3 राज्यों की जीत पर इतरा रही भाजपा को एहसास नहीं कि यह जीत उस की नहीं बल्कि मध्यवर्ग की है जो कांग्रेस के कुशासन और करतूतों की परिणति के तौर पर उस की झोली में आ गिरी है. जातिधर्म के एजेंडे पर चल कर और सांप्रदायिक सियासत करती आ रही भाजपा और उस के नेताओं की जीत के माने की पड़ताल कर रहे हैं शैलेंद्र सिंह.

राजस्थान, दिल्ली, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम के विधानसभा चुनावों के नतीजे भारतीय जनता पार्टी के लिए संजीवनी बूटी साबित हुए हैं. खुशी की बात यह है कि संजीवनी बूटी रूपी इस जीत को हासिल करने के लिए भाजपा के किसी हनुमान को हिमालय पर्वत तक जाने की जरूरत भी नहीं पड़ी. केंद्र में 10 साल की कांग्रेसी सरकार की करतूतें ही संजीवनी बूटी साबित हुई. कांग्रेस के कुशासन में महंगाई और भ्रष्टाचार ने जनता को इतना ज्यादा परेशान किया कि उसे छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में हमदर्दी के वोट भी नहीं मिले, जहां नक्सलवादियों ने राज्य कांग्रेस को खत्म सा कर दिया था. भाजपा इस जीत को केंद्र से अपने वनवास का अंत मान रही है. उस के नेताओं की बौडीलैंग्वेज बदल गई है. नरेंद्र मोदी का व्यवहार भी पूरी तरह से प्रधानमंत्री जैसा दिखने लगा है.

5 राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की पहली रैली उत्तर प्रदेश के वाराणसी में आयोजित की गई. रैली की सब से खास बात यह थी कि इस को शहर से 22 किलोमीटर दूर जूरी मिर्जामुराद जैसे ग्रामीण इलाके में रखा गया था. भाजपा शहरी मध्यवर्ग से निकल कर गांव के लोगों तक पहुंचने का प्रयास कर रही है. रैली तक पहुंचने के निए नरेंद्र मोदी ने 3 बार हैलीकौप्टर की यात्रा की. पहली बार वे बाबतपुर हवाई अड्डे तक आए. इस के बाद वहां से हैलीकौप्टर के जरिए बीएचयू पहुंचे. वहां काशीविश्वनाथ और संकटमोचन के दर्शन करने के बाद वापस हवाई मार्ग से रैली स्थल तक पहुंचे.

नरेंद्र मोदी की रैली की जगह पर 3 मंच बनाए गए थे. एक मंच पर प्रदेश स्तर के बड़े नेताओं की कुरसियां थीं. दूसरे मंच पर दूसरी श्रेणी के छोटेबड़े नेता. वीवीआईपी मंच मोदी के लिए था. उस पर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह, पूर्व अध्यक्ष डा. मुरली मनोहर जोशी और नरेंद्र मोदी की कुरसियां थीं. मोदी के बोलने के लिए बुलैटप्रूफ बौक्स की व्यवस्था की गई थी. मंच के पीछे लगे परदे पर काशी की झांकी साफ दिख  रही थी. इस में विश्वनाथ मंदिर, दशाश्वमेधघाट और राजेंद्रघाट साफ दिख रहा था.

दिल्ली में आम आदमी पार्टी यानी आप की जीत से सबक लेते हुए नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में कांग्रेस पर हमले करने के साथ स्थानीय मुद्दों पर अपने को केंद्रित किया था. बनारसी साड़ी, गंगा नदी की शुद्धता, शिक्षकों की सरकारी नौकरी की प्रक्रिया और बुनकरों की बातों को हिट फिल्मी डायलौग की तरह लोगों के सामने रखा. सुन कर लगता था कि किसी अच्छे डायलौग राइटर ने उन का भाषण लिखा होगा. इस के पहले जब कानपुर में उन की रैली हुई थी तो वे स्थानीय मुद्दों पर खामोश रहे थे.

