आरक्षण व सरकारी योजनाओं से मिलने वाले लाभ ने कई जातियों को उत्तर प्रदेश में दलित व पिछड़ा बनाने का आइडिया सुझा दिया है. लिहाजा, कल तक दलितों को दुत्कारने वाली कई जातियां सरकार से आज खुद को दलित बनाने की मांग कर रही हैं. उधर सियासी दल कैसे इस मुद्दे पर वोटबैंक का गणित बिठा रहे हैं, बता रहे हैं शैलेंद्र सिंह.

उत्तर प्रदेश को उलटा प्रदेश यों ही नहीं कहा जाता है. जहां एक ओर छुआछूत की खाई चौड़ी होती जा रही है वहीं दूसरी ओर कुछ जातियां पिछड़ा और दलित बनने की लड़ाई लड़ रही हैं. लड़ाई की वजह आरक्षण नाम की मलाई है जिस को तकरीबन सभी जीमना चाह रहे हैं. मानसिक रूप से ये अभी दलित व पिछड़ों से उतनी ही दूर हैं जितनी दूसरी अगड़ी जातियां. वोटबैंक के इस गणित को हर राजनीतिक दल अपने हिसाब से हल करने में लगा है.

प्रियंका गुप्ता बचपन से अपने को अगड़ी जाति का मानती थी. दलित और पिछड़ों से उसे कोई हमदर्दी नहीं थी. घर में भी छुआछूत और जातपांत का पूरा खयाल रखा जाता था. जब कभी उस की नीची जाति की सहेलियां उस के घर आती थीं तब प्रियंका की मां इस बात का पूरा ध्यान रखती थीं कि उन को अलग बरतनों में ही खाना दिया जाए. घर के यही तथाकथित संस्कार प्रियंका के मन पर भी हावी होते चले गए. उस में भी छुआछूत की भावना अपनी जगह बना चुकी थी.

समय बीता, प्रियंका बड़ी हुई तो उस ने विश्वविद्यालय से कौमर्स में पोस्टग्रैजुएट की डिगरी ली. प्रियंका का मन किसी बिजनैस हाउस में नौकरी करने का था. इसी बीच उत्तर प्रदेश सरकार ने टीचर की भरती करनी शुरू की. इस के लिए जिलेवार मैरिट तैयार होने लगी. प्रियंका के घर वाले भी उसे टीचर की सरकारी नौकरी कराना चाह रहे थे. परेशानी की बात यह थी कि जनरल रैंक में उस की मैरिट कम थी. इसी समय प्रियंका को पता चला कि वह वैश्य बिरादरी की कसौधन उपजाति से आती है जिसे उत्तर प्रदेश सरकार पिछड़ी जाति मानती है.

ऐसे में प्रियंका को पिछड़ी जाति के आरक्षण का लाभ मिल गया. उस की मैरिट बढ़ गई और उसे टीचर की सरकारी नौकरी मिल गई. कल तक दलित और पिछड़ी जातियों का विरोध करने वाला प्रियंका का परिवार प्रमाणपत्र ले कर भले ही पिछड़ा बन गया हो पर मानसिक रूप से अभी भी वह इन जातियों से दूर ही रहने की कोशिश करता है.

यह बात केवल अगड़ी से पिछड़ी जाति बनने वालों की ही नहीं है, बहुत सारी पिछड़ी जातियां अपने को दलित जातियों में शामिल कराने के लिए आंदोेलन कर रही हैं. उत्तर प्रदेश में 17 पिछड़ी जातियां अपने को दलित जातियों में शामिल कराने के लिए गोलबंद हो रही हैं. इन में कश्यप, मल्लाह और कहार जैसी वे जातियां भी हैं जो दलित जातियों के हाथ का छुआ पानी पीने से परहेज करती हैं.

एक जमाने में गांव में अगड़ी जातियों के यहां जब शादीविवाह जैसे काम होते थे तो उन के घरों में कुएं से पानी भरने का काम यही कहार जाति के लोग करते थे. इन को इस बात की खुशी होती थी कि अगड़ी जातियों के लोग इन का छुआ पानी पीते हैं.

