देश बिजली, पानी, सड़क और भ्रष्टाचार से त्रस्त है और हमारे तथाकथित जनसेवक नेता इन पर गौर फरमाने के बजाय घोटाले करने व मूर्तियों पर जनता का पैसा उड़ाने में मसरूफ हैं. वे विकास के नाम पर औद्योगिक घरानों, नौकरशाहों और दलालों के गठजोड़ बना कर जनता को ठगने में जुटे हैं. राजनेताओं के पास जनता की तरक्की का कोई फार्मूला नहीं है. उन्होंने देश को क्या दिया, क्या देंगे, क्या दे सकते हैं, पेश है इस पर विश्लेषणपरक लेख.
गुजरात के मुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी गुजरात में सरदार सरोवर तट पर बन रही सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा की स्थापना पर बड़ा गर्व करते नजर आते हैं. 2,500 करोड़ रुपए की लागत से बन रही इस प्रतिमा को विश्व की सब से ऊंची प्रतिमा बताया जा रहा है. गांधीनगर में विधानसभा, राजभवन तक जाने वाली सड़कें चमक रही हैं. अहमदाबाद, सूरत के मौल गुलजार नजर आ रहे हैं. नदियों, सरोवरों पर बांध बनाए गए. पर्यटन विकास के लिए ऐतिहासिक जगहों पर करोड़ों रुपए खर्च किए गए. पर्यटकों के लिए एअरकंडीशंड बसें चलाई जा रही हैं. क्या इसे ही विकास कहेंगे? इस तरह का विकास किस के लिए है?
विकास नहीं आलोचना
नरेंद्र मोदी जहां कहीं भी भाषण देते हैं वे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी संप्रग सरकार व सोनिया गांधी और राहुल गांधी की आलोचनाओं से भरे होते हैं. मोदी और दूसरे भाजपा नेता गुजरात को विकास का मौडल साबित करने पर तुले हैं. मोदी ने पिछले 10 सालों में गुजरात का कैसा विकास किया? गुजरात के लाखों लोगों के सिर पर छत नहीं है, वहां के हर 10 बच्चों में 4 कुपोषण के शिकार हैं. रोजगार के लिए लोगों को दूसरे राज्यों में पलायन करना पड़ रहा है. गांव, कसबों और शहरों में पीने के पानी की किल्लत बनी हुई है. मोदी को आडवाणी, टाटा, अंबानी की कंपनियों को जमीनें, कर्ज, इन्फ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध कराने की चिंता लगी रहती है. किसान आत्महत्या करते हैं तो कोई बात नहीं. गरीब कर्ज से परेशान हो कर मरता है तो फिक्र नहीं. गांवों, गरीबों के लिए बुनियादी सुविधाएं पहुंच रही हैं या नहीं, मोदी सरकार को इस से सरोकार नहीं.
पिछड़ी जातियों में पटेल, सीरवी और अतिपिछड़ी ढोली, कालबेलिया, खटीक जातियों के वोट उन्हें मिल जाएं, बस. लेकिन इन वर्गों के विकास के लिए उन के पास कोई योजना नहीं है.
हवाई बातें कोरे वादे
मोदी को चिंता है तो यह कि राज्य में हिंदू धर्म को कोई नुकसान तो नहीं हो रहा है, मंदिरों, तीर्थस्थलों का विकास हो रहा है न. राज्य में कहीं मसजिद और चर्च तो नहीं बन रहे. राज्य के आदिवासी इलाकों में चर्च की धर्म परिवर्तन की गतिविधियां तो नहीं चल रहीं? इन के अलावा मीडिया में उन की बातों का प्रचार हो रहा है या नहीं. देश के साधु, संत, धार्मिक नेता उन की वाहवाही कर रहे हैं या नहीं? धर्मसंसद कुंभ मेलों, तीर्थस्थलों और पार्टी के आलाकमान पर दबाव बना कर उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनाने की मांग कर रही है या नहीं? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर अपना वशीकरण मंत्र कामयाब हो रहा है या नहीं और अमेरिका के सामने बनी उन की सांप्रदायिक छवि को मिटाने के लिए विदेशी जनसंपर्क कंपनी से कैसे काम लिया जाए?
