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आपके पत्र

सरित प्रवाह, अगस्त (द्वितीय) 2013

आप की संपादकीय टिप्पणी ‘तेलंगाना और कांगे्रस’ पढ़ी. आप ने तेलंगाना राज्य बनाने के निर्णय को सही ठहराया है. आप के विचारों का स्वागत करते हुए पश्चिम बंगाल के पहाड़ी इलाके और तराई डुवर्स के गोरखा बहुल क्षेत्रों को ले कर एक पुराने आंदोलन का जिक्र करना चाहता हूं. गोरखालैंड के मुद्दे को ले कर संसद में हंगामा हुआ जब दार्जिलिंग के सांसद व वरिष्ठ भाजपा नेता जसवंत सिंह ने गोरखालैंड के आंदोलन का जिक्र करते हुए राजनीतिक समाधान निकालने का अनुरोध किया लेकिन तृणमूल कांगे्रस के सांसद संदीप बंधोपाध्याय, सौगत राय और कल्याण बनर्जी ने असंसदीय भाषा में गोरखालैंड का घोर विरोध किया, जैसा पहले से बंगाल के अन्य दल माकपा, भाकपा, कांग्रेस करते आ रहे हैं.

गोरखालैंड के लिए जिस भूभाग को ले कर आंदोलन किया जा रहा है, उस का उन्हें ऐतिहासिक सत्य मालूम नहीं है. सुगौली संधि, तितलिया संधि और सिंचूला संधि के तथ्यों का ज्ञान नहीं है. इतना ही नहीं, उन्हें 1986 में तत्कालीन वाम मोरचा सरकार द्वारा प्रकाशित श्वेतपत्र में लिखित सत्य भी स्वीकार्य नहीं है. दरअसल, दार्जिलिंग की भूमि सिक्किम के राजा ने 1835 में ब्रिटिश सरकार को दी थी. तब इस इलाके में रहने वाले कौन थे? इस का जवाब है कि गोरखा ही थे.

अफसोस तो इस बात का भी है कि गोरखाओं का खुल कर विरोध करने वाले भद्र लोगों को यह भी जानकारी नहीं है कि देश के स्वतंत्र होने के बाद डा. भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता में बनी संविधान सभा के सदस्यों में कलिंपोंग (दार्जिलिंग) के बैरिस्टर अरि बहादुर गरुड़ भी थे. आज के राजनेता देश के स्वतंत्रता संग्राम में जीवन बलिदान करने वाले सुभाषचंद्र बोस के सहयोगी गोरखाओं के त्याग का इतिहास जानना ही नहीं चाहते. तेलंगाना राज्य गठन करने का फैसला जब कांगे्रस वर्किंग कमेटी ने लिया तो एक शताब्दी पुराने गोरखालैंड राज्य की मांग के लिए किए जा रहे आंदोलन को ऊर्जा मिली है. गोरखालैंड के नाम से राज्य बनाना ही होगा वरना आंदोलन रुकने वाला नहीं.

बिर्ख खडका डुवर्सेली, दार्जिलिंग (प.बं.)

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आप की टिप्पणी ‘मैडिकल शिक्षा, सरकार और अदालत’ सचाई से रूबरू कराती है. इस में यह दर्शाया गया है कि व्यावसायिक मैडिकल शिक्षा पर जोर देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में मैडिकल काउंसिल औफ इंडिया द्वारा आदेशित कौमन मैडिकल एंट्रैंस टैस्ट के नियम को असंवैधानिक करार दे दिया है. इस से लगभग 300 कालेज खुश होंगे जो निजी सैक्टर के हैं. कौमन टैस्ट के कारण वे अपनी मनमरजी के अनुसार छात्रों को मैडिकल कालेजों में प्रवेश नहीं दे पा रहे थे.

छात्रों को अब अलगअलग संस्थानों में प्रवेश पाने के लिए अलगअलग टैस्टों में बैठना पड़ेगा और वे देशभर में मारेमारे फिरेंगे. दरअसल, सस्ते होने के चलते सरकारी संस्थानों में प्रवेश के लिए लंबी लाइनें लगने लगीं और लाखों की रिश्वतें लीदी जाने लगीं. इन के पर्याय के रूप में प्राइवेट मैडिकल कालेज खुले और थोड़ीबहुत आनाकानी के बाद सरकार ने उन्हें स्वीकार कर लिया. यह अच्छा था क्योंकि सरकार के वश में और कालेज खोलना संभव न था. देश को चिकित्सा कालेजों की बहुत जरूरत है और गांवगांव में चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हो सके, इस के लिए हर तरह के चिकित्सक चाहिए ही. इस मामले में ज्यादा ढीलढाल आगे चल कर महंगी साबित होगी.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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‘मैडिकल शिक्षा, सरकार और अदालत’ शीर्षक से प्रकाशित आप का संपादकीय पढ़ा. आप के विचार अच्छे हैं. सरिता के माध्यम से मैं कुछ अपने विचार पेश करना चाहता हूं. प्राइवेट मैडिकल कालेजों में पढ़ाई के अलावा सबकुछ होता है. इसी वजह से उन का स्तर सरकारी मैडिकल कालेजों से नीचे है. इस के प्रमुख कारण ये हैं :

दाखिला मेरिट के आधार पर नहीं, बल्कि पैसों के बल पर होता है. अधिकांश प्राइवेट मैडिकल कालेजों में फुलटाइम टीचिंग फैकल्टी नहीं है. वे  वर्ल्डक्लास सुविधा का दावा करते हैं लेकिन अफसोस कि वर्ल्डक्लास शिक्षा देने में असमर्थ हैं. छात्र कालेज आते ही नहीं. यदि आते हैं तो सुविधाओं का लाभ लेने के लिए आते हैं. कान में इअरफोन लगा कर गाने सुनते हैं. लेकिन क्लास नहीं अटैंड करते. तो फिर इस वर्ल्डक्लास सुविधा का क्या मतलब है?

