मुल्क कोई भी हो, धर्म के ठेकेदारों का हैवानियत भरा नंगा नाच एक ही शक्ल का होता है. देश में डा. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के तौर पर दिखा तो अफगानिस्तान में मजहबी जनूनियों ने सुष्मिता बनर्जी को भून डाला. पढि़ए साधना शाह का लेख.
अंधविश्वासियों ने भारत में मानवता के हितैषी डा. दाभोलकर को मौत के घाट उतार दिया तो अफगानिस्तान में धार्मिक कट्टरपंथियों ने तालिबानी सोच से लोहा ले रही सुष्मिता को गोलियों से छलनी कर दिया. ‘एस्केप फ्रौम तालिबान’ फिल्म से पूरे देश में ख्यातिप्राप्त करने वाली एक काबुलीवाले की बंगाली बीवी सुष्मिता बनर्जी उर्फ साहिब कमाल बनर्जी (अफगानी नाम) को पिछले दिनों तालिबानियों ने घर से बाहर निकाल कर गोलियों से छलनी कर दिया.
इसी साल मार्च में वे अपने ससुराल अफगानिस्तान वापस लौट गई थीं और काबुल में स्वास्थ्यकर्मी के रूप में काम कर रही थीं. साथ ही, तालिबानियों के खिलाफ एक बार फिर से अपनी आवाज बुलंद करने की तैयारी में भी लगी हुई थीं. इस बीच 4 सितंबर की रात उन की हत्या कर दी गई.
रहस्य की गुत्थी
परिजनों को इस हत्या में रहस्य का अंदेशा है, क्योंकि सुष्मिता की हत्या के बाद भी उस के ससुराल वालों ने यहां एक बार फोन तक नहीं किया. हादसे के 2 दिन बाद जांबाज खान (सुष्मिता के पति) से बात हुई, पर उस ने वही सब बयां किया, जिस की खबर विदेशी मीडिया से कोलकाता में परिवार को मिल चुकी थी. जांबाज ने यह भी बताया कि मदरसे के पास जहां सुष्मिता की लाश पड़ी थी, वहां से लाश को घर ला कर फिर उसे कब्रिस्तान ले जा कर दफन कर दिया गया.
इधर, परिवार को कोलकाता में सुष्मिता की फेसबुक मित्र से पता चला कि 5 सितंबर को चैटिंग करते हुए उस ने कोलकाता के लिए रवाना होने की बात की थी. सारा सामान वह पैक कर चुकी थी. फिर 4 सितंबर को रात डेढ़ बजे हत्या की बात कैसे की जा रही है. सुष्मिता के भाई गोपाल बनर्जी प्रशासनिक कार्यवाही पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि स्थानीय पुलिस ने लाश का पोस्टमार्टम भी नहीं करवाया और उसी दिन 4 सितंबर को लाश दफन कैसे कर दी गई? सो, सुष्मिता का परिवार मामले की जांच की मांग कर रहा है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने परिवार को मदद देने का आश्वासन दिया है.
तालिबानी निशाने पर
सुष्मिता ने हालांकि धर्मपरिवर्तन कर अपना नाम साहिब कमाल रख लिया था लेकिन बुरका और परदा प्रथा से समझौता करने को वे तैयार नहीं हुईं. यह वह समय था जब अफगानिस्तान में एक तरफ सोवियत सेना की कार्यवाही चल रही थी तो दूसरी तरफ मुजाहिदीन के लड़ाके अपनी लड़ाई लड़ रहे थे. इस के बाद 1993 में तालिबानी ताकत ने सिर उठाया. हर महिला को बुरका पहनने का फरमान जारी किया गया. सुष्मिता ने इस फरमान को बारबार अंगूठा दिखाया और ‘बेपरदा’ घर से बाहर निकलती रही. तालिबानी धमकी की यहीं से शुरुआत हुई और फिर जांबाज खान के रूढि़वादी परिवार ने भी सुष्मिता पर बहुत सारी बंदिशें लगा दीं.
