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बजट कहीं बिगड़ न जाए

अचानक अखबार में छपे एक समाचार पर नजर पड़ी. खबर कुछ यों थी :

‘छंटनी के बाद नौकरी से निकाले गए कुछ सौफ्टवेयर इंजीनियर्स रात के समय लूट करते हुए पकड़े गए. जब पुलिस ने तहकीकात की तो पता चला कि नौकरी के दौरान जरूरत से ज्यादा ऋण लेने के कारण ईएमआई यानी मासिक किस्त चुकाने के लिए इन लोगों ने वारदात को अंजाम दिया.’

दरअसल, लोगों में अनावश्यक खरीदारी को ले कर रुझान बढ़ा है. जिस के चलते अन्य लोगों की देखादेखी घर में सामान का जमावड़ा लगा देते हैं. ऐसा क्यों होता है कि जब लोग बाजार में जाते हैं तो दिखाई दे रही हर वस्तु उन के लिए जरूरी लगने लगती है? इस के पीछे कौन सी मानसिकता काम करती है?

मशहूर लेखक डेल कारनेगी कहते हैं कि आदमी के अंदर बड़ा बनने की लालसा जन्मजात होती है. उन्होंने यह भी कहा है कि लालसा बहुत गहराई से आती है. और इसी का फायदा बाजार भी उठा रहा है.

एक मध्यवर्गीय परिवार में घर की अलमारी में कपड़ों का अंबार लगा रहता है. ऐसे भी कपड़े मिल जाएंगे जिन्हें साल में एक बार भी पहनने का मौका नहीं आया हो.

महिलाओं की बात तो पूछिए मत. वे अपने को महत्त्वपूर्ण दिखाने के लिए क्या कुछ नहीं करतीं. इस आलेख का उद्देश्य किसी के व्यक्तिगत शौक पर कटाक्ष करना नहीं है बल्कि यह बताना है कि खरीदारी करने से पहले अच्छे से विचार कर लें कि क्या वाकई आप को उस चीज की जरूरत है या किसी मित्र व रिश्तेदार को देख कर खरीद रहे हैं या फिर उन्हें नीचा दिखाने के लिए तो ऐसा नहीं कर रहे हैं. इस बात का भी ध्यान रखें कि इस खरीदारी से घर का बजट तो नहीं गड़बड़ाएगा जिस की कीमत परिवार को कष्ट उठा कर चुकानी पड़े. यदि जवाब ईमानदारी से आप के परिवार के पक्ष में जाता है तो आगे बढ़ें वरना रुक जाएं.

ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो महीने दो महीने में टैलीविजन, मोबाइल और गाड़ी बदलते हैं पर एक निश्चित आमदनी वाले को तो यह समझना ही पड़ेगा कि वह अपने बजट को न बिगाड़े. त्योहारों के समय तो कंपनियों द्वारा बड़ेबड़े इश्तिहार दे कर ग्राहकों को लुभाने की कोशिश की जाती है. इस चक्कर में पड़ कर कई लोग लंबी किस्तों के चक्कर में भी पड़ जाते हैं. यह आप को तय करना है कि इस झमेले में पड़ना है या नहीं. किसी भी किस्त के लंबे समय तक भुगतान का अंतिम कष्ट सिर्फ आप को ही सहन करना है.

घर के मुखिया को सारी बातें सोच कर निर्णय लेना चाहिए. हर दिन नएनए इलैक्ट्रौनिक उपकरण खरीदने से पहले अपनी जरूरत का विवेकपूर्ण विश्लेषण करें. बजट के साथ लयताल बैठ रही है या नहीं, सुनिश्चित करें फिर खरीदें. खरीदार की कमजोरी व्यवसायी अच्छी तरह से जानता है. धंधे में वह अपना मुनाफा नहीं छोड़ता. कुछ लोगों को घर में जब तक कोई नई वस्तु या इलैक्ट्रौनिक आइटम न आ जाए, संतुष्टि नहीं होती और बाद में वे किस्त भरने और कर्ज चुकाने में परेशान रहते हैं.

एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मध्यवर्ग के लोगों में भीड़ को देख कर चलने की आदत होती है. भीड़ की चाल भेड़चाल की तरह होती है, कोई बौद्धिक लक्ष्य उन के सामने नहीं होता. कुछ लोग इस खुशफहमी में रहते हैं कि उन के पास दूसरों से बेहतर कोई सामान होगा तो वे समाज में विशिष्ट कहलाएंगे. नतीजतन, हर समय वे इसी उधेड़बुन में लगे रहते हैं कि क्या करने से वे खास दिखने लगेंगे. आज तक उन्हें यह सम?ा नहीं आया कि दुनिया की नजर बहुत पैनी है. विशेष आदमी और सामान्य आदमी में भेद आसानी से कर लेती है. मेरे एक सहकर्मी थे, हमेशा कहते थे कि खाते में 10 हजार रुपए बने रहने का सुख बड़ा होता है न कि 10 हजार रुपए का मोबाइल लो और 100-50 का बैलेंस रखो. अनावश्यक खरीदारी के बजाय बुरे वक्त के लिए पैसा बचाना  ही समझदारी है ताकि भविष्य में किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़े.

सियासी अखाड़े में दिग्गजों के सपूत

वे अपने पिता की तरह दरगाहों पर सिर  झुकाते हैं, चादर चढ़ाते हैं. भीड़ में खड़े किसी बड़ेबूढ़े के कंधे पर हाथ रख कर उस का हालचाल पूछते हैं, उस के पैर छू कर आशीर्वाद लेते हैं. मुसलिम टोपी पहन कर फोटो खिंचवाते हैं. पिछड़ी और दलित बस्तियों में घूमते हैं, गरीबों की  झोंपडि़यों में जा कर पानी, दूध और लस्सी पीते हैं. भीड़ को देख हाथ जोड़ कर प्रणाम करते हैं. गरीबों की तरक्की की बातें करते हैं. समाज के पिछड़े लोगों को इंसाफ और अधिकार न मिलने पर राज्य और केंद्र सरकारों को कठघरे में खड़ा करते हैं.

दरअसल, राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और लोक जनशक्ति पार्टी सुप्रीमो रामविलास पासवान के बेटे अपनेअपने पिताओं के सियासी हथकंडों को सीखने की कवायद में जुटे हैं. अपनेअपने पिताओं की दलितों और पिछड़ों की सियासत को आगे बढ़ाने व उन की लस्तपस्त पार्टी में नई जान फूंकने का बो झ इन्होंने अपनेअपने कंधों पर उठा लिया है. अगले लोकसभा चुनाव में पार्टी की नैया पार लगाने की जिम्मेदारी इन्हें ही सौंपी गई है.

दिलचस्प बात यह है कि लालू और पासवान के बेटों का पहला शौक राजनीति नहीं है. पिता की राजनीतिक विरासत को संभालने के बजाय बेटों ने अलग राह बनाने की पूरी कोशिश की पर वे कामयाब नहीं हो सके. लालू के बेटे तेजस्वी यादव क्रिकेट खिलाड़ी बनना चाहते थे. दिल्ली अंडर-19 क्रिकेट टीम में खेलने के बाद उन्हें आईपीएल की दिल्ली डेयर डेविल्स टीम के लिए चुना गया लेकिन कुछ कमाल न दिखा सके. लालू यादव के एक और बेटे तेजप्रताप यादव भी राजनीति में सक्रिय हैं.

इसी तरह रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान ने बौलीवुड में फिल्म ‘मिले न मिले हम’ से ऐक्टिंग के क्षेत्र में कदम रखा लेकिन असफल रहे. चिराग भी अपने पिता की पार्टी लोजपा की  झोंपड़ी (लोजपा का चुनाव चिह्न) को रोशन करने की जुगत में लग गए हैं. वे पार्टी की सभाओं और जलसों में हिस्सा ले कर भाषण  झाड़ रहे हैं.

लालू और पासवान के बेटों की नजर बिहार के युवा वोटरों पर है, जो राजनीति से कटा हुआ है और वोट डालने से कतराता है. बिहार में 1,71,09,728 युवा वोटर हैं. इन में 18 से 19 साल के वोटरों की संख्या 19 लाख के करीब है. 20 से 29 साल के वोटरों की संख्या 1 करोड़ 53 लाख के आसपास है. तेजप्रताप कहते हैं कि युवाओं को सियासत के प्रति जागरूक करने के बाद ही सियासत का तौरतरीका बदलेगा और सूबे की तरक्की हो सकेगी.

बिहार में लालू यादव और रामविलास पासवान की डगमगाती सियासी नैया को संभालने के लिए उन के बेटों ने पतवार थाम ली है. अपनेअपने पिताओं के ठेठ गंवई अंदाज से इतर बेटों ने अपने अलग अंदाज गढ़ते हुए अपनी पार्टियों को नए सिरे से एकजुट करने और राज्य सरकार पर हल्ला बोलने की रणनीति बनानी शुरू कर दी है. लालू और पासवान ने अपनेअपने बेटों को खासी छूट भी दे रखी है और अब उन के बेटे मंच पर पिता की गैरमौजूदगी में भी पार्टी के कार्यक्रमों में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं.

पिछले दिनों मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गढ़ बिहारशरीफ में युवा राजद के कार्यकर्ता सम्मेलन में 23 साल के तेजस्वी यादव ने नीतीश सरकार पर जम कर हमला बोला. उन्होंने कहा कि बिहार में पढ़ाईलिखाई की व्यवस्था पूरी तरह से चौपट है. अपराध बढ़ता जा रहा है. शासन नाम की कोई चीज नहीं रह गई है. यह बात वे हर सभा में बोलते हैं, ‘बिहार बीमार है, बिहार लाचार है, इस का सही इलाज कराए जाने की जरूरत है, और यह काम युवा ही कर सकते हैं.’

लालू के लाल तेजस्वी और तेजप्रताप यादव केवल लफ्फाजी ही नहीं कर रहे हैं बल्कि उन्होंने तो पार्टी के लिए नई रणनीति भी गढ़ ली है. तेजस्वी कहते हैं कि अगले लोकसभा चुनाव में पार्टी 50-60 फीसदी टिकट युवाओं को देगी और उम्मीदवारों का चयन नेता नहीं बल्कि जनता करेगी. जनता के बीच सर्वे करा कर उम्मीदवार तय किए जाएंगे. उन्होंने कहा कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे, जनता के बीच रह कर राजनीति का काम करेंगे. उन्होंने राहुल गांधी को मेहनती और अच्छा नेता करार देते हुए कहा कि वे बेहतर प्रधानमंत्री साबित होंगे.

तेजस्वी इस बात पर जोर देते हैं कि महिला आयोग और बाल आयोग की तरह युवा आयोग बनाने की जरूरत है, इस से युवाओं को अपनी बात रखने का मौका मिल सकेगा.

पिछले दिनों चौहरमल महोत्सव में वे रामविलास के साथ चिराग भी मंच पर नजर आए. बारबार बातबेबात मुसकरा कर और हाथ जोड़ कर जनता को प्रणाम कर चिराग सियासत की एबीसीडी तेजी से सीख रहे हैं. चिराग कहते हैं कि नीतीश चिकनीचुपड़ी बातों से सत्ता पर कब्जा जमाए हुए हैं, पर जनता अब उन की चालों को सम झ चुकी है और अगले लोकसभा चुनाव में बिहार में राजग गठबंधन की हवा निकल जाएगी.
चिराग आगे कहते हैं कि वे बौलीवुड में जमने की कोशिश कर रहे हैं पर राजनीति तो उन की रगों में दौड़ती है. वे कहते हैं,  ‘मैं राजनीति से न दूर था, न हूं और न रहूंगा.’

दलित और पिछड़ों की राजनीति कर बिहार से ले कर दिल्ली तक अपना रौब और धौंस गांठने वाले लालू यादव और रामविलास पासवान के बेटे आंखें मूंद कर अपने पिता के राजनीतिक फार्मूले के इस्तेमाल करने के मूड में नहीं हैं. पिता जहां दलित और पिछड़ों को आवाज देने को ही अपनी कामयाबी मानते हैं वहीं उन के बेटे साफ कहते हैं कि पिछड़ों को तालीम दिलाने के बाद ही असली तरक्की हो सकेगी. पढ़ने के बाद हर कोई अपना रास्ता खुद बना ही लेता है, उसे किसी बैसाखी की दरकार नहीं रहती है.

बिहार में लोकसभा की कुल 40 सीटें हैं. इन में से 32 पर राजग का कब्जा है. साल 2009 के आम चुनाव में जदयू के खाते में 20 सीटें गई थीं और 12 भाजपा की  झोली में गई थीं. राजद को 4 सीटों पर जीत मिली जबकि लोजपा को एक भी सीट पर जीत नहीं मिली थी. कांगे्रस और निर्दलीय ने 2-2 सीटों पर कब्जा जमाया था. 2004 के आम चुनाव में राजद के खाते में 22 और लोजपा के पास 4 सीटें थीं. अब 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव के नतीजे ही बताएंगे कि लालू और पासवान के लड़के खुद को बाप से बढ़ कर साबित कर पाते हैं या नहीं.

तेजस्वी की चौपाल यात्रा

लालू के बेटे तेजस्वी यादव ने राजद की परिवर्तन रैली के बाद ‘चौपाल यात्रा’ शुरू करने का ऐलान किया है. उन्होंने कहा कि वे युवाओं को जगाने और उन्हें एक मंच पर लाने के लिए यात्रा पर निकलेंगे. गांवों और पंचायतों की चौपालों में सभा कर के युवाओं को राजनीति से जोड़ने व वोट के अधिकार का इस्तेमाल करने के लिए उन्हें प्रेरित किया जाएगा.

अपने पिता को अपना रोल मौडल मानने वाले तेजस्वी कहते हैं कि बिहार में मतदान का प्रतिशत काफी कम होता है. इसलिए जब तक युवाओं को राजनीति से नहीं जोड़ा जाएगा तब तक सियासत और सरकार का ढर्रा नहीं बदल सकता.
आरक्षण के मसले पर तेजस्वी कहते हैं कि यह जरूरी है पर समय के साथ इस में कुछ बदलाव करने की जरूरत है.

