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विकास पर राजनेताओं की खोखली सोच

देश बिजली, पानी, सड़क और भ्रष्टाचार से त्रस्त है और हमारे तथाकथित जनसेवक नेता इन पर गौर फरमाने के बजाय घोटाले करने व मूर्तियों पर जनता का पैसा उड़ाने में मसरूफ हैं. वे विकास के नाम पर औद्योगिक घरानों, नौकरशाहों और दलालों के गठजोड़ बना कर जनता को ठगने में जुटे हैं. राजनेताओं के पास जनता की तरक्की का कोई फार्मूला नहीं है. उन्होंने देश को क्या दिया, क्या देंगे, क्या दे सकते हैं, पेश है इस पर विश्लेषणपरक लेख.

गुजरात के मुख्यमंत्री और भारतीय  जनता पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री  पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी गुजरात में सरदार सरोवर तट पर बन रही सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा की स्थापना पर बड़ा गर्व करते नजर आते हैं. 2,500 करोड़ रुपए की लागत से बन रही इस प्रतिमा को विश्व की सब से ऊंची प्रतिमा बताया जा रहा है. गांधीनगर में विधानसभा, राजभवन तक जाने वाली सड़कें चमक रही हैं. अहमदाबाद, सूरत के मौल गुलजार नजर आ रहे हैं. नदियों, सरोवरों पर बांध बनाए गए. पर्यटन विकास के लिए ऐतिहासिक जगहों पर करोड़ों रुपए खर्च किए गए. पर्यटकों के लिए एअरकंडीशंड बसें चलाई जा रही हैं. क्या इसे ही विकास कहेंगे? इस तरह का विकास किस के लिए है?

विकास नहीं आलोचना

नरेंद्र मोदी जहां कहीं भी भाषण देते हैं वे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी संप्रग सरकार व सोनिया गांधी और राहुल गांधी की आलोचनाओं से भरे होते हैं. मोदी और दूसरे भाजपा नेता गुजरात को विकास का मौडल साबित करने पर तुले हैं. मोदी ने पिछले 10 सालों में गुजरात का कैसा विकास किया? गुजरात के लाखों लोगों के सिर पर छत नहीं है, वहां के हर 10 बच्चों में 4 कुपोषण के शिकार हैं. रोजगार के लिए लोगों को दूसरे राज्यों में पलायन करना पड़ रहा है. गांव, कसबों और शहरों में पीने के पानी की किल्लत बनी हुई है. मोदी को आडवाणी, टाटा, अंबानी की कंपनियों को जमीनें, कर्ज, इन्फ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध कराने की चिंता लगी रहती है. किसान आत्महत्या करते हैं तो कोई बात नहीं. गरीब कर्ज से परेशान हो कर मरता है तो फिक्र नहीं. गांवों, गरीबों के लिए बुनियादी सुविधाएं पहुंच रही हैं या नहीं, मोदी सरकार को इस से सरोकार नहीं.

पिछड़ी जातियों में पटेल, सीरवी और अतिपिछड़ी ढोली, कालबेलिया, खटीक जातियों के वोट उन्हें मिल जाएं, बस. लेकिन इन वर्गों के विकास के लिए  उन के पास कोई योजना नहीं है.

हवाई बातें कोरे वादे

मोदी को चिंता है तो यह कि राज्य में हिंदू धर्म को कोई नुकसान तो नहीं हो रहा है, मंदिरों, तीर्थस्थलों का विकास हो रहा है न. राज्य में कहीं मसजिद और चर्च तो नहीं बन रहे. राज्य के आदिवासी इलाकों में चर्च की धर्म परिवर्तन की गतिविधियां तो नहीं चल रहीं? इन के अलावा मीडिया में उन की बातों का प्रचार हो रहा है या नहीं. देश के साधु, संत, धार्मिक नेता उन की वाहवाही कर रहे हैं या नहीं? धर्मसंसद कुंभ मेलों, तीर्थस्थलों और पार्टी के आलाकमान पर दबाव बना कर उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनाने की मांग कर रही है या नहीं? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर अपना वशीकरण मंत्र कामयाब हो रहा है या नहीं और अमेरिका के सामने बनी उन की सांप्रदायिक छवि को मिटाने के लिए विदेशी जनसंपर्क कंपनी से कैसे काम लिया जाए?

देश के भावी प्रधानमंत्री का सपना देख रहे नरेंद्र मोदी की विकास के नाम पर कुछ इस तरह की कार्यशैली दिखाई पड़ती है. विकास की कितनी ही हवाईर् बातें कर ली जाएं, गरीब की हालत जस की तस है. मोदी के राज में गुजरात में सरकारी दफ्तरों में काम कराने के लिए रिश्वत का चलन बदस्तूर जारी है. चिकित्सा व्यवस्था का हाल सुधरा नहीं है. भाजपा द्वारा मोदी की झूठी विकास पुरुष की छवि बनाई जा रही है. वे हवाईर् बातें करते फिरते हैं. इसलिए सोशल मीडिया में उन्हें ‘फेंकू’ कहा जा रहा है.

आज देश के राजनीतिबाज चुनावी प्रचार में एकदूसरे पर तीखे बाणों की बौछार करते सुनाईर् पड़ रहे हैं. बात विकास की जरूर करते हैं पर कौन सा, कैसा विकास वे करेंगे, इस बात का जिक्र नहीं होता.

निर्णयक्षमता का अभाव

प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की बात करें तो लगता है वे इस देश के प्रधानमंत्री जरूर हैं पर मानो उन का देश की किसी भी तरह की समस्या से कोई सरोकार नहीं है. जनता भ्रष्टाचार पर कितना ही आक्रोशित हो, महंगाई पर उन्हें चाहे जितना कोसे, या फिर आतंकवाद या सुरक्षा जैसे मुद्दे हों, उन की सेहत पर कोई असर नहीं. घरेलू समस्याओं पर उन के दूसरे ही मंत्री विरोधियों और जनता को जवाब देते सुनाईर् पड़ते हैं.

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का अपने देश की जनता से सीधा संवाद होता रहता है पर हमारे प्रधानमंत्री जनता के बीच कभी जाते नहीं देखे गए. वे महज आर्थिक विकास के बारे में काम करते हैं पर आर्थिक विकास किस का, कहां हो रहा है, यह बात उन के कार्यकाल में हो रहे कोयला घोटाले, 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले, कौमनवेल्थ गड़बडि़यों में जरूर दिखाई दे रही है.

मनमोहन सिंह की कार्यशैली से लगता है मानो वे कुछ कार्पोरेट घरानों, भ्रष्ट अमीरों, बेईमान नौकरशाहों के लिए काम कर रहे हैं. इस देश को गरीब, वंचित, पिछड़ा, किसान, मध्यमवर्ग और आम आदमी की समस्याओं को देखने, सुनने का काम मानो उन का है ही नहीं.

कांग्रेस अध्यक्ष व संप्रग प्रमुख सोनिया गांधी यह बात तो समझ चुकी हैं कि धर्म, जाति, वर्गों में बंटे भारत में सरकारें और राजनीतिबाज अमीरों के लिए ही काम करते आ रहे हैं. यहां राजनीतिबाजों, कौर्पोरेट, नौकरशाहों और दलालों का एक मजबूत गठजोड़ बना हुआ है पर उसे तोड़ने के बजाय बरकरार रखने में ही यकीन रखा जा रहा है. सोनिया गांधी ने इस तरफ हस्तक्षेप नहीं किया.

सोनिया गांधी ने अनपढ़ों, गरीबों, किसानों, बेघरों के लिए शिक्षा, भोजन, मकान जैसी बुनियादी चीजें मुहैया कराने के लिए कानून बनाने का काम जरूर किया पर इन कानूनों पर अमल होगा और इन लोगों को ही फायदा मिलेगा, इस बात की गारंटी नहीं है.

राहुल गांधी गरीबों की हालत सुधारना तो चाहते हैं पर इस के लिए वे उन के घरों में जाते हैं, रात बिताते हैं, उन के साथ उन की तरह जमीन पर बैठ कर खाना खाते हैं पर उन की समस्याओं को खत्म कैसे करें, इस के लिए उन के पास कोई फार्मूला दिखाई नहीं देता. वे देश के युवाओं को आगे ला कर पार्टी से जोड़ना चाहते हैं, युवा टेलैंट हंट करते हैं पर खोजे गए युवाओं की प्रतिभा को देश की तरक्की के लिए किस तरह काम में लेना है, उन के पास वह रास्ता नहीं है.

राहुल गांधी को भ्रष्टाचार, महिलाओं की सुरक्षा जैसे ज्वलंत मुद्दों से परहेज तो है लेकिन जब देश भ्रष्टाचार पर उबल रहा था, अन्ना हजारे के पीछे जंतरमंतर पर सैलाब उमड़ रहा था, तो उन्होंने कभी अपनी जबान नहीं खोली. दिल्ली गैंगरेप मामले में भी राहुल गांधी मौन थे. महिलाओं की सुरक्षा के मामले पर कभी मुंह नहीं खोला. इसी तरह महंगाई, आंतरिक सुरक्षा, विदेश नीति, बिजली, पानी, सड़कें, सरकारी दफ्तरों में सर्टिफिकेट पाने की दिक्कतों जैसी बातों पर कभी कोई समाधान नहीं सुझाया.

