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एफआईआर का अधिकार

सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण फैसला सुनाया है कि गंभीर अपराधों में सूचना मिलने पर प्राथमिकी का दर्ज न करने का स्थानीय थाने के पास कोई अधिकार नहीं है. अदालत का कहना है कि जब कानून कहता है कि हर नागरिक का कर्तव्य है कि वह पुलिस को उस की जानकारी में हुए अपराध की सूचना दे तो पुलिस का भी कर्तव्य है कि सूचना मिलने पर प्राथमिकी दर्ज कर के जांच शुरू करे.

आमतौर पर कहा जाता है कि पुलिस गरीब और कमजोर लोगों की शिकायतें दर्ज नहीं करती और उन्हें न्याय नहीं मिलता और इसी तरह बड़ी पहुंच वाले लोगों के खिलाफ भी वह रिपोर्ट दर्ज नहीं करती. यह सच है कि बड़े लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराने में शिकायत करने वालों को कई दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं और कई बार तो मामले उच्च न्यायालय की दखल के बाद दर्ज होते हैं.

यह निर्णय पुलिस के अधिकार घटाएगा या बढ़ाएगा, कहना कठिन है. यह तो मानना पड़ेगा कि पुलिस में भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं है. दिल्ली में हाल में 3 पुलिस वालों ने 20 हजार रुपए की रिश्वत न देने पर एक आटोरिकशा चालक के पिता को जिंदा जला डाला था.

प्राथमिकी को दर्ज करने के हथियार के मिलने के बाद पुलिस वाले किसी को भी उकसा कर उस से किसी भी पहुंच वाले के खिलाफ गंभीर आरोप लगवा कर वसूली कर लें तो सर्वोच्च न्यायालय कुछ न कर पाएगा.

यदि उच्च न्यायालय 400-500 किलोमीटर दूर हुआ तो आरोपी को कई रातें पुलिस हिरासत में बितानी होंगी ही, देश की छोटी अदालतों का नियम है कि जेल दो, बेल नहीं जबकि सर्वोच्च न्यायालय कितने ही निर्णयों में उलटा कह चुका है.

अपराधों का संज्ञान लेना पुलिस का काम है पर इस देश में कानूनों का दुरुपयोग करने वालों की कमी नहीं है. बेबात में मुकदमों को दर्ज कराना यहां बहुतों का खेल है. यह दूसरे पक्ष को परेशान करने का सस्ता व आसान नुसखा है. शिकायत खारिज होतेहोते 5-10 साल लग जाते हैं और तब तक झ्ूठी, बेबुनियाद या सतही मामले की शिकायत करने वालों को कठघरे में खड़ा करने की आरोपी में हिम्मत नहीं बचती.

अदालती कार्यवाही का कैसे दुरुपयोग होता है, इस का ताजा उदाहरण फिल्म ‘…राम-लीला’ है जिस पर पहले एक व्यक्ति ने उच्च न्यायालय में प्रतिबंध लगाने की मांग की, जो ठुकरा दी गई तो कुछ दूसरे लोग नीचे की कोर्ट से उसे रिलीज करने के खिलाफ एकतरफा आदेश ले आए. ऐसा ही प्राथमिकी के मामले में होगा, शिकायत करने वाला प्राथमिकी दर्ज कर के ठाट से मजे लूटेगा और आरोपी अदालतों व पुलिस थानों के चक्कर लगाएगा.

 

न्यायालय और कट्टरपंथी

उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय ने संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘…राम-लीला’ के नाम पर रामलीला आयोजकों की आपत्ति के चलते प्रतिबंध लगा कर यह साबित कर दिया है कि इस देश में वैचारिक स्वतंत्रता केवल संविधान के पृष्ठों पर लिखी झ्ूठी, नकली लाइनें हैं जिन पर कभी भी धार्मिक लोग धूल फेंक सकते हैं.

संविधान की उद्घोषणाएं कि प्रत्येक नागरिक को अपनी बात कहने का अधिकार है और नया सोचने का व उसे शब्दों में ढालने का उस के पास अवसर है, केवल मिथक हैं. अदालतें आमतौर पर सरकार व धर्म के कट्टरपंथियों की बात मान कर कट्टर धर्म को देश, संविधान, जनता और मानव से ऊपर रख कर उन्हें पारलौकिक स्तर दे देती हैं.