दीपक भारद्वाज हत्याकांड- रिश्तों पर भारी दौलत

बहुजन समाज पार्टी के अरबपति नेता दीपक भारद्वाज ने रियल एस्टेट के कारोबार में बेशुमार दौलत कमाई और यही दौलत उन की मौत का कारण बनी. पढ़ेलिखे बेटे ने बाप की हत्या की सुपारी दे कर हमारे बदलते समाज की एक घिनौनी तसवीर पेश की है. बता रहे हैं किशोर नैथानी.

शानोशौकत की जिंदगी, समाज में बड़े रुतबे की चाहत, विरासत गंवाने का डर, आपसी रंजिश, प्रतिस्पर्धा, अवैध संबंध, धोखाधड़ी और लालच, ये कुछ ऐसे अनबु?ो सवाल हैं जिन का जवाब खुद दीपक भारद्वाज ही दे सकते थे. बहुजन समाज पार्टी के अरबपति नेता दीपक भारद्वाज की 24 मार्च को उन के फार्महाउस में पेशेवर शूटरों ने गोलियों से भून कर हत्या कर दी.

दीपक भारद्वाज हरियाणा के एक छोटे से गांव को छोड़ कर 70 के दशक में दिल्ली आ गए थे. बढ़ई के घर पैदा हुए दीपक का रियल एस्टेट का धंधा ऐसा चल पड़ा कि कुछ ही सालों में दौलत उन के कदम चूमने लगी. दीपक इसी मद में इतना चूर हो गए कि पहले उन्होंने नातेरिश्तेदारों से किनारा कर लिया और फिर मातापिता द्वारा दिया गया नाम देवी सिंह खाती को बदल कर दीपक भारद्वाज रख लिया.

घरपरिवार व रिश्तेदारों के लिए दीपक की गतिविधियां वर्षों तक रहस्यमय बनी रहीं. लेकिन जब 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने सब से धनी प्रत्याशियों की सूची में देवी सिंह खाती की अखबारों में फोटो देखी, तो लोग हैरत में पड़ गए. बसपा उम्मीदवार के रूप में वे चुनावी मैदान में थे. उन्होंने अपनी आमदनी के जानकारी ब्योरे में 602 करोड़ रुपए की संपत्ति दर्ज की थी. वे सब से धनी प्रत्याशी के रूप में चर्चा में रहे थे.

नेताओं के करीबी थे भारद्वाज

भले ही वे चुनाव में अपनी जमानत नहीं बचा पाए थे लेकिन यह चुनावी कदम उन के कारोबार के लिहाज से सार्थक और फायदेमंद रहा. राजनीति में कूदने का सब से बड़ा फायदा यह मिला कि वे दिग्गज नेताओं के बेहद करीब आ गए और उन रिश्तों को खूब भुनाया. कई राज्यों खासकर उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में बतौर बिल्डर उन्होंने कई प्रोजैक्टों पर काम किया. अपने गृहराज्य हरियाणा के बहादुरगढ़ में उन का 30 एकड़ जमीन को ले कर स्वामी प्रतिभानंद से विवाद चल रहा था. स्वामी प्रतिभानंद वही शख्स है जिसे दीपक हत्याकांड का मास्टरमाइंड कहा जा रहा है. प्रतिभानंद की हैसियत दीपक को पटकनी देने की नहीं थी, इसलिए वह दमदार व्यक्ति की तलाश में था जिस के कंधे पर बंदूक रख कर उस का मकसद पूरा हो जाता. उस के इरादे जब प्रौपर्टी डीलिंग पार्टनर बलजीत सिंह को पता चले तो उस ने स्वामी की मुलाकात दीपक के बेटे नितेश से करवाई.

नितेश प्रौपर्टी और पैसों के विवाद को ले कर पिता को रास्ते से हटाना चाहता था. उस के पिता उसे अपनी संपत्ति से बेदखल करने की कई बार धमकी दे चुके थे. मां के प्रति पिता के दुर्व्यवहार के कारण भी उस की खुन्नस थी. उसे शक था कि कहीं पिता उस की मां से तलाक ले कर सारी जायदाद अपनी महिलामित्र के नाम न कर दें. ऐसे में उसे लग रहा था कि पिता को रास्ते से हटाने के बाद वह खुदबखुद खरबों की संपत्ति का वारिस बन जाएगा.

नितेश का वकील दोस्त बलजीत सहरावत इस योजना में इसलिए शामिल हुआ कि वह आर्थिक रूप से मजबूत हो कर बड़ी हैसियत वाला नेता बन जाएगा. उधर, अपनी आदतों के चलते आश्रमों से निकाले जाने से परेशान स्वामी प्रतिभानंद पैसों से अपना आश्रम खोलना चाहता था. यानी दीपक की हत्या में तीनों के अपनेअपने हित जुड़े थे. बातचीत का दौर चलता रहा और अक्तूबर में तीनों ने दीपक को ठिकाने लगाए जाने की योजना बनाई. नितेश से 5 करोड़ की सुपारी पर बात बनी. नितेश ने स्वामी प्रतिभानंद को बतौर पेशगी 10 लाख रुपए दिए.

स्वामी प्रतिभानंद ने अपने बेहद करीबी ड्राइवर पुरुषोत्तम को मालामाल करने का लालच दे कर दीपक की हत्या करने की योजना में शामिल कर लिया. पुरुषोत्तम ने अपने दोस्त अमित के घर पर योजना बनाई. सुनील, नीरज और राकेश उस में शामिल हुए. सभी चाहते थे कि इस हत्याकांड को जल्दी से जल्दी अंजाम दिया जाए.

लालच में बुरे फंसे

नितेश, बलजीत और प्रतिभानंद की इच्छा शीघ्र ही मालामाल होने की थी. इसी कारण जनवरी से मार्च महीनों के बीच दीपक पर 2 बार कातिलाना हमले हुए हालांकि वे बालबाल बच गए. हत्यारों को पैसों की जल्दी थी. वे इस बार कोई मौका नहीं चूकना चाहते थे.

उधर, दुश्मनों के इरादों ने दीपक को सावधान कर दिया था. उन्होंने बाहर निकलना बंद कर दिया था और किसी भी हमले से बचने के लिए सुरक्षा प्रबंधों को चुस्त कर लिया था. सीसीटीवी कैमरे पलपल पर नजर रखे हुए थे. बेहद करीबी लोगों को ही फार्महाउस में घुसने की अनुमति थी. नितेश की भले ही पिता से अनबन रहती थी लेकिन पिता की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए उस का आनाजाना लगा रहता था. वह लौट कर सारी जानकारियां स्वामी प्रतिभानंद को देता था. इस आधार पर प्रतिभानंद हत्या का जाल बुनता रहता था.

दीपक वैसे तो प्रौपर्टी के धंधे में आने के बाद दुश्मनी की हर चाल से वाकिफ हो चुके थे लेकिन उन्होंने सोचा भी नहीं था कि उन का बेटा भीतरघात करेगा. नितेश से उन का गहरा लगाव था इसलिए उसे उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए विदेश भेजा था. बापबेटे में बारबार अनबन होने के बावजूद पिछले दिसंबर महीने में दीपक ने नितेश को प्रौपर्टी खरीदने के लिए 50 लाख रुपए दिए थे. नितेश ने सुपारी की पहली किस्त देने के लिए पिता से बड़ा फ्लैट लेने के लिए पैसा देने का दबाव बनाया था. यही पैसा नितेश ने वकील दोस्त बलजीत सहरावत के माध्यम से स्वामी प्रतिभानंद को दिया था.

बेहद शातिर दिमाग वाले प्रतिभानंद ने अपने ड्राइवर पुरुषोत्तम के माध्यम से उस के दोस्त और रिश्तेदारों को हत्या के लिए तैयार किया. बाहरी दिल्ली के राजू नामक व्यक्ति से इन्होंने हथियार खरीदे और हत्याकांड को अंजाम देने के बाद उन्हें हरियाणा की एक नहर में फेंक दिया.

हत्यारे पूरी तरह से पेशेवर नहीं थे, इसलिए पुलिस की जांच का दायरा बढ़ने के साथ ही कुछ दिनों के भीतर वे पकड़ लिए गए. हत्यारों से सब से बड़ी गलती यह हुई कि जिस कार का उन्होंने इस्तेमाल किया था उस की नंबर प्लेट बदलने तक की जहमत नहीं उठाई. कार नंबर का पता लगते ही पुलिस मालिक के घर पहुंच गई.

हत्यारे फार्महाउस में शादी की बुकिंग के बहाने घुसे थे. उन्हें यह पता था कि दीपक सुबह घास पर टहलते हैं. इसलिए वे आसानी से उन का शिकार बन सकते हैं. लेकिन वे इस बात से अनजान थे कि सीसीटीवी कैमरे उन की सारी गतिविधियों को कैद कर रहे हैं. फुटेज में उन के चेहरे पहचान लिए गए. एक शूटर के पकड़े जाने के बाद उस पर पुलिस का डंडा बरसा तो उस ने एकएक कर के अपने साथियों के नाम गिना दिए.

सलाखों के पीछे पहुंचे आरोपी

फिलहाल 9 में से 8 आरोपी सलाखों के पीछे पहुंच गए हैं. शेष एक आरोपी पुलिस की गिरफ्त से दूर है. पुलिस ने बलजीत सहरावत को गिरफ्तार कर जब नितेश के सामने पेश किया तो नितेश टूट गया. पुलिस के मुताबिक उस ने पिता की हत्या के लिए 5 करोड़ रुपए की सुपारी दी थी. वैसे इस हत्याकांड में अभी कई खुलासे हो सकते हैं. दीपक की पत्नी से ले कर दूसरे कई लोगों पर पुलिस की नजर है.

दीपक का जीवन हमेशा से काफी विवादास्पद रहा है. उन की मौत भी विवादास्पद बन गई है. बेशुमार दौलत कमाने के साथ उन्होंने कई ऐब पाल रखे थे. उन के कई महिलाओं से करीबी संपर्क थे. इसी कारण पत्नीबच्चों से नहीं बनती थी. उन की दौलत रिश्तों पर भारी पड़ गई थी. अपनी विलासिता वाली जिंदगी में पत्नी को बाधा बनते देख उन्होंने उसे अपनी जिंदगी से निकाल फेंका. दोनों बेटे द्वारका में 8 साल से 1 कमरे के मकान में रहते थे, जबकि दीपक 35 एकड़ में फैले अरबों रुपए के आलीशान फार्महाउस में अकेले रहते थे.

राष्ट्रीय शिक्षा अभियान- अरबों स्वाहा नतीजा सिफर

भारत में सब को शिक्षित करने के इरादे से चलाई गई ‘सर्वशिक्षा अभियान’ योजना सफेद हाथी की शक्ल अख्तियार कर चुकी है. आम लोगों के मेहनत की गाढ़ी कमाई के अरबों रुपए सरकार द्वारा खर्च कर दिए जाने के बावजूद भारतीय शिक्षा का स्तर व गुणवत्ता बेहद शर्मनाक है. पढि़ए कपिल अग्रवाल का लेख.

हिंदी माध्यम के 10वीं पास विद्यार्थी को सादा जोड़घटाना तो दूर, अक्षरों व मात्राओं तक का ज्ञान नहीं होता. अंगरेजी माध्यम के स्कूलों की हालत इस से भी ज्यादा खराब है. हिंदी पर ध्यान नहीं दिया जाता और अंगरेजी केवल किताबी ज्ञान तक सीमित कर दी जाती है. विद्यार्थी सही ढंग से अंगरेजी में एक प्रार्थनापत्र तक नहीं लिख सकता. यानी 3 तरह से देश को नुकसान झेलना पड़ा रहा है. पहला, हर साल सरकार की शिक्षा के नाम पर खर्च होने वाली अरबों रुपए की राशि मिट्टी में मिल रही है. दूसरा, मांबाप अपनी गाढ़ी कमाई पब्लिक स्कूलों में झोंकने के बावजूद कोई नतीजा हासिल नहीं कर पाते. पर इस सब से परे एक ऐसा नुकसान है जिस का अंजाम देश को कदमकदम पर भुगतना पड़ता है और वह है महत्त्वपूर्ण कामकाज में त्रुटियां व अज्ञानता. यह हाल तो तब है जब हमारी सरकार हर साल शिक्षा के मद में अरबों रुपए का प्रावधान बजट में करती है. इस बार 50 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है.

यह सब सिर्फ हमारे यहां ही नहीं है, उन्नत समझे जाने वाले विश्व के तमाम देशों में भी कुछ ऐसी ही हालत है. हाल ही में कनाडा की 2 कंपनियों को मात्र एक अर्द्धविराम गलत जगह लगा देने के कारण कई अरब डौलर के करार से हाथ धोना पड़ा. गत दिनों विश्व बैंक की एक टीम ने तमाम देशों के अलावा अपने देश के कई राज्यों का दौरा कर शिक्षा के स्तर व गुणवत्ता की माप की. इस में हिंदी माध्यम के सरकारी स्कूल व अंगरेजी माध्यम के तमाम मशहूर स्कूलों को लिया गया. टीम ने पाया कि आजकल शिक्षा का वैश्विक स्तर काफी गिर चुका है. विश्वभर में कुछ चुनिंदा स्कूल व संस्थान ही हैं जो वास्तव में सही शिक्षा प्रदान कर रहे हैं.

दरअसल, काम चाहे कंप्यूटर से किया जाए चाहे मैनुअल, जब तक करने वाला ऐक्सपर्ट न हो तब तक सब बेकार ही है. टैंडरों, करारों, साझेदारी, व्यापारिक सौदे, सरकारी और अदालती कार्यवाहियां आदि में बेहद सतर्कता, ज्ञान, गुणवत्ता व सावधानी की जरूरत पड़ती है. एक बिंदु की मामूली सी गलती से बड़ेबड़े नुकसान झेलने पड़ जाते हैं.

गत दिनों रेलवे के एक टैंडर में बोलीदाता कंपनी एसआईआईएल को लिपिकीय त्रुटि की वजह से एक बहुत बड़े करार से हाथ धोना पड़ा. मात्र दशमलव की गलती से पूरे टैंडर का गणित ही बदल गया और मामला अदालती कार्यवाही के बाद ही निबटा. फ्रांस में तो एक मशहूर विश्वविद्यालय के पासआउट स्नातक ने एक सरकारी टैंडर में 500 अरब यूरो के स्थान पर 5 अरब यूरो लिख दिया  जिस के कारण 54 बोलीकर्ताओं को अदालत की शरण लेनी पड़ी और मामला लेदे कर बमुश्किल निबटा.

