घरेलू सहायिका राखी की हत्या हो, एअरहोस्टैस द्वारा घरेलू मेड को बंदी बनाना हो या मां की हत्यारिन रूबी को उम्रकैद, ये सभी स्थितियां समाज को सन्न कर देने वाली हैं. महिलाओं के इन रूपों पर सभी को यकीन नहीं होता. एक नन्हे से भू्रण को देह में रख उसे अपने खूनपसीने से सींच कर दुनिया की सब से बड़ी पीड़ा प्रसववेदना को जीवन में एक बार नहीं, कई बार सह कर जो स्त्री पूरी सृष्टि का संचालन कर रही है, आज उसे क्या हो गया है? आज उस की सृजनात्मक दुनिया इतनी विद्रूप व विध्वंसक कैसे हो गई है?

नारी के हिंसक रूप ने उस के अंतरिक्ष की ऊंचाई तक नापे गए सफलता के कदमों को बौना कर दिया है. हिंसा के हर रूप को आजमाती हुई वह अपनों को ही नहीं सब को शर्मसार कर रही है. उस के हिंसक रूप पर जल्दी से यकीन नहीं होता पर यथार्थ कौन नकार सकता है. घर, दफ्तर, बाजार, दीनदुनिया, फिल्में यानी हर जगह हिंसक स्त्री प्रकट होती जा रही है.

‘सात खून माफ’ नामक हिंदी फिल्म हो या हौलीवुड फिल्म ‘प्रोवोक्ड’, इन में पति की हत्यारिन महिलाओं को भी सहानुभूति के नजरिए से दिखाया गया है. उन के अपराध को सहज, प्राकृतिक या सुनियोजित अपराध नहीं माना गया. इसी प्रकार राजीव गांधी की हत्या में शामिल नलिनी मुरुगन की फांसी को आजीवन कारावास में तबदील किया गया तो इस पर बावेला नहीं मचा. इस तरह की हमारे आसपास और दुनियाभर में हजारों घटनाएं मिलेंगी जिन में महिलाओं को अपराध के बावजूद ‘बेचारी’ समझा गया या उन के पीछे पुरुषों या परिस्थितियों का हाथ समझा गया.

आमतौर पर शांत छवि

आमतौर पर महिलाओं की छवि शांत, धैर्यमयी, सहिष्णु, सहनशील और दयालु की है. इसीलिए उन का उग्र, आक्रामक तथा हिंसक रूप सहज स्वीकार्य नहीं. लोग अकसर इस का संबंध जैनेटिक मानते हैं. पुरुष में जहां यह बात आम मानी गई है वहीं महिला में विपरीत या अपवादस्वरूप ही ऐसा माना, स्वीकारा जाता है. उन्हें तन से ही नहीं, मन से भी लचीला और कोमल माना जाता है. उस के इसी रूप को ध्यान में रख कर आएदिन उस के पक्ष में कानून बन रहे हैं.

बदल रही हैं स्थितियां

पहले स्त्रियां कम पढ़ीलिखी थीं. उन पर ज्यादा बच्चे पैदा करने व लालनपालन करने का इतना जिम्मा और बोझ होता था कि कब उम्र बीत गई, पता ही नहीं चलता था. 40-50 साल की उम्र में ही वे नानीदादी बनी अपने को बड़ाबूढ़ा अनुभव करती थीं. अब औसत उम्र बढ़ने के साथ ही कम बच्चे, अच्छी शिक्षा व रहनसहन,  स्वतंत्रता और बढ़ते अधिकारों ने उस की स्थिति बदल दी है. स्वतंत्रता ने उसे स्वच्छंद, उग्र व आक्रामक बना दिया है. आज उस के पास समझ, समय, साधन, संसाधन, अधिकार, जागरूकता आदि सबकुछ है. इन सब ने उसे सकारात्मक के साथसाथ नकारात्मक भी खूब बनाया है. आज आई क्यू के साथ ई क्यू यानी इमोशनल क्वोशंट पर भी बराबर जोर देने की जरूरत है.

गलत रोल मौडल

प्रकृति विज्ञानी डा. संसार चंद्र का कहना है कि अरसे से घर, परिवार व समाज को पुरुष लीड करते रहे. पुरुष प्रधानता के कारण स्त्रियों ने समझ लिया है कि पुरुष जैसे गुणों (असल में दुर्गुणों) के बिना वे राजकाज नहीं चला सकतीं. इस सफलता के लिए तेजतर्रार, उग्र, आक्रामक होना ही होगा इसलिए न चाहते हुए भी घरपरिवार, दफ्तर, सरकार सब जगह महिलाएं उग्र, आक्रामक, हिंसक होती जा रही हैं. फिर हमारे तथाकथित धार्मिक आदर्श भी उसे सिखाते हैं, जैसे ‘भय बिन प्रीत न होय गुसाईं.’ वह अपनी सफलता के लिए नकारात्मक स्थितियों का सहारा लेती है और फिर वैसी ही होती चली जाती है.

