Download App

भारत भूमि युगे युगे

मनोहारी हिंदुत्व

सैरसपाटे के लिए गोआ देशवासियों की पहली पसंद है जहां काजू की शराब और समुद्र्र के किनारे वर्जित दृश्य इफरात से देखने को मिलते हैं. कैथोलिकों की पहली पसंद रहे इस गोआ की भाजपाई सरकार के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रीकर हैं. वे पूर्ण नहीं मगर अर्ध कट्टरवादी हिंदू तो कहे जा सकते हैं. बीते दिनों मनोहर पर्रीकर ने नरेंद्र मोदी की पीएम पद पर दावेदारी पर टंगड़ी अड़ा दी तो कहनेसुनने वालों ने भी यहीं तक दिलचस्पी ली. इस के बाद के हिस्से पर किसी ने ध्यान नहीं दिया कि देश के कैथोलिक ईसाई सांस्कृतिक रूप से हिंदू हैं, क्योंकि उन की प्रथाएं परंपरागत कैथोलिकों के बजाय हिंदुओं से मेल खाती हैं. इस बयान पर तरस ही खाया जा सकता है जो कैथोलिकों को हिंदू साबित करने पर तुला हुआ है. अब शायद पर्रीकर को पता हो कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के ईसाई बन गए हिंदू आज भी शादी के पहले मातापूजन करते हैं पर उन की माता का नाम इंगलिश देवी है.

अपनेअपने सामंतवाद

मध्य प्रदेश में जैसे ही कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को स्टार प्रचारक घोषित किया तो इस नई चाल से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी बौखलाहट पर काबू नहीं रख पाए और तुरंत जनसभाओं में कहना शुरू कर दिया कि मैं महाराज नहीं सेवक हूं और कांग्रेस सामंतवादी पार्टी है.

हाजिरजवाब सिंधिया ने पलटवार करते हुए शिवराज की बोलती यह कहते बंद कर दी कि भाजपा मेरी दादी विजयाराजे सिंधिया और बूआ वसुंधराराजे सिंधिया को मंत्री, मुख्यमंत्री बनाती रही है, तब सामंतवाद कहां था. कम ही लोग जानते हैं कि इन दोनों के झगड़े की असल जड़ सामंत या गैर सामंतवाद कम सिंधिया की शैक्षणिक संस्थाओं को राज्य में जमीन और सुविधाएं न देना ज्यादा है. इस पर खार खाए बैठे ज्योतिरादित्य अब कमर कस कर मैदान में कूद पड़े हैं और जनता भी चटखारे लेने लगी है कि अब आएगा चुनाव का मजा.

ममता को एक और झटका

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और कानून का बैर एक बार फिर उजागर हुआ है. कलकत्ता हाईकोर्ट ने ममता की अप्रैल 2012 में की गई एक घोषणा को असंवैधानिक करार दिया है जिस के तहत राज्य सरकार इमामों को 2,500 और मुअज्जिनों को 1,500 रुपए देती. जस्टिस एम पी श्रीवास्तव और पी के चट्टोपाध्याय की बैंच ने संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 (1) का हवाला देते हुए व्यवस्था दी है कि सरकार धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्मस्थल के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकती.

ममता बनर्जी को अब भेदभाव के नए तरीके खोजने होंगे. उत्तरी राज्य इस के लिए आदर्श हैं जहां सरकारें एजेंसियों के जरिए पंडोंमौलवियों को ऊपर वाले की पूजा करने के दाम देती हैं ताकि वे उन की सरकार की सलामती की दुआ मांगते रहें.

 

एकांत योग

आसाराम बापू के दुष्कर्मों पर संत बिरादरी की प्रतिक्रियाएं दुकानदारी पर मंडराता खतरा देख उन्हें बहिष्कृत करने की ज्यादा थीं. अकेले रामदेव ने  कायदे की बात कही कि संतों को लड़कियों और महिलाओं से एकांत में नहीं मिलना चाहिए. रामदेव की बात का बड़ा दार्शनिक और व्यावहारिक महत्त्व भी है. प्रभु के साक्षात्कार के अलावा सहवास और बलात्कार के लिए एकांत निहायत जरूरी है वरना इन कृत्यों में बाधा पड़ती है. रामदेव की मंशा कतई यह नहीं कि ये ईश्वरीय और मानवीय कार्य सार्वजनिक रूप से संपन्न किए जाने चाहिए. हकीकत तो यह है कि एक ब्रह्मचारी ही बेहतर बता सकता है कि एकांत में यौनेच्छाएं ज्यादा सिर उठाती हैं, इसलिए संतों को एकांत से परहेज करना चाहिए. पर वे यह नहीं बता पाए कि बगैर एकांत के संतों की उत्पत्ति कैसे होगी और क्या गारंटी है कि युवकों का एकांत में शारीरिक साक्षात्कार नहीं लिया जाएगा.     

समझें काम की कीमत

मनुष्य के कर्म उस के विचारों की सब से अच्छी व्याख्या होती है. काम ही मनुष्य को रचनात्मक खुशी प्रदान करता है. तो फिर क्यों न हम निष्क्रियता को त्याग कर काम की कीमत समझें व समाज और देश की समृद्धि में भागीदार बनें.

देश महान बनता है देशवासियों के कर्म से. जितने मेहनती लोग उतना ही संपन्न देश. जापान इस का अच्छा उदाहरण है. आज समूचा विश्व इस सचाई को जानता है कि जापान के कर्मचारियों में काम के प्रति ईमानदारी है. वहां के लोगों की राष्ट्रीय भावना और काम के प्रति समर्पण का ही यह नतीजा है कि छोटा सा जापान आर्थिक संपन्नता के मामले में विशालकाय अमेरिका और चीन को टक्कर दे रहा है. हालांकि काम को महत्त्व देने के मामले में अमेरिका भी पीछे नहीं है. हाल ही में हुए एक औनलाइन सर्वे के अनुसार, अमेरिका के 40 प्रतिशत से अधिक छात्र अपनी शिक्षा के दौरान ही काम करना शुरू कर देते हैं. और इस तरह वे अपनी कर्मठता से देश व समाज के विकास में शिक्षा का सदुपयोग करते हैं.

दुनिया में सब से ज्यादा युवा भारत में हैं और उन की आय पूरे विश्व के युवाओं में सब से कम है. और जहां छोेटे से देश जापान में एक भी गरीब नहीं है या यों कहें कि वहां ‘गरीबी की रेखा’ का अर्थ कोई नहीं जानता, वहीं संसाधनों से भरपूर विशाल देश भारत में वर्ष 2011-12 के आंकड़ों की बात करें तो 21.9 प्रतिशत जनता गरीबी की रेखा के नीचे जीवन गुजार रही थी.

भारत में संसाधनों की अधिकता होने के बावजूद ऐसे हालात क्यों हैं? आखिर क्या कारण है कि जापान जैसा छोटा देश विकास के मामले में भारत के साथ विश्व के दूसरे बड़े देशों को भी काफी पीछे छोड़ चुका है?