भारत में शिक्षा की गुणवत्ता व स्तर इतना ज्यादा खराब है कि इस तरह के मामले आएदिन सामने आते रहते हैं. चतुर व काइयां प्रवृत्ति की पार्टियां ऐसी गलतियों का फायदा सांठगांठ कर के, जम कर उठाती हैं.

तमाम क्षेत्रों की तरह इस क्षेत्र में भी भारत सरकार को हर साल अरबों रुपए की आर्थिक मदद ब्रिटेन, विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष व अमेरिका से प्राप्त होती है. पर जैसा कि होता चला आया है, करीब 80 फीसदी से भी ज्यादा की राशि मौजमस्ती व कोठीकारों में उड़ा दी जाती है.

भारत में शिक्षा पर राष्ट्रीय अभियान की शुरुआत वर्ष 2000 में दक्षिण अफ्रीका में संपन्न विश्व शिक्षा सम्मेलन के बाद हुई. इस सम्मेलन के बाद ही तय किया गया कि तमाम अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों व शक्तिशाली अमीर राष्ट्रों की मदद से भारत की गरीब अशिक्षित जनता को पढ़ालिखा कर विद्वान बनाया जाएगा. देशभर के 6 से 14 वर्ष तक के हर बच्चे के लिए मुफ्त शिक्षा की घोषणा कर दी गई. इसी के तहत एक शैक्षिक कार्यक्रम ‘सर्वशिक्षा अभियान’ की शुरुआत की गई. इस के बाद सन 2012 तक के कुल 13 सालों के दौरान कई खरब रुपए की महाविशाल राशि स्वाहा कर दी गई. ऐसीऐसी जगह पंखे, एसी, कंप्यूटर लगा दिए गए जहां बिजली तो दूर उस के खंभे भी नहीं थे.

हाल ही में भारत के सर्वशिक्षा अभियान के तहत ब्रिटिश सरकार ने भारत को 34 करोड़ पौंड की मदद दी थी. कैग के एक औडिट में यह बात सामने आई कि इस रकम में से 7 करोड़ पौंड (करीब 500 करोड़ रुपए) भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए. करीब 1.4 करोड़ पौंड तो ऐसे साजोसामान की खरीद में खर्च कर दिए गए जिन का स्कूलों से दूरदूर तक वास्ता नहीं था. ब्रिटिश मीडिया में सुर्खी बनी रिपोर्ट के मुताबिक, देशभर में इस राशि से अधिकारियों ने महंगी आलीशान गाडि़यां, कोठियां, कंप्यूटर, लैपटौप आदि खरीदे. स्कूलों के खर्चे में डाली गई रकम से फोटोकौपियर, महंगे मोबाइल, एयरकंडीशनर व एलसीडी टैलीविजन की खरीद भी पकड़ी गई.

कैग का हवाला देते हुए ब्रिटिश मीडिया में बताया गया कि यह सब सामग्री ऐसे स्कूलों के नाम पर खरीदी गई जो अस्तित्व में ही नहीं थे. इसी प्रकार बगैर कोई स्पष्टीकरण के 11 लाख पौंड (करीब 10 करोड़ रुपए) की राशि कई बैंक खातों में जमा कर दी गई. एक महिला ने 60 लाख पौंड की राशि गबन कर रियल एस्टेट व फिल्म निर्माण में लगा दी. ऐसे ही एक अन्य मामले में विश्व बैंक से प्राप्त 1400 करोड़ रुपए की अनुदान राशि से दुबई, गोआ, मुंबई व ग्रेटर नोएडा में 7 आलीशान फार्म हाउस व होटल खरीदे गए.

देश के सर्वाधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश को वर्ष 2010-11 में 15 हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा की राशि शिक्षा का स्तर सुधारने व विकसित करने हेतु दी गई पर विश्व बैंक के सर्वेक्षण में ऐसा महसूस किया गया कि वहां 100 करोड़ रुपए भी सही ढंग से खर्च नहीं किए गए. मेरठ महानगर के इंचौली स्थित नया गांव प्राथमिक विद्यालय में जब टीम पहुंची तो 2 छोटेछोटे बच्चे बरामदे में झाड़ू लगाते मिले और अंदर 4-5 बच्चे रोटी बनाने में लगे हुए थे. इस स्कूल में 5वीं तक पढ़ाई होती है और प्रधानाचार्य समेत कुल 4 शिक्षक हैं.

गांव वालों से पूछने पर मालूम पड़ा कि शिक्षकों की ड्यूटी अकसर तमाम अन्य सरकारी कार्यों तथा वोटर लिस्ट, वोटर आईकार्ड, जनगणना आदि में लगा दी जाती है और माह में कुल 4-5 दिन ही पढ़ाई हो पाती है. कमरे की टूटी छतें, क्लासरूम में एक तरफ ईंटों के ढेर व दूसरी तरफ उपले व लकडि़यां, सूखे हैंडपंप, शौचालय के स्थान पर गंदी, बदबूदार नालियां, टूटे व जर्जर ब्लैकबोर्ड और एक पेड़ के नीचे जमीन पर बैठ कर पढ़ रहे गिनती के बच्चे देख कर टीम हैरान रह गई. मेरठ के 78 फीसदी स्कूलों की हालत लगभग ऐसी ही पाई गई. केवल मेरठ ही में 906 प्राइमरी व

432 जूनियर हाईस्कूल हैं. उत्तर प्रदेश में वर्ष 2011 में प्रति स्कूल 5 से 10 लाख रुपए की राशि जीर्णोद्धार के लिए आवंटित की जा चुकी थी पर उस का कोई हिसाबकिताब नहीं. विश्व बैंक जैसी संस्थाओं की रियायती मदद से चलाए जा रहे सर्व शिक्षा अभियान के तहत स्कूल का भवन, किताबकौपी आदि समस्त स्टेशनरी, स्कूल ड्रैस, मिड डे मील आदि की व्यवस्था का प्रावधान है मगर विभिन्न स्वतंत्र एजेंसियों, भारत के महालेखाकार (कैग) और स्वयं विश्व बैंक की रिपोर्टें बताती हैं कि 85 फीसदी से भी ज्यादा की राशि का भारी दुरुपयोग हो रहा है.

जालंधर के पास के एक गांव कुराल ढोल में 859 बच्चों की सरकारी प्राइमरी पाठशाला का हाल देख कर टीम अचंभित रह गई. स्कूल में बच्चे जमीन पर बैठे हुए मिले और केवल 2 स्थायी शिक्षक वहां नियुक्त थे. वहां मिड डे मील की स्कीम भी बंद थी. जबकि इस के खर्चे बराबर दिखाए जा रहे थे. लुधियाना, अमृतसर, पठानकोट आदि तमाम जगह समान हालत पाई गई.

पंजाब में सरकार के प्राइमरी स्कूलों व हाईस्कूलों की कुल संख्या 20 हजार से भी ज्यादा है और इन में कई लाख बच्चे पढ़ाई करते हैं. एजेंसियों की रिपोर्ट के मुताबिक पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे गरीब व मध्य वर्गीय परिवारों से हैं, जिन में पढ़ने की अकूत ललक है. लेकिन इन्हें कैसी शिक्षा मिल रही है, स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं हैं भी या नहीं और शिक्षक बच्चों को सही तालीम देने के लिए कितने काबिल हैं, इस की सुध लेने वाला कोई नहीं है.

केंद्र व राज्य सरकारें शिक्षा के प्रचारप्रसार पर हर वर्ष करोड़ों रुपए खर्च कर रही हैं. नएनए अधिनियम बना रही हैं और नए स्कूलों को खोलने की जरूरत पर बल दे रही हैं परंतु देश में शिक्षा की तसवीर कुछ और ही कहानी कह रही है पर राज्यों में शिक्षा के तीव्र गति से हो रहे निजीकरण और व्यवसायीकरण के चलते गरीब बच्चों से शिक्षा दूर की कौड़ी होती नजर आ रही है.

सरकार की शिक्षा नीति का वास्तविक उद्देश्य तो यही लगता है कि वह शिक्षा माफिया की संस्थाओं को अनुदान बांटने के अलावा कुछ नहीं कर रही है. एक ओर निजी स्कूल जहां सभी प्रकार की सुविधा उपलब्ध कराने के नाम पर मोटी फीस वसूलते हुए ऊंचीऊंची आलीशान इमारतें खड़ी कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर सरकारी स्कूलों की स्थिति भारीभरकम अनुदान के बावजूद दिनोंदिन खस्ता होती जा रही है. दोपहर का भोजन, मुफ्त स्कूल ड्रैस देने, पुस्तकें देने के बाद भी सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या तेजी से घट रही है.

स्थिति इतनी अधिक दयनीय हो गई है कि देश भर में 70 फीसदी सरकारी स्कूल बंद होने के कगार पर हैं. शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2010 के तहत शिक्षा हर बच्चे का मूलभूत अधिकार है और 6 से 14 वर्ष के बच्चे को नजदीकी स्कूल में मुफ्त आधारभूत शिक्षा प्राप्त करने का प्रावधान है. इस के बावजूद सरकार की शिक्षा नीति बेअसर साबित हो रही है.

महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, झारखंड आदि कई राज्यों की रिपोर्टें बताती हैं कि पढ़ने की ललक होने के बावजूद दुर्व्यवहार व खराब सुविधाओं के चलते विद्यार्थी बीच में ही पढ़ाई छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं. कई राज्यों में तो 10 हजार से भी ज्यादा विद्यालय ऐसे हैं जहां मात्र 1 से ले कर 5 विद्यार्थी हैं. इन सब से यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार की शिक्षा नीतियां कितनी खोखली व हास्यास्पद हैं.

एक ओर जहां मठाधीशों की संस्थाओं की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है, वहीं सरकारी स्कूलों को विद्यार्थियों के लाले पड़ रहे हैं. अब शिक्षा सत्र के प्रारंभ में शिक्षक विद्यार्थियों को ढूंढ़ते फिरते हैं और तरहतरह के लालच दे कर स्कूल में लाने का प्रयास करते हैं. इतना करने के बाद भी सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों का न आना चिंता का विषय है. फिर भी ऐसा नहीं लगता कि सरकार अपनी शिक्षा नीतियों की खामियों को दूर करने के प्रति गंभीर है.

टीम के महाराष्ट्र दौरे के दौरान पाया गया कि पुणे, मुंबई, औरंगाबाद, नागपुर आदि जिलों में पढ़ने आने वाले बच्चे झोंपड़पट्टी में रहने वाले या दिहाड़ीमजदूरों के होते हैं, इसलिए शासनप्रशासन इन सरकारी स्कूलों की ओर गंभीरता से ध्यान नहीं देता है. इन स्कूलों का कामकाज ‘सब चलता है’ के सिद्धांत पर निबटाया जाता है. कई जगह तो यह भी देखा गया है कि एक ही बच्चे का नाम 2-2 स्कूलों में दर्ज रहता है. इस की वजह यह है कि इन स्कूलों में कार्यरत शिक्षक व अन्य कर्मचारी किसी तरह विद्यार्थियों की पर्याप्त संख्या दर्शा कर अपनी ड्यूटी पूरी मान लेते हैं. उन को अपने वेतन की चिंता रहती है, शिक्षा स्तर से कोई लेनादेना नहीं.

यह तथ्य भी सामने आया है कि जिस बच्चे का नाम स्कूल में दर्ज है वह कभीकभार ही स्कूल गया है पर उस की उपस्थिति बराबर दर्ज की गई है. इस के अलावा कई स्कूलों में छात्रों की संख्या 3-4 है, पर शिक्षक 4 हैं, कई जगह स्थिति बिलकुल उल्टी है यानी विद्यार्थियों की संख्या ज्यादा पर शिक्षक 1 है. मेटाकुटीला नामक गांव में पहली से चौथी तक की पढ़ाई के लिए एक स्कूल है, जिस में 53 विद्यार्थी पढ़ने आते हैं पर यहां मुख्याध्यापक सहित मात्र 2 शिक्षक हैं. इस स्कूल की एक और खासीयत है कि यहां 52 लड़कों के बीच में मात्र 1 लड़की पढ़ने आती है, जबकि इस गांव की आबादी करीब 1 हजार लोगों की है. ये उदाहरण हमारी शिक्षा नीति की खामियों को उजागर ही तो करते हैं.

यह बड़ी अजीब बात है कि जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है. बच्चों के हिसाब से स्कूल पर्याप्त नहीं हैं, फिर भी सरकारी स्कूलों में कोई आना नहीं चाहता है. योजना आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, 40 फीसदी बच्चे प्राइमरी स्तर पर ही स्कूल छोड़ देते हैं. इस के अतिरिक्त स्कूल में नामांकित बच्चों के लगभग 23 फीसदी यानी करीबकरीब 4 करोड़ बच्चे स्कूल जाते ही नहीं.

40 फीसदी बच्चे 10वीं तक और 60 फीसदी छठी तक ही स्कूल में टिकते हैं. बच्चों को आकर्षित करने के लिए चलाई गई मिड डे मील योजना किसी भी प्रांत में ठीक से नहीं चलती. ज्यादातर स्कूलों में तैनात 1 या 2 अध्यापक जबतब मतगणना, पल्स पोलियो, बालगणना, चुनावी ड्यूटी जैसे तमाम गैर शैक्षिक कार्यों को निबटाने के बाद नून, तेल, लकड़ी, आटा, सब्जी में उलझे नजर आते हैं.

ऐसी स्थिति केवल भारत ही में नहीं बल्कि ब्रिटेन, अमेरिका, लैटिन अमेरिका व अफ्रीकी देशों में भी है. इस में विद्यार्थियों से ज्यादा कुसूर पढ़ाने वालों का है जिन्हें खुद ही ठीक से भाषा का व साधारण ज्ञान तक नहीं है. इसीलिए राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारीभरकम कामकाजी त्रुटियां होती रहती हैं जिन का खमियाजा कभीकभी भुगतना पड़ जाता है.