अधिकांश छात्र कालेज नहीं आते. लेकिन कोई भी छात्र उपस्थिति के आधार पर परीक्षा में बैठने से वंचित नहीं किया जाता, बल्कि पेनल्टी ले कर उसे परीक्षा में बैठने दिया जाता है, जोकि गलत है. प्रबंधन छात्रों की पढ़ाई पर ध्यान देने के बजाय उन्हें पास करवाने में व उन्हें प्रायोजिक परीक्षा में अच्छे नंबर दिलवाने में दिलचस्पी लेते हैं, जोकि उन की मजबूरी है. यदि छात्र फेल होते हैं तो पेरैंट्स का दबाव आता है, जिन्होंने लाखों रुपए दे कर अपने बच्चों का दाखिला करवाया है. प्रबंधन भी चाहता है कि हर छात्र अच्छे नंबर से पास हो, ताकि अगले सत्र में प्रवेश लेने ज्यादा से ज्यादा छात्र आएं. प्राइवेट मैडिकल कालेज पैसा कमाने के केंद्र बने हुए हैं. उन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं कि वे छात्रों को क्या दे रहे हैं. पैसे के बल पर प्राइवेट मैडिकल कालेज सबकुछ मैनेज कर लेते हैं. पेरैंट्स सोचते हैं कि ज्यादा पैसे दे कर प्राइवेट कालेजों में उन के बच्चे अच्छी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं तो यह उन का भ्रम है.

शशिकांत, जबलपुर (म.प्र.)

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‘हिंदू राष्ट्रवादी मोदी’ संपादकीय में आप के विचार पढ़े, जो नरेंद्र मोदी यानी नमो के प्रति आप की एलर्जेटिक सोच को उजागर करते लगे. यों भी यह शायद हमारे देश की ही महानता है कि जो अपने राष्ट्र के प्रति जितना ज्यादा देशभक्त या राष्ट्रवादी है, वही देश का सब से बड़ा देशद्रोही या शत्रु कहलाता है. वरना आप जैसे बुद्धिजीवी तत्त्व यह नहीं कहते कि ‘किसी के मात्र हिंदू राष्ट्रवादी कहलाने या पुकारे जाने के कारण ही देश में मुसलिम राष्ट्रीयता का जन्म हुआ, जिस के परिणामस्वरूप ही देश का विभाजन हुआ.’ जबकि विभाजन के लिए वास्तव में वह कुंठित सोच, जिस के तहत आज भी किसी समुदाय विशेष के लोग स्वयं को भारतीय कहलाने में गर्व अनुभव न करते हों, जिम्मेदार हैं.

वैसे भी हाल ही के एक सर्वेक्षण में देश के युवाओं ने स्वीकारा कि उन्हें ऐसा तानाशाह शासक चाहिए जो अपने डंडे के जोर से देश की सभी जरूरतों को पूरी करने की ताकत रखता हो. वहीं अगर 1975 के तानाशाह फिर से इस देश के शासक चुने जा सकते हैं तो नमो के पीएम चुने जाने में कौन सी अड़चन है? हां, हिंदू पुकारना हमारे यहां अपराध है.

टी सी डी गाडेगावलिया, करोल बाग (न. दि.)

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लेख ‘मिड डे मील मामला : स्कूलों में बंटता जहर’ हकीकत बयान करता है. बिहार के एक स्कूल में 23 बच्चों की मिड डे मील खाने से हुई मृत्यु ऐसा पहला मामला नहीं है. कई बार ऐसा हो चुका है और भ्रष्ट प्रशासन के चलते ऐसा होने की आगे भी आशंका है. सरिता में प्रकाशित चित्र ने दिल दहला दिया. पर हम हैं कि पैसों का सौदा किए जा रहे हैं. यह भूल कर कि इंसान अमीर हो या गरीब, अन्न ही खाता है. पूरी दुनिया में कोई भी इंसान पैसा खा कर जीवित नहीं रह सकता है. उसे अन्न का ग्रास करना ही पड़ेगा. और भ्रष्ट व्यवस्था के चलते कब किस के हाथ में मृत्यु का ग्रास थमा दिया जाएगा, कुछ कहा नहीं जा सकता.

कृष्ण मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

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लेख ‘मिड डे मील’ मामला ‘स्कूलों में बंटता जहर’ पढ़ कर मन क्षुब्ध हो गया. क्या ये वही सरकारी स्कूल हैं जिन में कभी डा. राजेंद्र प्रसाद व लाल बहादुर शास्त्री सरीखे लोग पढ़ा करते थे? शिक्षकों की लापरवाही व पढ़ाई के गिरते स्तर के कारण वैसे भी लोग सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों का नामांकन करवाने से कतराते हैं, उस पर ‘मिड डे मील’ की इस हृदयविदारक दुर्घटना ने कोढ़ में खाज वाली कहावत को चरितार्थ ही किया है.

देश की सरकार योजनाएं तो खूब बनाती है परंतु उन योजनाओं का संचालन करना नहीं जानती. सरकारी कर्मचारी तो लापरवाही के लिए जाने ही जाते हैं. सरकार जानती है कि इन बच्चों के मातापिता अत्यंत निर्धन हैं और निर्धनता कमजोर का पर्याय है. तभी तो थोड़े दिन की गहमागहमी के बाद सबकुछ शांत हो जाता है और सरकारी कार्य फिर अपनी चाल से चलने लगता है. मिड डे मील के रूप में जहर बांटने से तो अच्छा होता अगर हर बच्चे को साबुत अनाज व सब्जियां ही दे दी जातीं ताकि मातापिता साफसफाई से खाना बना कर अपने बच्चों को खिलाते.

आरती प्रियदर्शिनी, गोरखपुर (उ.प्र.)

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समाधान से असहमत

अगस्त (प्रथम) अंक में ‘पाठकों की समस्याएं’ स्तंभ के अंतर्गत प्रकाशित चौथे प्रश्न के उत्तर में कंचनजी के समाधान से मैं असहमत हूं. अपनी संतान से संरक्षण पाना बुजुर्ग मातापिता का हक है, फिर चाहे वह संतान पुत्र हो या पुत्री. यहां, प्रश्नकर्ता की पत्नी बीमार, विधवा मां की इकलौती संतान है. इसलिए उन की देखभाल करना प्रश्नकर्ता की पत्नी व स्वयं प्रश्नकर्ता का नैतिक व सामाजिक उत्तरदायित्व है.

