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सफर अनजाना

कुछ वर्ष पहले मुझे अपनी बेटी के प्रसव के लिए अमेरिका जाना पड़ा. वह वर्जीनिया स्टेट के रिचमंड शहर में रहती थी. पुत्र जन्म के 3-4 दिन बाद ही मालूम हुआ कि दामादजी को किसी अन्य प्रोजैक्ट के लिए कैनक्टिकट के स्टेमफोर्ड शहर में जाना पड़ेगा. इतने छोटे बच्चे को ले कर यात्रा करना संभव न था.

हम लोगों ने निश्चित किया कि1 महीने बाद ही हम लोग वहां जाएंगे. मुझे वहां की रेलयात्रा का भी अनुभव लेना था इसलिए हम ने हवाई यात्रा न कर रेल को ही चुना. घरगृहस्थी का सारा सामान हम ने 1 हफ्ते पहले ही ट्रक से भेज दिया. पर हमारा स्वयं का और छोटे बच्चे का बहुत सा आवश्यकअनावश्यक सामान हमारे ही पास रहा. निश्चित समय पर टे्रन आई. टे्रन पर सारा सामान चढ़ाना अकेले दामादजी के लिए भी संभव न था. पर टे्रन के ड्राइवर और उन के सहायक ने हमारा पूरा सामान ट्रेन पर चढ़वाया.

करीब 6-7 घंटे की हमारी यात्रा बहुत ही सुखद रही. पर तभी पता लगा कि टे्रन स्टेमफोर्ड स्टेशन पर 2 मिनट ही रुकती है. हम सभी घबरा गए कि इतना सारा सामान व बच्चे को ले कर कैसे उतरेंगे. पर तभी टे्रन की महिला गार्ड वहां आई. उस ने हमारी परेशानी समझी और कहा कि जब तक आप सभी लोग व छोटा बच्चा सुरक्षित नहीं उतरेगा, टे्रन आगे नहीं बढ़ेगी.

सच में जब स्टेमफोर्ड स्टेशन आया तब सब से पहले उस ने मुझे और छोटे बच्चे को उतारा, फिर बेटी को, फिर और सहयात्रियों की सहायता से सारा सामान उतारा गया.हम दिल से अमेरिकन रेलवे के उस स्टाफ को धन्यवाद देते हैं जिन्होंने कठिन समय में हमारी इतनी सहायता की.

ज्योत्सना खरे, लखनऊ (उ.प्र.)

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मैं जयपुर से अपने शहर लखनऊ टे्रन से अपने पति के साथ वापस आ रही थी. हम लोगों के सामने वाली सीटों पर अधिकतर कालेज में पढ़ने वाले छात्रछात्राएं बैठे थे. हम लोग काफी घुलमिल गए. रात का खाना भी हम लोगों ने साथ खाया. फिर सो गए.

अचानक रात के 12 बजे हमारे डब्बे की लाइट जली और वे लोग मुझे उठाने लगे. जोरजोर से चीख कर कह रहे थे, ‘आंटी जी, जन्मदिन मुबारक हो.’ फिर अपने पास से ही मिठाई निकाली और मुझे खिलाई.

दरअसल, बातोंबातों में मैं ने उन्हें बताया था कि कल मेरा जन्मदिन है. मैं इस बात से इतनी खुश थी कि आज भी ऐसे लोग हैं जो एकदूसरे की खुशी का ध्यान रखते हैं. फिर सब लोगों ने गाने सुनाए. अंत्याक्षरी हुई और चुटकुले भी सुनाए गए. उन छात्रछात्राओं ने मेरा जन्मदिन इतनी अच्छी तरह से विश किया कि वह सफर मेरे लिए हमेशा याद रखने वाला हो गया.

अदिति मेहरोत्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

भारत भूमि युगे युगे

राहुल का एलीट ज्ञान

गांवदेहात का मैलाकुचैला आदमी शहर के साफसुथरे व्यक्ति से एक स्वाभाविक ईर्ष्या क्यों रखता है? मनोवैज्ञानिक लिहाज से देखें तो सार यह निकलता है कि यह एक तरह की कुंठा है जिस से किसी को कोई नुकसान नहीं होता. राज्यों के विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी ने मध्य प्रदेश में प्रचार के दौरान कहा, चूंकि वे एक गरीब परिवार से हैं इसलिए दिल्ली में बैठी एलीट क्लास मंडली का हिस्सा नहीं बन सकते.

दीनहीन दिख कर सहानुभूति बटोरना नई बात नहीं. धर्म की वजह से हमारा देश दरिद्रों का या कह लें नौनएलीटों का है. बकौल राहुल गांधी, यह एक मानसिक अवस्था है. एलीट होना गुनाह नहीं है, न ही नौनएलीट होना हिकारत की बात है. परेशानी तो इसे मुद्दा बनाना है जिस से लोग इत्तफाक नहीं रख रहे, न ही वे यह बता रहे कि उन्हें एलीट चाहिए या नौनएलीट क्लास पीएम.

दाग अच्छा नहीं

उजली साड़ी और बेदाग छवि ममता बनर्जी के आत्मविश्वास की 2 बड़ी वजहें रही हैं. उन के राजनीतिक शत्रु हमेशा ही यह सोचते हुए परेशान रहे हैं कि भला उन की छवि हमारी छवि से अच्छी क्यों है? तकरीबन 2300 करोड़ रुपए के चर्चित सारदा चिटफंड घोटाले में तृणमूल कांग्रेस से निष्काषित सांसद कुणाल घोष ने ममता का नाम भी यह कहते घसीट लिया है कि उन्हें इस घोटाले और उस की रकम के बारे में पूरी खबर थी.

सारदा समूह के मीडिया प्रमुख कुणाल घोष के दावे पर गौर करें तो लगता है घोटालेबाज बड़े समझदार होते हैं. वे वक्त रहते सीडियां भी रिकौर्ड कर रखते हैं ताकि सनद रहे और वक्तबेवक्त वे काम आएं. फिलहाल, ममता खामोश हैं पर ज्यादा समय तक खामोशी को हथियार नहीं बना पाएंगी. सफाई या स्पष्टीकरण तो उन्हें देना ही पड़ेगा क्योंकि यह दाग राजनीति के लिहाज से अच्छा नहीं है.