धर्मजाति की राजनीति

तीसरे मोरचे के सहारे प्रधानमंत्री का सपना देखने वाले मुलायम सिंह यादव की कार्यशैली दूसरे राजनीतिबाजों से अलग नहीं है. उत्तर प्रदेश में यादव-मुसलमान समेत कुछ पिछड़ी जातियों के लोग उन्हें अपना नेता मानते हैं. उत्तर प्रदेश के मुसलमानों पर वे अपना पहला हक समझ कर कांग्रेस और भाजपा से जबतब टक्कर लेते रहते हैं लेकिन प्रदेश में सर्वांग विकास की बात तो दूर, जो तबका मुलायम सिंह को अपना समझ कर वोट देता आया है वह तक समस्याओं से दोचार है. गांवों में पीने का पानी नहीं, बिजली नहीं, सड़कें  नहीं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुसलिम बहुल इलाकों में तो हालात और भी बुरे हैं. गरीब मुसलमान रोजीरोटी, रोजगार की समस्या से नजात पा नहीं सके हैं. लाखों लोग अभी कच्चे या बिना छत, बिना दरवाजे के घरों में रह रहे हैं. ऊपर से जिंदगी की कोई सुरक्षा नहीं. सांप्रदायिक दंगों का अंदेशा हरदम सिर पर मंडराता रहता है.

मुलायम सिंह यादव पर गुंडों, बदमाशों को शह देने के आरोप लगते आए हैं.  प्रदेश में मुलायम के राज में कोई औद्योगिक विकास नहीं हुआ. हां, अंबानी भाइयों में एक को अपने पक्ष में करने में कामयाब रहे और उन्हें दादरी में बिजली प्रोजैक्ट लगाने के लिए किसानों की जमीनें दे दी गई थीं.

छोटेछोटे काम के लिए लोग परेशान होते हैं. प्रदेश के महोबा के कालीपहाड़ी की रहने वाली सुमित्रा को आंखों से कम दिखाई देता है. विधानसभा चुनाव के समय मुलायम की समाजवादी पार्टी यानी सपा के वादों को सुन कर लगा कि सरकार बनने के बाद बुंदेलखंड का विकास होगा. पर उस का सपना जल्दी ही टूट गया. उस की बुढ़ापे की पेंशन नहीं बन सकी. वह कहती है कि पिछली सरकार की तरह ही यह सरकार काम कर रही है. कोई नयापन नहीं है. गांव, गरीब और महिलाओं की तरफ कोई ध्यान नहीं है. ऐसी पीड़ा केवल सुमित्रा देवी की  नहीं है. जिन लोगों ने सपा के विकास के वादे पर भरोसा किया था वे अपने को छला हुआ महसूस कर रहे हैं.

मौके का दुरुपयोग

उत्तर प्रदेश की जनता ने 2012 में सपा को बहुमत से सरकार बनाने का मौका दिया था. वैसे तो मुलायम सिंह को इस मौके का लाभ उठा कर प्रदेश को विकास की राह पर आगे ले जाना था पर उन्होंने इस मौके का इस्तेमाल अपने बेटे अखिलेश यादव को स्थापित करने में लगा दिया. मुलायम सिंह खुद केंद्र की राजनीति में आ कर प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने लगे.

अखिलेश ने कोईर् भी ऐसा काम नहीं किया जिस का बखान कर वे लोकसभा चुनाव में पार्टी के लिए वोट मांग सकें. मुजफ्फरनगर दंगों का असर खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है. इस के पीछे मुलायम सिंह की मुसलिम वोटबैंक की राजनीति काम कर रही है. लैपटौप बांटे गए पर वे किसी काम नहीं आ रहे हैं.

ऐसे में चुनाव करीब देख कर सपा सरकार 17 पिछड़ी जातियों को दलित बिरादरी में शामिल कराने का शिगूफा छोड़ रही है. जिस दलित बिरादरी की दशा अभी तक नहीं सुधरी है, उस में अगर कुछ जातियां और शामिल हो जाएंगी तो उन का कैसे भला हो पाएगा?

बात केवल मुलायम सिंह यादव या समाजवादी पार्टी की नहीं है, उत्तर प्रदेश में हर दल को अब यही बेहतर लग रहा है. 1990 के बाद अयोध्या में राममंदिर आंदोलन ने विकास के मुद्दे को पीछे छोड़ दिया. मूर्तियों की आलोचना करने वाली बहुजन समाज पार्टी ने मूर्ति, स्मारक बनाने शुरू कर दिए. बसपा प्रमुख मायावती ने तो खुद अपनी भी मूर्तियां लगवानी शुरू कर दीं.

राजनीतिक विश्लेषक योगेश श्रीवास्तव कहते हैं कि नेता अपनी असफलता को छिपाने के लिए ऐसे मुद्दे उठाते आए हैं जिन में लोग उलझे रहें और विकास के मसले पर घेराबंदी न कर सकें. अब जनता बेमतलब के मुद्दों को समझ चुकी है, इसलिए वोट का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है.

सत्ता का नशा

अब प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बात करते हैं. ‘‘यह कैसी ईंट है? यह तो दो नंबर की नहीं, तीन नंबर की ईंट है. इस से नाला बनेगा तो 3-4 महीने में ही ढह जाएगा,’’ यह कह कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पूछते हैं, कहां है ठेकेदार? ठेकेदार हाजिर होता है. उसे फटकार लगाई जाती है. काम रोकने और उस का भुगतान रोकने का आदेश सड़क पर जारी कर दिया जाता है. उन के पास खड़े सरकारी अफसरों की सिट्टीपिट्टी गुम है.

उस के बाद मुख्यमंत्री का काफिला आगे बढ़ता है. थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर नीतीश अपनी गाड़ी फिर रुकवाते हैं और वहां बन रही सड़क में इस्तेमाल किए जाने वाले स्टोन चिप्स, सीमेंट को उठा कर जांच करते हैं. स्टोन चिप्स के बड़े साइज पर नाराजगी जताते हुए कहते हैं कि इस से बनी हुई सड़क ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकेगी, तुरंत सामग्री बदलने का हुक्म देते हैं.

यह थी नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के शुरुआती दिनों की कार्यशैली. योजनाओं को तुरंत शुरू करवा कर उस की मौनिटरिंग भी खुद किया करते थे. फिल्म ‘नायक’ के हीरो की तरह वे औन द स्पौट मामले निबटाया करते थे.

लेकिन आज के नीतीश कुमार काम, तरक्की, इंसाफ और सुशासन की बातों को छोड़ कर पिछले एकडेढ़ साल से सियासी बयानबाजी और अपनी सरकार को बचाने की कवायद में उलझ कर रह गए हैं.

मतलब की सियासत

भाजपा नेता और नीतीश सरकार में उपमुख्यमंत्री रह चुके सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि नीतीश कुमार की सोच और काम करने का ढर्रा केवल मतलब पर आधारित है. 17 साल तक भाजपा से गठबंधन करने वाले नीतीश आज कह रहे हैं कि उन्होंने बिहार से लालू यादव को हटाने के लिए ही भाजपा से नाता जोड़ा था. अपने इस फैसले को सही साबित करने के मकसद से वे कहते हैं कि जब बड़ी आग को बुझाने की बात आती है तो यह नहीं देखा जाता कि पानी कैसा है. वहीं, सुशील मोदी कहते हैं कि नीतीश कुमार ने विकास पुरुष का महज मुखौटा पहन रखा है. वह सियासी है, मतलबी है. आज अपनी सरकार को बचाने के लिए नीतीश उसी कांग्रेस की गोद में जा बैठे हैं जिस का विरोध कर के ही वे अपनी सियासत चमकाते आए थे.

नीतीश कुमार ने बिहार में कानूनव्यवस्था में कुछ सुधार के अलावा सड़कों की हालत में थोड़ा सुधार जरूर किया पर बिजली, पानी, स्वास्थ्य और तालीम के क्षेत्रों में वे खास काम नहीं कर पाए. 2010 में दोबारा बिहार के मुख्यमंत्री बनने के बाद से नीतीश कुमार हर मंच से लगातार यह कहते रहे हैं कि अगर साल 2015 के विधानसभा चुनावों तक बिहार में बिजली की हालत में सुधार नहीं कर सकेंगे तो वे वोट मांगने नहीं जाएंगे. अब विधानसभा चुनाव में 2 साल रह गए हैं पर बिहार में बिजली की हालत यह है कि सूबे को महंगी दरों पर दूसरे राज्यों या बिजली कंपनियों से बिजली की खरीद करनी पड़ रही है. बिहार खुद बिजली पैदा करने में अब तक नाकाम ही रहा है.

लालू यादव के भ्रष्टाचार और उन की जातिवादी राजनीतिक शैली का विरोध करने वाले नीतीश कुमार ने राज्य का किसी तरह का कायापलट नहीं कर दिया.

नीतीश कुमार चंपारण में कंबोडिया के अंकोरवाट की तर्ज पर 500 करोड़ रुपए की लागत का विश्व का सब से बड़ा रामायण मंदिर बनवा रहे हैं. वे अरबों की लागत का मंदिर बनवाने में रुचि ले रहे हैं. यह विशाल मंदिर 2800 फुट लंबा, 1400 फुट चौड़ा और 410 फुट ऊंचा होगा. पिछड़ों में अतिपिछड़ों को अलग कर उन्होंने अपने लिए उन जातियों का वोटबैंक बनाने की कोशिश की जिन जातियों को लालू लुभा नहीं पाए थे. प्रदेश में पानी, बिजली, सड़कों की समस्याओं से लोग त्रस्त हैं. हर साल बाढ़ की परेशानी तक को नीतीश दूर नहीं कर पाए. रोजगार के लिए पलायन रुका नहीं है. प्रदेश में नए उद्योगों की कोई कारगर योजना नहीं है.