यहां, प्रश्नकर्ता पत्नी को मायके भेज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं. प्रश्नकर्ता के अनुसार, जब वे अपनी सास की बहन के यहां पहुंचे तो उन की सास की तबीयत वाकई खराब थी. यानी पत्नी झूठे बहाने बना कर नहीं जाती बल्कि मां की बीमारी से मजबूर हो कर जाती है.

मेरे विचार से बेहतर समाधान यह होगा कि प्रश्नकर्ता अपनी पत्नी व सास को यह भरोसा दिलाने की कोशिश करें कि उन की परेशानी में वे उन के साथ हैं. हो सके तो बीमार सास को स्वस्थ होने तक या आजीवन ससम्मान अपने साथ रखें ताकि पत्नी निश्चिंत हो कर अपने घरपरिवार की तरफ ध्यान दे सके. हमेशा याद रखें कि जितने कष्ट उठा कर आप के मातापिता ने आप का पालनपोषण किया है, उतने ही कष्ट उठा कर पत्नी के मातापिता ने उस की परवरिश की है. इसलिए जो सम्मान व समर्पण आप पत्नी से अपने परिवार वालों के लिए चाहते हैं वही सम्मान व समर्पण आप को पत्नी के मातापिता को देना होगा.

पतिपत्नी का रिश्ता आपसी विश्वास व सहयोग पर आधारित होता है न कि अधिकार बोध पर. इस पूरे मामले में प्रश्नकर्ता को आत्मावलोकन करने की आवश्यकता है. यदि वे सच्चे मन से सास के प्रति अपनी जवाबदेही को समझें और निभाएं तो तनाव के बादल छंट जाएंगे व स्थितियां सामान्य हो जाएंगी.

ज्योति राकेश, बेतिया (बिहार)

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बच्चों के हक पर डाका

अगस्त (द्वितीय) अंक में ‘मिड डे मील मामला : स्कूल में बंटता जहर’ लेख पढ़ कर बड़ा दुख हुआ. देश से कुपोषण की समस्या दूर करते हुए बच्चों को शिक्षा के प्रति आकर्षित करने के लिए ‘दोपहर का भोजन’ योजना बनाई गई थी. दुखद यह है कि यह योजना एक बड़े घोटाले में तबदील होने के साथ ही बच्चों के लिए जानलेवा साबित हो रही है. पिछले दिनों बिहार के सारण जिले में 23 मासूम बच्चों की अकाल मृत्यु ने इस योजना में हो रही धांधली और लूट को सब के सामने ला दिया है.

इस योजना के लागू होते ही इस ने अपना यह सकारात्मक प्रभाव दिखा दिया कि स्कूल में बच्चों की उपस्थिति काफी बढ़ गई. लेकिन यह योजना भी देश के राजनीतिक और सामाजिक गिद्धों की नजरों से ज्यादा दिनों तक बच न सकी और आखिरकार यह भी देश के भ्रष्टतंत्र की भेंट चढ़ गई. दुनिया की इस सब से बड़ी ‘दोपहर का भोजन’ योजना के लिए केंद्र सरकार जो पैसा देती है वह बच्चों की थाली तक आतेआते काफी कम हो जाता है.

केंद्र सरकार की यह योजना बहुउद्देशीय और दूरगामी परिणाम वाली है मगर इस के क्रियान्वयन का तरीका ठीक नहीं होने के कारण गरीब बच्चों की भूख को शांत करने वाली इस योजना में हर स्तर पर लूट मची हुई है.

मुकुंद प्रकाश मिश्र, शिवहर (बिहार)

एकता का जोधा अकबर

एकता कपूर का धारावाहिक ‘जोधा अकबर’ हमेशा से विवादों में चल रहा है. इस की टीआरपी भी अच्छी नहीं चल रही है. नए ढंग और नई सोच के साथ प्रस्तुत किया गया यह धारावाहिक राजपूतों के जज्बात से छेड़छाड़ कर रहा है. ऐसे में राजपूतों के विरोध पर एकता ने माफी मांगी है और धारावाहिक को वे फिर से लिखवा रही हैं. एकताजी, सासबहू का धारावाहिक छोड़ कर आप कुछ भी करती हैं तो आप की नई सोच हमेशा उलटी पड़ती है. कम से कम सीरियल के तथ्यों को ले कर आप से यह उम्मीद नहीं थी.

 

रणदीप की पर्सनल लाइफ

बौलीवुड ऐेक्टर्स हमेशा अपनी पर्सनल लाइफ को डिस्कस करने से कतराते हैं, रणदीप हुड्डा भी आजकल अपनी पर्सनल लाइफ को डिस्कस करने से कतरा रहे हैं. दरअसल, रणदीप आजकल अदिति राव हैदरी के साथ काफी बार देखे गए, उन के रोमांस के चर्चे हैं. इस बारे में पूछे जाने पर उन्होंने आव देखा न ताव, पूछने वाले पर बरस पड़े कि आखिर वे अपनी पर्सनल लाइफ की चर्चा किसी से क्यों करें. रणदीपजी, जब बहुत कुछ हुआ हो तो उसे छिपाने से क्या फायदा, सभी को पता है कि आप के और अदिति के बीच कुछ चल रहा है.

 

 

सुशांत के कमरे में परिणीति

किसी दृश्य को जीवंत बनाने के लिए निर्देशक क्याक्या करते हैं, इसे सम?ाना मुश्किल है. पिछले दिनों सुशांत सिंह राजपूत और परिणीति चोपड़ा 3 दिनों तक एक कमरे में एकसाथ रहे, ताकि उन की आने वाली फिल्म ‘शुद्ध देसी रोमांस’ के एक गीत ‘तेरे मेरे बीच’ की शूटिंग ओरिजिनल लगे. दोनों के बीच एक बेहद प्यारभरी कैमिस्ट्री लाई गई है. दोनों पहली बार इस फिल्म में साथ काम कर रहे हैं. इसलिए दोनों के बीच दोस्ती जरूरी थी.

