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रिकौर्ड उछाल के बाद अमेरिकी प्रभाव में गिरा बाजार

शेयर बाजार ने 9 दिसंबर को 230 अंकों की उछाल के साथ रिकौर्ड बनाया और बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई का संवेदी सूचकांक 21327 अंक तक पहुंच गया. इस की बड़ी वजह विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत को माना गया है.

भाजपा पर निवेशकों के विश्वास की वजह जो भी रही हो लेकिन यह तय है कि मतगणना के बाद भाजपा की जीत से पहले जब टीवी चैनलों पर एक्जिट पोल प्रसारित हो रहे थे तो उस का सीधा असर बाजार पर पड़ा और सूचकांक में भारी उछाल आया. बाद में बाजार लगातार 6 सत्र की गिरावट के बाद 19 दिसंबर को उछल गया. इस के पहले 6 दिन तक बाजार में गिरावट का माहौल रहा. इस की वजह महंगाई के 14 माह के उच्च स्तर पर पहुंचने और अमेरिका में फेड रिजर्व में प्रोत्साहन पैकेज में कटौती की खबर रही. इस के अलावा इसी दौरान संयुक्त राष्ट्र ने भारत के आर्थिक विकास का पूर्वानुमान 2013 के लिए घटा कर 4.8 प्रतिशत लगाया है. इसी दौरान बैंक कर्मचारियों की हड़ताल हुई जिस के कारण बैंकिंग क्षेत्र के शेयरों में भारी गिरावट दर्ज की गई.

रिजर्व बैंक ने भी अपनी नीतिगत दरों में कोई बदलाव नहीं किया है जबकि उम्मीद थी कि मौद्रिक समीक्षा में ऋण ब्याज दर में कटौती होगी और घर का सपना पूरा करने के लिए ऋण लेने वाले लोगों को कुछ राहत मिलेगी.

 

दार्जिलिंग की फिजा बदलीबदली सी

तेलंगाना को मिले अलग राज्य के दरजे के मद्देनजर क्षेत्रीय नेताओं ने देश के कई हिस्सों में पृथक राज्य की मांग कर के अपनी राजनीति चमकानी शुरू कर दी है. इसी कड़ी में गोरखालैंड का झंडा उठाए वहां के नेता दार्जिलिंग की आबोहवा खराब करने में जुटे हैं. अपने सियासी फायदे के लिए इन इलाकाई नेताओं ने पहाड़वासियों की रोजीरोटी को कैसे अस्तव्यस्त कर रखा है, बता रही हैं साधना.

तेलंगाना को अलग राज्य की मंजूरी मिलने के बाद दार्जिलिंग में अलग गोरखालैंड की मांग उठी और जोरदार तरीके से उठी. इस मुद्दे पर अनिश्चितकालीन बंद आयोजित किए गए. चाय और पर्यटन दोनों उद्योगों पर बंद का असर जो रहा सो रहा, सब से बुरा असर इन दोनों उद्योगों से जुड़े लोगों की आमदनी पर रहा. लेकिन बंद के नाम पर इतना नुकसान कराने के बाद जन मुक्तिमोरचा यानी जमुमो ने एक बार फिर से गोरखालैंड टैरिटोरियल ऐडमिनिस्ट्रेशन यानी जीटीए की कमान संभाल ली है. गौरतलब है कि तेलंगाना के राज्य बनने की तरह गोरखालैंड को अलग राज्य बनाए जाने की मांग करते हुए जमुमो के प्रधान बिमल गुरुंग ने जीटीए से इस्तीफा दे दिया था लेकिन पिछले दिसंबर के आखिरी हफ्ते में एक बार फिर से बिमल गुरुंग ने जीटीए के प्रधान के रूप में शपथ ले ली है.

पहाड़ की जनता सब देख रही है. इन पहाड़ी लोगों ने अलग गोरखा राज्य के लिए बिमल गुरुंग का साथ दिया. अपनी रोजीरोटी की परवा किए बगैर पहाड़ी पुरुष और घर का चूल्हाचौका बंद कर के पहाड़ी स्त्रियां घर से निकल कर सड़क पर उतरीं. पर अब बिमल गुरुंग ने राज्य सरकार के साथ समझौता कर लिया है.

सड़कों पर उतरे पहाड़वासी  

बंद और आंदोलन के दौरान बहुत सारे लोग गिरफ्तार हुए, बहुत सारी हिंसक वारदातें हुईं. वन विभाग के एक दफ्तर को फूंक दिया गया.

जमुमो के महासचिव रोशन गिरि का कहना है कि जहां तक अलग राज्य का सवाल है तो हमारा यह मुद्दा अब भी अपनी जगह बरकरार है. फिलहाल, हम लोग क्षेत्र के विकास में लगेंगे. गोरखाओं की भावी पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य के लिए जीटीए भी जरूरी है.

प्रदर्शन, बंद और हड़ताल की वजह से दार्जिलिंग की हवा बदल रही है. इस बदली हवा में आशंका व्यक्त की जा रही है कि हो सकता है सुवास घिसिंग की तरह बिमल गुरुंग भी पहाड़ छोड़ कर जाने को मजबूर हो जाएं.

तेलंगाना को अलग राज्य का दरजा मिल जाने के बाद दार्जिलिंग में ‘एक वक्त की खाएंगे, गोरखालैंड ले कर रहेंगे’ के नारे के साथ कमर कस कर पहाड़वासी सड़क पर उतरे. दार्जिलिंग प्रशासन जीटीए समझौते को ठोकर मार कर इस के तमाम पदों से बिमल गुरुंग समेत जन मुक्ति मोरचा के नेताओं ने इस्तीफा दिया. इस के बाद अनिश्चितकालीन बंद, जनता का स्वत:स्फूर्त कर्फ्यू जैसे कार्यक्रम के साथ आंदोलन जोर पकड़ता गया. नेताओं ने राज्य सरकार के साथ बातचीत करने के बजाय ‘दिल्ली’ को कहीं अधिक तूल दिया पर बात वहां भी नहीं बनी. लेकिन आंदोलन के कारण दार्जिलिंग का उद्योग व जनजीवन लगभग ठप ही है. बिमल गुरुंग आज ऐसे दोराहे पर खड़े हैं कि अब न तो आंदोलन से पांव पीछे करते बन रहा है न अनिश्चितकालीन बंद का वे नया रिकौर्ड बना रहे हैं, और न ही अलग राज्य की दिशा में कदम आगे बढ़ा पा रहे हैं. अब तो बस वे आंदोलन की सलीब ढो रहे हैं.

पहाड़ पर असंतोष

दार्जिलिंग से रोजीरोटी के जुगाड़ में कोलकाता आए जमुमो कार्यकर्ता राम बहादुर छेत्री, जो वहां पर्यटक बसचालक हुआ करते थे, का कहना है, ‘‘गोरखालैंड से अगर किसी को फायदा हुआ है तो वे हैं इस आंदोलन की अगुआई करने वाले नेता. पहले सुवास घिसिंग के पौबारह थे और अब बिमल गुरुंग के. गुरु सुवास घिसिंग को फलताफूलता देख चेले बिमल गुरुंग ने गोरखालैंड आंदोलन की लगाम जब अपने हाथों में ले ली थी तब पहाड़वासियों को बहुत सारे सब्जबाग दिखाए गए थे पर अब बिमल गुरुंग के भी रंगढंग में राजसी बदलाव आ गया है. जबकि पहाड़ में रोजीरोटी की किल्लत से पहाड़वासियों के सब्र का बांध टूट  रहा है.’’

सुवास घिसिंग की चुप्पी

कभी पहाड़ के बेताज बादशाह का दरजा पाने वाले सुवास घिसिंग को 5 साल पहले बाकायदा दार्जिलिंग से खदेड़ दिया गया था. आज तक वे दार्जिलिंग का रुख नहीं कर पाए हैं. यहां तक कि पत्नी के गुजरने के बाद भी दार्जिलिंग में उन्हें पैर रखने नहीं दिया गया था. उत्तर बंगाल के समतल क्षेत्र सिलीगुड़ी का माटीगोड़ा अब उन का ठिकाना है.

गौरतलब है कि 80 के दशक में सुवास घिसिंग की अगुआई में चरम आंदोलन के दौरान 1,200 लोगों की जान गई थी. इस के बाद राजीव गांधी की सक्रियता के नतीजे में सुवास घिसिंग, तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु और तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री बूटा सिंह के बीच दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद के गठन के लिए समझौता हुआ.

अब जनमुक्ति मोरचा के दिग्गज नेताओं के ठाटबाट और जीवनशैली के प्रति पहाड़वासियों में धीरेधीरे असंतोष फैल रहा है. रोजीरोटी की तलाश में बड़ी संख्या में पहाड़ी लोग दार्जिलिंग, कर्सियांग और कलिंपोंग से निकल कर सिलीगुड़ी व कोलकाता का रुख कर रहे हैं.

80 के दशक में गोरखालैंड आंदोलन के शुरू होने से ले कर दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद यानी डीजीएचसी के गठन तक जितना सुवास घिसिंग फलेफूले थे उतना दार्जिलिंग फलफूल नहीं पाया. इसी का फायदा उठा कर बिमल गुरुंग ने घिसिंग के खिलाफ पहाड़ में हवा बनाई थी और नए सिरे से गोरखालैंड आंदोलन को हवा दी. अब एक बार फिर से स्थिति वहीं चली गई है.

