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टूटे सपने

सपने कांच के गिलासों की तरह

रोज टूटते हैं

कभी मन की अलमारी से निकालते

हाथ से छूट जाते

कभी धोने, पोंछने, संवारने में

फिसल कर टूट जाते

कोई दुख की गरम चाय

सह नहीं पाते हैं

कोई समय के हाथ के दबाव से

चटक जाते हैं

कोई वास्तविकता के फर्श पर

गिर चूर हो जाते

कोई कड़वी आलोचना के भार तले

दब जाते

कभी किसी का क्रोध

सपनों को पटक देता है

दोष किसी का हो

टूटते तो सपने ही हैं

नए, पुराने, छोटे, बड़े, सहेजे, संभाले

अपने ही हैं

बेबस मैं हाथों से

उन के टुकड़े बटोर लाती हूं

और विस्मृति के डब्बों में

फेंक आती हूं

सोचती हूं, सब भूलभाल

नए सपने लाने को

मन के रीते शैल्फ पर

फिर से सजाने को

पर कभीकभी टूटे सपने की किरिचें

दिल में चुभ जाती हैं

और उन की कसक देर तक

दुखाती, रुला जाती है.

– जसबीर कौर

कानून बने, नौकरशाह 5 साल तक निजी संगठन से न जुड़ें

हमारे यहां षष्ठिपूर्ति यानी 60 साल की उम्र को जीवन का महत्त्वपूर्ण पड़ाव माना जाता है. उम्मीद की जाती है कि अब आदमी सांसारिक जीवन से उठ कर अपने अनुभव के आधार पर नई पीढ़ी को उन्नति की राह पर बढ़ने में सलाहमशविरा देगा.

लेकिन हमारी लोकतांत्रिक परंपरा ने इस उम्र को नया स्वरूप दे दिया है. राजनीति में 60 के बाद ऊंचे ओहदे मिलने लगे हैं और 80 साल तक की उम्र आतेआते आदमी को प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति जैसे महत्त्वपूर्ण पदों पर बिठाया जाने लगा है.

सरकारी सेवा में ‘चांदी की चमची’ के साथ शामिल होने वाले नौकरशाह पूरी जिंदगी साहब बन कर राज करते हैं और अपने हकों व सुविधाओं का भरपूर भोग करते हुए जब शीर्ष सरकारी ओहदे से सेवानिवृत्त होते हैं तो निजी कंपनियों से उन के लिए 25 की उम्र के जैसे नौकरियों के प्रस्ताव आने लगते हैं.

हालत यह है कि शीर्ष पदों की नौकरी छोड़ कर नौकरशाह दोगुनी रकम में निजी नौकरियों पर जा रहे हैं. सरकार ने इसे देखते हुए सेवानिवृत्ति के बाद 2 साल तक नौकरशाह के लिए निजी कंपनी की नौकरी करने पर रोक लगाई है लेकिन यह अवधि कम से कम 5 साल किए जाने की जरूरत है. जो नौकरशाह 60 साल की उम्र में सरकार के एक विभाग के शीर्ष पद पर रहते हुए 60 लाख रुपए सालाना पा रहा था वह 62 साल की उम्र में एक निजी कंपनी में 3 करोड़ रुपए सालाना पा रहा है. असली बात यह है कि ये तीरंदाज नहीं हैं बल्कि सरकार से जो लाभ निजी कंपनियों को चाहिए, वह मिलता है, इसलिए कंपनियां उन बूढ़े बाबुओं के साथ करोड़ों में खेलती हैं.

सूने पड़े हवाई अड्डों की सुध लेनी जरूरी

आम आदमी यह खबर सुन कर खुश होता है कि उस के इलाके में सड़क आ रही है. नई रेललाइन बिछ रही है और रेलवे स्टेशन बन रहा है या हवाई पट्टी का निर्माण हो रहा है. खबर पाते ही प्रस्तावित निर्माण क्षेत्र के आसपास जमीन के दाम बढ़ने लगते हैं और वह क्षेत्र शहरीकरण की तरफ एक कदम और आगे बढ़ जाता है.

इस तरह सोचने वाले लोगों को यह आंकड़ा देख कर निराशा होगी कि देश में 32 हवाई अड्डे ऐसे हैं जिन का संचालन निष्क्रिय पड़ा हुआ है. इन हवाई अड्डों के निर्माण और देखरेख का काम भारतीय विमानन प्राधिकरण करता है. इन हवाई अड्डों का संचालन पूरी तरह से ठप पड़ा हुआ है. इन के अलावा 6 हवाई अड्डे ऐसे हैं जहां दिन में सिर्फ एक ही उड़ान का संचालन होता है जबकि 9 में प्रतिदिन 2 तथा 6 में 3 से 4 उड़ानों का दैनिक संचालन होता है.

सरकार को घरेलू उड़ानों के नैटवर्क को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए. यह काम तब ज्यादा संभव है जब कम भाड़ा चार्ज करने वाली विमान कंपनियों के विमानों को आसमान में उड़ने की सहूलियत मिले. सरकार शायद इस दिशा में काम भी कर रही है लेकिन उस की रफ्तार बहुत धीमी है.

अगले 3 वर्षों में सरकार की योजना इस तरह की विमान कंपनियों के लिए 400 करोड़ रुपए जुटाने की है लेकिन यह योजना तब ही सफल हो सकती है जब आम आदमी के लिए हवाई सफर की दिशा में ईमानदारी से काम शुरू होगा.

 

भारतीय लघु उद्योग के प्रतिकूल लेकिन अच्छी पहल

भारत के लघु और म?ोले टिंबर कारोबारियों के लिए यूरोपीय देश सोने की मुरगी की तरह हैं. प्रधानमंत्री की जरमनी यात्रा में यूरोपीय देशों के साथ द्विपक्षीय वार्ता के तहत मुक्त व्यापार सम?ौते के एजेंडे में लकड़ी के कारोबार को सर्वाधिक लाभ होने की उम्मीद थी लेकिन 3 मार्च को यूरोपीय क्षेत्र के सभी 27 देशों ने इमारती लकड़ी के संबंध में नया कानून लागू किया है जिस के तहत अवैध तरीके से काटी गई लकड़ी से बने सामान के आयात की इजाजत नहीं होगी.

अब जो सामान यूरोपीय देशों को जाएगा उस के साथ वैधता के प्रमाण की जरूरत पड़ेगी. भारतीय कारोबारियों के लिए इस प्रामाणिकता के साथ अपना माल बेचना कठिन हो जाएगा. दरअसल, जो लकड़ी का सामान हमारे यहां से निर्यात किया जाता है उस का बड़ा हिस्सा लघु और म?ोले यानी असंगठित क्षेत्र के कारोबारियों द्वारा तैयार किया जाता है. इन कारोबारियों के लिए यूरोपीय मानकों के अनुसार प्रमाणपत्र प्रस्तुत करना आसान नहीं होगा.

समस्या के समाधान के लिए भारतीय हस्तशिल्प निर्यात संवर्धन परिषद ने यूरोपीय संघ के प्रतिनिधियों से बात की. अब तक समस्या का समाधान नहीं निकला है लेकिन उम्मीद है कि समस्या जल्द ही सुल?ा जाएगी और बीच का रास्ता निकाला जाएगा.

बहरहाल, यूरोपीय संघ का यह कदम वनों की सुरक्षा व पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल कहा जा सकता है. वन चौकियों व अन्य संबंधित स्थलों पर जारी भ्रष्टाचार के कारण अवैध ढंग से कटी लकड़ी हस्तशिल्पियों तक पहुंच रही है. जंगल बचेंगे तो पर्यावरण बचेगा और कारोबार वन दोहन के एक मानक के साथ जारी रहेगा.

बैसाखियों पर टिकी सरकार के कारण बाजार में भूचाल

वित्त वर्ष 2013-14 की शुरुआत में बौंबे स्टौक ऐक्सचेंज यानी बीएसई ने निवेशकों को तगड़ा ?ाटका दिया है. यह रुख पिछले वित्त वर्ष के आखिरी दिन से देखने को मिल रहा था जब समाप्त वित्त वर्ष के अंतिम दिन बाजार 4 माह के निचले स्तर तक लुढ़क गया था. इस के पहले बाजार में खासी चहलपहल थी और सूचकांक लगातार 6 दिन तक तेजी पर बंद हुआ था.

नए वर्ष की शुरुआत हालांकि तेजी पर हुई लेकिन यह मामूली बढ़त थी. उस के बाद पूरे सप्ताह बाजार में निराशा का माहौल रहा. सप्ताह के दौरान सूचकांक 550 अंक तक लुढ़क गया. गुरुवार को बाजार 292 अंक गिर कर फिर 4 माह के निचले स्तर पर चला गया. फरवरी के बाद बाजार में यह सब से बड़ी गिरावट है. इस साल 28 जनवरी को बाजार 20 हजार अंक के मनोवैज्ञानिक स्तर को पार कर गया था लेकिन उस के बाद सूचकांक इस स्तर पर नहीं पहुंच सका.

बाजार मेें बिकवाली का भारी दबाव है. इस की वजह वैश्विक बाजार में जारी गिरावट व देश में जारी राजनीतिक अस्थिरता का माहौल है. केंद्र सरकार गठबंधन के बल पर चल रही है और उस के 2 बड़े सहयोगियों, तृणमूल कांग्रेस और द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम यानी द्रमुक के गठबंधन से बाहर होने पर समाजवादी पार्टी की बैसाखियों पर सरकार चल रही है. सपा बारबार सरकार को उस के पंगु होने का एहसास दिला रही है और जब भी सपा बैसाखियों को हिलाती है तो सरकार का सिंहासन डोलने लगता है. नतीजतन, बीएसई में भूचाल आने लगता है.

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि राजनीतिक अस्थिरता अब इस सरकार का पीछा छोड़ने वाली नहीं है, इसलिए बाजार में मजबूती का रुख कम ही देखने को मिलेगा. इस के अलावा चीन में भी मंदी चल रही है. पश्चिम एशिया और कोरियाई द्वीप में तनाव का माहौल है. इन सब परिस्थितियों के बीच बाजार में अस्थिरता बने रहने की संभावना बढ़ गई है. निवेशक राजनीतिक अस्थिरता के कारण चिंतित है और वह मुनाफा वसूली पर ज्यादा ध्यान दे रहा है.

 

भारत भूमि युगे युगे

आजम का दर्द

अप्रैल के पहले हफ्ते में समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी और फिर जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जम कर तारीफ क्या की, आजम खां, तिलमिला उठे. चूंकि यह तिलमिलाहट सार्वजनिक तौर पर पूरी बेबाकी से व्यक्त नहीं की जा सकती थी इसलिए उन की संक्षिप्त प्रतिक्रिया यह थी कि विवादित ढांचा ढहाने के दोषी लालकृष्ण आडवाणी ही हैं.