 

 

चेन्नई एक्सप्रैस

कई सालों से ईद के मौके पर सलमान खान की फिल्में जोरशोर से रिलीज होती रही हैं लेकिन इस बार सलमान खान की नहीं, शाहरुख खान की फिल्म ‘चेन्नई एक्सप्रैस’ देश के लगभग 3,500 सिनेमाघरों में रिलीज हुई है. इस फिल्म की रिलीज से पहले शाहरुख खान ने फिल्म का खूब प्रचार किया. इस से दर्शकों में इस फिल्म को देखने की काफी उत्सुकता थी. लेकिन फिल्म देख कर लगा, यह तो मुंबइया लवस्टोरी पर बनी साधारण फिल्म है.

‘तुझे देखा तो ये जाना सनम…’ फिल्म ‘दिल वाले दुलहनिया ले जाएंगे’ का यह गाना आज भी बजता है तो यंगस्टर्स के दिलों की धड़कनें बढ़ जाती हैं. इसी गाने को बैकग्राउंड में रखा गया है.

फिल्म का प्रेजैंटेशन खूबसूरत है. दक्षिण भारत के चायबागानों के बीच से गुजरती चेन्नई एक्सप्रैस ट्रेन खूबसूरत नजारे दिखाती है. बैकग्राउंड में कलकल बहता झरना, प्राकृतिक सुंदरता, किरदारों के रंगबिरंगे कौस्ट्यूम्स फिल्म को काफी दर्शनीय बना देते हैं.

निर्देशक रोहित शेट्टी की फिल्मों में कौमेडी, ऐक्शन और ड्रामा की?भरपूर डोज होती है. उस ने चेन्नई एक्सप्रैस को सही ट्रैक पर दौड़ाने के लिए इसी फार्मूले को दोहराया है. फिल्म में लेदे कर कुल 4 प्रमुख पात्र हैं, शाहरुख खान, दीपिका पादुकोण, नायिका का पिता (सत्यराज) और आदमकद तंगबलि (निकेतन धीर). बाकी सारे पात्र तमिल बोलते हैं, इसलिए उन्हें कम फुटेज दी गई है. पूरी फिल्म में शाहरुख खान और दीपिका पादुकोण ही छाए हुए हैं.

फिल्म की रफ्तार काफी तेज है. राहुल (शाहरुख खान) के मातापिता उस वक्त मर गए थे जब वह 8 वर्ष का था. उसे दादादादी ने पालापोसा. राहुल जब 40 वर्ष का हुआ, उस के दादा गुजर गए. दादी ने अपने पति की अस्थियों को रामेश्वरम में विसर्जन करने के लिए राहुल से कहा. राहुल अस्थियों को ले कर चेन्नई एक्सप्रैस ट्रेन में चढ़ता है. उस के दोस्त कल्याण स्टेशन पर राहुल का इंतजार कर रहे हैं, क्योंकि राहुल रामेश्वरम न जा कर गोआ में मौजमस्ती करने का प्लान बना चुका है. ट्रेन में राहुल की मुलाकात मीना (दीपिका पादुकोण) से होती है जिसे उस के डौन पिता के गुंडे जबरदस्ती वापस घर ले जाना चाहते हैं, परिस्थितियां राहुल को मीना के गांव खम्मन ले जाती हैं, जहां उसे मीना से शादी का नाटक करना पड़ता है. मीना का पिता उस की शादी तंगबलि से करना चाहता है परंतु राहुल तंगबलि और उस के गुंडों से अकेले ही निबट कर मीना का हाथ थाम लेता है.

रोहित शेट्टी ने फिल्म में बहुत से ऐसे सीन डाले हैं जिन की कोई तुक नहीं है. जंगल में शाहरुख खान से मिलने वाले एक बौने का सीन ऐसा ही है. दीपिका पादुकोण के साथ उस की कैमिस्ट्री लाजवाब है. दीपिका काफी ग्लैमरस लगी है. रात को बिस्तर पर शाहरुख खान के साथ सोने में उस ने जो कौमेडी की है, वह लाजवाब है. क्लाइमैक्स घिसापिटा है.

इस फिल्म को चूंकि दक्षिण में फिल्माया गया है इसलिए इस पर दक्षिण का प्रभाव साफ नजर आता है. दक्षिण भारत में प्रचलित कई अंधविश्वासों को इस फिल्म में फिल्माया गया है. दीपिका पादुकोण को गोद में उठा कर शाहरुख खान का मंदिर की 300 सीढि़यां चढ़ना और इस से सुखी दांपत्य जीवन की कामना करना, ऐसा ही अंधविश्वास है.

निर्देशक ने गीतों के जरिए फिल्म की सुंदरता को दिखाया है. आउटडोर लोकेशनें काफी सुंदर हैं. विशाल शेखर का संगीत अच्छा है. लुंगी डांस अच्छा बन पड़ा है.

मद्रास कैफे

कहने को यह यह एक पौलिटिकल थ्रिलर फिल्म है पर अंत में अधकचरी डौक्युमैंट्री के स्तर से ऊपर न उठ पाई. इस से पहले ‘विकी डोनर’ जैसी हिट फिल्म बनाने वाले निर्देशक शुजीत सरकार ने इस फिल्म को बनाने के लिए कई साल तक रिसर्च की.

‘मद्रास कैफे’ 80 के दशक में श्रीलंका में हुए गृहयुद्ध को दर्शाती है. इस गृहयुद्ध का ही नतीजा था कि भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को 1991 में एलटीटीई (लिबरेशन टाइगर औफ तमिल ईलम) ने निशाना बना कर बम से उड़ा दिया था. इस फिल्म में उक्त घटना से मिलतीजुलती घटना को अंजाम देते दिखाया गया है. शुजीत सरकार का कहना है कि उन की फिल्म पूर्व प्रधानमंत्री हत्याकांड पर आधारित नहीं है. विरोधाभासी सोच के कारण न तो यह थ्रिलर बन पाई न रिचर्ड एटनबोरो की ‘गांधी’ की तरह इतिहास का हिस्सा.