मध्यवर्ग की जीत

3 राज्यों की जिस जीत पर भाजपा इतरा रही है, दरअसल, वह मध्यवर्ग की जीत है. कांग्रेस के राज में इस कदर से मंहगाई बढ़ी कि मध्यवर्ग के लिए घर चलाना मुश्किल हो गया था. चुनाव के पहले केंद्र सरकार ने सरकारी कर्मचारियों को दीपावली के मौके पर मंहगाई भत्ता बढ़ाया था. कांग्रेस को लगता था कि इस से वह मध्यवर्ग के लोगों को खुश कर लेगी. कांगे्रस यह भूल गई कि सरकारी कर्मचारियों का एक बड़ा प्रतिशत मध्यवर्ग से बाहर हो चुका है. उस के ऊपर महंगाई का कोई असर नहीं पड़ता. देश में एक बड़ा मध्यवर्ग ऐसा आ चुका है जिस के परिवार के लोग सरकारी नौकरियों में नहीं हैं. वे प्राइवेट नौकरी के जरिए अपना घरपरिवार चला रहे हैं. यह मध्यवर्ग अपने कामों के लिए सरकारी नौकरों को रिश्वत देता है. ऐसे में सरकार ने सरकारी नौकरों को महंगाई भत्ता दे कर मध्यवर्ग के जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया.

जिन प्राइवेट कंपनियों में नौकरियों के जरिए मध्यवर्ग अपना जीवन चला रहा है उन कंपनियों के मालिकों को भी सरकार परेशान करती रही. उन की आमदनी नहीं बढ़ी जिस से प्राइवेट नौकरियों में भी बड़ी तादाद में छंटनी होने लगी. लोगों को प्रमोशन नहीं दिया गया. वेतन नहीं बढ़ा. ऐसे में मध्यवर्ग सरकारी नीतियों से परेशान हो चला था. उस ने कांग्रेस के खिलाफ वोट दिया.

यह बात सच है कि मध्यवर्ग भाजपा से भी खुश नहीं था पर उस सामने दूसरा विकल्प भी नहीं था. दिल्ली जैसे राज्य में जहां आम आदमी पार्टी जैसा दल विकल्प के रूप में था वहां उस ने उस को वोट दे दिया. ऐसे में भाजपा की जीत में मध्यवर्ग की बड़ी भूमिका थी. कांग्रेस अपनी वाहवाही लूटने के लिए जिन कल्याणकारी योजनाओं पर पैसा खर्च कर रही है, मध्यवर्ग उन्हें भी बढ़ती महंगाई का कारण और अपने ऊपर बोझ मानता है. ऐसे में मनरेगा, खाद्य सुरक्षा कानून और कैश सब्सिडी जैसे कांग्रेसी हथियार भी असर नहीं दिखा सके.

आडंबर और भगवाकरण

नरेंद्र मोदी ने अपने प्रचार को विकास के मुद्दे पर चलाने की पूरी कोशिश की थी. एक कुशल कारोबारी की तरह उन्होंने पूरे प्रचार अभियान को धर्म के आडंबर के बीच रखा. ऐसे में भाजपा की जीत के बाद अब यह धर्म का आडंबर चलता रहेगा. नरेंद्र मोदी ने भले ही अपनी सभाओं में राममंदिर का जिक्र न किया हो पर वे अपनी बातों या रैली के लिए तैयार मंच की बनावट में मंदिर का प्रयोग करते रहे हैं.

3 राज्यों में जीत के बाद वाराणसी में नरेंद्र मोदी धर्म के मुद्दे पर मुखर हो गए. जनता के सामने जाने से पहले वे काशीविश्वनाथ और संकटमोचन मंदिर में दर्शन करने के लिए गए. सब से पहले वे बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने पहुंचे. यहां नरेंद्र मोदी ने षोडशोपचार विधि से पूजन किया. 51 लिटर गाय के दूध और 11 घड़े गंगाजल से बाबा विश्वनाथ का दुग्धाभिषेक किया. मंदिर प्रशासन ने मोदी को अंगवस्त्र और रुद्राक्ष की माला प्रसाद के रूप में दी. पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के साथ वे करीब 35 मिनट तक गर्भगृह में रहे. इस के बाद वे संकटमोचन मंदिर गए और 20 मिनट तक वहां पूजा की.

