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खुद से पूछे

दो घड़ी तन्हा भी बैठा जाए
कैसे हो खुद से ये पूछा जाए

नहीं दिखता बहुत करीब से भी
तुम को कुछ दूर से देखा जाए

अपने बारे में सभी सोचते हैं
सब के बारे में भी सोचा जाए

इल्म की शमा को रौशन कर के
तीरगी का गुमां तोड़ा जाए

सब को खुद ही तलाशनी मंजिल
जाते राही को न रोका जाए

घर तो अपना सजा लिया ऐ ‘सरल’
दिल के जालों को भी झाड़ा जाए.

मुकुल सरल
 

इंसाफ करो अब

न्याय की मूर्ति
पट्टी खोलो और देखो
देख कर ही समझ आएंगी
बहुत सी बातें
सुन कर जो न्याय किया
वो अन्याय ही था

देखो बढ़ती पेशी से
ढलती उम्र को
देखो गवाह के चेहरे को
सच बोल रहा है
या पैसे खा कर
बना हुआ है झूठा गवाह

कटघरे में खड़ा हुआ
मुल्जिम है या नेक आदमी
तारीख देदे कर आदमी
जवान से बूढ़ा हो गया
न्याय के लिए चक्कर लगालगा
चप्पलें घिस गईं, उम्र बीत गई

जिस के पास सुबूत नहीं
अपने बचाव में
क्या वह अपराधी है
जिस के पास गवाह हैं
सुबूत हैं
क्या वह निर्दोष है

देखो न्याय की मूर्ति
आंखों से देखो, पट्टी खोलो
कहीं पुलिस झूठा केस
बना कर तो नहीं लाई
इंसाफ करो अब
बंद करो नाटक न्याय का.

देवेंद्र कुमार मिश्रा
 

दफ्तर में रोमांस

इन्फौर्मेशन टैक्नोलौजी उद्योग के एक जानेमाने नाम फणीश मूर्ति, जो पहले इन्फोसिस और बाद में आई गेट जैसी कंपनियों को नई बुलंदियों तक ले जाने के लिए दुनियाभर में मशहूर रहे हैं, साल 2013 में एक बार फिर एक महिला कर्मचारी के साथ सैक्स संबंध बनाने के आरोप में आई गेट की अपनी नौकरी खो चुके थे. 2002 में उन्हें ऐसे ही एक आरोप के चलते इन्फोसिस से निकाल दिया गया था. उद्योग जगत ने सोचा था कि इस अप्रिय हादसे के बाद वे अपनी हरकतों से बाज आ जाएंगे. लेकिन शायद फणीश किसी दूसरी ही मिट्टी के बने हैं. उन के लिए सुंदर महिलाओं का संसर्ग भी उतना ही जरूरी बन गया है जितना किसी कंपनी के मुनाफे के आंकड़ों को नई ऊंचाइयों पर ले जाना.

फणीश ने जब इन्फोसिस का अमेरिकी कारोबार संभाला था, तब कंपनी का कुल व्यापार 70 लाख अमेरिकी डौलर ही था, जिसे वे 10 साल के अपने कार्यकाल के दौरान 70 करोड़ डौलर तक पहुंचाने में कामयाब रहे. इस बीच कंपनी की कई महिला कर्मचारियों से उन के शारीरिक संबंध होने की अफवाहें उड़ीं लेकिन बात कभी कोर्टकचहरी तक नहीं पहुंची. लेकिन उन की ऐक्जिक्यूटिव सैके्रटरी रेका मैक्सीमोविच ने उन पर यौन शोषण का आरोप लगा कर मामला अदालत तक पहुंचा दिया.

रेका ने यह भी आरोप लगाया कि उसे गलत तरीके से कंपनी की नौकरी से निकाल दिया गया था. बहुत मुमकिन है कि फणीश के लिए रेका का रोमांस सिरदर्द बन गया हो और इसीलिए उन्होंने उस से पीछा छुड़ाने के लिए उसे नौकरी से निकाल दिया हो. तब इन्फोसिस के चेयरमैन एन आर नारायणमूर्ति ने कंपनी को बदनामी से बचाने के लिए 30 लाख डौलर की बड़ी रकम रेका को मुआवजे में दे कर कोर्ट के बाहर ही मामले को रफादफा कर दिया था. इस हादसे के बाद ही फणीश को इन्फोसिस की अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा था.

आई गेट के मालिकों से फणीश के जीवन की इतनी बड़ी सचाई छिपी नहीं थी. इतना ही नहीं, उन के आई गेट के सीईओ पद पर कार्य करने के दौरान भी 2004 में फणीश ने इन्फोसिस की ही एक दूसरी महिला कर्मचारी जेनिफर ग्रिफिथ के यौन शोषण के आरोप में लंबे समय से चल रहे मुकदमे से बचने के लिए उसे 8 लाख डौलर की रकम मुआवजे के रूप में चुका कर किसी तरह जेनिफर से अपना पिंड छुड़ाया था.

इन सारे तथ्यों की जानकारी के बावजूद आई गेट ने फणीश की कार्यकुशलता के कारण ही उन्हें इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी थी और अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर वे आई गेट को भी प्रगति की नई डगर पर अग्रसर करने में कामयाब रहे थे. लेकिन इस बार फिर उन की ही एक सहकर्मी ने उन पर यौन शोषण का आरोप लगा कर इस कंपनी को भी उन्हें नौकरी से बर्खास्त करने के लिए मजबूर कर दिया.

कंपनी का कहना है कि फणीश ने किसी महिला कर्मचारी से अपने संबंधों की बात कंपनी को न बता कर नियमों को तोड़ा है और इसीलिए उन्हें नौकरी से निकाला जा रहा है. इस बार फणीश की दलील यह है कि यह महिला मुझे ब्लैकमेल कर रही है, तभी तो उस ने मुझ से पैसा ऐंठने के लिए रेका मैक्सोविच के वकील को रखा है. यहां पर यह उल्लेखनीय है कि फणीश को 2 महीने पहले ही इस बात की भनक लग गई थी कि आई गेट को अपनी साख बचाने के लिए उन्हें नौकरी से निकालना पड़ेगा और इसीलिए उन्होंने इन 2 महीनों के दौरान आई गेट के अपने डेढ़ लाख शेयर बेच दिए थे. उन्होंने अपने 1 लाख 4 हजार 459 शेयर 6 मार्च को 18.88 डौलर प्रति शेयर से भाव से बेचे, जिस से उन्हें 10 लाख 17 हजार डौलर की बड़ी रकम मिली. इस के 1 महीने बाद उन्होंने 40 हजार शेयर 17.1 डौलर के भाव से बेच कर 6 लाख 84 हजार डौलर वसूल कर लिए. जैसे ही फणीश को नौकरी से निकालने की खबर बाजार में पहुंची, शेयर के दाम गिर कर 14.82 डौलर पर पहुंच गए. इस बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि फणीश कितने तेज व्यापारी हैं, जो अपनी विपरीत परिस्थितियों का भी लाभ उठाना जानते हैं.

अमेरिका जैसे देशों में महिला कर्मचारियों का यौन शोषण करने के खिलाफ कड़े कानून हैं, जबकि हमारे देश में ऐसे कारगर कानूनों का अभाव है और इसीलिए आज भी हमारे यहां अकसर बौस अपनी महिला कर्मचारियों का यौन शोषण बेखौफ करता रहता है. यह मामला एकतरफा बिलकुल नहीं होता, कई बार महिला कर्मचारी भी प्रमोशन की सीढि़यां जल्दीजल्दी चढ़ने के लिए बौस को रिझाने की कोशिश करती रहती है.

ऐसा ही मुंबई की एक बड़ी कंपनी का मामला पिछले दिनों सामने आया था जिस में कंपनी के एक चोटी के अधिकारी का अपनी सैके्रटरी से चक्कर शुरू हो गया था. उस अधिकारी ने थोड़े से समय में ही अपनी सेक्रेटरी को एक सुंदर घर और एक कार तो खरीद कर दे ही डाली, साथ ही उसे एक ऊंचा ओहदा दे कर हमेशा के लिए उस की जिंदगी संवार दी. अगर फणीश भारत में काम कर रहे होते तो शायद उन्हें कंपनी से कभी निकाला ही नहीं जाता, इस के बदले कितनी ही महिला कर्मचारियों को उन की ज्यादतियां बरदाश्त करनी पड़ रही होतीं. कड़े कानूनों के कारण ही उन्हें 2 बार न सिर्फ अपनी 2 नौकरियां छोड़नी पड़ीं, बल्कि बड़ीबड़ी रकमें मुआवजे के तौर पर देनी भी पड़ीं.