चाहे जो हो, इस फिल्म में श्रीलंका में हुए गृहयुद्ध की घटनाओं पर दर्शकों को कुछ तो पता चलता है. इस गृहयुद्ध में हजारोंलाखों सिविलियनों को गोलियों से भून डाला गया था, लोग दानेदाने को मुहताज हो गए, पूरा उत्तरी श्रीलंका गोलाबारी की आग में झुलसता रहा. शुजीत सरकार ने इन सभी घटनाओं और किरदारों को अपनी कल्पनाशक्ति से सजीव करने का प्रयास किया है.  इस तरह की सच्ची घटनाओं पर अच्छी फिल्मों को बनाने की और भी जरूरत है ताकि हमारी आज की युवा पीढ़ी, जिस ने इस तरह की घटनाओं के बारे में केवल पढ़ा व सुना है, अपनी आंखों से वह सब घटता हुआ देख सकें.

इस फिल्म की कमजोरी यह है कि मुख्यपात्र जो काल्पनिक है कहीं से भी कहानी में फिट नहीं बैठता और उसे दिखाने, बारबार दिखाने के चक्कर में वेलुपलाई प्रभाकरन व राजीव गांधी गौण हो गए. श्रीलंका के प्रधानमंत्री तो हैं ही नहीं मानो यह देश के एक राज्य की बात हो सिर्फ.

1980 के दशक में श्रीलंका में चले गृहयुद्ध के दौरान भारत ने अपनी शांतिसेना को वहां भेजा था. भारत वहां शांतिपूर्वक चुनाव करवा कर स्थिति को संभालने की कोशिश कर रहा था. भारतीय फौज काफी तादाद में श्रीलंका भेजी गई थी. वास्तव में वह शांतिसेना काफी पिट कर लौटी थी. इस तथ्य को निर्देशक छिपा गया.

इस फिल्म की कथा के अनुसार, भारत की रिसर्च ऐंड एनालिसिस विंग (रा) द्वारा कई गुप्त मिशन चलाए गए थे. एक मिशन के तहत रा प्रमुख आर डी (सिद्धार्थ बसु) भारतीय सेना के अफसर विक्रम (जौन अब्राहम) को श्रीलंका भेजता है. विक्रम वहां अपने ही विभाग के एक अन्य अफसर बाला (प्रकाश बेलावडी) से मिलता है. विक्रम जाफना में चल रही सिविल वार के बीच एलटीएफ (एलटीटीई के बदले दिया गया नाम) के प्रमुख अन्ना भास्करन वास्तव में वेलुपलाई भास्करन (अजय रत्नम) की गतिविधियों पर नजर रखता है. अन्ना भास्करन वहां अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है. वह भारत की शांतिसेना का विरोध करता है. यहां विक्रम की मुलाकात एक फोटो जर्नलिस्ट जया (नरगिस फाखरी) से होती है.

एक दिन विक्रम का अपहरण हो जाता है. उस का मिशन फेल हो जाता है. तभी उसे पता चलता है कि उस के मिशन को नाकाम करने के पीछे बाला जैसे उस के सहयोगियों का हाथ है. विक्रम को अपहरणकर्ताओं से छुड़ा कर भारत वापस बुला लिया जाता है. शांतिसेना की भी वापसी हो जाती है. तभी खुफिया विभाग को खबर मिलती है कि उस पूर्व प्रधानमंत्री की जान को खतरा है, जिस ने यह शांतिसेना भेजी थी. विक्रम सुबूत जुटाने के लिए सिंगापुर भी जाता है जहां उस की मुलाकात एक पूर्व रा अधिकारी से होती है, जो उसे कई टिप्स देता है. एक रैली में जा रहे पूर्व प्रधानमंत्री को बचाने की सारी तैयारियां कर ली जाती हैं. लेकिन विक्रम और उस के साथियों के वहां तक पहुंचने से पहले ही पूर्व प्रधानमंत्री को बम से उड़ा दिया जाता है.

फिल्म की यह कहानी और इस की पटकथा की लिखने में काफी मेहनत तो की गई है और निर्देशन भी सधा हुआ है पर इतिहास दिखता ही नहीं है.  सरकारी कायदेकानूनों की आड़ में सुरक्षा एजेंसियां साजिश की जानकारी मिलने के बाद भी किस तरह उसे नजरअंदाज कर देती हैं, इस का चित्रण बखूबी किया गया है.

निर्देशक ने पात्रों के चयन में सावधानी बरती है. सारे फिल्म के पात्र रियलिस्टिक लगते हैं सिवा मुख्यपात्र जौन अब्राहम के. फिल्म इंटरनैशनल लैवल की लगती है. फिल्म के संवाद अच्छे हैं. नरगिस फाखरी की भूमिका छोटी है मगर जानदार है. उस ने ज्यादातर अंगरेजी में ही संवाद बोले हैं. वह क्यों परदे पर लाई गई, यह अस्पष्ट है.

फिल्म में गाने नहीं हैं मगर पार्श्व संगीत अनुकूल है. छायांकन काफी अच्छा है. फिल्म की शूटिंग भारत में ही कई जगहों पर की गई है. जाफना वाले क्षेत्र को भारत में क्रिएट कर वहां शूटिंग की गई है, मगर फिल्म देख कर लगता है जैसे शूटिंग जाफना के ही क्षेत्र में की गई है. इस के अलावा बैंकौक, मलयेशिया और अमेरिका में भी शूटिंग की गई है.

इस फिल्म को सराहनीय केवल इसलिए कहा जा सकता है कि भारतीय फिल्म निर्माता असल जीवन पर फिल्में बनाने में अब बढ़चढ़ कर रुचि ले रहे हैं. देश की समस्याएं कुछ समय तक जो भुला दी गई थीं, वे इन फिल्मों के जरिए उन अर्धशिक्षित दर्शकों तक पहुंच रही हैं. जिन्होंने पढ़ना छोड़ दिया है.