किसी देश के पिछड़े होने में जितनी जवाबदेही सरकार की होती है उतनी ही उस देश की जनता की भी होती है. हमारे देश में आमतौर पर लोग निर्धारित समय के बाद ही औफिस पहुंचते हैं. जैसेतैसे ड्यूटी करते हैं और छुट्टी होने के पहले ही घर जाने की तैयारी करने लगते हैं. वे ‘आज करे सो कल कर, कल करे सो परसों, इतनी भी क्या जल्दी है अभी जीना है बरसों’ पर अमल करते दिखते हैं.

बिना पैसे का ओवरटाइम करना पड़े तो कर्मचारियों को नाकभौं चढ़ाते देर नहीं लगती. कुछ कर्मचारी अपना काम स्वयं करने के बजाय अपने अधीनस्थों से करवाते हैं. भारतीय शायद भूल रहे हैं कि मनुष्य के कर्म ही उस के विचारों की सब से अच्छी व्याख्या होती है. काम ही है जो आप को रचनात्मक खुशी प्रदान करता है.

दरअसल, भारत में सरकारी कर्मचारियों को पता है कि चाहे वे काम करें या न करें, उन का वेतन कोई नहीं रोक सकता. ऐसे लोग सही माने में देशद्रोही हैं. आखिर इन्हीं लोगों ने देश की आर्थिक कमर तोड़ कर रख दी है.

जिसे देखो वही बिना काम किए अपनी जेबें भरने में लगा है. ऐसे नकारा लोगों को काम न करने की सजा तो मिलनी ही चाहिए. सवाल उठता है कि उन्हें सजा दे कौन? अगर औफिस में काम करने वाला बाबू ही काम करने से जी चुराता है तो उस के ऊपर का अधिकारी उस के खिलाफ कार्यवाही कर सकता है पर अगर अफसर ही काम की कीमत नहीं समझता है तो उस के खिलाफ कार्यवाही कौन करे? अंकुश लगाने वाले ही जब सब से बड़े नकारा हैं तो उन्हें सजा देगा कौन?

भारत के लोग तो मुफ्त खाने के आदी हैं. बिना हाथपैर हिलाए मेहनत कर के सफल होने के बजाय जिंदगी में सफलता पाने के लिए पंडेपुजारियों का सहारा लेते हैं. यह सिर्फ गरीब तबके तक ही सीमित नहीं है, बड़ेबड़े राजनेता भी इन सब का सहारा लेते दिख जाते हैं.

राजनीति से जुड़े लोगों में भी काम न करने की प्रवृत्ति अब पहले से काफी बढ़ गई है. इसी का नतीजा है कि चुनाव आते ही उन्हें झूठे वादों का सहारा ले कर जनता के सामने जाना पड़ता है. सोचने की बात है कि अगर इन नेताओं ने अपने कार्यकाल में जनता के लिए काम किया होता तो चुनाव जैसे मौकों पर उन्हें अपना प्रचार करने की जरूरत ही न पड़ती.

अगर भारत को एक समृद्ध देश बनाना है तो यहां के लोगों को अपना काम करने का ढंग बदलना होगा. निठल्लापन छोड़ना होगा, देश के हित को सर्र्वोपरि समझना होगा. साथ ही, सरकार को भी सचेत होने की जरूरत है. ‘फील गुड’ या ‘भारत निर्माण’ कहने से या इस के एहसास कराने भर से काम नहीं चलेगा, सभी को काम करना होगा, सिर्फ काम.    

टाटा ने सरकार को आईना दिखाया है

सरकार की नीतियों से आम आदमी ही नहीं बल्कि उद्योगपति भी परेशान हैं. यह परेशानी भले ही कुछ लोगों को राजनीतिक लगे लेकिन इस में सचाई है. टाटा समूह के पूर्व अध्यक्ष रतन टाटा ने कहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था सुस्ती के शिकंजे में है और सरकार से निवेशकों का भरोसा डगमगा रहा है. उन का कहना है कि सिर्फ विदेशी ही नहीं, देशी निवेशक भी सरकार की नीतियों से खुश नहीं हैं, इसलिए वे निवेश करने से घबरा रहे हैं. उन का कहना है कि सरकार निवेशकों का रुख नहीं भांप पा रही है. निवेशकों का सरकार पर से विश्वास उठने के कारण देश की आर्थिक हालत लगातार खराब हो रही है.

टाटा का यह बयान जिन दिनों छपा तब रुपया लगातार तेजी से कमजोर हो रहा था और सोना आसमान छू रहा था. निर्यात का आंकड़ा चौंकाने वाले स्तर तक गिर रहा था. इसी वजह से टाटा ने जो कहा उस के राजनीतिक माने नहीं निकाले जा रहे हैं. यह ठीक है कि टाटा को भाजपा नेता नरेंद्र मोदी का करीबी माना जाता है और दोनों के बीच यह रिश्ता उस समय खुल कर सामने आया जब टाटा की छोटी कार नैनो का कारखाना पश्चिम बंगाल से गुजरात लाया गया. उस समय कई अटकलें लगाई जा रही थीं लेकिन आखिर वही हुआ जो टाटा और मोदी को चाहिए था.

सवाल है कि टाटा का सरकार पर राजनेता की तरह उंगली उठाना कितना जायज है? एक उद्योगपति का सरकार को इस तरह से कमजोर कहने से तो यह साफ है कि बिना राजनीतिक सहयोग के यह बयान नहीं दिया जा सकता था. इस से यह भी साफ होता है कि टाटा को भी लगता है कि अगली सरकार भाजपा की होगी और नरेंद्र मोदी इस के मुकुट होंगे. सो, उस मुकुट पर टाटा भी लिखा हो.

वहीं, राजनीतिक चश्मे को अलग रख कर देखें तो टाटा का यह बयान सरकार की कमजोरी का सार्वजनिक खुलासा है जिस से साबित होता है कि विपक्षी दल ही नहीं बल्कि उद्योगपति भी अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह की नीतियों से तंग आ चुके हैं. यहां जरूरत इस बयान का राजनीतिक अर्थ लेने की नहीं बल्कि इसे आईने के रूप में अपना चेहरा देखने के लिए इस्तेमाल किए जाने की है.

सरकार का लक्ष्य राजकोषीय घाटा कम करना नहीं

देश का राजकोषीय घाटा लगातार बढ़ रहा है जो सरकार के लिए नया संकट बना रहा है. सरकार ने हाल ही में खाद्य सुरक्षा विधेयक को पारित करवा कर के वोट मांगने की नैतिकता हासिल कर ली है लेकिन देश के लिए उस का यह निर्णय बड़ा संकट पैदा कर रहा है. खाद्य सुरक्षा योजना के तहत सरकार का लक्ष्य 67 फीसदी आबादी को कम दाम पर भोजन उपलब्ध कराना है लेकिन वहीं, इस से सरकारी खजाने पर हर साल 1.25 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ पड़ने वाला है.