भारत में युवाओं की संख्या दफ्तरों में बढ़ती जा रही है. ऐसे में लड़केलड़कियों के बीच संबंध कायम होना स्वाभाविक है. कई बार ऐसा देखा जाता है कि दफ्तर की यही जानपहचान आगे चल कर रोमांस और फिर शादी में परिवर्तित हो जाती है. भारत में कंपनियां अकसर इस तरह के विवाहों और रोमांस पर पाबंदी नहीं लगातीं, लेकिन फिर भी कर्मचारियों की कार्यक्षमता को बढ़ाए रखने के लिए अकसर इस बात का ध्यान रखा जाता है कि पतिपत्नी को एक ही विभाग में न रखा जाए. माइक्रोसौफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स व मेलिंडा का रोमांस भी दफ्तर में जन्मा था, जो आखिर एक सफल पतिपत्नी के रिश्ते में परिवर्तित हो गया. अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा को भी उन की पत्नी मिशेल एक दफ्तर में साथसाथ काम करने के दौरान ही मिलीं थीं. इस तरह की प्रेम कहानियों पर भला किसे आपत्ति हो सकती है, लेकिन बात तब समस्या बन जाती है जब यह संबंध केवल वासनापूर्ति के लिए कायम किया जाता है. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्ंिलटन, आईएमएफ के पूर्व प्रमुख डोमिनीक स्ट्रौसकान व लेखक डैविड डैवीडार ऐसे ही वासनापूर्ति वाले संबंधों के कुछ उदाहरण हैं, जिन में पुरुष हस्तियों ने अपने पद व शक्ति का दुरुपयोग कर के अपने नीचे काम करने वाली लड़कियों का शोषण किया.

जहां तक हमारे देश में दफ्तरों में होने वाले रोमांस का सवाल है, एम्सटरडम की एक कंपनी रैनस्टैंड द्वारा 2012 में किए गए एक सर्वेक्षण से यह तथ्य उजागर हुआ है कि हमारे यहां 70 प्रतिशत कर्मचारी दफ्तर में रोमांस कर चुके थे. यह संख्या जापान (33 प्रतिशत) तथा लक्समबर्ग (36 प्रतिशत) जैसे अन्य देशों के मुकाबले बहुत ज्यादा है. शायद इस का कारण यही है कि हमारे देश में इस संबंध में कोई स्पष्ट नीति नहीं अपनाई गई है.

हमारी कंपनियां भी इस मामले में कोई कड़ा रुख अपनाना पसंद नहीं करतीं. एक वरिष्ठ अधिकारी के शब्दों में, ‘‘भारत में दफ्तर में पनपा रोमांस कभी कोर्टकचहरी तक नहीं पहुंचा और उस की वजह से किसी कंपनी को कभी कोई भारी मुआवजा भी नहीं चुकाना पड़ा. शायद इसीलिए कंपनियां ऐसे मामलों को गंभीरता से नहीं लेतीं. इस के विपरीत अकसर दफ्तर को रोमांस व अपना सही पार्टनर ढूंढ़ने का एक सही स्थान माना जाता है.

‘ट्रूलीमैडलीडीपली’ नामक डेटिंग की एक वैबसाइट के संस्थापक चैतन्य रामलिंगेगोवड़ा का इस विषय में कहना है, ‘‘लोग अकसर रोज 8-10 घंटे अपने दफ्तर में बिताते हैं. इस के अलावा उन का 1 से 2 घंटे का समय दफ्तर आनेजाने में व्यतीत हो जाता है. इस सब के बाद रोमांस व लाइफपार्टनर ढूंढ़ने के लिए उन के पास समय ही कहां बचता है. इसलिए वे इस कमी को दफ्तर में ही पूरी करने की कोशिश करते हैं.’’

भारत में खासतौर पर आईटी उद्योग से जुड़े लोग इस बात को स्वीकार करते हैं कि प्यार व काम दफ्तर में सही ढंग से चल सकते हैं और इस से कंपनी को कोई नुकसान पहुंचने की संभावना नहीं है. उदाहरण के तौर पर याहू इंडिया में औफिस में पनपने वाले संबंधों पर कोई रोकटोक नहीं है. इस कंपनी के ह्यूमन रिसोर्सेज विभाग के प्रमुख अनिरुद्ध बनर्जी का कहना है, ‘‘हम कर्मचारियों के साथसाथ कौफी पीने या सिगरेट पीने जाने या महिला व पुरुष कर्मचारियों के साथसाथ बाहर जाने को कतई बुरा नहीं मानते.’’ इस विषय में एक अन्य प्रमुख कंपनी एनआईआईटी के वाइसप्रेसिडैंट प्रतीक चटर्जी ने अपने विचार कुछ इस तरह व्यक्त किए, ‘‘हम अपने कर्मचारियों की बहुत इज्जत करते हैं और अगर वे अपने जीवनसाथी को काम के दौरान कंपनी में से ही चुन लेते हैं, तो हम उन का स्वागत करते हैं.’’

अंत में इस विषय में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि एक ओर जहां दफ्तर का रोमांस, जो आखिरकार विवाहबंधन में परिणित हो जाता है, दो व्यक्तियों के जीवन में एक सार्थक भूमिका निभा सकता है, वहीं दूसरी तरफ दफ्तर में होने वाला यौन शोषण कैंसर जैसी किसी बीमारी से कम नहीं, जो न केवल संबंधित महिला के जीवन को नीरसता में बदल देता है, बल्कि उस दफ्तर के पूरे माहौल को भी दूषित कर देता है.

कुरसी की लड़ाई नेताओं की आपसी खिंचाई

देश की वर्तमान राजनीति में राजनेता अपनी सैद्धांतिक, वैचारिक और व्यावहारिक जमीन पूरी तरह से खोते जा रहे हैं. वे धर्म, राज्य, जाति और इलाकों के नाम पर राजनीतिक बिसात बिछा कर सत्ता पाने की ख्वाहिश पाले बैठे हैं. देश के हर कोने तक पैठ बनाने वाले देश में एक भी सर्वमान्य नेता का न होना स्वतंत्र भारत के राजनीतिक भविष्य के स्याह चेहरे को उजागर करता प्रतीत हो रहा है. पेश है कपिल अग्रवाल का लेख.

अब जबकि आम चुनाव में सालभर भी नहीं बचा है, स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र दल आपस में टांग खिंचाई में लगे हुए हैं. किसी भी दल में इतनी कूवत नहीं है कि वह अकेले दम पर चुनाव लड़ कर पूर्ण बहुमत से राज कर ले, यहां तक कि कांगे्रस व भाजपा जैसे तथाकथित देशव्यापी दलों की भी अकेले चलने की हिम्मत नहीं है. आज हिंदुस्तान इतना बंट चुका है कि कोनेकोने में छोटेछोटे गुटों के नेता अपनेअपने उम्मीदवार खड़े कर चुनाव में कूदते हैं और 2-3 सीटें भी हाथ लग गईं तो बादशाह बन जाते हैं.

आजादी के 66 साल बाद आज हिंदुस्तान की धरती पर एक भी ऐसा दल व नेता नहीं है जिस की देश के कोनेकोने में पैठ हो. इस फेहरिस्त में राहुल गांधी, नरेंद्र मोदी, ममता बनर्जी से ले कर मायावती व मुलायम सिंह यादव सभी नेताओं के नाम आते हैं. इन को भिन्नभिन्न मौकों पर आजमाया जा चुका है, सारे के सारे फ्लौप रहे हैं.

कहते हैं असली नेता, ताकत, योग्यता, कार्यकुशलता, दोस्त व सगेसंबंधी की पहचान मुसीबत या विपरीत परिस्थितियों में होती है. यह उक्ति हर कद्दावर नेता पर लागू होती है. मोदी को ही लें. कर्नाटक में भाजपा के लिए अत्यंत विपरीत परिस्थितियां थीं और सबकुछ हराहरा नहीं था, फलत: मोदी कुछ नहीं छील पाए. गत वर्ष संपन्न हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मायावती विरोधी लहर का फायदा न तो राहुल गांधी का करिश्माई व्यक्तित्व उठा पाया और न ही नरेंद्र मोदी का विकास मौडल. यानी राहुल गांधी अमेठी व मोदी गुजरात के बाहर लगभग जीरो हैं. बेसिरपैर के मुद्दों को ले कर तनाव व कलह का वातावरण बना देना और अच्छेखासे चल रहे राजकाज को बरबादी के कगार पर पहुंचा देना नेताओं का ‘प्रिय’ खेल है.