झगड़े का अर्थशास्त्र

कांग्रेसी और भाजपाई आम आदमी पार्टी को मिले विदेशी चंदे पर हायहाय दिल खोल कर कर पाते, उस के पहले ही अन्ना हजारे ने चिट्ठी लिख कर अरविंद केजरीवाल से सफाई मांग कर सारा मजा किरकिरा  कर दिया कि कहीं ‘आप’ जनलोकपाल आंदोलन के दौरान इकट्ठा हुए पैसे का इस्तेमाल तो चुनाव में नहीं कर रहे.

अन्ना हजारे बड़े दिलचस्प व्यक्ति हैं चूंकि गांधीवादी हैं और कुछ दिन पहले आम लोग उन्हें गांधी कहने भी लगे थे, इसलिए कोई नेहरू पैदा करने का जोखिम वे नहीं उठा रहे. पैसों की यह पूछताछ और हिसाबकिताब दिल्ली में मतदान के बाद भी हो सकता था लेकिन ठीक पहले हुआ तो वजह गैरसियासी तो नहीं मानी जा सकती. राजनीति का ककहरा सीखपढ़ रहे अरविंद केजरीवाल को असली सबक तो अब मिलना शुरू हुआ है.

तिनके सा तहलका

तहलका को लोग भूल चुके थे पर इस का यह मतलब नहीं कि इस पत्रिका के संपादक द्वारा एक पत्रकार युवती का यौन शोषण या उत्पीड़न कोई इश्तिहार या इवैंट था. गोआ बड़ी रोमांटिक जगह है जहां रोज उलटासुलटा कुछ न कुछ होता रहता है. लोग पुरुषोचित कमजोरियों को नियंत्रित करने के लिए यहां आते हैं.

इस मामले में अब तरुण तेजपाल को गिरफ्तार कर लिया गया है और अब वे सफाई देते फिर रहे हैं. संपादक ने दार्शनिक भाषा का इस्तेमाल करते हुए गलती मानी और अपने पद से 6 महीने के लिए इस्तीफा ऐसे दिया मानो किसी बादशाह ने गद्दी को लात मार दी हो. हकीकत में यौन शोषण का यह मामला बताता है कि पत्रकारिता चकाचौंध वाला बड़ा उद्योग हो चला है, खादी के कपड़े और गांधी टोपी पहने आदर्शों की बात करने वाला संपादक या पत्रकार सालों पहले जा चुका है. अब इस में स्मार्ट युवतियां तेजी से आ रही हैं, जो कुछ भी करने को तैयार रहती हैं तो अधेड़ तरुण तेजपाल का क्या कुसूर?

भारत भूषण श्रीवास्तव

मौत का तूफान

बदलती भौगोलिक दशा और ग्लोबल वार्मिंग के दौर में दुनिया के तमाम युवक प्राकृतिक आपदाओं के शिकार हो रहे हैं. एशिया के दक्षिणपूर्व में बसे फिलीपींस में प्राकृतिक आपदा की शक्ल में आए मौत के तूफान ‘हैयान’ ने हजारों जिंदगियां तबाह कर दीं. 10 हजार से ज्यादा जिंदगियां लील चुका यह चक्रवाती तूफान अब तक आए चक्रवाती तूफानों में सब से ज्यादा घातक साबित हुआ. करीब सवा लाख से ज्यादा लोगों की जिंदगी तहसनहस करने वाला यह तूफान 320 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से 8 नवंबर को मनीला के करीब 600 किलोमीटर दक्षिणपूर्व में सुबह 4 बज कर 40 मिनट पर मध्य द्वीप समर से टकराया. सरकारी आकलनों के मुताबिक, तेज रफ्तार के इस तूफान के रास्ते में आने वाले 70-80 फीसदी घर पूरी तरह तबाह हो गए.

तूफान को शांत हुए भले ही कई दिन बीत गए हैं लेकिन भूख, मातम और सिर से छत गंवा चुके आपदा प्रभावित लोगों के दिलों में आज भी डरावना तूफानी मंजर मौजूद है. बचाव कार्य और राहत सामग्री का मरहम समय के साथ इस हादसे की यादें भले ही धुंधला दे लेकिन इस दर्दनाक वाकए के निशां जल्दी नहीं मिटेंगे.

ऐसे चक्रवाती तूफानों का भविष्य में और विनाशकारी होने की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता. चिंता का सबक सिर्फ फिलीपींस जैसे बाहरी मुल्कों के लिए ही नहीं बल्कि भारत के लिए भी है. क्योंकि देश के समुद्रतटीय राज्यों में मौत के तूफानी चक्रवातों की दस्तक अब सुनने को मिल रही है.        

नकली नोटों का बेलगाम मायाजाल

देश में आम आदमी लगातार जाली मुद्रा का शिकार हो रहा है. गरीब की तो जाल में फंस कर जैसे कमर ही टूट रही है. एक मजदूर के खूनपसीने की कमाई 500 रुपए का जाली नोट क्षणभर में पानी में मिला दे रहा है.

नकली नोट कहां से आ रहे हैं, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है. सवाल यह है कि इन नोटों के प्रसार को रोकने में दिक्कत कहां हो रही है? बाजार में नकली नोटों की इतनी अधिक संख्या है कि शायद ही कोई हाथ बचा हो जिस को नकली नोटों ने नहीं छला हो. सरकार जानती है कि बड़ी तादाद में इस तरह के नोट फैले हैं. रिजर्व बैंक ने तो एक डाटा जारी कर बताया है कि बाजार में सब से अधिक नकली नोट 500 और 100 रुपए के हैं.

सरकारी आंकड़े के अनुसार, 2011-12 में 5,21,155 नकली नोटों का बाजार में प्रसार हुआ जबकि 2012-13 में यह संख्या मामूली गिर कर 4,98,252 रही. यह आंकड़ा बैंकों में नकली नोट पकड़ने वाली मशीनों से पकड़े गए नकली नोटों के आधार पर तैयार किया गया. हैरत यह है कि एटीएम मशीनों में नकली नोट निकल रहे हैं. निश्चित रूप से यह मिलीभगत का ही परिणाम है.