चालू वित्त वर्ष में खाद्य सब्सिडी पर 1 लाख 15 करोड़ रुपए खर्च होने की संभावना है. अब तक तो सरकार के पास रोने के लिए सिर्फ चालू खाता घाटा की जर्जर स्थिति ही थी लेकिन अब राजकोषीय घाटे का नया फंडा सामने आ गया है और इस से अर्थव्यवस्था के और चौपट होने की संभावना है.

सरकार का मकसद इस योजना के बहाने हर घर तक पहुंचना है और वोट हासिल करना है. उस ने संदेश देना शुरू कर दिया है कि सब के लिए सस्ते भोजन की व्यवस्था का काम अब तक किसी सरकार ने नहीं किया है. सरकार वोट की राजनीति कर रही है यदि उसे सचमुच गरीब के लिए भोजन उपलब्ध कराने की चिंता है तो देश के गोदामों में सड़ रहे अनाज को बचाने के उपायों पर विचार करना चाहिए.

सरकार को बुनियादी स्तर पर काम करना चाहिए लेकिन वह इस के लिए ईमानदारी से काम करने को तैयार नहीं है. वह सिर्फ वोटबैंक को लक्ष्य कर योजनाएं बना रही है. उस का लक्ष्य राजकोषीय घाटा कम करना नहीं बल्कि लुभावनी नीतियों के जरिए सत्ता हासिल करना है. इस बार यानी 2013-14 में सरकार ने राजकोषीय घाटे का लक्ष्य 4.8 प्रतिशत निर्धारित किया है लेकिन उस की वोटबैंक की नीति के कारण यह लक्ष्य हासिल होने का सपना भी नहीं देखा जा सकता है.

 

बाजार को दी नई खुशी

शेयर बाजार में सीरिया संकट के कारण मची उथलपुथल के बीच रिजर्व बैंक औफ इंडिया के नए गवर्नर रघुराम राजन के पदभार संभालने के बाद से जो रौनक लौटी उस की किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी. शेयर बाजार वित्त मंत्री के सुधार के उपाय किए जाने की घोषणा और प्रधानमंत्री की तरफ से आर्थिक सुधारों के लिए संसद में कड़े कदम उठाने की घोषणा से प्रभावित नहीं हुआ लेकिन जैसे ही नए गवर्नर ने पदभार संभाला, बाजार में रौनक लौट आई और कई दिनों से खून के आंसू बहा रहा शेयर बाजार खुशियों से झूम उठा.

संसद के आखिरी दिन 6 सितंबर को जब संसद में पूरक अनुदान मांगों को पारित कराने के लिए लोकसभा में बहस चल रही थी तो कई दिनों से 17 और 18 हजार अंक के बीच झूल रहा शेयर बाजार का सूचकांक 19 हजार के पार चला गया. यह सप्ताहभर तक गिरावट से जूझ रहे बाजार में सप्ताह का भी आखिरी कारोबारी दिन था.

ऐसा कम देखने को मिलता है कि अर्थव्यवस्था का कोई नया प्रहरी आए और उसे परखे बिना ही बाजार का संवेदी सूचकांक उस के सम्मान में इस कदर उछाल भरे. 3 सितंबर को देश की ऋण साख घटने के भय से उदास निवेशकों ने जम कर लिवाली की जिस के कारण बाजार 650 अंक तक लुढ़क गया, निफ्टी भी करीब 250 अंक तक लुढ़क गया. इस से पहले रिकौर्ड स्तर पर बाजार उतर आया था. इस की बड़ी वजह सीरिया में रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल के बाद अमेरिकी नेतृत्व द्वारा उस के खिलाफ हमले की तैयारी को बताया गया. भारत की दुनिया की रेटिंग एजेंसियों द्वारा गिराई जा रही साख भी इस पर भारी पड़ रही थी और बाजार में हाहाकार मचा हुआ था लेकिन नए गवर्नर ने ऐसी उम्मीद जगाई कि पूरे बाजार में दीवाली का सा माहौल बन गया और सूचकांक झूम उठा. जानकारों को उम्मीद है कि आने वाले दिनों में बाजार में इसी तरह की रौनक बनी रहेगी और नए गवर्नर पर बाजार ने जो विश्वास जताया है, वह बरकरार रहेगा.

झाड़ू करेगी भ्रष्टाचार का सफाया-अरविंद केजरीवाल

भ्रष्टाचार को मुद्दा बना कर2 साल पहले शुरू किए गए जन आंदोलन में अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के साथ पूरा देश सरकार के खिलाफ आक्रोशित दिखा. लेकिन वक्त की बदलती करवट ने अन्ना और अरविंद केजरीवाल की राहें जुदा कर दीं. ‘आम आदमी पार्टी’ बना कर अरविंद केजरीवाल अब सियासत के रास्ते उस अधूरी लड़ाई को पूरा करने के लिए चुनावी मैदान में कूद पड़े हैं. क्या है उन की रणनीति, यह जानने के लिए बुशरा खान ने उन से बातचीत की.

चुनावी मैदान में उतरने जा रहे नए राजनीतिक दल ‘आम आदमी पार्टी’ यानी ‘आप’ ने दिल्ली में होनेवाले विधानसभा चुनाव में भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाने का निश्चय किया है. दिल्ली के मतदाताओं से भ्रष्टाचार के खिलाफ मतदान करने की अपील कर रही ‘आप’ के संस्थापक अरविंद केजरीवाल 2 साल पहले समाजसेवी अन्ना हजारे द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध और जनलोकपाल बिल पास किए जाने के लिए छेड़े गए जनआंदोलन में कंधे से कंधा मिला कर चलते रहे थे. मगर जब उन्हें महसूस होने लगा कि राजनीति में गहरे तक पैठ बना चुके भ्रष्टाचार को आंदोलन से दूर नहीं किया जा सकता, इस के लिए राजनीति में उतर कर ही वहां मौजूद गंदगी साफ करनी होगी तो उन्होंने आखिरकार 2 अक्तूबर, 2012 को ‘आम आदमी पार्टी’ बनाने की विधिवत घोषणा कर दी.  इन दिनों अरविंद पूरी तरह कमर कस कर चुनावों की तैयारी में जुटे हैं. चुनावों में उन का मुख्य मुद्दा जनता को भ्रष्टाचार और भ्रष्ट नेताओं से नजात दिलाना है. पेश हैं अरविंद केजरीवाल से हुई बातचीत के खास अंश :

दिल्ली विधानसभा की कितनी सीटों पर ‘आप’ के उम्मीदवार जोर- आजमाइश करेंगे?

हम सभी 70 सीटों पर लड़ेंगे और सरकार बनाने के 15 दिन के भीतर दिल्ली में वह लोकपाल बिल पास करेंगे जिस के लिए अन्ना हजारे को अनशन पर बैठना पड़ा था.

जनता के बीच किन मुद्दों को ले कर जाएंगे?