रामलीला कमेटियों को इस फिल्म के नाम पर आपत्ति इसलिए नहीं कि उन के तथाकथित भगवान की पोलपट्टी खोली गई है बल्कि इसलिए है कि यह उन के रामलीला के धंधे को चोट पहुंचाती है. हर धर्म असल में धर्म की दुकानदारी करने वालों का धंधा है जिस में ग्राहकों को बिना कुछ बदले में दिए लूटा जाता है. धर्म के प्रचार का कमाल यह है कि लोग लाइन लगा कर न केवल लुटने आते हैं, लूटने वालों के कहने पर मरनेमारने को तैयार भी हो जाते हैं.

उच्च न्यायालय द्वारा बिना दूसरे पक्ष का तर्क सुने और बिना पूरी बहस के इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा देना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है जिस को आमतौर पर न्यायालय लिखित संविधान व कानूनों से भी ऊपर मानते हैं.

इस तरह के प्रतिबंध का अर्थ है कि कहीं भी, कोई भी 20-30 आदमी मिल कर धर्म के नाम पर अदालत के माध्यम से किसी का भी मुंह बंद कर सकते हैं जबकि उन्हें खुद धर्म के नाम पर अस्वाभाविक, असंगत, कपोलकल्पित कथाएं कहने, सुनाने, दर्शाने की पूरी छूट है.

रामलीलाएं किस तरह का जीवन उद्धार करती हैं, इस राम-लीला को भक्त की दृष्टि से नहीं, तर्क की दृष्टि से देख कर कोई भी बता सकता है. रामलीलाओं में जब सीता के रूप में कोई मुकुट लगाए, कांजीवरम साड़ी पहने किसी लड़के को रावण की वाटिका में बैठे दिखाया जाता है तो किसी का अपमान नहीं होता, किसी को ठेस नहीं पहुंचती क्योंकि यह काम पैसे बटोरने के लिए खुद धर्म के ठेकेदार करते हैं.

न्यायालयों से आशा की जाती है कि वे नई सोच, नए प्रयोगों, नए विचारों, नए विश्लेषणों का स्वागत करें, उन्हें सुरक्षा दें. प्रतिबंध लगा कर विवाद तो खत्म कर दिया गया पर कट्टरपंथियों को एक और विजय दे दी गई.

 

नैना लाल किदवई की मंशा

हौंगकौंग ऐंड शंघाई बैंकिंग कौर्पोरेशन यानी एचएसबीसी की भारत की प्रमुख ने फैडरेशन औफ इंडियन चैंबर्स औफ कौमर्स ऐंड इंडस्ट्री यानी फिक्की की अध्यक्ष की हैसियत से नैना लाल किदवई ने सरकार से सुधारों की मांग की है. अमीर खरबपति उद्योगपति जब भी सुधारों की बात करते हैं तो उन का मतलब ऐसे सुधारों से होता है जिन से उन का मुनाफा बढ़े. उन्हें सरकार के काम में सुधार नहीं चाहिए, यह स्पष्ट है उन मांगों से जो उन्होंने की हैं.

उन्होंने वर्ल्ड बैंक की विश्व के देशों में काम करने के माहौल पर जारी रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा है कि विदेशों में काम करने में विदेशियों को जो दिक्कतें आती हैं उन में भारत का स्थान 131 से गिर कर 134 हो गया है. यानी भारत की अपेक्षा 133 देशों में काम करना आसान है. चलिए यह मान लेते हैं, पर वे कौन सी दिक्कतें हैं जिन के बारे में नैना लाल किदवई शिकायतें कर रही हैं.

पहली शिकायत है कि भारत में बिजनैस करने में नियमों, अनुमतियों की भरमार है. ये नियम राज्यों व केंद्र के मंत्रालयों ने बनाए हैं. उन से अनुमति लेने के लिए सचिवालयों के बरामदों में बारबार जाना होता है और सचिव व अपर सचिव स्तर के अधिकारियों को पटाना होता है. नैना लाल किदवई किसी कसबे के दुकानदार की बात नहीं कर रहीं जिसे शौप ऐंड एस्टैबलिशमैंट कानून के अंतर्गत लाइसैंस लेने या बिक्री कर विभाग में पंजीकरण कराने के लिए जाना होता है.