रिजर्व बैंक का यह भी कहना है कि हजार रुपए के नोट कम नकली निकल रहे हैं क्योंकि इन का प्रचलन 100 या 500 के नोटों की तुलना में कम है.

आम आदमी को तब पता चलता है जब वह बैंक में नोट ले कर जाता है और इस क्रम में वह ठगा सा रह जाता है. इस स्थिति में बैंकों को कम से कम यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एटीएम से कोई नकली नोट नहीं निकले और यदि किसी एटीएम से नकली नोट निकलते हैं तो बैंक को एटीएम में नोट रखने वाली संस्था के खिलाफ सख्त कदम उठाने चाहिए.

ऐसा सिर्फ इंडिया में ही होता है

आप को याद होगा जब स्कूटर पाने के लिए फौर्म भरने वालों को लंबी कतार में खड़ा हो कर बारी का इंतजार करना पड़ता था और फौर्म भरने के बाद सालों तक घर पर स्कूटर नहीं पहुंचता था. मंत्री या सांसद की सिफारिश पर वह काम आसान होता और खरीदार विजेता की मुद्रा में शान की सवारी पर निकलता. यही हालत रसोई गैस के कनैक्शन और टैलीफोन कनैक्शन हासिल करने के लिए भी रही. पूर्व संचार मंत्री सुखराम को तो इस की वजह से भ्रष्टाचार करने का अवसर मिला और वे दूरसंचार क्षेत्र में भ्रष्टाचार करने वाले देश के पहले केंद्रीय मंत्री बने. बाद में घोटाले के परिवेश बदले और स्पैक्ट्रम नीलामी के जरिए घोटाले हुए.

अच्छी बात यह है कि इधर घोटाले सेवाप्रदाता तक ही सीमित हैं. यदि सरकारी कंपनी उपकरण बना रही होती तो घोटाले का मानक ही बदल गया होता. इस आशंका की वजह भारतीय बाजार में आ रहे नए उपकरणों की बेतहाशा मांग को माना जा सकता है.

एकाध साल पहले एप्पल ने भारत में अत्याधुनिक पैड जारी किया तो उस की बिक्री करने वाली दुकानों पर ग्राहकों की लंबी लाइन लग गई. हाल ही में गूगल ने स्मार्टफोन नैक्सस-5 लौंच किया तो इस का स्टौक 1 घंटे के भीतर ही खत्म हो गया. यह उपकरण गूगल के लिए कोरियाई एलजी कंपनी ने बनाया है और भारत में जिस तरह उस का स्वागत हुआ उसे देख कर कंपनी प्रबंधन को कहना पड़ा कि एक तरह से लूट मच गई थी.

गूगल कंपनी के निदेशक (भारत) सून नोन ने कहा कि वे नैक्सस-5 को मिले रिस्पौंस से बेहद उत्साहित हैं और ऐसा सिर्फ इंडिया में ही हो सकता है. भारतीय ग्राहकों के इस उत्साह को बनाए रखने के लिए सून ने कहा कि अब इस से भी तेज गति के नैक्सस मौडल भारत में उतारे जाएंगे.

इस में कोई संदेह नहीं कि महंगाई की मार के बावजूद हमारे यहां कुछ लोगों की खर्च करने की क्षमता अच्छी है और अच्छी क्वालिटी के सामान के खरीदारों की जमात लगातार बढ़ती जा रही है. भारतीय बाजार की विविधता विदेशी कंपनियों, खासकर मोबाइल उपकरण बनाने वाली कंपनियों को आकर्षित करती रही है.

 

महिला बैंक को चुनौती

सरकार के काम सामान्यतया तेजी से नहीं किए जाते लेकिन जहां वोट का खेल हो वहां सरकार की तत्परता देखने लायक होती है. इस साल के बजट में सरकार ने 2014 के आम चुनाव के मद्देनजर महिलाओं के लिए अलग से ‘महिला बैंक’ बनाने की घोषणा की और घोषणा के 9 माह के भीतर ही उसे क्रियान्वित भी कर दिया. नवंबर के मध्य में प्रधानमंत्री ने महिला बैंक का उद्घाटन किया और कुछ चुने हुए नगरों में इस बैंक ने काम करना शुरू कर दिया. वित्तमंत्री पी चिदंबरम की चुनावी वर्ष में महिलाओं के वोट बटोरने की नीयत से की गई यह अनूठी पहल कामयाब होती नजर आ रही है.

आवश्यक वस्तुओं के आसमान छू रहे दामों के कारण किचन के महंगे हुए बजट से चिढ़ी महिलाओं के चेहरे पर इस बैंक के खुलने से मुसकराहट उभरी है. जिन शहरों में भी इस बैंक की शाखाएं खुली हैं वहां बेहतर परिणाम देखने को मिल रहे हैं. कई राष्ट्रीयकृत बैंकों ने इस बैंक को चुनौती देने के लिए अलग से महिला शाखाएं खोलने पर विचार करना शुरू कर दिया है. उन की शाखाएं देश के प्रथम महिला बैंक की तरह सिर्फ महिला ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए काम करेंगी. इन शाखाओं पर कर्मचारी महिलाएं ही होंगी.

यह सरकार की अच्छी पहल है वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने महिलाओं की तरक्की को ध्यान में रख कर नहीं बल्कि महिलाओं को खुश कर के उन के वोट को बटोरने को रणनीति के तहत बजट में यह घोषणा की थी.

हाल ही में वित्तमंत्री ने कहा कि देश की 30 प्रतिशत से कम महिलाओं के पास बैंक खाते हैं. पहले उन्हें ज्ञान नहीं था कि महिलाओं की स्थिति क्या है. दरअसल, वे सब कुछ राजनीति के लिए करते हैं. कल को वे कहीं यह न कहें कि देश में अल्पसंख्यक बैंक, मुसलिम बैंक, दलित बैंक, पिछड़ा वर्ग बैंक आदि खुलने चाहिए. वर्ग विशेष को खुश कर के वोट हासिल करने की नीति देश का असंतुलित और कटुतापूर्ण विकास का ही मार्ग प्रशस्त करेगी.