हमारा सब से बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार  है, जिस के चलते आम आदमी का जीना मुश्किल हो गया है. यदि भ्रष्टाचार दूर होगा तो महंगाई दूर होगी. भ्रष्टाचार दूर होगा तो सरकारी स्कूलों में पढ़ाई होगी, सरकारी अस्पतालों में मरीजों को दवाइयां मिलेंगी, सड़कें नहीं टूटेंगी, बारिश में ट्रैफिक जाम नहीं होगा, साफसफाई रहेगी. हर समस्या की जड़ भ्रष्टाचार है. सभी पार्टियों के नेता भ्रष्टाचार में लिप्त हैं. अगर लोकपाल बिल पास कर दिया जाए तो आधे से ज्यादा नेता जेल के अंदर होंगे. भ्रष्टाचार के कारण ही इतनी अधिक महंगाई है. आज बिजली के दाम इसलिए बढ़ रहे हैं क्योंकि मुख्यमंत्री बिजली कंपनियों के साथ मिली हुई हैं. पानी के दाम इसलिए बढ़ रहे हैं क्योंकि बड़ेबड़े ठेकों में भ्रष्टाचार है. यह भी पूरी तरह साफ हो चुका है कि ये राजनीतिक पार्टियां भ्रष्टाचार दूर नहीं करेंगी. इसलिए, हमें पार्टी बनानी पड़ी.

जो काम बड़े जनआंदोलन के बाद भी संभव नहीं हो पाया उसे आप की नई राजनीतिक पार्टी कैसे संभव कर दिखाएगी?

देखिए, आज सारी समस्याओं की जड़ गंदी राजनीति है. राजनीति खराब है, इसलिए भ्रष्टाचार हो रहा है. जिन लोगों को भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून बनाना है वही लोग संसद और विधानसभाओं में बैठे हैं. भला वे अपने खिलाफ कानून कैसे बनाएंगे. इसलिए अच्छे और ईमानदार लोगों का अंदर जाना बहुत जरूरी है.

शीला दीक्षित ही क्यों? आप ने किसी भाजपा नेता के विरुद्ध चुनाव लड़ने का फैसला क्यों नहीं किया?

दिल्ली में 15 साल से कांग्रेस राज कर रही है. दिल्ली में शीला दीक्षित भ्रष्टाचार और इनऐफिशिएंसी की प्रतीक बन गई हैं इसलिए मैं ने दिल्ली में भ्रष्टाचार की सब से बड़ी प्रतीक के खिलाफ ही चुनाव लड़ने का फैसला किया. उन पर ढेरों भ्रष्टाचार के मामले हैं. कौमनवैल्थ गेम्स में 70 हजार करोड़ रुपए का घोटाला हुआ, शुंगलू रिपोर्ट में सीधेसीधे मुख्यमंत्री कार्यालय का नाम आया, इस के बाद ट्रांसपोर्ट स्कैम हुआ, जिस में ट्रांसपोर्ट के एक अफसर ने कहा कि मुख्यमंत्री ने मुझे गलत काम करने के लिए बोला था और अब मेरी जान को खतरा है. 

इस बात की क्या गारंटी है कि आप राजनीति में आ कर खुद भ्रष्ट नहीं हो जाएंगे?

आप का सवाल बिलकुल ठीक है. मैं इन्कम टैक्स में कमिश्नर था. इन्कम टैक्स में एक इंस्पैक्टर साल में कम से कम 1 करोड़ रुपए की रिश्वत आराम से उगाही कर लेता है. मैं तो कमिश्नर था, करोड़ों कमा सकता था, मगर एक पैसा नहीं कमाया. अगर पैसा ही कमाना होता तो मेरी नौकरी बुरी नहीं थी. पैसा था, लाल बत्ती की गाड़ी थी. वह सबकुछ छोड़ कर मुझे दरदर की ठोकरें खाने की क्या जरूरत थी? 15 दिनों तक मैं ने अनशन किया, भूखा रहा. सत्ता और पैसे का लालची व्यक्ति 15-15 दिन भूखा नहीं रह सकता. मैं पैसा कमाने नहीं देश बदलने और भ्रष्टाचार दूर करने के लिए राजनीति में आया हूं. एक और सवाल जो बारबार उठाया जाता है कि ‘आप’ के बाकी उम्मीदवारों की ईमानदारी की गारंटी कौन लेगा. इस पर मेरा कहना है कि हम ने हरएक उम्मीदवार की जांच करवाई है. मैं 3 चीजों की गारंटी लेता हूं. हमारे सभी 70 उम्मीदवार ईमानदार, चरित्रवान हैं और किसी भी उम्मीदवार के खिलाफ कहीं कोई संगीन अपराध का मामला नहीं चल रहा है. दिल्ली विधानसभा में आज 16 कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के विधायक हैं, जिन पर संगीन अपराधों के मुकदमे चल रहे हैं.

अभी कुछ दिन पहले आप की पार्टी के कई लोगों ने टिकट न मिलने को ले कर ‘आप’ से अलग हो कर और अपनी नई पार्टी ‘भारतीय आम आदमी परिवार’ यानी ‘बाप’ बना ली है. क्या कहेंगे आप?

मैं आप की बात से 100 प्रतिशत सहमत हूं. कुछ लोग इस समय ऐसे आ गए हैं जिन लोगों को केवल टिकट चाहिए. हम ने प्रौसेस ओपन कर दिया है. हम लोगों से आवेदन मांग रहे हैं कि यदि आप देश की सेवा करना चाहते हैं तो टिकट के लिए आवेदन कीजिए. इस के लिए ‘आप’ का कार्यकर्ता होना भी अनिवार्य नहीं है. जो चाहे आवेदन कर सकता है. हम चाहते हैं कि जिस ने भी समाज के लिए काम किया है, हम अपनी पार्टी के टिकट पर उसे चुनाव लड़ाएं. पर इस प्रक्रिया में कांग्रेस और भाजपा ने अपने कुछ लोगों को हमारे यहां आवेदन भरने के लिए आगे कर दिया. 

देश में राजनीति धर्म और जाति के आधार पर हो रही है. ऐसे में आप समाज के सभी धर्मों, वर्गों और जातियों के लोगों को अपने साथ कैसे ले कर चलेंगे?

पिछले 2 सालों में अन्नाजी ने पूरे देश के लोगों को भ्रष्टाचार के खिलाफ इकट्ठा  किया. इस में हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई सब शामिल थे. यह देख कर सभी पार्टियां घबरा गईं. भाजपा, कांग्रेस दोनों भ्रष्टाचारी हैं, इसलिए ये चुनाव से पहले भ्रष्टाचार की बात नहीं करतीं बल्कि ये मसजिदमंदिर की बात उठाती हैं. हम जनता के बीच जा कर उन्हें समझाते हैं.