देश के भावी प्रधानमंत्री का सपना देख रहे नरेंद्र मोदी की विकास के नाम पर कुछ इस तरह की कार्यशैली दिखाई पड़ती है. विकास की कितनी ही हवाईर् बातें कर ली जाएं, गरीब की हालत जस की तस है. मोदी के राज में गुजरात में सरकारी दफ्तरों में काम कराने के लिए रिश्वत का चलन बदस्तूर जारी है. चिकित्सा व्यवस्था का हाल सुधरा नहीं है. भाजपा द्वारा मोदी की झूठी विकास पुरुष की छवि बनाई जा रही है. वे हवाईर् बातें करते फिरते हैं. इसलिए सोशल मीडिया में उन्हें ‘फेंकू’ कहा जा रहा है.
आज देश के राजनीतिबाज चुनावी प्रचार में एकदूसरे पर तीखे बाणों की बौछार करते सुनाईर् पड़ रहे हैं. बात विकास की जरूर करते हैं पर कौन सा, कैसा विकास वे करेंगे, इस बात का जिक्र नहीं होता.
निर्णयक्षमता का अभाव
प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की बात करें तो लगता है वे इस देश के प्रधानमंत्री जरूर हैं पर मानो उन का देश की किसी भी तरह की समस्या से कोई सरोकार नहीं है. जनता भ्रष्टाचार पर कितना ही आक्रोशित हो, महंगाई पर उन्हें चाहे जितना कोसे, या फिर आतंकवाद या सुरक्षा जैसे मुद्दे हों, उन की सेहत पर कोई असर नहीं. घरेलू समस्याओं पर उन के दूसरे ही मंत्री विरोधियों और जनता को जवाब देते सुनाईर् पड़ते हैं.
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का अपने देश की जनता से सीधा संवाद होता रहता है पर हमारे प्रधानमंत्री जनता के बीच कभी जाते नहीं देखे गए. वे महज आर्थिक विकास के बारे में काम करते हैं पर आर्थिक विकास किस का, कहां हो रहा है, यह बात उन के कार्यकाल में हो रहे कोयला घोटाले, 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले, कौमनवेल्थ गड़बडि़यों में जरूर दिखाई दे रही है.
मनमोहन सिंह की कार्यशैली से लगता है मानो वे कुछ कार्पोरेट घरानों, भ्रष्ट अमीरों, बेईमान नौकरशाहों के लिए काम कर रहे हैं. इस देश को गरीब, वंचित, पिछड़ा, किसान, मध्यमवर्ग और आम आदमी की समस्याओं को देखने, सुनने का काम मानो उन का है ही नहीं.
कांग्रेस अध्यक्ष व संप्रग प्रमुख सोनिया गांधी यह बात तो समझ चुकी हैं कि धर्म, जाति, वर्गों में बंटे भारत में सरकारें और राजनीतिबाज अमीरों के लिए ही काम करते आ रहे हैं. यहां राजनीतिबाजों, कौर्पोरेट, नौकरशाहों और दलालों का एक मजबूत गठजोड़ बना हुआ है पर उसे तोड़ने के बजाय बरकरार रखने में ही यकीन रखा जा रहा है. सोनिया गांधी ने इस तरफ हस्तक्षेप नहीं किया.
सोनिया गांधी ने अनपढ़ों, गरीबों, किसानों, बेघरों के लिए शिक्षा, भोजन, मकान जैसी बुनियादी चीजें मुहैया कराने के लिए कानून बनाने का काम जरूर किया पर इन कानूनों पर अमल होगा और इन लोगों को ही फायदा मिलेगा, इस बात की गारंटी नहीं है.