 

शेयर बाजार में रौनक

ईरान के 6 पश्चिमी देशों के साथ न्यूक्लियर डील साइन करने के फलस्वरूप भारतीय शेयर बाजार में रौनक रही. बाजार में मजबूती का माहौल है. नवंबर की शुरुआत से ही बाजार में तेजी का रुख रहा है और इस में लगातार बढ़त का माहौल रहा. 21 नवंबर को 3 सितंबर को बाजार में 652 अंक की गिरावट दर्ज की गई थी लेकिन 1 नवंबर को सूचकांक 21,294 अंक तक पहुंचा था जो अब तक का रिकौर्ड है.

उस के बाद बाजार में सूचकांक इस के आसपास रहा लेकिन 19 नवंबर के बाजार में विदेशी संकेतों तथा रुपए में गिरावट की वजह से गिर गया. लगातार 3 दिन की गिरावट के कारण बाजार 22 नवंबर के सप्ताहांत में 662 अंक तक लुढ़क गया.

नैशनल स्टौक ऐक्सचेंज यानी एनएसई में भी इसी तरह का रुख रहा और निफ्टी का सूचकांक भी 6 हजार अंक से नीचे उतर आया. बाजार की इस गिरावट की वजह अमेरिकी फेडरल से मिले नकारात्मक संकेत को बताया गया लेकिन इस से पहले बाजार में लगातार मजबूती का माहौल रहा.

25 नवंबर को ईरान डील के बाद बाजार 388 पौइंट चढ़ कर 26,605.15 अंक पर बंद हुआ. जबकि निफ्टी 120 पौइंट चढ़ कर 6,115 अंक पर बंद हुआ. यही नहीं, डौलर के मुकाबले रुपया 0.70 फीसदी चढ़ कर 62.50 पर रहा. बाजार के जानकारों का कहना है कि उतारचढ़ाव के बावजूद बाजार में मजबूती का रुख रहेगा. जानकार यह भी कहते हैं कि बाजार की स्थिति मजबूत है.

 

मुलायम का सियासी कुनबा

उत्तर प्रदेश में सत्तासीन दल सपा मौजूदा दौर में वंशवाद की राजनीति करने में अव्वल दरजे पर है. पितापुत्र, चाचाभतीजा और बहू समेत घर का लगभग हर सदस्य सियासी मैदान में अपनेअपने स्तर पर कुलांचें मार रहा है, इस का लेखाजेखा पेश कर रहे हैं शैलेंद्र सिंह.

गुजरात के मुख्यमंत्री और 2014 के भावी लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को ‘शहजादा’ कह कर राजनीति में परिवारवाद और वंशवाद पर चोट करने की कोशिश की. नरेंद्र मोदी भूल जाते हैं कि देश की राजनीति में परिवारवाद की जड़ें गहरे तक फैल चुकी हैं. खुद उन की पार्टी में भी परिवारवाद के तमाम उदाहरण मौजूद हैं.

देश में नेहरूगांधी खानदान से भी राजनीति में बड़ा परिवार है उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव का. लोकसभा और विधानसभा में इस परिवार के 6 सदस्य हैं. देश में ऐसा दूसरा कोई राजनीतिक परिवार नहीं है जिस के इतने सदस्य एकसाथ लोकसभा या विधानसभा के सदस्य हों. मुलायम परिवार के कुल 7 सदस्य सक्रिय राजनीति में हैं तो 3 सदस्य राजनीति की दहलीज पर खडे़ दस्तक दे रहे हैं. यह मुलायम सिंह यादव की सफलता ही कही जाएगी कि खेतीकिसानी करने वाले गांव के एक सामान्य परिवार को देश का सब से बड़ा राजनीतिक  परिवार बना दिया.

सियासत की शुरुआत 

वर्ष 1967 में विधानसभा चुनाव जीत कर मुलायम सिंह यादव पहली बार विधायक बने तो वे सब से कम उम्र के विधायक थे.  खेत की गोड़ाई, गायभैंस की चरवाही और अखाडे़ में ताल ठोंकने से ले कर स्कूल में मास्टरी करने वाले मुलायम सिंह यादव ने विधायक बनने के बाद पीछे मुड़ कर नहीं देखा. मुलायम के पिता सुघर सिंह यादव उन को खेतीकिसानी में लगाना चाहते थे लेकिन मुलायम पढ़ना- लिखना चाहते थे. 1961 में वे इटावा डिगरी कालेज में छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने गए. राम मनोहर लोहिया ने जब 1954 में ‘नहर रेट आंदोलन’ शुरू किया तब मुलायम ने उन का साथ दिया और जेल गए. वहीं से मुलायम की राजनीतिक यात्रा शुरू हो गई.

राम मनोहर लोहिया की समाजवादी विचारधारा से प्रभावित मुलायम सिंह यादव विधायक बने तो चौधरी चरण सिंह के करीब हो गए. कांग्रेस से अलग हो कर चौधरी चरण सिंह ने भारतीय क्रांति दल बनाया और मुलायम को अपने साथ ले लिया.

1977 में मुलायम सिंह यादव पहली बार उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री बने तो उन को सहकारिता जैसा खास विभाग दिया गया. इस के बाद मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक जीवन में दूसरी बड़ी सफलता तब मिली जब 1985 में चौधरी चरण सिंह की पार्टी लोकदल से विधानसभा में नेता विरोधी दल बनाए गए. चौधरी चरण सिंह की तबीयत खराब होने के कारण उन के बेटे चौधरी अजित सिंह ने लोकदल पर अपना प्रभाव जमाना शुरू किया. तब लोकदल का बंटवारा हो गया.  मुलायम सिंह यादव ने लोकदल ‘ब’ बना ली.

अपने क्रांतिरथ के सहारे पूरे प्रदेश का दौरा करने वाले मुलायम सिंह यादव 5 दिसंबर, 1989 को पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. अब तक दूसरों का सहारा पकड़ने वाले मुलायम सिंह यादव ने अपनी पार्टी बनाने का फैसला किया.  1992 में समाजवादी पार्टी यानी सपा बना ली. देश में मंडल कमीशन को ले कर जिस तरह की जातीय खेमेबंदी शुरू हुई उस से मुलायम सिंह यादव ने पूरा लाभ उठाया. उस दौर में धर्म की राजनीति भी तेज हो गई. ऐसे में मुलायम ने मुसलिम और पिछड़ी जातियों का गठजोड़ बना कर अपना जनाधार बढ़ाया. 1993 में मुलायम सिंह यादव ने दलित जातियों की राजनीति करने वाली बहुजन समाज पार्टी को साथ मिलाया और दूसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए. इस के बाद केंद्र की राजनीति में भी मुलायम ने दखल दिया और कुछ समय के लिए रक्षामंत्री बने. लगभग 10 साल प्रदेश की सत्ता से बाहर रहने के बाद 2003 में मुलायम सिंह यादव तीसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने.

