25 मई, 2013 को छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके के सुकमा के पास दरभा घाटी में जो भीषण हत्याकांड हुआ उस से मु झे कोई खास हैरानी नहीं हुई. 52 वर्षीय कृषि विभाग के एक अधिकारी ने नाम व पहचान छिपाए रखने की शर्त पर लंबी बातचीत में इस प्रतिनिधि को बताया, अपना आतंक बनाए रखने और अपने मिशन को आगे बढ़ाने के लिए नक्सली कुछ भी कर सकते हैं. यह इत्तफाक और मौके की बात सम झ आती है कि उन के निशाने पर कांग्रेसी काफिला आ गया वरना मरनेमारने के नाम पर वे कोई भेदभाव नहीं करते.
आदिवासी समुदाय के इस अधिकारी ने आगे बताया, यह जुलाई 1990 की बात थी जब मैं जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर से एमएससी की डिगरी ले कर निकला तो ग्रामसेवक पद पर नौकरी हाथोंहाथ मिल गई पर नियुक्ति बीजापुर ब्लौक के भैरमगढ़ गांव में मिली. सरकारी नौकरी करने वालों के लिए तब बस्तर को मध्य प्रदेश का कालापानी और नर्क कहा जाता था. साथियों ने मु झे सम झाया कि बस्तर जा कर नौकरी, वह भी इतनी छोटी करने से कोई फायदा नहीं. बेहतर यह होगा कि मैं पीएससी या यूपीएससी की तैयारी करूं.
पर मैं सभी को नहीं सम झा सकता था कि मेरे घर के हालात क्या हैं, मेरी पढ़ाई के लिए पिताजी ने 2 एकड़ पुश्तैनी जमीन तक बेच दी थी जो 8 सदस्यों के परिवार के पेट भरने का इकलौता जरिया थी. बच्चों को छोड़ कर सभी लोग खेतों में मेहनतमजदूरी कर पेट पालते थे. उन की इकलौती उम्मीद अब मेरी नौकरी थी जिसे मैं और टरकाता तो घर के टीनटप्पर तक बिक जाते. लिहाजा, मैं ने बस्तर जाने में ही बेहतरी सम झी.
छत्तीसगढ़ ऐक्सप्रैस के स्लीपर कोच में आरक्षण करा कर मैं तुरंत रायपुर पहुंचा. यहां से मु झे बस पकड़ कर भैरमगढ़ जाना था. गनीमत यह थी कि यह गांव सड़क किनारे ही था. रायपुर जा कर मालूम हुआ कि भैरमगढ़ जाने के लिए एक ही सरकारी बस चलती है जो शाम को आएगी.
जेब में पैसे बहुत ज्यादा न थे और तनख्वाह कब मिलनी शुरू होगी इस का भी अंदाजा नहीं था. लिहाजा, दिनभर मैं रायपुर के बसस्टैंड पर बैठा नईपुरानी बातें सोचता रहा. शाम को टिकट ले कर बस में बैठा तो बस वाकई सरकारी यानी खटारा नजर आ रही थी.
कल की खबर में महेंद्र कर्मा और नंदकुमार पटेल की हत्या के साथसाथ विद्याचरण शुक्ल के गंभीर रूप से घायल होने की बात पढ़ी तो मु झे बरबस ही उन के भांजे अनूप मिश्रा की याद आई जो मु झ से 2 साल सीनियर था और विश्वविद्यालय के न्यू होस्टल में रहता था. वह बेहद शराब पीता था और अब से ढाई साल पहले उस की पत्नी या प्रेमिका, जो भी कह लें, ने उस की हत्या करा दी थी. तब वह भी बड़े पद पर था और ड्यूटी पर भी शराब पी कर जाने के लिए कुख्यात था. चूंकि श्यामाचरण और विद्याचरण शुक्ल का नजदीकी रिश्तेदार था इसलिए यूनिवर्सिटी में उस की तूती बोलती थी और जबलपुर शहर में वह निकलता था तो उस के पीछे चलने वालों की तादाद कम न रहती थी. अनूप जानता था कि लोग उस के पैर तबादला करवाने, रुकवाने या तरक्की के लिए पड़ते थे.
बस में बैठी कुछ सवारियों से चर्चा हुई. उन्होंने मु झे हैरत से देखा और दबी जवान में इशारा किया कि भैरमगढ़ जैसी जगह में नौकरी करना अगर बहुत जरूरी न हो तो मैं दोबारा सोचूं.
चूंकि मेरे पास कोई विकल्प नहीं था इसलिए मैं ने ज्यादा कुछ नहीं सोचा. अलबत्ता, जो जानकारियां भैरमगढ़ और बीजापुर ब्लौक के बारे में मिलीं वे अच्छी कतई नहीं थीं. कंडक्टर, ड्राइवर को भी पता चल चुका था कि मैं नयानया नौकरी पर जा रहा हूं तो उन्होंने भी हैरत से मु झे देखा. मैं भी आदिवासी हूं यह जान कर उन्होेंने दूसरों की तरह कोई मशवरा नहीं दिया. दोनों शराब पिए हुए थे पर उन की बातचीत और व्यवहार दोनों संतुलित थे.
अलस्सुबह बस जगदलपुर पहुंची तो लगभग सारे यात्री वहां उतर गए. तब भी जगदलपुर आज की तरह जगमगाता शहर था और यहीं तक ही छत्तीसगढ़, शेष मध्य प्रदेश या देश जैसा लगता था. कंडक्टर के आमंत्रण पर मैं ने ठेले पर चाय पी. अब खुल कर वह जो बोला उस का सार यह था कि इस धरती पर नर्क अगर कहीं है तो यहीं बस्तर में है. अब तो यहां छिटपुट नक्सली वारदातें भी होने लगी हैं.