वे शिकायत करती हैं कि भूमि अधिग्रहण मुश्किल हो गया है. उन्हें उन किसानों की चिंता नहीं जिन की जमीन को सरकार मैले कागज पर टाइप कर के, उन्हें नाममात्र का मुआवजा दे कर, उन से छीन लेती है जबकि किसान भी छोटा उद्योगपति है, उत्पादन करता है, 2-3 नौकर रखता है.

उन्हें पर्यावरण संबंधी कानूनों से शिकायत है पर उन उद्योगों से नहीं जो अपना गंदा पानी नदियों में डाल रहे हैं और गंदा वेस्ट खेतों में डाल देते हैं.

उन्हें शिकायत है कि औनलाइन पेमैंट की सुविधा अभी तक उपलब्ध नहीं हो रही पर उन्हें उन मंडियों और बाजारों के व्यापारियों की चिंता नहीं जहां बिक्री कर व आय कर के अधिकारी समूह बना कर डाकुओं की तरह छापे मार कर उगाही करते हैं.

असल में इस देश में उद्योगपति बनते ही इन नियमों के अंबार से हैं. जो लोग नेताओं और अफसरों के निकट होते हैं वे सफल हो जाते हैं. तभी तो नीरा राडिया टेपों में टाटा, अंबानी, बिड़ला घरानों द्वारा मनचाहे मंत्रियों की नियुक्तियों की बातें हैं. नैना लाल किदवई उद्योगों की कमजोरियों को सरकारी तंत्र के बहाने छिपा रही हैं जबकि सरकारी तंत्र व्यापारियों और कारखानेदारों को पनपने नहीं देना चाहते.

औद्योगिक कंपनियों की संस्था यानी फिक्की को पहले छोटे व्यापारियों की सुविधाओं का खयाल करना चाहिए ताकि उद्योगों का माहौल सुधरे. बड़े उद्योगपति ही अरबों का मुनाफा कमाएं, ऐसे सुधार देश को नहीं चाहिए, छोटे व्यापारी, छोटे उद्योगपति भी 2-4 लाख रुपए सालाना कमा लें, यह ज्यादा जरूरी है.

 

आपके पत्र

सरित प्रवाह, नवंबर (प्रथम) 2013

आप की संपादकीय टिप्पणी ‘सेना में भ्रष्टाचार’ पढ़ कर काफी निराशा हुई कि सेना भी भ्रष्ट हो गई है. सेना के प्रति लोगों में अगाध विश्वास है. भारत के लोगों में सेना के प्रति हमेशा यह भावना रही है कि सैनिक देश के रक्षक हैं, उन के साए में वे सुरक्षित हैं.

पूर्व सेना प्रमुख विजय कुमार सिंह व ब्रिगेडियर विजय मेहता के कुकृत्यों को जान कर काफी दुख हुआ. अंगरेज हमारे देश से बहुत सी दुर्लभ चीजें लड़ाइयों में जीत कर इंगलैंड ले गए थे. अंगरेज सैनिक तो पराए थे, शत्रु थे लेकिन यदि देश की संपत्ति की रक्षा के लिए तैनात सैनिक ही लूटपाट करें तो ऐसी करतूत जनता में सैनिकों के प्रति विश्वास को ठेस पहुंचाती है. सैनिकों को अभी भी बहुत आदर से देखा जाता है और सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार की अनदेखी की जाती है. सेना जब पैसे से खेलेगी तो कुछ सैन्य अधिकारियों का मन डोलेगा ही, खासतौर पर जब पता हो कि कोई हिसाबकिताब नहीं रखा जा रहा. सेना को हमेशा ईमानदारी का दामन ही थामना चाहिए क्योंकि वह हमारे लिए आदर्श है.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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आप की टिप्पणियां ‘प्रधानमंत्री पद का लालच’, ‘समाजसेवा का मोल नहीं’ व ‘निशाने पर बैटरी रिकशा’ पढ़ कर अच्छा लगा. यह कितनी हास्यास्पद बात है कि 2014 में होने वाले आम चुनाव के लिए भारतीय जनता पार्टी ने जिस व्यक्ति को अपना प्रधानमंत्री घोषित किया है उस पर लगे दाग के छींटे पूरी उम्र नहीं धुल सकते हैं.

जहां तक समाजसेवा की बात है तो समाजसेवा असल में अपनी ही सेवा होती है. आज की गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में समाज के अधिकांश तबके अपना उल्लू सीधे कर रहे हैं, चंद लोग ही ऐसे हैं जिन का मकसद दूसरों की किसी न किसी रूप में सहायता करना है और इन लोगों को ढिंढोरा पीटना नहीं आता है.