बिहार इस का ताजा उदाहरण है, जहां अच्छेखासे चल रहे गठबंधन को बेसिरपैर के मुद्दों के चलते तोड़ डाला गया. सोचने वाली बात है कि एक ओर नीतीश कुमार उस भाजपा की मदद से सरकार चलाने में जरा भी कष्ट का अनुभव नहीं करते जिस के नेतृत्व में अयोध्या की विवादास्पद बाबरी मसजिद गिराई गई, उस कांगे्रस के भी मुरीद हैं जिस के सान्निध्य में वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख विरोधी दंगे हुए, पर उन्हें नरेंद्र मोदी से बड़ी जबरदस्त नफरत है जिन के मुख्यमंत्रित्व काल में गुजरात में वर्ष 2002 में दंगे व नरसंहार हुए थे.

यहां सब से बड़ी बात यह है कि बाबरी मसजिद विध्वंस व सिख विरोधी दंगों में क्रमश: भाजपा व कांगे्रस का हाथ स्पष्ट रूप से तमाम राष्ट्रीय- अंतर्राष्ट्रीय जांचों में सिद्ध हो चुका है पर मोदी तमाम जांचों में अब तक बेदाग सिद्ध हुए हैं. दरअसल, आपसी विश्वास व एकता की कमी भारत के बहुलवादी हिंदू समाज की नैसर्गिक मूल विशेषता है जिस का खमियाजा आज तक हमारा देश कदमकदम पर भुगत रहा है पर दलों व नेताओं को इस बात की जरा भी चिंता नहीं है. गुजरात दंगों के बाद से मीडिया व तमाम विरोधियों के षड्यंत्रकारी, अनर्गल प्रचार के बावजूद मोदी लगातार चुनाव जीतते चले आ रहे हैं, इस के बावजूद नीतीश जैसे नेता कष्ट का अनुभव कर रहे हैं.

सिख विरोधी दंगे हों या मुसलमान विरोधी दंगे, कानून की नजर में दोनों एक जैसे हैं. नेताओं ने अलगअलग पैमाने क्यों बना रखे हैं? गनीमत यह है कि नेताओं व दलों को सत्ता तक पहुंचाने या न पहुंचाने का फैसला करने का अधिकार जनता को मिला हुआ है और तभी यह देश बचा भी हुआ है, वरना हालात का अंदाज सहजता से लगाया जा सकता है.

अलगअलग मोरचे पर हर इंसान का प्रदर्शन अलगअलग होता है. लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में तो असफल रहे, पर रेलमंत्री के तौर पर उन का कार्यकाल बेहद सफल रहा. नीतीश रेल मंत्रालय में तो कामयाब नहीं हो पाए, मगर बिहार की गद्दी रास आ गई. जिस समय नीतीश को बिहार मिला उस वक्त बिहार लगभग बरबादी के कगार पर था. खजाना खाली व चारों ओर अराजकता, अव्यवस्था व लूटखसोट का माहौल था. ऐसे में बिहार को संभालना व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करना नीतीश की योग्यता व कार्यकुशलता का एक बड़ा अच्छा व ज्वलंत नमूना है.

एक प्रकार से नीतीश ने अपनी योग्यता सिद्ध कर दी है. दूसरी ओर मोदी को अभी अपनी योग्यता सिद्ध करनी है, क्योंकि जब उन्होंने गुजरात की पहली बार गद्दी संभाली थी तो हालात ज्यादा खराब नहीं थे. एक प्रकार से बहुत ठीकठाक साम्राज्य उन्हें विरासत में मिला था. पकीपकाई खीर खाने व खुद बना कर खाने में अंतर तो होता ही है. यानी मोदी को अभी अपनी प्रशासनिक योग्यता सिद्ध करनी है.

नीतीश काफी अक्खड़, अवसरवादी व दंभी स्वभाव के हैं. मार्च 2000 में जब भाजपा के साथ मिल कर सरकार बनाने की बात आई तो 65 भाजपाई विधायकों के साथ सुशील कुमार मोदी मुख्यमंत्री पद की शपथ के लिए मुकर्रर हो गए थे, पर ऐन वक्त पर केवल 35 विधायकों के साथ नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद के लिए अड़ गए. इसी प्रकार कुल 7 साल तक चली भाजपा व जनता दल यूनाइटेड यानी जदयू की सरकार पर अपनी पार्टी का पूर्ण क्या आधा बहुमत भी न होने के बावजूद नीतीश राजा बने रहे.

दूसरी ओर तमाम राजनीतिज्ञ व राजनीतिशास्त्र के कई पंडित मोदी को कुटिल राजनीतिज्ञ मगर तानाशाही प्रवृत्ति वाला मानते हैं. जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के राजनीति विभाग के एक विशेषज्ञ विश्लेषक का मानना है कि मोदी की राजनीति व योग्यता राज्य स्तर तक तो ठीक है पर राष्ट्र स्तर पर नहीं. राज्य स्तर पर विरोध बेहद सीमित होता है और शासक को पूर्ण निरंकुशता का लाभ मिलता है, परंतु राष्ट्रीय स्तर पर स्थिति इस के बिलकुल उलट होती है. उन के मुताबिक मोदी इस में सक्षम नहीं हैं.

जहां तक राहुल गांधी की बात है, 10 साल से वे कांगे्रस को मजबूत करने में लगे हुए हैं परंतु किसी भी मोरचे पर कोई उल्लेखनीय उपलब्धि उन के खाते में नहीं है. चूंकि अभी तक कोई प्रशासनिक पद (मुख्यमंत्री या मंत्री) उन्होंने नहीं लिया है इसलिए यह कसौटी अभी अबूझ है.

दरअसल राजनीति, पार्टी व सरकार तीनों अलगअलग विधाएं हैं और इस में औलराउंडर होना लगभग नामुमकिन सा है. लाखों में कोई विरला ही होता है जो तीनों विधाओं को साधने में माहिर होता है. कांगे्रस में जहां एक परिवार विशेष का प्रभुत्व कई दशकों से लगातार (बीच के कुछ सालों को छोड़ कर) चलता चला आ रहा है वहीं भाजपा कदमकदम पर अंतर्विरोध व कलह में डूबी हुई है.

अगर कांगे्रस की बात करें तो पार्टी अध्यक्ष ने जिसे चाहा प्रधानमंत्री बना दिया, जिसे चाहा राष्ट्रपति बना दिया. योग्यता, जनाधार, विरोध, मतभेद सब एक तरफ और पार्टी अध्यक्ष की निजी राय एक तरफ. इस संदर्भ में शक्तिशाली क्षेत्रीय दल द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक), समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) व तृणमूल कांगे्रस की एकता व अनुशासन और अखंडता काबिलेतारीफ है. पार्टी प्रमुख व उन के फैसलों के स्तर पर इन में आंतरिक मतभेद लगभग न के बराबर हैं.

दूसरी ओर भाजपा ऐसे नेताओं की पार्टी बन कर रह गई है जो उसी प्रकार लड़ते हैं जैसे स्कूल में छात्र क्लास में आगे बैठने की सीट के लिए लड़ते हैं. अपनेआप को देखे बिना कोई भी अपनी सीट छोड़ना नहीं चाहता. कोई भी अपनी स्थिति से टस से मस होने को राजी नहीं. यानी देश के राजनीतिक हालात आज भी वैसे ही हैं जैसे डेढ़ दशक पहले थे. परिस्थितियां बदल रही हैं, माहौल बदल रहा है, पर जो नहीं बदल रहे हैं वे हैं हमारे दल, जिन का रवैया, सोच व कार्यप्रणाली आज भी बिलकुल वैसी ही है जैसे आज से 30 साल पहले थी.

घूसखोरी घूस की मार देश बीमार

घूसखोरी दीमक की तरह समाज की जड़ों को खोखला कर रही है. निचले तबके से ले कर ऊंची कुरसी पर बैठे सभी इस में लिप्त हैं. कानून व सरकारी तंत्र की लस्तपस्त व्यवस्था के कारण घूस लेनेदेने के तौर- तरीके बदल रहे हैं. घूस के ऐसे ही कुछ नमूने पेश कर रहे हैं भारत भूषण श्रीवास्तव.

मध्य प्रदेश के शहडोल जिले के गोहपारु थाने के असिस्टैंट सब इंस्पैक्टर एम एल शुक्ला को 7 मई को लोकायुक्त पुलिस, रीवा ने 3 हजार रुपए की रिश्वत लेते रंगेहाथों पकड़ा. मारपीट के एक मामले को रफादफा करने के लिए आरोपी से यह घूस ली जा रही थी.