ममता की भ्रामक कार्यशैली

उधर, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का पता ही नहीं चल पा रहा कि वे गरीबों के पक्ष में हैं या विरोध में. 34 सालों के वाम शासन के अंत के बाद क्या वाकईर् में बंगाल में बदलाव आया है? शायद नहीं. राज्य के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक परिदृश्य के आधार पर विचार किया जाए तो कहीं कोई परिवर्तन नजर नहीं आता. राजनीतिक बदलाव जरूर हुआ है पर शासन वही है. वाम शासन से खिन्न हुई जनता को बड़ी उम्मीद थी. राज्य की जनता ने जब ममता बनर्जी को सत्ता सौंपी तब उस ने मन में तृणमूल यानी ग्रासरूट स्तर पर बदलाव का सपना संजोया था पर यह सपना किसी भी स्तर पर सच नहीं हुआ. ममता की सनक और उन की कार्यशैली की हर तरफ आलोचना हो रही है.

ममता की राजनीति औचित्यहीन है. इसे लोकलुभावन राजनीति कह सकते हैं लेकिन आम जनता के विकास से कोई लेनादेना नहीं. बैठेठाले पश्चिम बंगाल को पश्चिम बंग बना डाला. वे मदर टेरेसा के पसंदीदा सफेद रंग और नीले रंग से पूरे कोलकाता को रंग डालने में अपनी और राज्य की ऊर्जा को स्वाहा कर रही हैं. इन दिनों सड़कों के किनारे लगी रेलिंग, पुल, ओवरब्रिज, नुक्कड़ और सार्वजनिक शौचालयों के रंग सफेदनीले कर दिए गए हैं. तर्क पर्यटकों को आकर्षित करने का है.

लेकिन इन कामों से भला आम आदमी को क्या लाभ? एक दिवालिया सरकार के लिए इस तरह के फुजूलखर्च का क्या औचित्य? और तो और, शाहरुख खान को राज्य का ब्रांड एंबेसडर बना दिया गया. आज तक शाहरुख खान ने कभी बंगाल को कहीं प्रमोट नहीं किया. जनहित की दुहाई दे कर बातबात में केंद्र की खिंचाई करने व हाथरिकशा का समर्थन करने वाली ममता को जाने क्या सूझी कि उन्होंने हाल ही में कोलकाता की कई प्रमुख सड़कों पर साइकिल चलाने पर प्रतिबंध लगा दिया.

विकास का फार्मूला नहीं

ममता भी जाति, संप्रदाय की राजनीति में कम नहीं हैं. राज्य की सभी 294 विधान सभाई इलाकों में खासी मुसलिम आबादी है और 115 सीटों पर तो मुसलमान मतदाता निर्णायक की स्थिति में हैं. राज्य की कुल आबादी में 26 प्रतिशत अल्पसंख्यक हैं. इन का एकएक वोट पाने के लिए ममता ने कमर कस ली है. अल्पसंख्यकों के विकास के लिए बजट  में 73 प्रतिशत राशि मंजूर की गई है. हरेक जिले में अल्पसंख्यक उन्नयन (विकास) भवन बनवाए जा रहे हैं. महज भवन बना देने से अल्पसंख्यकों को क्या फायदा मिलेगा? यह तो ममता ही जानें.

10 हजार मदरसों को मान्यता दी गई है. मौलवियों, इमामों को प्रति माह ढाईर् हजार रुपए और अजान देने वालों के लिए 1 हजार रुपए भत्ता दिए जाने की घोषणा की गई. हालांकि इस की आलोचना हुई और मामला अदालत में विचाराधीन है.

दिक्कत यह है कि इन तमाम बातों से न तो जनता के जीवन में सुधार आया है और न ही राज्य की आर्थिक सेहत का इन बातों से लेनादेना है. वाम शासन से ही राज्य आर्थिक तौर पर दिवालिया रहा है और आज भी है.

स्थिति यह है कि बंगाल की जनता ‘साड़ी है कि नारी है या नारी है कि साड़ी है, साड़ी की ही नारी है या नारी की ही साड़ी है’ जैसे एक अजीब भ्रमजाल में सांसें ले रही है.  आज की स्थिति को देख कर लगता है कि ममता बनर्जी की इसी तरह की कार्यशैली के कारण आएदिन उन का नया नामकरण हो रहा है. हाल ही में ‘दि इकोनौमिस्ट’ पत्रिका ने उन्हें मिसचीफ मिनिस्टर कहा तो राज्य की जनता ने उन्हें ममता खातून नाम दे डाला. ममता के पास विकास का कोई फार्मूला नहीं है.

तमिलनाडु की राजनीति द्विधारा की राजनीति के रूप में जानी जाती है. यानी एक ऊंची जातियों की तो दूसरी पिछड़ी जातियों की. मुख्यमंत्री जे जयललिता ऊंची जातियों के प्रतिनिधि के रूप में शासन करती आई हैं. फिल्म अभिनेत्री से राजनीति में आई जयललिता के राज चलाने की शैली किसी महारानी से कम नहीं है. वे खुद राजसी ठाटबाट से रहती हैं. हर बार सत्ता में आते ही वे अपने  प्रतिद्वंद्वी द्रविड़ मुनेत्र कषगम यानी द्रमुक के नेताओं से बदला लेना नहीं भूलतीं. इस बार उन्होंने प्रभावशाली लोगों द्वारा जमीन कब्जाने के खिलाफ कार्यवाही शुरू की. उन में कई नाम ऐसे सामने आए जो द्रमुक शासन में मंत्री रहे थे. जयललिता ने द्रमुक शासनकाल की कई योजनाओं को पलट दिया या बदल दिया. पिछली बार जयललिता ने अपने प्रतिद्वंद्वी करुणानिधि को रातोंरात गिरफ्तार करवाया था.

ठोस काम के बजाय क्षेत्र और भाषावाद ने नाम पर भी वोट बटोरने का वे मौका नहीं चूकतीं. श्रीलंका में तमिल चरमपंथियों को जबतब मुद्दा बनाती रही हैं. राज्य में भ्रष्टाचार रोक पाने में वे नाकाम रही हैं. स्वयं उन पर और उन की सहेली शशिकला पर भ्रष्टाचार के मामले सामने आए.

अन्य नेताओं की तरह जयललिता ने भी मुफ्त योजनाएं लागू कीं. गरीबों के लिए मुफ्त भोजन के बजाय उन के लिए स्थायी रोजगार की व्यवस्था नहीं की कि गरीब अपनी मेहनत से खापी सके. मुफ्त पंखे, मुफ्त मिक्सी ग्राइंडर और छात्रों को मुफ्त लैपटौप बांटे गए पर इन योजनाओं से न तो किसी गृहस्थी का भला हुआ न ही किसी छात्र का. राज्य में बिजली अभी भी चुनौती बनी हुई है.

इस तरह यह जाहिर है कि देश के राजनीतिबाज लकीर के फकीर हैं. उन के पास वास्तविक समस्याओं का कोई समाधान नहीं है. हम अंतरिक्ष में चहलकदमी करना चाहते हैं, मंगलयान से मंगल पर कदम रखना चाहते हैं. इस बात पर हमें भले ही फख्र हो पर देश में फुटपाथ पर जिंदगी बिताने वालों की संख्या भी लाखों में है. पहले यह सोचना होगा कि गांव तक भी सड़क जाएगी. हमारे नेता मंगलयान को भेजने में जल्दबाजी दिखाते हैं पर सड़क, बिजली, पानी उपलब्ध कराने के लिए तत्परता नहीं दिखाते.

कितनी जायज है उम्मीद

राजनीतिबाजों द्वारा विकास का झूठा आडंबर फैलाया जा रहा है. चुनाव में  राजनीतिक दल विकास का घोषणापत्र जारी करते हैं पर होता कुछ नहीं. लगता है देश के राजनीतिबाज एक ही मिट्टी के बने हैं. आजादी मिले हुए 60 साल से अधिक समय बीत गया पर राजनीतिबाजों की सोच नहीं बदली. नेताओं की भाषा बदली है पर उन की कार्यशैली वही है. हर नेता विकास की बातें करता दिखाई दे रहा है पर विकास कैसा करेंगे, किसी को योजना बना कर अमल में लाने का तरीका मालूम नहीं है.

आज भी हमारे राजनीतिबाज चुनावी टिकट जातीय, धार्मिक आधार पर बांट रहे हैं. नीतियां, योजनाएं जाति, वर्ग, क्षेत्र देख कर बनाईर् जा रही हैं. दरअसल, अगर हम सभी भारत को विकसित देश बना हुआ देखना चाहते हैं तो हर क्षेत्र को निष्पक्षता की आंख से देखना होगा. और विकास के अंतर्विरोध हटने चाहिए, उस की प्राथमिकताएं तय हों. यह नहीं, विकास संतुलित, भेदभाव रहित और सार्थक हो. लेकिन क्या हमारे नेता ऐसा कर पाएंगे? यह सवाल जरूर है.