राहुल गांधी गरीबों की हालत सुधारना तो चाहते हैं पर इस के लिए वे उन के घरों में जाते हैं, रात बिताते हैं, उन के साथ उन की तरह जमीन पर बैठ कर खाना खाते हैं पर उन की समस्याओं को खत्म कैसे करें, इस के लिए उन के पास कोई फार्मूला दिखाई नहीं देता. वे देश के युवाओं को आगे ला कर पार्टी से जोड़ना चाहते हैं, युवा टेलैंट हंट करते हैं पर खोजे गए युवाओं की प्रतिभा को देश की तरक्की के लिए किस तरह काम में लेना है, उन के पास वह रास्ता नहीं है.
राहुल गांधी को भ्रष्टाचार, महिलाओं की सुरक्षा जैसे ज्वलंत मुद्दों से परहेज तो है लेकिन जब देश भ्रष्टाचार पर उबल रहा था, अन्ना हजारे के पीछे जंतरमंतर पर सैलाब उमड़ रहा था, तो उन्होंने कभी अपनी जबान नहीं खोली. दिल्ली गैंगरेप मामले में भी राहुल गांधी मौन थे. महिलाओं की सुरक्षा के मामले पर कभी मुंह नहीं खोला. इसी तरह महंगाई, आंतरिक सुरक्षा, विदेश नीति, बिजली, पानी, सड़कें, सरकारी दफ्तरों में सर्टिफिकेट पाने की दिक्कतों जैसी बातों पर कभी कोई समाधान नहीं सुझाया.
धर्मजाति की राजनीति
तीसरे मोरचे के सहारे प्रधानमंत्री का सपना देखने वाले मुलायम सिंह यादव की कार्यशैली दूसरे राजनीतिबाजों से अलग नहीं है. उत्तर प्रदेश में यादव-मुसलमान समेत कुछ पिछड़ी जातियों के लोग उन्हें अपना नेता मानते हैं. उत्तर प्रदेश के मुसलमानों पर वे अपना पहला हक समझ कर कांग्रेस और भाजपा से जबतब टक्कर लेते रहते हैं लेकिन प्रदेश में सर्वांग विकास की बात तो दूर, जो तबका मुलायम सिंह को अपना समझ कर वोट देता आया है वह तक समस्याओं से दोचार है. गांवों में पीने का पानी नहीं, बिजली नहीं, सड़कें नहीं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुसलिम बहुल इलाकों में तो हालात और भी बुरे हैं. गरीब मुसलमान रोजीरोटी, रोजगार की समस्या से नजात पा नहीं सके हैं. लाखों लोग अभी कच्चे या बिना छत, बिना दरवाजे के घरों में रह रहे हैं. ऊपर से जिंदगी की कोई सुरक्षा नहीं. सांप्रदायिक दंगों का अंदेशा हरदम सिर पर मंडराता रहता है.
मुलायम सिंह यादव पर गुंडों, बदमाशों को शह देने के आरोप लगते आए हैं. प्रदेश में मुलायम के राज में कोई औद्योगिक विकास नहीं हुआ. हां, अंबानी भाइयों में एक को अपने पक्ष में करने में कामयाब रहे और उन्हें दादरी में बिजली प्रोजैक्ट लगाने के लिए किसानों की जमीनें दे दी गई थीं.
छोटेछोटे काम के लिए लोग परेशान होते हैं. प्रदेश के महोबा के कालीपहाड़ी की रहने वाली सुमित्रा को आंखों से कम दिखाई देता है. विधानसभा चुनाव के समय मुलायम की समाजवादी पार्टी यानी सपा के वादों को सुन कर लगा कि सरकार बनने के बाद बुंदेलखंड का विकास होगा. पर उस का सपना जल्दी ही टूट गया. उस की बुढ़ापे की पेंशन नहीं बन सकी. वह कहती है कि पिछली सरकार की तरह ही यह सरकार काम कर रही है. कोई नयापन नहीं है. गांव, गरीब और महिलाओं की तरफ कोई ध्यान नहीं है. ऐसी पीड़ा केवल सुमित्रा देवी की नहीं है. जिन लोगों ने सपा के विकास के वादे पर भरोसा किया था वे अपने को छला हुआ महसूस कर रहे हैं.