आजम खां का दिल टूटा है जिस के हर एक टुकड़े से यही आवाज निकल रही है कि कल तक हरे रंग की टोपी पहने  जो मुलायम, मुसलमानों के मसीहा माने जाते थे वे आज बहक कर भगवा व केसरिया की बातें क्यों कर रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि सपा व भाजपा उत्तर प्रदेश में गठजोड़ की तरफ बढ़ रही होें. नींद उड़ाने के लिए यह चिंता काफी है और तारीफों का सिलसिला यों ही चलता रहा तो रहासहा चैन भी छिन जाएगा. वजह, मुसलिम वोटबैंक के कांग्रेसी खाते में शिफ्ट होने का डर है. यह देखना दिलचस्प रहेगा कि मुलायम का हिंदुत्व प्रेम आजम खां को किस हद तक उकसाएगा.

भीतर जनेऊ, ऊपर टाई

भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह की टीम में अधिकांश चेहरे भगवा हैं जिन के मुखिया नरेंद्र मोदी हैं, जो इन दिनों राम और हिंदुत्व की कम गुजरात के विकास की बात ज्यादा करते हैं. लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा के सिक्के में एक तरफ हिंदुत्व है तो दूसरी तरफ विकास है. यानी कोट के भीतर जनेऊ है और ऊपर टाई लटका ली गई है.

भारतीय जनमानस इस नई डिश को हजम कर पाएगा, ऐसा लग नहीं रहा.  मूंग की पतली दाल से पिज्जा या बर्गर खाना शायद ही कोई पसंद करे. जाहिर है राजनाथ सिंह देहातचौपालों की राजनीति भूल गए हैं जिस से भाजपा चलती रही है. नए दौर का भाजपा कार्यकर्ता राम नाम से ऊब चुका है और पुराने चेहरे मंदिर के नाम पर वोट मांगतेमांगते लजाने लगे हैं. ऐसे द्वंद्व में भाजपा की दुर्गति न हो जाए.

सरकार की उदासीनता

छत्तीसगढ़, ओडिशा और ?ारखंड के लोग विकास नहीं चाहते, जयराम रमेश की यह खी?ा बीते दिनों उजागर हुई तो उस में नया कुछ नहीं था. आजादी के पहले ही समाजशास्त्री और अर्थशास्त्री इस रहस्य को खोज चुके थे कि आदिवासी बाहुल्य इलाकों में विकास किया जाना उतना आसान काम है नहीं जितना दिखता है, खरबों रुपए इन राज्यों में खर्च किए जा चुके हैं पर तरक्की कौड़ी की भी नहीं हो रही.

आदिवासियों को कोसना हमेशा से ही आसान काम रहा है पर जयराम रमेश की नजर भी उन पहलुओं पर नहीं पड़ी जिन के चलते आदिवासी इलाकों में विकास नहीं हो पा रहा. रूढि़यां, धार्मिक दासता और ऊंची जाति वालों की गुलामी करने की आदत जैसी वजहें तरक्की में बड़ी रुकावट हैं. इन्हें हल करने के लिए सरकार कुछ करे तो बात बन सकती है.

जनतंत्र परिक्रमा

महान बनने का एक आवश्यक तत्त्व घूमना भी है. गांधी और बुद्ध जिंदगीभर घूमते रहे और घूमतेघूमते ही महान हो गए. समाजसेवी अन्ना हजारे ने भी 31 मार्च से घूमना शुरू कर दिया है. अमृतसर के जलियावाला बाग से शुरू हुई उन की यात्रा अगले लोकसभा चुनाव तक चलेगी.

घूमने के कई फायदे हैं. इस में घुमक्कड़ भारतीय सामाजिक जीवन को नजदीक से देख सकता है कि समस्याएं कहां और कैसी हैं. चूंकि घूमने से सेहत भी बनती है इसलिए वृद्धावस्था में बीमार होने का खतरा कम हो जाता है. पहले चरण में विफल रहे अन्ना हजारे की देशव्यापी यात्रा को शुद्ध राजनीतिक नहीं कहा जा सकता पर इसे गैर राजनीतिक भी नहीं माना जा सकता. आखिरकार, सवाल आम आदमी पार्टी का जो है.

प्रतिक्रियात्मक लेख- सच से मुकरता जैन धर्म

सरिता में प्रकाशित लेख ‘सच से मुकरता जैन धर्म’ को ले कर जैन धर्म से जुड़े संगठनों व धर्मानुयायियों में मानो हलचल सी मच गई. जाहिराना तौर पर कई नसीहतें, चेतावनियां, आपत्तियां और धमकियां प्रतिक्रियास्वरूप हम तक पहुंचीं. प्रस्तुत है इन सभी टिप्पणियों पर आधारित भारत भूषण श्रीवास्तव का प्रतिक्रियात्मक लेख.

सरिता के अक्तूबर (प्रथम), 2012 अंक में प्रकाशित मेरे लेख ‘सच से मुकरता जैन धर्म’ पर ढेरों प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई हैं और हो रही हैं. इन में से अधिकांश में चेतावनियां, नसीहतें और धमकियां जैसी बातें ज्यादा हैं, तार्किक और प्रामाणिक न के बराबर हैं और जो हैं उन पर मैं अपना स्पष्टीकरण लेखकीय उत्तरदायित्व निभाते हुए दे रहा हूं. बेहद विनम्रता से पहले स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि पूर्व में प्रकाशित लेख व इस प्रतिक्रियात्मक लेख का उद्देश्य समाज की सोच का विश्लेषण करना है न कि किसी को आहत करना.

संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट है कि हर नागरिक के विचारों की अभिव्यक्ति की रक्षा करना संविधान का ध्येय है. इसी तरह भाग 4 ए के अनुच्छेद 51(ए) में मौलिक उत्तरदायित्वों में वैज्ञानिक सोच विकसित करना, मानवता को प्रबलता देना और सुधार की भावना हर नागरिक का कर्तव्य है. सरिता के पहले लेख और इस प्रत्युत्तर का उद्देश्य यही संवैधानिक निर्देश है.

धर्मांध लोगों को सम?ा पाना हमेशा से ही दुष्कर कार्य रहा है. उस की वजह हमेशा की तरह बेहद साफ है कि लोगों को धर्म और धार्मिक पाखंडों के मामले में आंखों के साथसाथ दिमाग भी बंद रखने का निर्देश जन्म से ही दिया जाता है. धर्मों के पैरोकार नहीं चाहते कि सदियों से जिन बातों को बगैर सम?ो भक्त सच मानते आ रहे हैं उन बातों के दोष कोई ढूंढे़ व उन्हें बताए. और जो ऐसा करता है वह उन का शत्रु हो जाता है, उसे गालियां दी जाने लगती हैं, उसे प्रताडि़त व परेशान किया जाने लगता है. अधिकांशत: सुनियोजित तरीके से किए जाने वाले इन कृत्यों को संगठित रूप से किया जाता है और इस के पीछे छिपा वीभत्स सच है धर्म की शाश्वत दुकानदारी, जिस में हजारों सालों से आम लोग ठगे, छले जा रहे हैं.

‘सच से मुकरता…’ लेख भोपाल के एक धार्मिक आयोजन की घटना पर आधारित था जिसे किसी पाठक ने गलत या ?ाठ नहीं कहा है. वजह, यह विवाद हर कोई जानता है पर किसी पाठक या प्रतिक्रियादाता ने यह भी नहीं कहा या बताया कि आखिरकार क्यों हुकुमचंद जैन को बोलने से बलात रोका गया, उन्हें मंच पर अपमानित किया गया और उन के साथ ?ामा?ाटकी की गई?

इस सवाल का जवाब कोई देता (या दे) तो मेरे विचार में आपत्तिकर्ताओं की सारी तकलीफें दूर हो जाएं परंतु कुछ बातें ऐसी भी हैं जिन पर प्रतिक्रिया देने वालों को विस्तार से, तथ्यपरक ढंग से सम?ाने की आवश्यकता है.

शुरू में मैं ने कहा, मु?ो धमकियां दी गईं, ज्यादातर फोन पर दी गईं, भद्दी गालियां दी गईं, देख लेने और सबक सिखाने की धौंस दी गई. आवश्यकतानुसार ये फोन नंबर उपलब्ध हो सकते हैं और यह वैज्ञानिक तकनीक की वजह से संभव होगा किसी धर्म की वजह से नहीं. यहां मेरा संक्षिप्त अभिप्राय और संदेश इतना भर है कि आज चारों तरफ जो सुविधाएं दिख रही हैं वे उन लोगों की देन हैं जो वैज्ञानिक हैं, संन्यासी नहीं.

एक का उल्लेख मैं कर रहा हूं जिस के शब्द हैं, ‘आज आप के इस लेख को पढ़ कर यही समाज आप के विद्यापन को भी सीख दे सकता था, पर हमारा धर्म किसी को इजाजत नहीं देता कि वह किसी का मुंह बंद करे या उस से शत्रुता रखे, या फिर नफरत करे.’

4 दिसंबर, 2012 को ईमेल के जरिए मिली इस प्रतिक्रिया के आखिर में लिखा गया है, ‘भगवान आप को  सद्बुद्धि दे.’ (ईमेल :jain.udyog@hotmail.com)

सरिता के नवंबर (द्वितीय) अंक, 2012 में प्रकाशित कुछ पाठकों की प्रतिक्रियाओं को यहां उद्धृत किया जाना प्रासंगिक होगा, जिस में अप्रत्यक्ष ही सही, माना गया है कि लेख में कुछ तो सच था पर इसे बोला ही क्यों गया?

एक : नोएडा, उत्तर प्रदेश की सरोज जैन ने लिखा है, ‘आजकल हर कोई एकदूसरे पर कटाक्ष करना जानता है, जैन धर्मगुरु कभी भी यह नहीं कहते कि खुद को कष्ट दे कर आप उन की सेवा करो. लेखक ने लेख में बेवजह जैन धर्म पर कीचड़ उछाला है. मैं कहती हूं, यदि लेखक खुद एक हफ्ता दिगंबर जैन साधु की तरह अपनी दिनचर्या व्यतीत करें तो उन्हें सत्य का पता चल जाएगा कि जैन धर्म, भावनाओं का धर्म है. अंगरेजों से देश को आजादी दिलाने के लिए गांधीजी ने जैन धर्म के अहिंसा व सत्य को अपनाया था.’

सच :  जैन धर्मगुरु स्वयं अपनी सेवा करने को कहते हैं, यह लेख में पाठिका ने कहां पढ़ लिया, कृपया बताएं? जहां तक दिगंबर साधु बनने की बात है, मैं स्वीकार करता हूं. वह भी हफ्तेभर नहीं बल्कि पूरे 1 साल के लिए. इस के लिए मु?ो मालूम है कि सभ्य तौरतरीकों को छोड़ना पड़ेगा, हाथ का पात्र बना कर भोजन करना होगा, शौच के बाद जल का प्रयोग मेरे लिए वर्जित होगा, मैं साबुन वगैरह इस्तेमाल नहीं कर पाऊंगा, आदिआदि अभ्यास और प्रशिक्षण से मेरे क्या किसी के लिए भी यह संभव है? गांधीजी ने कहां यह माना है कि उन्होंने आजादी के लिए जैन धर्म से प्रेरणा ली, कृपया बताएं? यह सरासर धर्म की मिथ्या महत्ता जताने की कोशिश नहीं तो और क्या है?

दो : जबलपुर से डा. जागृति राज लिखती हैं, ‘चंद जैन मुनियों के कारण संपूर्ण जैन मुनियों को बदनाम करना गलत है.’