नरेंद्र मोदी ने भगवान की पूजा में 55 मिनट का समय लगाया. इस के बाद जनता के बीच 50 मिनट भाषण किया. यहां भी गंगा की शुद्धीकरण के बहाने धर्म के मुद्दे को जिंदा रखा. मोदी ने कहा कि जब उन्होंने गुजरात में सरकार बनाई तो साबरमती की हालत खराब चल रही थी. गंगा को शुद्ध करना है तो लखनऊ और दिल्ली को शुद्ध करना पड़ेगा. मोदी का प्रचार करने वाले लोग इस बात को प्रमुखता से कह रहे हैं कि नरेंद्र मोदी के आने से ही धर्म सुरक्षित रहेगा.

आजकल बड़ी संख्या में सोशल मीडिया में नरेंद्र मोदी का ‘नमोजाप’ प्रचारित किया जा रहा है. इन लोगों की प्रोफाइल देखते ही समझ में आ जाता है कि वे धर्म के आडंबर में किस कदर डूबे हैं. कई लोग सीधे हिंदुत्व से बचना चाहते है तो वे राष्ट्रवाद को सामने ला कर धर्म के आडंबर को आगे बढ़ाने का काम करते हैं.

भाजपा अपनी रैलियों में भगवा रंग का बढ़चढ़ कर प्रदर्शन करने लगी है. उस को लगता है कि इस के जरिए वह बिना धर्म की बात कहे अपने एजेंडे को आगे बढ़ा सकती है. पिछले कुछ दिनों में हिंदीभाषी क्षेत्रों में सड़कों पर ऐसी गाडि़यां ज्यादा दिखने लगी हैं जिन में भगवा झंडे लगे होते हैं या नरेंद्र मोदी का प्रचार करते स्टिकर लगे होते हैं. कई बार तो धर्म के आडंबर का विरोध करने वालों को भी नरेंद्र मोदी का विरोधी मान लिया जाता है.

जाति का सवाल

वैसे तो नरेंद्र मोदी विकास की बात करते हैं पर असल बात है कि वे भी जाति के सच को स्वीकार कर चुके हैं. सरदार वल्लभभाई पटेल की दुनिया की सब से ऊंची मूर्ति लगवाने की मुहिम के तहत नरेंद्र मोदी और भाजपा ने बड़ा प्रचार अभियान चलाया है. सब से पहले वे गांवगांव जा कर लोहा एकत्र करने का अभियान चलाते हैं. यह अभियान जब बहुत सफल नहीं हुआ तो ‘रन फौर यूनिटी’ के तहत दौड़ लगाई. यह ‘रन फौर यूनिटी’ भी सरदार पटेल की मूर्ति से जुड़ी थी. पटेल को आगे कर के भाजपा जाति का कार्ड खेलना चाहती है. अभी तक पिछड़े वर्ग में उस के पास कोई बड़ा नेता नहीं था इसलिए नरेंद्र मोदी ने कांग्रेसी पटेल को अपना जरिया बना लिया. भाजपा के लोग अपने प्रचार के जरिए लोगों को यह बता रहे हैं कि नरेंद्र मोदी भी गुजरात की पिछड़ी जाति से आते हैं.

पटेल की मूर्ति की राजनीति के सहारे भाजपा जाति के साथसाथ अपने मूर्तिप्रेम को भी बनाए रखना चाहती है. यह एक बड़ी चाल है जिस से मूर्ति की राजनीति करने का उस का फार्मूला सफल होता रहे. चुनाव में जीत के बाद भाजपा को लग रहा है कि हिंदीभाषी इलाकों में यह हिट रहेगा. सही मानों में देखें तो भाजपा का जनाधार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली, गुजरात, छत्तीसगढ़ तक ही सीमित है. महाराष्ट्र में वह शिवसेना, पंजाब में अकाली दल और बिहार में जदयू की बैसाखी उस के पास रही है. बिहार में जदयू के अलग होने के बाद भाजपा के सामने सब से बड़ी चुनौती बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में है. यहां से लोकसभा की 134 सीटें आती हैं. ऐसे में वह पिछड़ों के जातीय आधार में अपने लिए मौका तलाश रही है. यहां भाजपा नरेंद्र मोदी के विकास को नहीं, उन की जाति को हथियार बना रही है.