-शैलेंद्र सिंह, बीरेंद्र बरियार, साधना शाह, अनुराधा गुप्ता और जगदीश पंवार

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

हिंसक होती महिलाएं

घरेलू सहायिका राखी की हत्या हो, एअरहोस्टैस द्वारा घरेलू मेड को बंदी बनाना हो या मां की हत्यारिन रूबी को उम्रकैद, ये सभी स्थितियां समाज को सन्न कर देने वाली हैं. महिलाओं के इन रूपों पर सभी को यकीन नहीं होता. एक नन्हे से भू्रण को देह में रख उसे अपने खूनपसीने से सींच कर दुनिया की सब से बड़ी पीड़ा प्रसववेदना को जीवन में एक बार नहीं, कई बार सह कर जो स्त्री पूरी सृष्टि का संचालन कर रही है, आज उसे क्या हो गया है? आज उस की सृजनात्मक दुनिया इतनी विद्रूप व विध्वंसक कैसे हो गई है?

नारी के हिंसक रूप ने उस के अंतरिक्ष की ऊंचाई तक नापे गए सफलता के कदमों को बौना कर दिया है. हिंसा के हर रूप को आजमाती हुई वह अपनों को ही नहीं सब को शर्मसार कर रही है. उस के हिंसक रूप पर जल्दी से यकीन नहीं होता पर यथार्थ कौन नकार सकता है. घर, दफ्तर, बाजार, दीनदुनिया, फिल्में यानी हर जगह हिंसक स्त्री प्रकट होती जा रही है.

‘सात खून माफ’ नामक हिंदी फिल्म हो या हौलीवुड फिल्म ‘प्रोवोक्ड’, इन में पति की हत्यारिन महिलाओं को भी सहानुभूति के नजरिए से दिखाया गया है. उन के अपराध को सहज, प्राकृतिक या सुनियोजित अपराध नहीं माना गया. इसी प्रकार राजीव गांधी की हत्या में शामिल नलिनी मुरुगन की फांसी को आजीवन कारावास में तबदील किया गया तो इस पर बावेला नहीं मचा. इस तरह की हमारे आसपास और दुनियाभर में हजारों घटनाएं मिलेंगी जिन में महिलाओं को अपराध के बावजूद ‘बेचारी’ समझा गया या उन के पीछे पुरुषों या परिस्थितियों का हाथ समझा गया.

आमतौर पर शांत छवि

आमतौर पर महिलाओं की छवि शांत, धैर्यमयी, सहिष्णु, सहनशील और दयालु की है. इसीलिए उन का उग्र, आक्रामक तथा हिंसक रूप सहज स्वीकार्य नहीं. लोग अकसर इस का संबंध जैनेटिक मानते हैं. पुरुष में जहां यह बात आम मानी गई है वहीं महिला में विपरीत या अपवादस्वरूप ही ऐसा माना, स्वीकारा जाता है. उन्हें तन से ही नहीं, मन से भी लचीला और कोमल माना जाता है. उस के इसी रूप को ध्यान में रख कर आएदिन उस के पक्ष में कानून बन रहे हैं.

बदल रही हैं स्थितियां

पहले स्त्रियां कम पढ़ीलिखी थीं. उन पर ज्यादा बच्चे पैदा करने व लालनपालन करने का इतना जिम्मा और बोझ होता था कि कब उम्र बीत गई, पता ही नहीं चलता था. 40-50 साल की उम्र में ही वे नानीदादी बनी अपने को बड़ाबूढ़ा अनुभव करती थीं. अब औसत उम्र बढ़ने के साथ ही कम बच्चे, अच्छी शिक्षा व रहनसहन,  स्वतंत्रता और बढ़ते अधिकारों ने उस की स्थिति बदल दी है. स्वतंत्रता ने उसे स्वच्छंद, उग्र व आक्रामक बना दिया है. आज उस के पास समझ, समय, साधन, संसाधन, अधिकार, जागरूकता आदि सबकुछ है. इन सब ने उसे सकारात्मक के साथसाथ नकारात्मक भी खूब बनाया है. आज आई क्यू के साथ ई क्यू यानी इमोशनल क्वोशंट पर भी बराबर जोर देने की जरूरत है.

गलत रोल मौडल

प्रकृति विज्ञानी डा. संसार चंद्र का कहना है कि अरसे से घर, परिवार व समाज को पुरुष लीड करते रहे. पुरुष प्रधानता के कारण स्त्रियों ने समझ लिया है कि पुरुष जैसे गुणों (असल में दुर्गुणों) के बिना वे राजकाज नहीं चला सकतीं. इस सफलता के लिए तेजतर्रार, उग्र, आक्रामक होना ही होगा इसलिए न चाहते हुए भी घरपरिवार, दफ्तर, सरकार सब जगह महिलाएं उग्र, आक्रामक, हिंसक होती जा रही हैं. फिर हमारे तथाकथित धार्मिक आदर्श भी उसे सिखाते हैं, जैसे ‘भय बिन प्रीत न होय गुसाईं.’ वह अपनी सफलता के लिए नकारात्मक स्थितियों का सहारा लेती है और फिर वैसी ही होती चली जाती है.

फेवर करते कानून

एडवोकेट अश्विनी शर्मा कहते हैं, ‘‘स्त्रियों पर अत्याचार आसानी से संभव होने के कारण उन के हक में कई कानून बनते हैं. इन कानूनों का महिलाएं मिसयूज करती हैं. इस से सामाजिक व पारिवारिक रूप से स्त्रियों का हिंसक रूप बढ़ता जा रहा है. पहले तलाक का बहुत ठोस कारण होता था. दहेज कानून लचीले हुए तो महिलाएं आसानी से इस का सहारा लेने लगीं. अपने हिंसक व आक्रामक व्यवहार को वे ससुरालियों पर थोपने लगीं. जीवन के प्रति उन का नजरिया बदला है. वे बदला प्रतिकार और सबक सिखाने के लिए कानून का सहारा लेती हैं.

‘‘हमारे पास इस तरह की महिलाएं आती हैं. वे चाहती हैं कि हम केस को लंबा खींचें ताकि उन के पति व घर वालों को अच्छा सबक मिले. हम उन्हें सचाई और अपने प्रोफैशनल एथिक्स से समझाते हैं तो कुछ मान जाती हैं जबकि कुछ हमें उपदेशक या गलत समझ लेती हैं.’’

एक और वकील वत्सल कुमार भी ‘वीमन फेवरिंग’ कानून को बढ़ती हिंसा का काफी हद तक जिम्मेदार मानते हैं. वे कानून को समझ कर ‘करे कोई भरे कोई’ वाली स्थिति सीख गई हैं. ऐसा नहीं है कि यह बात कोई जानतासमझता नहीं, धीरेधीरे लोग पुरुष उत्पीड़न व जरूरतमंद महिलाओं को लाभ न मिलने की स्थिति को काफी हद तक जाननेसमझने लगे हैं. हमारे देश के उदार और महिला लाभ वाले कानूनों का इसी तरह महिलाएं फायदा उठाती रहीं तो यह लाभ बंद किया जा सकता है. जिस से असली दुखी, उत्पीडि़त महिलाओं को उस का लाभ नहीं मिल पाएगा. हिंसक होने से स्त्री समाज को घाटा ज्यादा है.

कानून कितना ही लचीला और महिला फेवरिंग हो, फिर भी हिंसक महिलाओं को उस की कीमत चुकानी ही पड़ती है. सजा थोड़ी कम भी हो तो क्या सजा तो सजा ही है. शारदा जैन ने आत्माराम मर्डर केस में उम्रकैद की सजा पाई जबकि मुंबई में बच्चों की हत्यारिन कई महिलाएं फांसी के इंतजार में हैं. इन्हें महिला होने का लाभ भी मिले तो क्या, सामाजिक छवि में सुधार, सम्मानजनक जीवन व संतोष तो नहीं ही मिलता. गलत तो गलत ही होता है.

मनोवेत्ता व मनोचिकित्सक डा. नीलेश तिवारी कहते हैं, ‘‘महिलाएं भले ही हिंसक होती जा रही हैं पर ज्यों ही उन का क्रोध, आवेग, आक्रामकता शांत होती है वे पछतावे, प्रायश्चित्त व अवसाद की ज्यादा शिकार हो जाती हैं. फिर हिंसक पुरुष जितनी सहजता से सामाजिक जीवन में स्वीकार लिए जाते हैं उतनी सहजता से स्त्री नहीं स्वीकारी जाती. सामाजिक जीवन से दूर हो जाना, सामाजिक बहिष्कार और ऐसी ही पीड़ाएं एक हिंसक स्त्री को ज्यादा भोगनी पड़ती हैं.

‘‘स्त्री वर्ग में सुधार के बावजूद लोग उसे गलत समझते हैं. एक बार का लगा ठप्पा हटाने में अच्छी छवि भी काम नहीं आती. प्रेम में धोखा खाई हुई एक लड़की ने हाल में ही उस प्रेमी पर तेजाब फेंक दिया. किसी भी तरह इस हरकत को जस्टिफाई नहीं किया जा सकता.’’

क्रूरता के भयावह रूप

28 मार्च, 2012 : मेरठ में एक महिला ने वहशीपन की सारी हदें पार करते हुए अपने पति का गला रेत कर उस की हत्या कर दी और शव को घर के बाथरूम में गड्ढा खोद कर दफना दिया.

20 फरवरी, 2013 : इंदौर में खजराना इलाके की नादिरशाह कालोनी में एक औरत ने अपने पति को गोली मार दी. पति को गोली मारने के बाद महिला ने तड़पते हुए पति और खुद को एक कमरे में बंद कर लिया था.

जुलाई, 2013 : प्रेम प्रसंग के चलते एक पत्नी ने पति को मार कर जमीन में दफना दिया. बवाना क्राइम ब्रांच पुलिस ने इस सनसनीखेज हत्याकांड का पर्दाफाश किया.