सच : पिछले 100 सालों में जैन मुनियों के व्यभिचार के सैकड़ों मामले उजागर हुए हैं और हर बार धर्मांध यही तर्क देते हैं. क्या गलत तभी होगा जब 100 प्रतिशत जैन मुनि व्यभिचारी हो जाएंगे? लेख की मूल भावना पर ध्यान दें कि मुनियों की बढ़ती संख्या के कारण ऐसे मामले बढ़ रहे हैं. लेख में कहीं भी किसी जैन मुनि या धर्म के बारे में अनर्गल और मूर्खतापूर्ण बात नहीं कही गई है. हां, सच कहना अगर मूर्खता और अनर्गल है तो वह कहा गया है.

तीन : उज्जैन की मीरा जैन ने माना है कि यह सत्य है कि जैन धर्म में कुछ विकृतियां प्रवेश कर गई हैं किंतु इस के लिए संपूर्ण जैन धर्म की सत्यता पर प्रश्नचिह्न लगाना अशोभनीय है.

सच : उन्हीं विकृतियों की चर्चा की गई है, परंतु आप को जाने क्यों संपूर्ण जैन धर्म की सत्यता पर प्रश्नचिह्न लग रहा है. यह बात तो आप के जेहन में आई है या पहले से ही है, मैं ने कहीं ऐसा नहीं लिखा. आप भी विकृतियों से मुंह मोड़ने की बात कह रही हैं.

इन तीनों पाठिकाओं को मु?ो खेद के साथ बताना पड़ रहा है कि जैन धर्म स्त्री को मोक्ष की अधिकारी नहीं मानता, इस पर क्यों वे कुछ नहीं बोलतीं. हर धर्म औरतों को दबाता है, दोयम दरजे की मानता है. हैरत है इस के बाद भी औरतें उस की वकालत करती हैं और कानून, समाज व परिवार में बराबरी का दरजा न मिले तो क्यों हायहाय करती नजर आती हैं.

औरंगाबाद के पाठक समीर ढोले की लंबी प्रतिक्रिया का संक्षिप्त लेकिन संपूर्ण उत्तर संपादक ने दिया है. इसे सभी प्रतिक्रियादाता एक दफा फिर गौर से पढ़ें और सोचें कि उन्होंने प्रतिक्रियाएं वाकई सिर्फ इसलिए दी हैं कि सच पर चुप रहो, जो गलत चल रहा है उसे उजागर मत करो.

बहरहाल, समीर ढोले चैंबूर की घटना पर खेद व्यक्त करते हुए मानते हैं कि इस केस में शक की गुंजाइश है और कोर्ट में इस विषय पर सच सामने आ ही जाएगा. ठीक इसी तरह प्रदीप मुनि की घटना के बारे में कुछ कहा जाएगा.

चैंबूर की पीडि़ता के परिवार के एक सदस्य ने फोन नंबर 9819850××× पर लेखक को बताया था कि उन के पास वह सीडी है जिस में आरोपी जैन मुनि अपने दुष्कृत्य के बाबत माफी मांग रहा है. यह आप का व दूसरे पाठकों का विश्वास नहीं बल्कि अपने उन व्यभिचारी धर्मगुरुओं के बचाव की बचकाना कोशिश है जिन्होंने वास्तव में धर्म को बदनाम कर उस की वास्तविकता बताई है. हैरानी की दूसरी बात उन्हें क्लीन चिट दे देना है जिस से दूसरों को शह मिलती है. क्यों इन्हें धर्म के बाहर निकालने की बात की गई?

उपकार नहीं है संन्यास

इस सहित दूसरे सैकड़ों पाठकों का कहना है कि संन्यासी जीवन दुर्लभ है, कठिन है, मानव समाज पर उपकार है, त्याग है और न जाने क्याक्या है. कुछ पाठकों के अनुसार लेख में यह गलत कहा गया है कि संन्यासी मुफ्त के मालपुए उड़ाते हैं, निकम्मे हैं, ऐश करते हैं या फिर मुफ्तखोर होते हैं.

एक पाठक युगराज जैन लिखते हैं, ‘याद रखना कि जैन समाज ने हमेशा देना सीखा है, आज पूरे देश में सर्वाधिक इनकम टैक्स जैन समाज देता है, पूरे देश में सर्वाधिक गोशालाएं संचालित करता है और यही जैन समाज स्कूल व अस्पताल बनाने में भी अग्रणी है.’ जैन मुनियों की वकालत करते युगराज का कहना है, ‘आप ने धर्मगुरुओं की बढ़ती तादाद पर लिखा कि ये मुफ्त की कमाई का धंधा है, अगर कमाई का धंधा ही करना होता तो वे अपनी कमाई का धंधा छोड़ कर संन्यास नहीं लेते.’

बात सम?ा से परे और अव्यावहारिक भी है कि संन्यास उपकार कैसे और क्यों है. संक्षिप्त में संन्यास एक धार्मिक कृत्य है जिस में व्यक्ति विशिष्ट वेशभूषा धारण कर लेता है, भक्ति करने लगता है, प्रवचन देने लगता है. इसलिए वह पूजा जाने लगता है और धर्मावलंबियों की श्रद्धा का पात्र हो जाता है.

संन्यास मेहनत की कमाई की रोटी नहीं खाता, दूसरे उस का पेट भरते हैं. पूजाअर्चना करना एहसान क्यों माना जाए, यह कोई राष्ट्रीय कर्तव्य नहीं है? व्यक्तिगत बात है और पलायन है. पलायन शब्द पर जो धार्मिक लोग आपत्ति उठाते रहते हैं वे बताएं कि इसे त्याग का चोला ओढ़ा कर वे क्या साबित करना चाहते हैं? समाज से अलग हो कर विशिष्ट दिख कर संन्यासी बन जाना क्या अपने उत्तरदायित्वों से भागना नहीं है. जिन लोगों का स्वाभिमान खत्म हो जाता है उन की संघर्षक्षमता भी उसी अनुपात में गिरने लगती है. लिहाजा, खुद को बचाएबनाए रखने के लिए वे संन्यास ले लेते हैं. दूसरे कई कारण भी संन्यास के हो सकते हैं जिन में विरक्ति प्रमुख है. संन्यासी सुरक्षा की दृष्टि से समाज में रहते हैं, मूल उद्देश्य अगर ईश्वर को पाना है तो जंगलों में जा कर साधना करें. यह तर्क कि वे तो प्राणी मात्र के कल्याण के लिए समाज में रहते हैं, एक अपरिपक्व बात है. वे तो खुद के कल्याण और उदरपोषण के लिए लोगों के बीच रहते हैं.

क्या यह बात बगैर पसीना बहाए मालपुए खाने की श्रेणी में नहीं आती? प्रतिक्रियादाताओं से मेरा दोटूक कहना यह है कि वे समाज की बागडोर किन हाथों में दे रहे हैं, उन्हें जो खुद हैरानपरेशान हैं, दुनिया से, घरपरिवार से, जिम्मेदारियों से, मेहनत से भाग चुके हैं. संविधान सभी को स्वतंत्र विचार रखने का अधिकार देता है पर थोपने का नहीं. यह काम तो धर्म करता है. धर्म एक नहीं है, अनेक हैं और उन में विकट के मतभेद हैं, ?ागड़े हैं, हिंसा है यानी जितने धर्म उतनी तरह के भगवान और हास्यास्पद बात यह कि हर धर्म के अंदर उपधर्म, जातियां, विचारधाराएं व संप्रदाय वगैरह हैं. और यह सब कियाधरा उन्हीं संन्यासियों का है जो धर्म की व्याख्या और प्रचार मनमाने ढंग से करने को स्वतंत्र हैं. जैन धर्म इस का अपवाद नहीं, जिस के

अंदरूनी ?ागड़ेफसाद बेहद घटिया तरीके से देखने में आते रहते हैं. मूल लेख में भोपाल के विवाद का उल्लेख उदाहरणस्वरूप किया गया है.

धर्मांध लोग चाहते हैं कि संन्यास व संन्यासियों पर आंख बंद कर व दिमाग खाली कर श्रद्धा रखी जाए ताकि धर्म की महत्ता बनी रहे. संन्यासी चाहते हैं, उन पर बहस न हो जिस से निर्विघ्न पल रहे उन के पेट और कट रहे वक्त में कोई बाधा न आए. शरीर को कष्ट देना विद्वत्ता की बात क्यों मानी जानी चाहिए, सिर्फ इसलिए कि सभी लोग ऐसा करने की सामर्थ्य नहीं जुटा पाते और हीनभावना का शिकार हो कर संन्यासी को पालतेपोसते रहते हैं.

एक पाठक ने धिक्कारते हुए चुनौती दी है, ‘आप कुछ दिन संन्यासी जीवन व्यतीत करिए तो आप को पता चलेगा कि इस राह में कांटे ज्यादा हैं फूल कम, इस में कितने मुश्किल बंधनों में रहना पड़ता है, कितना सहना पड़ता है.’

पाठक महोदय, जिस जीवन को आप ने जिया नहीं उस का अनुभव आप को कैसे हो गया? गलती आप की नहीं है क्योंकि बचपन से ही आप को ये बातें रटा दी गई हैं. आप का सिर उठने से पहले ही संन्यासियों के चरणों में ?ाका रहा है, इसलिए आप को लगने लगता है कि संन्यासी की राह आसान नहीं. एक तरह से बात सही है क्योंकि मुफ्त की या दान की रोटी मु?ा से खाई न जाएगी.

दरअसल, धर्म और संन्यासियों के निर्देशों पर जीवनयापन करने से बड़ी गुलामी कोई और हो ही नहीं सकती. खानापीना, उठनाबैठना और सहवास तक धर्म तय करता है तो फिर आप की बुद्धि, स्वतंत्रता और अस्तित्व कहां हैं. आप खुद तो दया के पात्र हैं और सीख मु?ा को दे रहे हैं.

अधिकांश पाठकों ने लिखा है कि मैं ने बगैर जैन धर्म का अध्ययन किए ‘सच से मुकरता…’ लेख लिख दिया है. उन के अनुसार, अगर मैं ने जैन धर्म को पढ़ासम?ा होता तो मैं ऐसा लेख लिख ही नहीं सकता था क्योंकि मेरी बुद्धि ऐसा करने की अनुमति नहीं देती. इन पाठकों की सलाह यह है कि मु?ो जैन धर्म, दर्शन को पढ़नासम?ाना चाहिए कि वह कितना विशाल, विराट, उदार, अहिंसक और महान है.

लेख जैन मुनियों की बढ़ती तादाद पर हुए भोपाल के एक विवाद को ले कर था, धर्म की अंदरूनी बातों की तो उस में कोई चर्चा ही नहीं थी. संन्यास व संन्यासियों पर मैं ने आपत्ति उठाई है और ऊपर पाठकों की प्रतिक्रियाओं पर अपनी बात को विस्तार भी दिया है. बात जहां तक धर्म की है तो वह शुद्ध व्यापार ही है और वाकई अति प्राचीन है. हर वह काम जिस में लेनदेन होता है, अर्थशास्त्र के हिसाब से व्यापार के दायरे में आता है. लोग पैसा क्यों चढ़ाते हैं, इंद्र, इंद्राणी बनने के लिए लाखोंकरोड़ों की बोलियां क्यों लगती हैं? पैसे का, वैभव का प्रदर्शन क्यों खुलेआम किया जाता है?