मौके का दुरुपयोग
उत्तर प्रदेश की जनता ने 2012 में सपा को बहुमत से सरकार बनाने का मौका दिया था. वैसे तो मुलायम सिंह को इस मौके का लाभ उठा कर प्रदेश को विकास की राह पर आगे ले जाना था पर उन्होंने इस मौके का इस्तेमाल अपने बेटे अखिलेश यादव को स्थापित करने में लगा दिया. मुलायम सिंह खुद केंद्र की राजनीति में आ कर प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने लगे.
अखिलेश ने कोईर् भी ऐसा काम नहीं किया जिस का बखान कर वे लोकसभा चुनाव में पार्टी के लिए वोट मांग सकें. मुजफ्फरनगर दंगों का असर खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है. इस के पीछे मुलायम सिंह की मुसलिम वोटबैंक की राजनीति काम कर रही है. लैपटौप बांटे गए पर वे किसी काम नहीं आ रहे हैं.
ऐसे में चुनाव करीब देख कर सपा सरकार 17 पिछड़ी जातियों को दलित बिरादरी में शामिल कराने का शिगूफा छोड़ रही है. जिस दलित बिरादरी की दशा अभी तक नहीं सुधरी है, उस में अगर कुछ जातियां और शामिल हो जाएंगी तो उन का कैसे भला हो पाएगा?
बात केवल मुलायम सिंह यादव या समाजवादी पार्टी की नहीं है, उत्तर प्रदेश में हर दल को अब यही बेहतर लग रहा है. 1990 के बाद अयोध्या में राममंदिर आंदोलन ने विकास के मुद्दे को पीछे छोड़ दिया. मूर्तियों की आलोचना करने वाली बहुजन समाज पार्टी ने मूर्ति, स्मारक बनाने शुरू कर दिए. बसपा प्रमुख मायावती ने तो खुद अपनी भी मूर्तियां लगवानी शुरू कर दीं.
राजनीतिक विश्लेषक योगेश श्रीवास्तव कहते हैं कि नेता अपनी असफलता को छिपाने के लिए ऐसे मुद्दे उठाते आए हैं जिन में लोग उलझे रहें और विकास के मसले पर घेराबंदी न कर सकें. अब जनता बेमतलब के मुद्दों को समझ चुकी है, इसलिए वोट का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है.
सत्ता का नशा
अब प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बात करते हैं. ‘‘यह कैसी ईंट है? यह तो दो नंबर की नहीं, तीन नंबर की ईंट है. इस से नाला बनेगा तो 3-4 महीने में ही ढह जाएगा,’’ यह कह कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पूछते हैं, कहां है ठेकेदार? ठेकेदार हाजिर होता है. उसे फटकार लगाई जाती है. काम रोकने और उस का भुगतान रोकने का आदेश सड़क पर जारी कर दिया जाता है. उन के पास खड़े सरकारी अफसरों की सिट्टीपिट्टी गुम है.
उस के बाद मुख्यमंत्री का काफिला आगे बढ़ता है. थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर नीतीश अपनी गाड़ी फिर रुकवाते हैं और वहां बन रही सड़क में इस्तेमाल किए जाने वाले स्टोन चिप्स, सीमेंट को उठा कर जांच करते हैं. स्टोन चिप्स के बड़े साइज पर नाराजगी जताते हुए कहते हैं कि इस से बनी हुई सड़क ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकेगी, तुरंत सामग्री बदलने का हुक्म देते हैं.
यह थी नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के शुरुआती दिनों की कार्यशैली. योजनाओं को तुरंत शुरू करवा कर उस की मौनिटरिंग भी खुद किया करते थे. फिल्म ‘नायक’ के हीरो की तरह वे औन द स्पौट मामले निबटाया करते थे.
लेकिन आज के नीतीश कुमार काम, तरक्की, इंसाफ और सुशासन की बातों को छोड़ कर पिछले एकडेढ़ साल से सियासी बयानबाजी और अपनी सरकार को बचाने की कवायद में उलझ कर रह गए हैं.
