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भोजपुरी सिनेमा सफलता का देसी फार्मूला

1961 में रिलीज हुई पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो’ से शुरू हुआ भोजपुरी फिल्मों का सफर लंबे संघर्ष के बाद आज एक खास मुकाम हासिल कर चुका है. यही वजह है कि बौलीवुड और साउथ इंडियन फिल्मों के असफल और निराश कलाकारों के लिए भोजपुरी फिल्म उद्योग सफलता का देसी फार्मूला बन कर उभरा है. पढि़ए राजेश कुमार का लेख.

भोजपुरी फिल्मों का कारोबार आज हिंदी फिल्मों को चुनौती दे रहा है. भोजपुरी भाषा में बनी फिल्में अब द इंटरनैशनल इंडियन फिल्म एकेडमी अवार्ड्स (आइफा) और कई विदेशी अवार्ड समारोहों में प्रीमियर की जा रही हैं. इन फिल्मों ने देशभर के सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों को एक बार फिर से जिंदा कर दिया है. लेकिन एक दौर ऐसा भी था जब भोजपुरी फिल्मों में काम करने को कई सफल कलाकार लो स्टेटस का काम समझते थे. दौर बदला और भोजपुरी फिल्मों का बाजार भी. भोजपुरी सिनेमा की जनता के बीच बढ़ती लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अब भोजपुरी फिल्मों में अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी, जया बच्चन, मिथुन चक्रवर्ती, अजय देवगन, जितेंद्र से ले कर हर छोटाबड़ा अभिनेता, गायक, निर्मातानिर्देशक और कौमेडियन शान से काम कर रहे हैं.

भोजपुरी फिल्म उद्योग ने सब से ज्यादा फायदा उन अभिनेत्रियों को पहुंचाया है जो हिंदी फिल्मों से शुरुआती दौर से ही अचानक लाइमलाइट से बाहर हो गईं. कैरियर को खत्म होता देख इन अभिनेत्रियों ने भोजपुरी सिनेमा का रुख किया और इस देसी सिनेमा ने इन के कैरियर को एक नया जीवनदान दिया. इन में भूमिका चावला, नीतू चंद्रा, ऋषिता भट्ट, श्वेता तिवारी, संभावना सेठ, भाग्यश्री, रश्मि देसाई, नगमा, पाखी हेगडे़, मोनालिसा, रिंकू घोष, रंभा, अनारा गुप्ता, लवी रोहतगी और प्रीति झ्ंिगयानी आदि के नाम प्रमुख हैं. इन के कैरियर के लिए भोजपुरी फिल्में सफलता का देसी फार्मूला बन कर उभरी हैं.

ऐसा नहीं है कि भोजपुरी फिल्में सिर्फ अभिनेत्रियों के कैरियर को जीवन दे रही हैं, हिंदी फिल्मों में काम कर चुके आशिकी फेम राहुल राय, मुकेश खन्ना, कृष्णा, विनय आनंद, रवि किशन, शक्ति कपूर से ले कर कुमार सानू, अनूप जलोटा, एकता कपूर और उदित नारायण भी आजकल भोजपुरी फिल्मों में मसरूफ हैं.

कोई अभिनेता के तौर पर, कोई गायक या निर्माता के तौर पर. मतलब यह है कि अभिनेत्रियों के अलावा भोजपुरी फिल्मों ने कई गायकों, संगीत निर्देशकों और चरित्र अभिनेताओं के कैरियर में भी जान फूंकी है. इन सब के बावजूद, यह मानना पड़ेगा कि फ्लौप अभिनेत्रियों के लिए भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री डूबते को तिनके का सहारा बन कर उभरी है.

सलमान खान के साथ ‘तेरे नाम’ जैसी सुपरहिट फिल्म देने के बावजूद भूमिका चावला को हिंदी फिल्मों में असफलता ही हाथ लगी. लिहाजा, उन्होंने भोजपुरी फिल्म का रुख किया. भोजपुरी फिल्मों की शुरुआत में ही उन्होंने अमिताभ बच्चन जैसे दिग्गज कलाकार के साथ काम किया. और एक वक्त में स्टारडम से कोसों दूर रहीं भूमिका को इन देसी फिल्मों ने फिर से सफलता के मुकाम पर पहुंचा दिया. हालफिलहाल भूमिका भोजपुरी फिल्मों के साथसाथ साउथ की फिल्मों में सक्रिय हैं.