परिवार का बोलबाला

2012 के विधानसभा चुनाव में सपा को पहली बार उत्तर प्रदेश में बहुमत से सरकार बनाने का मौका मिला. सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया. इस से यह साफ हो गया कि मुलायम ने अपनी पार्टी की पतवार बेटे अखिलेश यादव को सौंप दी है. अगर देखा जाए तो मुलायम ने बेटे अखिलेश को ही आगे नहीं किया है,  उन का पूरा परिवार राजनीति में आगे बढ़ रहा है. लोकसभा में मुलायम परिवार के 4 सदस्य हैं. इन में उन के साथसाथ भाई रामगोपाल यादव, भतीजा धर्मेंद्र यादव और बहू डिंपल यादव शामिल हैं.

उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के अलावा मुलायम के भाई शिवपाल यादव कैबिनेट मंत्री हैं. उन का बेटा आदित्य यादव प्रादेशिक कोऔपरेटिव फैडरेशन यानी पीसीएफ का चेयरमैन है. इस तरह से मुलायम परिवार के 3 सदस्य राज्य की राजनीति में सक्रिय हैं. मुलायम परिवार के दूसरे 2 सदस्य राजनीति की दहलीज पर खडे़ हैं. उन के भाई डा. रामगोपाल यादव का बेटा अक्षय यादव आगरा से लोकसभा का चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा है. मुलायम के दूसरे बेटे प्रतीक यादव को चुनाव लड़ाने का प्रयास चल रहा है. आजमगढ़ में पार्टी के कार्यकर्ता मांग कर रहे हैं कि प्रतीक यादव को लोकसभा का चुनाव लड़ाया जाए. शिवपाल यादव के दूसरे बेटे अंकुर यादव भी राजनीति में कदम रखने की तैयारी में हैं.

लंबी बेल वंशवाद की

भारतीय राजनीति में वंशवाद की बेल लंबी है. चुनावों में हर नेता दूसरे पर आरोप लगाता है. जनता की नजरों में वंशवाद कोई खास मुद्दा नहीं रह गया है. जनता की नजर में अगर यह कोई मुद्दा होता तो शायद परिवार के लोग चुनाव जीत कर नहीं आते.

शुरुआत में गांधीनेहरू खानदान पर वंशवाद को बढ़ाने का आरोप लगता रहता था. जैसेजैसे समय आगे बढ़ा, हर दल में ऐसा वंशवाद दिखाई देने लगा. कश्मीर में अब्दुल्ला वंश, मध्य प्रदेश में सिंधिया वंश, हरियाणा में देवीलाल और चौटाला वंश, हिमाचल में धूमल वंश, ओडिशा में पटनायक वंश जैसे कुछ खास वंश हैं.  इन के अलावा बिहार में लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान सहित उत्तर प्रदेश में तमाम ऐसे नेता हैं जिन के परिवार के लोग राजनीति में सक्रिय हैं. इन में भारतीय जनता पार्टी के नेता भी शामिल हैं. राजनाथ सिंह, लालजी टंडन से ले कर कई नेताओं के नाम इस में शामिल हैं. सिंधिया और जसवंत सिंह का परिवार भी ऐसे ही वंशवाद में फंसा हुआ है.

दक्षिण भारत में एम करुणानिधि और एच डी देवेगौड़ा तो महाराष्ट्र में ठाकरे और पंजाब में बादल परिवार इस के उदाहरण हैं. अब राजनीति भी ठीक उसी तरह से हो गई है जैसे कोई कारोबार, जहां बाप के बाद बेटा और बेटी का राजतिलक हो जाता है. राजनीतिक दलों में उन के कार्यकर्ता भी यही चाहते हैं कि वंशवाद चलता रहे जिस से वे भी अपने परिवार के लोगों को सही तरह से स्थापित कर सकें. केवल चुनाव

की ही बात नहीं है, दलों में होने वाले संगठनात्मक चुनावों में भी अब केवल दिखावा भर रह गया है. दल का प्रमुख अपने परिवार के नेताओं को भी आगे रखना चाहता है. यही वजह है कि अब दलों में चुनाव नहीं होता. दल के प्रमुख नेता का फैसला ही दूसरे लोग सिरमाथे पर रखते हैं. जनता और पार्टी कार्यकर्ता भी वंशवाद की मुखालफत नहीं करते.  इसी वजह से यह कभी चुनावी मुददा नहीं बन सका.

गोरखालैंड को भूल गए दार्जिलिंग के जसवंत

दार्जिलिंग की जनता ने जिन अरमानों से जसवंत सिंह को अपना प्रतिनिधि चुना था उन पर जसवंत ने पानी ही नहीं फेरा, बल्कि उन्होंने अपने संसदीय क्षेत्र से किनारा भी कर लिया है. आलम यह है कि गुस्साई जनता ने थाने में उन की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करा दी है. जिस जनता और क्षेत्र की बदौलत जसवंत सिंह ने इतने दिनों तक सियासत की, उन को उन्होंने कैसे ठगा, पढि़ए गोपी कुमार दास की रिपोर्ट.

दार्जिलिंग संसदीय क्षेत्र के गोरखा जनमुक्ति मोरचा समर्थित भाजपा सांसद जसवंत सिंह की समूचे दार्जिलिंग पहाड़ में इन दिनों स्थिति काफी दयनीय है. वे कब अपने संसदीय क्षेत्रों के दौरे पर यहां आते हैं और कब वापस चले जाते हैं, किसी को खबर नहीं होती. ऐसा इसलिए हो रहा है कि उधेड़बुनों से भरी दार्जिलिंग पहाड़ की राजनीतिक गतिविधि के प्रति सांसद महोदय ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.