मतलब की सियासत
भाजपा नेता और नीतीश सरकार में उपमुख्यमंत्री रह चुके सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि नीतीश कुमार की सोच और काम करने का ढर्रा केवल मतलब पर आधारित है. 17 साल तक भाजपा से गठबंधन करने वाले नीतीश आज कह रहे हैं कि उन्होंने बिहार से लालू यादव को हटाने के लिए ही भाजपा से नाता जोड़ा था. अपने इस फैसले को सही साबित करने के मकसद से वे कहते हैं कि जब बड़ी आग को बुझाने की बात आती है तो यह नहीं देखा जाता कि पानी कैसा है. वहीं, सुशील मोदी कहते हैं कि नीतीश कुमार ने विकास पुरुष का महज मुखौटा पहन रखा है. वह सियासी है, मतलबी है. आज अपनी सरकार को बचाने के लिए नीतीश उसी कांग्रेस की गोद में जा बैठे हैं जिस का विरोध कर के ही वे अपनी सियासत चमकाते आए थे.
नीतीश कुमार ने बिहार में कानूनव्यवस्था में कुछ सुधार के अलावा सड़कों की हालत में थोड़ा सुधार जरूर किया पर बिजली, पानी, स्वास्थ्य और तालीम के क्षेत्रों में वे खास काम नहीं कर पाए. 2010 में दोबारा बिहार के मुख्यमंत्री बनने के बाद से नीतीश कुमार हर मंच से लगातार यह कहते रहे हैं कि अगर साल 2015 के विधानसभा चुनावों तक बिहार में बिजली की हालत में सुधार नहीं कर सकेंगे तो वे वोट मांगने नहीं जाएंगे. अब विधानसभा चुनाव में 2 साल रह गए हैं पर बिहार में बिजली की हालत यह है कि सूबे को महंगी दरों पर दूसरे राज्यों या बिजली कंपनियों से बिजली की खरीद करनी पड़ रही है. बिहार खुद बिजली पैदा करने में अब तक नाकाम ही रहा है.
लालू यादव के भ्रष्टाचार और उन की जातिवादी राजनीतिक शैली का विरोध करने वाले नीतीश कुमार ने राज्य का किसी तरह का कायापलट नहीं कर दिया.
नीतीश कुमार चंपारण में कंबोडिया के अंकोरवाट की तर्ज पर 500 करोड़ रुपए की लागत का विश्व का सब से बड़ा रामायण मंदिर बनवा रहे हैं. वे अरबों की लागत का मंदिर बनवाने में रुचि ले रहे हैं. यह विशाल मंदिर 2800 फुट लंबा, 1400 फुट चौड़ा और 410 फुट ऊंचा होगा. पिछड़ों में अतिपिछड़ों को अलग कर उन्होंने अपने लिए उन जातियों का वोटबैंक बनाने की कोशिश की जिन जातियों को लालू लुभा नहीं पाए थे. प्रदेश में पानी, बिजली, सड़कों की समस्याओं से लोग त्रस्त हैं. हर साल बाढ़ की परेशानी तक को नीतीश दूर नहीं कर पाए. रोजगार के लिए पलायन रुका नहीं है. प्रदेश में नए उद्योगों की कोई कारगर योजना नहीं है.
ममता की भ्रामक कार्यशैली
उधर, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का पता ही नहीं चल पा रहा कि वे गरीबों के पक्ष में हैं या विरोध में. 34 सालों के वाम शासन के अंत के बाद क्या वाकईर् में बंगाल में बदलाव आया है? शायद नहीं. राज्य के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक परिदृश्य के आधार पर विचार किया जाए तो कहीं कोई परिवर्तन नजर नहीं आता. राजनीतिक बदलाव जरूर हुआ है पर शासन वही है. वाम शासन से खिन्न हुई जनता को बड़ी उम्मीद थी. राज्य की जनता ने जब ममता बनर्जी को सत्ता सौंपी तब उस ने मन में तृणमूल यानी ग्रासरूट स्तर पर बदलाव का सपना संजोया था पर यह सपना किसी भी स्तर पर सच नहीं हुआ. ममता की सनक और उन की कार्यशैली की हर तरफ आलोचना हो रही है.