भूमिका की तरह ही सलमान खान के साथ सुपरहिट फिल्म ‘मैं ने प्यार किया’ करने के बाद भाग्यश्री ने कई हिंदी फिल्में कीं, लेकिन सफल नहीं हो सकीं. भोजपुरी फिल्मों में अपना भाग्य आजमाया. यहां उन्हें सफलता का स्वाद चखने को मिल ही गया. उन्होंने भोजपुरी फिल्मों के सुपरस्टार रवि किशन के साथ ‘उठाइले घूंघटा चांद देख ले’ जैसी सुपरहिट फिल्म की. आज भोजपुरी फिल्मों में उन की खासी डिमांड है.

नीतू चंद्रा ने अपना कैरियर अक्षय कुमार के साथ फिल्म ‘गरम मसाला’ जैसी सुपरहिट फिल्म से स्टार्ट किया.  लेकिन बाद में खास सफल नहीं हुईं.

कैरियर का ढलान आता देख उन्होंने भी भोजपुरी फिल्मों का रुख किया. उन्होंने बतौर निर्माता पाखी हेगडे़ को ले कर आई फिल्म ‘देसवा’ बनाई जो न सिर्फ सफल हुई बल्कि समीक्षकों को भी खासी पसंद आई. भोजपुरी फिल्मों से सफलता का स्वाद चखने के बाद उन्होंने कई और भोजपुरी फिल्मों के निर्माण की घोषणा की है.

धारावाहिक ‘कसौटी जिंदगी की’ से चर्चा में आईं टीवी क्वीन श्वेता तिवारी को बड़े परदे ने खींच तो लिया पर अपेक्षित सफलता न दिला सका. कई हिंदी फिल्मों में अभिनय और आइटम सौंग करने के बाद श्वेता ने भी भोजपुरी फिल्मों में हाथ आजमाया. वहां उन की दाल गल गई. भोजपुरी में श्वेता खुद कई फिल्मों का निर्माण भी कर रही हैं.

डूबने से बचाया कैरियर

‘उतरन’ और ‘झलक दिखला जा’ में चर्चा बटोरने वाली रश्मि उर्फ दिव्या देसाई को भी यह सफलता भोजपुरी फिल्मों ने दिलवाई है. वे टीवी पर तो पार्टटाइम काम करती हैं, उन का फुलटाइम भोजपुरी फिल्मों के लिए ही है. इन के अलावा मोनालिसा ने हिंदी की बी और सी ग्रेड फिल्मों, ‘तौबातौबा’ और ‘एक चतुर नार’ में अपनी बोल्ड अदाओं से कहर बरपाने में नाकाम रहने के बाद भोजपुरी फिल्मों का रुख किया. हालफिलहाल मोनालिसा भोजपुरी की टौप अभिनेत्रियों में से हैं और भोजपुरी के सुपरस्टार निरहुआ से ले कर रवि किशन और मनोज तिवारी के साथ अपनी जोड़ी जमा रही हैं.

सैक्स स्कैंडल से अचानक सुर्खियों में आई ‘मिस जम्मू’ अनारा गुप्ता ने फिल्मी कैरियर की शुरुआत हिंदी फिल्मों से की. पहली हिंदी फिल्म उन के सैक्स सीडी प्रकरण पर आधारित थी पर उन्हें कोई नोटिस नहीं मिला. बाद में अनारा को भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में मौका मिला. अनारा इन दिनों भोजपुरी फिल्मों में एक सफल नाम है.

हिंदी और बंगाली फिल्म में काम कर चुकीं रिंकू घोष का कैरियर भी भोजपुरी फिल्मों की बदौलत चमका. आज वे भोजपुरी की सफल स्टार हैं. रिंकू भोजपुरी में कई सुपरहिट फिल्में दे चुकी हैं. वहीं कंट्रोवर्सी क्वीन संभावना सेठ को भी भोजपुरी फिल्मों ने पहचान दी. संभावना ने बतौर आइटम डांसर, कई भोजपुरी फिल्मों में काम किया है.

भोजपुरी फिल्मों ने सिर्फ हिंदी फिल्म अभिनेत्रियों के ही नहीं बल्कि दक्षिण भारतीय फिल्मों की अभिनेत्रियों के ढलते कैरियर को डूबने से बचाया. साउथ और हिंदी फिल्मों ने अपने कैरियर को डूबते देख नगमा ने भोजपुरी फिल्मों में सफलता पाई. उन्होंने भोजपुरी में बिग बी यानी अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘गंगा’ में भी काम किया. नगमा की तरह ही साउथ की जानीपहचानी अदाकारा रंभा ने कई सुपरहिट हिंदी फिल्में भी की हैं लेकिन कैरियर ढलता देख उन्हें भी देसी फिल्मों की शरण में आना पड़ा.