मुसलमानों ने 62 सालों तक कांग्रेस को वोट दिया पर कांग्रेस ने उन्हें भुखमरी, गरीबी और अशिक्षा के अलावा क्या दिया? इधर, भाजपा हिंदुओं को अपना वोटबैंक बनाने की कोशिश करती है. सच तो यह है कि  न कांग्रेस ने मुसलमानों को कुछ दिया है और न भाजपा ने हिंदुओं को. ये केवल हम लोगों के भीतर जहर घोलने की कोशिश करते हैं.

क्या अन्ना हजारे आप के लिए चुनाव प्रचार करेंगे?

अन्नाजी ने कहा है कि मैं पार्टी से एसोसिएट नहीं होना चाहता. मैं कह सकता हूं कि हमारे रास्ते बेशक अलग हैं, पर मंजिल एक ही है. हमारे बीच मन में मतभेद नहीं हैं. उन्हें लगता है कि राजनीति कीचड़ है जिस में जाने से हम गंदे हो जाएंगे जबकि हम कहते हैं कि इस की सफाई के लिए कीचड़ में कूदना पड़ेगा. वे मेरे पिता समान हैं. मैं अभी भी उन से लगातार मिलता रहता हूं.

क्या सिर्फ राजनीति से भ्रष्टाचार दूर कर देने मात्र से देश सुधारा जा सकता है? नौकरशाही में मनमानी और भ्रष्टाचार भरा पड़ा है. इसे कैसे दूर करेंगे?

जब सफाई होगी तो चारों तरफ, ऊपर से नीचे तक होगी. पूरी राजनीति व ऐडमिनिस्ट्रेशन की सफाई होगी. लोग ईमानदारी से काम करेंगे तो केवल जनता के लिए करेंगे. आज लोग बेईमानी से काम कर रहे हैं तो केवल अपने लिए कर रहे हैं. मैं कहता हूं दिल्ली का बजट 40 हजार करोड़ रुपए है. इस में से अगर 50 प्रतिशत यानी 20 हजार करोड़ रुपए हर साल भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं और शेष 20 हजार करोड़ रुपए जनता की भलाई में लगा दिए जाएं तो हालात कितने सुधर जाएंगे, आप अंदाजा लगा सकते हैं.

चुनाव चिह्न झाड़ ू रखने के पीछे क्या मकसद था?

जिस तरह से हम घर और सड़क की सफाई झाड़ ू से करते हैं उसी तरह से भ्रष्टाचार की सफाई करनी है. यह इसी का सिंबल है.

आटोरिकशा पर आप की पार्टी के पोस्टर चिपके होते हैं, विशेषकर बलात्कार के मामलों को ले कर, जिस से यह समझ आता है कि आप चुनावों में इन मुद्दों को भुनाने की फिराक में हैं?

हम यही तो चाहते हैं कि चुनाव इस बार इन्हीं मुद्दों पर हों. हर बार चुनाव धर्म के नाम पर होते हैं, अब हम उन्हें असली मुद्दों पर लाना चाहते हैं. हम चाहते हैं कि जनता सवाल पूछे कि कौन सी पार्टी लड़कियों को बलात्कार से मुक्ति दे सकती है. यदि आप फिर इन्हीं को वोट देंगे तो क्या बलात्कार जैसे अपराधों से मुक्ति मिल सकती है? कांग्रेस से यह सवाल किया जाना चाहिए कि देश में इतने बलात्कार हो रहे हैं, सरकार क्या कर रही है?

चुनाव जीतने के लिए पार्टियां धन और बल दोनों का प्रयोग करती हैं. आप किस बल पर चुनाव जीतेंगे?

हम नंबर एक के पैसे से चुनाव लड़ेंगे और जीतेंगे. जनता ईमानदारी का पैसा दे रही है. ये नेता लोग तो उद्योगपतियों से पैसा ले कर चुनाव लड़ते हैं. चुनाव जीत जाते हैं तो उद्योगपति आ कर इन के कान उमेठते हैं कि पैसे दिए थे अब बिजली के दाम बढ़ाओ. लेकिन हम जनता के पैसे से चुनाव लड़ रहे हैं. जनता आ कर चुनाव के बाद हमारे कान उमेठेगी. हमारी जवाबदेही जनता के प्रति होगी जबकि इन की जवाबदेही बड़े उद्योगघरानों के प्रति होती है. जनता ही हमारी प्रमुख रणनीतिकार है.

यदि चुनाव हार गए तो क्या करेंगे?

मुझ से जब भी यह सवाल पूछा जाता है तो मैं कहता हूं कि मैं चुनाव हार गया तो सवाल यह नहीं है कि मैं क्या करूंगा बल्कि यह आप को सोचना है कि अगर मैं चुनाव हार गया तो आप क्या करोगे. क्योंकि आम आदमी पार्टी हार गई तो आप के बच्चों के भविष्य का क्या होगा. क्योंकि  वही कांग्रेस और वही भाजपा आप के सामने होगी. हमारी जिंदगी अब इस देश के लिए कुरबान है. जब तक शरीर में खून का एक भी कतरा है तब तक भ्रष्टाचार से लड़ते रहेंगे. यह मेरा अकेले का चुनाव नहीं है, मैं अकेला कुछ नहीं कर सकता. देश की जनता को हमारे साथ आना पड़ेगा.

सिटीजंस चार्टर क्या सुनी जाएंगी जन शिकायतें?

सरकारी विभागों को जनता के प्रति जवाबदेह और पारदर्शी बनाने के लिए प्रस्तावित विधेयक सिटिजंस चार्टर व्यावहारिक तौर पर कितना कारगर होगा, कहना मुश्किल है क्योंकि अरसे से भ्रष्टाचार और कामचोरी की आदी हो चुकी लालफीताशाही को खुद पर अंकुश कभी गवारा नहीं होगा. बहरहाल, क्याक्या है सिटिजंस चार्टर में, बता रहे हैं शाहिद ए चौधरी.

हालांकि यूपीए-2 की मौैजूदा सरकार ने अब तक लोकपाल कानून नहीं बनाया है लेकिन मार्च 2013 के दूसरे सप्ताह में उस के मंत्रिमंडल ने ‘द राइट औफ सिटिजंस फौर टाइमबाउंड डिलीवरी औफ गुड्स ऐंड सर्विसेज ऐंड रिड्रैसल औफ देयर ग्रीवैंसिस बिल 2011’ को मंजूरी दे दी है. इस विधेयक के तहत नागरिकों को निश्चित अवधि के दौरान सरकार से अपने काम कराने व जन सेवाएं हासिल करने का अधिकार होगा. इस के अलावा उन की शिकायतों का भी निर्धारित समयसीमा में निवारण किया जाएगा. इसलिए इस विधेयक को अधिक पारदर्शी व जवाबदेह प्रशासन के संदर्भ में मील का पत्थर माना जा रहा है.

विशेषज्ञों का कहना है कि यह विधेयक कानून बनने के बाद न सिर्फ समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने में सक्षम रहेगा बल्कि इस के जरिए आरटीआई का असली मकसद भी पूरा हो सकता है. साथ ही, इस से सरकार का कुछ बोझ कम भी हो सकता है.