आंदोलन चलाने की मजबूरी

लंबे समय से पहाड़ की राजनीति को करीब से देखने वाले सिलीगुड़ी के वरिष्ठ पत्रकार मणिपुष्पक सेनगुप्ता का कहना है, ‘‘गुरुंग पहाड़ी राजनीति की कड़वी सचाई से अच्छी तरह वाकिफ हैं. अव्वल तो उन्हें इस बात का एहसास है कि पश्चिम बंगाल से दार्जिलिंग को कभी अलग नहीं किया जा सकेगा. दूसरा, पहाड़ी के बेताज बादशाह की बादशाहत चिरस्थायी नहीं है.’’

अब तो बिमल गुरुंग ने राज्य सरकार से समझौता कर लिया है और उन की जीटीए में वापसी को ममता बनर्जी की जीत के रूप में देखा जा रहा है. इस को ले कर पहाड़ी लोगों में असंतोष है. गोरखालैंड को अलग राज्य का दरजा न मिला तो पहाड़ की गद्दी से बेदखल होने में बिमल गुरंग को भी ज्यादा समय नहीं लगेगा. ऐसे में आशंका यह भी बन रही है कि आने वाले समय में उन का भी हाल सुवास घिसिंग जैसा ही न हो.          

सियासी बिसात पर बनते नए समीकरण

आम चुनावों के मद्देनजर बिहार की सियासी बिसात पर नएनए मोहरे अभी से नए समीकरण बिठाते दिख रहे हैं. जेल से बाहर आए लालू प्रसाद जहां कांगे्रस और रामविलास पासवान से गलबहियां करते नजर आते हैं वहीं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी पार्टी के अंदर पनपते अंतर्विरोध से नहीं निबट पा रहे हैं. गुटबंदी के इस खेल में आम चुनाव में नीतीश का सियासी रथ कहीं अलगथलग तो नहीं पड़ जाएगा, ऐसी आशंका जता  रहे हैं बीरेंद्र बरियार ज्योति.

बिहार में कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल और लोक जनशक्ति पार्टी साथ मिल कर चुनाव लड़ते हैं तो नीतीश और भाजपा दोनों को काफी नुकसान होने की गुंजाइश है. वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में राजद को 19 फीसदी, कांग्रेस को 1.0 फीसदी और लोजपा को 1.6 फीसदी वोट मिले थे. राजद के 4 और कांग्रेस के 2 उम्मीदवारों को जीत मिली थी. खास बात यह है कि सूबे की कुल 40 लोकसभा सीटों में राजद को भले ही 4 सीटों पर जीत हासिल हुई पर 19 सीटों पर उस के उम्मीदवार नंबर 2 पर रहे थे. लोजपा के 7 और कांग्रेस के 2 उम्मीदवारों ने नंबर 2 पर रह कर भाजपा और जनता दल (यूनाइटेड) को कांटे की टक्कर दी थी.

राजद, लोजपा और कांग्रेस के वोट मिल कर 22 प्रतिशत के करीब हो जाते हैं. उस चुनाव में 20 सीट जीतने वाली जदयू को 24 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 12 सीटों पर कब्जा जमाने वाली भाजपा की झोली में 14 फीसदी वोट पड़े थे. पिछले लोकसभा चुनाव के आकंड़ों को देख कर साफ हो जाता है कि अगर राजद, कांगे्रस और लोजपा एकजुट हो कर चुनाव लड़े तो जदयू और भाजपा को कड़ी टक्कर दे सकते हैं और पिछले चुनाव के मुकाबले ज्यादा सीटें झटक सकते हैं.

वोटरों को रिझाने की कोशिश

चारा घोटाला मामले में लालू यादव के जेल जाने के बाद नीतीश कुमार की पार्टी जदयू और भाजपा की नजर राजद के वोटबैंक पर टिकी हुई थी और दोनों उस वोटबैंक पर डोरे डालने की जुगत में लगे हुए थे. बिहार के सियासी अखाड़े से लालू यादव के गैरहाजिर रहने का फायदा उठाने के मकसद से नरेंद्र मोदी ने पिछले 27 अक्तूबर को भाजपा की हुंकार रैली के दौरान लालू के पक्के वोटर यादवों को रिझाने की पुरजोर कोशिश भी की.

बिहार के सियासी हलकों में यह हवा चल रही थी कि चारा घोटाला मामले में लालू यादव के जेल जाने के बाद यादव वोटर असमंजस की हालत में हैं. अगर राजद आम चुनाव में बिहार में मजबूत उम्मीदवारों को मैदान में नहीं उतारेगा तो यादव जदयू के बजाय भाजपा को वोट देना ज्यादा पसंद करेंगे.

इसी हवा को भाजपा की ओर मोड़ने की कोशिश करते हुए नरेंद्र मोदी ने यादवों को अपने पाले में करने की पुरजोर कोशिश करते हुए कहा था कि यादवों का गुजरात से बहुत बड़ा रिश्ता है. यदुवंश के राजा कृष्ण की नगरी द्वारिका गुजरात में ही है. उन्होंने यादवों पर डोरे डालते हुए कह डाला, ‘मैं द्वारिका से आशीर्वाद ले कर आया हूं और अब आप की (यदुवंशी समाज) चिंता करने का जिम्मा लेता हूं.’

बिहार के 16 फीसदी मुसलिम वोटरों को पटाने के लिए भी नरेंद्र मोदी ने पांसा फेंका था कि बिहार के मुसलमानों से ज्यादा सुखी गुजरात के मुसलमान हैं. इस की मिसाल देते हुए मोदी ने कहा कि मुसलमानों के हज यात्रा पर जाने के लिए केंद्र सरकार ने कोटा तय कर रखा है. गुजरात से 4,800 और बिहार से 7 हजार से ज्यादा का कोटा है. बिहार में हज यात्रा पर जाने के लिए मुश्किल से 6 हजार आवेदन आ पाते हैं जबकि गुजरात में 40 हजार से ज्यादा आवेदन आते हैं. बिहार के मुसलमान गरीब हैं, हज पर जाने के लिए उन के पास पैसा नहीं है. गुजरात के मुसलमान ज्यादा सुखी हैं और तरक्की कर रहे हैं.

लालू यादव के जेल से बाहर आने से बिहार की सियासत की दशा और दिशा के बदलने के पूरे आसार हैं. जेल से छूटते ही लालू यादव ने दिल्ली पहुंच कर कांगे्रस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी से मिल कर चुनावी तालमेल की अटकलों को पक्का कर डाला. लालू के जेल से बाहर आने के तुरंत बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उन्हें फोन कर के हालचाल पूछा था, जिस से लालू का हौसला निश्चित तौर पर बुलंद हुआ है.

कांग्रेस बिहार में नीतीश सरकार को अपना समर्थन दे रही है पर उस की सहानुभूति लालू यादव के साथ दिख रही है. कांग्रेस की इस दोरंगी चाल को देख कर नीतीश कुमार का परेशान होना जायज है. एक ओर कांग्रेस नीतीश सरकार को समर्थन दे रही है तो दूसरी ओर वह लालू यादव की पार्टी से चुनावी तालमेल कर रही है.

एकदूसरे को चाहिए साथ

पिछले लोकसभा में कांग्रेस के साथ हुए चुनावी तालमेल में लालू कांग्रेस को महज 3 सीट देने की जिद पर अड़ गए थे. बिहार में लोकसभा की कुल 40 सीट हैं और इन में से केवल 3 सीटें कांग्रेस को देने की बात कर लालू ने कांग्रेस जैसी बड़ी और राष्ट्रीय पार्टी को बेइज्जत कर दिया था. इस बार हवा बदली हुई सी है.

दिल्ली, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की दुर्गति होने के बाद कांग्रेस पसोपेश में है और 950 करोड़ रुपए के चारा घोटाला के सजायाफ्ता होने के बाद लालू भी सियासी मुश्किलों से जूझ रहे हैं, ऐसे में दोनों को एकदूसरे की सख्त जरूरत है और दोनों अपनी पिछली अकड़ को दरकिनार कर संयम से सीटों का बंटवारा करेंगे.

नीतीश के लिए परेशानी यह है कि भाजपा के बाद उसे कोई सियासी दोस्त नहीं मिल पा रहा है और उन के दल के भीतर उठापटक भी शुरू हो गई है.

29 अक्तूबर, 2013 को राजगीर में आयोजित जदयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक और चिंतन शिविर में नीतीश के सामने ही पार्टी के सांसद शिवानंद तिवारी और कृषिमंत्री नरेंद्र सिंह ने नीतीश के कामकाज के तौरतरीकों की जम कर आलोचना कर डाली. शिवानंद ने कहा कि नरेंद्र मोदी की बढ़ती ताकत की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए. उन्हें बेअसर करने के लिए पार्टी को नई रणनीति बनाने की जरूरत है.

शिवानंद के बाद नीतीश के कैबिनेट मंत्री नरेंद्र सिंह ने भी धमाका कर डाला. उन्होंने कहा कि पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं और वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार किया जा रहा है. सरकार पर अफसरशाही हावी है और जनप्रतिनिधियों को जलील किया जा रहा है. नरेंद्र सिंह ने तो यहां तक कह दिया कि मेरी बातों की वजह से उन्हें मंत्री पद से बर्खास्त किया जा सकता है, पर वे डर कर सच बोलना नहीं छोडें़गे.

फिलहाल 4 कांग्रेसी और 4 निर्दलीय विधायकों के बूते चल रही उन की सरकार को कायम रखने के लिए बेइज्जती को चुपचाप बरदाश्त करने के अलावा उन के पास कोई और चारा नहीं है.