नक्सली बस्तर में सक्रिय हैं यह चर्चा अकसर जबलपुर में होस्टल में होती रहती थी, साथ ही चर्चा यह भी होती थी कि यहां रोटी महंगी, देह सस्ती है और शराब बेहद आम है. सियासी तौर पर यह इलाका कभी कम्युनिस्टों का गढ़ माना जाता था जो धीरेधीरे टूट रहा था. फिर भी 1993 तक एकाध विधायक चुन कर भोपाल पहुंच जाते थे वरना कांग्रेस को मध्य प्रदेश में सत्ता दिलाने में छत्तीसगढ़ इलाके की 90 विधानसभा सीटों की भूमिका अहम रहती थी.
‘अब यहां के बाद आदिवासी चढ़ना शुरू होंगे,’ कंडक्टर ने बताया, ‘और बस ठीकठाक चली तो 5-6 घंटों में आप भैरमगढ़ पहुंच जाएंगे.’ उस की कोशिश या मंशा कतई मु झे आतंकित करने की नहीं लग रही थी बल्कि वे जानकारियां देने की थीं जो पहली दफा इस इलाके में आ रहे नए आदमी के लिए महत्त्वपूर्ण साबित हो सकती थीं. इस में से एक थी कि भैरमगढ़ में मकान मिलना मुश्किल है.
बस जैसेजैसे आगे बढ़ती गई वैसेवैसे मेरे सिर पर अनजाना सा डर सवार होने लगा. यह एहसास मु झे था कि मैं अब एक नई जिंदगी में जा रहा हूं जहां लड़कपन बिलकुल नहीं चलना. अब चारों तरफ जंगल ही जंगल नजर आ रहा था. जहां बस रुकती या रुकवाई जाती वहां 2-4 आदिवासी चढ़ते पर सभी खाली पड़ी होने पर भी सीट पर नहीं बैठते, नीचे बैठ जाते थे. एकाध ने तो मु झ पैंटशर्ट वाले को बेवजह प्रणाम भी कर डाला था.
पर उस वक्त उस माहौल ने ज्यादा फर्क मेरे दिमाग पर नहीं डाला था. वजह, मेरे दिमाग में घर का गुणाभाग चल रहा था कि कैसे और कितना पैसा घर भेजूंगा और शेष में से खुद का खर्च चलाऊंगा.
इस मार्ग की यह इकलौती बस भोपालपट्टनम तक जाती थी. कुछ दूर बाद औरतों सहित कुछ और आदिवासी चढ़े, कुछ के मुंह से निकलती शराब की गंध पूरी बस में फैल रही थी. आमतौर पर आदिवासी शांत थे पर जब किसी बात पर बोलने लगते थे तो लगता था झगड़ रहे हैं. मैं ने सुन रखा था कि यहां आदिवासी मामूली बात पर झगड़ बैठते हैं और हत्या तक कर बैठते हैं.
सड़क के दोनों ओर दिख रहे जंगल में कहींकहीं पेड़ काट कर बनाए खेत दिख रहे थे जिन में धान की फसल दिख रही थी.
किसी तरह भैरमगढ़ आया. कंडक्टर ने भलमनसाहत दिखाते हुए सामान उतारने में मेरी मदद की. मेरे पीछे 2 आदिवासी भी उतरे तो मैं ने राहत की सांस ली कि इन से जरूर कुछ जानकारियां और मदद मिल जाएगी.
हमें उतार कर बस आगे बढ़ गई. बाईं तरफ भैरमगढ़ गांव दिख रहा था और सामने की तरफ एक टपरिया दिख रही थी, जो यहां का होटल कही जा सकती थी. एक मर्द और एक औरत, जो पतिपत्नी थे, इत्मीनान से बैठे पंखा झल रहे थे.
उमस बढ़ चली थी और मु झे पसीना आ रहा था. साथ उतरे दोनों आदिवासियों ने कोई दिलचस्पी मु झ में नहीं ली और इस से पहले कि मैं कुछ कहतासुनता, वे तेज कदमों से गांव की तरफ बढ़ गए.
यह 29 साल की जिंदगी का दूसरा वक्त था जब मैं जिंदगी की सड़क पर अकेला खड़ा था. पहली दफा जब गांव से जबलपुर पढ़ने गया था तब और दूसरी दफा आज नौकरी वाले दिन. दोनों ही दफा मु झे नहीं मालूम था कि अब क्या होगा.
पर कुछ तो करना ही था, लिहाजा, सामान कंधे पर लाद कर मैं गांव की तरफ बढ़ा. 30-40 मकान दूरदूर बने दिख रहे थे पर अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था. कुछ कदम चलने के बाद दाईं तरफ एक छोटी पर पक्की बिल्ंिडग स्टेट बैंक औफ इंडिया की दिखाई दी. सामान ले कर सीधे उस में ही दाखिल हो गया. बैंक का दफ्तर खाली सा था. 3 कर्मचारी बैठे बतिया रहे थे. उन में से एक युवती थी. मैं ने उन्हें अपना परिचय देते हुए आने की वजह बताई.