सत्याग्रह

यह एक राजनीतिक फिल्म है जिस में भ्रष्टाचारी खलनायक है. सत्ता में बैठे अफसर, नौकरशाह और राजनीतिबाज एक के बाद एक घोटाले किए जा रहे हैं. 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला, कौमनवैल्थ घोटाला, कोयला घोटाला और अब एनएसईएल (शेयर बाजार) घोटालों ने भ्रष्टाचार की सारी सीमाएं तोड़ दी हैं.

आज जनता भ्रष्टाचार से भूख, गरीबी व महंगाई से भी ज्यादा परेशान है. जिस का सरकारी दफ्तर से वास्ता पड़ जाए उस का दिल डूब जाता है  कि न जाने इस भव्य भवन के अंधे काले गलियारों में उस का क्या होगा. हाथ में फाइल दबाए वह सरकारी शेरों के सामने मेमने की तरह दुबकता घूमता है.

प्रकाश झा ने इस फिल्म के माध्यम से भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मुहिम छेड़ी है. फिल्म में भारत की एक ऐसी तसवीर पेश की गई है जहां हर सरकारी दफ्तर में रिश्वतखोर मौजूद हैं.

प्रकाश झा की यह खासीयत है कि वे जिन मुद्दों को उठाते हैं उन का ट्रीटमैंट खास तरह से करते हैं. ‘सत्याग्रह’ में उन्होंने सरकारी तंत्र के खिलाफ युवाओं के आक्रोश को दिखाया है. यह फिल्म अन्ना हजारे के आंदोलन से प्रेरित है और फिल्म के कई दृश्य अन्ना हजारे की मूवमैंट के दौरान दिल्ली के रामलीला मैदान के दोहराव हैं.

कहानी देश के एक कतिपय शहर अंबिकापुर की है, जहां एक रिटायर्ड प्रिंसिपल द्वारका आनंद (अमिताभ बच्चन) अपने बेटे अखिलेश और बहू सुमित्रा (अमृता राव) के साथ रहता है. वह सिद्धांतवादी है और देश को भ्रष्टाचार की दलदल से बाहर निकालने की कोशिश में लगा है. अखिलेश जिले में बन रहे एक फ्लाईओवर प्रोजैक्ट में इंजीनियर है और फ्लाईओवर के निर्माण में चल रहे घपले को उजागर करना चाहता है, तभी एक दुर्घटना में उस की मौत हो जाती है.

मंत्री बलराम सिंह (मनोज वाजपेयी) 25 लाख रुपए के मुआवजे का ऐलान करता है. 3 महीने बाद भी जब अखिलेश की पत्नी को मुआवजा नहीं मिल पाता तो द्वारका आनंद भ्रष्ट डीएम को थप्पड़ मार देता है. पुलिस उसे पकड़ कर जेल में डाल देती है, तो वह भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आंदोलन छेड़ देता है. उस के इस आंदोलन में दिल्ली में एक टैलीकौम कंपनी चला रहा बिजनैस टायकून मानव राघवेंद्र (अजय देवगन) भी शामिल हो जाता है. वह पता लगाता है कि अखिलेश को मंत्री बलराम सिंह ने ही मरवाया था. वह अपने साथ एक छात्र नेता अर्जुन (अर्जुन रामपाल) और एक टीवी चैनल की पत्रकार यास्मीन (करीना कपूर) को भी मिला लेता है. वह पूरे जिले के लोगों को भी इस आंदोलन के साथ जोड़ता है. बलराम सिंह झुक जाता है और द्वारका आनंद को रिहा कर देता है.

जेल से छूटने के बाद द्वारका आनंद बलराम सिंह को 7 दिनों के अंदर सिस्टम को दुरुस्त करने की चेतावनी देता?है. वह आमरण अनशन पर बैठ जाता है और यह आंदोलन बड़े जन सत्याग्रह में तबदील हो जाता है. सोशल मीडिया इस आंदोलन को आगे बढ़ाने में मददगार साबित होता है लेकिन भ्रष्ट मंत्री बलराम सिंह, द्वारका आनंद को मरवा देता है. जनता उग्र हो जाती है और बलराम सिंह को मारने पर उतारू हो जाती है परंतु मानव जनता को शांत कर बलराम सिंह को कानून के हवाले कर देता है.

फिल्म की कहानी में झोल ही झोल हैं.  अन्ना हजारे मूवमैंट के अरविंद केजरीवाल का पार्ट अदा कर रहे मानव (अजय देवगन) ने 3 साल में 6 हजार करोड़ कैसे कमा लिए, यह बताया ही नहीं गया. वह अखिलेश से आखिर इतना लगाव क्यों रखता था कि उस ने 6 हजार करोड़ की कमाई संपत्ति बांट दी. सिद्धांतवादी द्वारका आनंद ने आखिर 25 लाख रुपए मंत्री की घोषणा पर ले क्यों लिए जबकि मंत्री बेईमान है. मुआवजा सरकार देती है, मंत्री नहीं. फिर इस मुआवजे के लिए सुमित्रा जिस दफ्तर में बारबार जाती है वह करता क्या है और उस दफ्तर का औचित्य क्या है?

प्रकाश झा की फिल्मकथा नुक्कड़ नाटक जैसी लगती है जिस में भाषण देने के अलावा किसी को कुछ आताजाता नहीं. आज के युवा इस फिल्म को खुद से जोड़ कर देख रहे हैं क्योंकि अब उन्हें समझ में आने लगा है कि अगर मंत्री, प्रधानमंत्री ठीक ढंग से काम नहीं कर रहे हैं तो उन्हें सत्ता से बाहर करने का अधिकार उन के पास है.

