मैं आगरा से भोपाल झेलम ऐक्सप्रैस से जा रही थी. साथ में केंद्रीय हिंदी संस्थान के कुछ विदेशी छात्र झांसी घूमने जा रहे थे. एसी कोच के साथ समस्या रहती है कि शीशे में से झांक कर स्थान देखना पड़ता है. छात्रों के साथ 2 शिक्षक भी थे. ट्रेन काफी देरी से चल रही थी, इसलिए स्टेशन नियत समय पर नहीं आ रहे थे. शिक्षक हर स्टेशन झांक कर देख लेते थे. ग्वालियर पर गाड़ी रुकी तो शिक्षक ने एक छात्र से कहा, ‘‘देखो कौन सा स्टेशन है.’’ छात्र ने शीशे में से झांका. सामने लिखे को पढ़ा और बोला, ‘‘सर, महिला शौचालय स्टेशन आया है.’’

मैं ने खिड़की से देखा, सामने ही महिला शौचालय था, हंसतेहंसते बुरा हाल हो गया. वे छात्र हिंदी सीखने आए थे. उन्होंने अभी वर्णमाला और जोड़जोड़ कर पढ़ना ही सीखा था. अटकअटक कर विदेशी उच्चारण से हिंदी बोलने की कोशिश कर रहे थे.

डा. शशि गोयल, आगरा (उ.प्र.)

 

हमारे एक परिचित हैं. उन की अपनी छोटी सी फैक्टरी में मिक्सी के पार्ट्स बनते थे. अच्छा काम चल रहा था. 2 वर्ष पहले वर्कर्स के मन में बेईमानी आ गई. किसी तरह फैक्टरी के बाहर वाले ताले की डुप्लीकेट चाबी बनवा ली और रात में 4-5 घंटे काम करने लगे. जो सामान रात को बनता उसे छुट्टी के दिन बेच आते.

मालिक को घाटा होता गया और वर्कर्स मालामाल होते गए.कुछ महीने पहले फैक्टरी बेचने की नौबत आ गई. उन के वर्कर्स ने ही मिल कर फैक्टरी खरीद ली.

निर्मल कांता गुप्ता, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

 

कुछ समय पूर्व मेरे परिचित के बेटे को पीलिया हो गया. मैं उसे देखने अस्पताल गई तो वहां पर एक महिला मेरे परिचित से बोल रही थी, ‘‘यह धागा मैं अभिमंत्रित करवा कर लाई हूं. इसे पहना दो. दवाओं से कुछ नहीं होगा. पीलिया तो मंत्र से ही ठीक होता है.’’ चूंकि मैं ने ‘अंधविश्वास उन्मूलन’ हेतु अपनी एक कहानी में इसी बात का जिक्र किया था तो सोचा, चलो, क्यों न यथार्थ में इसे अमल में लाया जाए.

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