उधर, नीतीश कुमार की दगाबाजी के बाद भाजपा भी चुनावी गठबंधन के लिए साथी की तालाश कर रही है, पर उसे कोई साथी मिल नहीं रहा है. कांग्रेस, राजद, लोजपा समेत हर दल भाजपा को सांप्रदायिक करार दे कर उसे सियासी तौर पर पहले ही अछूत बना चुके हैं. हरेक दल का अपना खासा मुसलिम वोट है, जिस के बिदकने के डर से कोई भी दल भाजपा से तालमेल करने से कन्नी काटता रहा है. ऐसे में राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के अलावा भाजपा से किसी भी दल के हाथ मिलाने के आसार नहीं हैं.

लोक जनशक्ति पार्टी के सुप्रीमो रामविलास पासवान के लिए लोकसभा का चुनाव आर या पार वाली हालत है. वे सभी धर्मनिरपेक्ष दलों को एकजुट होने का नारा लगाते हुए 22 फरवरी, 1914 को होने वाली ‘बिहार बचाओ रैली’ को कामयाब बना कर अपनी सियासी ताकत दिखाने की कवायद में लगे हुए हैं. रैली तैयारियों के बहाने गांवगांव घूम कर वे लालू और कांग्रेस के सुर में सुर मिलाते हुए नीतीश सरकार की बखिया उधेड़ रहे हैं.

रामविलास पासवान को तीसरा मोरचा रास नहीं आ रहा है और वे मोरचे में शामिल होने के बजाय राजद से ही चुनावी तालमेल करने की वकालत करते रहे हैं. पासवान चाहते तो हैं कि सभी सैकुलर पार्टियां एकजुट हो कर चुनाव लड़ें, पर तीसरे मोरचे में शामिल होने के नाम पर बिदक जाते हैं. वे अगला लोकसभा चुनाव राजद के साथ ही मिल कर लड़ेंगे. इस के साथ ही वे यह भी साफ करते हैं कि राजद से उन का गठबंधन केवल बिहार में ही है. दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम आदि राज्यों में उन की पार्टी अपने बूते चुनाव लड़ेगी.

नीतीश का जालिमराज

राष्ट्रीय लोक समता पार्टी नई पार्टी है, जिस का गठन 3 मार्च, 2013 को किया गया है. कभी नीतीश कुमार के करीबी और खासमखास रहे नेता उपेंद्र कुशवाहा की अगुआई में बनी इस पार्टी को भी खड़ा होने के लिए लिए किसी बड़े दल के साथ की दरकार है. नीतीश से खिसियाए उपेंद्र कहते हैं कि बिहार में जंगलराज को खत्म करने के लिए नीतीश के हाथ सत्ता की कमान सौंपी गई थी पर अफसोस है कि नीतीश ने अपनी मनमानी और तानाशाही से जालिमराज कायम कर रखा है.

नीतीश कुमार के दोस्त से सियासी दुश्मन बने उपेंद्र कुशवाहा का दावा है कि सूबे के 4 प्रतिशत कुशवाहा वोट पर उन का कब्जा है. उपेंद्र अपने सियासी दुश्मन नीतीश के दुश्मन भाजपा से दोस्ती कर नीतीश को सबक सिखाने की फिराक में हैं. उन्हें पता है कि वे अकेले अपने बूते लोकसभा चुनाव और 2015 में होने वाले बिहार विधानसभा के चुनाव में कुछ खास नहीं कर पाएंगे, ऐसे में सियासी गठबंधन के लिए उस के सामने भाजपा के अलावा और कोई चारा भी नहीं है.

भाजपा की जीत के माने

3 राज्यों की जीत पर इतरा रही भाजपा को एहसास नहीं कि यह जीत उस की नहीं बल्कि मध्यवर्ग की है जो कांग्रेस के कुशासन और करतूतों की परिणति के तौर पर उस की झोली में आ गिरी है. जातिधर्म के एजेंडे पर चल कर और सांप्रदायिक सियासत करती आ रही भाजपा और उस के नेताओं की जीत के माने की पड़ताल कर रहे हैं शैलेंद्र सिंह.

राजस्थान, दिल्ली, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम के विधानसभा चुनावों के नतीजे भारतीय जनता पार्टी के लिए संजीवनी बूटी साबित हुए हैं. खुशी की बात यह है कि संजीवनी बूटी रूपी इस जीत को हासिल करने के लिए भाजपा के किसी हनुमान को हिमालय पर्वत तक जाने की जरूरत भी नहीं पड़ी. केंद्र में 10 साल की कांग्रेसी सरकार की करतूतें ही संजीवनी बूटी साबित हुई. कांग्रेस के कुशासन में महंगाई और भ्रष्टाचार ने जनता को इतना ज्यादा परेशान किया कि उसे छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में हमदर्दी के वोट भी नहीं मिले, जहां नक्सलवादियों ने राज्य कांग्रेस को खत्म सा कर दिया था. भाजपा इस जीत को केंद्र से अपने वनवास का अंत मान रही है. उस के नेताओं की बौडीलैंग्वेज बदल गई है. नरेंद्र मोदी का व्यवहार भी पूरी तरह से प्रधानमंत्री जैसा दिखने लगा है.

5 राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की पहली रैली उत्तर प्रदेश के वाराणसी में आयोजित की गई. रैली की सब से खास बात यह थी कि इस को शहर से 22 किलोमीटर दूर जूरी मिर्जामुराद जैसे ग्रामीण इलाके में रखा गया था. भाजपा शहरी मध्यवर्ग से निकल कर गांव के लोगों तक पहुंचने का प्रयास कर रही है. रैली तक पहुंचने के निए नरेंद्र मोदी ने 3 बार हैलीकौप्टर की यात्रा की. पहली बार वे बाबतपुर हवाई अड्डे तक आए. इस के बाद वहां से हैलीकौप्टर के जरिए बीएचयू पहुंचे. वहां काशीविश्वनाथ और संकटमोचन के दर्शन करने के बाद वापस हवाई मार्ग से रैली स्थल तक पहुंचे.

नरेंद्र मोदी की रैली की जगह पर 3 मंच बनाए गए थे. एक मंच पर प्रदेश स्तर के बड़े नेताओं की कुरसियां थीं. दूसरे मंच पर दूसरी श्रेणी के छोटेबड़े नेता. वीवीआईपी मंच मोदी के लिए था. उस पर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह, पूर्व अध्यक्ष डा. मुरली मनोहर जोशी और नरेंद्र मोदी की कुरसियां थीं. मोदी के बोलने के लिए बुलैटप्रूफ बौक्स की व्यवस्था की गई थी. मंच के पीछे लगे परदे पर काशी की झांकी साफ दिख  रही थी. इस में विश्वनाथ मंदिर, दशाश्वमेधघाट और राजेंद्रघाट साफ दिख रहा था.

दिल्ली में आम आदमी पार्टी यानी आप की जीत से सबक लेते हुए नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में कांग्रेस पर हमले करने के साथ स्थानीय मुद्दों पर अपने को केंद्रित किया था. बनारसी साड़ी, गंगा नदी की शुद्धता, शिक्षकों की सरकारी नौकरी की प्रक्रिया और बुनकरों की बातों को हिट फिल्मी डायलौग की तरह लोगों के सामने रखा. सुन कर लगता था कि किसी अच्छे डायलौग राइटर ने उन का भाषण लिखा होगा. इस के पहले जब कानपुर में उन की रैली हुई थी तो वे स्थानीय मुद्दों पर खामोश रहे थे.

मध्यवर्ग की जीत

3 राज्यों की जिस जीत पर भाजपा इतरा रही है, दरअसल, वह मध्यवर्ग की जीत है. कांग्रेस के राज में इस कदर से मंहगाई बढ़ी कि मध्यवर्ग के लिए घर चलाना मुश्किल हो गया था. चुनाव के पहले केंद्र सरकार ने सरकारी कर्मचारियों को दीपावली के मौके पर मंहगाई भत्ता बढ़ाया था. कांग्रेस को लगता था कि इस से वह मध्यवर्ग के लोगों को खुश कर लेगी. कांगे्रस यह भूल गई कि सरकारी कर्मचारियों का एक बड़ा प्रतिशत मध्यवर्ग से बाहर हो चुका है. उस के ऊपर महंगाई का कोई असर नहीं पड़ता. देश में एक बड़ा मध्यवर्ग ऐसा आ चुका है जिस के परिवार के लोग सरकारी नौकरियों में नहीं हैं. वे प्राइवेट नौकरी के जरिए अपना घरपरिवार चला रहे हैं. यह मध्यवर्ग अपने कामों के लिए सरकारी नौकरों को रिश्वत देता है. ऐसे में सरकार ने सरकारी नौकरों को महंगाई भत्ता दे कर मध्यवर्ग के जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया.

जिन प्राइवेट कंपनियों में नौकरियों के जरिए मध्यवर्ग अपना जीवन चला रहा है उन कंपनियों के मालिकों को भी सरकार परेशान करती रही. उन की आमदनी नहीं बढ़ी जिस से प्राइवेट नौकरियों में भी बड़ी तादाद में छंटनी होने लगी. लोगों को प्रमोशन नहीं दिया गया. वेतन नहीं बढ़ा. ऐसे में मध्यवर्ग सरकारी नीतियों से परेशान हो चला था. उस ने कांग्रेस के खिलाफ वोट दिया.