वे तीनों लंबे वक्त से वहां थे और मु झे विस्फारित नेत्रों से देख रहे थे. उन में से एक क्लर्क, जिस का नाम मान लें राजेश और वह युवती, नाम मान लें कुसुम, ने मु झे काफी सहयोग दिया. शुरुआती बातचीत में ही स्पष्ट हो गया कि यहां रहने के लिए ढंग के मकान नहीं हैं, और जो हैं उन में शौचालय नहीं है, खाना खुद बना कर खाना पड़ेगा जिस के लिए घासलेट और स्टोव का इंतजाम करना होगा.
ये दोनों ही रायगढ़ जिले के रहने वाले थे और मेरी तरह ही गौंड आदिवासी थे पर तिर्की जाति के थे और ईसाई धर्म ग्रहण कर चुके थे. ईसाई मिशनरियों ने ही उन्हें पढ़ायालिखाया था. बातचीत में राजेश ने मु झे बताया कि एक कमरा खाली है पर उस का मकानमालिक बीजापुर में रहता है, कलपरसों में चल कर उस से बात कर कमरा तय कर लिया जाएगा. तब तक मैं उस के कमरे पर रह सकता हूं. नक्सलियों की इस वक्त कोई बातचीत नहीं हुई पर बाद में खूब खुल कर हुई और कई दफा नक्सली करार दिए गए लोगों से भी हुई. उन की बातों में हर बार चारू मजूमदार, असीम चटर्जी, कानू सान्याल और संतोष राणा के नाम जरूर आते थे जो उन के आदर्श थे. बातबात पर ये नक्सली यह जरूर दोहराते थे कि उन्हें कोई राजनीतिक विकल्प नहीं बनना है.
कुसुम मु झे राजेश के कमरे तक ले गई. वह मु झे बिंदास लड़की लगी. कमरे तक पहुंचतेपहुंचते कुछ गांव वालों ने मु झे आंखें फाड़ कर देखा तो वह बोली, ‘यहां हर नए आदमी को नक्सली या पुलिस का मुखबिर सम झ कर ही देखा जाता है. कल जब इन्हें पता चलेगा कि तुम इन के नए ग्राम सेवक हो तो सबकुछ ठीक हो जाएगा.’
इस गांव की पहली नजर में मैं ने कुछ खूबियां भांपी थीं कि मकान एकदूसरे से सटे नहीं हैं, उन के बीच मुकम्मल फासला है और 2-4 ही पक्के कहे जा सकते हैं, बाकी झोंपड़े सरीखे हैं.
कमरे पर जा कर कुसुम ने स्टोव पर चाय बनाई और खाने के बाबत पूछा तो मैं ने घर से लाया खाना (पूरीअचार) खोल लिया जिसे खाने में उस ने साथ दिया. इस दौरान वह लगातार कुछ न कुछ बोलती रही जिस में हम आदिवासियों की दुर्दशा का बखान ज्यादा था.
इसी बातचीत में मु झे पता चला कि वह बैंककर्मी नहीं है, महिला बाल विकास विभाग में है. चूंकि वहां कामधाम न के बराबर होता है, इसलिए यहांवहां वक्त काटा करती है. उस की बातों से मैं ने अंदाजा लगाया कि गांव में दर्जनभर से कुछ ज्यादा शासकीय कर्मचारी हैं और सभी आदिवासी हैं. कोई दूसरा यहां आता नहीं और आ जाए तो महीनेभर भी नहीं टिकता.
थका और जागा था इसलिए मैं कुसुम के जाने के बाद सो गया. शाम को राजेश ने जगाया तो सकपका कर उठा. तेज बारिश के आसार नजर आ रहे थे.
राजेश के साथ औपचारिक बातें हुईं, तभी कुसुम भी आ गई और रात के खाने की तैयारी शुरू हो गई. राजेश ने बताया कि अगर यहां का भारी पानी हजम करना है तो शराब पीना जरूरी है वरना 2-4 दिन में बीमार पड़ जाओगे. ऐसा मैं ने भी सुन रखा था, इसलिए हैरानी कम हुई. वैसे भी मैं तब शराब पीता था- होस्टल में भी और उस से पहले अपने गांव में भी.
वह शाम अच्छी गुजरी, तीनों ने मिल कर साथ खाना खाया और शराब भी पी. किसी लड़की को शराब पीते देखने का यह पहला अनुभव था. खाने के बाद 3-4 घंटे फिर बातचीत का दौर चला जो बस्तर की जिंदगी पर केंद्रित था.
उन दोनों ने मु झे बताया कि यहां के आदिवासियों की हालत वाकई खराब है. वे बेहद गरीब हैं और सभी लोग उन का शोषण करते हैं. किसी सरकारी महकमे में मुलाजिम काम नहीं करते. मास्टर और पटवारी तक महीनों नहीं आते. असल राज सूदखोर बनियों का चलता है जो तगड़े ब्याज पर आदिवासियों को पैसा देते हैं और हाड़तोड़ मेहनत कराते हैं. सरकारी योजनाएं कागजों पर चलती हैं जिन का 75 फीसदी हिस्सा भोपाल में ही डकार लिया जाता है. आदिवासी जानकारियों के अभाव में योजनाओं का फायदा नहीं उठाते और कर्ज बैंक से लेने के बजाय साहूकारों से ही लेते हैं.