पहचान बनते ब्रैंड

‘मैं सिर्फ नाइकी के ही जूते पहनता हूं, हमारे स्कूल की यूनीफौर्म एडिडास की है, पहन कर मजा आ जाता है, ब्लैकबैरी के मोबाइल का तो कोई मुकाबला ही नहीं है, जब भी मैं पार्टी में जाती हूं, गुच्ची के ही बैग ले जाती हूं. वैसे तो मम्मी उसे हाथ नहीं लगाने देतीं, कहती हैं कि मैं अभी छोटी हूं.’

ये कुछ ऐसे संवाद हैं जिन्हें हम अकसर किशोर होते बच्चों के मुंह से सुनते रहते हैं. स्कूलकालेज में पढ़ने वाली यह पीढ़ी न सिर्फ अपनी ब्यूटी व हैल्थ के प्रति सजग है बल्कि ब्रैंडेड वस्तुओं से इतनी प्रभावित है कि उस की जिंदगी से जुड़ी हर चीज ब्रैंडमय होती जा रही है. फिर चाहे कपड़े हों या जूते, घड़ी हो या मोबाइल, कार हो या मोटरसाइकिल, पेय पदार्थ हो या चौकलेट. ये वे बच्चे हैं जिन्हें आप केवल उच्चवर्ग के कह कर नजरअंदाज नहीं कर सकते, क्योंकि मध्यवर्ग भी ब्रैंडेड वस्तुओं की जकड़ से अब अछूता नहीं रहा है. वहां भी इस की घुसपैठ तेजी से हो चुकी है, क्योंकि इसे ही आज फैशन, स्टाइल, स्टेटस और लग्जरी का प्रतीक माना जा रहा है. ब्रैंडेड वस्तुएं खरीदने के लिए अगर जेब भी खाली करनी पड़े तो भी न अभिभावकों को आज इस बात पर ऐतराज है और न किशोरों को.

इस की वजह है बहुत ही कम उम्र में बच्चों का कंज्यूमर बनते जाना. मीडिया व इंटरनैट की दुनिया से अत्यधिक करीबी की वजह से खरीदारी से जुड़े उन के निर्णयों को अब मान्यता दी जाने लगी है. खरीदारी करते समय उन का निर्णय अब महत्त्वपूर्ण हो गया है. वे अपने मातापिता को बताते हैं कि क्या खरीदना है और क्या नहीं. बाजार में क्या लेटैस्ट ब्रैंड्स उपलब्ध हैं, उस की जानकारी मातापिता को वही देने लगे हैं.

मध्यवर्ग व उच्चवर्ग के परिवारों में टीवी की घुसपैठ इतनी ज्यादा हो गई है कि वह उन की जिंदगी, उन की सोच और उन के खरीदारी करने के निर्णय पर हावी हो चुका है. बच्चे चूंकि ईजी टारगेट होते हैं और उन की बात को टालना अभिभावकों के लिए कठिन होता है इसलिए विक्रेता कंपनियां उन के नाम से चीजें बाजार में उतार कर लुभावने विज्ञापनों से उन्हें लुभाती हैं. बच्चों को ब्रैंड ऐंबैसेडर बनाने के पीछे भी उन की यही सोच काम करती है. मीडिया में प्रदर्शित ब्रैंड के नाम से आज 5 साल का बच्चा तक प्रभावित होने लगा है. जब तक वह स्कूल जाने लायक होता है, उसे हजारों ब्रैंड्स के नाम रट जाते हैं.

फास्ट फूड, खिलौने व कपड़े बनाने वाली कंपनियां इस तरह से आज की पीढ़ी पर हावी होती जा रही हैं कि उन के लिए ब्रैंड ही उन की पहचान का पर्याय बनते जा रहे हैं. प्रिंट व इलैक्ट्रौनिक मीडिया में लगातार दिखने वाले विज्ञापन युवाओं को यकीन दिलाने में सफल हो रहे हैं कि फलां ब्रैंड ज्यादा विश्वसनीय व सही है.

रजत 12वीं में पढ़ता है और रेबेन का चश्मा व टाइटन की घड़ी पहनता है. उस के लिए ब्रैंडेड चीजें स्टेटस सिंबल हैं. वह कहता है, ‘‘आज हर कोई ब्रैंड की महत्ता को समझता है. अच्छी चीजें ही महंगे दामों में मिलती हैं और इन्हें पहन कर एक क्लासी लुक आ जाता है. रीबौक के जूते में जो आराम मिलता है वह आम जूतों में कहां. आज उस का ही सम्मान किया जाता है जो बढि़या चीजें पहनता है. ब्रैंडेड चीजों से दूसरों पर रोब तो पड़ता ही है साथ ही पर्सनैलिटी में भी निखार आता है.’’

दूसरों पर अपना प्रभाव जमाने के लिए योग्यता या अच्छा छात्र होना उतना आवश्यक नहीं रहा है जितना कि महंगी चीजों को अपने शरीर से चिपकाए घूमना. ब्रैंड का मतलब है ग्लैमर की दुनिया में फिट होना. यही वजह है कि ब्रैंड बड़ी तेजी से हमारे जीवन पर हावी होते जा रहे हैं. ‘‘ब्रैंड एक इंप्रैशन छोड़ते हैं,’’ यह कहना है 16 वर्षीय वत्सल का.

आज स्थिति यह है कि वयस्कों की दुनिया का हिस्सा बन चुकी ब्रैंडेड वस्तुएं किशोरों और बच्चों के लिए स्टेटस सिंबल बनती जा रही हैं. नाइकी, एडिडास, डियोर, हाईडिजाइन, रीबौक, टाइटन आदि नाम उन के कान में संगीत की मधुर लहरियों की तरह गूंजते हैं. किसी ब्रैंड का टैग लगते ही उन के लिए आम चीज भी विशेष हो जाती है. जहां तक कार का सवाल है तो एक अध्ययन से यह बात सामने आई है कि लगभग 32 प्रतिशत किशोर हुंडई सैंट्रो को पसंद करते हैं. घडि़यों में उन का मनपसंद ब्रैंड टाइटन है और टीवी के लिए एलजी  व म्यूजिक सिस्टम में सोनी को प्राथमिकता देते हैं. यहां तक कि कोला, चौकलेट, बिस्कुट व चिप्स तक में उन की पसंद में व्यापक बदलाव आया है.

आलम यह है कि कोई भी चीज ब्रैंड के लेबल से अछूती नहीं है, फिर चाहे कपड़े हों, बिजली के उपकरण, ऐक्सैसरीज, कौस्मैटिक या खाने की चीजें. टूथपैस्ट से ले कर बाथरूम के इंटीरियर तक, सनग्लास से ले कर पैन तक में ब्रैंड का ठप्पा लग चुका है.

फोर्टिस ला फेम अस्पताल के मनोवैज्ञानिक डा. रोहित जयमन का कहना है, ‘‘आज हमारा समाज भौतिकवाद के पश्चिमी संस्करण के अधीन हो चुका है. इसलिए लोगों की पहचान नैतिक मूल्यों या उन की शैक्षिक उपलब्धियों की अपेक्षा उन के पास उपलब्ध चीजों से होती है. इस सोच से हमारी युवा पीढ़ी भी बच नहीं सकी है. ये ब्रैंड भीड़ से अलग दिखने का एहसास देते हैं.

ब्रैंड व्यक्ति के अंदर आत्मविश्वास व खास होने का एहसास भरते हैं. लक्जरी और स्टेटस का पर्याय होने के साथसाथ वे व्यक्ति को आकर्षण का केंद्र बनाते हैं. युवाओं के अंदर अपने साथियों के बीच लोकप्रिय होने की चाह बहुत तीव्र होती है. इस से उन के अहं को भी संतुष्टि मिलती है, इसी वजह से वे आज बहुत ही ब्रैंडकौंशस हो गए हैं.

बात ऐसे बनी

मेरे पति रामकृष्ण अपने डाक्टर मित्र की क्लिनिक पर बैठे थे, तभी कलैक्ट्रेट औफिस में काम करने वाला बाबू अपने इलाज के लिए आया. डाक्टर साहब ने पूछा, ‘‘क्या तकलीफ है?’’

जवाब में मरीज ने कहा, ‘‘साहब, पूरे समय पेट में जलन रहती है, एसिडिटी रहती है, इस से जी घबराता है.’’

डाक्टर साहब ने पूछा, ‘‘चाय तो अधिक नहीं पीते?’’

बाबू ने दुखी स्वर में कहा, ‘‘औफिस में लोग मुझ से काम निकलवाने आते हैं और जबरन चाय पिला देते हैं, इसी के कारण मेरी तबीयत खराब रहती है.’’

डाक्टर साहब ने कहा, ‘‘अब जो भी काम के बदले में चाय पिलाए तो उसे कहना, अभी तो मैं चाय नहीं पीऊंगा आप औफिस की कैंटीन में मेरे पैसे जमा करा दें, मैं बाद में पी लूंगा.’’

और जब घर जाना हो तो जाते समय चाय न पीएं और दिनभर के जो पैसे कैंटीन वाले के पास रखे हों, उन्हें घर ले जाएं. इस से तबीयत भी ठीक रहेगी और पैसे अलग मिलेंगे.

बाबू बहुत खुश हुआ और बोला, ‘‘डाक्टर साहब, आप बहुत अच्छे हैं. मेरी चाय भी छुड़ा दी और चार पैसे भी मुझे मिल गए.’’

प्रतिभा रामकृष्ण श्रीवास्तव, इंदौर (म.प्र.)

 

मेरी एक सहेली और उस के पति अपने को बहुत चालाक और स्मार्ट समझते हैं. सहेली सीमा की आदत थी कि वह समयबेसमय अपने पति के साथ आ धमकती. नाश्ते से ले कर खाना आदि खा कर ही जाती. उस की इस आदत से मुझे बड़ी झल्लाहट होती, किंतु हम लोग संकोचवश कुछ कह नहीं पाते. जब भी हम लोग उस के घर जाने की बात कहते तो कहती कि मुझे एक रोज पहले ही फोन कर देना. फोन पर जब मैं उस के घर जाने की बात करती तो झट से बोल पड़ती, ‘‘अरे, नीरा, मैं तो शौपिंग करने आई हूं. प्लीज, दूसरे दिन आना.’’

एक दिन हम लोगों ने उसे सबक सिखाने की ठान ली. पति ने सुबह 8 बजे ही फोन किया किंतु उस ने फोन उठाया ही नहीं. उस की आदत को जानते हुए हम लोग उस के घर पहुंच गए. दरवाजे के किनारे खड़े हो कर पति ने फोन लगाया और कहा कि हम तुम्हारे घर आ रहे हैं. आदतानुसार वह झट से बोल पड़ी, ‘‘अरे, मैं तो मैडिकल कालेज मां को देखने आई हूं.’’ अभी उस की बात भी पूरी नहीं हुई कि हम लोग अंदर पहुंच गए. हमें देखते ही सकपका कर इधरउधर की बातें बनाने लगी. पति ने कहा, ‘‘आज आप की कोई बहानेबाजी नहीं चलेगी, आज तो हम सब नाश्ते से ले कर रात का खाना खा कर ही जाएंगे.’’ उस दिन के बाद वह फोन कर के आती और जल्दी ही लौट जाती.      

पुष्पा श्रीवास्तव, गोरखपुर (उ.प्र.) 

जातीयता की उलटीचाल- दलितपिछड़ा बनने की बढ़ रही चाह

आरक्षण व सरकारी योजनाओं से मिलने वाले लाभ ने कई जातियों को उत्तर प्रदेश में दलित व पिछड़ा बनाने का आइडिया सुझा दिया है. लिहाजा, कल तक दलितों को दुत्कारने वाली कई जातियां सरकार से आज खुद को दलित बनाने की मांग कर रही हैं. उधर सियासी दल कैसे इस मुद्दे पर वोटबैंक का गणित बिठा रहे हैं, बता रहे हैं शैलेंद्र सिंह.

उत्तर प्रदेश को उलटा प्रदेश यों ही नहीं कहा जाता है. जहां एक ओर छुआछूत की खाई चौड़ी होती जा रही है वहीं दूसरी ओर कुछ जातियां पिछड़ा और दलित बनने की लड़ाई लड़ रही हैं. लड़ाई की वजह आरक्षण नाम की मलाई है जिस को तकरीबन सभी जीमना चाह रहे हैं. मानसिक रूप से ये अभी दलित व पिछड़ों से उतनी ही दूर हैं जितनी दूसरी अगड़ी जातियां. वोटबैंक के इस गणित को हर राजनीतिक दल अपने हिसाब से हल करने में लगा है.

प्रियंका गुप्ता बचपन से अपने को अगड़ी जाति का मानती थी. दलित और पिछड़ों से उसे कोई हमदर्दी नहीं थी. घर में भी छुआछूत और जातपांत का पूरा खयाल रखा जाता था. जब कभी उस की नीची जाति की सहेलियां उस के घर आती थीं तब प्रियंका की मां इस बात का पूरा ध्यान रखती थीं कि उन को अलग बरतनों में ही खाना दिया जाए. घर के यही तथाकथित संस्कार प्रियंका के मन पर भी हावी होते चले गए. उस में भी छुआछूत की भावना अपनी जगह बना चुकी थी.

समय बीता, प्रियंका बड़ी हुई तो उस ने विश्वविद्यालय से कौमर्स में पोस्टग्रैजुएट की डिगरी ली. प्रियंका का मन किसी बिजनैस हाउस में नौकरी करने का था. इसी बीच उत्तर प्रदेश सरकार ने टीचर की भरती करनी शुरू की. इस के लिए जिलेवार मैरिट तैयार होने लगी. प्रियंका के घर वाले भी उसे टीचर की सरकारी नौकरी कराना चाह रहे थे. परेशानी की बात यह थी कि जनरल रैंक में उस की मैरिट कम थी. इसी समय प्रियंका को पता चला कि वह वैश्य बिरादरी की कसौधन उपजाति से आती है जिसे उत्तर प्रदेश सरकार पिछड़ी जाति मानती है.