यह बात सच है कि मध्यवर्ग भाजपा से भी खुश नहीं था पर उस सामने दूसरा विकल्प भी नहीं था. दिल्ली जैसे राज्य में जहां आम आदमी पार्टी जैसा दल विकल्प के रूप में था वहां उस ने उस को वोट दे दिया. ऐसे में भाजपा की जीत में मध्यवर्ग की बड़ी भूमिका थी. कांग्रेस अपनी वाहवाही लूटने के लिए जिन कल्याणकारी योजनाओं पर पैसा खर्च कर रही है, मध्यवर्ग उन्हें भी बढ़ती महंगाई का कारण और अपने ऊपर बोझ मानता है. ऐसे में मनरेगा, खाद्य सुरक्षा कानून और कैश सब्सिडी जैसे कांग्रेसी हथियार भी असर नहीं दिखा सके.

आडंबर और भगवाकरण

नरेंद्र मोदी ने अपने प्रचार को विकास के मुद्दे पर चलाने की पूरी कोशिश की थी. एक कुशल कारोबारी की तरह उन्होंने पूरे प्रचार अभियान को धर्म के आडंबर के बीच रखा. ऐसे में भाजपा की जीत के बाद अब यह धर्म का आडंबर चलता रहेगा. नरेंद्र मोदी ने भले ही अपनी सभाओं में राममंदिर का जिक्र न किया हो पर वे अपनी बातों या रैली के लिए तैयार मंच की बनावट में मंदिर का प्रयोग करते रहे हैं.

3 राज्यों में जीत के बाद वाराणसी में नरेंद्र मोदी धर्म के मुद्दे पर मुखर हो गए. जनता के सामने जाने से पहले वे काशीविश्वनाथ और संकटमोचन मंदिर में दर्शन करने के लिए गए. सब से पहले वे बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने पहुंचे. यहां नरेंद्र मोदी ने षोडशोपचार विधि से पूजन किया. 51 लिटर गाय के दूध और 11 घड़े गंगाजल से बाबा विश्वनाथ का दुग्धाभिषेक किया. मंदिर प्रशासन ने मोदी को अंगवस्त्र और रुद्राक्ष की माला प्रसाद के रूप में दी. पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के साथ वे करीब 35 मिनट तक गर्भगृह में रहे. इस के बाद वे संकटमोचन मंदिर गए और 20 मिनट तक वहां पूजा की.

नरेंद्र मोदी ने भगवान की पूजा में 55 मिनट का समय लगाया. इस के बाद जनता के बीच 50 मिनट भाषण किया. यहां भी गंगा की शुद्धीकरण के बहाने धर्म के मुद्दे को जिंदा रखा. मोदी ने कहा कि जब उन्होंने गुजरात में सरकार बनाई तो साबरमती की हालत खराब चल रही थी. गंगा को शुद्ध करना है तो लखनऊ और दिल्ली को शुद्ध करना पड़ेगा. मोदी का प्रचार करने वाले लोग इस बात को प्रमुखता से कह रहे हैं कि नरेंद्र मोदी के आने से ही धर्म सुरक्षित रहेगा.

आजकल बड़ी संख्या में सोशल मीडिया में नरेंद्र मोदी का ‘नमोजाप’ प्रचारित किया जा रहा है. इन लोगों की प्रोफाइल देखते ही समझ में आ जाता है कि वे धर्म के आडंबर में किस कदर डूबे हैं. कई लोग सीधे हिंदुत्व से बचना चाहते है तो वे राष्ट्रवाद को सामने ला कर धर्म के आडंबर को आगे बढ़ाने का काम करते हैं.

भाजपा अपनी रैलियों में भगवा रंग का बढ़चढ़ कर प्रदर्शन करने लगी है. उस को लगता है कि इस के जरिए वह बिना धर्म की बात कहे अपने एजेंडे को आगे बढ़ा सकती है. पिछले कुछ दिनों में हिंदीभाषी क्षेत्रों में सड़कों पर ऐसी गाडि़यां ज्यादा दिखने लगी हैं जिन में भगवा झंडे लगे होते हैं या नरेंद्र मोदी का प्रचार करते स्टिकर लगे होते हैं. कई बार तो धर्म के आडंबर का विरोध करने वालों को भी नरेंद्र मोदी का विरोधी मान लिया जाता है.

जाति का सवाल

वैसे तो नरेंद्र मोदी विकास की बात करते हैं पर असल बात है कि वे भी जाति के सच को स्वीकार कर चुके हैं. सरदार वल्लभभाई पटेल की दुनिया की सब से ऊंची मूर्ति लगवाने की मुहिम के तहत नरेंद्र मोदी और भाजपा ने बड़ा प्रचार अभियान चलाया है. सब से पहले वे गांवगांव जा कर लोहा एकत्र करने का अभियान चलाते हैं. यह अभियान जब बहुत सफल नहीं हुआ तो ‘रन फौर यूनिटी’ के तहत दौड़ लगाई. यह ‘रन फौर यूनिटी’ भी सरदार पटेल की मूर्ति से जुड़ी थी. पटेल को आगे कर के भाजपा जाति का कार्ड खेलना चाहती है. अभी तक पिछड़े वर्ग में उस के पास कोई बड़ा नेता नहीं था इसलिए नरेंद्र मोदी ने कांग्रेसी पटेल को अपना जरिया बना लिया. भाजपा के लोग अपने प्रचार के जरिए लोगों को यह बता रहे हैं कि नरेंद्र मोदी भी गुजरात की पिछड़ी जाति से आते हैं.

पटेल की मूर्ति की राजनीति के सहारे भाजपा जाति के साथसाथ अपने मूर्तिप्रेम को भी बनाए रखना चाहती है. यह एक बड़ी चाल है जिस से मूर्ति की राजनीति करने का उस का फार्मूला सफल होता रहे. चुनाव में जीत के बाद भाजपा को लग रहा है कि हिंदीभाषी इलाकों में यह हिट रहेगा. सही मानों में देखें तो भाजपा का जनाधार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली, गुजरात, छत्तीसगढ़ तक ही सीमित है. महाराष्ट्र में वह शिवसेना, पंजाब में अकाली दल और बिहार में जदयू की बैसाखी उस के पास रही है. बिहार में जदयू के अलग होने के बाद भाजपा के सामने सब से बड़ी चुनौती बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में है. यहां से लोकसभा की 134 सीटें आती हैं. ऐसे में वह पिछड़ों के जातीय आधार में अपने लिए मौका तलाश रही है. यहां भाजपा नरेंद्र मोदी के विकास को नहीं, उन की जाति को हथियार बना रही है.

हिंदूमुसलिम में अलगाव

भाजपा मोदी की छवि के सहारे हिंदू- मुसलिम में आई दरार को पाटने के बजाय बढ़ाने का काम कर रही है. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर दंगों में उस की यह रणनीति साफ नजर आ रही थी. वहां दंगा भड़काने के लिए भाजपा के जिन विधायकों को जेल भेजा गया, उन को जेल से वापस आने के बाद नरेंद्र मोदी की आगरा रैली में मंच पर सम्मानित किया गया. नरेंद्र मोदी को मुसलिम

टोपी पहनने से पहले ही परहेज था. अब ऐसी घटनाओं से हिंदूमुसलिम के बीच दूरियां बढ़ेगी. 3 राज्यों में चुनाव परिणाम के बाद भी नरेंद्र मोदी में ऐसा कोई भाव नहीं दिखा कि वे हिंदूमुसलिम के बीच की दूरी को कम करना चाहते हैं.

बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने के बाद मोदी ने कहा कि जब वे प्रधानमंत्री बन जाएंगे तो दोबारा दर्शन करने आएंगे. काशी में आ कर भी वे काशी और सोमनाथ का जिक्र बारबार करते रहे. दरअसल, काशी और सोमनाथ के वे हिंदू अस्मिता और मंदिरों की हालत को रेखांकित करना चाहते थे.

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ लोकसभा चुनाव के पहले धर्म की राजनीति को खुल कर सामने नहीं लाना चाहता है. 3 राज्यों में सरकार बनाने के बाद संघ को लगने लगा है कि वह कांग्रेस के कुशासन से ही जीत जाएगा तो बेकार में धर्म की राजनीति को बढ़ावा दे कर सहयोगी दलों को क्यों नाराज किया जाए? संघ को नरेंद्र मोदी की अगुआई में लोकसभा चुनावों में

272 सीटों का बहुमत मिलता नहीं दिख रहा है, इसलिए वह भाजपा के बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी को भी निराश नहीं करना चाहता. उसे लगता है कि जो सहयोगी दल नरेंद्र मोदी के नाम पर राजी नहीं होंगे, हो सकता है कि वे लालकृष्ण आडवाणी के नाम पर राजी हो जाएं. वह हिंदूमुसलिम एकता की बात कर के हिंदुत्व को हाशिये पर भी नहीं डालना चाहती. ऐसे में लालकृष्ण आडवाणी पर भी उस की नजर है. राजनीति के जानकार मानते हैं कि विधानसभा चुनावों में जीत के बाद संघ ने पूरी कमान अपने हाथ में ले रखी है. भाजपा और नरेंद्र मोदी उस के अनुसार ही काम कर रहे हैं.

3 राज्यों में जीत के बाद भाजपा को लग रहा है कि अब उस की जीत पूरी तरह से पक्की हो गई है. कांग्रेस में फैली निराशा और अंधकार ने उसे लगभग वाकओवर दे दिया है. भाजपा की सब से बड़ी परीक्षा उत्तर प्रदेश और बिहार में होनी है जहां भाजपा का सत्ता का रथ फंसता दिख रहा है, उत्तर प्रदेश और बिहार में जातीय राजनीति ने धर्म को दरकिनार कर दिया है. यहां पर भाजपा के मुकाबले समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड), राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियां हैं. ये कांग्रेस के मुकाबले भाजपा को ज्यादा परेशानी में डाल सकती हैं.