शाजापुर जिले के आगर मालवा के ब्लौक मैडिकल औफिसर डा. आर एल मालवीय को 9 मई को 250 रुपए की घूस लेते वक्त लोकायुक्त पुलिस उज्जैन द्वारा गिरफ्तार किया गया. सेमली गांव निवासी सरकारी तौर पर घोषित एक गरीब आदमी अनवर खां की 10 वर्षीय बेटी फरजाना के कान में चांदी का घुंघरू फंस गया था, अस्पताल में इलाज के लिए ले जाने पर उक्त डाक्टर ने 450 रुपए मांगे थे.

9 मई को ही शाजापुर के गांव अकोदिया के पटवारी संतोष सोलंकी को उज्जैन लोकायुक्त ने एक किसान से 3 हजार रुपए की घूस लेते रंगेहाथों पकड़ा. घूस नामांतरण के लिए ली गई थी. सौदा कुल 8 हजार रुपए में तय हुआ था जिस में से 5 हजार रुपए पीडि़त किसान पूर्व में उक्त पटवारी को दे चुका था.उज्जैन जनपद पंचायत के सहायक मंत्री कमल सिंह सिसौदिया को 20 हजार रुपए की रिश्वत लेते रंगेहाथों लोकायुक्त द्वारा पकड़ा गया. नयागांव के सरपंच नरेंद्र सिंह से यह रिश्वत एक सरकारी इमारत बनवाने की इजाजत के लिए ली गई थी. कुल सौदा 1 लाख रुपए में तय हुआ था.

भोपाल में 8 मई को स्कूली शिक्षा विभाग के एक ब्लौक एकेडमिक  कोऔर्डिनेटर विक्रम सिंह प्रजापति को लोकायुक्त ने 4 हजार रुपए की रिश्वत लेते रंगेहाथों गिरफ्तार किया. यह घूस एक स्कूल को मान्यता देने के एवज में मांगी गई थी. भोपाल के टीटी नगर इलाके में बीआरसी यानी विकास खंड स्रोत समन्वय कार्यालय है. यह विभाग स्कूलों का निरीक्षण तयशुदा मानदंडों पर करता है. कुछ दिन पहले वी एस प्रजापति ने निजामुद्दीन कालोनी स्थित स्कौलर स्कूल का निरीक्षण किया था और मान्यता देने के लिए 4 हजार रुपए एस ए अहमद नाम के शिक्षक से मांगे थे.

8 मई को मंदसौर जिले के पीपल्या मंडी शासकीय कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के प्रभारी प्राचार्य जे के डोसी को लोकायुक्त दल द्वारा 4 हजार रुपए की रिश्वत लेते हुए रंगेहाथों गिरफ्तार किया गया. यह रिश्वत राकेश काबरा, कमलेश पाटीदार और संजय पंवार नाम के अनुबंधित शिक्षकों से पिछले डेढ़ महीने की पगार निकालने के बाबत ली गई थी.

3 दिन में रिश्वत के ये 7 बड़े मामले केवल मध्य प्रदेश के हैं. राज्य में औसतन हर दिन 2 मुलाजिम घूस लेते रंगेहाथों पकड़े जाते हैं. पकड़े गए 90 फीसदी मुलाजिम छोटे पद वाले होते हैं. 10 फीसदी ही बड़े यानी मगरमच्छ होते हैं जिन से करोड़ोंअरबों की नामीबेनामी संपत्ति और नकदी जब्त होती है. साल 2013 में 15 मई तक 300 से भी ज्यादा सरकारी कर्मचारी घूस लेते पकड़े गए.

ये मामले चिंतनीय इस लिहाज से भी हैं कि घूस लेने के तौरतरीके तेजी से बदल रहे हैं और न पकड़े जाने वाले मामलों की तादाद जाहिराना तौर पर लाख गुना ज्यादा होगी. वजह, सभी लोग शिकायत नहीं करते हैं.

घूस के नए तौरतरीके

तेजी से पनपती घूसखोरी के सियासी नतीजे क्या होंगे यह तो कहना अभी मुश्किल है पर आगर मालवा के ब्लौक मैडिकल औफिसर आर एस मालवीय ने तो शर्मोहया की सारी हदें पार कर दीं. अनवर खां गरीबी रेखा कार्डधारी (बीपीएल) है यानी मुश्किल से कमाखा पाता है. एक दिन बेटी के कान में चांदी का घुंघरू फंस गया. वह बेटी को ले कर सरकारी अस्पताल पहुंचा जहां डाक्टर साहब ने उस की हैसियत देखते हुए केवल 450 रुपए रिश्वत के मांगे. अनवर की जेब में उस वक्त महज

100 रुपए थे जो उस ने तुरंत ईमानदारी से दे दिए और बचे 350 रुपए बाद में देने का वादा कर लिया. बेटी की तकलीफ दूर करने के लिए वह कुछ भी कर सकता था. डाक्टर साहब ने तो उस की गरीबी देखते भारी डिस्काउंट भी दे दिया था, दूसरी सहूलियत यह दी कि रिश्वत में भी उधारी कर दी. अस्पताल न हुआ बनिए की दुकान हो गई कि किराने का सामान ले जाओ, पैसे बाद में जब हों, दे देना.

2 दिन बाद दूसरी दफा वह बेटी को दिखाने गया तो घूसखोर डाक्टर साहब बकाया पैसे न मिलने पर ?ाल्ला उठे और 10 वर्षीय फरजाना को अस्पताल में ही यह कहते बैठा लिया कि बेटी छोड़ जाओ, जब पैसों का इंतजाम हो जाए तो अपनी बेटी को ले जाना. बेचारी मासूम फरजाना घंटों बंधक बनी रही या गिरवी रही. इस बात से अनवर परेशान हो गया. उसे कुछ सू?ा नहीं रहा था कि क्या करे तभी किसी ने उसे सम?ा कर लोकायुक्त कार्यालय का रास्ता बता दिया, तब कहीं जा कर बिटिया को वह डाक्टर के चंगुल से छुड़ा पाया.

पुराने जमाने में ऐसा होता था कि सूदखोर किसानों को भारीभरकम ब्याज पर कर्ज देते थे और उस के एवज में किसान परिवार से उस के ही खेतों में मजदूरी करा कर सारी उपज हड़प जाते थे. किसान और उस का परिवार मजदूरी करने के लिए जिंदा रहें, इतना भर खाने को देते थे. ऐसा आज भी होता है, फर्क सिर्फ इतना आया है कि अब लोग घूस में औलाद को भी गिरवी रखने लगे हैं. गहने, जायदाद भी घूस में चलते हैं, यह बात भोपाल के एक वरिष्ठ तहसीलदार स्वीकारते हुए बताते हैं कि नामांतरण, खसराखतौनी की नकल, बंटवारे वगैरह जैसे जरूरी कामों में राजस्व विभाग नकदी का मुहताज नहीं, उस के होनहार मुलाजिम सोनेचांदी के गहने ले कर किसान का काम कर देते हैं. मुरगी अगर ज्यादा मोटी हो तो एकाध एकड़ जमीन की रजिस्ट्री किसी सगेसौतेले रिश्तेदार के नाम करवा कर पीडि़त की परेशानी दूर कर देते हैं.

विदिशा की एक अदालत का बाबू तो घूस की तय रकम पर ब्याज भी लेता है. मुवक्किलों के पास पैसे नहीं होते तो रेट तय कर उसी दिन से 24 फीसदी ब्याज की दर से वह घूस लेता है. अंदाजा है कि इस बाबू को मुकदमेबाजों से तकरीबन 12 लाख रुपए लेने हैं. कुछ मामलों में घूस का लेनदेन चैक और बैंक खातों के नंबरों से भी हुआ है. देने वाले को बैंक अकाउंट नंबर दिया गया और पैसे जमा होने के 8-10 दिन बाद काम किया गया. घूसखोर ने चैक किसी और के नाम से लिया.

किस्तों में घूस

घूस एकमुश्त ही लेंगे, यह जिद घूसखोरों ने कभी की छोड़ दी है. अब अधिकांश घूस किस्तों में ली जाती है जिस से देने वाले को सहूलियत रहे. उज्जैन के असिस्टैंट इंजीनियर कमल सिंह सिसोदिया ने भवन निर्माण हेतु सौदा 1 लाख रुपए में सरपंच नरेंद्र सिंह से तय किया था. मजबूरी जताए जाने पर किस्तों में घूस लेने के लिए राजी हो गए और पहली दफा में ही धरे गए. घूसखोरों की मनोवृत्ति जानने वाले भोपाल के समाजशास्त्र के एक प्रोफैसर की मानें तो यह इंजीनियर अपनी गिरफ्तारी या बदनामी पर कम बाकी 80 हजार रुपए डूबने पर ज्यादा दुखी रहा होगा. शुजालपुर का पटवारी संतोष सोलंकी इस मामले में बाजी मार गया. वह किसान से 5 हजार रुपए पहले ही सफलतापूर्वक ले चुका था.