ऐसे में प्रियंका को पिछड़ी जाति के आरक्षण का लाभ मिल गया. उस की मैरिट बढ़ गई और उसे टीचर की सरकारी नौकरी मिल गई. कल तक दलित और पिछड़ी जातियों का विरोध करने वाला प्रियंका का परिवार प्रमाणपत्र ले कर भले ही पिछड़ा बन गया हो पर मानसिक रूप से अभी भी वह इन जातियों से दूर ही रहने की कोशिश करता है.

यह बात केवल अगड़ी से पिछड़ी जाति बनने वालों की ही नहीं है, बहुत सारी पिछड़ी जातियां अपने को दलित जातियों में शामिल कराने के लिए आंदोेलन कर रही हैं. उत्तर प्रदेश में 17 पिछड़ी जातियां अपने को दलित जातियों में शामिल कराने के लिए गोलबंद हो रही हैं. इन में कश्यप, मल्लाह और कहार जैसी वे जातियां भी हैं जो दलित जातियों के हाथ का छुआ पानी पीने से परहेज करती हैं.

एक जमाने में गांव में अगड़ी जातियों के यहां जब शादीविवाह जैसे काम होते थे तो उन के घरों में कुएं से पानी भरने का काम यही कहार जाति के लोग करते थे. इन को इस बात की खुशी होती थी कि अगड़ी जातियों के लोग इन का छुआ पानी पीते हैं.

ऐसे में ये कश्यप, मल्लाह या कहार जैसी जातियां खुद भी दलितोें से छुआछूत का व्यवहार करती थीं. अब चाल बदल गई है. बदले हालात में ये जातियां अपने को दलितोें के बराबर करने के लिए दबाव की राजनीति कर रही हैं.

दलित चिंतक रामचंद्र कटियार कहते हैं, ‘‘संविधान ने आरक्षण का जो लाभ दलित और पिछड़ी जातियों को दिया, अब कई दूसरी जातियां भी उन में शामिल हो कर वह लाभ लेना चाहती हैं. आरक्षण का लाभ लेने के बाद भी ये लोग सामाजिक और मानसिक रूप से अपने विचार नहीं बदल पा रहे हैं. इस तरह दूसरी जातियां आरक्षण का लाभ लेने के लिए दलित और पिछड़ी जातियों के कोटे में शामिल होना चाहती हैं. राजनीतिक दल इस के जरिए एकदूसरे के वोटबैंक में सेंधमारी करने की कोशिश में लगे हैं.’’

…ताकि लाभ मिले

ठाकुर, ब्राह्मण और बनिया देश की प्रमुख अगड़ी जातियां हैं. बनिया को वैश्य बिरादरी के नाम से भी जाना जाता है. आल इंडिया वैश्य फैडरेशन के प्रदेश अध्यक्ष डा. नीरज बोरा कहते हैं, ‘‘वैश्य बिरादरी की बहुत ही उपजातियां पहले से ही पिछड़ी जातियों का हिस्सा हैं. इन में कसौधन, स्वर्णकार, तेली या साहू, जायसवाल, हलवाई, मोदनवाल, कलवार, भुर्जी, बाथम और मदेसिया शामिल हैं. इस बिरादरी में अभी 11 ऐसी जातियां भी हैं जो सामाजिक और आर्थिक रूप से बहुत कमजोर हैं. ये छोटीमोटी दुकानें लगा कर अपनी रोजीरोटी का इंतजाम बड़ी मुश्किल से कर पा रही हैं. हम लोगों की मांग है कि इन को भी पिछड़ी जातियों के आरक्षण का लाभ दे कर आगे बढ़ने में मदद की जाए.’’

 

वे आगे बताते हैं, ‘‘सुप्रीम कोर्ट ने मंडल आयोग की संस्तुति पर 1992 में पिछड़ी जातियों का आकलन करने के लिए पिछड़ा वर्ग आयोग बनाने का काम किया था. पिछड़ा वर्ग आयोग उन जातियों का आकलन करता है जो पिछड़ी जाति में शामिल होना चाहती हैं. वहां पर पहले से चली आ रही पिछड़ी जातियों के लोग भी होते हैं जो कई बार बाहरी जातियों के पिछड़ी जातियों में शामिल होने का विरोध भी करते हैं. अगर पिछड़ा वर्ग आयोग सहमत हो जाता है तो नई जातियों को पिछड़ी जातियों में शामिल कर लिया जाता है.’’

आल इंडिया वैश्य फैडरेशन वैश्य बिरादरी की कमजोर 11 जातियों को पिछड़ी जाति में शामिल करने की लड़ाई लड़ रहा है. इन जातियों में अग्रहरि, दोसर, अयोध्यावासी, केसरवानी, वर्णवाल, ओमर, गुलहरे, पोरवाल, कमलापुरी, सन्मानी और गहोई शामिल हैं.

डा. नीरज बोरा कहते हैं, ‘‘वैश्य बिरादरी की 11 जातियों को पिछड़ी जातियों में शामिल होने से उन का सामाजिक और आर्थिक स्तर ऊपर उठ सकेगा. आज तमाम ऐसी पिछड़ी जातियां हैं जो आर्थिक रूप से संपन्न हो चुकी हैं. इस के बाद भी आरक्षण का लाभ ले रही हैं. जबकि ऐसी तमाम जातियां हैं जो कमजोर और गरीब हैं. उन को आरक्षण का लाभ दे कर आगे बढ़ाना चाहिए. उत्तर प्रदेश की सपा सरकार जानबूझ कर पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन नहीं कर रही है जिस से कि वैश्य बिरादरी की इन जातियों को पिछड़ी जातियों में शामिल होने से दूर रखा जा सके.’’

वोटबैंक की राजनीति

वैश्य बिरादरी की ही तरह 17 पिछड़ी जातियां दलित बनना चाहती हैं. इन में राजभर, निषाद, मगाह, कश्यप, कुम्हार, धीमर, बिंद, प्रजापति, धीवर, भर, केवट, बाथम, कहार, मछुआ, तुरहा, मांझी और गोंड प्रमुख हैं. इन पिछड़ी जातियों को भाजपा के उस समय के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने अतिपिछड़ी जातियों के नाम से पहचाना था. समाजवादी पार्टी  के प्रदेश अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अतिपिछड़ी जातियों के प्रतिनिधि सम्मेलन में कहा कि इन जातियों की संख्या कम नहीं है. इन की कोई गणना नहीं की गई है. हमारी सरकार इन जातियों को दलित जाति की बिरादरी में शामिल करने के लिए केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेज रही है.

समाजशास्त्र के जानकार लोग पिछड़ी जातियों के दलित बनने की इस चाह को राजनीति से जोड़ कर देख रहे हैं. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डा. लक्ष्मीकांत वाजपेई कहते हैं, ‘‘सपा अतिपिछड़ी जातियों के मसले पर राजनीति कर रही है. उसे पता है कि पिछड़ों को दलित वर्ग में शामिल किए जाने का काम केंद्र सरकार और संसद का है. सपा इस संबंध में प्रस्ताव भेज कर केवल लोगों को बरगलाने का काम कर रही है. इस के पहले 10 अक्तूबर, 2005 को भी सपा ऐसा ही प्रस्ताव भेज चुकी है.’’

वर्ष 2001 में उस समय के भाजपा के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने भी अति पिछड़ी जातियों के वोटबैंक को जोड़ने के लिए ऐसी कोशिश की थी. तब बहुजन समाज पार्टी ने तकनीकी रूप से इस का विरोध किया था. 2007 में मायावती ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर कहा था कि इन अतिपिछड़ी जातियों को दलित वर्ग में शामिल किया जाए पर पहले दलितों को मिलने वाले आरक्षण कोटे को बढ़ा दिया जाए.

उत्तर प्रदेश मत्स्य विकास निगम के चेयरमैन डा. राजपाल कश्यप कहते हैं, ‘‘अतिपिछड़ी ये जातियां दलितोें से भी ज्यादा कमजोर और गरीब हैं. इन को दलित वर्ग में शामिल किया जाए तो इन की गरीबी कम हो सकती है. इन को भी दलित को मिलने वाली सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सकता है.’’

रामचंद्र कटियार यह भी मानते हैं कि सपा नेता चाहते हैं कि अगर अतिपिछड़ी जातियों को दलितों का लाभ मिलने लगेगा तो विधानसभा और लोकसभा की आरक्षित सीटों पर वे चुनाव लड़ सकेंगी, जिस से उन को लाभ हो सकता है. यही बात मायावती को परेशान कर रही है, जिस से वे इस का अंदरखाने विरोध कर रही हैं.

ऐसे में जातीयता की उलटी चाल को देख कर आप यह समझने की भूल मत करिए कि उत्तर प्रदेश में सामाजिक समरसता बढ़ गई है जिस की वजह से सवर्ण पिछडे़ और पिछड़े दलित बनना चाह रहे हैं. यह जाति की राजनीति का एक गणित है जिसे हर पार्टी अपने हिसाब से हल करने की कोशिश कर रही है. वोट पाने के लिए राजनीतिक दल जोड़तोड़ में हमेशा से लगे रहते हैं और वोट की गणित को बिठाने में उन्हें सब से आसान तरीका यही लगता है कि जाति और धर्म के नाम पर लोगों को बरगलाया जाए. ऐसा नहीं है कि यह आज हो रहा है बल्कि यह दशकों से होता आ रहा है.

लोकतंत्र की पोल खोलता लालतंत्र

25 मई, 2013 को छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके के सुकमा के पास दरभा घाटी में जो भीषण हत्याकांड हुआ उस से मु झे कोई खास हैरानी नहीं हुई. 52 वर्षीय कृषि विभाग के एक अधिकारी ने नाम व पहचान छिपाए रखने की शर्त पर लंबी बातचीत में इस प्रतिनिधि को बताया, अपना आतंक बनाए रखने और अपने मिशन को आगे बढ़ाने के लिए नक्सली कुछ भी कर सकते हैं. यह इत्तफाक और मौके की बात सम झ आती है कि उन के निशाने पर कांग्रेसी काफिला आ गया वरना मरनेमारने के नाम पर वे कोई भेदभाव नहीं करते.

आदिवासी समुदाय के इस अधिकारी ने आगे बताया, यह जुलाई 1990 की बात थी जब मैं जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर से एमएससी की डिगरी ले कर निकला तो ग्रामसेवक पद पर नौकरी हाथोंहाथ मिल गई पर नियुक्ति बीजापुर ब्लौक के भैरमगढ़ गांव में मिली. सरकारी नौकरी करने वालों के लिए तब बस्तर को मध्य प्रदेश का कालापानी और नर्क कहा जाता था. साथियों ने मु झे सम झाया कि बस्तर जा कर नौकरी, वह भी इतनी छोटी करने से कोई फायदा नहीं. बेहतर यह होगा कि मैं पीएससी या यूपीएससी की तैयारी करूं.

पर मैं सभी को नहीं सम झा सकता था कि मेरे घर के हालात क्या हैं, मेरी पढ़ाई के लिए पिताजी ने 2 एकड़ पुश्तैनी जमीन तक बेच दी थी जो 8 सदस्यों के परिवार के पेट भरने का इकलौता जरिया थी. बच्चों को छोड़ कर सभी लोग खेतों में मेहनतमजदूरी कर पेट पालते थे. उन की इकलौती उम्मीद अब मेरी नौकरी थी जिसे मैं और टरकाता तो घर के टीनटप्पर तक बिक जाते. लिहाजा, मैं ने बस्तर जाने में ही बेहतरी सम झी.

छत्तीसगढ़ ऐक्सप्रैस के स्लीपर कोच में आरक्षण करा कर  मैं तुरंत रायपुर पहुंचा. यहां से मु झे बस पकड़ कर भैरमगढ़ जाना था. गनीमत यह थी कि यह गांव सड़क किनारे ही था. रायपुर जा कर मालूम हुआ कि भैरमगढ़ जाने के लिए एक ही सरकारी बस चलती है जो शाम को आएगी.

जेब में पैसे बहुत ज्यादा न थे और तनख्वाह कब मिलनी शुरू होगी इस का भी अंदाजा नहीं था. लिहाजा, दिनभर मैं रायपुर के बसस्टैंड पर बैठा नईपुरानी बातें सोचता रहा. शाम को टिकट ले कर बस में बैठा तो बस वाकई सरकारी यानी खटारा नजर आ रही थी.

कल की खबर में महेंद्र कर्मा और नंदकुमार पटेल की हत्या के साथसाथ विद्याचरण शुक्ल के गंभीर रूप से घायल होने की बात पढ़ी तो मु झे बरबस ही उन के भांजे अनूप मिश्रा की याद आई जो मु झ से 2 साल सीनियर था और विश्वविद्यालय के न्यू होस्टल में रहता था. वह बेहद शराब पीता था और अब से ढाई साल पहले उस की पत्नी या प्रेमिका, जो भी कह लें, ने उस की हत्या करा दी थी. तब वह भी बड़े पद पर था और ड्यूटी पर भी शराब पी कर जाने के लिए कुख्यात था. चूंकि श्यामाचरण और विद्याचरण शुक्ल का नजदीकी रिश्तेदार था इसलिए यूनिवर्सिटी में उस की तूती बोलती थी और जबलपुर शहर में वह निकलता था तो उस के पीछे चलने वालों की तादाद कम न रहती थी. अनूप जानता था कि लोग उस के पैर तबादला करवाने, रुकवाने या तरक्की के लिए पड़ते थे.

बस में बैठी कुछ सवारियों से चर्चा हुई. उन्होंने मु झे हैरत से देखा और दबी जवान में इशारा किया कि भैरमगढ़ जैसी जगह में नौकरी करना अगर बहुत जरूरी न हो तो मैं दोबारा सोचूं.

चूंकि मेरे पास कोई विकल्प नहीं था इसलिए मैं ने ज्यादा कुछ नहीं सोचा. अलबत्ता, जो जानकारियां भैरमगढ़ और बीजापुर ब्लौक के बारे में मिलीं वे अच्छी कतई नहीं थीं. कंडक्टर, ड्राइवर को भी पता चल चुका था कि मैं नयानया नौकरी पर जा रहा हूं तो उन्होंने भी हैरत से मु झे देखा. मैं भी आदिवासी हूं यह जान कर उन्होेंने दूसरों की तरह कोई मशवरा नहीं दिया. दोनों शराब पिए हुए थे पर उन की बातचीत और व्यवहार दोनों संतुलित थे.