फेवर करते कानून

एडवोकेट अश्विनी शर्मा कहते हैं, ‘‘स्त्रियों पर अत्याचार आसानी से संभव होने के कारण उन के हक में कई कानून बनते हैं. इन कानूनों का महिलाएं मिसयूज करती हैं. इस से सामाजिक व पारिवारिक रूप से स्त्रियों का हिंसक रूप बढ़ता जा रहा है. पहले तलाक का बहुत ठोस कारण होता था. दहेज कानून लचीले हुए तो महिलाएं आसानी से इस का सहारा लेने लगीं. अपने हिंसक व आक्रामक व्यवहार को वे ससुरालियों पर थोपने लगीं. जीवन के प्रति उन का नजरिया बदला है. वे बदला प्रतिकार और सबक सिखाने के लिए कानून का सहारा लेती हैं.

‘‘हमारे पास इस तरह की महिलाएं आती हैं. वे चाहती हैं कि हम केस को लंबा खींचें ताकि उन के पति व घर वालों को अच्छा सबक मिले. हम उन्हें सचाई और अपने प्रोफैशनल एथिक्स से समझाते हैं तो कुछ मान जाती हैं जबकि कुछ हमें उपदेशक या गलत समझ लेती हैं.’’

एक और वकील वत्सल कुमार भी ‘वीमन फेवरिंग’ कानून को बढ़ती हिंसा का काफी हद तक जिम्मेदार मानते हैं. वे कानून को समझ कर ‘करे कोई भरे कोई’ वाली स्थिति सीख गई हैं. ऐसा नहीं है कि यह बात कोई जानतासमझता नहीं, धीरेधीरे लोग पुरुष उत्पीड़न व जरूरतमंद महिलाओं को लाभ न मिलने की स्थिति को काफी हद तक जाननेसमझने लगे हैं. हमारे देश के उदार और महिला लाभ वाले कानूनों का इसी तरह महिलाएं फायदा उठाती रहीं तो यह लाभ बंद किया जा सकता है. जिस से असली दुखी, उत्पीडि़त महिलाओं को उस का लाभ नहीं मिल पाएगा. हिंसक होने से स्त्री समाज को घाटा ज्यादा है.

कानून कितना ही लचीला और महिला फेवरिंग हो, फिर भी हिंसक महिलाओं को उस की कीमत चुकानी ही पड़ती है. सजा थोड़ी कम भी हो तो क्या सजा तो सजा ही है. शारदा जैन ने आत्माराम मर्डर केस में उम्रकैद की सजा पाई जबकि मुंबई में बच्चों की हत्यारिन कई महिलाएं फांसी के इंतजार में हैं. इन्हें महिला होने का लाभ भी मिले तो क्या, सामाजिक छवि में सुधार, सम्मानजनक जीवन व संतोष तो नहीं ही मिलता. गलत तो गलत ही होता है.

मनोवेत्ता व मनोचिकित्सक डा. नीलेश तिवारी कहते हैं, ‘‘महिलाएं भले ही हिंसक होती जा रही हैं पर ज्यों ही उन का क्रोध, आवेग, आक्रामकता शांत होती है वे पछतावे, प्रायश्चित्त व अवसाद की ज्यादा शिकार हो जाती हैं. फिर हिंसक पुरुष जितनी सहजता से सामाजिक जीवन में स्वीकार लिए जाते हैं उतनी सहजता से स्त्री नहीं स्वीकारी जाती. सामाजिक जीवन से दूर हो जाना, सामाजिक बहिष्कार और ऐसी ही पीड़ाएं एक हिंसक स्त्री को ज्यादा भोगनी पड़ती हैं.

‘‘स्त्री वर्ग में सुधार के बावजूद लोग उसे गलत समझते हैं. एक बार का लगा ठप्पा हटाने में अच्छी छवि भी काम नहीं आती. प्रेम में धोखा खाई हुई एक लड़की ने हाल में ही उस प्रेमी पर तेजाब फेंक दिया. किसी भी तरह इस हरकत को जस्टिफाई नहीं किया जा सकता.’’