पिछले लोकसभा चुनाव से पहले दार्जिलिंग पहाड़ ही में अपना एक मकान बनवाने की घोषणा करने वाले जसवंत सिंह दार्जिलिंग पहाड़ से पता नहीं क्यों इतना रूठे कि भविष्य में इस क्षेत्र से चुनाव न लड़ने की घोषणा कर डाली.

वैसे भी दार्जिलिंग पहाड़ की किसी भी स्थिति से किसी तरह के सरोकार की इच्छा तक न रखने वाले जसवंत सिंह पर लोगों की दिलचस्पी पनपाने का काम गोजमुमो यानी गोरखा जनमुक्ति मोरचा द्वारा ही किया गया था.

गौरतलब है कि गोजमुमो यहां की 100 साल पुरानी मांग, गोरखालैंड को राज्य बनाया जाए, पर ही केंद्रित था. लेकिन अब जब खुद गोजमुमो गोरखालैंड से लुढ़क कर गोरखा टैरिटोरियल ऐडमिनिस्टे्रशन यानी जीटीए पर पहुंची है, ऐसी स्थिति में सांसद महोदय के प्रति लोगों में बचीखुची दिलचस्पी भी काफूर होनी स्वाभाविक है. अक्तूबर के महीने में स्थिति इतनी बदतर हुई कि दार्जिलिंग पहाड़ की बदलती हुई राजनीतिक गतिविधियों से नावाकिफ सांसद महोदय की कलिंपोंग थाने में गुमशुदगी की प्राथमिकी तक दर्ज कराई गई. प्राथमिकी दर्ज कराने वाले दल गोटाफो यानी गोरखा टाइगर फोर्स की शिकायत थी कि दार्जिलिंग पहाड़ की बदलती हुई राजनीतिक गतिविधियों पर सुध न लेने वाले व दार्जिलिंग पहाड़ न आने वाले हमारे सांसद जसवंत सिंह को पुलिस ढूंढ़ निकाले. गोटाफो की इस अजीबोगरीब मांग पर पुलिस के आला अफसर एकदूसरे का मुंह ताकते रह गए थे.

कोहराम के वक्त कहां थे सांसद

इस घटना के कुछ समय बाद जब गतिविधियों में स्थिरता आई तो सांसद महोदय के यहां आने के समाचार छपे लेकिन तब लोगों ने कोई सुध नहीं ली. वे आए और चले भी गए. लोगों का मानना था कि जब दार्जिलिंग पहाड़ में कोहराम मचा हुआ था और सांसद की तरफ से सांत्वना की यहां आवश्यकता थी तब वे कहां थे? अब जब हालात सामान्य हुए तो आने का क्या अर्थ बनता है.

दार्जिलिंग पहाड़ में इन दिनों राजनीतिक पार्टियों के मुकाबले आम लोग सांसद पर ऐसेऐसे सवाल खड़े कर रहे हैं जो राजनीतिक पार्टियों की समझ से भी परे हैं. दरअसल, मामला गोरखालैंड का है और जसवंत सिंह को समर्थन गोरखालैंड राज्य बनाए जाने की मांग को जोरदार तरीके से उठाने के लिए मिला था. आज यह मामला दिनप्रतिदिन तूल पकड़ रहा है. लोग सांसद के गैर जिम्मेदाराना रवैये पर फिकरे कसने लगे हैं. कई क्षेत्रवासियों के विचार में तो सांसद पद के लिए जसवंत सिंह की उम्मीदवारी ही गलत थी. उन के स्थान पर गोजमुमो यदि अपने ही बीच के किसी व्यक्ति को उम्मीदवार बनाता तो बेहतर होता, जो दार्जिलिंग पहाड़ की हर स्थिति के समय कम से कम यहां तो होता.

उधर राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि दार्जिलिंग संसदीय क्षेत्र से बाहरी लोगों को लोकसभा चुनावों में खड़ा करने का प्रचलन पहले से ही चला आ रहा है. जसवंत सिंह को समर्थन देने के लिए मात्र गोजमुमो को कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता. वर्ष 1989 में संपन्न लोकसभा चुनाव में यहां के सत्तासीन दल गोरामुमो यानी गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा के मुखिया सुवास घिसिंग ने भी दिल्ली के कांगे्रसी नेता इंद्रजीत खुल्लर का समर्थन कर यहां से चुनाव जिताया था. वे भी यहां के लिए नकारा ही सिद्ध हुए थे.

इधर, अपने द्वारा समर्थित जसवंत सिंह की दार्जिलिंग पहाड़ के प्रति उदासीनता पर गोजमुमो चुप्पी साधे हुए है. पार्टी के अध्यक्ष बिमल गुरुंग, प्रवक्ता व विधायक डा. हर्क बहादुर छेत्री जसवंत सिंह पर पत्रकारों द्वारा उठाए गए सवालों को हवा में उड़ा रहे हैं, जबकि अन्य राजनीतिक पार्टियों के नेता डंके की चोट पर यह कहने लगे हैं कि गोरखा जनमुक्ति मोरचा ने जितने गलत निर्णय लिए हैं उन में से एक अहम गलत निर्णय जसवंत सिंह का पिछले लोकसभा चुनाव में समर्थन करना था.

सांसद महोदय नहीं आए

मौजूदा वर्ष के 3 माह (जुलाई, अगस्त और सिंतबर) के दौरान दार्जिलिंग पहाड़ में राजनीतिक सरगर्मियां जोरों पर रहीं. क्षेत्र में अगस्त माह तो पूरा बंद में गुजरा. जुलूसधरने यहां तक कि आत्मदाह आदि की घटनाएं चरम पर रहीं. ऐसी विकट स्थिति में भी इस क्षेत्र के सांसद का यहां एक बार भी दीदार नहीं हुआ. राजनीतिक पार्टियों के स्थानीय नेताओं द्वारा दिल्ली स्थित सांसद के

निवास स्थल पर जा कर उन से औपचारिक मुलाकात करने की खबरें आईं लेकिन उन मुलाकातों का ब्योरा मालूम नहीं हुआ. हां, यह अलग बात है कि एकाध निजी टीवी चैनल में सांसद जसवंत सिंह दार्जिलिंग की उस समय की राजनीतिक गतिविधियों पर अपना दृष्टिकोण पेश करते हुए दिखे. टीवी पर उन के विचारों पर न किसी दार्जिलिंग- वासी ने सीटी बजाई, न उन्हें शाबाशी दी.