ममता की राजनीति औचित्यहीन है. इसे लोकलुभावन राजनीति कह सकते हैं लेकिन आम जनता के विकास से कोई लेनादेना नहीं. बैठेठाले पश्चिम बंगाल को पश्चिम बंग बना डाला. वे मदर टेरेसा के पसंदीदा सफेद रंग और नीले रंग से पूरे कोलकाता को रंग डालने में अपनी और राज्य की ऊर्जा को स्वाहा कर रही हैं. इन दिनों सड़कों के किनारे लगी रेलिंग, पुल, ओवरब्रिज, नुक्कड़ और सार्वजनिक शौचालयों के रंग सफेदनीले कर दिए गए हैं. तर्क पर्यटकों को आकर्षित करने का है.
लेकिन इन कामों से भला आम आदमी को क्या लाभ? एक दिवालिया सरकार के लिए इस तरह के फुजूलखर्च का क्या औचित्य? और तो और, शाहरुख खान को राज्य का ब्रांड एंबेसडर बना दिया गया. आज तक शाहरुख खान ने कभी बंगाल को कहीं प्रमोट नहीं किया. जनहित की दुहाई दे कर बातबात में केंद्र की खिंचाई करने व हाथरिकशा का समर्थन करने वाली ममता को जाने क्या सूझी कि उन्होंने हाल ही में कोलकाता की कई प्रमुख सड़कों पर साइकिल चलाने पर प्रतिबंध लगा दिया.
विकास का फार्मूला नहीं
ममता भी जाति, संप्रदाय की राजनीति में कम नहीं हैं. राज्य की सभी 294 विधान सभाई इलाकों में खासी मुसलिम आबादी है और 115 सीटों पर तो मुसलमान मतदाता निर्णायक की स्थिति में हैं. राज्य की कुल आबादी में 26 प्रतिशत अल्पसंख्यक हैं. इन का एकएक वोट पाने के लिए ममता ने कमर कस ली है. अल्पसंख्यकों के विकास के लिए बजट में 73 प्रतिशत राशि मंजूर की गई है. हरेक जिले में अल्पसंख्यक उन्नयन (विकास) भवन बनवाए जा रहे हैं. महज भवन बना देने से अल्पसंख्यकों को क्या फायदा मिलेगा? यह तो ममता ही जानें.
10 हजार मदरसों को मान्यता दी गई है. मौलवियों, इमामों को प्रति माह ढाईर् हजार रुपए और अजान देने वालों के लिए 1 हजार रुपए भत्ता दिए जाने की घोषणा की गई. हालांकि इस की आलोचना हुई और मामला अदालत में विचाराधीन है.
दिक्कत यह है कि इन तमाम बातों से न तो जनता के जीवन में सुधार आया है और न ही राज्य की आर्थिक सेहत का इन बातों से लेनादेना है. वाम शासन से ही राज्य आर्थिक तौर पर दिवालिया रहा है और आज भी है.
स्थिति यह है कि बंगाल की जनता ‘साड़ी है कि नारी है या नारी है कि साड़ी है, साड़ी की ही नारी है या नारी की ही साड़ी है’ जैसे एक अजीब भ्रमजाल में सांसें ले रही है. आज की स्थिति को देख कर लगता है कि ममता बनर्जी की इसी तरह की कार्यशैली के कारण आएदिन उन का नया नामकरण हो रहा है. हाल ही में ‘दि इकोनौमिस्ट’ पत्रिका ने उन्हें मिसचीफ मिनिस्टर कहा तो राज्य की जनता ने उन्हें ममता खातून नाम दे डाला. ममता के पास विकास का कोई फार्मूला नहीं है.