ऐसे में सुष्मिता ने अफगानिस्तान से निकल जाने का पूरी तरह से मन बना लिया. चोरीछिपे वे पाकिस्तान पहुंच गईं. पर पासपोर्ट और वीजा न होने के कारण उन्हें अफगानिस्तान वापस भेज दिया गया. उस के बाद उन्हें ससुराल में नजरबंद कर दिया गया. पर जिद्दी सुष्मिता ने हार नहीं मानी और काफी जद्दोजहद के बाद आखिरकार 1995 में वे स्वदेश लौट आई थीं.
काबुली प्रेम की बलि
वर्ष 1988 में सुष्मिता बनर्जी एक अफगानी युवक जांबाज खान के प्रेम में गिरफ्तार हुईं और 1989 में जांबाज खान के साथ निकाह कर के कोलकाता से काबुल के लिए रवाना हुईं. काबुल से लगभग 200 किलोमीटर दूर पाकतिका प्रदेश के सरायकाला नामक गांव में दोनों ने अपनी गृहस्थी की शुरुआत की. इस के बाद की कहानी पूरी दुनिया ‘एस्केप फ्रौम तालिबान’ की बदौलत जान चुकी है.
गौरतलब है कि यह किताब सर्वाधिक बिक्री की फेहरिस्त में अपनी पुख्ता जगह बना चुकी है और देशीविदेशी कई भाषाओं में अनूदित भी हो चुकी है. बहरहाल, सुष्मिता के बहुचर्चित मूल उपन्यास ‘काबुलीवालार बंगाली बऊ’ के प्रकाशक स्वप्न विश्वास कहते हैं कि इस किताब ने 7 लाख प्रतियों की बिक्री का रिकौर्ड बनाया है. स्वप्न विश्वास बताते हैं कि इन दिनों सुष्मिता की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी. इस के कारण कुछ महीने पहले मध्य कोलकाता के अपने फ्लैट को उन्हें बेच देना पड़ा था.
सुष्मिता के भाई गोपाल बनर्जी, जो कोलकाता के उपनगर बागुईहाटी में बिल्डर हैं, का कहना है कि खुद परिवार के पास भी खबरें छनछन कर आ रही हैं. अफगान पुलिस के हवाले से किसी विदेशी मीडिया के जरिए पता चला कि जांबाज खान समेत पूरे परिवार को बांध कर तालिबानी सुष्मिता को घसीटते हुए घर से बाहर ले गए और फिर गोलियों से भून डाला. लगभग 20 गोलियां मारने के बाद वे करीब के एक मदरसे में सुष्मिता को फेंक कर चले गए. सुनने में यह भी आया है कि तालिबानियों ने बड़ी कू्ररता के साथ सुष्मिता के सिर के बालों को भी कई जगह से नोच दिया था.
गोपाल बताते हैं कि परिवार में कोई नहीं चाहता था कि वे फिर से वहां जाएं, पर वे नहीं मानीं. लेकिन सुष्मिता की किताबों के प्रकाशक स्वप्न विश्वास का कहना है कि दरअसल, सुष्मिता एक नए उपन्यास की तैयारी में थी और इस के लिए तथ्य जुटाने के मकसद से ही वह महज 6 महीने के लिए अफगानिस्तान गई थी.
वह तालिबानी शासन में अफगानी महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक बदहाली से बखूबी परिचित हो चुकी थी. काफीकुछ उस ने खुद भोगा भी था. लेकिन अफगानिस्तान में करजई सरकार के शासन में महिलाओं की स्थिति में कितना कुछ बदलाव आया है, यह जानना ही उस के वहां जाने का मकसद था.
सुष्मिता के एक चचेरे भाई रंजन बनर्जी कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के प्रोफैसर हैं. वे कहते हैं, ‘‘सुष्मिता ने डाक्टरी की पढ़ाई बेशक नहीं की थी लेकिन अफगानिस्तान में रहते हुए उस ने डाक्टरी की बहुत सारी किताबों को पढ़ा और वहां आसपड़ोस की महिलाओं की छोटीमोटी बीमारियों का वह छिटपुट इलाज भी किया करती थी. उस के योगदान को देखते हुए कुछ साल पहले वहां स्वास्थ्यकर्मी की नौकरी के लिए उस के पास बाकायदा प्रस्ताव भी आया था लेकिन उस प्रस्ताव को सुष्मिता ने खारिज कर दिया था.