जब दिल्ली जैसे महानगर में प्रदूषण रहित बैटरी रिकशा खूब लोकप्रिय हो रहे हैं तो मात्र उन लोगों ने विरोध करना शुरू कर दिया है जिन्हें रिश्वत लेने का चस्का लगा हुआ है. वे इन्हें परमिट लाइसैंस, रोड टैक्स की चपेट में लाने की मांग कर रहे हैं.

प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘समाजसेवा का मोल नहीं’ बहुत पसंद आई. विशेषकर ‘समाजसेवा असल में खुद की सेवा है.’ यह वाक्य अपनेआप में बहुत कुछ समेटे हुए है. किसी की सेवा कर के खुद को जो संतोष मिलता है, उस का मूल्य वही समझ सकता है जिस ने ऐसा किया हो.

विदेशों में सभी समृद्ध व्यवसायी, सैलिब्रेटी ने रिटायर्ड हो कर अपनेपराए सभी के लिए समान रूप से अपना पैसा लगाया है. वहां वर्ण, धर्म व जातिभेद कुछ काम न आया. केवल परोपकार ही काम आया. जबकि अपने यहां के रिटायर नेता का किस प्रकार बेटे व बहू को टिकट मिले, कैसे उन्हें सरकारी बंगला खाली न करना पड़े आदि. सोचतेसोचते जीवन समाप्त हो जाता है.

कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘समाजसेवा का मोल नहीं’ में आज के स्वार्थी समाज को दूसरों की सेवा की ओर ले जाने का इशारा है. जब तक हम उस आनंद का अनुभव नहीं कर लेते जो किसी सूरदास को सड़क पार करा देने से मिलता है तब तक हमें समाजसेवा की बात थोथी लगेगी. इस आनंद को बिना अनुभव के नहीं जाना जा सकता.

किसी मजबूर व्यक्ति की समय पर मदद करने से जो शांति मिलती है वह ढेर सारी दौलत कमाने के बाद मिली खुशी से कहीं अधिक होती है. आज बिल गेट्स, अलगोर, बिल क्ंिलटन जैसे सक्षम अमीरों को दूसरों की सेवा से जो आनंद मिल रहा है वह उन की दौलत से मिले सुख से ज्यादा है. वैसे आज भारत में आजादी के पहले की अपेक्षा पैसे कमाने की भूख बहुत ही तेज हो गई है जिस से समाजसेवा की ओर कम लोगों का ही रुझान है.

माताचरण, वाराणसी (उ.प्र.)

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सटीक संदेश

सरिता के विगत अंक में आप ने देश की सुरक्षा पर सवालिया निशान लगाने की भविष्यवाणी की थी. देश की अर्थव्यवस्था हिचकोले खा रही थी, तब आप का संपादकीय आया था. आप ने देश की व्यवस्था की तुलना सामंतवाद से की थी व देश की सुरक्षा पर चिंता जाहिर की थी. आप की चेतावनी शब्दश: खरी निकली. आज भारतीय राजनेता राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ समझौते कर रहे हैं, जिस के चलते दुश्मन देशों के हौसले बुलंद हो गए हैं. आप की चिंता सही निकली, ‘सरिता’ के माध्यम से आप ने एक सटीक संदेश दिया.

महेंद्र भाटिया, अमरावती (महाराष्ट्र)

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सभी जनप्रतिनिधि एकसमान नहीं

नवंबर (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘नेताओं को सजा : घोटालेबाजों पर रुदन, शरीफों पर सितम’ में लेखक के तथ्यपरक विचार पढ़े. बेशक पूरा लेख आहतभरा सा लगा, क्योंकि जिस कुंठित सोच तथा शर्मनाक ही नहीं, बल्कि निंदनीय स्थिति में हमारे देश के बुद्धिमान लोग, ईमानदार, निस्वार्थ, त्यागी, प्रबुद्ध व दृढ़निश्चयी जनप्रतिनिधियों को बड़ी ही आसानी से भुला कर उन की कुर्बानियों व सेवाओं

को अतीत में ही विलुप्त मान कर इतिश्री कर लेते हैं, उस से तो लालूप्रसाद यादव, ओम प्रकाश चौटाला, रशीद मसूद, सुरेश कलमाड़ी, ए राजा सरीखे जनसेवक ही पैदा होंगे न. बेशक, सभी उंगलियां जिस तरह एकसमान नहीं होती, ठीक उसी तरह सभी जनप्रतिनिधि भी चाल, चरित्र व चेहरे से एकसमान नहीं होते. मगर क्योंकि अच्छे जननेताओं को हम उचित मानसम्मान

