सरित प्रवाह, नवंबर (प्रथम) 2013
आप की संपादकीय टिप्पणी ‘सेना में भ्रष्टाचार’ पढ़ कर काफी निराशा हुई कि सेना भी भ्रष्ट हो गई है. सेना के प्रति लोगों में अगाध विश्वास है. भारत के लोगों में सेना के प्रति हमेशा यह भावना रही है कि सैनिक देश के रक्षक हैं, उन के साए में वे सुरक्षित हैं.
पूर्व सेना प्रमुख विजय कुमार सिंह व ब्रिगेडियर विजय मेहता के कुकृत्यों को जान कर काफी दुख हुआ. अंगरेज हमारे देश से बहुत सी दुर्लभ चीजें लड़ाइयों में जीत कर इंगलैंड ले गए थे. अंगरेज सैनिक तो पराए थे, शत्रु थे लेकिन यदि देश की संपत्ति की रक्षा के लिए तैनात सैनिक ही लूटपाट करें तो ऐसी करतूत जनता में सैनिकों के प्रति विश्वास को ठेस पहुंचाती है. सैनिकों को अभी भी बहुत आदर से देखा जाता है और सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार की अनदेखी की जाती है. सेना जब पैसे से खेलेगी तो कुछ सैन्य अधिकारियों का मन डोलेगा ही, खासतौर पर जब पता हो कि कोई हिसाबकिताब नहीं रखा जा रहा. सेना को हमेशा ईमानदारी का दामन ही थामना चाहिए क्योंकि वह हमारे लिए आदर्श है.
कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)
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आप की टिप्पणियां ‘प्रधानमंत्री पद का लालच’, ‘समाजसेवा का मोल नहीं’ व ‘निशाने पर बैटरी रिकशा’ पढ़ कर अच्छा लगा. यह कितनी हास्यास्पद बात है कि 2014 में होने वाले आम चुनाव के लिए भारतीय जनता पार्टी ने जिस व्यक्ति को अपना प्रधानमंत्री घोषित किया है उस पर लगे दाग के छींटे पूरी उम्र नहीं धुल सकते हैं.
जहां तक समाजसेवा की बात है तो समाजसेवा असल में अपनी ही सेवा होती है. आज की गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में समाज के अधिकांश तबके अपना उल्लू सीधे कर रहे हैं, चंद लोग ही ऐसे हैं जिन का मकसद दूसरों की किसी न किसी रूप में सहायता करना है और इन लोगों को ढिंढोरा पीटना नहीं आता है.
जब दिल्ली जैसे महानगर में प्रदूषण रहित बैटरी रिकशा खूब लोकप्रिय हो रहे हैं तो मात्र उन लोगों ने विरोध करना शुरू कर दिया है जिन्हें रिश्वत लेने का चस्का लगा हुआ है. वे इन्हें परमिट लाइसैंस, रोड टैक्स की चपेट में लाने की मांग कर रहे हैं.
प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)
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संपादकीय टिप्पणी ‘समाजसेवा का मोल नहीं’ बहुत पसंद आई. विशेषकर ‘समाजसेवा असल में खुद की सेवा है.’ यह वाक्य अपनेआप में बहुत कुछ समेटे हुए है. किसी की सेवा कर के खुद को जो संतोष मिलता है, उस का मूल्य वही समझ सकता है जिस ने ऐसा किया हो.
विदेशों में सभी समृद्ध व्यवसायी, सैलिब्रेटी ने रिटायर्ड हो कर अपनेपराए सभी के लिए समान रूप से अपना पैसा लगाया है. वहां वर्ण, धर्म व जातिभेद कुछ काम न आया. केवल परोपकार ही काम आया. जबकि अपने यहां के रिटायर नेता का किस प्रकार बेटे व बहू को टिकट मिले, कैसे उन्हें सरकारी बंगला खाली न करना पड़े आदि. सोचतेसोचते जीवन समाप्त हो जाता है.
कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)
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संपादकीय टिप्पणी ‘समाजसेवा का मोल नहीं’ में आज के स्वार्थी समाज को दूसरों की सेवा की ओर ले जाने का इशारा है. जब तक हम उस आनंद का अनुभव नहीं कर लेते जो किसी सूरदास को सड़क पार करा देने से मिलता है तब तक हमें समाजसेवा की बात थोथी लगेगी. इस आनंद को बिना अनुभव के नहीं जाना जा सकता.
किसी मजबूर व्यक्ति की समय पर मदद करने से जो शांति मिलती है वह ढेर सारी दौलत कमाने के बाद मिली खुशी से कहीं अधिक होती है. आज बिल गेट्स, अलगोर, बिल क्ंिलटन जैसे सक्षम अमीरों को दूसरों की सेवा से जो आनंद मिल रहा है वह उन की दौलत से मिले सुख से ज्यादा है. वैसे आज भारत में आजादी के पहले की अपेक्षा पैसे कमाने की भूख बहुत ही तेज हो गई है जिस से समाजसेवा की ओर कम लोगों का ही रुझान है.
माताचरण, वाराणसी (उ.प्र.)
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सटीक संदेश
सरिता के विगत अंक में आप ने देश की सुरक्षा पर सवालिया निशान लगाने की भविष्यवाणी की थी. देश की अर्थव्यवस्था हिचकोले खा रही थी, तब आप का संपादकीय आया था. आप ने देश की व्यवस्था की तुलना सामंतवाद से की थी व देश की सुरक्षा पर चिंता जाहिर की थी. आप की चेतावनी शब्दश: खरी निकली. आज भारतीय राजनेता राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ समझौते कर रहे हैं, जिस के चलते दुश्मन देशों के हौसले बुलंद हो गए हैं. आप की चिंता सही निकली, ‘सरिता’ के माध्यम से आप ने एक सटीक संदेश दिया.
महेंद्र भाटिया, अमरावती (महाराष्ट्र)
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सभी जनप्रतिनिधि एकसमान नहीं
नवंबर (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘नेताओं को सजा : घोटालेबाजों पर रुदन, शरीफों पर सितम’ में लेखक के तथ्यपरक विचार पढ़े. बेशक पूरा लेख आहतभरा सा लगा, क्योंकि जिस कुंठित सोच तथा शर्मनाक ही नहीं, बल्कि निंदनीय स्थिति में हमारे देश के बुद्धिमान लोग, ईमानदार, निस्वार्थ, त्यागी, प्रबुद्ध व दृढ़निश्चयी जनप्रतिनिधियों को बड़ी ही आसानी से भुला कर उन की कुर्बानियों व सेवाओं
को अतीत में ही विलुप्त मान कर इतिश्री कर लेते हैं, उस से तो लालूप्रसाद यादव, ओम प्रकाश चौटाला, रशीद मसूद, सुरेश कलमाड़ी, ए राजा सरीखे जनसेवक ही पैदा होंगे न. बेशक, सभी उंगलियां जिस तरह एकसमान नहीं होती, ठीक उसी तरह सभी जनप्रतिनिधि भी चाल, चरित्र व चेहरे से एकसमान नहीं होते. मगर क्योंकि अच्छे जननेताओं को हम उचित मानसम्मान
नहीं दे रहे हैं तो क्या राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार, लूटखसोट या फिर कर्तव्यविमुख संतरीमंत्रियों को हमें सजा देने की मांग नहीं करनी चाहिए या हमारी अदालतों को ऐसे भ्रष्ट, दुष्ट व पथभ्रष्ट तत्त्वों को मात्र इसलिए माफ कर देना चाहिए कि अपराध तो पीछे से ही होता चला आ रहा है या कि इन को दंडित किए जाने से भी संबंधित अपराध तो रुकेंगे ही नहीं. अगर ऐसा होने लगा तो न तो किसी नियमकानून की जरूरत रहेगी और न ही अदालतों की. इसलिए अपराधी नेताओं की सजा को अन्यथा न ले कर एक आवश्यक व उचित कदम ही माना जाना श्रेयस्कर होगा.
ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (दिल्ली)
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‘नेताओं को सजा : घोटालेबाजों पर रुदन, शरीफों पर सितम’ लेख में लेखक के विचारों ने देश की आम जनता, समाज, राजनेताओं, नौकरशाहों, व्यापारियों, उद्योगपतियों अभिनेताओं, खिलाडि़यों, कथावाचकों, धार्मिक संतों, गरीबों व समाजसेवियों के लिए एक अच्छा संदेश दे कर सरिता की गरिमा को यथावत रखा है. यह हकीकत है कि इस देश का समाज, धर्म, परिवार सम्मान उसी को देता है जो धनवान हो, चाहे उस ने धन, भ्रष्टाचार, अपराध, गरीबों का शोषण कर, धर्मसंस्कृति को ताक पर रख कर या राष्ट्रद्रोह जैसा अपराध कर के कमाया हो. जब तक वह धनवान कानून के शिकंजे में नहीं आ जाता, इस समाज, परिवार के लोग, रिश्तेदार, राजनेता, नौकरशाह, प्रतिष्ठित समाजसेवक धनवान व्यक्ति को ही उस को मानसम्मान दे कर उस का गुणगान करते रहते हैं.
देश के कुछ नेता, समाजसेवक, मजदूर, कृषक, पशुपालक, सैनिक, लेखक, वैज्ञानिक, शिक्षक या किसी भी जाति, धर्म, वर्ग, व्यवसाय का व्यक्ति, जिस ने भी देश को बनाने में ईमानदारीपूर्वक अपना कर्तव्य निर्वाह किया है व गलत तरीके से धन संग्रह नहीं किया है उस का मानसम्मान तो दूर की बात है उस के जीवन निर्वाह के लिए राज्य सरकार, केंद्र सरकार तक ने कभी कोई बात नहीं की. मतलब यह है कि जिस ने बेईमानी से धन कमा लिया वह बड़ा आदमी और जिस ने ईमानदारी से देश के लिए त्याग किया वह लाचार व्यक्ति बन कर रह गया.
जगदीश प्रसाद पालड़ी जयपुर (राज.)
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सरिता की वैब दुनिया
सरिता के वैब दुनिया में आने की शुभकामनाएं. दिल्ली प्रैस की दूसरी पत्रिकाओं का भी इंतजार है. पाठकों की सुविधा के लिए व पठनीयता को और ज्यादा प्रोत्साहन देने के लिए औनलाइन पत्रिकाएं महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं. बाजार पहुंचने और पत्रिका खरीद कर लाने से पहले पाठक यह जान लेना चाहता है कि उस पत्रिका में उस की रुचि की सामग्री है भी या नहीं. दिल्ली प्रैस प्रबंधन के निर्णय का तहेदिल से स्वागत.
नवंबर (प्रथम) अंक में ‘समाजसेवा का मोल नहीं’ संपादकीय टिप्पणी अच्छी लगी. खाद्य सुरक्षा के तरीके फेल होने के कारण ही देश में पर्याप्त अनाज होते हुए भी भूखों की संख्या में शर्मनाक इजाफा होता जा रहा है. जीवन का खालीपन भरने की और जागरूकता जगाने की जरूरत तो बहुत है परंतु कई बार इच्छा होते हुए भी बाहर जा कर कुछ करने का समय नहीं मिलता. इस के लिए मेरा मानना है कि किसी बड़े कार्य या अवसर का इंतजार न करें, क्यों न घर से ही इस की शुरुआत करें. ‘त्योहारों की उमंग’ और ‘बच्चे हों औनलाइन’ लेख अच्छे लगे और कहानी ‘इस में गलत क्या है’ का जवाब नहीं.
पुनीता सिंह, वेस्ट ज्योति नगर (दिल्ली)