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव साफ कहते हैं, ‘नरेंद्र मोदी की उत्तर प्रदेश में दाल नहीं गलने वाली है. उत्तर प्रदेश मोदी को वापस गुजरात भेज देगा. 26 लोकसभा सीटों वाले प्रदेश का नेता भला प्रधानमंत्री कैसे बन सकता है. पीएम तो 80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश से ही बनेगा.’ मुलायम की बात में कितना दम है, यह तो वक्त बताएगा पर उन की इस बात में पूरा दम है कि लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश का रोल अहम होगा. ऐसे में विधानसभा की जीत को लोकसभा की जीत समझ लेना उचित नहीं है. जिस तरह से कांग्रेस ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी को सरकार बनाने के लिए समर्थन दिया, उस से साफ हो गया है कि लोकसभा चुनावों के बाद कांग्रेस भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए कुछ भी समझौता कर सकती है. ऐसे में मुलायम और जयललिता जैसे नेता प्रधानमंत्री बनने का सपना देख सकते हैं.

जनक्रांति से निकली ‘आप’ की सरकार

आम आदमी पार्टी की दिल्ली में 28 सीटों पर जीत भारतीय लोकतंत्र की बेहद रोचक, ऐतिहासिक और क्रांतिकारी घटना है. अरसे बाद नेता जनता से खौफ खाते दिख रहे हैं. आम आदमियों के जन आंदोलन से राजनीतिक पार्टी के गठन और फिर चुनाव तक के सफर के नतीजे में जहां दिल्ली की सत्ता पलटी वहीं आम आदमी को अपनी घुटी और खोई आवाज वापस मिली. साल के आखिर में ‘आप’ और ‘आम’ खास बन कर राजनीति के पन्नों पर नया अध्याय लिख रहे हैं, पढि़ए जगदीश पंवार का यह विशेष लेख.

पिछले एक सप्ताह से कोहरे से ढका दिल्ली का आसमान एकाएक 28 दिसंबर की सुबह एकदम  साफ दिखाई देने लगा. सूरज की रोशनी में नई रवानी थी. दिल्ली की जनता में नया जोश, नया उत्साह, नई उत्सुकता थी. दिल्ली में लोकतंत्र का नया सूर्योदय हुआ है. सही माने में जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार बनी है. आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल और उन के 6 मंत्रियों ने सेवा की शपथ ली तो लगा दिल्ली के जंतरमंतर से उठी जनक्रांति रंग ले आई.

28 दिसंबर, 2013 का दिन 16 अगस्त, 1947 की सुबह से कुछ अलग नजर आया. वह विदेशियों से मुक्ति से खुशी का दिन था और यह अपने ही शासकों की बेईमानी, भ्रष्टाचार, निकम्मेपन और तानाशाही के खिलाफ संघर्ष की सफलता के जश्न का दिन था. दिल्ली के 7वें और सब से युवा मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते हुए समूचे देश की निगाहें इस अनूठे नेता पर थीं.

वीआईपी संस्कृति खत्म करने का वादा कर चुके अरविंद केजरीवाल उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद में कौशांबी स्थित अपने घर से दिल्ली के बाराखंबा रोड तक अपने मंत्रियों, विधायकों सहित आम जनता की तरह मैट्रो में सवार हो कर गए. इन मैट्रो स्टेशनों पर जनसैलाब उमड़ पड़ा. मीडिया और समर्थकों के बीच 6 कोच वाली मैट्रो ट्रेन छोटी पड़ गई. सुरक्षा का कोई तामझाम नहीं. मैट्रो में घुसने के लिए अरविंद केजरीवाल ने अपनी जेब से खरीदे स्मार्ट कार्ड का इस्तेमाल किया. हां, मैट्रो स्टेशनों में सीआईएसएफ के जवान, डीएमआरसी, पुलिस और कुछ वौलंटियर्स व्यवस्था को संभालने की कोशिश जरूर कर रहे थे पर भला जनता सुनने वाली कहां थी. कमोबेश यही हाल नई दिल्ली मैट्रो स्टेशन में भी दिखा. उस के बाद वे अपनी छोटी गाड़ी से रामलीला मैदान पहुंचे जहां दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग ने पद व गोपनीयता की शपथ दिलाई. शपथ लेने के बाद उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ खुली जंग का ऐलान कर दिया.

‘‘आज यह शपथ मैं ने और मेरे मंत्रियों ने नहीं ली है, आम आदमी ने शपथ ली है. हम पैसा कमाने नहीं आए हैं, अपना कामधंधा छोड़ कर आए हैं. हम सेवा करने आए हैं.’’ अपने भाषण में जब केजरीवाल ने यह बात कही तो मैदान तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा क्योंकि ऐसी बातें आजादी के बाद शायद ही किसी नेता ने कही हों.

यह सत्ता की शुरुआत का एक अनूठा समारोह था. दिल्ली के रामलीला मैदान में सुबह 9 बजे से ही लोगों का आना शुरू हो गया था. जंतरमंतर की तरह यहां भी बिना बुलाए चारों ओर से लोगों का हुजूम उमड़ा. हालांकि केजरीवाल 2 दिन पहले से दिल्ली की जनता को शपथ ग्रहण समारोह में पहुंचने का न्योता मीडिया के माध्यम से दे रहे थे लेकिन दूसरी राजनीतिक रैलियों की तरह जनता बसों में भरभर कर नहीं लाई गई थी बल्कि अपनेआप पब्लिक ट्रांसपोर्ट, निजी वाहनों से राजधानी ही नहीं, आसपास के राज्यों से भी इस परिवर्तन की गवाह बनने पहुंची थी.

बड़ेबूढे़, बच्चे, महिलाएं, युवा हर वर्ग के लोगों से रामलीला मैदान का कोनाकोना भर गया. आसफ अली रोड, जवाहर लाल नेहरू रोड, सिविक सैंटर, अजमेरी गेट की सड़कों और भवनों पर उम्मीदों से भरी आंखें केजरीवाल को देखने, उन का उद्बोधन सुनने को बेताब दिखाई पड़ रही थीं. नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी को इतनी भीड़ के लिए सैकड़ों बसों का इंतजाम करना पड़ता है. यहां दूरदूर तक कोई बस नजर नहीं आई.

‘‘सचाई का रास्ता आसान नहीं होता, कांटों भरा होता है. जैसे आज तक हम सभी चुनौतियों का सामना करते हैं, उसी तरह दिल्ली की जनता मिल कर आने वाली सभी चुनौतियों का सामना करेगी. अन्नाजी मुझ से कहते थे कि राजनीति कीचड़ है लेकिन मैं ने उन से कहा कि इस कीचड़ में घुस कर ही इस गंदगी को साफ करना होगा. हमारे पास सारी समस्याओं का समाधान नहीं है पर पूरा यकीन है कि दिल्ली के अगर डेढ़ करोड़ लोग मिल जाएं तो हर समस्या का समाधान निकाल सकते हैं. हम मिल कर सरकार बनाएंगे और सरकार चलाएंगे.’’

पहली बार किसी ने सत्ता में आम जनता को शामिल करने वाली बात कही तो मौजूद चेहरे दमक उठे. दरअसल, 2 साल पहले भ्रष्ट, नकारा और ढीठ राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ  उठे बवंडर के परिणामस्वरूप अब देश की राजनीतिक फिजा बदलती दिखने लगी है. बदलाव की सुहानी, शीतल बयार बह चली है. इस परिवर्तन से लोकतंत्र में तानाशाही जैसी घुटन महसूस कर रही जनता उत्साहित है, रोमांचित है. दिल्ली में जंतरमंतर पर उमड़े जनाक्रोश का ही नतीजा है, दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनी है. भ्रष्टाचार के खिलाफ उठे आंदोलन और उस से उपजी आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ का सब से ज्यादा विरोध करने वाली कांग्रेस, बिना मांगे उसे समर्थन दे रही है.

भारतीय जनता पार्टी ने मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस को रौंदा पर दिल्ली में भाजपा के कट्टर हिंदूवादी रथ को ‘आप’ के अरविंद केजरीवाल ने रोक दिया. भाजपा के नरेंद्र मोदी अभियान की चमक फीकी पड़ गईर् है. दिल्ली के बाद अब बदलाव की यह सुखद बयार समूचे देश में बहने को आतुर है.

परिवर्तन की आंधी

त्रिशंकु विधानसभा के मद्देनजर दोबारा चुनाव के नाम से सब से ज्यादा कांग्रेस डर गई थी. समझदारी दिखाते हुए उस ने अपने 8 विधायकों का सब से पहले बिना मांगे, बिना शर्त ‘आप’ को समर्थन देने का पत्र उपराज्यपाल को भेज दिया. 32 विधायकों वाली भाजपा पीछे रह गई. किसी भी दल से समर्थन न लेने और न देने की बात कह चुके आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल को अपने 28 विधायकों और कांग्रेस को मिला कर गठबंधन सरकार बनाने के लिए रायशुमारी लेनी पड़ी. ज्यादातर लोगों ने सरकार बनाने के पक्ष में मत जाहिर किया.