‘‘अब चूंकि उसे अपने नए उपन्यास पर काम करना था और करजई शासन में, वहां की नई स्थितियों का जायजा लेना था इसीलिए उस ने एक पंथ दो काज का रास्ता अपनाया और स्वास्थ्यकर्मी की नौकरी ले कर वहां के लिए रवाना हुई. काम के दौरान एक मूवी कैमरा वह हमेशा अपने साथ रखती थी और वहां की महिलाओं की स्थिति को कैमरे में कैद करती जा रही थी.’’
अफगानिस्तान प्रेम में बगावत
सुष्मिता के परिजन बताते हैं कि जब 1988 में सुष्मिता घर वालों से बगावत कर के पहली बार अपने ससुराल अफगानिस्तान गई थी, तब उस के भीतर उस देश के प्रति बहुत सारी जिज्ञासाएं थीं. परिजनों का यह मानना है कि सुष्मिता में साहस, संकल्प, जिज्ञासा और जिद कूटकूट कर भरी हुई थी और यही उस के जीवन की थाती थी. अफगानी से प्रेम के लिए मातापिता से बगावत के कारण बाकायदा उस की मारकुटाई हुई. पर जांबाज के साथ दांपत्य का संकल्प उस ने नहीं छोड़ा. बंगाल के प्रगतिशील समाज से निकल कर वहां के रूढि़वादी समाज में पहुंच कर उसे बड़ा झटका लगा.
काबुलीवालों का अपराधबोध
सुष्मिता बनर्जी तालिबान शासन में अफगानी महिलाओं की दुर्दशा पर एक वृत्तचित्र बना रही थी और यही बात तालिबानियों को नागवार गुजरी. कुछ महीने पहले मध्य कोलकाता के काबुलीवाले महल्ले में रह रहे सुष्मिता के देवर जहांगीर खान की हत्या कर दी गई थी. लेकिन इस हत्या की गुत्थी पुलिस आज तक नहीं सुलझा सकी है. बताया जाता है कि इस हत्या में तालिबानियों का ही हाथ था. इस के बाद सुष्मिता को भी फोन पर लगातार जान से मारने की धमकियां मिलने लगी थीं. पर उसे इन बातों की कहां परवा थी. घरपरिवार के बारबार मना करने के बाद भी इसी साल मार्च में वह अपने पति के साथ काबुल चली गई थी.
बंगाल की लड़कियों का काबुलीवाले से प्रेमलगाव बहुत पुराना है. रवींद्रनाथ ठाकुर का उपन्यास ‘काबुलीवाला’ को जरा याद कीजिए. मीना को काबुलीवाले और काबुलीवाले को मीना से कितना लगाव था. पर अफगानिस्तान में सुष्मिता की हत्या के बाद काबुलीवाला महल्ला शर्मसार है. अफगानिस्तान के जलालाबाद का शेरखान, जो कोलकाता की इलियटी रोड इलाके में रहता है, भी सुष्मिता के अंजाम से शर्मसार है. वहीं पख्तून प्रदेश का निवासी आमिर खान एक बंगाली लड़की से ब्याह कर यहीं बस चुका है. आमिर अपनी बीवी को ले कर कभी अफगानिस्तान नहीं लौटने का फैसला कर चुका है.
अफगानिस्तान के पाकतिका राज्य के गवर्नर मोखलस अफगान ने अपने बयान में सुष्मिता के जज्बे को सलाम करते हुए कहा है कि धर्म बदल कर सुष्मिता ने अफगानिस्तानी युवक से निकाह किया और उस प्रेम का ही तकाजा था कि वह स्वदेश छोड़ कर यहां की हो गई. उस की हत्या से अफगानिस्तान का सिर हमेशा के लिए झुक गया है.
अफगानी गवर्नर का बयान वास्तव में मानवता का ही परिचायक है. दरअसल, तालिबानी हैवानियत की गिरफ्त में वहां इंसानियत की सांस, बस, आजा रही है.