पहले आरटीआई और अब इस नए विधेयक के जरिए जो व्यवस्था विकसित करने का प्रयास किया जा रहा है वह भले ही परफैक्ट न हो पाए लेकिन इन के जरिए सरकार जनसमीक्षा के लिए खुल जाती है, इसलिए उसे मजबूरन अपने विभागों को अधिक पारदर्शी व जवाबदेह बनाना होगा. साथ ही, इस प्रक्रिया से यह उम्मीद भी की जा सकती है कि जो भ्रष्टाचार आम आदमी को दैनिक जीवन में प्रभावित करता है उस पर भी किसी हद तक अंकुश लग सकेगा. बहरहाल, इस नए विधेयक की संभावित सफलता का अंदाजा लगाने से पहले यह जानना जरूरी है कि जो राज्य इस किस्म का कानून पहले से ही गठित कर चुके हैं उन में इस से जनता को क्या लाभ हासिल हो सका है. गौरतलब है कि पूर्व में दिल्ली, राजस्थान व मध्य प्रदेश में ‘जनसेवा डिलीवरी व शिकायती कानून’ बनाया जा चुका है.

प्रस्तावित कानून के जरिए नागरिकों को एक निश्चित समय अवधि के भीतर संसाधन व सेवाएं उपलब्ध कराई जाएंगी. इस के लिए प्रशासन को उन चीजों व सेवाओं की सूची (सिटिजंस चार्टर) प्रकाशित करनी होगी जिन को उपलब्ध कराने की उस की जिम्मेदारी है. साथ ही, यह भी बताना होगा कि कितने समय में उन को उपलब्ध कराया जाएगा. अगर नागरिकों को चार्टर से संबंधित कोई शिकायत होगी, जैसे किसी चीज या सेवा का समय पर न मिलना, सरकारी अधिकारी का सही तरह से काम न करना, कानून या नीति या योजना का उल्लंघन करना आदि तो वे उस के खिलाफ शिकायत भी दर्ज करा सकते हैं.

सभी जन प्राधिकरणों को जानकारी व सुविधा केंद्र स्थापित करने होंगे और नगरपालिका व पंचायत स्तर पर अधिकारी नियुक्त करने होंगे जिस से 15 दिन के भीतर शिकायत का समाधान किया जाए. शिकायत के सिलसिले में लिखित जवाब देना होगा कि उस का क्या समाधान किया जा रहा है, दोषी व्यक्ति के खिलाफ क्या कार्यवाही की जा रही है?

अगर शिकायत का निवारण 15 दिन के भीतर नहीं होता है तो एक स्पष्टीकरण विभाग के प्रमुख को भेजना होगा. विभाग प्रमुख को शिकायतकर्ता भी लिख सकता है यदि उस की समस्या का 15 दिन के भीतर संतोषजनक समाधान नहीं होता है. शिकायत का समाधान नहीं किया गया तो उसे भ्रष्टाचार माना जाएगा और भ्रष्टाचार रोकथाम कानून 1988 के तहत संबंधित कर्मचारी के खिलाफ कार्यवाही भी की जा सकती है.

एक केंद्रीय जन शिकायत निवारण आयोग और ऐसे ही आयोग राज्यों में नियुक्त किए जाएंगे. शिकायत दर्ज करने में शिकायत निवारण अधिकारी यानी जीआरओ मदद करेंगे. आयोग के समक्ष न्यायिक प्रक्रियाएं भारतीय दंड संहिता के तहत होंगी. दोषी पाए गए अधिकारियों के खिलाफ आर्थिक जुर्माना लगाया जाएगा जोकि समयसमय पर तय किए जाने वाली दर के हिसाब से होगा. जो अधिकारी या कर्मचारी दुर्भावना का दोषी पाया जाएगा उस के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही भी होगी.

हालांकि प्रस्तावित विधेयक ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस से आरटीआई की तरह ही जनता के हाथ में काफी ताकत आ जाएगी और वह सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने के बजाय सही से अपना काम करा सकेगी. लेकिन विधेयक में कुछ ऐसे प्रावधान भी हैं जिन्हें राज्य सरकारें इस आधार पर चुनौती दे सकती हैं कि वे संघीय ढांचे का उल्लंघन करते हैं.

प्रस्तावित विधेयक में कहा गया है कि केंद्रीय जन शिकायत निवारण आयोग जो भी आदेश पारित करेगा उसे राज्य आयोगों को लागू करना होगा. अगर कोई नागरिक राज्य आयोग के फैसले से संतुष्ट नहीं है तो वह 30 दिन के भीतर केंद्रीय आयोग में अपील दायर कर सकता है. इस सिलसिले में कुछ विशेषज्ञों की राय है कि दोनों आयोग स्वतंत्र होने चाहिए और अगर किसी नागरिक को राज्य आयोग के फैसले से शिकायत है तो उसे हाईकोर्ट जाना चाहिए. आवश्यकता पड़ने पर सुप्रीम कोर्ट में भी अपील की जाए.

गौरतलब है कि इसी की तरह राज्य सूचना आयोग व केंद्रीय सूचना आयोग काम करते हैं. साथ ही, इस संदर्भ में राज्यों में जो कानून बनाए गए हैं उन्हें निरस्त करने की जरूरत नहीं है, नया विधेयक अतिरिक्त कानून बन सकता है. दरअसल, राज्य आयोगों को केंद्रीय आयोग के अधीन रखने की कोई जरूरत नहीं है. इस से न सिर्फ संघीय ढांचा प्रभावित होता है बल्कि राज्य आयोगों के खिलाफ सभी अपीलें केंद्रीय आयोग में लंबित पड़ी रहेंगी. केंद्रीय आयोग का काम सिर्फ केंद्र सरकार की सेवाओं से संबंधित शिकायतों तक ही सीमित रहना चाहिए. बेहतर यही है कि जिस तरह आरटीआई में क्षेत्रीय न्यायिक क्षेत्र की व्यवस्था रखी गई है कि राज्य आयोग के खिलाफ हाईकोर्ट में जाया जाए, वैसी ही व्यवस्था प्रस्तावित विधेयक में भी शामिल की जानी चाहिए.

सरकार के जो महत्त्वपूर्ण सामाजिक कार्यक्रम हैं जैसे मनरेगा, शिक्षा का अधिकार, ग्रामीण स्वास्थ्य, पीडीएस आदि, उन का जनता को सही लाभ नहीं मिल रहा है, साथ ही उन में जबरदस्त घोटाले भी हैं. इस समस्या का समाधान प्रस्तावित विधेयक के कानून बनने से ही संभव है. गौरतलब है कि प्रस्तावित विधेयक में योजनाओं की निगरानी करने वाले व्यक्तियों को भी जवाबदेह बनाया गया है, इसलिए ऊपर के स्तर का कोई घोटालेबाज भी आसानी से बच नहीं सकता.