जनता के बीच जाने की इस लोकतांत्रिक कवायद को हालांकि कुछ ने ड्रामा करार दिया. परिवर्तन की हवा से अरसे से स्थापित भ्रष्ट, तानाशाह राजनीतिक दल और नेता दहशत में आ गए हैं. जो अहंकारी राजनीति इस जनाक्रोश को हलके में ले रही थी, हवा का रुख भांप कर हवा की ओर बह निकली है. घबराहट में चाल, चरित्र बदलने पर गंभीर मंथन शुरू हो गया है. रीतिनीतियों में बदलाव आने लगा है. जो दल और उन के घमंडी नेता कहते थे कि चंद लोगों और भीड़ के आंदोलन से कानून नहीं बनाए जा सकते, दिल्ली में ‘आप’ की जीत के बाद वही दल बिना किसी चींचपड़ के संसद में लोकपाल बिल पास कराने में उतावले नजर आ रहे थे. 36 साल से पड़ा लोकपाल बिल पास हो गया.

मिल गया सबक

सभी पार्टियां जनता से डरने लगी हैं. कांग्रेस और भाजपा आम आदमी पार्टी की भाषा बोलने लगी हैं. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी कहने लगे हैं कि उन्हें आम आदमी पार्टी से सीखना पड़ेगा. यानी 100 साल पुरानी पार्टी 1 साल पहले बनी पार्टी से सीखना चाह रही है. पूरे भ्रष्टाचार आंदोलन के दौरान मौन साधे रहे राहुल गांधी अब भ्रष्टाचार पर मुखर हो उठे हैं. अब जा कर उन्हें पता चला है कि भ्रष्टाचार आम जनता का खून चूस रहा है.

दोनों पार्टियों को ‘आप’ ने सबक सिखा दिया है. सरकार बनाने के लिए भाजपा ने पहली बार जोड़तोड़ नहीं की. उस ने ‘आप’ की तर्ज पर ‘वन वोट वन नोट’ की बात करनी शुरू कर दी है. 10 करोड़ घरों से चंदा उगाहने का निश्चय किया जा रहा है. ‘वोट फौर हिंदुत्व’ का नारा अब ‘वोट फौर इंडिया’ में तबदील हो गया है. धर्म, जातियां, वर्ग की बातें हाशिये पर की जा रही हैं.

देखा, लोकतंत्र का कमाल. जो लोग तानाशाही की बोली बोल रहे थे वे खामोश हैं या विनम्र हो गए हैं, जनताजनार्दन के पैरों को धो कर पीने का प्रण कर रहे हैं. सत्ता प्राप्ति के बाद जो जनता को भूल जाने की बीमारी से पीडि़त थे, उन्होंने अपना इलाज करा लिया है और हरदम जनता को हृदय में धारण

करने का संकल्प ले लिया है.

कांग्रेस ने भाजपा को ‘सांप्रदायिक’ और भाजपा ने कांग्रेस को ‘छद्म धर्मनिरपेक्ष’ की गाली देना बंद कर दिया है. काफीकुछ बदल रहा है. ‘आप’ की बढ़त से कांग्रेस और भाजपा की मुसीबतें बढ़ गई हैं. ‘आप’ नेताओं ने वादा किया है कि वे लुटियंस जोन के बड़े बंगलों में नहीं रहेंगे और न ही लालबत्ती की गाड़ी में घूमेंगे. सुरक्षा का तामझाम नहीं लेंगे. इन बातों से उन रुतबेबाज नेताओं को सीख मिल सकेगी जो जनता की गाढ़ी कमाई को दिखावे और फुजूलखर्ची में उड़ा देते हैं.

कर के दिखाया

दिल्ली की सत्ता में अनूठे बदलाव से सदियों से बेचारी, लाचार दिखने वाली, हुक्मरानों को माईबाप मानती आईर् जनता अब खुद को शक्तिशाली मानने लगी है. जनता का आक्रोश व्यवस्था के खिलाफ था. राजनीतिबाज उस गुस्से का मतलब अब समझ रहे हैं और आम आदमी पार्टी की भाषा बोलने लगे हैं. दिल्ली में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दोबारा चुनाव नहीं चाहतीं क्योंकि उन्हें और भी बुरी गत होने का भय है. अपने चुनावी अभियान के दौरान ‘आप’ ने जो कहा था वह कर दिखाया है.

शिकंजे में कांग्रेस

कांग्रेस को उम्मीद है कि ‘आप’ पानी, बिजली के वादों को पूरा नहीं कर पाएगी. समर्थन दे कर वह ‘आप’ को घेरना चाहती थी मगर पासा उलटा पड़ गया. ‘आप’ ने स्पष्ट कर दिया कि सरकार आते ही भ्रष्टाचारियों को जेल भेजा जाएगा. ऐसे में कांग्रेस की हालत सांपछछूंदर की हो गई है. वह ‘आप’ की बंधक बन गई है. कांग्रेस को अपने 8 विधायकों की चिंता है क्योंकि अगर अभी दिल्ली में दोबारा चुनाव होंगे तो क्या कांग्रेस के ये विधायक भी बच पाएंगे? न लोकसभा में कोईर् आ पाएगा और न ही राज्यसभा में. मजबूरी में उस ने बिना शर्त और बिना मांगे समर्थन का पत्र उपराज्यपाल को सौंपा है. इसी तरह भाजपा को भी अपने 32 विधायकों को बचा पाने का डर सताने लगा है.

हाशिये पर भाजपा

‘आप’ ने सरकार बना कर कांग्रेस और भाजपा की रणनीति और राजनीति को बिगाड़ने का काम किया है. भाजपा की खुशफहमी दूर हो गई है. झाड़ू ने भाजपा के परंपरागत वोटों को भी हिला दिया है. लोकसभा में अगर यही वोटर भाजपा से दूर रहा तो नतीजे चौंकाने वाले होंगे. सब से खास बात तो यह हुई कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की रैलियां अब मीडिया में हाशिये पर चली गई हैं. उन के सुर भी धीमे पड़ गए हैं. उन्हें अब साफ लग रहा है कि अब तक राहुल गांधी ही उन के सामने एकमात्र प्रतिद्वंद्वी थे, अब अरविंद केजरीवाल दिल्ली की तरह केंद्र में भी उन की पार्टी की राह में आड़े आ सकते हैं.

‘आप’ ने हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में लोकसभा चुनावों के लिए भी कमर कस ली है.   

दिल्ली में ‘आप’ की सरकार भारतीय लोकतंत्र की एक अनूठी ऐतिहासिक घटना है. यह किसी विचारधारा, जातिगत, धार्मिक समीकरण या क्षेत्रीय भावना के चलते नहीं बनी है जैसी आमतौर पर देश की पार्टियां हैं. यह भ्रष्टाचार के विरोध में हुए आंदोलन से पैदा हुईर् है. इस से जनता को पहली बार राजनीतिक व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीद जगी है.

पूरे करने होंगे वादे

आम आदमी पार्टी को अपने वादे पूरे करने होंगे. सरकार बनने के 3 दिन बाद ही पानी के वादे को पूरा करने के लिए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के लोगों को मुफ्त पानी देने का अपना  पहला वादा कुछ शर्तों के साथ निभा दिया. बिजली की दरों में कमी कर दी. अब बाकी चुनावी वादों को पूरा करना होगा. साथ ही उन्हें अपने प्रमुख मुद्दे ‘भ्रष्टाचार उन्मूलन’ की दिशा में कड़े कदम उठाने होंगे. हालांकि, शपथ ग्रहण समारोह के तुरंत बाद अरविंद केजरीवाल ने कहा कि अगर कोई रिश्वत मांगे तो मना मत करना, उस से सैटिंग कर लेना फिर हमें फोन कर देना. हम उसे रंगेहाथ पकड़ेंगे. लेकिन सरकारी दफ्तरों में हजारों नियमकायदे ऐसे हैं जो भ्रष्टाचार की खान साबित हो रहे हैं. लगता है कि ये नियमकायदे घूसखोरी के लिए ही बनाए गए हैं.

केजरीवाल नियमों को बदलने की बात कह रहे हैं. भ्रष्टाचार के लिए नियमकानून जिम्मेदार हैं. अगर सीधे, सरल नियम बनाए जाएं तो रिश्वतखोरी के रास्ते बंद होंगे. कानून आज आम आदमी के उत्पीड़न के हथियार बने हुए हैं. जनता इन कानूनों को कोसती देखी जा सकती है, इसलिए वह हर समस्या पर भीतरी बदलाव चाहती है.

आम आदमी के जीवन को सरकारी कानूनों ने बुरी तरह जकड़ रखा है. वे जीवन को आसान नहीं, बल्कि उलझाते हैं. इन नियमकायदों में आम आदमी को हर काम के लिए सरकारी मंदिरों में बेमतलब के चक्कर लगवाने और वहां बैठे सरकारी देवताओं को चढ़ावा चढ़वाने की मंशा निहित है. दिल्ली में एक छोटा सा कारोबार शुरू करने के लिए एक दर्जन से ज्यादा विभागों से मंजूरी लेनी पड़ती है और तरहतरह के कागजात पेश करने पड़ते हैं जिन में अधिकतर बेमतलब के ही होते हैं. अगर इन में से कहीं भी कमी रह जाए तो कोई बात नहीं, तमाम कागजों की पूर्ति कागज के हरेहरे नोट कर ही देंगे.

राजनीतिक सत्ता बदलने के बाद भी व्यवस्था नहीं बदलती. इस की मुख्य वजह हमारी पूरी राजनीतिक, प्रशासनिक व्यवस्था का भ्रष्टाचार के दलदल में फंसा होना है.

फैक्टरी लाइसैंस और घूस

मिसाल के तौर पर दिल्ली में फैक्टरी लाइसैंस के लिए फैक्टरी विभाग में कोई आवेदन करता है तो उसे आवेदनपत्र के साथ इन दस्तावेजों को संलग्न करना पड़ेगा:

द्य      साइट प्लान और की प्लान की एकएक प्रति.

