दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की चुनावी जीत ने केंद्र सरकार को लोकपाल कानून बनाने के लिए मजबूर कर दिया और ताबड़तोड़ मेहनत कर के सभी दलों ने इसे पास कर दिया. यह साफ है कि देश का कोई राजनीतिक दल गली में आए इस सफेदपोश झाड़ू वाले को स्वीकार करना नहीं चाहता और गुंडोंमवालियों से भरी पार्टियों को इस झाड़ू वाले से अपना अस्तित्व खतरे में नजर आ रहा है.

सरकार के लोकपाल से अन्ना हजारे संतुष्ट हैं. उन के पास इस के अलावा कोई चारा नहीं है. वे सरकार से लोहा एक हद तक ले सकते थे. अरविंद केजरीवाल ने इन नेताओं के अखाड़े में कूद कर चुनौती दी और जीत हासिल की, जो अन्ना के बस की नहीं थी. इसलिए उन्होंने इसे सिरमाथे लगा लिया.

यदि यह कानून सिर पर बंदूक लगाए बिना पास होता तो ठीक माना जाता. पर अब जब जनता झाड़ू की बंदूक सिर पर लगा ही चुकी है तो यह सरकार की जेब से निकला वह बटुआ है जिस में सिर्फ खोटे सिक्के हैं. सरकारी लोकपाल चाहे जितना सक्षम दिखे, अपने जन्म के इतिहास के कारण यह हमेशा कमजोर दिखेगा.

लोकपाल का लाभ तभी होता जब जांच करने वाली संस्था पर पूरी तरह लोकपाल की जिम्मेदारी होती, ठीक वैसे जैसे सर्वोच्च न्यायालय अपनेआप में स्वतंत्र है. लोकपाल की नियुक्ति सरकार ही करेगी और जैसे सभी दल इस कानून को बनाने में एकजुट हो गए वैसे ही नियुक्ति के समय ही लोकपाल को बता दिया जाएगा कि सत्ताधारीदल और मुख्य विपक्षी दल के खिलाफ कुछ करना नहीं है. वे एकदूसरे के पूरक हैं, दुश्मन नहीं, यह लोकपाल कानून बनाते समय साफ भी हो गया जब भारतीय जनता पार्टी ने बढ़चढ़ कर कांग्रेस का साथ दिया. दिल्ली में भाजपा को पटकनी तो अरविंद केजरीवाल ने ही दी है न.

दोनों दल लोकपाल को अब अपनी मनचाही संतान मान कर जन्म देने को मजबूर हुए हैं. वे हर कदम पर इस के कामकाज में अड़चनें डालेंगे, यह पक्का है. लोकपाल असल में भ्रमपाल है. देश के बड़े दल इंतजार कर रहे हैं कि आम आदमी पार्टी की सुनामी अपनेआप में शांत हो जाए, इस दौरान यह आपदा राहत कदम है. इस तूफान के थमते ही लोकपाल को खंडहर में बदल दिया जाएगा, यह पक्का है.

 

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