इस विषय पर जितनी फिल्में बन रही हैं उन में नेताओं और अफसरों का ट्रीटमैंट उसी तरह का है जैसा 1970 से 1990 तक के दशकों में माफिया गैंगों या डौनों का होता था. मध्यांतर से पहले फिल्म की रफ्तार धीमी है. फिल्म का निर्देशन अच्छा है परंतु भ्रष्टाचार पर फोकस की गई इस फिल्म में लव ऐंगल और आइटम सौंग डालने की भला क्या तुक थी? करीना कपूर और अजय देवगन के लिप टु लिप किस सीन की भी कतई जरूरत नहीं थी.

अमिताभ बच्चन ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि उस का मुकाबला कोई नहीं कर सकता. द्वारका आनंद के किरदार में उस ने जान डाल दी है. अजय देवगन का किरदार भी दमदार है. उस के किरदार में कई शेड्स हैं. वह आज के युवाओं की तरह सोचता है. हमेशा सही समय पर सही फैसले लेता है परंतु फिर भी कहींकहीं गलतियां कर बैठता है.

करीना कपूर पत्रकार की भूमिका में बिलकुल भी फिट नहीं बैठी. भ्रष्ट नेता के किरदार में मनोज वाजपेयी के अभिनय में पुराना घिसापिटापन है. अगर फिल्म की विशेषता है तो यह कि इस विषय पर फिल्में बनने लगी हैं जिस में रिश्वतखोरी से लड़ते आम नागरिक की व्यथा ज्यादा दिखाई गई है. प्रकाश झा अगर सराहनीय हैं तो केवल इसलिए.

फिल्म में 2 गाने हैं- ‘जनता का राज’ और ‘रघुपति राघव राजाराम’ दोनों ही गाने सिचुएशन के अनुसार फिट किए गए हैं. छायांकन अच्छा है. छायाकार ने हजारों लोगों की भीड़ के दृश्यों को कुशलता से फिल्माया है.

यह भी खूब रही

मेरी बिल्ंिडग में एक दक्षिण भारतीय परिवार रहता है. उस परिवार की एक सदस्या मेरी सहेली है. उस की सास को जरा भी हिंदी नहीं आती है. लेकिन उन से मेरी थोड़ीबहुत इशारों में बात हो जाती है.
एक बार मेरी सहेली काफी बीमार हो गई. मैं ने सोचा, फोन कर के उस का हालचाल पूछूं. जब मैं ने फोन किया तो उस की सास ने उठाया. हैलोहैलो होती रही, लेकिन न उन्हें मेरी भाषा समझ आई न मुझे उन की.
अचानक मुझे ‘बागोनारा’ शब्द याद आया, जो मेरी सहेली ने बताया था, जिस का अर्थ होता है, ‘सब ठीक है.’ मैं ने जैसे ही उन्हें बागोनारा बोला, वे समझ गईं कि मैं उन की बहू की सहेली बोल रही हूं और उन्होंने झट उस से मेरी बात करा दी. हम दोनों फोन पर खूब हंसीं.
सरोज गर्ग, मुंबई (महाराष्ट्र)

एक सेवानिवृत्त शिक्षक हर माह पैंशन लेने बैंक जाया करते थे. एक दिन जब वे पैंशन लेने बैंक गए तो वहां प्रत्येक काउंटर पर लंबीलंबी कतारें लगी थीं. जिस कतार में वे लगे वह कतार आगे सरक नहीं रही थी क्योंकि उस काउंटर का बाबू थोड़ी देर काम कर के कुछ समय के लिए गायब हो जाता था. उस की इस हरकत से परेशान वे महाशय उस काउंटर क्लर्क के पास पहुंचे और कहने लगे, ‘‘क्यों जी, आप इस के पहले किसी टीवी चैनल पर ऐंकरिंग करते थे क्या?’’
बाबू एकदम चौंक गया. बोला, ‘‘आप ने कैसे पहचाना?’’
‘‘यही कि आप थोड़ी देर के लिए काउंटर पर आते हो और हम लोगों से छोटे से ब्रेक की अनुमति ले, ‘कहीं जाइएगा नहीं’ कह कर पता नहीं कहां गायब हो जाते हो.’’ उन की इस बात से उस बाबू के काम में गति आ गई.
प्रकाश दर्प, इंदौर (म.प्र.)

मेरी बेटी पहली बार ससुराल से घर आई थी और उसी दिन उस की दूसरी विदाई थी. मैं विदाई की तैयारी में लगी थी. दामादजी को देने के लिए एक सोने की अंगूठी बनवाई थी. जाने से कुछ देर पहले ही मैं ने उन्हें वह अंगूठी देते हुए आग्रह किया कि वे अंगूठी पहन कर देख लें, सही है या नहीं.
उन्होंने डब्बी हाथ में ले कर खोली. देख कर बोले, ‘‘यह मेरे लिए नहीं है, अपनी बेटी को दे दीजिए.’’
मुझे बुरा लगा कि मेरे दिए हुए उपहार को वे इस तरह ठुकरा रहे हैं. मैं ने फिर भी उन से जिद की तो उन्होंने डब्बी को बंद कर के मुझे वापस कर दिया.
मैं ने उदास मन से डब्बी खोल कर देखी, तो हैरान रह गई. उस में मेरी बेटी के कान के बुंदे थे.
सुषमा सिन्हा, वाराणसी (उ.प्र.)

सैफरीना की प्रेम कहानी

रानी को राजा से प्यार हो गया. पहली नजर में दिल बेकरार हो गया. यह प्रेम कहानी है करीना कपूर और सैफ अली खान की. दिलोजान से सैफ पर फिदा करीना की जबानी प्रेम कहानी पेश कर रही हैं असावरी जोशी.

करीना कपूर और सैफ अली खान की प्रेम कहानी को थोड़ी सी बोल्ड, थोड़ी सी अलग कह सकते हैं. करीना कहती हैं, ‘‘2007 मेरे जीवन का सब से महत्त्वपूर्ण साल था. सबकुछ हाथ से निकल गया था, टूट गया था. मन की भड़ास बाहर किसी के साथ शेयर भी नहीं कर सकती थी. इसी बीच फिल्म ‘टशन’ की शूटिंग के लिए मैं और सैफ लद्दाख में थे. वैसे मैं ने और सैफ ने फिल्म ‘एल ओ सी कारगिल’ में एकसाथ काम किया था लेकिन तब हमारी इतनी ज्यादा बातचीत नहीं हुई थी. सैफ तो हमेशा से ही सभी के साथ अदब से पेश आते थे.