नहीं दे रहे हैं तो क्या राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार, लूटखसोट या फिर कर्तव्यविमुख संतरीमंत्रियों को हमें सजा देने की मांग नहीं करनी चाहिए या हमारी अदालतों को ऐसे भ्रष्ट, दुष्ट व पथभ्रष्ट तत्त्वों को मात्र इसलिए माफ कर देना चाहिए कि अपराध तो पीछे से ही होता चला आ रहा है या कि इन को दंडित किए जाने से भी संबंधित अपराध तो रुकेंगे ही नहीं. अगर ऐसा होने लगा तो न तो किसी नियमकानून की जरूरत रहेगी और न ही अदालतों की. इसलिए अपराधी नेताओं की सजा को अन्यथा न ले कर एक आवश्यक व उचित कदम ही माना जाना श्रेयस्कर होगा.

ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (दिल्ली)

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‘नेताओं को सजा : घोटालेबाजों पर रुदन, शरीफों पर सितम’ लेख में लेखक के विचारों ने देश की आम जनता, समाज, राजनेताओं, नौकरशाहों, व्यापारियों, उद्योगपतियों अभिनेताओं, खिलाडि़यों, कथावाचकों, धार्मिक संतों, गरीबों व समाजसेवियों के लिए एक अच्छा संदेश दे कर सरिता की गरिमा को यथावत रखा है. यह हकीकत है कि इस देश का समाज, धर्म, परिवार सम्मान उसी को देता है जो धनवान हो, चाहे उस ने धन, भ्रष्टाचार, अपराध, गरीबों का शोषण कर, धर्मसंस्कृति को ताक पर रख कर या राष्ट्रद्रोह जैसा अपराध कर के कमाया हो. जब तक वह धनवान कानून के शिकंजे में नहीं आ जाता, इस समाज, परिवार के लोग, रिश्तेदार, राजनेता, नौकरशाह, प्रतिष्ठित समाजसेवक धनवान व्यक्ति को ही उस को मानसम्मान दे कर उस का गुणगान करते रहते हैं.

देश के कुछ नेता, समाजसेवक, मजदूर, कृषक, पशुपालक, सैनिक, लेखक, वैज्ञानिक, शिक्षक या किसी भी जाति, धर्म, वर्ग, व्यवसाय का व्यक्ति, जिस ने भी देश को बनाने में ईमानदारीपूर्वक अपना कर्तव्य निर्वाह किया है व गलत तरीके से धन संग्रह नहीं किया है उस का मानसम्मान तो दूर की बात है उस के जीवन निर्वाह के लिए राज्य सरकार, केंद्र सरकार तक ने कभी कोई बात नहीं की. मतलब यह है कि जिस ने बेईमानी से धन कमा लिया वह बड़ा आदमी और जिस ने ईमानदारी से देश के लिए त्याग किया वह लाचार व्यक्ति बन कर रह गया.

जगदीश प्रसाद पालड़ी जयपुर (राज.)

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सरिता की वैब दुनिया

सरिता के वैब दुनिया में आने की शुभकामनाएं. दिल्ली प्रैस की दूसरी पत्रिकाओं का भी इंतजार है. पाठकों की सुविधा के लिए व पठनीयता को और ज्यादा प्रोत्साहन देने के लिए औनलाइन पत्रिकाएं महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं. बाजार पहुंचने और पत्रिका खरीद कर लाने से पहले पाठक यह जान लेना चाहता है कि उस पत्रिका में उस की रुचि की सामग्री है भी या नहीं. दिल्ली प्रैस प्रबंधन के निर्णय का तहेदिल से स्वागत.

नवंबर (प्रथम) अंक में ‘समाजसेवा का मोल नहीं’ संपादकीय टिप्पणी अच्छी लगी. खाद्य सुरक्षा के तरीके फेल होने के कारण ही देश में पर्याप्त अनाज होते हुए भी भूखों की संख्या में शर्मनाक इजाफा होता जा रहा है. जीवन का खालीपन भरने की और जागरूकता जगाने की जरूरत तो बहुत है परंतु कई बार इच्छा होते हुए भी बाहर जा कर कुछ करने का समय नहीं मिलता. इस के लिए मेरा मानना है कि किसी बड़े कार्य या अवसर का इंतजार न करें, क्यों न घर से ही इस की शुरुआत करें. ‘त्योहारों की उमंग’ और ‘बच्चे हों औनलाइन’ लेख अच्छे लगे और कहानी ‘इस में गलत क्या है’ का जवाब नहीं.      