बहरहाल, जसवंत सिंह को लोकसभा के लिए अपना प्रतिनिधि चुनने वाले दार्जिलिंगवासी खुद को खुद के द्वारा ठगा महसूस कर रहे हैं. वे जसवंत सिंह से नाराज तो हैं लेकिन कुछ कर नहीं सकते. वे उन्हें संसद से वापस नहीं बुला सकते क्योंकि संविधान ने जनता को ऐसा अधिकार नहीं दिया है. वहीं, जसवंत सिंह ने पहले ही यह फैसला कर लिया है कि वे दार्जिलिंग क्षेत्र से दोबारा चुनाव नहीं लड़ेंगे. उन्हें यह पूरा आभास हो गया है कि वे दार्जिलिंगवासियों को फिर से बेवकूफ नहीं बना पाएंगे.

बिन लालू सब सून

अपनी ठेठ स्टाइल में सियासत कर बिहार में दशकों सत्ता की मलाई जीमने वाले राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाला भारी पड़ गया. इसी चारे के चलते जेलदर्शन को भेजे गए लालू के बिना बिहार की सियासी जमीन, राजद और घरआंगन कितने सूने हैं, बता रहे हैं बीरेंद्र बरियार ज्योति.

‘‘ऐ गाय चराने वालो…ऐ सूअर पालने वालो…ऐ कूड़ा बीनने वालो… ऐ झोंपडि़यों में रहने वालो…ऐ बकरी दुहने वालों…ऐ दलित और पिछड़ों के बेटो, पढ़नालिखना सीखो.’’ साल 1990 में बिहार की सत्ता संभालने के बाद लालू प्रसाद यादव अपनी हर सभा में अपने भाषण की शुरुआत इन्हीं पंक्तियों से करते थे. उन्होंने गरीबों और दलितों को पढ़ने की नसीहत तो दी पर सत्ता के नशे में बौरा कर घोटालों के जाल में फंस गए. जिस का नतीजा है कि 950 करोड़ रुपए के चारा घोटाले के मामले में उन्हें और उन के कुनबे को जेल की सलाखों के पीछे ठूंस दिया गया है.

लालू को 5 साल की कैद और 25 लाख रुपए के जुर्माने की सजा सुनाई गई है. उन के जेल जाने के बाद उन की सियासत और उन की पार्टी मटियामेट होने के कगार पर पहुंच गई है. जिस पार्टी को लालू ने तिनकातिनका जोड़ कर बड़ी ही मशक्कत से तैयार किया था, वह लालू के जेल जाने के बाद बिखरने के कगार पर पहुंच गई है.

लालू स्टाइल की ठेठ गंवई सियासत की कमी आज बिहार को खल रही है. बिना किसी लागलपेट के अपनी धुन में अपने मन की बात और भड़ास मौकेबेमौके कह देने वाले लालू यादव के बगैर बिहार का राजनीतिक गलियारा सूना सा पड़ गया है. किसी को हड़काने और पुचकारने, दोनों की कला में लालू को महारत हासिल थी और इस कला का उन्होंने सियासत में जम कर इस्तेमाल किया और खूब फायदे भी उठाए. वर्ष 2005 के विधानसभा चुनाव के दौरान पटना के ही दानापुर इलाके में लालू की सभा थी. उन के समर्थकों की भीड़ से मैदान पट चुका था. प्रैसवालों के बैठने के लिए रिजर्व सीट पर भी राजद के कार्यकर्ताओं ने कब्जा जमा लिया. सीट को ले कर प्रैसवालों और आयोजकों के बीच गरमागरम बहस चल ही रही थी कि लालू मंच पर आ गए. प्रैसवालों ने उन्हें देखते ही कहा कि वे प्रोग्राम कवर नहीं करेंगे. लालू ने पहले उन्हें समझाया पर जब प्रैसवाले जिद पर अड़ कर सभास्थल से जाने लगे तो लालू ने हंसते हुए कहा, ‘बिना लालू यादव के समाचार का तुम लोगों का अखबार बिकेगा क्या? संपादक पूछेगा कि लालू की खबर क्यों नहीं लाए तो क्या जवाब दोगे?’

पटना के सर्कुलर रोड का 10 नंबर बंगला सूबे की मुख्यमंत्री रह चुकीं राबड़ी देवी का सरकारी ठिकाना है. लालू के जेल जाने के बाद अब वहां न नेताओं, कार्यकर्ताओं का हुजूम है न सरकारी लावलश्कर है और न ही बड़ीबड़ी चमचमाती गाडि़यों का काफिला है. खालीखाली कुरसियां हैं. खालीखाली तंबू है, खालीखाली डेरा है. न तालाब में रेहू और मांगुर मछलियों की छईछपाछप है और न ही बड़ीबड़ी हांडियों में बनते बासमती चावल की खुशबू. हमेशा खुला रहने वाले क्वार्टर का मेनगेट अब हमेशा बंद रहता है और कभीकभार इक्कादुक्का गाड़ी के आने पर घर्र…घर्र…की तेज आवाज के साथ खुलता है और फिर बंद हो जाता है.

कुछ यही नजारा बीरचंद पटेल पथ पर कायम सरकारी आवास नंबर-2 के राष्ट्रीय जनता दल के दफ्तर का भी है. हर गेट पर ताला जड़ा हुआ है. पार्टी के छोटेबड़े नेता कभीकभी आते हैं और कुछ देर के बाद चले जाते हैं. दिनरात गुलजार रहने वाले इस दफ्तर में मरघट सा सन्नाटा पसरा रहता है. लालू यादव के कई साथी, भरोसेमंद सिपहसालार और उन के साथ रह कर सत्ता की मलाई उड़ाने वाले फुर्र हो चुके हैं. जो उन के साथ हैं वे भी अब उन का दामन छोड़ कर कहीं और ठिकाना बनाने का सही मौका ढूंढ़ने में लग गए हैं.