अलस्सुबह बस जगदलपुर पहुंची तो लगभग सारे यात्री वहां उतर गए. तब भी जगदलपुर आज की तरह जगमगाता शहर था और यहीं तक ही छत्तीसगढ़, शेष मध्य प्रदेश या देश जैसा लगता था. कंडक्टर के आमंत्रण पर मैं ने ठेले पर चाय पी. अब खुल कर वह जो बोला उस का सार यह था कि इस धरती पर नर्क अगर कहीं है तो यहीं बस्तर में है. अब तो यहां छिटपुट नक्सली वारदातें भी होने लगी हैं.

नक्सली बस्तर में सक्रिय हैं यह चर्चा अकसर जबलपुर में होस्टल में होती रहती थी, साथ ही चर्चा यह भी होती थी कि यहां रोटी महंगी, देह सस्ती है और शराब बेहद आम है. सियासी तौर पर यह इलाका कभी कम्युनिस्टों का गढ़ माना जाता था जो धीरेधीरे टूट रहा था. फिर भी 1993 तक एकाध विधायक चुन कर भोपाल पहुंच जाते थे वरना कांग्रेस को मध्य प्रदेश में सत्ता दिलाने में छत्तीसगढ़ इलाके की 90 विधानसभा सीटों की भूमिका अहम रहती थी.

‘अब यहां के बाद आदिवासी चढ़ना शुरू होंगे,’ कंडक्टर ने बताया, ‘और बस ठीकठाक चली तो 5-6 घंटों में आप भैरमगढ़ पहुंच जाएंगे.’ उस की कोशिश या मंशा कतई मु झे आतंकित करने की नहीं लग रही थी बल्कि वे जानकारियां देने की थीं जो पहली दफा इस इलाके में आ रहे नए आदमी के लिए महत्त्वपूर्ण साबित हो सकती थीं. इस में से एक थी कि भैरमगढ़ में मकान मिलना मुश्किल है.

बस जैसेजैसे आगे बढ़ती गई वैसेवैसे मेरे सिर पर अनजाना सा डर सवार होने लगा. यह एहसास मु झे था कि मैं अब एक नई जिंदगी में जा रहा हूं जहां लड़कपन बिलकुल नहीं चलना. अब चारों तरफ जंगल ही जंगल नजर आ रहा था. जहां बस रुकती या रुकवाई जाती वहां 2-4 आदिवासी चढ़ते पर सभी खाली पड़ी होने पर भी सीट पर नहीं बैठते, नीचे बैठ जाते थे. एकाध ने तो मु झ पैंटशर्ट वाले को बेवजह प्रणाम भी कर डाला था.

पर उस वक्त उस माहौल ने ज्यादा फर्क मेरे दिमाग पर नहीं डाला था. वजह, मेरे दिमाग में घर का गुणाभाग चल रहा था कि कैसे और कितना पैसा घर भेजूंगा और शेष में से खुद का खर्च चलाऊंगा.

इस मार्ग की यह इकलौती बस भोपालपट्टनम तक जाती थी. कुछ दूर बाद औरतों सहित कुछ और आदिवासी चढ़े, कुछ के मुंह से निकलती शराब की गंध पूरी बस में फैल रही थी. आमतौर पर आदिवासी शांत थे पर जब किसी बात पर बोलने लगते थे तो लगता था  झगड़ रहे हैं. मैं ने सुन रखा था कि यहां आदिवासी मामूली बात पर  झगड़ बैठते हैं और हत्या तक कर बैठते हैं.

सड़क के दोनों ओर दिख रहे जंगल में कहींकहीं पेड़ काट कर बनाए खेत दिख रहे थे जिन में धान की फसल दिख रही थी.

किसी तरह भैरमगढ़ आया. कंडक्टर ने भलमनसाहत दिखाते हुए सामान उतारने में मेरी मदद की. मेरे पीछे 2 आदिवासी भी उतरे तो मैं ने राहत की सांस ली कि इन से जरूर कुछ जानकारियां और मदद मिल जाएगी.

हमें उतार कर बस आगे बढ़ गई. बाईं तरफ भैरमगढ़ गांव दिख रहा था और सामने की तरफ एक टपरिया दिख रही थी, जो यहां का होटल कही जा सकती थी. एक मर्द और एक औरत, जो पतिपत्नी थे, इत्मीनान से बैठे पंखा  झल रहे थे.

उमस बढ़ चली थी और मु झे पसीना आ रहा था. साथ उतरे दोनों आदिवासियों ने कोई दिलचस्पी मु झ में नहीं ली और इस से पहले कि मैं कुछ कहतासुनता, वे तेज कदमों से गांव की तरफ बढ़ गए.

यह 29 साल की जिंदगी का दूसरा वक्त था जब मैं जिंदगी की सड़क पर अकेला खड़ा था. पहली दफा जब गांव से जबलपुर पढ़ने गया था तब और दूसरी दफा आज नौकरी वाले दिन. दोनों ही दफा मु झे नहीं मालूम था कि अब क्या होगा.

पर कुछ तो करना ही था, लिहाजा, सामान कंधे पर लाद कर मैं गांव की तरफ बढ़ा. 30-40 मकान दूरदूर बने दिख रहे थे पर अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था. कुछ कदम चलने के बाद दाईं तरफ एक छोटी पर पक्की बिल्ंिडग स्टेट बैंक औफ इंडिया की दिखाई दी. सामान ले कर सीधे उस में ही दाखिल हो गया. बैंक का दफ्तर खाली सा था. 3 कर्मचारी बैठे बतिया रहे थे. उन में से एक युवती थी. मैं ने उन्हें अपना परिचय देते हुए आने की वजह बताई.

वे तीनों लंबे वक्त से वहां थे और  मु झे विस्फारित नेत्रों से देख रहे थे. उन में से एक क्लर्क, जिस का नाम मान लें राजेश और वह युवती, नाम मान लें कुसुम, ने मु झे काफी सहयोग दिया. शुरुआती बातचीत में ही स्पष्ट हो गया कि यहां रहने के लिए ढंग के मकान नहीं हैं, और जो हैं उन में शौचालय नहीं है, खाना खुद बना कर खाना पड़ेगा जिस के लिए घासलेट और स्टोव का इंतजाम करना होगा.

ये दोनों ही रायगढ़ जिले के रहने वाले थे और मेरी तरह ही गौंड आदिवासी थे पर तिर्की जाति के थे और ईसाई धर्म ग्रहण कर चुके थे. ईसाई मिशनरियों ने ही उन्हें पढ़ायालिखाया था. बातचीत में राजेश ने मु झे बताया कि एक कमरा खाली है पर उस का मकानमालिक बीजापुर में रहता है, कलपरसों में चल कर उस से बात कर कमरा तय कर लिया जाएगा. तब तक मैं उस के कमरे पर रह सकता हूं. नक्सलियों की इस वक्त कोई बातचीत नहीं हुई पर बाद में खूब खुल कर हुई और कई दफा नक्सली करार दिए गए लोगों से भी हुई. उन की बातों में हर बार चारू मजूमदार, असीम चटर्जी, कानू सान्याल और संतोष राणा के नाम जरूर आते थे जो उन के आदर्श थे. बातबात पर ये नक्सली यह जरूर दोहराते थे कि उन्हें कोई राजनीतिक विकल्प नहीं बनना है.

कुसुम मु झे राजेश के कमरे तक ले गई. वह मु झे बिंदास लड़की लगी. कमरे तक पहुंचतेपहुंचते कुछ गांव वालों ने मु झे आंखें फाड़ कर देखा तो वह बोली, ‘यहां हर नए आदमी को नक्सली या पुलिस का मुखबिर सम झ कर ही देखा जाता है. कल जब इन्हें पता चलेगा कि तुम इन के नए ग्राम सेवक हो तो सबकुछ ठीक हो जाएगा.’

इस गांव की पहली नजर में मैं ने कुछ खूबियां भांपी थीं कि मकान एकदूसरे से सटे नहीं हैं, उन के बीच मुकम्मल फासला है और 2-4 ही पक्के कहे जा सकते हैं, बाकी  झोंपड़े सरीखे हैं.

कमरे पर जा कर कुसुम ने स्टोव पर चाय बनाई और खाने के बाबत पूछा तो मैं ने घर से लाया खाना (पूरीअचार) खोल लिया जिसे खाने में उस ने साथ दिया. इस दौरान वह लगातार कुछ न कुछ बोलती रही जिस में हम आदिवासियों की दुर्दशा का बखान ज्यादा था.

इसी बातचीत में मु झे पता चला कि वह बैंककर्मी नहीं है, महिला बाल विकास विभाग में है. चूंकि वहां कामधाम न के बराबर होता है, इसलिए यहांवहां वक्त काटा करती है. उस की बातों से मैं ने अंदाजा लगाया कि गांव में दर्जनभर से कुछ ज्यादा शासकीय कर्मचारी हैं और सभी आदिवासी हैं. कोई दूसरा यहां आता नहीं और आ जाए तो महीनेभर भी नहीं टिकता.

थका और जागा था इसलिए मैं कुसुम के जाने के बाद सो गया. शाम को राजेश ने जगाया तो सकपका कर उठा. तेज बारिश के आसार नजर आ रहे थे.

राजेश के साथ औपचारिक बातें हुईं, तभी कुसुम भी आ गई और रात के खाने की तैयारी शुरू हो गई. राजेश ने बताया कि अगर यहां का भारी पानी हजम करना है तो शराब पीना जरूरी है वरना 2-4 दिन में बीमार पड़ जाओगे. ऐसा मैं ने भी सुन रखा था, इसलिए हैरानी कम हुई. वैसे भी मैं तब शराब पीता था- होस्टल में भी और उस से पहले अपने गांव में भी.

वह शाम अच्छी गुजरी, तीनों ने मिल कर साथ खाना खाया और शराब भी पी. किसी लड़की को शराब पीते देखने का यह पहला अनुभव था. खाने के बाद 3-4 घंटे फिर बातचीत का दौर चला जो बस्तर की जिंदगी पर केंद्रित था.

उन दोनों ने मु झे बताया कि यहां के आदिवासियों की हालत वाकई खराब है. वे बेहद गरीब हैं और सभी लोग उन का शोषण करते हैं. किसी सरकारी महकमे में मुलाजिम काम नहीं करते. मास्टर और पटवारी तक महीनों नहीं आते. असल राज सूदखोर बनियों का चलता है जो तगड़े ब्याज पर आदिवासियों को पैसा देते हैं और हाड़तोड़ मेहनत कराते हैं. सरकारी योजनाएं कागजों पर चलती हैं जिन का 75 फीसदी हिस्सा भोपाल में ही डकार लिया जाता है. आदिवासी जानकारियों के अभाव में योजनाओं का फायदा नहीं उठाते और कर्ज बैंक से लेने के बजाय साहूकारों से ही लेते हैं.

यहां राजनीति  चुनाव के वक्त ही दिखती है. कांगे्रस यहां धीरेधीरे मजबूत हो रही है जिस का महेंद्र कर्मा नाम का युवक तेजी से लोकप्रिय हो रहा है. कम्युनिस्टों का वजूद खत्म सा हो चला है. अब केवल मनीष कुंजाम ही विधानसभा चुनाव जीत पाते हैं. नक्सलियों का दबदबा बढ़ रहा है और सभी कर्मचारी व पैसे वाले आदिवासी हर तरह से उन की सहायता करते हैं. नक्सलियों और पुलिस वालों की मुठभेड़ आम है जिन में आरोपी बेकसूर आदिवासियों को ही बनाया जाता है. नक्सली हालांकि उन्हें हिफाजत देते हैं पर पुलिस वाले भारी पड़ते हैं. यहीं बाहर सड़क पर पुलिस चौकी है जो अकसर खाली पड़ी रहती है. जब किसी मंत्री या बड़े अधिकारी का दौरा होता है तो दंतेवाड़ा या बीजापुर से 2-4 पुलिस वाले आ कर बैठ जाते हैं.

बातचीत के आखिर में राजेश ने कायदे की एक बात कही जो उस के दिल का दर्द था कि आप ही बताइए, इन भोलेभाले गरीब आदिवासियों का गुनाह क्या है? यहां बिजली नहीं है, पीने का साफ पानी नहीं है, स्कूल न के बराबर हैं, रोजगार नहीं है. मेहनती आदिवासी गुलामों सी जिंदगी जी रहे हैं. साल और सागौन के पेड़ों की कीमती लकड़ी की तस्करी होती है, माइनिंग के सारे ठेके रसूखदार लोगों के पास हैं. बस्तर का सारा पैसा प्राकृतिक संसाधन और मानव श्रम पैसे वालों के लिए है, आदिवासियों के लिए तो जल, जंगल, जमीन कुछ नहीं है.

ऐसे में अगर कुछ माओवादी आदिवासियों को उन के अधिकारों के बाबत सम झाते हैं तो क्या गलत करते हैं? अगर वे घूसखोर कर्मचारियों को सरेआम सजा देते हैं तो सरकार तिलमिलाती क्यों है? वे पूंजीवादियों को यहां से उखाड़ने का नेक काम करते हैं तो उन्हें आतंकी क्यों कहा जाता है?

कुछ दिनों बाद यही बातें मु झे नक्सली प्रचार सामग्री में आंकड़ों की शक्ल में मिलीं जो वाकई चिंतनीय थीं कि आदिवासियों में साक्षरता दर महज 22 फीसदी है. 60 फीसदी मैट्रिक के पहले स्कूल छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं और तकरीबन 50 फीसदी आदिवासी गरीबी रेखा के नीचे  जीते हैं.

इन सब से ज्यादा हैरान कर देने वाली बात यह उदाहरणों सहित बताई गई थी कि अब तक तकरीबन 30 फीसदी आदिवासी विभिन्न विकास परियोजनाआें के नाम पर विस्थापित हो चुके हैं. यह संख्या तकरीबन डेढ़ करोड़ होती है, इन बातों ने मु झे नए सिरे से सोचने का मौका दिया. सरकारी स्वार्थ आज भी कायम है, छत्तीसगढ़ सहित ओडिशा और पश्चिम बंगाल में टाटा, एस्सार, कोस्को और वेदांता जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को पलकपांवड़े बिछा कर बुलाया जा रहा है.