शहडोल के एएसआई एम एल शुक्ला को भी किस्तों में घूस लेने की दयानतदारी भारी पड़ी. यह एएसआई आरोपी से 5 हजार रुपए पहले ही ले चुका था. बचे 3 हजार रुपए का लालच न छूटा तो आरोपी ने लोकायुक्त में शिकायत कर दी.

रतलाम की बिजली कंपनी का बाबू बालाराम काकड़ तो हवन करते ही हाथ जला बैठा. बिल पास करने के लिए घूस दरअसल में मांगी कार्यपालन यंत्री ए के सिंह ने थी जो इत्तेफाक से उस दिन दफ्तर में नहीं थे. लेकिन बालाराम ने अपने कमीशन के लालच में खुद 11 हजार रुपए ले लिए और पकड़ा गया. हालांकि मामला ए के सिंह के खिलाफ भी दर्ज हुआ.

कौनकौन लेता है घूस

बालाराम तो मातहत था और जानता था कि ऐसे बिल बगैर नजराने के पास नहीं होते. गाड़ी किराए पर लेते वक्त भी बिजली कंपनियों और दूसरे सरकारी दफ्तर वाले घूस लेते हैं और हर दफा बिल पास करने पर भी पैसों का वजन रखना पड़ता है. इस में बाबू का हिस्सा 20-30 फीसदी रहता है. भोपाल के एक ठेकेदार की मानें तो जरूरी नहीं है कि घूस काम करने वाला ही ले. अब तो अधिकारी लोग एहतियात बरतते हैं और बारबार जगह और नाम बदलते रहते हैं. यह ठेकेदार बताता है, ‘‘मु?ो एक बार लगभग 2 लाख रुपए का बिल पास कराने के लिए एक इंजीनियर साहब को 30 हजार रुपए देने थे तो वे बोले, ‘मेरा साला आप के घर से आ कर रुपए ले जाएगा.’ मैं इंतजार करता रहा, साहब का साला नहीं आया तो मैं घबराया कि कहीं उन्होंने घूस लेने का इरादा न बदल लिया हो. वजह, मु?ो पैसों की सख्त जरूरत थी क्योंकि पैसा सीमेंट वाले को देना था. जब दोबारा फोन किया तो होशंगाबाद रोड के एक बंगले का पता बताते हुए बोले, ‘यहां के लैटरबौक्स में डाल आओ.’ मैं सम?ा गया कि साहब घबराए हुए हैं. लिहाजा, जैसा उन्होंने कहा, वैसा ही मैं ने किया.’’

कई लोग बीवीबच्चों, नजदीकी रिश्तेदारों या भरोसेमंद दोस्तों के जरिए घूस लेते हैं. आजकल नया चलन कार में पैसे रखवाने का जोर पकड़ रहा है. रिश्वत देने वाले को बता दिया जाता है कि फलां कार में पैसे रख आओ और मुड़ कर मत देखना. जाहिर है घूसखोर आसपास ही कहीं होता है, और गाड़ी पर उस की नजर रहती है. नजारा पुरानी हिंदी फिल्मों के उन दृश्यों सरीखा होता है जिन में डाकू और स्मगलर पैसे वाला ब्रीफकेस ले कर शंकरजी के पुराने मंदिर या किसी खंडहर में देने वाले को बुलाते हैं. वैसे भी घूसखोरों, चोरलुटेरों और  स्मगलर्स में कोई खास फर्क नहीं है सिवा इस के कि घूसखोर समाज का सम्मानजनक नागरिक माना जाता है.

नेताओं का पसंदीदा बैठका-नेताजी@इंटरनैट डौटकौम

चुनावी हवा बहते ही प्रचार का बाजार कुछ यों गरम होता है कि नेता उठतेजागते सिर्फ जनता और उस के वोटों से कनैक्शन ढूंढ़ने लगते हैं. रैलियां, पदयात्रा और घरघर हाथ जोड़ने के अलावा आज के नेताओं में जनता से जुड़ने का नया शगल कुलांचें मार रहा है. हर कोई इंटरनैट पर ही वोट जुगाड़ू नीति अपना रहा है. पढि़ए शाहिद ए चौधरी का लेख.

ज्योंज्यों 2014 के लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, सभी राजनीतिक पार्टियां और उन के नेता प्रचार के हर आधुनिक तरीके, खासकर इंटरनैट पर अपनी मौजूदगी बढ़ाने को ले कर बेकरार नजर आ रहे हैं. भले ही कहा जाता हो कि 2004 में एनडीए के गठबंधन वाली वाजपेयी सरकार ने इलैक्ट्रौनिक प्रचार की अति के चलते मुंह की खाई थी, बावजूद इस के 2009 के आम चुनावों में भी देश की दोनों प्रमुख पार्टियों, भाजपा और कांगे्रस के चुनावी मोरचों में एक बड़ा मोरचा वर्चुअल दुनिया का ही मोरचा था. लेकिन इस के बावजूद राजनेता यह भी कहने से नहीं चूकते कि चुनाव टैलीविजन या इंटरनैट से नहीं बल्कि लोगों के बीच जमीनी रिश्तों के जरिए जीते जाते हैं.

अपने को हाईफाई या मौडर्न दिखाने के बजाय देश के आम मतदाताओं के अनुकूल शायद यह दिखाने का ही पाखंड था कि मई 2009 में जब प्रधानमंत्री डा.  मनमोहन सिंह ने यूपीए-2 की सत्ता संभाली, तो डिप्लोमैट से नएनए राजनेता बने शशि थरूर को भी मंत्री बनाया गया क्योंकि समझा गया कि इस से मंत्रिमंडल में ताजगी दिखेगी साथ ही, लिखनेपढ़ने का शौक रखने वाले शशि थरूर जैसे नेताओं के चलते कांगे्रस को ही नहीं, मंत्रिमंडल को भी मौडर्न, प्रयोगशील और वैश्विक नजरिए वाला समझा जाएगा.

लेकिन जब एक दिन अपनी शख्सीयत के अनुरूप शशि थरूर ने एक मजाक में ट्वीट कर डाला कि हवाईजहाज की इकोनौमी क्लास में सफर करना जानवरों के साथ सफर करने जैसा है तो उन को यह इतना भारी पड़ा कि मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. यह सितंबर 2009 की बात है. मगर तब से गंगा में बहुत पानी बह चुका है. अब शशि थरूर की सोशल मीडिया गतिविधियों की न सिर्फ कांगे्रसी तारीफ कर रहे हैं बल्कि आज के युग में मतदाताओं से जुड़ने के लिए इसे आवश्यक समझते हुए स्वयं भी ट्वीटर व फेसबुक पर दिखाई दे रहे हैं.

एक जमाना था जब सियासी बहसबाजियां, पान के खोखों, चाय की दुकानों, महल्लों के नुक्कड़ों व गांव की चौपालों पर हुआ करती थीं. हालांकि आज भी ये स्थान राजनीतिक चर्चा से रहित नहीं हुए हैं लेकिन टैलीविजन व इंटरनैट ने काफी हद तक लोगों को घर की चारदीवारी के भीतर समेट दिया है, इसलिए सियासी गुफ्तगू के नए मंच खुल गए हैं – टैलीविजन के न्यूज चैनल और इंटरनैट के सोशल मीडिया नैटवर्क.

टैलीविजन न्यूज चैनलों पर तो एंकर अपनी पसंद के वक्ताओं को आमंत्रित करते हैं और किसी भी ज्वलंत मुद्दे पर अपनी बात अधिक कहते हैं व नेताओं की बात कम सुनते हैं, जिस से बहस अकसर अच्छी डिबेट बनने के बजाय आरोप- प्रत्यारोप तक सिमट जाती है और बेनतीजा समाप्त हो जाती है. इस पर किसी ने टिप्पणी करते हुए लिखा, ‘बैठकें ऐसे व्यक्तियों का जमावड़ा होती हैं जो व्यक्तिगत तौर पर कोई बदलाव नहीं ला सकते, लेकिन मिल कर तय करते हैं कि कोई बदलाव नहीं लाया जा सकता.’