तमिलनाडु की राजनीति द्विधारा की राजनीति के रूप में जानी जाती है. यानी एक ऊंची जातियों की तो दूसरी पिछड़ी जातियों की. मुख्यमंत्री जे जयललिता ऊंची जातियों के प्रतिनिधि के रूप में शासन करती आई हैं. फिल्म अभिनेत्री से राजनीति में आई जयललिता के राज चलाने की शैली किसी महारानी से कम नहीं है. वे खुद राजसी ठाटबाट से रहती हैं. हर बार सत्ता में आते ही वे अपने प्रतिद्वंद्वी द्रविड़ मुनेत्र कषगम यानी द्रमुक के नेताओं से बदला लेना नहीं भूलतीं. इस बार उन्होंने प्रभावशाली लोगों द्वारा जमीन कब्जाने के खिलाफ कार्यवाही शुरू की. उन में कई नाम ऐसे सामने आए जो द्रमुक शासन में मंत्री रहे थे. जयललिता ने द्रमुक शासनकाल की कई योजनाओं को पलट दिया या बदल दिया. पिछली बार जयललिता ने अपने प्रतिद्वंद्वी करुणानिधि को रातोंरात गिरफ्तार करवाया था.
ठोस काम के बजाय क्षेत्र और भाषावाद ने नाम पर भी वोट बटोरने का वे मौका नहीं चूकतीं. श्रीलंका में तमिल चरमपंथियों को जबतब मुद्दा बनाती रही हैं. राज्य में भ्रष्टाचार रोक पाने में वे नाकाम रही हैं. स्वयं उन पर और उन की सहेली शशिकला पर भ्रष्टाचार के मामले सामने आए.
अन्य नेताओं की तरह जयललिता ने भी मुफ्त योजनाएं लागू कीं. गरीबों के लिए मुफ्त भोजन के बजाय उन के लिए स्थायी रोजगार की व्यवस्था नहीं की कि गरीब अपनी मेहनत से खापी सके. मुफ्त पंखे, मुफ्त मिक्सी ग्राइंडर और छात्रों को मुफ्त लैपटौप बांटे गए पर इन योजनाओं से न तो किसी गृहस्थी का भला हुआ न ही किसी छात्र का. राज्य में बिजली अभी भी चुनौती बनी हुई है.
इस तरह यह जाहिर है कि देश के राजनीतिबाज लकीर के फकीर हैं. उन के पास वास्तविक समस्याओं का कोई समाधान नहीं है. हम अंतरिक्ष में चहलकदमी करना चाहते हैं, मंगलयान से मंगल पर कदम रखना चाहते हैं. इस बात पर हमें भले ही फख्र हो पर देश में फुटपाथ पर जिंदगी बिताने वालों की संख्या भी लाखों में है. पहले यह सोचना होगा कि गांव तक भी सड़क जाएगी. हमारे नेता मंगलयान को भेजने में जल्दबाजी दिखाते हैं पर सड़क, बिजली, पानी उपलब्ध कराने के लिए तत्परता नहीं दिखाते.
कितनी जायज है उम्मीद
राजनीतिबाजों द्वारा विकास का झूठा आडंबर फैलाया जा रहा है. चुनाव में राजनीतिक दल विकास का घोषणापत्र जारी करते हैं पर होता कुछ नहीं. लगता है देश के राजनीतिबाज एक ही मिट्टी के बने हैं. आजादी मिले हुए 60 साल से अधिक समय बीत गया पर राजनीतिबाजों की सोच नहीं बदली. नेताओं की भाषा बदली है पर उन की कार्यशैली वही है. हर नेता विकास की बातें करता दिखाई दे रहा है पर विकास कैसा करेंगे, किसी को योजना बना कर अमल में लाने का तरीका मालूम नहीं है.
आज भी हमारे राजनीतिबाज चुनावी टिकट जातीय, धार्मिक आधार पर बांट रहे हैं. नीतियां, योजनाएं जाति, वर्ग, क्षेत्र देख कर बनाईर् जा रही हैं. दरअसल, अगर हम सभी भारत को विकसित देश बना हुआ देखना चाहते हैं तो हर क्षेत्र को निष्पक्षता की आंख से देखना होगा. और विकास के अंतर्विरोध हटने चाहिए, उस की प्राथमिकताएं तय हों. यह नहीं, विकास संतुलित, भेदभाव रहित और सार्थक हो. लेकिन क्या हमारे नेता ऐसा कर पाएंगे? यह सवाल जरूर है.
-शैलेंद्र सिंह, बीरेंद्र बरियार, साधना शाह, अनुराधा गुप्ता और जगदीश पंवार