द्य      प्रस्तावित मशीनरी इंस्टौलेशन का एक रफ स्कैच, पावर लोड रेटिंग सहित मशीनों की सूची.

द्य      फर्म के कौंस्टिट्यूशन की एक प्रति.

द्य      किराया प्राप्ति की प्रति, लाइसैंस डीड और रैंट ऐग्रीमैंट.

द्य      आवेदित व्यापार के लिए उत्पादकता प्रक्रिया की प्रति.

द्य      प्रस्तावित क्षेत्र को मार्क करते हुए वर्तमान/संशोधित एरिया के साइट प्लान की मूल प्रति/माप सहित और दोनों पार्टियों द्वारा पूर्णतया हस्ताक्षरित.

द्य      निर्धारित प्रोफार्मा में एफिडेविट.

द्य      निर्धारित प्रोफार्मा में अंडरटेकिंग.

द्य      भूस्वामी/मालिक द्वारा एनओसी.

द्य      मालिकाना, किराएदारी/कानूनी कब्जा का प्रमाण.

द्य      आवेदित उद्योग के लिए पौल्यूशन कंट्रोल कमेटी द्वारा स्वीकृतिपत्र.

ये 11 दस्तातेज तैयार करने के लिए किसी को भी अपना धंधा शुरू करने के लिए हर जगह घूस देनी पड़ेगी.

जन्म प्रमाणपत्र

इसी तरह एक मामूली सा जन्म या मृत्यु प्रमाणपत्र हासिल करने के लिए कितनी लंबीचौड़ी कवायद करनी होती है, देखिए :

द्य     जन्म/मृत्यु जब घर में हुई, घर के मुखिया या नजदीकी रिश्तेदार के हस्ताक्षर.

द्य      जब जन्म/मृत्यु घर के बाहर हुई, प्रमाण दीजिए.

द्य      अस्पताल/स्वास्थ्य केंद्र, मैटरनिटी होम  या ऐसी अन्य संस्था के मैडिकल इंचार्ज या अन्य इंचार्ज के हस्ताक्षर.

द्य      जेल में जेल इंचाज के हस्ताक्षर.

द्य      अस्पताल, धर्मशाला, बोर्डिंग हाउस आदि प्रभारी व्यक्ति के हस्ताक्षर.

द्य      चलते वाहन में (वाहन इंचार्ज).

द्य      सार्वजनिक जगह पर मिलने पर ग्रामसेवक, मुखिया, स्थानीय पुलिस स्टेशन के इंचार्ज.

इन के अलावा ये कागजात भी चाहिए:

द्य      आवेदन फौर्म.

द्य      जन्म/मृत्यु के प्रमाण, जिस का जन्म/मृत्यु हुई हो.

द्य      एफिडेविट-स्थान, तारीख और समय सहित.

द्य      राशनकार्ड की प्रति.

द्य      स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट, जिस में जन्मतिथि दर्शाई गई हो.

द्य      ये सभी दस्तावेज किसी गजटेड अधिकारी द्वारा सत्यापित कराए गए हों.

व्यर्थ की भागदौड़

दिल्ली में बढ़ती आबादी और कम पड़ती जगह के बीच कई नियमकायदे सरकारी विभागों के लिए रिश्वत पाने का जरिया बने हुए हैं. दिल्ली विकास प्राधिकरण 23 मंजिला भवन बना सकता है, एमसीडी 28 मंजिला बना सकता है पर आम जनता अपनी मरजी से एक कमरा तो दूर, दीवार भी नहीं बना सकती. पुलिस, एमसीडी, डीडीए के कर्मचारी आ कर खड़े हो जाएंगे. यानी हालात कुछ ऐसे हैं कि एक कील ठोकने के लिए भी कई सारे विभागों से मंजूरी लेने के लिए चक्कर लगाने होंगे.

स्कूल, कालेज खोलने के लिए उच्च शिक्षा निदेशालय के दिशानिर्देशों के अलावा डीडीए और एमसीडी विभागों के कई कायदे अलग से हैं.

यह तो एक बानगी है. हर विभाग में आम आदमी के काम को ले कर अनगिनत अडं़गे हैं. ड्राइविंग लाइसैंस, गाड़ी ट्रांसफर, हैल्थ टे्रड लाइसैंस, वैटनरी लाइसैंस, ट्रेड/स्टोरेज लाइसैंस, कन्वर्जन ऐंड पार्किंग, फार्म हाउस फंक्शन, प्रौपर्टी टैक्स, टै्रफिक ऐक्ट, भूमि और संपत्ति संबंधी कानून, बिजली, पानी कनैक्शन से ले कर पुलिस महकमे में शिकायत करने तक हर जगह बिना पैसा दिए काम नहीं होते. यह रिश्वत जायज काम के लिए दी जाती है. लिहाजा, भ्रष्टाचार के लिए नियमकानून जिम्मेदार हैं. यहां तक कि समाचारपत्र निकालने के लिए कानून से बाहर की औपचारिकताएं लाद दी गई हैं जिन के बहाने खूब वसूली की जाती है. प्रकाशक को पहला पाठ घूस देने का सीखना पड़ता है.

भ्रष्टाचारियों को बचाने के लिए भी कानून हैं. किसी भ्रष्ट बाबू के खिलाफ कार्यवाही करने से पहले स्वीकृति जरूरी है. सीबीआई 36 उच्च रैंक के भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच की इजाजत का इंतजार कर रही है मगर उन्हें मौजूदा ऐक्ट बचा रहा है.

कानून के व्यवहार का जो भ्रष्ट रूप है उसे बदलना सब से बड़ी जरूरत है.

जनाक्रोश जरूरी

जनता का आक्रोश इसी व्यवस्था के खिलाफ है. यह आक्रोश समूचे देश में व्याप्त है. कांग्रेस को अभी 4 राज्यों में यही गुस्सा ले डूबा. यह भाजपा के खिलाफ भी उतना ही है. दिल्ली में ‘आप’ ने हाथ आती सत्ता को भाजपा से दूर कर दिया. यह इसी आक्रोश का नतीजा है. इसे कांग्रेस और भाजपा दोनों साफ समझ चुकी हैं.

दिल्ली में ‘आप’ की सरकार से लोगों को उम्मीद जगी है. गंदी हो चुकी राजनीति के प्रति आक्रोश हर जन के भीतर है. यह आक्रोश बना रहना जरूरी है. लोकसभा चुनावों में भी इस का असर जरूर दिखाई देगा. ‘आप’ ने भ्रष्ट दलों के सामने कई लकीरें खींच दी हैं.

‘आप’ ने साबित कर दिया है कि राजनीतिक दलों के लिए कम पैसे में भी चुनाव जीतना संभव है. अगर दल खुद ‘आप’ से सबक नहीं लेंगे तो उन्हें जनता सिखा देगी. क्रांति की लौ जनता को जला कर रखनी होगी. अगर राजनीतिक पार्टियां भ्रष्ट हुई हैं और घोटाले हो रहे हैं तो यह जनता के सोए रहने का नतीजा है.

बहरहाल, 2014 के लोकसभा चुनावों तक राजनीतिक पार्टियों के नारे बदलेंगे, नीतियां बदलेंगी. अब वे जनता और सिर्फ जनता की ही माला जपती दिखाई पडें़गी. यह इस देश के लिए अच्छी बात होगी.                           

सरकार और उस के अफसर

अब सरकारी अफसर कह रहा है कि कोई भी ठंड से नहीं मरता तो सही ही होना चाहिए. मुजफ्फरनगर के दंगों के बाद राहत शिविरों में रह रहे लोगों में से कुछ के मरने पर एक अफसर का कहना था कि अगर ठंड से लोग मरते तो साइबेरिया में, जो रूस का बर्फ से ढका इलाका है, कोई जिंदा ही नहीं बचता.

इस अफसर के बयान पर हल्ला मचाया जा रहा है. सत्तारूढ़ दल समाजवादी पार्टी भी भौचक्की है और दूसरे दल मखौल उड़ा रहे हैं कि देखो कैसी सरकार और कैसे अफसर. वैसे सरकारी अफसर इस देश में पंडितों की तरह कभी गलत नहीं होते. तभी तो दोनों के आगे हाथ पसारे सैकड़ों खड़े रहते हैं. अब पंडित ने कहा कि शास्त्र के अनुसार शादी नहीं टिकेगी तो क्या टिकेगी? अगर उस ने कह डाला कि सुबह 4 बजे ही शुभ मुहूर्त है तो क्या 8 बजे का समय शुभ हो सकता है?

इस अफसर की आलोचना करने वाले देशद्रोही हैं, जैसे अंधविश्वासों की आलोचना करने वाले धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाले होते हैं. उन का मुंह बंद रखना सरकार, कानून, अदालत, पुलिस का पहला काम है. क्या मालूम नहीं है?

लोकपाल या भ्रमपाल

दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की चुनावी जीत ने केंद्र सरकार को लोकपाल कानून बनाने के लिए मजबूर कर दिया और ताबड़तोड़ मेहनत कर के सभी दलों ने इसे पास कर दिया. यह साफ है कि देश का कोई राजनीतिक दल गली में आए इस सफेदपोश झाड़ू वाले को स्वीकार करना नहीं चाहता और गुंडोंमवालियों से भरी पार्टियों को इस झाड़ू वाले से अपना अस्तित्व खतरे में नजर आ रहा है.