1 अक्तूबर, 2013 : दिल्ली के वसंतकुंज में मकान मालकिन ने एक नौकरानी को झाड़ू और डंडों से पीटा और प्रैस से जला भी दिया. मकानमालकिन पर नौकरानी को कुत्ते से कटवाने का भी आरोप है.

5 नवंबर, 2013 : उत्तर प्रदेश के बसपा सांसद धनंजय सिंह की पत्नी जागृति सिंह को क्रूरता की हद पार करते हुए अपनी 35 वर्षीय नौकरानी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया. जागृति के घरेलू सहायकसहायिकाओं पर जुल्मों की दास्तां सामने आ चुकी है.

उपरोक्त घटनाएं महिलाओं के बदलते आक्रामक रूप का पर्दाफाश करती हैं.

हरिकिशन शर्मा, नई दिल्ली, सैंट्रल जेल, तिहाड़ असिस्टैंट सुपरिंटैंडैंट कहते हैं कि समाज में बढ़ते विरोधाभास और भौतिकतावाद के चलते सभी हिंसक होते जा रहे हैं. इसीलिए महिलाएं भी हिंसक हो रही हैं, अच्छे कानून, प्रशासन, पुलिस और काउंसलिंग के जरिए इस पर काफी हद तक नियंत्रण किया जा सकता है. संस्थागत प्रयास ज्यादा और जल्दी कारगर हो सकते हैं.

क्या जेल में भी हिंसक महिलाएं अलग व्यवहार करती हैं, इस के जवाब में वे कहते हैं, ‘‘महिला जेल में लड़ाई, मारपीट, दादागीरी आम बात है. जेल में रह रही महिलाओं की साइकोलौजिक काउंसलिंग कराई जाती है. कई वर्क प्रोग्राम चलाए जाते हैं ताकि वे व्यस्त रह कर कुछ सीखें, कुछ कमाएं ताकि सजा या जेल से छूटने के बाद जीवनयापन कर सकें. उन्हें आर्टिफिशियल फ्लावर, मोमबत्ती बनाने, सिलाईकढ़ाई करने व ऐसी ही कई दूसरी गतिविधियों से जोड़ा जाता है.’’

हरिकिशन शर्मा मानते हैं कि हिंसा के लिए मन का शांत रहना बहुत जरूरी है, इस के लिए योग, ध्यान, मैडिटेशन आदि से संबद्ध गतिविधियां भी जेलों में चलाई जाती हैं. वे जेलों में बिहेवियरल डिसऔर्डर व बिहेवियरल मैडिफिकेशन पर जोर देते हैं. ये महिलाओं के ही नहीं हर प्रकार के हिंसक व्यक्ति के लिए भी कारगर होते हैं.

हार्मोनल स्थिति जिम्मेदार

हिंसा के पहलू पर डा. निमेष देसाई महिला के बायोसाइकोसोशियो पहलू पर विचार करने पर जोर देते हैं. डा. निमेष देसाई इंस्टिट्यूट औफ ह्यूमन बिहेवियर ऐंड एलाइड साइंसेज (इहबास) में कार्यरत हैं. उन के अनुसार, स्त्री की बायोलौजिकल साइकिल प्री मैच्योर सिंड्रोम की स्थिति माहवारी से पहले या माहवारी के दौरान की होती है. इस में चिड़चिड़ापन स्वाभाविक है.

क्रिटिसिज्म भी उसे बरदाश्त नहीं होता. इसी तरह दूसरी स्थिति है पोस्टपार्टम. इस स्थिति में डिलीवरी के बाद हार्मोनल बदलाव से भी कुछ महिलाएं आक्रामक, हिंसक या अवसादग्रस्त हो सकती हैं. तीसरी स्थिति है मेनोपोजल, इस में भी कई स्त्रियों की आक्रामकता बढ़ जाती है और वह हिंसा कर बैठती हैं.

डा. निमेष कहते हैं, ‘‘मैडिकेशन की जरूरत काफी कम केसों में पड़ती है. काउंसलिंग से इन स्थितियों को आसानी से सुलझाया जा सकता है.’’

वे स्त्री सबलीकरण को सही दिशा देने की जरूरत पर भी जोर देते हैं ताकि शोषणउत्पीड़न के चलते लोग हिंसक होने के बजाय सचमुच में अधिकार पा सकें. पावर सीकिंग महिलाएं भी कू्रर व हिंसक होने के बजाय वंचितोंपीडि़तों को न्याय दिला सकें, ऐसा वातावरण बनाए जाने की जरूरत है.

मनोरोग हो सकता है कारण

यदि महिलाएं बेवजह तोड़फोड़, मारपीट, गालीगलौज करती हों तो संभव है वे सिजोफे्रनिया की शिकार हों. ऐसी स्थितियों को सहने या छिपाने के बजाय उन्हें तुरंत मनोचिकित्सक के पास ले जाना चाहिए. कई जगह ऐसी हिंसक स्त्रियों को बंद कर के या बांध कर भी रखा जाता है. यह समस्याओं का हल नहीं बल्कि बढ़ावा देना है.

एक महिला चतरीबाई ने अपनी 18 साल की बेटी को किसी तरह 1 साल रखा. वह किसी के संपर्क में आते ही कहने लगती थी कि उसे उस का कलेजा खाने की इच्छा है. कई बच्चे भी उस ने पकड़ लिए. चतरीबाई ने मालकिन की राय से मनोरुग्णालय में उस बेटी का इलाज कराया और 2 महीने में वह स्वस्थ हो गई. साथ ही पिछली बातें भी भूल गई.

दरअसल, बे्रन में कभीकभी कुछ रसायन बनने कम या बंद हो जाते हैं. उन्हें दवाइयों के जरिए काबू किया जा सकता है. सैक्स, जचगी आदि के समय भी शरीर में हार्मोंस का स्राव होता है. उपयुक्त जीवनशैली, संतुलित सोच व पौष्टिक भोजन स्त्रियों को शांत रखता है.

अर्चना श्रीवास्तव मनोचिकित्सा से संबद्ध संस्थान में प्रशासनिक अधिकारी हैं. वे कहती हैं, ‘‘हमारे यहां न केवल बड़े शहरों बल्कि छोटे शहरों और गांवों में भी बिहेवियर और मनोरोग का संबंध समझा जाने लगा है. अब लोग अस्पताल आने में बुरा नहीं मानते. जितनी जल्दी आया जाए उतना अच्छा है. हिंसक व्यवहार जितना जल्दी जानापहचाना जाए उतना ही ठीक होने में समय कम लगता है.

‘‘मनोरोगों में व्यक्ति अपनी उम्र व शक्ति के अनुसार तोड़फोड़ करते हैं. इसलिए बड़ी हिंसा या तोड़फोड़ को ही हिंसक न समझा जाए. कम उम्र की लड़की या स्त्री उसी उम्र के युवक या पुरुष की तुलना में कम हिंसक होगी. ज्यों ही संकेत मिले, डाक्टर से संपर्क करें. कई बार स्थिति हाथ से निकल सकती है. किसी की हत्या, आत्महत्या या अनिष्ट भी हो सकता है.’’

स्त्री ही जिम्मेदार नहीं

महिलाओं की आक्रामकता व हिंसकता में नियम, प्रशासन, घरेलू व कार्यालय में दबाव आदि तमाम स्थितियों का भी योगदान है. हाल ही में पवित्रा की आत्महत्या का केस सामने आया. पवित्रा नेडीयू के अंबेडकर कालेज के प्रिंसिपल जी के अरोड़ा पर यौन शोषण का आरोप लगाया था. लंबे समय से वे अपने साथ न्याय किए जाने की गुहार लगा रही थीं. अनसुना किए जाने पर समाज, प्रशासन कानून सब से हताश हो कर वे हिंसक और आक्रामक हो उठीं और अपने ही प्रति हिंसक हो गईं. आग लगा ली और मर गईं.

अब प्राचार्य का निलंबन हो चाहे पवित्रा के प्रति अत्याचार का निदान, वे वापस नहीं लौट सकतीं. ऐसी हिंसक गतिविधियों को बढ़ावा देने वालों को ऐसा दंड मिलना चाहिए जो मिसाल हो और कोई भी स्त्री अपने प्रति ही सही, हिंसक न होने पाए. इसी तरह नई दिल्ली के वसंतकुंज में एक घर की मालकिन के नौकरानी को जलाने, मूत्र पिलाने, बांधने जैसे अत्याचारों के जाहिर होने से समाज हिल गया कि कोई स्त्री इतनी हिंसक हो सकती है? हिंसक स्त्री तमाम स्त्रियों की छवि भी धूलधूसरित करती है.

नशे की गिरफ्त में महिलाएं?

महिलाएं आजकल तरहतरह के नशे कर रही हैं. वे अपने को कम नहीं समझे जाने के कारण नशे की शिकार हो रही हैं. ऐसे में नशा व हिंसा का चोलीदामन का साथ हो जाता है. कुमारी डोबा ने देर रात पार्टी से लौटते हुए ट्रैफिक पुलिस को ही थप्पड़ जड़ दिया.

एक महिला ने अपने पति को थप्पड़ मार दिया. साथसाथ पीने की कंपनी एंजौय करने वाली सास ने कहा, उस की बहू ने नशे में पोते को गोद से फेंक दिया. उसी दिन से हम ने न पीने की ठान ली. श्रीमती विदिशा पति के साथ पीती थीं. विधवा होने पर पति के दोस्तों ने लालच दे कर नशे की तस्करी में धकेल दिया. ढाई साल विदेश में सजा काटी. उस के छोटेछोेटे बच्चे कैसे पलेबढ़े, वह अपने जीवन से कैसे उबरी, वह ही जानती है. अब नशामुक्ति को समर्पित है.