इस बारे में मेरा मत बेहद स्पष्ट है कि हर धर्म में लोगों को मोक्षमुक्ति के नाम पर इतना डरा दिया जाता है कि जन्ममरण के चक्र से मुक्ति पाने के लिए वे पैसा इच्छा से दें या अनिच्छा से, देते जरूर हैं. जैन धर्म इस का अपवाद नहीं है, उलटे मिसाल है.

कई नेक बातें जैन धर्म कहता है जिन पर शायद ही कोई सम?ादार आदमी एतराज जताए. एतराज की बातें हैं धर्म के नाम पर दिखावा, फुजूलखर्ची, श्रेष्ठ होने (दूसरे धर्म के लोगों से) की भावना जो कतई व्यक्ति, समाज या राष्ट्रहित की बातें नहीं. पर यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि न तो बगैर ?ाठ बोले कोई रह सकता है, न ही अहिंसा का पालन कर सकता है और न ही परिग्रह से बच सकता है. धार्मिक श्रद्धा या भावनाओं का हवाला दे कर इस सच से भागना कतई बुद्धिमानी या सम?ादारी की बात नहीं कही जा सकती.

लोगों में लोकपरलोक, पापपुण्य और अच्छेबुरे का डर पैदा कर उन से पैसा कमाना, ऐंठना और समाज निर्माण करना अगर ज्ञान की बातें हैं तो आज इन की जरूरत ही नहीं है और न पहले कभी थी. मानव विकास का इतिहास देखें तो सार यह निकलता है कि जैसेजैसे आदमी बुद्धिमान होता गया, तरक्की करता गया. उस के समानांतर एक समूह ऐसे लोगों का भी विकसित हुआ जिसे वाकई एक वास्तविक ज्ञान प्राप्त हो गया था कि जब धर्मग्रंथ रच कर अज्ञात और प्राकृतिक रहस्यों का हौवा दिखा कर मजे और मौज से दूसरों की कमाई पर पेट पाला जा सकता है, ऐश किया जा सकता है, मालपुए खाए जा सकते हैं तो मेहनत क्यों की जाए?

अहंकार की पराकाष्ठा

अधिकांश प्रतिक्रियादाताओं ने एक बात बड़े गर्व से कही है कि पूरे देश में सब से ज्यादा इनकम टैक्स देने वाला समाज जैन समाज है जो गोशालाएं भी चलाता है और परमार्थ के सारे काम करता है. ऐसा लगता है सर्वाधिक इनकम टैक्स की बात इफरात से प्रचारित की गई है जिस में कोई आंकड़ा या तथ्य नहीं दिया गया है. प्रबुद्ध पाठक बेहतर जानते हैं कि अभी सरकार ने धर्म, जाति, संप्रदाय या गोत्र के आधार पर आयकर के आंकड़े जारी करना शुरू नहीं किया है. कथित रूप से ही सही, चूंकि देश संवैधानिक तौर पर जैन समाज के दिए इनकम टैक्स से चल रहा है इसलिए धार्मिक और दूसरे मामलों में उस का लिहाज व सम्मान होना चाहिए वरना अर्थव्यवस्था पटरी से उतर जाएगी.

दरअसल, इस बात को कहने का एक अभिप्राय यह भी है कि हम दूसरे धर्मों व जातियों से ज्यादा धनाढ्य हैं जो श्रेष्ठता का एक पैमाना है. काश, किसी पाठक ने एक सच यह बोलने की हिम्मत जुटाई होती कि हमारे धार्मिक आयोजनों में सब से ज्यादा खर्च होता है, हम धर्म के नाम पर बोलियां लगाते हैं और जितने पैसे दानदक्षिणा व चढ़ावे में खर्च करते हैं उतना कोई दूसरा नहीं करता या कर सकता. हमें गरीबी से कोई मतलब नहीं क्योंकि वह कर्मों की देन है. इस देश में रोजाना 30 करोड़ लोग एक वक्त का खाना खा कर बसर करते हैं. हमें उन से कोई सरोकार नहीं क्योंकि धर्म कहता है कि वे अपने पापों की सजा अभाव की शक्ल में भुगत रहे हैं. यही उन की नियति है. धन्य है ऐसा धर्म और धार्मिक लोग.

इस के बाद भी यह कहना कि धर्म का पैसे से कोई लेनादेना नहीं और धर्म व्यापार नहीं, यह एक ऐसी जिद है जिस का तोड़ किसी के पास नहीं. सूर्य पूर्व से नहीं उगता की बात पर अगर कोई अड़ जाए तो उसे सम?ानाबु?ाना व्यर्थ है.

मद में डूबा वह व्यक्ति यही कहावत कहेगा कि नहीं, सूर्य पूर्व दिशा से नहीं उगता बल्कि सूर्य जहां से उगता है वही पूर्व दिशा हो जाती है, सूर्य दिशाओं के अधीन नहीं होता. बहरहाल, यह सम?ा से परे है कि इनकम टैक्स का धर्म से क्या संबंध है और किसी तरह का होना भी चाहिए या नहीं. ‘सच से मुकरता…’ में मैं ने जैन समुदाय की व्यापारिक बुद्धि की जो प्रशंसा की थी अब उस पर यह शब्द पढ़ कर पछता रहा हूं. इस बाबत जरूर मु?ो खेद है.

और भी हैं मसले

एक प्रतिक्रियादाता ने लेख में उल्लिखित 2 जैन मुनियों के उजागर व्यभिचार पर लगभग शर्मिंदगी जताते हुए युवा संन्यासियों का जिक्र करते हुए लिखा है कि संन्यासियों पर श्रावक नजर रखते हैं.

6 शब्दों की इस स्वीकारोक्ति पर कुछ कहना बाकी नहीं रह जाता. संन्यासियों पर निगाह रखने का मतलब है उन पर, उन के आचरण और चरित्र पर भी अविश्वास किया जाता है. फिर क्यों संन्यास और संन्यासियों की महिमा गागा कर बताई जाती है. इसे सम?ाने, सम?ाने के लिए ज्ञान कहां से लाया जाए, यह बताने वाला इस सृष्टि में शायद कोई होगा ही नहीं. ऐसे में यह आरोप लगाना कि मैं ने जानबू?ा कर जैन मुनियों का अपमान किया है, मेरे साथ ज्यादती है. मेरे विचार किसी मुनि या संन्यासी से नहीं बल्कि 2 व्यभिचारियों से ताल्लुक रखते थे, उन की करतूत उजागर करते थे. इन के अलावा तो किसी और का जिक्र तक नहीं किया गया. संन्यासियों का व्यभिचार कतई नई बात नहीं है, यह तो संन्यास के उद्भव से ही प्रारंभ हो जाता है.

हां, एक जैन मुनि तरुण सागरजी के राजनीतिक मोह को मैं ने उजागर किया है, जिस पर तमाम प्रतिक्रियादाता निरुत्तर या मौन रहे हैं. अगर यह सहमति है तो फिर राजनीति में रुचि रखने वाले मुनियों को कुछ हिंदू संतों की तरह खुल कर राजनीति में आने से हिचकिचाना नहीं चाहिए. आम जनता तो बेवकूफ है, इसलिए साधुसंत ही तय करें कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा क्योंकि सदियों से वे ही राजा का फैसला करते आ रहे हैं. बुरा हो लोकतंत्र का जिस ने यह अधिकार जनता को दे दिया, जिस का काम हमेशा से पालकी ढोना रहा है.

दूसरी बात हिंदू धर्मावलंबियों की तरह गाय को पूजने की है. यह बात विचित्र इसलिए है कि जैन धर्म कृष्ण को भगवान नहीं मानता बल्कि वर्तमान में नर्क में होना बताता है. किसी को भी कृष्ण या नर्क का अतापता नहीं मालूम. पर यह सब को मालूम है कि चूंकि धर्मग्रंथों में लिखा है इसलिए गोपालक कृष्ण को नर्क में मानते हैं. जब गाय कृष्ण को तार नहीं सकी यानी नर्क गमन से नहीं बचा पाई तो बेवजह उस की धार्मिक महत्ता का बखान क्यों?

हिंदू व जैन धर्म का परस्पर बैर जगजाहिर है. इन में आएदिन रीतिरिवाजों और धर्मस्थलों को ले कर विवाद होते रहते हैं. जैनियों की यह मांग पुरानी है कि जैन धर्म को स्वतंत्र व अल्पसंख्यक धर्म घोषित किया जाए. जैनियों की परेशानी यह है कि वे पहचाने हिंदू धर्म के नाम से ही जाते हैं. हैरत की बात यह है कि तमाम हिंदूवादी संगठनों में जैनियों का दखल है, हिंदुत्व के मुद्दे पर वे हिंदुओं के साथ हैं फिर भी अल्पसंख्यक होने की मांग सम?ा से परे है.

इन बातों को कहने का मतलब यह भर है कि प्रतिक्रियादाताओं ने अपने धर्मगुरुओं में अगाध आस्था जताते हुए कहा है कि उन के बताए रास्ते पर ही वे चलते हैं. अल्पसंख्यक बनने का रास्ता अगर धर्मगुरुओं ने दिखाया हो तो हैरानी नहीं होनी चाहिए. वजह, इस से कई शैक्षणिक व धार्मिक लाभ भी हैं.

हाल ही में गुजरात में एक जैन मुनि प्रबल सागरजी पर हुए हमले का जैन समुदाय ने देशव्यापी विरोध किया. सभी ने मांग यह की कि हमलावरों को पकड़ा जाए पर हमले की वजह क्या थी, यह बात किसी ने नहीं उठाई. प्रबल सागरजी का इस मसले पर बोलना काफी माने रखता. वे क्यों नहीं बोले या बोलते, यह वाकई सम?ा से परे है और कई संदेहों को भी जन्म देता है.

जैन मुनियों पर हमलों से किसी की धार्मिक भावना आहत नहीं होती. वजह साफ है कि यह उन का अंदरूनी मामला है. मुनियों की बढ़ती तादाद पर लेखक ने चिंता जताई और जो वजहें गिनाईं वे निराधार नहीं थीं, यह इन हमलों से भी साबित होता है. फिर तिलमिलाहट क्यों, सिर्फ इसलिए कि जैन धर्म पर लिख दिया, तो यह कोई वजह नहीं हुई. लेख का मकसद लोगों के भले का था, उन्हें सचेत करना था. जो धर्म वक्त के साथ चलने की सहमति न रखता हो उस में बदलाव जरूरी है जिस से जड़ता न बढ़े.

सारी प्रतिक्रियाओं में से एक भी ऐसी नहीं है जिस में तथ्य तो दूर की बात है तर्क भी ढंग के हों. उन का जवाब जो होना चाहिए था, वह प्रस्तुत है.

लेखक का उद्देश्य अगर दुर्भावनापूर्ण होता तो वह जैन धर्म के सिद्धांतों की, रूढि़वादिता की, रीतिरिवाजों की आलोचना करता लेकिन संयोग से एक सपाट और स्पष्ट लेख पर धौंसधपट भरी प्रतिक्रियाएं मिलीं तो चिंता होना स्वाभाविक है कि

लोग धर्म के नाम पर इतने अंधे क्यों हो रहे हैं कि न तो सच सुनना चाहते हैं न कहने देना चाहते हैं.