यहां राजनीति चुनाव के वक्त ही दिखती है. कांगे्रस यहां धीरेधीरे मजबूत हो रही है जिस का महेंद्र कर्मा नाम का युवक तेजी से लोकप्रिय हो रहा है. कम्युनिस्टों का वजूद खत्म सा हो चला है. अब केवल मनीष कुंजाम ही विधानसभा चुनाव जीत पाते हैं. नक्सलियों का दबदबा बढ़ रहा है और सभी कर्मचारी व पैसे वाले आदिवासी हर तरह से उन की सहायता करते हैं. नक्सलियों और पुलिस वालों की मुठभेड़ आम है जिन में आरोपी बेकसूर आदिवासियों को ही बनाया जाता है. नक्सली हालांकि उन्हें हिफाजत देते हैं पर पुलिस वाले भारी पड़ते हैं. यहीं बाहर सड़क पर पुलिस चौकी है जो अकसर खाली पड़ी रहती है. जब किसी मंत्री या बड़े अधिकारी का दौरा होता है तो दंतेवाड़ा या बीजापुर से 2-4 पुलिस वाले आ कर बैठ जाते हैं.
बातचीत के आखिर में राजेश ने कायदे की एक बात कही जो उस के दिल का दर्द था कि आप ही बताइए, इन भोलेभाले गरीब आदिवासियों का गुनाह क्या है? यहां बिजली नहीं है, पीने का साफ पानी नहीं है, स्कूल न के बराबर हैं, रोजगार नहीं है. मेहनती आदिवासी गुलामों सी जिंदगी जी रहे हैं. साल और सागौन के पेड़ों की कीमती लकड़ी की तस्करी होती है, माइनिंग के सारे ठेके रसूखदार लोगों के पास हैं. बस्तर का सारा पैसा प्राकृतिक संसाधन और मानव श्रम पैसे वालों के लिए है, आदिवासियों के लिए तो जल, जंगल, जमीन कुछ नहीं है.
ऐसे में अगर कुछ माओवादी आदिवासियों को उन के अधिकारों के बाबत सम झाते हैं तो क्या गलत करते हैं? अगर वे घूसखोर कर्मचारियों को सरेआम सजा देते हैं तो सरकार तिलमिलाती क्यों है? वे पूंजीवादियों को यहां से उखाड़ने का नेक काम करते हैं तो उन्हें आतंकी क्यों कहा जाता है?
कुछ दिनों बाद यही बातें मु झे नक्सली प्रचार सामग्री में आंकड़ों की शक्ल में मिलीं जो वाकई चिंतनीय थीं कि आदिवासियों में साक्षरता दर महज 22 फीसदी है. 60 फीसदी मैट्रिक के पहले स्कूल छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं और तकरीबन 50 फीसदी आदिवासी गरीबी रेखा के नीचे जीते हैं.
इन सब से ज्यादा हैरान कर देने वाली बात यह उदाहरणों सहित बताई गई थी कि अब तक तकरीबन 30 फीसदी आदिवासी विभिन्न विकास परियोजनाआें के नाम पर विस्थापित हो चुके हैं. यह संख्या तकरीबन डेढ़ करोड़ होती है, इन बातों ने मु झे नए सिरे से सोचने का मौका दिया. सरकारी स्वार्थ आज भी कायम है, छत्तीसगढ़ सहित ओडिशा और पश्चिम बंगाल में टाटा, एस्सार, कोस्को और वेदांता जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को पलकपांवड़े बिछा कर बुलाया जा रहा है.
इन कंपनियों के आका सरकारी अधिकारियों की तरह नक्सलियों को नजराना देते हैं जिसे लेवी कहा जाता है. तकरीबन 600 करोड़ रुपए सालाना की लेवी नक्सलियों की जेब में जाती है, नक्सली इन कंपनियों को सरकारी अधिकारियों की तरह उखाड़ कर नहीं फेंक सकते इसलिए लेवी ले लेते हैं, जिस से उन के अभियान में पैसों की कमी आड़े नहीं आती.
ये बातें भैरमगढ़ के रहते नहीं, 2005 के बाद मु झे सम झ आई थीं. सम झ यह भी आया कि यही बहुराष्ट्रीय कंपनियां नक्सली आंदोलन को तबीयत से बदनाम कर सरकार और नक्सलियों के बीच खाई खोदने का काम कर रही हैं.
दूसरे दिन से मैं ने यह सब देखा और महसूस किया कि वाकई यहां के आदिवासी जिल्लत और जलालत की जिंदगी जी रहे हैं. उन के नाम पर आया अरबों रुपया पूंजीपति, उद्योगपति और नेता डकार रहे हैं. उन्हें इस से कोई मतलब नहीं, उलटे उन का याराना शोषकों से है. चुनावों के पहले शराब पानी की तरह बहाई जाती है जिस से आदिवासी पीपी कर खोखले होते रहें.
खुद अपने विभाग की हालत मैं ने देखी कि छोटे आदिवासी किसानों के लिए आया खाद, बीज, कृषि उपकरण वगैरह गीदम, दंतेवाड़ा, बीजापुर और जगदलपुर के गैर आदिवासी व्यापारियों में बंट जाता है और मु झ सरीखे छोटेबड़े कर्मचारी चुपचाप ये सब देखते रहते हैं क्योंकि नौकरी करना उन की मजबूरी जो है. दाल क्या होती है यह आदिवासी नहीं जानते. वे चावल का मांड़ खाते हैं या फिर आलू सस्ता होने पर उस की सब्जी कभीकभार खा लेते हैं. गेहूं की रोटी ये लोग उस के महंगा होने के कारण नहीं खा पाते. यह सुना भी सच निकला कि बस्तर के आदिवासी मेढक और झींगुर तक भून कर खा जाते हैं, यह उन के जंगलीपन का जीताजागता उदाहरण है जिसे मु झ जैसे लोग पिछड़ापन कहते हैं.