क्रूरता के भयावह रूप

28 मार्च, 2012 : मेरठ में एक महिला ने वहशीपन की सारी हदें पार करते हुए अपने पति का गला रेत कर उस की हत्या कर दी और शव को घर के बाथरूम में गड्ढा खोद कर दफना दिया.

20 फरवरी, 2013 : इंदौर में खजराना इलाके की नादिरशाह कालोनी में एक औरत ने अपने पति को गोली मार दी. पति को गोली मारने के बाद महिला ने तड़पते हुए पति और खुद को एक कमरे में बंद कर लिया था.

जुलाई, 2013 : प्रेम प्रसंग के चलते एक पत्नी ने पति को मार कर जमीन में दफना दिया. बवाना क्राइम ब्रांच पुलिस ने इस सनसनीखेज हत्याकांड का पर्दाफाश किया.

1 अक्तूबर, 2013 : दिल्ली के वसंतकुंज में मकान मालकिन ने एक नौकरानी को झाड़ू और डंडों से पीटा और प्रैस से जला भी दिया. मकानमालकिन पर नौकरानी को कुत्ते से कटवाने का भी आरोप है.

5 नवंबर, 2013 : उत्तर प्रदेश के बसपा सांसद धनंजय सिंह की पत्नी जागृति सिंह को क्रूरता की हद पार करते हुए अपनी 35 वर्षीय नौकरानी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया. जागृति के घरेलू सहायकसहायिकाओं पर जुल्मों की दास्तां सामने आ चुकी है.

उपरोक्त घटनाएं महिलाओं के बदलते आक्रामक रूप का पर्दाफाश करती हैं.

हरिकिशन शर्मा, नई दिल्ली, सैंट्रल जेल, तिहाड़ असिस्टैंट सुपरिंटैंडैंट कहते हैं कि समाज में बढ़ते विरोधाभास और भौतिकतावाद के चलते सभी हिंसक होते जा रहे हैं. इसीलिए महिलाएं भी हिंसक हो रही हैं, अच्छे कानून, प्रशासन, पुलिस और काउंसलिंग के जरिए इस पर काफी हद तक नियंत्रण किया जा सकता है. संस्थागत प्रयास ज्यादा और जल्दी कारगर हो सकते हैं.

क्या जेल में भी हिंसक महिलाएं अलग व्यवहार करती हैं, इस के जवाब में वे कहते हैं, ‘‘महिला जेल में लड़ाई, मारपीट, दादागीरी आम बात है. जेल में रह रही महिलाओं की साइकोलौजिक काउंसलिंग कराई जाती है. कई वर्क प्रोग्राम चलाए जाते हैं ताकि वे व्यस्त रह कर कुछ सीखें, कुछ कमाएं ताकि सजा या जेल से छूटने के बाद जीवनयापन कर सकें. उन्हें आर्टिफिशियल फ्लावर, मोमबत्ती बनाने, सिलाईकढ़ाई करने व ऐसी ही कई दूसरी गतिविधियों से जोड़ा जाता है.’’

हरिकिशन शर्मा मानते हैं कि हिंसा के लिए मन का शांत रहना बहुत जरूरी है, इस के लिए योग, ध्यान, मैडिटेशन आदि से संबद्ध गतिविधियां भी जेलों में चलाई जाती हैं. वे जेलों में बिहेवियरल डिसऔर्डर व बिहेवियरल मैडिफिकेशन पर जोर देते हैं. ये महिलाओं के ही नहीं हर प्रकार के हिंसक व्यक्ति के लिए भी कारगर होते हैं.

हार्मोनल स्थिति जिम्मेदार

हिंसा के पहलू पर डा. निमेष देसाई महिला के बायोसाइकोसोशियो पहलू पर विचार करने पर जोर देते हैं. डा. निमेष देसाई इंस्टिट्यूट औफ ह्यूमन बिहेवियर ऐंड एलाइड साइंसेज (इहबास) में कार्यरत हैं. उन के अनुसार, स्त्री की बायोलौजिकल साइकिल प्री मैच्योर सिंड्रोम की स्थिति माहवारी से पहले या माहवारी के दौरान की होती है. इस में चिड़चिड़ापन स्वाभाविक है.

क्रिटिसिज्म भी उसे बरदाश्त नहीं होता. इसी तरह दूसरी स्थिति है पोस्टपार्टम. इस स्थिति में डिलीवरी के बाद हार्मोनल बदलाव से भी कुछ महिलाएं आक्रामक, हिंसक या अवसादग्रस्त हो सकती हैं. तीसरी स्थिति है मेनोपोजल, इस में भी कई स्त्रियों की आक्रामकता बढ़ जाती है और वह हिंसा कर बैठती हैं.