मालविकाग्निमित्रम् में कालिदास ने वर्णन किया है, इरावती रानी नशे में राजा को थप्पड़ मार देती है. वह तो राजा भी नशे में था वरना यह कितनी बड़ी खता थी.

हिंसा किसी भी स्थिति में श्रेष्ठ या अनुकरणीय नहीं मानी जा सकती. कहते हैं यदि द्रौपदी ने दुर्योधन से यह न कहा होता कि अंधे के बेटे अंधे होते हैं यानी वाचिक हिंसा न की होती तो न चीरहरण होता न महाभारत रचता. इसी तरह कुंती ने पांचों भाइयों में द्रौपदी को न बांटा होता. तथाकथित धर्मराज युधिष्ठिर व अन्य भाई प्रतिरोध करते तो संभव है द्रौपदी को त्रासद जीवन न जीना पड़ता. न ही कौरवों के लहू से अपने बाल रंगने की प्रतिज्ञा कर के पति को युद्ध के लिए उकसाना पड़ता और न यथासमय आवाज बुलंद कर के जुए में दांव पर लगना पड़ता.

स्त्री को आक्रामक बनाने के वातावरण को इस से समझा जाना आसान है. अकसर पुरुष मां, बहन, बेटी, बौस, सबऔर्डिनेट यानी महिला को महिला से मिलने नहीं देते. ऐसी राजनीति और कूटनीति को समझने में महिला अपनी बुद्धि लगाए तो अनावश्यक कू्ररता व हिंसा की जरूरत नहीं पड़ेगी.

मुखर होती हिंसा

मनोवेत्ता पंकज कुमार कहते हैं, ‘‘महिला हिंसा पहले अपने आप के प्रति ज्यादा थी. वे अवसाद का शिकार हो जाती थीं. कभी उन्हें कोई मनोरोग ग्रस्त कर लेता था परंतु अब उन की हिंसा मुखर हो रही है. वे ज्यादा खुल कर और जिन्हें वे अन्याय, उत्पीड़न या प्रताड़ना का हेतु समझती हैं उन के प्रति उग्र प्रतिशोधी व हिंसक हो रही हैं. क्रोध, वैर, प्रतिशोध, उग्रता आदि आज समाज में आम होते जा रहे हैं. ये अच्छे सूचक नहीं हैं.’’

दिल्ली विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग से संबद्ध छात्रछात्रा कहते हैं कि आजकल परिवार व समाज का ढांचा बदल रहा है. ऐसे में आपसी व पर्सनल कन्सर्न खत्म हो रहे हैं. महानगरों में कोई किसी को नहीं जानता. छोटे शहरों में भी भौतिकता और महत्त्वाकांक्षा की दौड़ में न सिर्फ भावनात्मक जुड़ाव खत्म हो रहा है बल्कि यह गायब होती जा रही है. तलाक, स्वार्थ, रिश्तों में धोखा भी महिलाओं को अकेलेपन का शिकार बना रहे हैं. इस से हिंसा बढ़ी है और बढ़ेगी.

राजनीति का मोदीपन

भारत में धर्म के नाम पर समाज के विभाजन के काले बादल अब क्षितिज पर दिख रहे हैं, जबकि दुनिया के दूसरे सब से बड़े लोकतंत्र अमेरिका में अवैध ढंग से रह रहे लाखों घुसपैठियों को मुख्यधारा में लाने की कोशिश की जा रही है. लोकतंत्र का अर्थ केवल बहुमत वालों की रक्षा और बहुअधिकार वालों के हितों का ध्यान रखना नहीं होता, लोकतंत्र का मतलब होता है कि सब को वे अधिकार मिलें जो 1 अरब लोगों को मिल रहे हैं.

अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी, जो हमारी भारतीय जनता पार्टी की तरह धर्म, अमीरों, प्रभावशालियों, पीढि़यों से व्यापार करने वालों व सत्ता पर राज करने वालों की पार्टी है, उन सवा करोड़ से ज्यादा लोगों को वैज्ञानिक अधिकार देने को तैयार नहीं है जो पिछले कई दशकों से दक्षिण अमेरिकी मैक्सिको, अरब देशों, भारत, चीन, फिलीपींस आदि से जबरन देश में घुस आए. जबरन आए वे लोग देश के लिए मुसीबत नहीं क्योंकि वे कम दाम में काम करते हैं, गरीबी में रहते हैं. उन्हें सरकारी सुविधाएं नहीं मिलतीं, फिर भी वे अपने देश लौटना नहीं चाहते क्योंकि वहां भूख, गरीबी, बेकारी या राजनीतिक आतंक है.

अमेरिका का खुलापन, काम की छूट, विविधता, जीवन की सुरक्षा आदि करोड़ों लोगों को अवैध का तमगा लगे होने के बावजूद अमेरिका छोड़ने नहीं देते. हालांकि उन के अपने देश पिछले 1-2 दशकों में अच्छे हो गए हैं पर फिर भी ये वहां नहीं जाना चाहते.

बराक ओबामा पुनर्निर्वाचन के बाद अब इन अवैध लोगों को अमेरिका का नागरिक बनने का अवसर देना चाहते हैं पर वहां की कांगे्रस इस में रोड़े अटका रही है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी की तरह रिपब्लिकन पार्टी भी शुद्ध बने आर्यों जैसे यूरोपवासियों के लिए अमेरिका को सुरक्षित रखना चाहती है. रिपब्लिकनों को बराक ओबामा से शिकायत उन की नीतियों के कारण नहीं, उन की त्वचा के रंग से है जैसे भारत में धर्म या वर्ण से होती है.

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने इस मिशन में सफल हो गए तो भारत के अवैध बंगलादेशियों, पाकिस्तानियों, अफगानियों, श्रीलंकाई तमिलों, बर्मियों, तिब्बतियों के लिए यह सुखद समाचार होगा जिन्हें अमेरिका की तरह की छूट भारत में मिल सकती है.

भारत को अमेरिका की तरह अमीर बनना है तो उसे उस जैसा उदार बनना होगा. जैसे वहां 150 वर्ष पहले रंग पर आधारित गुलामी खत्म हुई थी, वैसे ही यहां वर्ण और धर्म के नाम पर हो रही लूट को बंद करना होगा. 

 

एफआईआर का अधिकार

सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण फैसला सुनाया है कि गंभीर अपराधों में सूचना मिलने पर प्राथमिकी का दर्ज न करने का स्थानीय थाने के पास कोई अधिकार नहीं है. अदालत का कहना है कि जब कानून कहता है कि हर नागरिक का कर्तव्य है कि वह पुलिस को उस की जानकारी में हुए अपराध की सूचना दे तो पुलिस का भी कर्तव्य है कि सूचना मिलने पर प्राथमिकी दर्ज कर के जांच शुरू करे.

आमतौर पर कहा जाता है कि पुलिस गरीब और कमजोर लोगों की शिकायतें दर्ज नहीं करती और उन्हें न्याय नहीं मिलता और इसी तरह बड़ी पहुंच वाले लोगों के खिलाफ भी वह रिपोर्ट दर्ज नहीं करती. यह सच है कि बड़े लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराने में शिकायत करने वालों को कई दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं और कई बार तो मामले उच्च न्यायालय की दखल के बाद दर्ज होते हैं.

यह निर्णय पुलिस के अधिकार घटाएगा या बढ़ाएगा, कहना कठिन है. यह तो मानना पड़ेगा कि पुलिस में भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं है. दिल्ली में हाल में 3 पुलिस वालों ने 20 हजार रुपए की रिश्वत न देने पर एक आटोरिकशा चालक के पिता को जिंदा जला डाला था.

प्राथमिकी को दर्ज करने के हथियार के मिलने के बाद पुलिस वाले किसी को भी उकसा कर उस से किसी भी पहुंच वाले के खिलाफ गंभीर आरोप लगवा कर वसूली कर लें तो सर्वोच्च न्यायालय कुछ न कर पाएगा.

यदि उच्च न्यायालय 400-500 किलोमीटर दूर हुआ तो आरोपी को कई रातें पुलिस हिरासत में बितानी होंगी ही, देश की छोटी अदालतों का नियम है कि जेल दो, बेल नहीं जबकि सर्वोच्च न्यायालय कितने ही निर्णयों में उलटा कह चुका है.

अपराधों का संज्ञान लेना पुलिस का काम है पर इस देश में कानूनों का दुरुपयोग करने वालों की कमी नहीं है. बेबात में मुकदमों को दर्ज कराना यहां बहुतों का खेल है. यह दूसरे पक्ष को परेशान करने का सस्ता व आसान नुसखा है. शिकायत खारिज होतेहोते 5-10 साल लग जाते हैं और तब तक झ्ूठी, बेबुनियाद या सतही मामले की शिकायत करने वालों को कठघरे में खड़ा करने की आरोपी में हिम्मत नहीं बचती.

अदालती कार्यवाही का कैसे दुरुपयोग होता है, इस का ताजा उदाहरण फिल्म ‘…राम-लीला’ है जिस पर पहले एक व्यक्ति ने उच्च न्यायालय में प्रतिबंध लगाने की मांग की, जो ठुकरा दी गई तो कुछ दूसरे लोग नीचे की कोर्ट से उसे रिलीज करने के खिलाफ एकतरफा आदेश ले आए. ऐसा ही प्राथमिकी के मामले में होगा, शिकायत करने वाला प्राथमिकी दर्ज कर के ठाट से मजे लूटेगा और आरोपी अदालतों व पुलिस थानों के चक्कर लगाएगा.