यह अधिकारी रुक कर एक लंबी सांस लेने के बाद बताता है, छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के पहले तक मैं वहां रहा फिर 2001 में मध्य प्रदेश आ गया. सुकमा मैं कई बार गया. वह सचमुच नक्सली गतिविधियों का जंक्शन है. नक्सलियों से कई दफा मैं मिला, उन की आर्थिक मदद भी अपनी मरजी व हैसियत के मुताबिक की और आदिवासियों को सम झाया कि उन के लिए भला क्या है और बुरा क्या.
फिर कल सुकमा में थोक में कांग्रेसी नेताओं की हत्या की खबर आज देखी और पढ़ी. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी का यह बयान भी पढ़ा कि यह लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला है तो मु झे उन पर तरस आया कि काश एक दफा ये लोग बस्तर जाएं, वहां की बदहाली देखें. फिर बताएं कि वहां कौन सा लोकतंत्र है, और है भी कि नहीं. 2 साल पहले ही मैं सरकारी काम से बस्तर गया था. तब काफीकुछ बदला दिखा. नई इमारतें दिखीं, कुछ विकास कार्य भी दिखे पर वे कुछ ही थे और 15 साल की मिआद के हिसाब से कतई संतोषजनक और मुकम्मल नहीं थे. वहीं मालूम करने पर पता चला कि राजेश और कुसुम दोनों का तबादला रायगढ़ हो गया है.
सुकमा में जो हुआ…, यह अधिकारी कहता है, वह अप्रत्याशित नहीं था, न ही लोकतंत्र पर हमला था बल्कि लोकतंत्र की पोल खोलता हुआ हादसा था. देशभर के नेता लाख चिल्लाते रहें पर आज नहीं तो कल उन्हें नक्सलियों के साथ बैठ कर बात करनी ही पड़ेगी क्योंकि न केवल बस्तर बल्कि पूरे रेड कौरीडोर में नक्सली सरकार से ज्यादा मजबूत हैं और 60 फीसदी आदिवासी उन से इत्तफाक रखते हैं इसलिए महेंद्र कर्मा का सलवा जुडूम आंदोलन ज्यादा नहीं चला. अदालत ने तो उसे एक तरहसे गैर कानूनी ही करार दे दिया था.
और अब जब दरभा घाटी का सच सामने है तब शायद सोनिया गांधी या मनमोहन सिंह यह बता पाएंगे कि नक्सली लोकतंत्र के दुश्मन कैसे हैं? हकीकत तो यह है कि जहांजहां मुक्त क्षेत्र यानी रेड कौरीडोर में नक्सली हैं वहां लोकतंत्र न पहले कभी था न आज है. वहां बाबू, सिपाही, पटवारी, व्यापारी राज आजादी के बाद ही कायम हो गया था, जिसे सरकार ने फलनेफूलने दिया.
भैरमगढ़ के एक बुजुर्ग आदिवासी ने एक बार बातोंबातों में बताया था कि गोरों का राज बड़े सुकून का था. हम शांति से यहां रहते थे. कोई परेशान नहीं करता था पर इन कालों का राज आया तो हमारा जीना हराम हो गया. थोड़ीबहुत सड़कें बनाने के एवज में इन्होंने हमारा चैन छीन लिया. सरकारी मुलाजिम आ कर हम पर तरहतरह के नियम व कायदेकानून थोपने लगे. न मानने पर हमें गाली देते थे और मारते थे. उन की बुरी नजर हमेशा हमारी औरतों पर रहती थी. आजादी के बाद से दीगर जातियों के लोग आए. वे हमें हिकारत से देखते थे, राजस्व विभाग के लोग आ कर अकसर हमें कहीं और बस जाने को कहते थे. कभी सड़क तो कभी कारखाना बनाने के नाम पर हमें तंग किया जाने लगा.
रहासहा चैन सरकारी दफ्तरों ने छीन लिया, गोरों की हुकूमत में हम कभी अपने टोले के बाहर नहीं गए पर अब जाना पड़ता है, कभी थाने तो कभी तहसील तो कभी अदालत. थोड़ाबहुत पैसा सरकारी योजनाओं का मिला पर उस से लाख गुना ज्यादा कीमत हम आदिवासियों ने चुकाई. सहारा नक्सलियों के आने के बाद मिला जिन्होंने सरकारी ज्यादतियों से हमें आजाद कराया. उन्होंने हमारी बोली सीखी, रीतिरिवाज अपनाए, हमारा खानपान अपनाया और हमें प्यार से गले लगाया.
सब से बड़ी वारदात
छत्तीसगढ़ में इस साल नवंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं. सत्ता बरकरार रखने के लिए सत्तारूढ़ भाजपा और सत्ता वापस हासिल करने के लिए कांग्रेस ने तैयारियां शुरू कर दी थीं. भाजपा विकास यात्राओं के जरिए अपने 8 साल के कार्यकाल की उपलब्धियां गिना रही थी तो कांग्रेस परिवर्तन यात्राओं के जरिए मतदाताओं को बता रही थी कि भाजपा ने कुछ खास नहीं किया है, इसलिए अब बदलाव लाने के लिए वोट डाला जाए.
इतनी भीषण गरमी में भी दोनों दलों के नेता बेवजह पसीना नहीं बहा रहे थे. दरअसल, दोनों ही बारिश के पहले दूरदराज के अंचलों में एक बार प्रभावी उपस्थिति दर्ज करा लेना चाह रहे थे.