ऐसे में ये कश्यप, मल्लाह या कहार जैसी जातियां खुद भी दलितोें से छुआछूत का व्यवहार करती थीं. अब चाल बदल गई है. बदले हालात में ये जातियां अपने को दलितोें के बराबर करने के लिए दबाव की राजनीति कर रही हैं.

दलित चिंतक रामचंद्र कटियार कहते हैं, ‘‘संविधान ने आरक्षण का जो लाभ दलित और पिछड़ी जातियों को दिया, अब कई दूसरी जातियां भी उन में शामिल हो कर वह लाभ लेना चाहती हैं. आरक्षण का लाभ लेने के बाद भी ये लोग सामाजिक और मानसिक रूप से अपने विचार नहीं बदल पा रहे हैं. इस तरह दूसरी जातियां आरक्षण का लाभ लेने के लिए दलित और पिछड़ी जातियों के कोटे में शामिल होना चाहती हैं. राजनीतिक दल इस के जरिए एकदूसरे के वोटबैंक में सेंधमारी करने की कोशिश में लगे हैं.’’

…ताकि लाभ मिले

ठाकुर, ब्राह्मण और बनिया देश की प्रमुख अगड़ी जातियां हैं. बनिया को वैश्य बिरादरी के नाम से भी जाना जाता है. आल इंडिया वैश्य फैडरेशन के प्रदेश अध्यक्ष डा. नीरज बोरा कहते हैं, ‘‘वैश्य बिरादरी की बहुत ही उपजातियां पहले से ही पिछड़ी जातियों का हिस्सा हैं. इन में कसौधन, स्वर्णकार, तेली या साहू, जायसवाल, हलवाई, मोदनवाल, कलवार, भुर्जी, बाथम और मदेसिया शामिल हैं. इस बिरादरी में अभी 11 ऐसी जातियां भी हैं जो सामाजिक और आर्थिक रूप से बहुत कमजोर हैं. ये छोटीमोटी दुकानें लगा कर अपनी रोजीरोटी का इंतजाम बड़ी मुश्किल से कर पा रही हैं. हम लोगों की मांग है कि इन को भी पिछड़ी जातियों के आरक्षण का लाभ दे कर आगे बढ़ने में मदद की जाए.’’

 

वे आगे बताते हैं, ‘‘सुप्रीम कोर्ट ने मंडल आयोग की संस्तुति पर 1992 में पिछड़ी जातियों का आकलन करने के लिए पिछड़ा वर्ग आयोग बनाने का काम किया था. पिछड़ा वर्ग आयोग उन जातियों का आकलन करता है जो पिछड़ी जाति में शामिल होना चाहती हैं. वहां पर पहले से चली आ रही पिछड़ी जातियों के लोग भी होते हैं जो कई बार बाहरी जातियों के पिछड़ी जातियों में शामिल होने का विरोध भी करते हैं. अगर पिछड़ा वर्ग आयोग सहमत हो जाता है तो नई जातियों को पिछड़ी जातियों में शामिल कर लिया जाता है.’’

आल इंडिया वैश्य फैडरेशन वैश्य बिरादरी की कमजोर 11 जातियों को पिछड़ी जाति में शामिल करने की लड़ाई लड़ रहा है. इन जातियों में अग्रहरि, दोसर, अयोध्यावासी, केसरवानी, वर्णवाल, ओमर, गुलहरे, पोरवाल, कमलापुरी, सन्मानी और गहोई शामिल हैं.

डा. नीरज बोरा कहते हैं, ‘‘वैश्य बिरादरी की 11 जातियों को पिछड़ी जातियों में शामिल होने से उन का सामाजिक और आर्थिक स्तर ऊपर उठ सकेगा. आज तमाम ऐसी पिछड़ी जातियां हैं जो आर्थिक रूप से संपन्न हो चुकी हैं. इस के बाद भी आरक्षण का लाभ ले रही हैं. जबकि ऐसी तमाम जातियां हैं जो कमजोर और गरीब हैं. उन को आरक्षण का लाभ दे कर आगे बढ़ाना चाहिए. उत्तर प्रदेश की सपा सरकार जानबूझ कर पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन नहीं कर रही है जिस से कि वैश्य बिरादरी की इन जातियों को पिछड़ी जातियों में शामिल होने से दूर रखा जा सके.’’