आरटीआई लोगों को जानकारी हासिल करने व अपनी सरकार से जवाब मांगने का अवसर प्रदान करती है. लेकिन लोग यह भी चाहते हैं कि सरकार जिम्मेदार व जवाबदेह भी हो, जो इस प्रस्तावित विधेयक से ही संभव है. ध्यान रहे कि आरटीआई के ज्यादातर सवाल आज भी शिकायतों से ही संबंधित हैं क्योंकि सरकारी विभाग अवाम की जरूरतों को पूरा करने में नाकाम रहते हैं. प्रस्तावित विधेयक के तहत शिकायतों का सीधे समाधान होगा और अगर कानून बनने के बाद इसे ईमानदारी से लागू कर दिया गया तो आरटीआई का बोझ भी काफी कम हो जाएगा.

दरअसल, अगर प्रस्तावित विधेयक कानून बन जाता है तो इस से समाज में सकारात्मक परिवर्तन आ सकता है. सब से पहली बात तो यह है कि इस के तहत एक नागरिक को मालूम होगा कि वह सरकार से किनकिन चीजों व सेवाओं की उम्मीद रख सकता है. अगर उस को वे चीजें या सेवाएं निर्धारित समय में उपलब्ध नहीं हो रही हैं तो वह शिकायत कर सकता है और उस शिकायत को भी

15 दिन में हल होना होगा. जाहिर है, इस से सरकारी कर्मचारियों को काम करना पड़ेगा और अब तक जो वे घूस के लालच में काम को टालते रहते हैं उस पर भी विराम लग सकेगा. कहने का अर्थ यह है कि प्रस्तावित विधेयक में इतना दम है कि वह भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा सके व जनता को सुशासन प्रदान करने में मदद कर सके. इसलिए सरकार पर दबाव डाला जाना चाहिए कि वह प्रस्तावित विधेयक को संसद के दोनों सदनों में जल्द पारित करा कर कानून बनाए.

ऐसा भी होता है

मेरे पति बाजार गए हुए थे. वहां पर एक महिला कुछ खरीद रही थी. इतने में एक भिखारी आया. वह उस महिला से बोला, ‘‘माताजी, मुझ गरीब को कुछ दे दें…’’ वह आगे कुछ और बोलता उस से पहले वह महिला गुस्से में उसे डांटते हुए बोली, ‘‘मैं तुझे माताजी दिख रही हूं.’’ वह मांगने वाला चुपचाप आगे चल दिया. घर आ कर पति ने यह बताया तो हम सब खूब हंसे.    

काशी चौहान, कोटा (राज.)

 

मेरे बेटे को एक सवाल हल करने में सफलता नहीं मिल रही थी. उस ने पापा,  जोकि प्रोफैसर हैं, से सहायता ली पर वे भी नहीं हल कर पाए. उन्होंने अपने दोचार अध्यापक मित्रों से भी पूछा पर आश्चर्य, वे सब भी असफल रहे. मेरा बेटा उस सवाल को बारबार करता रहा पर असफल रहा. आखिरकार सो गया. उस की बहन अभी पढ़ रही थी. उस ने देखा कि भाई कुछ बड़बड़ा रहा है, वह तुरंत कौपीपैंसिल ले कर जो वह बोल रहा था, लिखने लगी.

सुबह उठ कर बोली, ‘‘भाई, मैं ने तेरा सवाल हल कर लिया.’’ मुझे वह सब बता चुकी थी. मैं चुप रही पर बेटा बोला, ‘‘उत्तर तो एकदम ठीक है पर यह तेरे बस का नहीं. बता, कैसे किया?’’ वह बोली, ‘‘भाई, रात को तू ने नींद में जो बोला, मैं ने लिख लिया.’’ उस की मेहनत देख कर सब ने उस की तारीफ की.

संध्या राय, गुड़गांव (हरियाणा)

 

बात 1975 की है. हम बैंकौक में थे. वहां मेरे पति भारतीय दूतावास में कार्यरत थे. एक दिन हम ने रेल द्वारा थाईलैंड की पुरानी राजधानी अयुध्या जाने का कार्यक्रम बनाया. हम ने अपनी बेटी दीपा, जो 5 वर्ष से कम आयु की थी, का टिकट नहीं लिया. टे्रन चलने पर टिकटचैकर आया व हम लोगों के टिकट देखने के बाद दीपा का टिकट मांगने लगा. मेरे पति ने इशारों व जितनी भी थाई भाषा आती थी, उसे समझाया कि दीपा की उम्र 5 वर्ष से कम है. इस पर टिकटचैकर ने थाई में कुछ कहा, जो हमें समझ नहीं आया. तब उस ने दीपा को डब्बे के आखिर में ले जा कर डब्बे से सटा कर खड़ा कर दिया व विजयी मुद्रा में इशारा कर के हमें देखने के लिए कहा.

हम ने देखा कि डब्बे की दीवार पर एक लकीर का निशान बना था व दीपा का सिर उस से लगभग 1 इंच ऊपर था. तब हमें समझ आया कि थाईलैंड में बच्चों का टिकट ऊंचाई के आधार पर लगना शुरू होता है, आयु के हिसाब से नहीं. यह हमारे लिए रोचक अनुभव था.

पूर्णिमा माथुर, जोधपुर (राज.)

किस में कितना है दम

होंडा का अमेज और मारुति सुजूकी का स्विफ्ट डिजायर मौडल कार के शौकीनों को खूब आकर्षित कर रहे हैं. आटो बाजार में ये एकदूसरे को कड़ी टक्कर दे रहे हैं. आइए, जानते हैं कि कौन सा मौडल ज्यादा बेहतर है.

वे दिन बीत गए जब डीजल, पैट्रोल से काफी सस्ता था तो फिर क्यों हम आज भी महंगी डीजल कारों की तरफ रुख करें. आज हम बात करेंगे 2 परफैक्ट शहरी सेडान कारों की जो इतनी कांपैक्ट हैं कि कहीं भी समा जाएं. दोनों बहुत कुछ एक जैसी हैं मानो जुड़वां हों.

आइए, हम आप को इन दोनों कारों की तकनीकी बारीकियों के बारे में बता दें ताकि आप निर्णय ले सकें कि इन में कौन ज्यादा बेहतर है, होंडा की अमेज या मारुति सुजूकी की स्विफ्ट डिजायर. सब से पहली बात तो यह कि ये दोनों ही हैश बैक फार्मूले पर आधारित हैं. दोनों की लंबाई 4 मीटर से कम है, जिस से इन को ऐक्साइज का बैनिफिट भी मिल जाता है. दोनों में 1.2 लिटर पैट्रोल इंजन है. अमेज को होंडा की ब्रियो के प्लेटफौर्म पर बनाया गया है और इस में 400 लिटर का बूट स्पेस है. 