25 मई की परिवर्तन यात्रा में राज्य के तमाम कांग्रेसी शामिल हुए थे. जिन में विद्याचरण शुक्ल, महेंद्र कर्मा, नंद कुमार पटेल आदि भी थे. अजीत जोगी, जो यात्रा में औपचारिक हाजिरी दर्ज करा कर हैलीकौप्टर से वापस लौट गए थे. कांग्रेसी काफिले में 22 कारें थीं और सभी लोग जोश में थे.
तयशुदा कार्यक्रम के मुताबिक, कांग्रेसी काफिले को सुकमा में सभा करने के बाद शाम को गाढ़ीरास होते हुए दंतेवाड़ा पहुंचना था पर ऐन वक्त पर इस का रास्ता केशनूर की तरफ कर दिया गया. सुकमा की सभा के बाद जैसे ही काफिला तोंगपाल से
8 किलोमीटर दूर झीरम घाटी के पास बने मंदिर की पुलिया पर पहुंचा तो नक्सलियों ने ब्लास्ट कर दिया. ब्लास्ट के पहले 4 गाडि़यां उन्होंने गुजरने दीं. यह हमला पूर्व नियोजित था. जिस में कांग्रेस के ही किसी भेदिये ने नक्सलियों का साथ दिया था. वह कौन है, इस की जांच चल रही है.
काफिला रुकते ही तकरीबन 1,200 नक्सलियों ने काफिले को घेर लिया. इस के बाद शुरू हुआ नक्सलियों का खूनी खेल जो उन्होंने बेहद इतमीनान से खेला. कहां कितनी पुलिस और अर्द्धसैनिक बल हैं, यह उन्हें हमेशा की तरह किसी भी सरकारी अधिकारी से ज्यादा सटीक तरीके से मालूम था. काफिले में शामिल नेताओं के नाम उन्हें रटे पड़े थे. कांग्रेसी चारों तरफ से घिर गए थे. नक्सली एकएक कार के पास गए. वे नाम ले कर पूछ रहे थे कि महेंद्र कर्मा कहां है, नंद कुमार पटेल कहां है, दिनेश कहां है, सत्यनारायण शर्मा कहां है.
कारों से बाहर निकल कर खड़े काग्रेसियों और सुरक्षाकर्मियों ने जवाब नहीं दिया तो नक्सलियों ने कारों से उतार कर लोगों को मारना शुरू कर दिया. वे पूरी तरह वहशी हो गए थे और सब से पहले अपने खास और सब से बड़े दुश्मन महेंद्र कर्मा को मार डालना चाहते थे. और किसकिस को मारना है उस की लिस्ट उन के हाथ में थी. 2-4 लोगों को गोली लगी तो महेंद्र कर्मा खुद कार से बाहर आए और बोले, मैं हूं महेंद्र कर्मा, मेरे साथियों को मत मारो.
देखते ही देखते तकरीबन 50 गोलियां महेंद्र कर्मा के शरीर में चस्पां हो गईं. कितना जहर और नफरत उन के दिलोदिमाग में भरी थी इस का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता. नक्सलियों ने उन की लाश पर नाच किया, इन में औरतें भी शामिल थीं. इस दौरान वे नक्सली ‘माओवाद जिंदाबाद’ के नारे लगाते जा रहे थे और यह संदेश भी दे रहे थे कि अगर औपरेशन ग्रीन हंट बंद नहीं हुआ तो कांग्रेस के बाकी नेता भी इसी तरह मारे जाएंगे.
इस के बाद मौत के इस नंगे नाच में जो भी सामने आया, नक्सलियों ने उसे मारा. कांग्रेसी विधायक उदय मुदलियार भी मारे गए. छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और उन के बेटे दिनेश को तकरीबन 50 मीटर दूर जंगल में ले जा कर गोलियां मारी गईं.
सभी को मारना नक्सलियों का मकसद नहीं था. कुछ को वे जिंदा इसलिए जाने देना चाहते थे कि दहशत का यह नजारा देश देखे और ऐसा हुआ भी. विद्याचरण शुक्ल को 3 गोलियां लगीं.
महेंद्र कर्मा को जेड प्लस सुरक्षा मिली हुई थी. उन के एक गार्ड ने नक्सलियों पर फायरिंग की पर गोलियां खत्म हो गईं तो आखिरी गोली उस ने खुद को यह कहते मार ली कि मैं आप को बचा नहीं पाया. इस हादसे में तकरीबन 30 कांग्रेसी और सुरक्षा गार्ड मारे गए.
मंजर यह था कि लाशें सड़क पर बिछी थीं और घायल लोग जमीन पर पड़े कराह रहे थे, शाम तकरीबन 5 बजे के वक्त तीखी धूप इस घाटी पर थी. जैसेजैसे खबर जगदलपुर, रायपुर होते दिल्ली पहुंची तो देश अवाक् रह गया. तब किसी ने नहीं कहा कि यह कैसा लोकतंत्र है जिस में उस के नुमाइंदे ही सुरक्षित नहीं हैं.
बस्तर में दूरदूर तक घायलों को कोई राहत या चिकित्सा सुविधा नहीं थी. अधिकांश लोग वक्त पर इलाज न मिलने से मरे. विद्याचरण शुक्ल को शुरुआती चिकित्सा जगदलपुर में दी गई. इस के बाद उन्हें एअर ऐम्बुलैंस से गुड़गांव के मेदांता अस्पताल भेजा गया.
खिसियाहट और बेचारगी
जैसे ही हादसे की खबर फैली तो बजाय मुद्दे की बात होने के राजनीति होने लगी. छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी रायपुर में मीडिया के सामने रोते नजर आए. उन्होंने तुरंत राज्य सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग करते यह भी कहा कि छत्तीसगढ़ रमन सिंह से नहीं चलने वाला.