वोटबैंक की राजनीति

वैश्य बिरादरी की ही तरह 17 पिछड़ी जातियां दलित बनना चाहती हैं. इन में राजभर, निषाद, मगाह, कश्यप, कुम्हार, धीमर, बिंद, प्रजापति, धीवर, भर, केवट, बाथम, कहार, मछुआ, तुरहा, मांझी और गोंड प्रमुख हैं. इन पिछड़ी जातियों को भाजपा के उस समय के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने अतिपिछड़ी जातियों के नाम से पहचाना था. समाजवादी पार्टी  के प्रदेश अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अतिपिछड़ी जातियों के प्रतिनिधि सम्मेलन में कहा कि इन जातियों की संख्या कम नहीं है. इन की कोई गणना नहीं की गई है. हमारी सरकार इन जातियों को दलित जाति की बिरादरी में शामिल करने के लिए केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेज रही है.

समाजशास्त्र के जानकार लोग पिछड़ी जातियों के दलित बनने की इस चाह को राजनीति से जोड़ कर देख रहे हैं. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डा. लक्ष्मीकांत वाजपेई कहते हैं, ‘‘सपा अतिपिछड़ी जातियों के मसले पर राजनीति कर रही है. उसे पता है कि पिछड़ों को दलित वर्ग में शामिल किए जाने का काम केंद्र सरकार और संसद का है. सपा इस संबंध में प्रस्ताव भेज कर केवल लोगों को बरगलाने का काम कर रही है. इस के पहले 10 अक्तूबर, 2005 को भी सपा ऐसा ही प्रस्ताव भेज चुकी है.’’

वर्ष 2001 में उस समय के भाजपा के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने भी अति पिछड़ी जातियों के वोटबैंक को जोड़ने के लिए ऐसी कोशिश की थी. तब बहुजन समाज पार्टी ने तकनीकी रूप से इस का विरोध किया था. 2007 में मायावती ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर कहा था कि इन अतिपिछड़ी जातियों को दलित वर्ग में शामिल किया जाए पर पहले दलितों को मिलने वाले आरक्षण कोटे को बढ़ा दिया जाए.

उत्तर प्रदेश मत्स्य विकास निगम के चेयरमैन डा. राजपाल कश्यप कहते हैं, ‘‘अतिपिछड़ी ये जातियां दलितोें से भी ज्यादा कमजोर और गरीब हैं. इन को दलित वर्ग में शामिल किया जाए तो इन की गरीबी कम हो सकती है. इन को भी दलित को मिलने वाली सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सकता है.’’

रामचंद्र कटियार यह भी मानते हैं कि सपा नेता चाहते हैं कि अगर अतिपिछड़ी जातियों को दलितों का लाभ मिलने लगेगा तो विधानसभा और लोकसभा की आरक्षित सीटों पर वे चुनाव लड़ सकेंगी, जिस से उन को लाभ हो सकता है. यही बात मायावती को परेशान कर रही है, जिस से वे इस का अंदरखाने विरोध कर रही हैं.

ऐसे में जातीयता की उलटी चाल को देख कर आप यह समझने की भूल मत करिए कि उत्तर प्रदेश में सामाजिक समरसता बढ़ गई है जिस की वजह से सवर्ण पिछडे़ और पिछड़े दलित बनना चाह रहे हैं. यह जाति की राजनीति का एक गणित है जिसे हर पार्टी अपने हिसाब से हल करने की कोशिश कर रही है. वोट पाने के लिए राजनीतिक दल जोड़तोड़ में हमेशा से लगे रहते हैं और वोट की गणित को बिठाने में उन्हें सब से आसान तरीका यही लगता है कि जाति और धर्म के नाम पर लोगों को बरगलाया जाए. ऐसा नहीं है कि यह आज हो रहा है बल्कि यह दशकों से होता आ रहा है.

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