सरकार के लोकपाल से अन्ना हजारे संतुष्ट हैं. उन के पास इस के अलावा कोई चारा नहीं है. वे सरकार से लोहा एक हद तक ले सकते थे. अरविंद केजरीवाल ने इन नेताओं के अखाड़े में कूद कर चुनौती दी और जीत हासिल की, जो अन्ना के बस की नहीं थी. इसलिए उन्होंने इसे सिरमाथे लगा लिया.

यदि यह कानून सिर पर बंदूक लगाए बिना पास होता तो ठीक माना जाता. पर अब जब जनता झाड़ू की बंदूक सिर पर लगा ही चुकी है तो यह सरकार की जेब से निकला वह बटुआ है जिस में सिर्फ खोटे सिक्के हैं. सरकारी लोकपाल चाहे जितना सक्षम दिखे, अपने जन्म के इतिहास के कारण यह हमेशा कमजोर दिखेगा.

लोकपाल का लाभ तभी होता जब जांच करने वाली संस्था पर पूरी तरह लोकपाल की जिम्मेदारी होती, ठीक वैसे जैसे सर्वोच्च न्यायालय अपनेआप में स्वतंत्र है. लोकपाल की नियुक्ति सरकार ही करेगी और जैसे सभी दल इस कानून को बनाने में एकजुट हो गए वैसे ही नियुक्ति के समय ही लोकपाल को बता दिया जाएगा कि सत्ताधारीदल और मुख्य विपक्षी दल के खिलाफ कुछ करना नहीं है. वे एकदूसरे के पूरक हैं, दुश्मन नहीं, यह लोकपाल कानून बनाते समय साफ भी हो गया जब भारतीय जनता पार्टी ने बढ़चढ़ कर कांग्रेस का साथ दिया. दिल्ली में भाजपा को पटकनी तो अरविंद केजरीवाल ने ही दी है न.

दोनों दल लोकपाल को अब अपनी मनचाही संतान मान कर जन्म देने को मजबूर हुए हैं. वे हर कदम पर इस के कामकाज में अड़चनें डालेंगे, यह पक्का है. लोकपाल असल में भ्रमपाल है. देश के बड़े दल इंतजार कर रहे हैं कि आम आदमी पार्टी की सुनामी अपनेआप में शांत हो जाए, इस दौरान यह आपदा राहत कदम है. इस तूफान के थमते ही लोकपाल को खंडहर में बदल दिया जाएगा, यह पक्का है.

 

नौकरानी पर लड़ते दो देश

देवयानी खोबरागड़े के मामले में भारत सरकार का अमेरिकी सरकार से कठोरता से पेश आना थोड़ा आश्चर्य करने वाला है पर शायद इस के पीछे पूरी विदेश सेवा की नौकरशाही के अस्तित्व का सवाल जुड़ा है. यह मामला राजनयिक की गिरफ्तारी से ज्यादा अपने देशवासियों के साथ अमेरिका के मनमरजी व्यवहार करने से भी जुड़ा है.

देवयानी को उस की नौकरानी संगीता रिचर्ड की शिकायत पर अमेरिकी पुलिस ने गिरफ्तार किया था. संगीता रिचर्ड देवयानी से अमेरिकी कानूनों के अनुसार वेतन और सुविधाएं मांग रही थी और शायद कुछ ज्यादा ही उग्र हो रही थी. तभी देवयानी ने पहले ही दिल्ली उच्च न्यायालय से उस के खिलाफ एक आदेश ले लिया था.

अमेरिकी दूसरे देशों, खासतौर पर एशियाई और गरीब देशों के नागरिकों के साथ अकसर दुर्व्यवहार करते रहते हैं. कहा जाता है कि एक अमेरिकी द्वारा भूतपूर्व रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन के साथ दुर्व्यवहार करने पर ही भारत ने जवाहरलाल नेहरू के जमाने में रूस से संबंध जोड़े थे और भारत की नजरों में अमेरिका लोकतंत्र और मानवीय अधिकारों की रक्षा करने वाला देश होने के बावजूद शत्रु से कम नहीं रहा.

अमेरिकी पुलिस किसी भी शिकायत पर गंभीर कार्यवाही उसी तरह करती है जिस तरह भारतीय पुलिस करती है. पर हमारी पुलिस व्यक्ति के ओहदे, स्तर, जाति, धर्म का लिहाज अवश्य करती है. अमेरिकी पुलिस वाले बेहद दंभी और नियमों को मानने वाले होते हैं और अगर किसी पर शक हो तो उस से दुर्व्यवहार करने तक में नहीं चूकते. भारतीय राजनयिक सेवा से जुड़ी होने के कारण देवयानी को यह एहसास था और तभी उन्होंने भारत में अपनी नौकरानी के खिलाफ चोरी का आरोप लगा कर अपने को सुरक्षित करना चाहा था. अमेरिका में अगर वह यह आरोप लगाती और झूठा पाया जाता तो लेने के देने पड़ जाते.

विदेश मंत्रालय इस मामले में अमेरिका के पीछे इसलिए पड़ गया क्योंकि लगभग हर राजनयिक अपने साथ एक नौकर या नौकरानी ले जाता है जिसे वह अपनी सीमित आय में से भारत के अनुसार पर्याप्त वेतन देता है पर वह वेतन अमेरिका में मिलने वाले वेतन से कहीं कम होता है. आमतौर पर ये नौकरानियां खुश रहती हैं पर कोईकोई, संगीता जैसी, बिफर जाती है.

संगीता का पूरा खानदान विदेशी दूतावासों से जुड़ा है और उन्हें नियमों- कानूनों की खबर है. तभी तो उस के पति और बच्चे के अमेरिका पहुंचने के बाद ही गिरफ्तारी की गई.

यह मामला गंभीर इसलिए है कि अगर घरेलू नौकर ले जाने पर पाबंदी लग गई तो कोई भारतीय राजनयिक विदेशी नौकरी पर जाएगा ही नहीं. हमारा विदेश मंत्रालय ठप हो जाएगा. अमेरिकी इस बात को समझते नहीं हैं कि जाति और गरीबी के कारण भारत में छिपी गुलामी मौजूद है और फलफूल भी रही है. हे अमेरिकियो, इसे पनपने दो. इसी पर भारत टिका है.

 

भाजपा में दुविधा

राजस्थान व मध्य प्रदेश में भारी बहुमत व छत्तीसगढ़ में जीत के बावजूद भारतीय जनता पार्टी डरी हुई है कि नरेंद्र मोदी का करिश्मा दीवाली से पहले ही फुस्स न हो जाए. इस में अरविंद केजरीवाल का बहुत बड़ा हाथ है क्योंकि उन्होंने यह साबित कर दिया है कि दिल्ली की तरह मध्य प्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ के मतदाता कांग्रेस से नाराज थे न कि नरेंद्र मोदी की हिंदुत्व की हुंकार के चलते उन्होंने भाजपा को वोट दिया.

नरेंद्र मोदी चुनावों से पहले विकास की बातें तो कर रहे थे पर भ्रष्टाचारमुक्त, दोषरहित प्रशासन की नहीं. गुजरात में नरेंद्र मोदी की पहले की जीत में हिंदूमुसलिम दंगे और अमीर घरानों को दी गई सहूलियतों का योगदान रहा है. छत्तीसगढ़ और दिल्ली में यह करिश्मा नहीं चला क्योंकि दिल्ली में आम आदमी पार्टी थी और छत्तीसगढ़ में कांग्रेसियों की नक्सलियों द्वारा की गई हालिया हत्याओं की कुछ सहानुभूति.

भाजपा के कुछ नेता अब फिर प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने लगे हैं और मोदी फैक्टर की बात अब दबे शब्दों में कह रहे हैं. ये समाचार भी छपवाए जा रहे हैं कि लालकृष्ण आडवाणी को बहादुरशाह जफर की तरह मना कर दिल्ली का सिंहासन दिया जा सकता है, अगर मोदी के नाम पर पर्याप्त सीटें नहीं मिलीं और अन्य दलों ने साथ नहीं दिया.

यह पक्का है कि दूसरे दल नरेंद्र मोदी का साथ तब ही देंगे जब उन्हें लगेगा कि इस के अलावा कोई चारा नहीं. अटल बिहारी वाजपेयी कोई उदार नेता न थे पर मोदी के मुकाबले बहुत सौम्य व मित्रवत थे. उन से लोगों की अच्छी पटती थी. मोदी का व्यवहार उखड़ा व अक्खड़ है और वे अभी से सिर पर राजमुकुट लगाए जैसे घूमते नजर आ रहे हैं.

अगर दिल्ली की तरह आम आदमी पार्टी ने राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात आदि में उम्मीदवार खड़े कर दिए तो वे कांग्रेस के काफी वोट बटोर ले जाएंगे क्योंकि फिलहाल बेईमानी और भ्रष्टाचार की काली तारकोल कांग्रेस पर ही लगी है. सोशल मीडिया पर जो हल्ला अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनने के लिए मचाया गया उस के पीछे वही लोग हैं जो नमोनमो का प्रचार कर रहे हैं. वे चाहते हैं कि अरविंद केजरीवाल दिल्ली के प्रशासन में व्यस्त हो जाएं. पर यह भी संभव है कि दिल्ली सरकार संभालने के बाद लोगों को यह विश्वास और आ जाए कि आम आदमी पार्टी भाजपा से बेहतर पर्याय हो सकती है चाहे वह नए लोगों की क्यों न हो.

यह पक्का है कि अगले 3 माह बेहद रोमांच भरे होंगे और चुनावी लड़ाई में रोज नए पैंतरे दिखेंगे. एक तरफ घाघ कांगे्रसी व भाजपाई होंगे तो दूसरी ओर नएनवेले अरविंद केजरीवाल.

 

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