पहली हवा यह उड़ी, जो सच भी थी, कि छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार ने कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा को पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध नहीं कराई थी. सारी की सारी पुलिस फोर्स भाजपा की विकास यात्रा में लगा दी गई थी. विकास यात्रा की दैनिक समीक्षा सुरक्षा के मद्देनजर की जा रही थी. जबकि परिवर्तन यात्रा में नाममात्र को खाकी वरदी वाले थे. मुख्यमंत्री रमन सिंह को स्थायी एनएसजी की सुरक्षा मिली हुई है, इस के अलावा विकास यात्रा, जहां से भी गुजर रही थी वहां मकानों तक में सुरक्षाकर्मी तैनात किए गए थे.
मनमोहन सिंह ने हादसे को दुखद बताया पर सोनिया गांधी बेहद झल्लाई नजर आईं. उन का कहना था कि यह लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला है. राहुल गांधी 25 मई की आधी रात को ही रायपुर पहुंचे और कांग्रेसियों की हिम्मत बंधाई.
मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी दूसरे दिन दोपहर रायपुर पहुंचे, मृतकों को श्रद्धांजलि दी, घायलों से मुलाकात की और मृतक कांग्रेसियों के परिजनों को सांत्वना दी, पर उन्होंने छोटे कांग्रेसियों की तरह रमन सिंह पर निशाना नहीं साधा.
भाजपा की तरफ से पहला बयान अध्यक्ष राजनाथ सिंह का आया जिस में इस हादसे पर राजनीति न करने की सलाह दी गई थी. राहुल गांधी भी थोड़ी देर बाद यही बात कहते नजर आए. केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश दिल्ली में यह कहते झल्लाए कि उन नक्सलियों से कोई बात नहीं की जाएगी जिन की हमारे लोकतंत्र में कोई आस्था ही नहीं है.
2 दिन बाद ही देश के तमाम दल और राजनेता आपसी बैर भुला कर नक्सली मुद्दे पर एकजुट दिखे कि इन के आगे घुटने नहीं टेकने हैं, मिलजुल कर इन का मुकाबला करना है, और दरभा घाटी की कुर्बानियों को बेकार नहीं जाने दिया जाएगा.
पर हकीकत में होती राजनीति ही रही. छत्तीसगढ़ के एक वरिष्ठ पत्रकार राजीव रंजन श्रीवास्तव की मानें तो अफसोस की बात तो यही है कि 40 सालों से नक्सली मुद्दे पर राजनीति ही हो रही है. सुरक्षा के मामले में तो रमन सिंह की चूक और भेदभाव साफसाफ दिखाई दे रहे हैं पर असल मुद्दे यानी नक्सली मुहिम पर नेता बात करने से हमेशा की तरह कतरा रहे हैं. उलट इस के, एक दूसरे वरिष्ठ पत्रकार की नजरों में यह गहरा राजनीतिक षड्यंत्र है जिसे जांच में उजागर हो जाना है. नक्सली एकाएक ही बगैर राजनेताओं की मिलीभगत के ऐसी वारदात को तकनीकी तौर पर अंजाम नहीं दे सकते.
बात सच भी है. वजह, छत्तीसगढ़ में नक्सली वारदात नई बात नहीं. आएदिन नक्सली गांव वालों, कर्मचारियों, जवानों और नेताओं को मारते रहते हैं. राजीव रंजन कहते हैं कि अभी कुछ दिन पहले ही नक्सलियों ने नहीं बल्कि कोबरा बटालियन ने 8 ग्रामीणों को मार गिराया था, तब पत्ता भी नहीं हिला था. मानो उन की जान की कोई कीमत ही न हो.
नक्सलियों से निबटने के नाम पर केंद्रीय बलों के हजारों जवान छत्तीसगढ़ में डेरा डाले हुए हैं. ये जवान आदिवासी औरतों से अपनी यौन इच्छाएं पूरी करने के लिए उन के साथ जबरदस्ती करते हैं, बूटों से उन्हें मारते हैं, पर नक्सलियों से थर्राते हैं. वजह, इन की ज्यादतियों की शिकायत जब नक्सलियों तक पहुंची तो उन्होंने जवानों को मारना शुरू कर दिया.
अप्रैल 2010 में तो नक्सलियों ने सीआरपीएफ के 75 जवानों की हत्या कर दी थी. तब बेवजह अरुंधति राय ने दंतेवाड़ा के लोगों को लाल सलाम नहीं भेजा था. अरुंधति सरीखे तमाम मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को मालूम है कि हिफाजत के नाम पर तैनात ये जवान दरअसल आदिवासियों पर इस तरह का जुल्मोसितम ढाते हैं.
नई नक्सली नीति की घोषणा के पहले ही केंद्र सरकार ने हजारों जवान और छत्तीसगढ़ भेज दिए जो दरभा नरसंहार का बदला आदिवासियों से लें तो बात कतई हैरानी की नहीं होगी.
क्या यही रास्ता है
‘नक्सलियों के आगे घुटने नहीं टेकेंगे’ और ‘उन से कोई बातचीत नहीं करेंगे’ जैसी अपरिपक्व बचकानी बातें राजनीतिक जिद की देन हैं. लगता नहीं कि देश के नेता चाहे वे किसी भी दल के हों, नक्सली आंदोलन का मर्म सम झते हैं.