हिंदूमुसलिम में अलगाव

भाजपा मोदी की छवि के सहारे हिंदू- मुसलिम में आई दरार को पाटने के बजाय बढ़ाने का काम कर रही है. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर दंगों में उस की यह रणनीति साफ नजर आ रही थी. वहां दंगा भड़काने के लिए भाजपा के जिन विधायकों को जेल भेजा गया, उन को जेल से वापस आने के बाद नरेंद्र मोदी की आगरा रैली में मंच पर सम्मानित किया गया. नरेंद्र मोदी को मुसलिम

टोपी पहनने से पहले ही परहेज था. अब ऐसी घटनाओं से हिंदूमुसलिम के बीच दूरियां बढ़ेगी. 3 राज्यों में चुनाव परिणाम के बाद भी नरेंद्र मोदी में ऐसा कोई भाव नहीं दिखा कि वे हिंदूमुसलिम के बीच की दूरी को कम करना चाहते हैं.

बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने के बाद मोदी ने कहा कि जब वे प्रधानमंत्री बन जाएंगे तो दोबारा दर्शन करने आएंगे. काशी में आ कर भी वे काशी और सोमनाथ का जिक्र बारबार करते रहे. दरअसल, काशी और सोमनाथ के वे हिंदू अस्मिता और मंदिरों की हालत को रेखांकित करना चाहते थे.

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ लोकसभा चुनाव के पहले धर्म की राजनीति को खुल कर सामने नहीं लाना चाहता है. 3 राज्यों में सरकार बनाने के बाद संघ को लगने लगा है कि वह कांग्रेस के कुशासन से ही जीत जाएगा तो बेकार में धर्म की राजनीति को बढ़ावा दे कर सहयोगी दलों को क्यों नाराज किया जाए? संघ को नरेंद्र मोदी की अगुआई में लोकसभा चुनावों में

272 सीटों का बहुमत मिलता नहीं दिख रहा है, इसलिए वह भाजपा के बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी को भी निराश नहीं करना चाहता. उसे लगता है कि जो सहयोगी दल नरेंद्र मोदी के नाम पर राजी नहीं होंगे, हो सकता है कि वे लालकृष्ण आडवाणी के नाम पर राजी हो जाएं. वह हिंदूमुसलिम एकता की बात कर के हिंदुत्व को हाशिये पर भी नहीं डालना चाहती. ऐसे में लालकृष्ण आडवाणी पर भी उस की नजर है. राजनीति के जानकार मानते हैं कि विधानसभा चुनावों में जीत के बाद संघ ने पूरी कमान अपने हाथ में ले रखी है. भाजपा और नरेंद्र मोदी उस के अनुसार ही काम कर रहे हैं.

3 राज्यों में जीत के बाद भाजपा को लग रहा है कि अब उस की जीत पूरी तरह से पक्की हो गई है. कांग्रेस में फैली निराशा और अंधकार ने उसे लगभग वाकओवर दे दिया है. भाजपा की सब से बड़ी परीक्षा उत्तर प्रदेश और बिहार में होनी है जहां भाजपा का सत्ता का रथ फंसता दिख रहा है, उत्तर प्रदेश और बिहार में जातीय राजनीति ने धर्म को दरकिनार कर दिया है. यहां पर भाजपा के मुकाबले समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड), राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियां हैं. ये कांग्रेस के मुकाबले भाजपा को ज्यादा परेशानी में डाल सकती हैं.

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव साफ कहते हैं, ‘नरेंद्र मोदी की उत्तर प्रदेश में दाल नहीं गलने वाली है. उत्तर प्रदेश मोदी को वापस गुजरात भेज देगा. 26 लोकसभा सीटों वाले प्रदेश का नेता भला प्रधानमंत्री कैसे बन सकता है. पीएम तो 80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश से ही बनेगा.’ मुलायम की बात में कितना दम है, यह तो वक्त बताएगा पर उन की इस बात में पूरा दम है कि लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश का रोल अहम होगा. ऐसे में विधानसभा की जीत को लोकसभा की जीत समझ लेना उचित नहीं है. जिस तरह से कांग्रेस ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी को सरकार बनाने के लिए समर्थन दिया, उस से साफ हो गया है कि लोकसभा चुनावों के बाद कांग्रेस भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए कुछ भी समझौता कर सकती है. ऐसे में मुलायम और जयललिता जैसे नेता प्रधानमंत्री बनने का सपना देख सकते हैं.

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