‘‘फिल्म ‘टशन’ के सैट पर भी हमारी ज्यादा बातचीत नहीं हो पाती थी. एक दिन होटल के लाउंज में मैं अपनी सहेली के साथ थी और मैं ने उन्हें देखा. होटल के पूल पर वे लाउंजचेयर पर लेटे थे. वे सिर्फ जीन्स में ही थे और उसी में वे हौट और सैक्सी दिख रहे थे. मुझे वे एकदम से अच्छे लगे. उस के बाद भी हमारे बीच उतनी ज्यादा बातचीत नहीं हो रही थी.

‘‘आहिस्ताआहिस्ता हमारे बीच फ्रैंडशिप होने लगी. पहले शौट के बाद हमारे बीच पहली बार ज्यादा बातें हुईं और उन्होंने इस बीच मुझे इतना हंसाया कि पूछो मत.’’ वर्ष 2007 की यादें फोन पर शेयर करते वक्त करीना बहुत ही प्रसन्न मुद्रा में लगी थीं, ‘‘उस के बाद हमारे बीच एक सुंदर सा रिश्ता साकार होने लगा. हम बाहर जाने लगे, मिलने लगे. जिसे हम डेटिंग कहते हैं और हम ने कभी किसी से कुछ भी छिपाया नहीं. इन मुलाकातों के बाद मैं ने दिल से सैफ को अपना जीवनसाथी मान लिया.’’

एक दिन सैफ सीधे करीना की मम्मी के पास गए और कहा कि करीना मेरे लिए बनी है, अब मुझे अपना जीवन इसी के साथ गुजारना है. इस बाबत करीना कहती हैं, ‘‘मेरी मम्मी को हमारे बारे में पहले से ही सबकुछ मालूम था, इसलिए उन के इनकार करने का सवाल ही नहीं था. फिर हम ने लिव इन रिलेशन में रहने की शुरुआत की. यह समय मेरी लाइफ का सब से अच्छा समय था. इसी दौरान हमारा रिश्ता और भी मजबूत होता गया. इस सुंदर रिश्ते ने हमें इतनी सारी खुशियां दीं कि हम दोनों को शादी के बंधन की कभी जरूरत ही महसूस नहीं हुई. लेकिन अम्मीजी यानी सैफ की मां की यही इच्छा थी कि हम विवाह बंधन में बंधें, हम ने इस का पालन किया.

‘‘अब तो हमारी शादी हो गई है. शादी के पहले भी मैं सैफ के घर जाती थी, उन के परिवार के साथ वक्त बिताती थी. हम पूरे 4 साल लिव इन रिलेशन में रहे. ‘‘सैफ ने मुझे जीना सिखाया. सैफ बहुत ही खुले विचारों के हैं. उन्होंने मुझे फिल्मों से आगे देखने के लिए प्रेरित किया. उन का स्वभाव मुझे बहुत अच्छा लगता है.’’

सैफ के व्यक्तित्व पर करीना दिल से मोहित हैं. उन के अनुसार, ‘‘सैफ का राजसी, कुलीन व्यक्तित्व तो किसी को भी मोहित करता है लेकिन उस से भी ज्यादा उन की काबिलीयत मुझे ज्यादा लुभाती है. हमारा प्रेम का रिश्ता दिनोंदिन मजबूत होता जा रहा है. इस में सैफ का शादीशुदा होना, उन के बड़े बच्चे होना, अमृता के साथ अलगाव होने के बाद भी उन का और एक अफेयर होना, मैं हिंदू तो उन का मुसलिम होना, ये सभी चीजें बहुत ही मामूली हैं. इन के बारे में मैं ने कभी कुछ सोचा ही नहीं. इसलिए दुनिया वाले मुझे नासमझ समझते हैं तो वह मैं नहीं हूं. यह फैसला मैं ने पूरी संजीदगी से लिया है.

‘‘शादी से पहले हमारा एकसाथ रहना यानी जीवन का पूरा लुत्फ उठाने जैसा है. हम ने हर छुट्टियां एकसाथ बिताई हैं. स्कीइंग, फिश्ंिग, कैरम, स्विमिंग इन सभी चीजों का हम ने एकसाथ मजा लिया है. सैफ ने मुझे क्या नहीं सिखाया है, उन्होंने बहुत सारी किताबें पढ़ने के लिए प्रेरित किया. सैफ के कारण मैं ने फ्रैंच भाषा सीखी. आल्प्स पर्वतों की कड़ाके की ठंड का मजा हम दोनों ने एकसाथ लिया है.’’

करीना आगे कहती हैं, ‘‘हमारा सहजीवन तो 5-6 साल पहले ही शुरू हुआ, हम दोनों ने मिल कर एक पेंट हाउस लिया और उसे सजाया. इतनी खुशी मुझे पहले कभी नहीं मिली थी. जीवन इतना सुंदर होता है, यह सैफ के कारण ही मैं समझ पाई. शादी से पहले भी मैं उन के परिवार का एक हिस्सा थी और अब तो हूं ही. सैफ के बच्चों से मुझे बहुत ही लगाव है. वे भी मुझ से अदब से पेश आते हैं. शादी से पहले एकसाथ रह कर हमारे प्रेम में कोई कमी नहीं आई बल्कि अब तो शादी के बाद उस का स्वाद और भी बढ़ गया है.’’

सैफ और करीना की यह प्रेम कहानी वास्तव में आज के प्रेमीप्रेमिकाओं के लिए एक अच्छा उदाहरण है. वे दोनों करीब आए, इश्क पनपा और फिर अपने इश्क को सब की खुशी में बदलते हुए उसे कामयाबी के साथ परवान चढ़ाया.

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