जहां तक इंटीरियर की बात है तो डिजायर बेहतर है और अमेज से आगे है. डिजायर का कंट्रास्ट डैश बोर्ड यानी बैगी उस के लुक को प्रीमियम व स्पेशियस बनाता है. अगर स्पेस की बात की जाए तो अमेज के व्हीलबेस को ब्रियो से बढ़ा दिया गया है. दोनों कारों में बराबरी की टक्कर है. दोनों में इंटीग्रेटेड म्यूजिक सिस्टम है, एडजस्टेबल सीट हैं. म्यूजिक सिस्टम के सारे कंट्रोल स्टीयरिंग में दिए गए हैं. दोनों ही कारों में 5 लोगों के बैठने के लिए पर्याप्त स्पेस है. लेकिन डिजायर एकमात्र ऐसी गाड़ी है जिस में क्लाइमैट कंट्रोल की सुविधा दी गई है, साथ ही उस के डैश बोर्ड के मैटीरियल की क्वालिटी भी बैस्ट है. अमेज की गहरी फं्रट सीट और ऐक्सटैंडेड व्हीलबेस की वजह से पीछे की सीट में दी गई अतिरिक्त लैग स्पेस के चलते इस ने यहां बाजी मार ली है.

अमेज का बूट स्पेस जहां 400 लिटर का है वहीं डिजायर का 316 लिटर का है. दोनों में 1.2 लिटर व 4 सिलैंडर वाला इंजन है. पावर आउटपुट भी दोनों में समान है लेकिन ड्राइविंग सीट पर बैठ कर आप को डिफरैंस अवश्य महसूस होगा. जहां डिजायर का टर्निंगस्केल 4-8 मीटर का है वहीं अमेज का 4.7 मीटर का है. डिजायर के फ्रंट ब्रेक बैटिलेटेड हैं जबकि अमेज में डिस्क ब्रेक हैं. रियर ब्रेक दोनों में ही ड्रम हैं. जहां डिजायर के फीचर अपडेटेड हैं. डिजायर की अधिकतम स्पीड 138 किलोमीटर प्रतिघंटा है जबकि अमेज की 166 किलोमीटर प्रतिघंटा. जहां अमेज 0 से 100 किलोमीटर की रफ्तार 13.4 सैकेंड में पकड़ती है वहीं डिजायर 11.7 सैकेंड में यह रफ्तार पकड़ती है. सस्पैंशन और केबिन साउंड के हिसाब से डिजायर, अमेज से आगे है. इस का श्रेय इस के 15 इंच के बड़े व्हील को जाता है जिस की वजह से ड्राइविंग में ऐक्स्ट्रा कंफर्ट मिलता है. अगर आप शहर में स्ट्रैसफ्री ड्राइविंग चाहते हैं तो डिजायर चुनिए लेकिन अमेज को चुनना भी कम सुखद अनुभव नहीं होगा. निर्णय आप का है.    

सौजन्य : बिजनैस स्टैंडर्ड मोटरिंग

बौडी पार्ट्स से झलकती लैंग्वेज

बौडी लैंग्वेज हमारे विचारों के आदानप्रदान में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है. कहते हैं कि ताश के खिलाड़ी अपनी चाल तय न कर पाने की वजह से एकदूसरे की ओर ताक लगाए बैठे रहते हैं, ताकि किसी भी तरह उन्हें अपने अगले दांव का सूत्र मिल जाए. इसी तरह से हमारे व्यक्तित्व की चाबी है बौडी लैंग्वेज, जो हमारी अंदरूनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने में काफी कारगर होती है.

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, शब्द हमारी बातचीत का सिर्फ एकतिहाई हिस्सा हैं और जब तक शब्दों के साथ चेहरे की भंगिमाएं और हावभाव शुमार न हों, बातचीत अधूरी रह जाती है. जीवन में किसी भी इंसान की वर्तमान मानसिक स्थिति जानने के लिए उस के शब्दों और शरीर के विभिन्न अंगों की गतिविधियों को सूक्ष्मता से परखना होता है. ऐसे बहुत से शारीरिक संकेत हैं जिन का अर्थ काफी सीक्रेट होता है और वे हमें सामने वाले के प्रति और ज्यादा चौकन्ना कर देते हैं.

1.    शरीर के सभी अंग किसी तरह नकारात्मक या सकारात्मक संकेत देते हैं. इस में चेहरे को सब से ज्यादा अहमियत दी जाती है. सिर का हिलाना यानी किसी चीज के लिए सहमति देना होता है या फिर धैर्य रखना. सिर ऊपर उठा कर चलना या ऊपर की ओर सधी हुई नाक घमंड का द्योतक होता है या फिर एकांतता में यकीन करने का. कांपते होंठ दिल पर गहरी चोट पहुंचने का संकेत देते हैं.

2.    चमकती हुई आंखें, डरावनी आंखें, गहरी आंखें, गुस्से से भरी आंखें, इतने सारे भावों वाली होने के कारण आंखों को मन का आईना भी कहा जाता है. बातचीत के दौरान हम एकदूसरे की आंखों में जितना देखते हैं, संबंध उतने ही मजबूत बनते हैं. बंद आंखें सीक्रेसी या आराम करने की इच्छा जताती हैं. झुकी हुई, इधरउधर निहारती हुई आंखें कुछ छिपाने की कोशिश करती हैं. घूरती हुई आंखें किसी की आक्रामक प्रवृत्ति को प्रतिबिंबित करती हैं. अधखुली और बुझी हुई सी आंखें ऊब जाने की दशा जाहिर करती हैं. बातचीत के दौरान आंखें मिला कर बात न करना दर्शाता है कि व्यक्ति असुरक्षा का शिकार है या फिर लापरवा है.

3.    भौंहें भी किसी न किसी तरह भावनाएं शेयर करती हैं. ऊंची भौंहें इंसान की परेशानी की सूचक होती हैं.

4.    बातचीत के समय हाथपांवों की गतिविधियां हमारे व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने में सहायक होती हैं. यह एक अच्छे वक्ता की पहचान है कि वह बोलते वक्त अपने हाथों और पांवों का भी इस्तेमाल करता हो.

5.    बातचीत के दौरान अपनी बांहें या टांगें क्रौस न करें, इस से आप की मुद्रा तनावग्रस्त नजर आएगी. अपने हाथ सिर के पीछे बांधना अतिरिक्त आत्मविश्वास का सूचक होता है. बातचीत के दौरान पैर हिलाना व टेबल पर उंगलियां फिराना घबराहट का सूचक होता है. हैंडशेक हलके हाथों से किया जाए तो यह कम उत्सुकता को दर्शाता है. कस कर, हाथों को दबा कर किया गया हैंडशेक व्यावसायिकता की पहचान है.

6.    मुंह के ऊपर या चेहरे पर हाथ रखना नकारात्मक बौडी लैंग्वेज का सूचक है.

7.    मुट्ठी भींचना गुस्से का सूचक होता है, वहीं मुट्ठी बंद करना डर का संकेत देता है. बातचीत के दौरान नाख्ून कुतरना और बारबार नाक को छूना सामने वाले की नर्वसनैस को दर्शाता है. 

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें