सरकार की नीतियों से आम आदमी ही नहीं बल्कि उद्योगपति भी परेशान हैं. यह परेशानी भले ही कुछ लोगों को राजनीतिक लगे लेकिन इस में सचाई है. टाटा समूह के पूर्व अध्यक्ष रतन टाटा ने कहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था सुस्ती के शिकंजे में है और सरकार से निवेशकों का भरोसा डगमगा रहा है. उन का कहना है कि सिर्फ विदेशी ही नहीं, देशी निवेशक भी सरकार की नीतियों से खुश नहीं हैं, इसलिए वे निवेश करने से घबरा रहे हैं. उन का कहना है कि सरकार निवेशकों का रुख नहीं भांप पा रही है. निवेशकों का सरकार पर से विश्वास उठने के कारण देश की आर्थिक हालत लगातार खराब हो रही है.

टाटा का यह बयान जिन दिनों छपा तब रुपया लगातार तेजी से कमजोर हो रहा था और सोना आसमान छू रहा था. निर्यात का आंकड़ा चौंकाने वाले स्तर तक गिर रहा था. इसी वजह से टाटा ने जो कहा उस के राजनीतिक माने नहीं निकाले जा रहे हैं. यह ठीक है कि टाटा को भाजपा नेता नरेंद्र मोदी का करीबी माना जाता है और दोनों के बीच यह रिश्ता उस समय खुल कर सामने आया जब टाटा की छोटी कार नैनो का कारखाना पश्चिम बंगाल से गुजरात लाया गया. उस समय कई अटकलें लगाई जा रही थीं लेकिन आखिर वही हुआ जो टाटा और मोदी को चाहिए था.

सवाल है कि टाटा का सरकार पर राजनेता की तरह उंगली उठाना कितना जायज है? एक उद्योगपति का सरकार को इस तरह से कमजोर कहने से तो यह साफ है कि बिना राजनीतिक सहयोग के यह बयान नहीं दिया जा सकता था. इस से यह भी साफ होता है कि टाटा को भी लगता है कि अगली सरकार भाजपा की होगी और नरेंद्र मोदी इस के मुकुट होंगे. सो, उस मुकुट पर टाटा भी लिखा हो.

वहीं, राजनीतिक चश्मे को अलग रख कर देखें तो टाटा का यह बयान सरकार की कमजोरी का सार्वजनिक खुलासा है जिस से साबित होता है कि विपक्षी दल ही नहीं बल्कि उद्योगपति भी अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह की नीतियों से तंग आ चुके हैं. यहां जरूरत इस बयान का राजनीतिक अर्थ लेने की नहीं बल्कि इसे आईने के रूप में अपना चेहरा देखने के लिए इस्तेमाल किए जाने की है.

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