 

यह कैसा संन्यास

चंबल इलाके के भिंड जिले के कसबा मौ में 21 मार्च को एक जैन साध्वी सोनल जैन को कुछ बदमाश उन के घर में घुस कर अगवा कर ले गए और उन्हें निर्वस्त्र कर बुरी तरह मारापीटा. यह समाचार 23 मार्च के अखबारों में प्रमुखता से प्रकाशित हुआ था, जिस के मुताबिक 25 वर्षीय सोनल 18 मार्च को अपने पिता के घर आई थीं. घटना बहुत ही शर्मनाक और निंदनीय है. सोनल को चिकित्सा के लिए ग्वालियर के जयारोग्य अस्पताल में भरती कराया गया. पुलिस ने शुरू में सुस्ती दिखाते हुए आरोपियों के खिलाफ साधारण मारपीट का मामला दर्ज किया था पर बाद में जैन समुदाय के लोगों द्वारा आक्रोश जताने पर दुष्कर्म की कोशिश, अपराध व छेड़छाड़ की धाराएं भी इस में जोड़ दीं.

साध्वी से आरोपियों का बैर क्या और क्यों था, ये बातें यहां चर्चा का विषय नहीं पर सरिता के अंकों में प्रकाशित ‘सच से मुकरता…’ पर आपत्ति जताने वालों और संन्यास की महिमा गाने वालों को जरूर इन बातों पर गौर कर कोई जवाब, अगर सू?ाता हो तो, देना चाहिए :

एक : साध्वी सोनल अपने मातापिता के घर आई थी, यह वाक्य ही विकट का विरोधाभासी है. कहा यह जाता है कि संन्यासियों का कोई घर नहीं होता, न ही किसी से कोई रिश्तानाता होता है. फिर सोनल का क्यों था? क्या संन्यास छात्रावासीय जीवन सरीखा हो चला है जिस के तहत संन्यासी (साध्वी) होली, दीवाली अपने मांबाप और परिजनों से मिलनेजुलने व कुछ दिन साथ बिताने घर चले आते हैं. सांसारिकता और रिश्तेनातेदारों से उन का किसी भी तरह का लगाव अगर रहता है तो उन्हें संन्यासी क्यों कहा जाए और कैसे कहा जाए? क्या संन्यास इस मामले से पार्टटाइम जौब प्रतीत नहीं होता?

दो : 24 मार्च को होश में आने के बाद सोनल ने इलाज कर रहे डाक्टरों को इस बाबत फटकार लगाई कि उन्हें अंगरेजी दवा क्यों दी जा रही है. सोनल के साथ आरोपियों ने कोई दुष्कर्म यानी बलात्कार नहीं किया था पर मारा इतनी बेरहमी से था कि उन के शरीर में 3 जगह फै्रक्चर हुए थे. जाहिर है उन की मंशा साध्वी को बेइज्जत करने और किसी पुरानी रंजिश का बदला लेने की थी.

यानी सोनल को वक्त पर अस्पताल न ले जाया जाता तो उन की मौत भी हो सकती थी फिर जिंदगी देने वाले डाक्टरों को फटकार क्यों लगाई, उन्हें तो डाक्टरों को धन्यवाद देना चाहिए था. गौरतलब है कि जैन संन्यासी किसी तरह की चिकित्सा या दवा नहीं लेते क्योंकि इस से उन का संन्यास भंग हो जाता है.

प्रश्न उठता है कि क्या इस बात को ध्यान में रखते हुए डाक्टरों को अपना कर्तव्य भूल कर सोनल को उन के हाल पर छोड़ देना चाहिए था? भविष्य में अगर ऐसे हादसों का दोहराव होगा तो डाक्टरों को उन की ड्यूटी निभाने यानी मरणासन्न संन्यासी की जिंदगी बचाने के लिए इलाज से पहले वाकई सोचना पड़ेगा.

तीन : डाक्टरों को फटकार लगाने के बाद भी सोनल इलाज लेती रहीं और उन्हें ड्रिप भी बराबर लगाई जाती रही यानी वे इलाज करवाती रहीं. इस का मतलब साफ था कि उन्हें संन्यास से ज्यादा जीवन से प्यार था जो निहायत ही स्वाभाविक बात है फिर स्वांग और पाखंड क्यों? इलाज कर रहे डाक्टरों खासतौर से मैडिकल कालेज के डीन डा. जी एस पटेल और अस्पताल अधीक्षक डा. एस एन अयंगर की हालत तो इधर कुआं और उधर खाई वाली हो गई थी. सोनल अपने शरीर पर बंधा प्लास्टर हटाने की भी मांग कर रही थीं और मध्य प्रदेश के चिकित्सा शिक्षा मंत्री अनूप मिश्रा उन के स्वास्थ्य की जानकारी लगातार डाक्टरों से ले रहे थे. इलाज ढंग से न होता तो मंत्रीजी चढ़ाई कर देते और इलाज करते रहे तो साध्वी सोनल एतराज जताती रहीं. इस में डाक्टरों का क्या अपराध था?

चार : सोनल का कहना था कि उन का व्रत यानी इज्जत और जीवन दोनों णमोकार मंत्र जपते रहने से बचे. क्या वे यह बता पाएंगी कि जब णमोकार मंत्र इतना ही शक्तिशाली है तो आरोपियों की हिम्मत उन्हें अगवा करने और उन पर हमला करने की कैसे पड़ी? क्यों मंत्र से ही हमलावरों की बुद्धि नहीं पलट दी गई और उन्हें भस्म कर दिया गया?

पांच : क्या सोनल बयान देने के लिए अदालत जाएंगी, तकनीकी तौर पर यह सवाल बेहद पेचीदा है. अस्पताल तो उन्हें परिजन ले गए थे पर ठीक हो जाने के बाद वे अदालत जाने के लिए उन पर जबरदस्ती नहीं कर सकते क्योंकि संन्यासी अदालत भी नहीं जाते. अब सोनल के रुख से पता चलेगा कि इस मामले में संन्यास के सिद्धांत क्या हैं. लेकिन यह तय है कि अगर वे नहीं गईं तो इस का कानूनी फायदा आरोपियों को मिलेगा. जाहिर यह भी है कि एक साधारण फरियादी की तरह उन्हें आरोपियों की शिनाख्त करनी होगी.

जज ने थामी नेपाल की बागडोर

नेपाल की सियासी उठापटक एक न्यायाधीश के प्रधानमंत्री बन जाने से भले  ही थमती प्रतीत हो पर इस में कोई दोराय नहीं है कि इस फैसले के दौरान सियासी दलों का स्वार्थी व जनविरोधी चेहरा सब के सामने उजागर हो गया है. आने वाले आम चुनावों में नेपाल की सियासत का ऊंट किस करवट बैठेगा, विश्लेषण कर रहे हैं बीरेंद्र बरियार ज्योति.

नेपाल के सियासी दलों की आपसी खींचतान और सिरफुटौव्वल की वजह से आखिरकार देश के मुख्य न्यायाधीश को प्रधानमंत्री की कुरसी मिल गई. हर राजनीतिक दल के नेता इसी उठापटक में लगे थे कि अगर उन्हें प्रधानमंत्री की कुरसी नहीं मिली तो वे किसी और को भी प्रधानमंत्री बनने नहीं देंगे. यही वजह है कि आपस में रायमशविरा कर किसी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए किसी दल का नेता तैयार नहीं हुआ पर मुख्य न्यायाधीश को अंतरिम प्रधानमंत्री बनाने पर सब राजी हो गए. अब आगामी 21 जून को नेपाल में होने वाला आम चुनाव उन्हीं की देखरेख में होगा.

नेपाल के मुख्य न्यायाधीश खिल राज रेगमी ने 14 मार्च को देश के नए प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली. 63 साल के रेगमी के अंतरिम प्रधानमंत्री बनने के बाद नेपाल में कई महीनों से चल रहा सियासी गतिरोध तो खत्म हो गया पर सियासी दलों की आपसी स्वार्थ की कलई एक बार फिर खुल गई कि किसी भी पार्टी को देश और जनता की चिंता नहीं है, वे बस सत्ता का सुख भोगने की जुगत में लगे रहते हैं.

राजशाही पर सत्तासुख भोगने का आरोप लगाने वाले सियासी दलों के नेता आज खुद लोकतंत्र के बहाने अपनाअपना राजतंत्र कायम करने में लगे हुए हैं. इसी चक्कर में नेपाल में होने वाला चुनाव पिछले कई महीनों से टलता रहा. रेगमी ने प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई की जगह ली है. चुनाव कराने के लिए 11 मंत्रियों की टोली का मुखिया रेगमी को बनाया गया है.

यूनाइटेड डैमोक्रैटिक मधेशी फ्रंट (यूडीएमएफ) समेत देश के 4 प्रमुख दलों की लंबी बैठक के बाद मुख्य न्यायाधीश की अगुआई में चुनावों की देखरेख के लिए सरकार गठित करने के मसले पर सहमति बनी. बैठक के बाद 11 बिंदुओं वाले राजनीतिक सहमतिपत्र  पर हस्ताक्षर किए गए. डैमोक्रैटिक मधेशी फ्रंट के विजय कुमार गच्छेदार, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के प्रमुख पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’, नेपाली कांग्रेस की अध्यक्ष सुशीला कोइराला और नेपाली कांग्रेस (युमाले) के अध्यक्ष ?ालानाथ खनाल ने हस्ताक्षर किए.

वोटर लिस्ट में सुधार करना, नागरिक प्रमाणपत्र बना कर बांटना, आम नागरिक समस्याओं को दूर करना, नेपाल सेना में शामिल माओवादियों के लिए कर्नल का 1 और लैफ्टिनैंट कर्नल के 2 पद बनाने समेत 11 बिंदुओं पर सहमति बनी.

नेपाली कांग्रेस की अध्यक्ष सुशीला कोइराला कहती हैं कि मुख्य न्यायाधीश को अंतरिम प्रधानमंत्री बनाए जाने से न केवल देश में चल रहा सियासी गतिरोध खत्म हुआ है बल्कि चुनाव के बाद लोकतंत्र और मजबूत हो कर उभरेगा.

नेपाल के इतिहास में पहली बार मुख्य न्यायाधीश को सरकार का मुखिया बनाया गया है. गौरतलब है कि नेपाली संसद का कार्यकाल 2012 में ही पूरा हो गया था. सियासी दलों की आपसी खींचतान की वजह से चुनाव की तारीखें टलती जा रही थीं. आखिरकार मुख्य न्यायाधीश की अगुआई में चुनाव कराने के लिए सभी पार्टी के नेता तैयार हो गए. इस से पहले 1990 में बंगलादेश में तब के चीफ जस्टिस शहाबुद्दीन अहमद को सरकार का मुखिया बना कर चुनाव कराया गया था.

अब जब चुनाव की तैयारियां शुरू हो गई हैं तो नेपाली कांग्रेस पार्टी (माओवादी) ने नया बखेड़ा शुरू कर दिया है. वह यह मांग कर रही है कि रेगमी को हटा कर चुनाव कराने का जिम्मा सियासी दलों के हाथों में ही सौंपा जाए. ऐसा नहीं होने पर वह चुनाव में शामिल न होने की धमकी दे रही है. नेकंपा (माओवादी) अपने साथ छोटेछोटे सियासी दलों को जोड़ने की मुहिम में लगी हुई है. उस की चाल है कि किसी भी तरह से चुनाव को टाला जाए.

किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने की वजह से ही नेपाल में टिकाऊ सरकार नहीं बन सकी, जिस से देश में भीतरी उठापटक मची रही और चीन वहां अपना मतलब आसानी से साधने में लगा हुआ है. यह नेपाल के साथसाथ भारत के लिए भी काफी नुकसानदेह साबित हो सकता है.

चीन जहां भारत और नेपाल के प्रति आक्रामक रवैया रखता है वहीं भारत नेपाल को छोटे भाई के रूप में देखता है और चीन से भी मधुर रिश्ता बनाए रखना चाहता है. सब जानते हैं कि चीन नेपाल में अपना दबदबा बढ़ा कर भारत पर निशाना साधे रखने की जीतोड़ कोशिशों में लगा हुआ है. चीन के लिए सब से बड़ा सिरदर्द नेपाल में रहने वाले 20 हजार तिब्बती शरणार्थी हैं जो नेपाल के रास्ते चीन और भारत आतेजाते रहते हैं. नेपाल को माली मदद दे कर चीन उसे दिमागी रूप से अपना गुलाम बनाए रखना चाहता है.

नेपाल के आधारभूत ढांचे और जलबिजली परियोजनाओं के अलावा सैन्य ताकत को मजबूत करने के लिए चीन ने नेपाल को 10 करोड़ डौलर की माली मदद देने का ऐलान किया. वहीं काठमांडू तक अपनी पहुंच को आसान बनाने के लिए चीन 1,956 किलोमीटर लंबे रेलमार्ग पर तेजी से काम कर रहा है. 2014 तक पूरी होने वाली इस गोलमुडल्हासा रेल परियोजना पर चीन 1.9 अरब रुपए खर्च कर रहा है. चीन की देखादेखी भारत ने भी नेपाल पर खजाना लुटाना शुरू कर दिया है. पिछले साल ही भारत ने नेपाल में 4 जौइंट चैकपोस्ट बनाने, नेपाल के 33 जिलों में 1,500 किलोमीटर लंबी सड़कों का जाल बिछाने और दोनों देशों के बीच 184 किलोमीटर ब्रौडगेज रेललाइन बनाने के लिए 3 हजार करोड़ रुपए की मदद दी है.

नेपाल के वीरगंज इलाके का रहने वाला कारोबारी रमेश यादव कहता है कि नेपाल में अगर मजबूत सरकार होती तो चीन की मनमानी नहीं चल पाती. नेपाल की कमजोरी का फायदा उठा कर चीन नेपाल में अपना मजबूत नैटवर्क बना कर भारत को परेशान करने में लगा हुआ है.

रेगमी की इंटरनैशनल मुहिम

रेगमी चुनाव को ले कर काफी उत्साहित हैं और चीन, जापान समेत दूसरे देशों के राजदूतों से लगातार मिल रहे हैं. रेगमी और इंटरनैशनल समुदायों की कोशिश है कि चुनाव में कम से कम दल हिस्सा लें. उन का मानना है कि जितने कम दल चुनाव में भाग लेंगे, नेपाल की राजनीतिक स्थिरता उतनी ही मजबूत होगी. अगर ऐसे हालात बनते हैं तो नेपाल में छोटे दलों का वजूद खत्म होने के कगार पर है, इसलिए छोेटे दल रेगमी की देखरेख में होने वाले चुनाव का एक सुर में विरोध कर रहे हैं.

सवालों के घेरे में छात्र राजनीति

बंगाल में एक छात्र की हुई मौत पर भड़की हिंसा से एक बार फिर यह मुद्दा जोर पकड़ने लगा है कि भारत में छात्र राजनीति गुंडागर्दी का पर्याय और वर्चस्व की लड़ाई का मैदान बन चुकी है. बंगाल समेत देश के कई कालेजों में हिंसक घटनाएं और मौतें इस बात की कैसे तसदीक करती हैं, बता रही हैं साधना शाह.

कुछ दशकों से देश की छात्र राजनीति ने नया मोड़ लिया है. शिक्षण संस्थानों में गुंडागर्दी, पुलिस के साथ हिंसक ?ाड़प और मौत आम हो गई है. बंगाल के विभिन्न जिलों के कालेज व विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ के हालिया हुए चुनावों में से कोई भी शांतिपूर्ण नहीं रहा. कोलकाता के गार्डेनरीच इलाके में हरिमोहन कालेज के चुनाव में खुलेआम गुंडागर्दी व एक इंस्पैक्टर की मौत से साफ हो गया कि बंगाल में शिक्षण संस्थानों का माहौल विषैला होता जा रहा है. इस घटना के बाद राज्य सरकार ने छात्रसंघ के चुनाव पर रोक लगा दी. हालांकि ऐसा कानून व्यवस्था की बहाली के मद्देनजर किया गया था पर हुआ उलटा ही.

चुनाव पर रोक के विरोध में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीएम के छात्र संगठन स्टूडैंट्स फैडरेशन औफ इंडिया यानी एसएफआई के कार्यकर्ता व समर्थक सड़क पर उतरे. प्रदर्शन और नारेबाजी के दौरान पुलिस के साथ ?ाड़प और फिर छात्रों की गिरफ्तारी हुई. पुलिस कस्टडी में पिटाई के बाद एसएफआई समर्थक सुदीप्तो गुप्तो की मौत के बाद एक बार फिर से कानून व्यवस्था गड़बड़ा गई. और इस पर जम कर राजनीति हुई.

छात्र की मौत के बाद बंगाल ही नहीं, दिल्ली में भी घातप्रतिघात का सिलसिला चला. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी दिल्ली गईं तो उन के सहयोगियों के साथ बदसलूकी की गई. एसएफआई समर्थक छात्र की मौत के बाद ममता बनर्जी और राज्य प्रशासन भारी दबाव में थे. लेकिन दिल्ली में एसएफआई के द्वारा हमला व बदसलूकी की घटना ने उन के ऊपर के दबाव को काफी हद तक हलका कर दिया. सुदीप्तो की घटना के बाद मुंह छिपा रही तृणमूल को पलटवार करने का मौका मिल गया. इस से पहले सुदीप्तो की मौत को कैश कराने में सीपीएम ने पूरा जोर लगा दिया था. लेकिन इस से चूक हो गई.

पासा पलट गया

दिल्ली में तृणमूल नेताओं के साथ बदसलूकी के बाद ममता बनर्जी गरजीं और खूब गरजीं. योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और योजना राज्यमंत्री राजीव शुक्ला को जम कर खरीखोटी सुनाई. प्रधानमंत्री के साथ बैठक भी उन्होंने रद्द कर दी. इस का खासा असर बंगाल में देखने को मिला. जगहजगह सीपीएम के दफ्तरों में तृणमूल कार्यकर्ताओं ने जम कर तोड़फोड़ की. पूर्व मंत्री रज्जाक मोल्ला और सुदर्शन रायचौधुरी पर हमला कर तृणमूल ने हिसाब बराबर कर लिया. छात्र मौत से होने वाली तृणमूल की समालोचना की जगह ली सहानुभूति ने.

अन्य राज्य भी अछूते नहीं

बंगाल में ही नहीं, बल्कि पिछले दिनों राजधानी दिल्ली समेत मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश के कालेजों विश्वविद्यालयों में छात्र संगठन के चुनाव के दौरान में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति देखने में आई. छात्र संगठन के चुनाव के नाम पर गुंडागर्दी, पुलिस के साथ ?ाड़प, दो गुटों के बीच मारपीट और हत्या का दौर पूरे देश में चला. कुछ दशकों से छात्र राजनीति शिक्षण संस्थानों में गुंडागर्दी का पर्याय बन गई है.

वर्ष 2006 में मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले के माधव कालेज में छात्र राजनीति का सब से अधिक ?ाक?ोर देने वाली घटना घटी. 26 अगस्त, 2006 को माधव कालेज में छात्रसंघ चुनाव के दौरान हंगामा कर रहे छात्रों को जब प्रोफैसर सभरवाल ने टोका तो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद यानी एबीवीपी के समर्थक छात्रों व उस के दबंगों ने प्रोफैसर सभरवाल समेत एक और अध्यापक प्रोफैसर नाथ के मुंह पर कालिख पोती और उन की जम कर पिटाई की. इस दौरान सभरवाल को दिल का दौरा पड़ा और उन की मौत हो गई. वारदात के बाद एबीवीपी के नेता विमल तोमर और शशि रंजन समेत 6 लोगों की गिरफ्तारी हुई, पर उन्हें जमानत मिल गई. राज्य की भाजपा सरकार पर आरोपियों को बचाने का आरोप लगा. बहरहाल, 6 में से 1 आरोपी विमल तोमर की संदिग्ध हालत में मौत हो गई.

पिछले साल अगस्त में उत्तर प्रदेश में लखनऊ के कान्यकुब्ज कालेज, कानपुर के डीएवी कालेज समेत गोरखपुर, ?ांसी, आगरा के कालेजों व विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ के चुनाव में बाहुबलियों की बाकायदा धूम रही. हिंसक वारदातों में कालेजोें में बाहरी लोगों के बेरोकटोक प्रवेश का बड़ा हाथ रहा है. बहरहाल, इस के बाद उत्तर प्रदेश के कई शिक्षण संस्थानों में बगैर पहचानपत्र के परिसर मेें प्रवेश पर रोक लगा दी गई. लेकिन इस से गुस्साए सभी छात्र नेता तोड़फोड़ पर आमादा हो गए. 13 अगस्त, 2012 को कानपुर के डीएवी कालेज परिसर में पूर्व छात्र नेता विपिन शुक्ल ने अपने बंदूकधारियों के साथ कालेज में जबरन घुसने का प्रयास किया तो जम कर मारपीट हुई, कई छात्र घायल हुए. वहीं, छात्र राजनीति में वर्चस्व की लड़ाई में गोरखपुर में छात्र नेता सतपाल सिंह और प्रदीप सिंह की हत्या कर दी गई.

छात्र चुनाव ही नहीं, शिक्षण संस्थानों में छात्र अपनी मांग मंगवाने के लिए तरहतरह से दबाव बनाते हैं. वर्ष 2009 में भोपाल के बरकतउल्ला विश्वविद्यालय में अखिल भारतीय छात्र परिषद ने कुलपति का घेराव और हंगामा किया. बाद में कुलपति ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई और विश्वविद्यालय प्रशासन ने छात्रों को नोटिस भी थमाया. मध्य प्रदेश के इंदौर में अहल्याबाई विश्व विद्यालय में कुलपति डा. भागीरथ प्रसाद को पदभार लेने के लिए पुलिस की मदद लेनी पड़ी थी.

सुप्रीम कोर्ट की कवायद

देशभर में छात्र संगठन के चुनाव के दौरान हिंसक ?ाड़प को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट हरकत में आई. शिक्षा संस्थानों में राजनीतिक हिंसा पर लगाम लगाने के लिए 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने लिंगदोह समिति का गठन किया था. समिति की सिफारिशों को सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार किया और इस पर अमल करने के लिए राज्यों को दिशानिर्देश भी जारी किया. हाल ही में राज्य में होने वाली राजनीतिक हिंसा को देखते हुए चुनाव आयोग के पूर्व अध्यक्ष और समिति के अध्यक्ष जे एम लिंगदोह ने अपने एक बयान में कहा कि पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के विभिन्न कालेजों व विश्वविद्यालयों में भी छात्र संगठन के चुनाव में राजनीतिक हिंसा हमेशा से होती रही है लेकिन समिति की सिफारिश के आधार पर सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश से इन राज्यों में हिंसा की वारदातें बहुत कम हो गई हैं.

अभी कुछ समय पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी शांतिपूर्ण माहौल में छात्र संगठन का चुनाव हुआ. लेकिन बंगाल ही अकेला राज्य है जहां समिति की सिफारिशों और सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश को तूल नहीं दिया जा रहा है.

सुदीप्तो की मौत के बाद छात्र राजनीति और छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकार को ले कर नई बहस छिड़ गई है. छात्रों को क्या किसी पार्टी विशेष के एजेंट के रूप में राजनीति करनी चाहिए? छात्रों को राजनीति से तौबा कर लेनी चाहिए या पार्टी विशेष की राजनीति से अलग हो जाना चाहिए? छात्र आंदोलन के मुद्दे क्या हों, राजनीतिक हों या गैर राजनीतिक?

विशिष्ट जनों के विचार

राज्य के जानेमाने राजनीतिक चिंतक अमल मुखर्जी का कहना है कि बंगाल ही नहीं, पूरे देश में छात्र संगठन की कोई निजी सत्ता नहीं है. छात्र संगठन राजनीतिक पार्टियों की छत्रछाया में फलतेफूलते हैं. छात्र संगठन किस राह चलेगा, किस मुद्दे पर क्या रुख अख्तियार करेगा आदि सब राजनीतिक पार्टियां तय करती हैं. मसलन, शिक्षा का व्यवसायीकरण, राजनीतिक दखलंदाजी से मुक्त पाठ्यक्रम, साक्षरता के प्रचारप्रसार, महिला यौन उत्पीड़न और नशीले पदार्थों के सेवन के विरोध में जागरूकता अभियान जैसे बहुत सारे विषय हैं. कालेज-विश्वविद्यालय को राजनीतिक नियंत्रण से मुक्त करने के लिए छात्र आंदोलन के मुद्दों में बदलाव निहायत जरूरी है.

बोस इंस्टिट्यूट के निदेशक शिवाजी राहा का कहना है कि छात्रों को राजनीति जरूर करनी चाहिए वरना राजनीति में अपराधियों का बोलबाला बढ़ने लगेगा. पर कोलकाता हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश भगवती प्रसाद बनर्जी का कहना है कि छात्रों का एकमात्र लक्ष्य पठनपाठन होना चाहिए. राजनीति करने के लिए नेता हैं. राजनीति में पड़ कर छात्रों का भविष्य और उन की प्रतिभा दोनों नष्ट हो रही है.

ममतापंथी बुद्धिजीवी सुनंद सान्याल, जो इन दिनों राज्य में चल रही हिंसक राजनीति के समालोचक हैं, का कहना है कि राज्य की स्थिति देख कर यही लगता है कि अगले कुछ सालों तक छात्रों को राजनीति से दूर ही रहना चाहिए. राजनीतिक पार्टियां कालेजविश्वविद्यालय के छात्रों को एक बड़े हद तक गुंडा बना रही हैं. शिक्षण संस्थान नेता तैयार करने के अखाड़े में तबदील हो गए हैं. लेकिन राजनीतिक पार्टियों को नेताओं की आपूर्ति करने का काम शिक्षण संस्थान का नहीं हो सकता है. सुनंद सान्याल कहते हैं कि इसी कारण मैं चाहता हूं कि पढ़ाई पूरी करने के बाद अगर किसी को लगे कि उसे राजनीति में जाना चाहिए, तो वह बेशक जाए.

जहां तक राजनीति में छात्रों की शिरकत का सवाल है तो यही कहा जा सकता है कि नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व छात्र ही करते हैं. ऐसे में देश व समाज में घट रही घटनाओं पर उन के विचार जरूर माने रखते हैं. और फिर 18 साल की उम्र में युवाओं को मतदान का अधिकार दिया गया है तो इस से जाहिर है कि देश की युवा पीढ़ी प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष चुनाव करती है, ऐसे में छात्रों को राजनीति से दूर रहने की बात करना हास्यास्पद है. हां, इतना जरूर है कि राजनीति का बिजनैस करने वाले नेता जिंदा इंसान के प्राणों की कीमत सम?ों. अगर ऐसा नहीं हुआ तो जाने कितने छात्र राजनीति की बलि चढ़ जाएंगे.

मोदी और राहुल – खोखले दावों के सौदागर

नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के भाषणों और वक्तव्यों में न तो नयापन है और न ही देश के विकास की ठोस योजना. जनता को बरगलाने के खोखले दावों की पोटली जरूर है. प्रधानमंत्री पद के संभावित उम्मीदवार माने जा रहे इन दोनों दिग्गजों की शख्सीयत का विश्लेषण कर रहे हैं जगदीश पंवार.

देश में पहली बार कुछकुछ अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की तर्ज पर प्रधानमंत्री पद के 2 दावेदार जनता को लुभाने की होड़ में निकल पड़े हैं. गुजरात के मुख्यमंत्री व भाजपा के नेता नरेंद्र मोदी ने अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छोड़ दिया है तो राहुल मोदी के घोड़े को थाम कर कांग्रेस की नैया पार लगाने में जुट गए हैं. मोदी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी दोनों अपनाअपना विकास का नजरिया पेश कर रहे हैं. मोदी के विकास के हवाई प्रवचनों में चमत्कार, जादू की कहानियां हैं तो राहुल के दावों में बदलाव को ले कर सवाल हैं. जवाब दोनों महारथियों के पास नहीं हैं. हालांकि दोनों को अभी तक उन की पार्टियों ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है.

भाजपा की रामलीला में अभी तक तय ही नहीं हो पाया, राम कौन बनेगा. रामनाम जपने वाली इस पार्टी में राम के लिए महाभारत दिख रहा है. दावेदार कई हैं पर वनवास के लिए नहीं, राजतिलक कराने के लिए आतुर हैं. लक्ष्मण, भरत, हनुमान बनने को कोईर् तैयार नहीं. अलबत्ता तवज्जुह न मिलने पर विभीषण और बातबात पर श्राप देने वाले व संन्यास की धमकी देने वाले जरूर दिखते हैं लेकिन प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी की बेचैनी साफ देखी जा सकती है.

फिक्की की महिला शाखा और टैलीविजन कार्यक्रम ‘थिंक इंडिया’ में हुए मोदी के भाषण प्रवचन अधिक लगते हैं. भाषणों में मोदी की ‘मैं’ यानी अहं बारबार बाहर झलक रहा था. मोदी के बोल व्यक्तिवादी, स्वयं यानी मैं पर आधारित हैं. इस तरह का अहं हमारे पौराणिक देवताओं, अवतारों, महर्षियों, साधुओं की कथाओं में दिखता है. अहम् ब्रह्मास्मि अर्थात मैं ही बह्म हूं. मैं ही रचयिता हूं, मैं ही संहारक हूं, मैं ही सबकुछ हूं.

हिंदुत्व की पाठशाला में तपे और गुजरात में हिंदुत्व की प्रयोगशाला के प्रधान आचार्य नरेंद्र दामोदरदास मोदी के प्रवचन कुछ इसी तरह के हैं जैसे भगवद्गीता में कृष्ण खुद ही अपनी दिव्य विभूतियां बताते हैं :

अहम् आत्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:,  अहमादिश्च मध्यं च भूतानामंत एव च. यानी हे गुडाकेश, सब प्राणियों के हृदय में रहने वाली आत्मा मैं हूं्. मैं ही सब प्राणियों का आदि, मध्य और अंत हूं.

हे अर्जुन, 12 आदित्यों में विष्णु मैं हूं. प्रकाशमान ज्योतियों में सूर्य मैं हूं. उनचास मरुतगणों में मरीचि नामक वायु मैं हूं. तारागणों में चंद्रमा मैं हूं. वेदों में सामवेद, देवताओं में इंद्र, इंद्रियों में मन, ग्यारह रुद्रों में शंकर मैं हूं. यक्षराक्षसों में कुबेर मैं हूं. आठ वसुओं में अग्नि मैं हूं. पर्वतों में मेरु मैं हूं. पुरोहितों में बृहस्पति, सेनापतियों में स्कंद, झीलों में समुद्र, महर्षियों में भृगु, वाणी में अक्षर ॐ मैं हूं. यज्ञों में जप यज्ञ मैं हूं. स्थावरों में हिमालय मैं हूं. वृक्षों में पीपल मैं हूं. देवऋषियों में नारद, हाथियों में ऐरावत, गायों में कामधेनु, शस्त्रों में वज्र, नागों में अनंत, जलचरों में वरुण, शासन करने वालों में यम मैं हूं. दैत्यों में प्रहलाद, गिनती करने वालों में काल मैं हूं. हिरनों में सिंह मैं हूं. पक्षियों में गरुड़ मैं हूं. योद्धाओं में राम मैं हूं. मछलियों में मगर, नदियों में गंगा, विद्याओं में अध्यात्म विद्या मैं हूं. ऋतुओं में वसंत ऋतु मैं हूं. छलियों में जुआ, विजेताओं में जय, उद्यमियों में व्यवसाय, यदुवंशियों में वासुदेव, पांडवों में अर्जुन, मुनियों में व्यास और कवियों में शुक्राचार्य मैं हूं. दंड देने वालों में दंड मैं हूं, ज्ञान वालों में ब्रह्मज्ञान मैं हूं. गुप्त पदार्थों में मौन मैं हूं और मनुष्यों में राजा मैं ही हूं.

यानी मोदी का दंभ इस प्रकार दिखता है जैसे पौराणिक कथाओं में श्राप देने की शक्ति रखने वाले साधुओं की बातों में प्रकट होता था.  मोदी दिल्ली में फिक्की की महिला शाखा की बैठक में फरमाते हैं, ‘‘एक व्यक्ति 4 तीर्थस्थलों पर जाता है और मोक्ष पा लेता है पर एक फाइल 30-35 जगहों पर जाती है फिर भी काम नहीं होता.’’

समझ नहीं आता, मोदी संन्यासी बनने जा रहे हैं या प्रधानमंत्री? वह तो हिंदू धर्म में मोक्ष, स्वर्ग का प्रचार कर रहे हैं. मोक्ष के उदाहरण में देश के विकास की सीख कहां है. मोदी धर्म में मोक्ष की तो गारंटी देते हैं पर खुद सरकारी कामकाज में सुधार कर फाइलें आगे बढ़ाने की गारंटी नहीं दे सकते. वे आगे कांग्रेस के पब्लिक, प्राइवेट पार्टनरशिप की जगह पब्लिक, पीपल, प्राइवेट और पार्टनरशिप अपनाने की सलाह देते हैं. चंद कौर्पोरेट घरानों के साथ उन की सरकार की पार्टनरशिप जगजाहिर है पर पीपल और पब्लिक की पार्टनरशिप कैसे करेंगे? लोगों को भागीदारी कैसे देंगे?

वे कहते हैं कि नेता ना और अफसर हां करना सीखें. जनाब, आप ने यह नहीं बताया कि कहां सीखें? घूसखोरी में, सांप्रदायिक दंगों में? महिला वोटरों को लुभाने के लिए मोदी ने गुजरात की जसुबेन की मिसाल देते हुए कहा कि इस महिला ने 20 रुपए से पिज्जा बेचने की शुरुआत की थी और अब नहीं रहीं पर आज उन के बेटे पिज्जा स्टोर संभाल रहे हैं.

जसुबेन के जरिए असल में वे अपने प्रतिद्वंद्वी राहुल गांधी पर भी निशाना साध रहे हैं. वे कहते हैं कि राहुल ने 2008 में महाराष्ट्र की कलावती का जिक्र संसद में किया था पर लाख कोशिशों के बावजूद कलावती आज भी गरीब, असहाय, बेबस है.

नरेंद्र मोदी टैलीविजन चैनल पर गुड गवर्नैंस पर बोले. उन्होंने वही बातें दोहराईं जो राहुल गांधी सीआईआई में कह चुके थे लेकिन समस्याओं का ठोस समाधान न तो मोदी ने और न राहुल ने सुझाया.

मोदी ने देश को हाथी की संज्ञा दी और राहुल मधुमक्खी का छत्ता बता रहे हैं तो दोनों ठीक ही कहते हैं क्योंकि देश की राजनीतिक शासन व्यवस्था सफेद हाथी बनी हुई है जो जनता की गाढ़ी कमाई को खाए जा रहा है और मधुमक्खी के छत्ते का शहद कोई और ले जाता है, मधुमक्खियों को नहीं मिलता. लेकिन इस का हल दोनों नेताओं के पास नहीं है.

उधर राहुल गांधी सीआईआई की बैठक में विकास से वंचित बड़े हिस्से के बारे मेें उसी कौर्पोरेट जगत को नसीहत देते हैं जिस के साथ मिल कर उन की सरकार ने संसाधनों की लूटखसोट की है.

मोदी प्रधानमंत्री पद के लिए आतुर हैं. वे चुनावी मंत्र दे रहे हैं. वे इस तरह खुद को पेश कर रहे हैं मानो उन के पास कोई करिश्मा है, चमत्कार, जादू है कि उन के आते ही देश की तमाम समस्याएं हल हो जाएंगी. रामराज स्थापित हो जाएगा.

 मोदी बारबार गुजरात के विकास का मौडल सामने रखते हैं. वे कहते हैं कि आज देश में आर्थिक मुद्दों पर बहस हो रही है. विकास को ले कर एक प्रतियोगिता शुरू हो चुकी है और गुजरात को गर्व है कि उस ने विकास आधारित राजनीति पर राष्ट्रीय बहस का एजेंडा तय किया है. पर वास्तव में वहां कैसा विकास हुआ है, आंकड़ों की हकीकत कुछ और ही है. गरीबी में आई कमी के आधार पर गुजरात 20 प्रदेशों की सूची में 10वें नंबर पर है. मजदूरी में वृद्धि के मामले में 20 बड़े प्रदेशों में गुजरात 15वें स्थान पर है.

गुजरात विधानसभा में मार्च में पेश सीएजी की रिपोर्ट बताती है कि आर्थिक स्तर पर पैट्रोल और खाद पर सब से ऊंची वैट दर वाले गुजरात राज्य पर सरकारी बोझ 2002 में 45.301 करोड़ रुपए का था वह 2012 तक 1.76 लाख करोड़ रुपए का हो गया. गुजरात में इस साल राजकोषीय घाटा 20,496 करोड़ रुपए का है जो राज्य के जीडीपी का 2.57 प्रतिशत है. हालांकि, बजट में राजस्व घाटा नहीं है.

ऊपर से मोदी गुजरात छोड़ कर अब भारतमाता का कर्ज चुकाने दिल्ली आना चाहते हैं. जिस तरह मोदी अपनी कार्यक्षमता के उदाहरण के रूप में गुजरात में किए गए अपने कामों का हवाला देते हैं उसी तरह राहुल गांधी युवा कांग्रेस में अपने कामों को यह दिखाने के लिए पेश करते हैं कि व्यवस्था में किस तरह बदलाव किया जा सकता है पर वे यह भी मानते हैं कि युवा कांग्रेस में आए परिवर्तन को लोग समझ नहीं पाए और इसलिए उस की कहीं चर्र्चा ही नहीं होती.

मोदी के व्यक्तिवादी आधारित भाषणों के विपरीत राहुल गांधी व्यक्तिपरक न हो कर एक अरब लोगों को सत्ता के अधिकार में शामिल करने के समर्थक हैं. यानी मोदी के व्यक्तिवादी केंद्रीकरण के बजाय राहुल सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात करते हैं.

4 अप्रैल को राहुल गांधी सीआईआई के सम्मेलन में कहते हैं, ‘‘मेरे प्रधानमंत्री बनने का सवाल गैरवाजिब है.’’ उन के अनुसार भारत में एक ऐसा सिस्टम बन गया है जिस में यह सोचा जाता है कि कोई घोड़े पर सवार हो कर आएगा जिस के पास बेशुमार ताकत होगी और वह तमाम समस्याओं का हल कर देगा.

राहुल आगे कहते हैं कि कोई एक शख्स देश की समस्याओं का उत्तर नहीं खोज सकता. देश के करोड़ों लोगों को मिल कर उत्तर ढूंढ़ना होगा. उन्होंने भारत और चीन की तुलना करते हुए भारत को मधुमक्खी का छत्ता बताया तो 6 अप्रैल को भाजपा के स्थापना दिवस समारोह में मोदी ने जवाब देते हुए देश को मधुमक्खी का छत्ता नहीं, भारत मां कहा था.

राहुल के अनुसार, सत्ता का केंद्रीकरण होना ही व्यवस्था में अवरोधों का कारण है. इस में नीतियों के निर्माण में आम आदमी की बात नहीं सुनी जाती. इस के साथ ही नीतियों के क्रियान्वयन में देरी होती है और भ्रष्टाचार पनपता है.

लेकिन मोदी इस व्यवस्था को खारिज करते हुए कहते हैं कि व्यवस्था में बुराईर् नहीं है. इसी कानून, इसी संविधान, इन्हीं नियमकायदों, कर्मचारियों, दफ्तरों और काम करने के इन्हीं तरीकों के साथ भी हम आगे बढ़ सकते हैं और काफी कुछ हासिल कर सकते हैं. यानी मोदी को नयापन नहीं, हम तो लकीर के फकीर ही बने रहना चाहते हैं क्योंकि हमारी प्राचीन सनातन संस्कृति व परंपराएं हों या शासन व्यवस्था, नहीं छोड़नी चाहिए.

स्पष्ट है मोदी कांग्रेस के शासन को नाकाम बता रहे हैं. धर्र्मपरायण मोदी को क्या निंदा करनी चाहिए? धर्म काम, क्रोध, ईर्ष्या, निंदा न करने की सीख देता है पर मोदी के तेवर अहंकारी तो हैं ही, निंदापरस्त भी हैं.

जनता को ताकत देने की कितनी ही बातें करें पर दोनों नेताओं के अपनेअपने पिछले 10 साल के शासन में गरीब, आम आदमी और बदहाल हुए जबकि कौर्पोरेट, अमीर और अमीर बने. दोनों की सत्ता ने निरंकुश तंत्र को प्रश्रय दिया.

उधर, राहुल गांधी कहते हैं कि गरीबी से निबटने के लिए लोगों को अधिकार देने होंगे. संप्रग ने बुनियादी ढांचे को मजबूत करने के लिए जो खाका बनाया है, उस में इसी पर जोर है. हर व्यक्ति को बुनियादी शिक्षा, रोजगार, सूचना, स्वास्थ्य देने की जरूरत है और हम यही करने की कोशिश कर रहे हैं.

यह ठीक है कि लोगों को शिक्षा, भोजन, आवास देने के अधिकार दिए जा रहे हैं पर दिक्कत यह है कि ये योजनाएं भ्रष्टाचार, निकम्मेपन के चलते सिरे नहीं चढ़ पा रही हैं. इस पर राहुल गांधी की पार्टी के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार कोई ठोस उपाय सोच नहीं पाती. राहुल गांधी ने बदलाव की बातें तो की हैं पर वह होगा कैसे? उन के पास कोई फार्मूला नहीं है. वे सत्ता की ताकत आम आदमी के हाथ में देने की बात कहते हैं लेकिन उन पार्टी की सरकार द्वारा इसी मकसद से 3-4 दशक पहले शुरू की गई पंचायतीराज व्यवस्था के बावजूद क्या लोगों के हाथों में ताकत आ पाई? पंचायतों में अभी भी पटवारी पंच से ज्यादा ताकतवर है. फैसले नौकरशाह लेते हैं.

इन दोनों के भाषणों के विपरीत 2004 के बराक ओबामा के चुनावी भाषण अधिक प्रभावशाली होते थे. पब्लिक मीटिंगों में उन का विजन स्पष्ट होता था. युवाओं में बेरोजगारी की समस्या, आउटसोर्सिंग, विदेश नीति, इराक, अफगानिस्तान युद्ध नीति, कर नीति से ले कर हर छोटेबड़े मुद्दों पर अपने विचार रखते थे लेकिन हमारे प्रधानमंत्री पद के दोनों दावेदार राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी भाषणवीर तो बने घूम रहे हैं, विकास के बड़ेबड़े मंत्र फूंक रहे हैं पर विकास की राह के सब से बड़े दुश्मन भ्रष्टाचार, आतंकवाद, सांप्रदायिकता, आंतरिक व बाहरी सुरक्षा, सामाजिक गैर बराबरी, भाईभतीजावाद, नेतागीरी, नौकरशाही व कौर्पोरेट की लूट व अंधविश्वास जैसे ज्वलंत मुद्दों पर कोई बात नहीं कर रहे हैं.

प्रधानमंत्री पद के दोनों दावेदारों में दम नहीं है. केवल भाषणों से लोगों का पेट नहीं भरता. देश चलाने के लिए चुनौतियों का सामना करने के लिए जज्बा चाहिए, नया नजरिया चाहिए. मोदी के दामन पर सांप्रदायिक नरसंहार के दाग हैं तो वंश परंपरा से निकले राहुल गांधी अब तक अपनी काबिलीयत न दिखा पाने वाले नेता बने हुए हैं. राहुल की पार्टी भ्रष्टाचार को ले कर कठघरे में है.

लिहाजा, मोदी और राहुल गांधी दोनों ही आज की तारीख में देश के प्रधानमंत्री बनने लायक नहीं हैं. राहुल को तो बनना ही नहीं चाहिए. उन की काबिलीयत पर सहयोगी कभी भी उंगली उठा सकते हैं. तो फिर कौन? यह सवाल जनता के भविष्य से जुड़ा हुआ है. गंभीरता से सोचना होगा कि कौन देश को आगे ले जा सकता है.

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