसियम
वैटिकन सिटी के बाद बारी थी कोलोसियम की. यह वह प्रसिद्ध गोल इमारत है जिस में मरनेमारने वाले ग्लैडियेटर्स का खूनी खेल खेला जाता था. इस की विशालता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस के अंदर 45 हजार दर्शक बैठ सकते थे. दर्शकों के बैठने के बाद शासनाध्यक्ष के इशारे पर मौत का खेल प्रारंभ होता था. भाला, तलवार व ढाल से सुसज्जित लड़ाकों की जोड़ी रिंग में प्रवेश करती थी. युद्ध में कोई भी किसी को मार सकता था. कभीकभी तो मनुष्यों को भूखे शेर से भी लड़वाया जाता था. लड़ने वाले ज्यादातर युद्ध कैदी या दास हुआ करते थे. इस बिल्डिंग का ऊपरी हिस्सा कहींकहीं ढह गया है, परंतु यह उस जमाने की निर्माण कला के बारे में बहुत कुछ कहता है.
ट्रेवी फाउंटैन
आखिर में हम विशाल ट्रेवी फाउंटैन आए. यह मानव रचित एक विशाल झरना है. रोड के सामने, लंबी दाढ़ी वाले नेपच्यून की विशाल संगमरमर की मूर्ति है, जिस के दोनों ओर बलपूर्वक रोके जाते हुए चिंघाड़ते हुए 2 घोड़ों की मूर्तियां हैं. इसी बीच इन लोगों के पीछे से लहराते हुए पानी की धारा बहते हुए सामने आ कर गिरती है. ये तीनों मूर्तियां एक ऊंचे चबूतरे पर स्थापित हैं. इन लोगों के अगलबगल और पीछे से आने वाले पानी की धार 3 तरफ बने गड्ढों में गिरती है.
कहते हैं कि यदि कोई आदमी पीछे मुड़ कर इस में पैसा फेंके और वह पानी में जा गिरे, तो उस की मनोकामना पूरी होती है, और वह फिर इस स्थान पर आता है. मनोकामना पूरी करने वाली वस्तुएं हमारे यहां भी काफी हैं, पर यूरोप में भी ऐसा अंधविश्वास होगा, यह नहीं सोचा था.
इसी संदर्भ में याद आया लंदन का झूला लंदनआई. जिस में हैं तो 32 केबिन, पर अंतिम केबिन की संख्या है 33. क्योंकि 13 नंबर गायब है. 12 के बाद 14 नंबर दिया गया है. अंधविश्वास का प्रभाव हर समाज में किसी न किसी रूप में व्याप्त है, चाहे वह कितना ही विकसित समाज या राष्ट्र क्यों न हो.
यूरोप के अन्य शहरों की तरह रोम में भी हम लोगों ने विभिन्न प्रकार के भारतीय व्यंजन परोसने वाले एक भारतीय होटल में भोजन किया. उस का नाम था ‘रिस्तेरांतो इंदियानो जयपुर’. बाहर से साधारण से दिखने वाले होटल में पूरी तरह भारतीय वातावरण था. रिसैप्शन के पूरे हौल में लटकते विभिन्न प्रकार के झाड़फानूस व राजस्थानी पेंटिंग्स भारतीय वातावरण की सृष्टि में योगदान कर रहे थे. मजा आ गया. भारतमय हो गया था सबकुछ. लगा ही नहीं, भारत से इतने दूर रोम में हैं. भोजन भी उतना ही स्वादिष्ठ. लेख में उस होटल की चर्चा न करना, रोम व होटल दोनों के प्रति ही अन्याय होता.