इस के विपरीत सोशल मीडिया नैटवर्क एक ऐसे मंच के रूप में उभरा है जहां नेताओं को किसी से आमंत्रण का इंतजार नहीं रहता, वे स्वयं अपनी बात रख सकते हैं और अपने संभावित मतदाताओं से विचारों का आदानप्रदान कर सकते हैं. यही कारण है कि इंटरनैट पर भारतीय नेताओं की मौजूदगी में निरंतर वृद्धि होती जा रही है. राजनीतिक दल भी औपचारिक रूप में अपनी उपस्थिति इंटरनैट पर ही दर्ज कर रहे हैं.

अब से कुछ वर्ष पहले तक किसी ने कल्पना तक नहीं की थी कि वित्त मंत्री बजट से संबंधित प्रश्नों का उत्तर गूगल हैंगआउट पर देंगे या 80 वसंत पार कर चुके लालकृष्ण आडवाणी (जो फिल्म समीक्षक भी रह चुके हैं) ब्लौग लिखेंगे. हम में से अधिकतर को यह भी विश्वास नहीं था कि हमारे मंत्री औनलाइन हो कर जनता से ऐसे बात करेंगे जैसे कभी टाउन हाल में किया करते थे.

इस में शक नहीं है कि आज ट्वीटर व फेसबुक राजनीतिक चर्चा की नई ‘चाय की दुकान’ बन गए हैं और जो नेता इस नए माध्यम पर अपनी प्रभावी मौजूदगी दर्ज करना चाहते हैं वे सोशल मीडिया की ताकत को बहुत गंभीरता से ले रहे हैं, भले ही इस के कारण उन्हें कई बार परेशानी का सामना करना पड़ता है, जैसा कि जम्मूकश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला कई बार अनुभव कर चुके हैं.

समय की मांग

बहरहाल, अभी तक यह साबित नहीं हो सका है कि सोशल मीडिया मतदाताओं, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, को किस हद तक अपनी राय बदलने या बनाने के लिए प्रेरित करता है, लेकिन खबर में रहने के लिए इस की आवश्यकता जगजाहिर हो चुकी है. सोशल मीडिया के संभावित प्रभाव या समय के साथ चलने की जरूरत के कारण भाजपा अपने दिल्ली स्थित मुख्यालय में तकरीबन 30 लोगों को बैठाए हुए है कि वे उस के सोशल मीडिया औपरेशन की निगरानी करें. भाजपा के अधिकतर टौप नेताओं का आधिकारिक फेसबुक पेज व ट्वीटर हैंडल है, जबकि लालकृष्ण आडवाणी सहित कुछ नेता ब्लौग भी लिखते हैं.

कांगे्रस की ट्वीटर और फेसबुक पर भी मौजूदगी आधेअधूरे मन से ही है लेकिन अब वह भी धीरेधीरे सोशल मीडिया नैटवर्क के महत्त्व को समझती जा रही है. इसलिए उस ने सोशल मीडिया योजना टीम का गठन किया है, जिस में उस ने अपने युवा नेताओं को शामिल किया है. कुछ युवा कबीना मंत्री भी सोशल मीडिया को ले कर अति उत्साहित हैं.

अभी इस बात का सही अंदाजा नहीं हो सका है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सोशल मीडिया कितना प्रभावी है लेकिन जिन नेताओं का जनाधार ग्रामीण क्षेत्रों तक ही सीमित है वे भी इंटरनैट पर अपनी उपस्थिति निरंतर बनाए रखने के इच्छुक रहते हैं. मसलन, बीजू जनता दल के सांसद बैजयंत पांडा का चुनाव क्षेत्र ग्रामीण पृष्ठभूमि से संबंधित है, लेकिन हर मुद्दे पर उन के ट्वीट देखे जा सकते हैं.

सवाल यह है कि अभी जब ज्यादातर भारतीय इंटरनैट पर हो रही सियासी चर्चाओं में हिस्सा नहीं लेते तो फिर आज के खद्दरधारी सोशल मीडिया नैटवर्क में इतनी दिलचस्पी क्यों दिखा रहे हैं? दरअसल, इस के 2 महत्त्वपूर्ण कारण हैं. एक यह कि आम जनता की तरह हमारे नेता भी पश्चिम से बहुत प्रभावित रहते हैं. अमेरिका व यूरोप के नेताओं ने सोशल मीडिया की कला पर महारत हासिल कर ली है. वे अपने मतदाताओं तक सफलतापूर्वक पहुंच रहे हैं. यह तरीका भारतीय नेताओं को भी प्रेरित कर रहा है.

दूसरा यह कि भारतीय नेता तेजी से महसूस कर रहे हैं कि अगर वे सोशल मीडिया के जरिए 100 या चंद हजार व्यक्तियों को भी अपने दृष्टिकोण से प्रभावित कर देते हैं तो यह भी पर्याप्त होगा, ये मुट्ठीभर लोग भी अवाम की राय बनाने में सहयोगी हो सकते हैं, जैसा कि अन्ना हजारे या दिल्ली गैंगरेप के संदर्भ में देखने को मिला कि छोटी सी मुहिम इंटरनैट पर आरंभ हुई, कुछ लोग दिल्ली व अन्य महानगरों से सड़कों पर टोपी ओढ़े (मैं भी अन्ना) या मोमबत्ती जलाते नजर आए और इन की गतिविधियों को पिं्रट व इलैक्ट्रौनिक मीडिया ने सुर्खियां बनाया, जिस से पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ व बलात्कारियों को सख्त सजा देने की मांग का माहौल बना.

इस दृष्टि से देखा जाए तो सोशल मीडिया नैटवर्क की फिलहाल भारत में पहुंच सीमित हो सकती है लेकिन इस के जरिए अवाम की राय बनाने व उसे एक दिशा देने में सफलता मिल सकती है. इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि अपनी साइबर योजना बनाने के लिए विभिन्न राजनीतिक पार्टियां औनलाइन गुरुओं की मदद ले रही हैं. इस के अतिरिक्त अपनी विचारधारा से संबंधित कारणों के चलते स्वतंत्र रूप से भी बहुत से युवा इंटरनैट पर अपनी पसंद की राजनीतिक पार्टियों के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास कर रहे हैं.

युवाओं को रिझाने की कोशिश

गौरतलब है कि युवा व पहली बार वोट करने वालों को आकर्षित करने के लिए 2009 में भाजपा ने अपनी साइबर योजना बनाई थी. आज भाजपा के पास इंटीगे्रटेड व विस्तृत डिजिटल योजना है. इस की रोशनी में भाजपा 2014 के आम चुनाव के लिए इंटरनैट का भरपूर लाभ उठाने के प्रयास में है. उस ने प्रत्येक चुनाव क्षेत्र का डिजिटल प्रोफाइल तैयार कराया है. भाजपा की योजना सोशल मीडिया पर साइबर यूजर्स को माइक्रो टारगेट करने की भी है. जिस का अर्थ यह है कि यूजर के प्रोफाइल की समीक्षा की जाए और उसे बताया जाए कि वह क्या सुनना चाहता है.

कांगे्रस भी अब इंटरनैट के महत्त्व को समझने लगी है. कांगे्रसी नेता दिग्विजय सिंह साइबर योजना बनाने में जुटे हुए हैं. इस के मुख्य बिंदुओं को तो अभी उजागर नहीं किया गया है लेकिन लगता यह है कि इस में भाजपा जैसे ही हथकंडे होंगे.

व्यक्तिगत तौर पर कुछ नेता भी अपनी पार्टी का इंटरनैट पर बचाव करने, प्रचार करने या मतदाताओं तक पहुंचने के नए तरीकों को अपना रहे हैं. मसलन, 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले व श्रीलंका के तमिलों के मुद्दे पर द्रमुक की बहुत थूथू हुई थी. इसलिए उस के विधायक एस एस शिवशंकर अपना ज्यादा समय फेसबुक पर अपनी पार्टी का बचाव करने में गुजारते हैं. शिवशंकर के इंटरनैट पर 3,700 दोस्त व लगभग 4,600 फौलोअर हैं. वे आरोपों व आलोचनाओं का अपनी तरफ से अच्छा जवाब देने का प्रयास करते हैं. साथ ही, अपनी पार्टी की विचारधारा जैसे सामाजिक न्याय आदि का भी प्रचार करते हैं.

इसी प्रकार राज्यसभा में रिकौर्ड 98 प्रतिशत उपस्थिति दर्ज करने वाले सांसद राजीव चंद्रशेखर का कहना है, ‘‘इंटरनैट परंपरागत मीडिया की तरह नहीं है कि जहां केवल एकतरफा बात कही जाती है. सोशल मीडिया पर आप जो कुछ कहते हैं उस का आप को जवाब भी सुनना पड़ता है. यह उन लोगों का माध्यम नहीं है जो अपनी स्थिति के बारे में निश्चित नहीं हैं क्योंकि यहां पर आप को अपना बचाव करना पड़ेगा और आलोचनाओं को भी बरदाश्त करना पड़ेगा.’’

उधर, कानून व्यवस्था पर अपनी ढीली पकड़ के कारण उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को सख्त आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है लेकिन जब सोशल मीडिया की बात आती है तो उन के चाहने वाले कम नहीं हैं. फेसबुक पर उन के तकरीबन 23,190 दोस्त हैं और ट्वीटर पर तकरीबन 7,581 फौलोअर. अखिलेश ने समाजवादी पार्टी की वैबसाइट को फिर से डिजाइन कराया है. वे सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय हैं, लेकिन उन के ट्वीट ज्यादातर पृथ्वीदिवस या कुंभ के प्रभावी प्रबंधन तक सीमित हैं.

जब 3 वर्ष पहले मुंबई प्रदेश युवा कांगे्रस की जिला महासचिव प्रियंका चतुर्वेदी ने ट्वीटर जौइन करने का फैसला किया तो उन्हें अंदाजा नहीं था कि उन्हें राहुल गांधी की ‘चियर गर्ल’ घोषित कर दिया जाएगा या उन पर व्यक्तिगत हमला किया जाएगा. ध्यान रहे कि जब आप राजनीति पर ट्वीट करते हैं तो प्रतिक्रिया सीधे व त्वरित होती है. आप को कुछ लोग पूरी तरह से उधेड़ देते हैं, लेकिन कुछ समर्थन में भी खड़े हो जाते हैं. आप को हिम्मत दिखाने की जरूरत होती है. चतुर्वेदी को अकसर मौत व गैंगरेप की धमकियां इंटरनैट पर मिलती हैं, लेकिन फिर भी वे दृढ़ता से अपनी पार्टी के लिए काम किए जा रही हैं. इसलिए फेसबुक पर उन के 872 दोस्त हैं व ट्वीटर पर 15,311 फौलोअर.

बहरहाल, अगर किसी राजनीतिक दल की शोहरत व स्वीकृति का अंदाजा केवल सोशल मीडिया के आधार पर लगाया जाए तो अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) सब से लोकप्रिय है क्योंकि उस पर ट्रैफिक भाजपा व कांगे्रस से कहीं अधिक है. वैबसाइट को वरीयताक्रम प्रदान करने वाली एलेक्सा के अनुसार, ‘आप’ वरीयताक्रम में 1,170वें स्थान पर हैं जबकि भाजपा का स्थान 9,320 है और कांगे्रस 2,05,019 स्थान पर है. इसी तरह नेताओं में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की वैबसाइट का वरीयताक्रम भारत में 1,799 है, जबकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की वैबसाइट 47,478वें स्थान पर है.

वहीं, अब तक देखने में यह आ रहा है कि इंटरनैट पर जो लोकप्रियता हासिल होती है वह असल चुनावी मैदान में देखने को नहीं मिलती है. ‘आप’ इंटरनैट पर विख्यात होने के बावजूद राजनीतिक शक्ति नहीं है. 2009 में भाजपा ने युवा व पहली बार वोट करने वाले मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए साइबर योजना बनाई थी लेकिन जनता ने कांगे्रस गठबंधन को फिर से सरकार बनाने का अवसर प्रदान किया.

फेंकू बनाम पप्पू

फिलहाल, साइबर संसार में फेंकू (नरेंद्र मोदी) बनाम पप्पू (राहुल गांधी) युद्ध छिड़ा हुआ है, लेकिन जमीनी हकीकत यह नजर आ रही है कि 2014 का आम चुनाव क्षेत्रीय नेताओं के दम पर लड़ा जाएगा और वे ही नई सरकार के गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे.

बहरहाल, आज भले ही मतदाताओं को प्रभावित करने में सोशल मीडिया नैटवर्क की कोई विशेष भूमिका न हो लेकिन जिस तेजी से वह राजनीतिक चर्चा में नुक्कड़, चाय की दुकानों आदि का स्थान लेता जा रहा है, उसे देखते हुए यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि भविष्य में इस की भूमिका भारत में भी वैसी ही होगी जैसी कि अमेरिका या अन्य विकसित देशों में है. शायद इसी के लिए हमारे नेता अभी से तैयारी कर रहे हैं.

सोशल मीडिया को भारतीय राजनीति में प्रभावी भूमिका अदा करने के लिए अपने अंदर सकारात्मक परिवर्तन लाने होंगे. यह परिवर्तन इसलिए भी आवश्यक हैं क्योंकि इंटरनैट पर आज जिस तेजी से फैसले सुनाए जा रहे हैं, हिंसक मानसिकता को बढ़ावा दिया जा रहा है, धार्मिक असहिष्णुता को परवान चढ़ाया जा रहा है, उस से न समाज में परिवर्तन आ सकता है और न ही देश की राजनीति को सही दिशा दी जा सकती है. इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि अभिनेता शाहरुख खान व टीवी एंकर राजदीप सरदेसाई जैसी शख्सीयतें ट्वीटर को अलविदा कर रही हैं.

आज सोशल मीडिया नैटवर्क, कम से कम राजनीति के दृष्टिकोण से दोराहे पर खड़ा है. उसे सही रास्ता दिखाने की जरूरत है ताकि वह आम जनता के लिए उपयोगी हो सके.

सफर अनजाना

आज से 3 साल पहले मैं अपने पति के साथ अपने एक रिश्तेदार की बेटी की शादी में बेंगलुरु के पास किसी छोटे शहर में गई?थी. शादी सकुशल संपन्न होने के बाद हम ने ऊटी जाने का प्रोग्राम बनाया. उसी दिन हमारी शादी की सालगिरह भी थी. सभी रस्म निबटने के बाद हम ऊटी के लिए निकले, हालांकि निकलने में कुछ देर हो गई. कोयंबटूर से ऊटी के लिए हम ने एक टैक्सी रिजर्व कर अपनी यात्रा आरंभ की.

अंधेरा हो चुका था, पहाड़  की घुमावदार सड़कें और टैक्सी की तेज गति की वजह से काफी रोमांच अनुभव हो रहा था. हम चलते जा रहे थे कि अचानक कुछ जंगली हाथी हमारी टैक्सी के सामने बीच सड़क पर दिखाई दिए. मेरे तो डर के मारे प्राण ही निकलने वाले थे. मेरे पति मुझे हिम्मत दिलाते रहे. धीरेधीरे हाथियों का झुंड बिना हमें नुकसान पहुंचाए सड़क से उतर कर जंगलों में चला गया. हम ने अपनी आगे की यात्रा सकुशल पूरी की. आज भी इस?घटना को याद कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

सुधा अग्रवाल, लखनऊ (उ.प्र.)

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जून माह में मैं ट्रेन से सपरिवार रतलाम से भोपाल आ रहा था. मेरा आरक्षण था. भोपाल में मु?ो इलाहाबाद के लिए दूसरी टे्रन पकड़नी थी. हमारी टे्रन नागदा स्टेशन से चल कर एक छोटे स्टेशन उनहील पर रुकी तो वहां से मावा का कारोबार करने वाले कुछ लोगों ने अपनीअपनी मावा बास्केट आरक्षण कोच की खिड़कियों पर लोहे के रौड के जरिए टांग दीं और सभी लोग उसी कोच में सवार हो गए.

मैं ने और पत्नी ने इस का विरोध किया तो वे अभद्रता पर उतर आए. किसी तरह मैं ने उस समय हालात पर काबू पाया. लेकिन आगे के लिए मेरी पत्नी ने रेलवे की हैल्पलाइन पर फोन कर दिया. खैर, टे्रन जब 55 मिनट बाद उज्जैन स्टेशन पहुंची तो वहां महिला पुलिस के साथ पुरुष जवान भी मौजूद थे. उन लोगों को मेरा कोच तलाशने में समय लग गया, जबकि कोच और सीट नंबर मोबाइल नंबर के साथ बता दिया गया था. इस दौरान वे लोग टे्रन से उतर कर भाग गए.

ढेरों सामान के बाद भी वे लोग बिना चैकिंग के स्टेशन के बाहर निकल गए. मैं उन को सजा और नसीहत नहीं दिला सका. लेकिन इस बात की खुशी मिली कि रेलवे हैल्पलाइन ने हम लोगों की समस्या को गंभीरता से लिया. रेलयात्रा करने वालों से मेरी अपील है कि वे रास्ते में इस तरह की घटनाओं का विरोध करें और उचित समय पर सहायता भी लें ताकि रेलवे हैल्पलाइन और मुस्तैद हो सके.

शाहिद नकवी, इलाहाबाद (उ.प्र.)

वित्त संस्थानों में अनियमितताएं

वित्त संस्थानों में वित्तीय अनियमितताएं आम हैं. सरकार इस से निबटने के लिए ठोस कदम नहीं उठा रही. हाल ही में कोलकाता में एक चिटफंड कंपनी द्वारा लोगों की गाढ़ी कमाई को चूना लगाने का मामला सामने आया और यह विवाद पूरी तरह से निबटा भी नहीं था कि कुछ बीमा कंपनियों ने शिकायत दर्ज कराई है कि उन के प्रतिनिधि बन कर कुछ लोग उन के ग्राहकों को फोन कर के लुभावने औफर दे रहे हैं.

फोनकर्ता उपभोक्ताओं को ऐसी स्कीमें बता रहे हैं जो उन की कंपनी के पास हैं ही नहीं. इन स्कीमों के तहत उपभोक्ताओं को लूटा जा रहा है और साथ ही कंपनियों को भी नुकसान पहुंचाया जा रहा है. कंपनियों का कहना है कि उपभोक्ता पैसा जमा करा रहे हैं और यह पैसा फोन करने वाले बदमाशों के पास जा रहा है. उपभोक्ताओं की गाढ़ी कमाई कहां जा रही है और इसे कौन डकार रहा है, इस का किसी को पता नहीं है.

कंपनियों के पास जो दावा पेश किया जा रहा है उस का कोई रिकौर्ड नहीं है. कंपनियों का कहना है कि इस तरह से धोखेबाज एक तीर से दो शिकार कर रहे हैं. वे कंपनियों के साथ ही आम उपभोक्ता की गाढ़ी कमाई चट कर रहे हैं. इस तरह की शिकायत रिलायंस लाइफ इंश्योरैंस, आईसीआईसीआई पू्रडैंशियल, एचडीएफसी लाइफ, बिरला सनलाइफ, एसबीआई लाइफ, एगान रेलीगेयर सहित कुछ कंपनियों ने दर्ज कराई है. शिकायतें महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात, पश्चिम बंगाल सहित कई अन्य राज्यों में दर्ज कराई गई हैं.

शिकायतों में कहा गया है कि इस धोखाधड़ी से इन कंपनियों को सालाना 100 करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हो रहा है. इस मामले में कुछ लोगों को गिरफ्तार किया गया है और उन से पूछताछ की जा रही है लेकिन उन के सिंडिकेट का फिलहाल खुलासा नहीं हो सका है. आरोप लगाए जा रहे हैं कि जिस सरकार के मंत्री ही घोटालों में शामिल हों और घोटालों के कारण जेल जा रहे हों उस सरकार से भ्रष्टाचार पर नियंत्रण की उम्मीद कैसे की जा सकती है. विपक्षी दलों का कहना है कि यह सरकार आसमान से समुद्र तक घोटालों में शामिल है और हवा  व पानी को भी नहीं छोड़ रही है.

सरकार इन दिनों अन्य घोटालों के अलावा हैलीकौप्टर घोटाले व कोयला घोटाले को ले कर ज्यादा सुर्खियों में है और इस में सीधे प्रधानमंत्री तक का नाम लिया जा रहा है. ऐसे में देश में भ्रष्टाचार कैसे रुकेगा और चिटफंड कंपनियों व अन्य वित्तीय संस्थानों में आम आदमी की जेब को कैसे बचाया जाएगा, यह सब के लिए चिंता का विषय बना हुआ है.

चाय निर्यात पर बुरा असर

भारत और पाकिस्तान के बीच तनातनी का असर दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों पर पड़ता है, इस विचार को आगे बढ़ाना होगा और इसे दोनों देशों के बीच आर्थिक दायरों की सीमा तक लाना होगा. दरअसल, भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाले तनाव का सीधा असर आर्थिक संबंधों पर भी पड़ता है.

पिछले कुछ सालों से इस से सब से अधिक नुकसान भारत के चाय निर्यातकों को हो रहा है. दार्जिलिंग चाय इस बार सब से अधिक प्रभावित रही है. इस साल जनवरी से अब तक दोनों देशों के बीच के राजनीतिक संबंध बहुत खराब रहे हैं और इस से दार्जिलिंग चाय के निर्यात पर सब से अधिक बुरा असर पड़ा है. भारतीय चाय संगठन के अध्यक्ष ए एन सिंह की मानें तो दोनों देशों के बीच संबंध खराब होने से इस बार दार्जिलिंग चाय के निर्यात पर 60 से 70 प्रतिशत तक की गिरावट आई है.

उन का कहना है कि पिछले वर्ष पाकिस्तान ने भारत से लगभग ढाई करोड़ किलो चाय की खरीद की और इस की औसत कीमत प्रति किलो करीब 100 रुपए यानी 1.70 डौलर रही है. संबंध खराब होने की वजह से इस दौरान 2011 की तुलना में 20 लाख किलो कम चाय का निर्यात हुआ है. उस समय यानी 2011 में पाकिस्तान को 1.42 डौलर प्रति किलो की दर से चाय निर्यात की गई.  इस वर्ष निर्यात की दर 2 करोड़ किलो रहने का अनुमान लगाया गया है. लेकिन दोनों देशों के बीच के राजनीतिक संबंध निरंतर खराब हो रहे हैं और इस का सीधा और तेज असर चाय निर्यात पर पड़ रहा है.

भारत के साथ जब भी राजनीतिक संबंध खराब होते हैं तो पाकिस्तान केन्या आदि देशों से चाय का आयात शुरू कर देता है. इस तरह देश के चाय निर्यातकों के हितों के लिए भी पाकिस्तान के साथ संबंध बेहतर करने जरूरी हैं. इस दिशा में दोनों देशों की सरकारों को ध्यान देना चाहिए.

 

रुपए के साथ शेयर बाजार भी रसातल की ओर

रुपए के रसातल में जाने से शेयर बाजार में हाहाकार मचा हुआ है. निवेशक समझ नहीं पा रहे हैं कि वे कहां जाएं और अपनी रकम को कैसे बचाएं. रुपया हर दिन गिरावट के रिकौर्ड कायम कर रहा है और उस की आंच से शेयर बाजार भी रसातल की तरफ बढ़ रहा है. दोनों के बीच रसातल की तरफ पहुंचने की एक तरह से होड़ मची है लेकिन सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है और वह कोई ठोस कदम उठाने की स्थिति में नजर नहीं आ रही है. वित्त मंत्री पी चिदंबरम समझ नहीं पा रहे हैं कि रुपया किस स्तर तक गिर सकता है और आखिर इस की गिरावट की प्रक्रिया कहां जा कर थमेगी.

अगस्त 16 को शेयर बाजार में काला शुक्रवार के नाम से पुकारा जा रहा है. उस दिन बाजार 770 अंक तक गिर गया था और बाजार में हाहाकार मचा रहा. शुक्रवार को बाजार 4 साल के निचले स्तर पर पहुंच गया और निवेशकों को 2 लाख करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ा था. उस के बाद जब सोमवार को बाजार खुला तो लगा कि सरकार कोई ठोस कदम उठाएगी और उस का सकारात्मक असर बाजार पर देखने को मिलेगा लेकिन यह उम्मीद बेकार साबित हुई और बाजार में गिरावट का दौर जारी रहा. इस से पहले सरकार ने 14 अप्रैल को कड़े कदम उठाने की बात की थी लेकिन उस दिन महंगाई की दर बढ़ कर 5.70 प्रतिशत दर्ज की गई जिस का बाजार पर नकारात्मक असर ही देखने को मिला.

इस से पहले दिन सरकार ने चालू खाता घाटा को कम करने के लिए सोने के आयात के साथ ही प्लैटिनम व चांदी के आयात पर सीमा शुल्क में 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी की थी जिस के कारण देश को 4,830 करोड़ रुपए के अतिरिक्त राजस्व की उम्मीद की जा रही थी लेकिन सरकार के इस प्रयास का भी बाजार पर कोई असर नहीं हुआ और सूचकांक में बराबर गिरावट दर्ज की जाती रही.

बुधवार, 21 अगस्त को बाजार ने निवेशकों पर और कहर ढा दिया जब सूचकांक 340 अंक गिर कर 18 हजार के मनोवैज्ञानिक अंक से नीचे उतर आया. वैश्विक स्तर पर कारोबार करने वाले एक बैंक ने तो यहां तक कह दिया कि रुपए की बुनियाद कमजोर पड़ चुकी है और यह अभी और अधिक गिरेगा. 28 अगस्त को तो रुपया डौलर के मुकाबले 256 पैसे गिर कर 68.80 पर आ गया.

 

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