पुनीता सिंह, वेस्ट ज्योति नगर (दिल्ली)

जख्मी शाहिद कपूर

आजकल फिल्मों में हीरो स्टंट्स खुद ही करते हैं. हालांकि इस के लिए विशेष सावधानी बरती जाती है पर कई बार वे जख्मी भी हो जाते हैं. फिल्म ‘आर…राजकुमार’ की शूटिंग के दौरान शाहिद कपूर को एक एक्शन सीन करना था. सीन वे खुद ही कर रहे थे. उन्हें एकसाथ अपने हाथ से कई बोतलें तोड़नी थीं. इसे करते वक्त उन के हाथों में चोट लग गई पर उन्होंने शूट जारी रखा. चौकलेटी हीरो की इमेज बदलने के लिए शाहिद जीतोड़ मेहनत कर एक्शन हीरो बनने की कोशिश कर रहे हैं. शाहिदजी, आप ऐक्ंिटग करें और एक्शन करें पर ध्यान रहे एक्शन करते वक्त समझदारी जरूरी है.

सनी देओल की किसिंग

सनी देओल को उस समय मुश्किल का सामना करना पड़ा जब उन्हें अपने से एकतिहाई उम्र की अभिनेत्री उर्वशी राउटेला को ‘किस’ करना था. दरअसल, 57 साल के सनी को 19 साल की उर्वशी के साथ फिल्म ‘सिंह साब-दी ग्रेट’ के लिए ‘किस’ सीन शूट करने में कई रीटेक लेने पड़े. स्क्रिप्ट की डिमांड पर उन्हें ये सीन करना पड़ा.
ऐसा नहीं है कि सनी ने ‘किस’ सीन पहले नहीं दिए, पर उम्र का इतना अंतर ही शायद उन की परेशानी की जड़ है. लेकिन करें तो क्या, सनी को शायद अब अपनी इमेज बदलने की जरूरत है क्योंकि अब दर्शकों को एक्शन की डोज के साथ रोमांस का तड़का भी खासा पसंद आ रहा है.
 

द्रष्टि के तेवर

टीवी अभिनेत्री द्रष्टि धामी के तेवर इन दिनों सातवें आसमान पर हैं. इस की वजह है कि रोहित शेट्टी अपनी नई फिल्म ‘सिंघम 2’ के लिए करीना कपूर की जगह उन्हें लेने की योजना बना रहे हैं.
शायद यही वजह है कि द्रष्टि इन दिनों स्टारडम के नशे में चूर हो कर चाहे विज्ञापन हो या टीवी शो, खूब फीस मांग रही हैं. सुनने में तो यह तक आया है कि वे कैटरीना कैफ और करीना कपूर के बराबर फीस मांगने लगी हैं. रोहित शेट्टी को द्रष्टि की मांग के बारे में कोई जानकारी नहीं है.
मैडम, जरा संभल कर फीस मांगिए, कहीं ऐसा न हो कि ये तेवर खुद पर ही भारी पड़ जाएं.

अलीसा खान की नवाबी

बौलीवुड में नवाब खानदान से एक नई अभिनेत्री अलीसा खान आई हैं. ये मोहम्मद नवाब गाजियाउद्दीन खानदान से हैं, जिन के नाम से गाजियाबाद का नाम पड़ा. पंजाबी म्यूजिक वीडियो में नजर आ चुकी अलीसा ने विक्रम भट्ट की नई फिल्म ‘आईना’ साइन की है. जिस में वे इमरान हाशमी के साथ काम करेंगी. कहा जा रहा है कि फिल्म में वे 2 बड़ेबड़े किसिंग सीन करने वाली हैं.
अलीसा कहती हैं, ‘‘मैं 20 साल की होने वाली हूं. खूबसूरत भी हूं तो अपना शरीर क्यों नहीं दिखा सकती. मैं नवाब की बेटी हूं तो नवाबों की तरह काम करूंगी.’’
अलीसाजी, आप की नवाबी के भी क्या कहने.

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