उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय ने संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘…राम-लीला’ के नाम पर रामलीला आयोजकों की आपत्ति के चलते प्रतिबंध लगा कर यह साबित कर दिया है कि इस देश में वैचारिक स्वतंत्रता केवल संविधान के पृष्ठों पर लिखी झ्ूठी, नकली लाइनें हैं जिन पर कभी भी धार्मिक लोग धूल फेंक सकते हैं.
संविधान की उद्घोषणाएं कि प्रत्येक नागरिक को अपनी बात कहने का अधिकार है और नया सोचने का व उसे शब्दों में ढालने का उस के पास अवसर है, केवल मिथक हैं. अदालतें आमतौर पर सरकार व धर्म के कट्टरपंथियों की बात मान कर कट्टर धर्म को देश, संविधान, जनता और मानव से ऊपर रख कर उन्हें पारलौकिक स्तर दे देती हैं.
रामलीला कमेटियों को इस फिल्म के नाम पर आपत्ति इसलिए नहीं कि उन के तथाकथित भगवान की पोलपट्टी खोली गई है बल्कि इसलिए है कि यह उन के रामलीला के धंधे को चोट पहुंचाती है. हर धर्म असल में धर्म की दुकानदारी करने वालों का धंधा है जिस में ग्राहकों को बिना कुछ बदले में दिए लूटा जाता है. धर्म के प्रचार का कमाल यह है कि लोग लाइन लगा कर न केवल लुटने आते हैं, लूटने वालों के कहने पर मरनेमारने को तैयार भी हो जाते हैं.
उच्च न्यायालय द्वारा बिना दूसरे पक्ष का तर्क सुने और बिना पूरी बहस के इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा देना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है जिस को आमतौर पर न्यायालय लिखित संविधान व कानूनों से भी ऊपर मानते हैं.
इस तरह के प्रतिबंध का अर्थ है कि कहीं भी, कोई भी 20-30 आदमी मिल कर धर्म के नाम पर अदालत के माध्यम से किसी का भी मुंह बंद कर सकते हैं जबकि उन्हें खुद धर्म के नाम पर अस्वाभाविक, असंगत, कपोलकल्पित कथाएं कहने, सुनाने, दर्शाने की पूरी छूट है.
रामलीलाएं किस तरह का जीवन उद्धार करती हैं, इस राम-लीला को भक्त की दृष्टि से नहीं, तर्क की दृष्टि से देख कर कोई भी बता सकता है. रामलीलाओं में जब सीता के रूप में कोई मुकुट लगाए, कांजीवरम साड़ी पहने किसी लड़के को रावण की वाटिका में बैठे दिखाया जाता है तो किसी का अपमान नहीं होता, किसी को ठेस नहीं पहुंचती क्योंकि यह काम पैसे बटोरने के लिए खुद धर्म के ठेकेदार करते हैं.
न्यायालयों से आशा की जाती है कि वे नई सोच, नए प्रयोगों, नए विचारों, नए विश्लेषणों का स्वागत करें, उन्हें सुरक्षा दें. प्रतिबंध लगा कर विवाद तो खत्म कर दिया गया पर कट्टरपंथियों को एक और विजय दे दी गई.