इन कंपनियों के आका सरकारी अधिकारियों की तरह नक्सलियों को नजराना देते हैं जिसे लेवी कहा जाता है. तकरीबन 600 करोड़ रुपए सालाना की लेवी नक्सलियों की जेब में जाती है, नक्सली इन कंपनियों को सरकारी अधिकारियों की तरह उखाड़ कर नहीं फेंक सकते इसलिए लेवी ले लेते हैं, जिस से उन के अभियान में पैसों की कमी आड़े नहीं आती.

ये बातें भैरमगढ़ के रहते नहीं, 2005 के बाद मु झे सम झ आई थीं. सम झ यह भी आया कि यही बहुराष्ट्रीय कंपनियां नक्सली आंदोलन को तबीयत से बदनाम कर सरकार और नक्सलियों के बीच खाई खोदने का काम कर रही हैं.

दूसरे दिन से मैं ने यह सब देखा और महसूस किया कि वाकई यहां के आदिवासी जिल्लत और जलालत की जिंदगी जी रहे हैं. उन के नाम पर आया अरबों रुपया पूंजीपति, उद्योगपति और नेता डकार रहे हैं. उन्हें इस से कोई मतलब नहीं, उलटे उन का याराना शोषकों से है. चुनावों के पहले शराब पानी की तरह बहाई जाती है जिस से आदिवासी पीपी कर खोखले होते रहें.

खुद अपने विभाग की हालत मैं ने देखी कि छोटे आदिवासी किसानों के लिए आया खाद, बीज, कृषि उपकरण वगैरह गीदम, दंतेवाड़ा, बीजापुर और जगदलपुर के गैर आदिवासी व्यापारियों में बंट जाता है और मु झ सरीखे छोटेबड़े कर्मचारी चुपचाप ये सब देखते रहते हैं क्योंकि नौकरी करना उन की मजबूरी जो है. दाल क्या होती है यह आदिवासी नहीं जानते. वे चावल का मांड़ खाते हैं या फिर आलू सस्ता होने पर उस की सब्जी कभीकभार खा लेते हैं. गेहूं की रोटी ये लोग उस के महंगा होने के कारण नहीं खा पाते. यह सुना भी सच निकला कि बस्तर के आदिवासी मेढक और  झींगुर तक भून कर खा जाते हैं, यह उन के जंगलीपन का जीताजागता उदाहरण है जिसे मु झ जैसे लोग पिछड़ापन कहते हैं.

यह अधिकारी रुक कर एक लंबी सांस लेने के बाद बताता है, छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के पहले तक मैं वहां रहा फिर 2001 में मध्य प्रदेश आ गया. सुकमा मैं कई बार गया. वह सचमुच नक्सली गतिविधियों का जंक्शन है. नक्सलियों से कई दफा मैं मिला, उन की आर्थिक मदद भी अपनी मरजी व हैसियत के मुताबिक की और आदिवासियों को सम झाया कि उन के लिए भला क्या है और बुरा क्या.

फिर कल सुकमा में थोक में कांग्रेसी नेताओं की हत्या की खबर आज देखी और पढ़ी. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी का यह बयान भी पढ़ा कि यह लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला है तो मु झे उन पर तरस आया कि काश एक दफा ये लोग बस्तर जाएं, वहां की बदहाली देखें. फिर बताएं कि वहां कौन सा लोकतंत्र है, और है भी कि नहीं. 2 साल पहले ही मैं सरकारी काम से बस्तर गया था. तब काफीकुछ बदला दिखा. नई इमारतें दिखीं, कुछ विकास कार्य भी दिखे पर वे कुछ ही थे और 15 साल की मिआद के हिसाब से कतई संतोषजनक और मुकम्मल नहीं थे. वहीं मालूम करने पर पता चला कि राजेश और कुसुम दोनों का तबादला रायगढ़ हो गया है.

सुकमा में जो हुआ…, यह अधिकारी कहता है, वह अप्रत्याशित नहीं था, न ही लोकतंत्र पर हमला था बल्कि लोकतंत्र की पोल खोलता हुआ हादसा था. देशभर के नेता लाख चिल्लाते रहें पर आज नहीं तो कल उन्हें नक्सलियों के साथ बैठ कर बात करनी ही पड़ेगी क्योंकि न केवल बस्तर बल्कि पूरे रेड कौरीडोर में नक्सली सरकार से ज्यादा मजबूत हैं और 60 फीसदी आदिवासी उन से इत्तफाक रखते हैं इसलिए महेंद्र कर्मा का सलवा जुडूम आंदोलन ज्यादा नहीं चला. अदालत ने तो उसे एक तरहसे गैर कानूनी ही करार दे दिया था.

और अब जब दरभा घाटी का सच सामने है तब शायद सोनिया गांधी या मनमोहन सिंह यह बता पाएंगे कि नक्सली लोकतंत्र के दुश्मन कैसे हैं? हकीकत तो यह है कि जहांजहां मुक्त क्षेत्र यानी रेड कौरीडोर में नक्सली हैं वहां लोकतंत्र न पहले कभी था न आज है. वहां बाबू, सिपाही, पटवारी, व्यापारी राज आजादी के बाद ही कायम हो गया था, जिसे सरकार ने फलनेफूलने दिया.

भैरमगढ़ के एक बुजुर्ग आदिवासी ने एक बार बातोंबातों में बताया था कि गोरों का राज बड़े सुकून का था. हम शांति से यहां रहते थे. कोई परेशान नहीं करता था पर इन कालों का राज आया तो हमारा जीना हराम हो गया. थोड़ीबहुत सड़कें बनाने के एवज में इन्होंने हमारा चैन छीन लिया. सरकारी मुलाजिम आ कर हम पर तरहतरह के नियम व कायदेकानून थोपने लगे. न मानने पर हमें गाली देते थे और मारते थे. उन की बुरी नजर हमेशा हमारी औरतों पर रहती थी. आजादी के बाद से दीगर जातियों के लोग आए. वे हमें हिकारत से देखते थे, राजस्व विभाग के लोग आ कर अकसर हमें कहीं और बस जाने को कहते थे. कभी सड़क तो कभी कारखाना बनाने के नाम पर हमें तंग किया जाने लगा.

रहासहा चैन सरकारी दफ्तरों ने छीन लिया, गोरों की हुकूमत में हम कभी अपने टोले के बाहर नहीं गए पर अब जाना पड़ता है, कभी थाने तो कभी तहसील तो कभी अदालत. थोड़ाबहुत पैसा सरकारी योजनाओं का मिला पर उस से लाख गुना ज्यादा कीमत हम आदिवासियों ने चुकाई. सहारा नक्सलियों के आने के बाद मिला जिन्होंने सरकारी ज्यादतियों से हमें आजाद कराया. उन्होंने हमारी बोली सीखी, रीतिरिवाज अपनाए, हमारा खानपान अपनाया और हमें प्यार से गले लगाया.

सब से बड़ी वारदात

छत्तीसगढ़ में इस साल नवंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं. सत्ता बरकरार रखने के लिए सत्तारूढ़ भाजपा और सत्ता वापस हासिल करने के लिए कांग्रेस ने तैयारियां शुरू कर दी थीं. भाजपा विकास यात्राओं के जरिए अपने 8 साल के कार्यकाल की उपलब्धियां गिना रही थी तो कांग्रेस परिवर्तन यात्राओं के जरिए मतदाताओं को बता रही थी कि भाजपा ने कुछ खास नहीं किया है, इसलिए अब बदलाव लाने के लिए वोट डाला जाए.

इतनी भीषण गरमी में भी दोनों दलों के नेता बेवजह पसीना नहीं बहा रहे थे. दरअसल, दोनों ही बारिश के पहले दूरदराज के अंचलों में एक बार प्रभावी उपस्थिति दर्ज करा लेना चाह रहे थे.

25 मई की परिवर्तन यात्रा में राज्य के तमाम कांग्रेसी शामिल हुए थे. जिन में विद्याचरण शुक्ल, महेंद्र कर्मा, नंद कुमार पटेल आदि भी थे. अजीत जोगी, जो यात्रा में औपचारिक हाजिरी दर्ज करा कर हैलीकौप्टर से वापस लौट गए थे. कांग्रेसी काफिले में 22 कारें थीं और सभी लोग जोश में थे.

तयशुदा कार्यक्रम के मुताबिक, कांग्रेसी काफिले को सुकमा में सभा करने के बाद शाम को गाढ़ीरास होते हुए दंतेवाड़ा पहुंचना था पर ऐन वक्त पर इस का रास्ता केशनूर की तरफ कर दिया गया. सुकमा की सभा के बाद जैसे ही काफिला तोंगपाल से

8 किलोमीटर दूर झीरम घाटी के पास बने मंदिर की पुलिया पर पहुंचा तो नक्सलियों ने ब्लास्ट कर दिया. ब्लास्ट के पहले 4 गाडि़यां उन्होंने गुजरने दीं. यह हमला पूर्व नियोजित था. जिस में कांग्रेस के ही किसी भेदिये ने नक्सलियों का साथ दिया था. वह कौन है, इस की जांच चल रही है.

काफिला रुकते ही तकरीबन 1,200 नक्सलियों ने काफिले को घेर लिया. इस के बाद शुरू हुआ नक्सलियों का खूनी खेल जो उन्होंने बेहद इतमीनान से खेला. कहां कितनी पुलिस और अर्द्धसैनिक बल हैं, यह उन्हें हमेशा की तरह किसी भी सरकारी अधिकारी से ज्यादा सटीक तरीके से मालूम था. काफिले में शामिल नेताओं के नाम उन्हें रटे पड़े थे. कांग्रेसी चारों तरफ से घिर गए थे. नक्सली एकएक कार के पास गए. वे नाम ले कर पूछ रहे थे कि महेंद्र कर्मा कहां है, नंद कुमार पटेल कहां है, दिनेश कहां है, सत्यनारायण शर्मा कहां है.

कारों से बाहर निकल कर खड़े काग्रेसियों और सुरक्षाकर्मियों ने जवाब नहीं दिया तो नक्सलियों ने कारों से उतार कर लोगों को मारना शुरू कर दिया. वे पूरी तरह वहशी हो गए थे और सब से पहले अपने खास और सब से बड़े दुश्मन महेंद्र कर्मा को मार डालना चाहते थे. और किसकिस को मारना है उस की लिस्ट उन के हाथ में थी. 2-4 लोगों को गोली लगी तो महेंद्र कर्मा खुद कार से बाहर आए और बोले, मैं हूं महेंद्र कर्मा, मेरे साथियों को मत मारो.

देखते ही देखते तकरीबन 50 गोलियां महेंद्र कर्मा के शरीर में चस्पां हो गईं. कितना जहर और नफरत उन के दिलोदिमाग में भरी थी इस का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता. नक्सलियों ने उन की लाश पर नाच किया, इन में औरतें भी शामिल थीं. इस दौरान वे नक्सली ‘माओवाद जिंदाबाद’ के नारे लगाते जा रहे थे और यह संदेश भी दे रहे थे कि अगर औपरेशन ग्रीन हंट बंद नहीं हुआ तो कांग्रेस के बाकी नेता भी इसी तरह मारे जाएंगे.

इस के बाद मौत के इस नंगे नाच में जो भी सामने आया, नक्सलियों ने उसे मारा. कांग्रेसी विधायक उदय मुदलियार भी मारे गए. छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और उन के बेटे दिनेश को तकरीबन 50 मीटर दूर जंगल में ले जा कर गोलियां मारी गईं.

सभी को मारना नक्सलियों का मकसद नहीं था. कुछ को वे जिंदा इसलिए जाने देना चाहते थे कि दहशत का यह नजारा देश देखे और ऐसा हुआ भी. विद्याचरण शुक्ल को 3 गोलियां लगीं.

महेंद्र कर्मा को जेड प्लस सुरक्षा मिली हुई थी. उन के एक गार्ड ने नक्सलियों पर फायरिंग की पर गोलियां खत्म हो गईं तो आखिरी गोली उस ने खुद को यह कहते मार ली कि मैं आप को बचा नहीं पाया. इस हादसे में तकरीबन 30 कांग्रेसी और सुरक्षा गार्ड मारे गए.

मंजर यह था कि लाशें सड़क पर बिछी थीं और घायल लोग जमीन पर पड़े कराह रहे थे, शाम तकरीबन 5 बजे के वक्त तीखी धूप इस घाटी पर थी. जैसेजैसे खबर जगदलपुर, रायपुर होते दिल्ली पहुंची तो देश अवाक् रह गया. तब किसी ने नहीं कहा कि यह कैसा लोकतंत्र है जिस में उस के नुमाइंदे ही सुरक्षित नहीं हैं.

बस्तर में दूरदूर तक घायलों को कोई राहत या चिकित्सा सुविधा नहीं थी. अधिकांश लोग वक्त पर इलाज न मिलने से मरे. विद्याचरण शुक्ल को शुरुआती चिकित्सा जगदलपुर में दी गई. इस के बाद उन्हें एअर ऐम्बुलैंस से गुड़गांव के मेदांता अस्पताल भेजा गया.

खिसियाहट और बेचारगी

जैसे ही हादसे की खबर फैली तो बजाय मुद्दे की बात होने के राजनीति होने लगी. छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी रायपुर में मीडिया के सामने रोते नजर आए. उन्होंने तुरंत राज्य सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग करते यह भी कहा कि छत्तीसगढ़ रमन सिंह से नहीं चलने वाला.

पहली हवा यह उड़ी, जो सच भी थी, कि छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार ने कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा को पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध नहीं कराई थी. सारी की सारी पुलिस फोर्स भाजपा की विकास यात्रा में लगा दी गई थी. विकास यात्रा की दैनिक समीक्षा सुरक्षा के मद्देनजर की जा रही थी. जबकि परिवर्तन यात्रा में नाममात्र को खाकी वरदी वाले थे. मुख्यमंत्री रमन सिंह को स्थायी एनएसजी की सुरक्षा मिली हुई है, इस के अलावा विकास यात्रा, जहां से भी गुजर रही थी वहां मकानों तक में सुरक्षाकर्मी तैनात किए गए थे.