 

न्यायालय और कट्टरपंथी

उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय ने संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘…राम-लीला’ के नाम पर रामलीला आयोजकों की आपत्ति के चलते प्रतिबंध लगा कर यह साबित कर दिया है कि इस देश में वैचारिक स्वतंत्रता केवल संविधान के पृष्ठों पर लिखी झ्ूठी, नकली लाइनें हैं जिन पर कभी भी धार्मिक लोग धूल फेंक सकते हैं.

संविधान की उद्घोषणाएं कि प्रत्येक नागरिक को अपनी बात कहने का अधिकार है और नया सोचने का व उसे शब्दों में ढालने का उस के पास अवसर है, केवल मिथक हैं. अदालतें आमतौर पर सरकार व धर्म के कट्टरपंथियों की बात मान कर कट्टर धर्म को देश, संविधान, जनता और मानव से ऊपर रख कर उन्हें पारलौकिक स्तर दे देती हैं.

रामलीला कमेटियों को इस फिल्म के नाम पर आपत्ति इसलिए नहीं कि उन के तथाकथित भगवान की पोलपट्टी खोली गई है बल्कि इसलिए है कि यह उन के रामलीला के धंधे को चोट पहुंचाती है. हर धर्म असल में धर्म की दुकानदारी करने वालों का धंधा है जिस में ग्राहकों को बिना कुछ बदले में दिए लूटा जाता है. धर्म के प्रचार का कमाल यह है कि लोग लाइन लगा कर न केवल लुटने आते हैं, लूटने वालों के कहने पर मरनेमारने को तैयार भी हो जाते हैं.

उच्च न्यायालय द्वारा बिना दूसरे पक्ष का तर्क सुने और बिना पूरी बहस के इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा देना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है जिस को आमतौर पर न्यायालय लिखित संविधान व कानूनों से भी ऊपर मानते हैं.

इस तरह के प्रतिबंध का अर्थ है कि कहीं भी, कोई भी 20-30 आदमी मिल कर धर्म के नाम पर अदालत के माध्यम से किसी का भी मुंह बंद कर सकते हैं जबकि उन्हें खुद धर्म के नाम पर अस्वाभाविक, असंगत, कपोलकल्पित कथाएं कहने, सुनाने, दर्शाने की पूरी छूट है.

रामलीलाएं किस तरह का जीवन उद्धार करती हैं, इस राम-लीला को भक्त की दृष्टि से नहीं, तर्क की दृष्टि से देख कर कोई भी बता सकता है. रामलीलाओं में जब सीता के रूप में कोई मुकुट लगाए, कांजीवरम साड़ी पहने किसी लड़के को रावण की वाटिका में बैठे दिखाया जाता है तो किसी का अपमान नहीं होता, किसी को ठेस नहीं पहुंचती क्योंकि यह काम पैसे बटोरने के लिए खुद धर्म के ठेकेदार करते हैं.

न्यायालयों से आशा की जाती है कि वे नई सोच, नए प्रयोगों, नए विचारों, नए विश्लेषणों का स्वागत करें, उन्हें सुरक्षा दें. प्रतिबंध लगा कर विवाद तो खत्म कर दिया गया पर कट्टरपंथियों को एक और विजय दे दी गई.

 

नैना लाल किदवई की मंशा

हौंगकौंग ऐंड शंघाई बैंकिंग कौर्पोरेशन यानी एचएसबीसी की भारत की प्रमुख ने फैडरेशन औफ इंडियन चैंबर्स औफ कौमर्स ऐंड इंडस्ट्री यानी फिक्की की अध्यक्ष की हैसियत से नैना लाल किदवई ने सरकार से सुधारों की मांग की है. अमीर खरबपति उद्योगपति जब भी सुधारों की बात करते हैं तो उन का मतलब ऐसे सुधारों से होता है जिन से उन का मुनाफा बढ़े. उन्हें सरकार के काम में सुधार नहीं चाहिए, यह स्पष्ट है उन मांगों से जो उन्होंने की हैं.

उन्होंने वर्ल्ड बैंक की विश्व के देशों में काम करने के माहौल पर जारी रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा है कि विदेशों में काम करने में विदेशियों को जो दिक्कतें आती हैं उन में भारत का स्थान 131 से गिर कर 134 हो गया है. यानी भारत की अपेक्षा 133 देशों में काम करना आसान है. चलिए यह मान लेते हैं, पर वे कौन सी दिक्कतें हैं जिन के बारे में नैना लाल किदवई शिकायतें कर रही हैं.

पहली शिकायत है कि भारत में बिजनैस करने में नियमों, अनुमतियों की भरमार है. ये नियम राज्यों व केंद्र के मंत्रालयों ने बनाए हैं. उन से अनुमति लेने के लिए सचिवालयों के बरामदों में बारबार जाना होता है और सचिव व अपर सचिव स्तर के अधिकारियों को पटाना होता है. नैना लाल किदवई किसी कसबे के दुकानदार की बात नहीं कर रहीं जिसे शौप ऐंड एस्टैबलिशमैंट कानून के अंतर्गत लाइसैंस लेने या बिक्री कर विभाग में पंजीकरण कराने के लिए जाना होता है.

वे शिकायत करती हैं कि भूमि अधिग्रहण मुश्किल हो गया है. उन्हें उन किसानों की चिंता नहीं जिन की जमीन को सरकार मैले कागज पर टाइप कर के, उन्हें नाममात्र का मुआवजा दे कर, उन से छीन लेती है जबकि किसान भी छोटा उद्योगपति है, उत्पादन करता है, 2-3 नौकर रखता है.

उन्हें पर्यावरण संबंधी कानूनों से शिकायत है पर उन उद्योगों से नहीं जो अपना गंदा पानी नदियों में डाल रहे हैं और गंदा वेस्ट खेतों में डाल देते हैं.

उन्हें शिकायत है कि औनलाइन पेमैंट की सुविधा अभी तक उपलब्ध नहीं हो रही पर उन्हें उन मंडियों और बाजारों के व्यापारियों की चिंता नहीं जहां बिक्री कर व आय कर के अधिकारी समूह बना कर डाकुओं की तरह छापे मार कर उगाही करते हैं.

असल में इस देश में उद्योगपति बनते ही इन नियमों के अंबार से हैं. जो लोग नेताओं और अफसरों के निकट होते हैं वे सफल हो जाते हैं. तभी तो नीरा राडिया टेपों में टाटा, अंबानी, बिड़ला घरानों द्वारा मनचाहे मंत्रियों की नियुक्तियों की बातें हैं. नैना लाल किदवई उद्योगों की कमजोरियों को सरकारी तंत्र के बहाने छिपा रही हैं जबकि सरकारी तंत्र व्यापारियों और कारखानेदारों को पनपने नहीं देना चाहते.

औद्योगिक कंपनियों की संस्था यानी फिक्की को पहले छोटे व्यापारियों की सुविधाओं का खयाल करना चाहिए ताकि उद्योगों का माहौल सुधरे. बड़े उद्योगपति ही अरबों का मुनाफा कमाएं, ऐसे सुधार देश को नहीं चाहिए, छोटे व्यापारी, छोटे उद्योगपति भी 2-4 लाख रुपए सालाना कमा लें, यह ज्यादा जरूरी है.

 

आपके पत्र

सरित प्रवाह, नवंबर (प्रथम) 2013

आप की संपादकीय टिप्पणी ‘सेना में भ्रष्टाचार’ पढ़ कर काफी निराशा हुई कि सेना भी भ्रष्ट हो गई है. सेना के प्रति लोगों में अगाध विश्वास है. भारत के लोगों में सेना के प्रति हमेशा यह भावना रही है कि सैनिक देश के रक्षक हैं, उन के साए में वे सुरक्षित हैं.

पूर्व सेना प्रमुख विजय कुमार सिंह व ब्रिगेडियर विजय मेहता के कुकृत्यों को जान कर काफी दुख हुआ. अंगरेज हमारे देश से बहुत सी दुर्लभ चीजें लड़ाइयों में जीत कर इंगलैंड ले गए थे. अंगरेज सैनिक तो पराए थे, शत्रु थे लेकिन यदि देश की संपत्ति की रक्षा के लिए तैनात सैनिक ही लूटपाट करें तो ऐसी करतूत जनता में सैनिकों के प्रति विश्वास को ठेस पहुंचाती है. सैनिकों को अभी भी बहुत आदर से देखा जाता है और सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार की अनदेखी की जाती है. सेना जब पैसे से खेलेगी तो कुछ सैन्य अधिकारियों का मन डोलेगा ही, खासतौर पर जब पता हो कि कोई हिसाबकिताब नहीं रखा जा रहा. सेना को हमेशा ईमानदारी का दामन ही थामना चाहिए क्योंकि वह हमारे लिए आदर्श है.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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आप की टिप्पणियां ‘प्रधानमंत्री पद का लालच’, ‘समाजसेवा का मोल नहीं’ व ‘निशाने पर बैटरी रिकशा’ पढ़ कर अच्छा लगा. यह कितनी हास्यास्पद बात है कि 2014 में होने वाले आम चुनाव के लिए भारतीय जनता पार्टी ने जिस व्यक्ति को अपना प्रधानमंत्री घोषित किया है उस पर लगे दाग के छींटे पूरी उम्र नहीं धुल सकते हैं.