डा. निमेष कहते हैं, ‘‘मैडिकेशन की जरूरत काफी कम केसों में पड़ती है. काउंसलिंग से इन स्थितियों को आसानी से सुलझाया जा सकता है.’’

वे स्त्री सबलीकरण को सही दिशा देने की जरूरत पर भी जोर देते हैं ताकि शोषणउत्पीड़न के चलते लोग हिंसक होने के बजाय सचमुच में अधिकार पा सकें. पावर सीकिंग महिलाएं भी कू्रर व हिंसक होने के बजाय वंचितोंपीडि़तों को न्याय दिला सकें, ऐसा वातावरण बनाए जाने की जरूरत है.

मनोरोग हो सकता है कारण

यदि महिलाएं बेवजह तोड़फोड़, मारपीट, गालीगलौज करती हों तो संभव है वे सिजोफे्रनिया की शिकार हों. ऐसी स्थितियों को सहने या छिपाने के बजाय उन्हें तुरंत मनोचिकित्सक के पास ले जाना चाहिए. कई जगह ऐसी हिंसक स्त्रियों को बंद कर के या बांध कर भी रखा जाता है. यह समस्याओं का हल नहीं बल्कि बढ़ावा देना है.

एक महिला चतरीबाई ने अपनी 18 साल की बेटी को किसी तरह 1 साल रखा. वह किसी के संपर्क में आते ही कहने लगती थी कि उसे उस का कलेजा खाने की इच्छा है. कई बच्चे भी उस ने पकड़ लिए. चतरीबाई ने मालकिन की राय से मनोरुग्णालय में उस बेटी का इलाज कराया और 2 महीने में वह स्वस्थ हो गई. साथ ही पिछली बातें भी भूल गई.

दरअसल, बे्रन में कभीकभी कुछ रसायन बनने कम या बंद हो जाते हैं. उन्हें दवाइयों के जरिए काबू किया जा सकता है. सैक्स, जचगी आदि के समय भी शरीर में हार्मोंस का स्राव होता है. उपयुक्त जीवनशैली, संतुलित सोच व पौष्टिक भोजन स्त्रियों को शांत रखता है.

अर्चना श्रीवास्तव मनोचिकित्सा से संबद्ध संस्थान में प्रशासनिक अधिकारी हैं. वे कहती हैं, ‘‘हमारे यहां न केवल बड़े शहरों बल्कि छोटे शहरों और गांवों में भी बिहेवियर और मनोरोग का संबंध समझा जाने लगा है. अब लोग अस्पताल आने में बुरा नहीं मानते. जितनी जल्दी आया जाए उतना अच्छा है. हिंसक व्यवहार जितना जल्दी जानापहचाना जाए उतना ही ठीक होने में समय कम लगता है.

‘‘मनोरोगों में व्यक्ति अपनी उम्र व शक्ति के अनुसार तोड़फोड़ करते हैं. इसलिए बड़ी हिंसा या तोड़फोड़ को ही हिंसक न समझा जाए. कम उम्र की लड़की या स्त्री उसी उम्र के युवक या पुरुष की तुलना में कम हिंसक होगी. ज्यों ही संकेत मिले, डाक्टर से संपर्क करें. कई बार स्थिति हाथ से निकल सकती है. किसी की हत्या, आत्महत्या या अनिष्ट भी हो सकता है.’’

स्त्री ही जिम्मेदार नहीं

महिलाओं की आक्रामकता व हिंसकता में नियम, प्रशासन, घरेलू व कार्यालय में दबाव आदि तमाम स्थितियों का भी योगदान है. हाल ही में पवित्रा की आत्महत्या का केस सामने आया. पवित्रा नेडीयू के अंबेडकर कालेज के प्रिंसिपल जी के अरोड़ा पर यौन शोषण का आरोप लगाया था. लंबे समय से वे अपने साथ न्याय किए जाने की गुहार लगा रही थीं. अनसुना किए जाने पर समाज, प्रशासन कानून सब से हताश हो कर वे हिंसक और आक्रामक हो उठीं और अपने ही प्रति हिंसक हो गईं. आग लगा ली और मर गईं.