असल समस्या नक्सली हिंसा नहीं है. यह हिंसा तो शोषण और भेदभाव से संगठित रूप से उपजी है और यह आदिवासियों और शोषितों के उस वर्ग की देन है जो पढ़ालिखा है, बुद्धिजीवी है और लोकतंत्र के माने सम झता है. दरभा घाटी के वीभत्स नेता संहार को सलवा जुडूम से जोड़ कर देखा जाना कतई अचरज की बात नहीं बल्कि इस सच का हादसे के बाद बड़े पैमाने पर उजागर हो जाना सुखद बात है कि खुद महेंद्र कर्मा नक्सलियों की तर्ज पर आदिवासी युवाओं को हथियार चलाना और हिंसा करना सिखा रहे थे.
हिंसा से परहेज करने वाले कांग्रेसी तो कांग्रेसी भाजपाई भी सलवा जुडूम का समर्थन करने लगे थे. साल 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे नाजायज करार देते हुए इस पर रोक लगाने का फैसला दिया था पर तब तक बात काफी बिगड़ चुकी थी. वजह, सलवा जुडूम के कार्यकर्ता हाथ में हथियार लेते ही आदिवासियों पर जुल्म ढाने लगे थे जो कम से कम नक्सलियों को तो गवारा नहीं था.
समस्या की गंभीरता का अंदाजा या एहसास किसे है, इस सवाल का
जवाब कोई एकदम से नहीं दे सकता. छत्तीसगढ़ के ही मानवाधिकार कार्यकर्ता
डा. विनायक सेन का मुंह बंद करने के लिए भाजपा और रमन सिंह काफी निचले स्तर पर आ गए थे. विनायक सेन वही कह रहे थे जो मध्य प्रदेश के कृषि अधिकारी ने बताया कि कैसेकैसे आदिवासियों का शोषण होता है, उन पर पुलिस अत्याचार ढाती है, उन के साथ जातिगत भेदभाव किया जाता है, उस से बंधुआ मजदूर की तरह मजदूरी कराई जाती है, आदिवासी औरतों का बलात्कार किया जाता है और उन्हें पिछड़ा बनाए रखने के लिए मूलभूत सुविधाओं से वंचित रखा जाता है.
नक्सलवादी आंदोलन इन्हीं ज्यादतियों के खिलाफ शुरू हुआ था जो अब आक्रोशित आदिवासी चेतना का पर्याय बन चुका है.
विनायक सेन की पत्नी इलिना सेन ने वर्धा में एक अनौपचारिक बातचीत में विस्तार से हमें छत्तीसगढ़ के अंदरूनी हालात बताए थे. बेहद व्यथित हो कर उन्होंने कहा था कि हम हिंसा का समर्थन किसी भी शर्त पर नहीं करते पर आदिवासियों के हक में अपनी बात तो कहेंगे और यह हक हम से कोई सरकार या अदालत नहीं छीन सकती.
नक्सल प्रभावित इलाकों में नक्सलियों की समानांतर सरकार चलती है. भीतरी इलाकों में तो हालत यह है कि लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार का कोई वजूद ही नहीं है. शायद ही कोई, खासतौर से मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, यकीन करे कि मंडला जिले के कई इलाकों में नक्सलियों का फरमान चलता है. और शिवराज सिंह कहते हैं कि मध्य प्रदेश में नक्सली नहीं हैं.
फिर छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, झारखंड और आंध्र प्रदेश के हालात का अंदाजा सहज लगाया जा सकता है कि वहां के आदिवासी इलाकों में लोकतंत्र नहीं, नक्सली तंत्र चलता है और जिसे आम लोगों का समर्थन मिला हुआ है. और कोई राज्य या केंद्र सरकार नहीं चाहती कि यह बात उजागर हो, इसलिए बात हमेशा की तरह निबटने की की जा रही है.
इस दफा चूंकि थोक में कांग्रेसी नेता मारे गए हैं इसलिए कांग्रेस तिलमिला उठी है पर उस की कुछ न कर पाने की बेबसी भी साफ दिख रही है. यह बेबसी राजनीतिक कभी नहीं थी, इस बार नक्सलियों ने बना दी है और साफ कर दिया है कि उन की बात न सुनी गई तो इस हादसे को आगाज भर माना जाना चाहिए.
कांग्रेस और भाजपा दोनों ही सवर्णवाद की पोषक पार्टियां हैं जिन्होंने राजनीतिक तौर पर तो मार्क्सवादियों को खत्म सा कर दिया पर वैचारिक स्तर पर माओवादियों को नहीं कर पा रहीं. वजह, नक्सली राजनीति नहीं करते. उन्हें मालूम है कि सत्ता का स्वाद लगने का मतलब है अपने मकसद से भटकना, जो वे किसी भी कीमत पर नहीं चाहते.
दरभा हमले की तह में असल बात यह है कि आदिवासियों को जंगली और जानवर न सम झा जाए, वे भी देश के आम नागरिक हैं जिन से काफी कुछ इस लोकतंत्र ने छीना है जिस में सरकारी तंत्र ने इफरात से बेईमानी की. उन से खेतीकिसानी का हक छीना और विस्थापन के नाम पर खूब नचाया, भगाया. हालिया एक रिपोर्ट में उजागर यह बात अब कम चिंता की नहीं कि छत्तीसगढ़ में 3 लाख किसान कम हुए हैं और 7 लाख मजदूर बढ़े हैं. आदिवासी किसान से मजदूर क्यों होता जा रहा है, इस का जवाब और हल वक्त रहते नहीं ढूंढ़ा गया तो सरकार को ऐसे और हादसे झेलने को तैयार रहना चाहिए.