मनमोहन सिंह ने हादसे को दुखद बताया पर सोनिया गांधी बेहद  झल्लाई नजर आईं. उन का कहना था कि यह लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला है. राहुल गांधी 25 मई की आधी रात को ही रायपुर पहुंचे और कांग्रेसियों की हिम्मत बंधाई.

मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी दूसरे दिन दोपहर रायपुर पहुंचे, मृतकों को श्रद्धांजलि दी, घायलों से मुलाकात की और मृतक कांग्रेसियों के परिजनों को सांत्वना दी, पर उन्होंने छोटे कांग्रेसियों की तरह रमन सिंह पर निशाना नहीं साधा.

भाजपा की तरफ से पहला बयान अध्यक्ष राजनाथ सिंह का आया जिस में इस हादसे पर राजनीति न करने की सलाह दी गई थी. राहुल गांधी भी थोड़ी देर बाद यही बात कहते नजर आए. केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश दिल्ली में यह कहते  झल्लाए कि उन नक्सलियों से कोई बात नहीं की जाएगी जिन की हमारे लोकतंत्र में कोई आस्था ही नहीं है.

2 दिन बाद ही देश के तमाम दल और राजनेता आपसी बैर भुला कर नक्सली मुद्दे पर एकजुट दिखे कि इन के आगे घुटने नहीं टेकने हैं, मिलजुल कर इन का मुकाबला करना है, और दरभा घाटी की कुर्बानियों को बेकार नहीं जाने दिया जाएगा.

पर हकीकत में होती राजनीति ही रही. छत्तीसगढ़ के एक वरिष्ठ पत्रकार राजीव रंजन श्रीवास्तव की मानें तो अफसोस की बात तो यही है कि 40 सालों से नक्सली मुद्दे पर राजनीति ही हो रही है. सुरक्षा के मामले में तो रमन सिंह की चूक और भेदभाव साफसाफ दिखाई दे रहे हैं पर असल मुद्दे यानी नक्सली मुहिम पर नेता बात करने से हमेशा की तरह कतरा रहे हैं. उलट इस के, एक दूसरे वरिष्ठ पत्रकार की नजरों में यह गहरा राजनीतिक षड्यंत्र है जिसे जांच में उजागर हो जाना है. नक्सली एकाएक ही बगैर राजनेताओं की मिलीभगत के ऐसी वारदात को तकनीकी तौर पर अंजाम नहीं दे सकते.

बात सच भी है. वजह, छत्तीसगढ़ में नक्सली वारदात नई बात नहीं. आएदिन नक्सली गांव वालों, कर्मचारियों, जवानों और नेताओं को मारते रहते हैं. राजीव रंजन कहते हैं कि अभी कुछ दिन पहले ही नक्सलियों ने नहीं बल्कि कोबरा बटालियन ने 8 ग्रामीणों को मार गिराया था, तब पत्ता भी नहीं हिला था. मानो उन की जान की कोई कीमत ही न हो.

नक्सलियों से निबटने के नाम पर केंद्रीय बलों के हजारों जवान छत्तीसगढ़ में डेरा डाले हुए हैं. ये जवान आदिवासी औरतों से अपनी यौन इच्छाएं पूरी करने के लिए उन के साथ जबरदस्ती करते हैं, बूटों से उन्हें मारते हैं, पर नक्सलियों से थर्राते हैं. वजह, इन की ज्यादतियों की शिकायत जब नक्सलियों तक पहुंची तो उन्होंने जवानों को मारना शुरू कर दिया.

अप्रैल 2010 में तो नक्सलियों ने सीआरपीएफ के 75 जवानों की हत्या कर दी थी. तब बेवजह अरुंधति राय ने दंतेवाड़ा के लोगों को लाल सलाम नहीं भेजा था. अरुंधति सरीखे तमाम मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को मालूम है कि हिफाजत के नाम पर तैनात ये जवान दरअसल आदिवासियों पर इस तरह का जुल्मोसितम ढाते हैं.

नई नक्सली नीति की घोषणा के पहले ही केंद्र सरकार ने हजारों जवान और छत्तीसगढ़ भेज दिए जो दरभा नरसंहार का बदला आदिवासियों से लें तो बात कतई हैरानी की नहीं होगी.

क्या यही रास्ता है

‘नक्सलियों के आगे घुटने नहीं टेकेंगे’ और ‘उन से कोई बातचीत नहीं करेंगे’ जैसी अपरिपक्व बचकानी बातें राजनीतिक जिद की देन हैं. लगता नहीं कि देश के नेता चाहे वे किसी भी दल के हों, नक्सली आंदोलन का मर्म सम झते हैं.

असल समस्या नक्सली हिंसा नहीं है. यह हिंसा तो शोषण और भेदभाव से संगठित रूप से उपजी है और यह आदिवासियों और शोषितों के उस वर्ग की देन है जो पढ़ालिखा है, बुद्धिजीवी है और लोकतंत्र के माने सम झता है. दरभा घाटी के वीभत्स नेता संहार को सलवा जुडूम से जोड़ कर देखा जाना कतई अचरज की बात नहीं बल्कि इस सच का हादसे के बाद बड़े पैमाने पर उजागर हो जाना सुखद बात है कि खुद महेंद्र कर्मा नक्सलियों की तर्ज पर आदिवासी युवाओं को हथियार चलाना और हिंसा करना सिखा रहे थे.

हिंसा से परहेज करने वाले कांग्रेसी तो कांग्रेसी भाजपाई भी सलवा जुडूम का समर्थन करने लगे थे. साल 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे नाजायज करार देते हुए इस पर रोक लगाने का फैसला दिया था पर तब तक बात काफी बिगड़ चुकी थी. वजह, सलवा जुडूम के कार्यकर्ता हाथ में हथियार लेते ही आदिवासियों पर जुल्म ढाने लगे थे जो कम से कम नक्सलियों को तो गवारा नहीं था.

समस्या की गंभीरता का अंदाजा या एहसास किसे है, इस सवाल का

जवाब कोई एकदम से नहीं दे सकता. छत्तीसगढ़ के ही मानवाधिकार कार्यकर्ता

डा. विनायक सेन का मुंह बंद करने के लिए भाजपा और रमन सिंह काफी निचले स्तर पर आ गए थे. विनायक सेन वही कह रहे थे जो मध्य प्रदेश के कृषि अधिकारी ने बताया कि कैसेकैसे आदिवासियों का शोषण होता है, उन पर पुलिस अत्याचार ढाती है, उन के साथ जातिगत भेदभाव किया जाता है, उस से बंधुआ मजदूर की तरह मजदूरी कराई जाती है, आदिवासी औरतों का बलात्कार किया जाता है और उन्हें पिछड़ा बनाए रखने के लिए मूलभूत सुविधाओं से वंचित रखा जाता है.

नक्सलवादी आंदोलन इन्हीं ज्यादतियों के खिलाफ शुरू हुआ था जो अब आक्रोशित आदिवासी चेतना का पर्याय बन चुका है.

विनायक सेन की पत्नी इलिना सेन ने वर्धा में एक अनौपचारिक बातचीत में विस्तार से हमें छत्तीसगढ़ के अंदरूनी हालात बताए थे. बेहद व्यथित हो कर उन्होंने कहा था कि हम हिंसा का समर्थन किसी भी शर्त पर नहीं करते पर आदिवासियों के हक में अपनी बात तो कहेंगे और यह हक हम से कोई सरकार या अदालत नहीं छीन सकती.

नक्सल प्रभावित इलाकों में नक्सलियों की समानांतर सरकार चलती है. भीतरी इलाकों में तो हालत यह है कि लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार का कोई वजूद ही नहीं है. शायद ही कोई, खासतौर से मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, यकीन करे कि मंडला जिले के कई इलाकों में नक्सलियों का फरमान चलता है. और शिवराज सिंह कहते हैं कि मध्य प्रदेश में नक्सली नहीं हैं.

फिर छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, ओडिशा,  झारखंड और आंध्र प्रदेश के हालात का अंदाजा सहज लगाया जा सकता है कि वहां के आदिवासी इलाकों में लोकतंत्र नहीं, नक्सली तंत्र चलता है और जिसे आम लोगों का समर्थन मिला हुआ है. और कोई राज्य या केंद्र सरकार नहीं चाहती कि यह बात उजागर हो, इसलिए बात हमेशा की तरह निबटने की की जा रही है.

इस दफा चूंकि थोक में कांग्रेसी नेता मारे गए हैं इसलिए कांग्रेस तिलमिला उठी है पर उस की कुछ न कर पाने की बेबसी भी साफ दिख रही है. यह बेबसी राजनीतिक कभी नहीं थी, इस बार नक्सलियों ने बना दी है और साफ कर दिया है कि उन की बात न सुनी गई तो इस हादसे को आगाज भर माना जाना चाहिए.

कांग्रेस और भाजपा दोनों ही सवर्णवाद की पोषक पार्टियां हैं जिन्होंने राजनीतिक तौर पर तो मार्क्सवादियों को खत्म सा कर दिया पर वैचारिक स्तर पर माओवादियों को नहीं कर पा रहीं. वजह, नक्सली राजनीति नहीं करते. उन्हें मालूम है कि सत्ता का स्वाद लगने का मतलब है अपने मकसद से भटकना, जो वे किसी भी कीमत पर नहीं चाहते.

दरभा हमले की तह में असल बात यह है कि आदिवासियों को जंगली और जानवर न सम झा जाए, वे भी देश के आम नागरिक हैं जिन से काफी कुछ इस लोकतंत्र ने छीना है जिस में सरकारी तंत्र ने इफरात से बेईमानी की. उन से खेतीकिसानी का हक छीना और विस्थापन के नाम पर खूब नचाया, भगाया. हालिया एक रिपोर्ट में उजागर यह बात अब कम चिंता की नहीं कि छत्तीसगढ़ में 3 लाख किसान कम हुए हैं और 7 लाख मजदूर बढ़े हैं. आदिवासी किसान से मजदूर क्यों होता जा रहा है, इस का जवाब और हल वक्त रहते नहीं ढूंढ़ा गया तो सरकार को ऐसे और हादसे  झेलने को तैयार रहना चाहिए.

ऐसा भी होता है

मैं आगरा से भोपाल झेलम ऐक्सप्रैस से जा रही थी. साथ में केंद्रीय हिंदी संस्थान के कुछ विदेशी छात्र झांसी घूमने जा रहे थे. एसी कोच के साथ समस्या रहती है कि शीशे में से झांक कर स्थान देखना पड़ता है. छात्रों के साथ 2 शिक्षक भी थे. ट्रेन काफी देरी से चल रही थी, इसलिए स्टेशन नियत समय पर नहीं आ रहे थे. शिक्षक हर स्टेशन झांक कर देख लेते थे. ग्वालियर पर गाड़ी रुकी तो शिक्षक ने एक छात्र से कहा, ‘‘देखो कौन सा स्टेशन है.’’ छात्र ने शीशे में से झांका. सामने लिखे को पढ़ा और बोला, ‘‘सर, महिला शौचालय स्टेशन आया है.’’

मैं ने खिड़की से देखा, सामने ही महिला शौचालय था, हंसतेहंसते बुरा हाल हो गया. वे छात्र हिंदी सीखने आए थे. उन्होंने अभी वर्णमाला और जोड़जोड़ कर पढ़ना ही सीखा था. अटकअटक कर विदेशी उच्चारण से हिंदी बोलने की कोशिश कर रहे थे.

डा. शशि गोयल, आगरा (उ.प्र.)

 

हमारे एक परिचित हैं. उन की अपनी छोटी सी फैक्टरी में मिक्सी के पार्ट्स बनते थे. अच्छा काम चल रहा था. 2 वर्ष पहले वर्कर्स के मन में बेईमानी आ गई. किसी तरह फैक्टरी के बाहर वाले ताले की डुप्लीकेट चाबी बनवा ली और रात में 4-5 घंटे काम करने लगे. जो सामान रात को बनता उसे छुट्टी के दिन बेच आते.

मालिक को घाटा होता गया और वर्कर्स मालामाल होते गए.कुछ महीने पहले फैक्टरी बेचने की नौबत आ गई. उन के वर्कर्स ने ही मिल कर फैक्टरी खरीद ली.

निर्मल कांता गुप्ता, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

 

कुछ समय पूर्व मेरे परिचित के बेटे को पीलिया हो गया. मैं उसे देखने अस्पताल गई तो वहां पर एक महिला मेरे परिचित से बोल रही थी, ‘‘यह धागा मैं अभिमंत्रित करवा कर लाई हूं. इसे पहना दो. दवाओं से कुछ नहीं होगा. पीलिया तो मंत्र से ही ठीक होता है.’’ चूंकि मैं ने ‘अंधविश्वास उन्मूलन’ हेतु अपनी एक कहानी में इसी बात का जिक्र किया था तो सोचा, चलो, क्यों न यथार्थ में इसे अमल में लाया जाए.

मैं ने उस महिला से कहा, ‘‘आप दोनों मेरे साथ आएंगी?’’ हामी भरते हुए वे मेरे साथ मैदान में आईं. वहां चींटियों का झुंड था, मैं ने कहा, ‘‘इस पर मंत्र किया हुआ धागा फेर दो.’’ उस ने वैसा ही किया. चींटियां अभी भी वैसे ही घूम रही थीं.

चींटी पाउडर मंगा कर छोड़ा तो प्रभाव दिखने लगा. अब मैं ने उन महिलाओं को समझाया कि किसी भी बीमारी के कीटाणु मंत्र पढ़ने से नहीं बल्कि दवाओं से मरते हैं. मैं खुश हो कर बुदबुदाई ‘ऐसा भी होता है.’

 बकुला पारेख, इंदौर (म.प्र.) 

दिल अपना

दिल अपना दर्द का भंडार बन गया

जैसे तमाम गमों का इश्तिहार बन गया

 

पहले तो न थे हम इस तरह के आदमी

देखा उसे जब से दिल बीमार बन गया

 

खुशियां तमाम रूठी रहीं हम से जहान की

जीना हमारा खुशी का इंतजार बन गया

 

वो प्यारभरे लमहे न जाने कहां गुम हुए

अब गुफ्तगू का मतलब तकरार बन गया

 

दुनिया झुकती है सिर्फ दौलत वालों से

दौलत जिसे मिली वही इज्जतदार बन गया.

 हरीश कुमार ‘अमित’

 

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