अब प्राचार्य का निलंबन हो चाहे पवित्रा के प्रति अत्याचार का निदान, वे वापस नहीं लौट सकतीं. ऐसी हिंसक गतिविधियों को बढ़ावा देने वालों को ऐसा दंड मिलना चाहिए जो मिसाल हो और कोई भी स्त्री अपने प्रति ही सही, हिंसक न होने पाए. इसी तरह नई दिल्ली के वसंतकुंज में एक घर की मालकिन के नौकरानी को जलाने, मूत्र पिलाने, बांधने जैसे अत्याचारों के जाहिर होने से समाज हिल गया कि कोई स्त्री इतनी हिंसक हो सकती है? हिंसक स्त्री तमाम स्त्रियों की छवि भी धूलधूसरित करती है.

नशे की गिरफ्त में महिलाएं?

महिलाएं आजकल तरहतरह के नशे कर रही हैं. वे अपने को कम नहीं समझे जाने के कारण नशे की शिकार हो रही हैं. ऐसे में नशा व हिंसा का चोलीदामन का साथ हो जाता है. कुमारी डोबा ने देर रात पार्टी से लौटते हुए ट्रैफिक पुलिस को ही थप्पड़ जड़ दिया.

एक महिला ने अपने पति को थप्पड़ मार दिया. साथसाथ पीने की कंपनी एंजौय करने वाली सास ने कहा, उस की बहू ने नशे में पोते को गोद से फेंक दिया. उसी दिन से हम ने न पीने की ठान ली. श्रीमती विदिशा पति के साथ पीती थीं. विधवा होने पर पति के दोस्तों ने लालच दे कर नशे की तस्करी में धकेल दिया. ढाई साल विदेश में सजा काटी. उस के छोटेछोेटे बच्चे कैसे पलेबढ़े, वह अपने जीवन से कैसे उबरी, वह ही जानती है. अब नशामुक्ति को समर्पित है.

मालविकाग्निमित्रम् में कालिदास ने वर्णन किया है, इरावती रानी नशे में राजा को थप्पड़ मार देती है. वह तो राजा भी नशे में था वरना यह कितनी बड़ी खता थी.

हिंसा किसी भी स्थिति में श्रेष्ठ या अनुकरणीय नहीं मानी जा सकती. कहते हैं यदि द्रौपदी ने दुर्योधन से यह न कहा होता कि अंधे के बेटे अंधे होते हैं यानी वाचिक हिंसा न की होती तो न चीरहरण होता न महाभारत रचता. इसी तरह कुंती ने पांचों भाइयों में द्रौपदी को न बांटा होता. तथाकथित धर्मराज युधिष्ठिर व अन्य भाई प्रतिरोध करते तो संभव है द्रौपदी को त्रासद जीवन न जीना पड़ता. न ही कौरवों के लहू से अपने बाल रंगने की प्रतिज्ञा कर के पति को युद्ध के लिए उकसाना पड़ता और न यथासमय आवाज बुलंद कर के जुए में दांव पर लगना पड़ता.

स्त्री को आक्रामक बनाने के वातावरण को इस से समझा जाना आसान है. अकसर पुरुष मां, बहन, बेटी, बौस, सबऔर्डिनेट यानी महिला को महिला से मिलने नहीं देते. ऐसी राजनीति और कूटनीति को समझने में महिला अपनी बुद्धि लगाए तो अनावश्यक कू्ररता व हिंसा की जरूरत नहीं पड़ेगी.

मुखर होती हिंसा

मनोवेत्ता पंकज कुमार कहते हैं, ‘‘महिला हिंसा पहले अपने आप के प्रति ज्यादा थी. वे अवसाद का शिकार हो जाती थीं. कभी उन्हें कोई मनोरोग ग्रस्त कर लेता था परंतु अब उन की हिंसा मुखर हो रही है. वे ज्यादा खुल कर और जिन्हें वे अन्याय, उत्पीड़न या प्रताड़ना का हेतु समझती हैं उन के प्रति उग्र प्रतिशोधी व हिंसक हो रही हैं. क्रोध, वैर, प्रतिशोध, उग्रता आदि आज समाज में आम होते जा रहे हैं. ये अच्छे सूचक नहीं हैं.’’

दिल्ली विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग से संबद्ध छात्रछात्रा कहते हैं कि आजकल परिवार व समाज का ढांचा बदल रहा है. ऐसे में आपसी व पर्सनल कन्सर्न खत्म हो रहे हैं. महानगरों में कोई किसी को नहीं जानता. छोटे शहरों में भी भौतिकता और महत्त्वाकांक्षा की दौड़ में न सिर्फ भावनात्मक जुड़ाव खत्म हो रहा है बल्कि यह गायब होती जा रही है. तलाक, स्वार्थ, रिश्तों में धोखा भी महिलाओं को अकेलेपन का शिकार बना रहे हैं. इस से हिंसा बढ़ी है और बढ़ेगी.

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