सुख के सब साथी

वर्ष 1990 से 2005 तक बिहार की सियासत और सरकार पर छाई रही लालूराबड़ी की जोड़ी आज अपने सियासी जीवन के सब से बुरे दौर से गुजर रही है. सत्ता क्या गई, उन के सारे भरोसेमंद 1-1 कर उन से कन्नी काट गए. सत्ता के संघर्ष से ले कर सत्ता का सुख भोगने वाले उन के ज्यादातर साथी आज उन के सब से बड़े सियासी दुश्मन नीतीश कुमार की गोद में बैठे हुए हैं. वही किस्सा है, देखी जमाने की यारी, बिछड़े सभी बारीबारी…

सजा मिलने के बाद लालू संसद सदस्यता से हाथ धोने वाले पहले और जगदीश शर्मा दूसरे सांसद बन गए हैं. इस के पहले कांगे्रस के राज्यसभा सदस्य रशीद मसूद की सदस्यता भी सजा मिलने के बाद जा चुकी है.

गौरतलब है कि 10 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश जारी करते हुए कहा था कि 2 साल या इस से ज्यादा सजा पाने वाले नेता 6 सालों तक चुनाव नहीं लड़ सकेंगे. इस लिहाज से अगर ऊपरी अदालतों से राहत न मिली तो लालू यादव अब अगले 11 सालों यानी साल 2023 तक चुनाव नहीं लड़ सकेंगे.

लालू को सजा मिलने और चुनाव नहीं लड़ पाने की हालत में उन की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल यानी राजद का बंटाधार होना तय माना जा रहा है. राजद के ही एक बड़े नेता दबी जबान में कहते हैं कि लालू का घमंड ही उन्हें ले डूबा है. राजद ‘वन मैन शो’ बन कर रह गया. कई मौकों पर पार्टी में सैकंड लाइन के नेता को आगे करने के बजाय अपनी बीवी और सालों को मौका देते रहे. 1995 में जब चारा घोटाले में फंस कर लालू को जेल जाना पड़ा तो पार्टी के किसी नेता को मुख्यमंत्री बनाने के बजाय अपनी बीवी राबड़ी देवी को किचन से निकाल कर मुख्यमंत्री की कुरसी पर बिठा दिया था, उसी समय से पार्टी के भीतर ऊहापोह की हालत पैदा होने लगी थी जिसे लालू जान कर भी अनदेखी करते रहे.

साल 1977 में 29 साल की उम्र में पहली बार सांसद बने लालू यादव पिछले 3 दशकों से बिहार की राजनीति पर छाए रहे. इस दौरान उन्होंने अपनी बीवी राबड़ी देवी के साथ मिल कर 15 सालों तक बिहार पर राज किया और यूपीए-1 की हुकूमत के दौरान रेलमंत्री के तौर पर दिल्ली की सियासत पर भी धौंस जमाते रहे. उन के जेल जाने के बाद राजद और लालू की सियासत की आंच ठंडी पड़ने लगी है. उन के कद का कोई दूसरा नेता राजद के पास है ही नहीं. राजद नेताओं और कार्यकर्ताओं को बांध कर रखना राबड़ी देवी के लिए सब से बड़ी चुनौती है.

कुछ महीने पहले जब लालू के कानूनी सलाहकारों ने उन्हें बताया था कि चारा घोटाले के मामले में उन का जेल जाना तय है तो उन्होंने पार्टी के सीनियर लीडरों को पार्टी की कमान सौंपने के बजाय अपने बेटे तेजस्वी यादव और तेजप्रताप यादव के साथ बेटी मीसा भारती को आगे बढ़ाने की पुरजोर कोशिश शुरू कर दी थी.

राबड़ी के लिए चुनौती

बिहार और दिल्ली की सियासत में अलगथलग पड़े लालू के सामने सब से बड़ी मुश्किल और चुनौती अपनी पार्टी राजद को टूटने और बिखरने से बचाना है. पार्टी में रघुवंश प्रसाद सिंह, जगदानंद सिंह, अब्दुल बारी सिद्दीकी, रामकृपाल यादव जैसे कई धुरंधर और असरदार नेता हैं, पर लालू ने सभी के लिए सीमाएं तय कर रखी थीं. उन की हालत ऐसी कर के रखी कि लालू के बगैर वे बेकार साबित हों. अब जो हालात पैदा हुए हैं उन में पार्टी सांसदों और विधायकों को बांध कर रखना राबड़ी के लिए सब से बड़ी चुनौती है.

गौरतलब है कि बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं जिन में से 4 पर लालू की पार्टी का कब्जा है, वहीं 243 सीटों वाले बिहार विधानसभा में राजद के 22 विधायक हैं.

लालू यह कभी समझ ही नहीं सके कि पिछले 8 सालों में नीतीश बड़ी ही चालाकी से लालू और रामविलास पासवान की सियासी जड़ें काटते रहे. लालू और पासवान के लोकल लीडरों, दिग्गज नेताओं और भरोसेमंद साथियों को धीरेधीरे अपने पाले में करते रहे. दोनों दिग्गज नेता हाथ मलते रह गए. मुख्यमंत्री बनते ही नीतीश ने भांप लिया था कि जिन पिछड़ी और अनुसूचित जातियों को आरक्षण का फायदा नहीं मिल पाया, उन्हें स्पैशल सुविधाएं दे कर अपना पक्का वोटर बनाया जा सकता है.

ले डूबा अहंकार

इतना ही नहीं, दलितों में हाशिये पर रही जातियों को महादलित का दरजा दे कर उन्हें भी खास सुविधाएं मुहैया करा दीं, जिन में महादलितों को 3 डिसमिल जमीन देना मुख्य है. पंचायत चुनाव में अतिपिछड़ों और औरतों को 50 प्रतिशत आरक्षण लागू कर लालूपासवान की राजनीति का गला ही घोंट डाला था. लालू के बचपन के सखा और उन की पार्टी के थिंकटैंक रहे और फिलहाल जदयू सांसद रंजन प्रसाद यादव कहते हैं कि लालू का अहंकार ही उन्हें ले डूबा. 1974 के आंदोलन और बिहार से कांगे्रस को उखाड़ फेंकने में जीजान लगा देने वाले साथियों को दरकिनार कर के उन्होंने अपने परिवार, चाटुकारों और घोटालेबाजों को ही तवज्जुह दी, जिस का खमियाजा उन्हें अब भुगतना पड़ रहा है.      

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