जहां तक समाजसेवा की बात है तो समाजसेवा असल में अपनी ही सेवा होती है. आज की गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में समाज के अधिकांश तबके अपना उल्लू सीधे कर रहे हैं, चंद लोग ही ऐसे हैं जिन का मकसद दूसरों की किसी न किसी रूप में सहायता करना है और इन लोगों को ढिंढोरा पीटना नहीं आता है.

जब दिल्ली जैसे महानगर में प्रदूषण रहित बैटरी रिकशा खूब लोकप्रिय हो रहे हैं तो मात्र उन लोगों ने विरोध करना शुरू कर दिया है जिन्हें रिश्वत लेने का चस्का लगा हुआ है. वे इन्हें परमिट लाइसैंस, रोड टैक्स की चपेट में लाने की मांग कर रहे हैं.

प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘समाजसेवा का मोल नहीं’ बहुत पसंद आई. विशेषकर ‘समाजसेवा असल में खुद की सेवा है.’ यह वाक्य अपनेआप में बहुत कुछ समेटे हुए है. किसी की सेवा कर के खुद को जो संतोष मिलता है, उस का मूल्य वही समझ सकता है जिस ने ऐसा किया हो.

विदेशों में सभी समृद्ध व्यवसायी, सैलिब्रेटी ने रिटायर्ड हो कर अपनेपराए सभी के लिए समान रूप से अपना पैसा लगाया है. वहां वर्ण, धर्म व जातिभेद कुछ काम न आया. केवल परोपकार ही काम आया. जबकि अपने यहां के रिटायर नेता का किस प्रकार बेटे व बहू को टिकट मिले, कैसे उन्हें सरकारी बंगला खाली न करना पड़े आदि. सोचतेसोचते जीवन समाप्त हो जाता है.

कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘समाजसेवा का मोल नहीं’ में आज के स्वार्थी समाज को दूसरों की सेवा की ओर ले जाने का इशारा है. जब तक हम उस आनंद का अनुभव नहीं कर लेते जो किसी सूरदास को सड़क पार करा देने से मिलता है तब तक हमें समाजसेवा की बात थोथी लगेगी. इस आनंद को बिना अनुभव के नहीं जाना जा सकता.

किसी मजबूर व्यक्ति की समय पर मदद करने से जो शांति मिलती है वह ढेर सारी दौलत कमाने के बाद मिली खुशी से कहीं अधिक होती है. आज बिल गेट्स, अलगोर, बिल क्ंिलटन जैसे सक्षम अमीरों को दूसरों की सेवा से जो आनंद मिल रहा है वह उन की दौलत से मिले सुख से ज्यादा है. वैसे आज भारत में आजादी के पहले की अपेक्षा पैसे कमाने की भूख बहुत ही तेज हो गई है जिस से समाजसेवा की ओर कम लोगों का ही रुझान है.

माताचरण, वाराणसी (उ.प्र.)

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सटीक संदेश

सरिता के विगत अंक में आप ने देश की सुरक्षा पर सवालिया निशान लगाने की भविष्यवाणी की थी. देश की अर्थव्यवस्था हिचकोले खा रही थी, तब आप का संपादकीय आया था. आप ने देश की व्यवस्था की तुलना सामंतवाद से की थी व देश की सुरक्षा पर चिंता जाहिर की थी. आप की चेतावनी शब्दश: खरी निकली. आज भारतीय राजनेता राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ समझौते कर रहे हैं, जिस के चलते दुश्मन देशों के हौसले बुलंद हो गए हैं. आप की चिंता सही निकली, ‘सरिता’ के माध्यम से आप ने एक सटीक संदेश दिया.

महेंद्र भाटिया, अमरावती (महाराष्ट्र)

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सभी जनप्रतिनिधि एकसमान नहीं

नवंबर (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘नेताओं को सजा : घोटालेबाजों पर रुदन, शरीफों पर सितम’ में लेखक के तथ्यपरक विचार पढ़े. बेशक पूरा लेख आहतभरा सा लगा, क्योंकि जिस कुंठित सोच तथा शर्मनाक ही नहीं, बल्कि निंदनीय स्थिति में हमारे देश के बुद्धिमान लोग, ईमानदार, निस्वार्थ, त्यागी, प्रबुद्ध व दृढ़निश्चयी जनप्रतिनिधियों को बड़ी ही आसानी से भुला कर उन की कुर्बानियों व सेवाओं

को अतीत में ही विलुप्त मान कर इतिश्री कर लेते हैं, उस से तो लालूप्रसाद यादव, ओम प्रकाश चौटाला, रशीद मसूद, सुरेश कलमाड़ी, ए राजा सरीखे जनसेवक ही पैदा होंगे न. बेशक, सभी उंगलियां जिस तरह एकसमान नहीं होती, ठीक उसी तरह सभी जनप्रतिनिधि भी चाल, चरित्र व चेहरे से एकसमान नहीं होते. मगर क्योंकि अच्छे जननेताओं को हम उचित मानसम्मान

नहीं दे रहे हैं तो क्या राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार, लूटखसोट या फिर कर्तव्यविमुख संतरीमंत्रियों को हमें सजा देने की मांग नहीं करनी चाहिए या हमारी अदालतों को ऐसे भ्रष्ट, दुष्ट व पथभ्रष्ट तत्त्वों को मात्र इसलिए माफ कर देना चाहिए कि अपराध तो पीछे से ही होता चला आ रहा है या कि इन को दंडित किए जाने से भी संबंधित अपराध तो रुकेंगे ही नहीं. अगर ऐसा होने लगा तो न तो किसी नियमकानून की जरूरत रहेगी और न ही अदालतों की. इसलिए अपराधी नेताओं की सजा को अन्यथा न ले कर एक आवश्यक व उचित कदम ही माना जाना श्रेयस्कर होगा.

ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (दिल्ली)

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‘नेताओं को सजा : घोटालेबाजों पर रुदन, शरीफों पर सितम’ लेख में लेखक के विचारों ने देश की आम जनता, समाज, राजनेताओं, नौकरशाहों, व्यापारियों, उद्योगपतियों अभिनेताओं, खिलाडि़यों, कथावाचकों, धार्मिक संतों, गरीबों व समाजसेवियों के लिए एक अच्छा संदेश दे कर सरिता की गरिमा को यथावत रखा है. यह हकीकत है कि इस देश का समाज, धर्म, परिवार सम्मान उसी को देता है जो धनवान हो, चाहे उस ने धन, भ्रष्टाचार, अपराध, गरीबों का शोषण कर, धर्मसंस्कृति को ताक पर रख कर या राष्ट्रद्रोह जैसा अपराध कर के कमाया हो. जब तक वह धनवान कानून के शिकंजे में नहीं आ जाता, इस समाज, परिवार के लोग, रिश्तेदार, राजनेता, नौकरशाह, प्रतिष्ठित समाजसेवक धनवान व्यक्ति को ही उस को मानसम्मान दे कर उस का गुणगान करते रहते हैं.

देश के कुछ नेता, समाजसेवक, मजदूर, कृषक, पशुपालक, सैनिक, लेखक, वैज्ञानिक, शिक्षक या किसी भी जाति, धर्म, वर्ग, व्यवसाय का व्यक्ति, जिस ने भी देश को बनाने में ईमानदारीपूर्वक अपना कर्तव्य निर्वाह किया है व गलत तरीके से धन संग्रह नहीं किया है उस का मानसम्मान तो दूर की बात है उस के जीवन निर्वाह के लिए राज्य सरकार, केंद्र सरकार तक ने कभी कोई बात नहीं की. मतलब यह है कि जिस ने बेईमानी से धन कमा लिया वह बड़ा आदमी और जिस ने ईमानदारी से देश के लिए त्याग किया वह लाचार व्यक्ति बन कर रह गया.

जगदीश प्रसाद पालड़ी जयपुर (राज.)

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सरिता की वैब दुनिया

सरिता के वैब दुनिया में आने की शुभकामनाएं. दिल्ली प्रैस की दूसरी पत्रिकाओं का भी इंतजार है. पाठकों की सुविधा के लिए व पठनीयता को और ज्यादा प्रोत्साहन देने के लिए औनलाइन पत्रिकाएं महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं. बाजार पहुंचने और पत्रिका खरीद कर लाने से पहले पाठक यह जान लेना चाहता है कि उस पत्रिका में उस की रुचि की सामग्री है भी या नहीं. दिल्ली प्रैस प्रबंधन के निर्णय का तहेदिल से स्वागत.

नवंबर (प्रथम) अंक में ‘समाजसेवा का मोल नहीं’ संपादकीय टिप्पणी अच्छी लगी. खाद्य सुरक्षा के तरीके फेल होने के कारण ही देश में पर्याप्त अनाज होते हुए भी भूखों की संख्या में शर्मनाक इजाफा होता जा रहा है. जीवन का खालीपन भरने की और जागरूकता जगाने की जरूरत तो बहुत है परंतु कई बार इच्छा होते हुए भी बाहर जा कर कुछ करने का समय नहीं मिलता. इस के लिए मेरा मानना है कि किसी बड़े कार्य या अवसर का इंतजार न करें, क्यों न घर से ही इस की शुरुआत करें. ‘त्योहारों की उमंग’ और ‘बच्चे हों औनलाइन’ लेख अच्छे लगे और कहानी ‘इस में गलत क्या है’ का जवाब नहीं.      

पुनीता सिंह, वेस्ट ज्योति नगर (दिल्ली)

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