दरअसल, लंबे समय से उपेक्षित भोजपुरी फिल्म उद्योग को चमकाने में काफी मेहनत की गई है. अमिताभ बच्चन के मेकअपमैन दीपक सावंत ने अमिताभ को जब भोजपुरी फिल्मों में उतारा तब अचानक लोगों का भोजपुरी फिल्मों के प्रति उपेक्षाभरा रवैया बदला. अमिताभ ने बयान भी दिया था कि क्षेत्रीय फिल्मों को सहयोग और समर्थन की जरूरत है और यही कारण है कि वे ऐसी फिल्मों में काम के बदले कभी पैसा नहीं लेते. भोजपुरी भाषा की ‘गंगा’ और ‘गंगोत्री’ जैसी फिल्मों में काम कर चुके अमिताभ और जया कई और भोजपुरी फिल्मों में काम कर रहे हैं. देखतेदेखते लंबे समय तक उपेक्षित रही पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की भाषा ‘भोजपुरी’ एकाएक बढि़या मुनाफे वाले सिनेमा का जरिया बन गई है. 

राममंदिर के मारे किसान

अयोध्या के राममंदिर विवाद के दौरान मंदिरमसजिद की राजनीति कर कई नेताओं ने न सिर्फ अपनी सियासत चमकाई बल्कि मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक बन बैठे. इसी दरम्यान मंदिर के नाम पर किसानों से उन की जमीनें कौडि़यों के भाव ली गईं. मुआवजे की आस में बैठे किसान इंसाफ के लिए आज तक अदालतों के चक्कर काट रहे हैं. ऐसे ही एक किसान के दर्द को साझा कर रहे हैं शैलेंद्र सिंह.

अयोध्या के राममंदिर विवाद ने राजनीतिक पार्टियों, मुकदमा लड़ने वाले वकीलों और नेताओं को कुरसी व पैसा दोनों का लाभ कराया. मंदिर व मसजिद की राजनीति करने वाले कई नेता मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक बन गए. राममंदिर बनाने के लिए किसानों की जमीनें मिट्टी के भाव ली गईं. उन का तय मुआवजा तक नहीं दिया गया. ऐसी 29 एकड़ जमीन के मालिक कई किसान परिवार पिछले 22 साल से मुआवजे हासिल करने की लड़ाई लड़ रहे हैं. उन की सुध लेने वाला कोई नहीं है.

अयोध्या के 3 गांव के 20 से ज्यादा किसान मंदिर के लिए जमीन के अधिग्रहण का दर्द पिछले 22 सालों से झेल रहे हैं. ये गांव अवध खास, कोट रामचंद्र और जालवानपुर परगना हवेली अवध, तहसील सदर, जिला फैजाबाद का हिस्सा हैं. यहां के रहने वाले किसान अमरजीत, रामजीत, कृष्णकुमार, विनोद कुमार, रामदुलारी, रामानंद, परशुराम, तुलसीराम, राजकुमार, राजितराम, रामबहादुर, शिवकुमार, रामप्रसाद और विनीत मौर्य के खेतों में आलू, टमाटर, गोभी, बैगन, लौकी जैसी सब्जियां और गेंदा, गुलाब जैसे फूलों की खेती

होती थी. यही इन के रोजीरोजगार का साधन था. इन के घरपरिवार इसी पर अपना गुजरबसर कर रहे थे. फूलों की खेती साल भर होती थी. अयोध्या में फूल बेच कर इन का गुजारा हो जाता था.

वर्ष 1988-89 में उत्तर प्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग ने रामकथा पार्क बनाने के लिए 3 चरणों में 43 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर लिया. इस में 29 एकड़ जमीन खेती की थी. किसानों से वादा किया कि 15 रुपए प्रति वर्गफुट के हिसाब से इस जमीन का मुआवजा दिया जाएगा. जिन परिवारों से जमीन ली गई है उन के परिवार से एक आदमी को नौकरी दी जाएगी. सरकार ने इन किसान परिवारों को केवल 2 रुपए 40 पैसे प्रति वर्गफुट के हिसाब से मुआवजा दिया. किसी भी किसान के परिवार को कोई नौकरी नहीं दी गई. बाद में यही जमीन मंदिर बनाने के लिए अधिगृहीत कर ली गई. इस के बाद भी किसानों के मुआवजे पर कोई कदम नहीं उठाया गया.

कब मिलेगा न्याय

इस लड़ाई को लड़ रहे किसान विनीत मौर्य कहते हैं, ‘‘हम सभी किसान खेती कर के अपने परिवार का पालनपोषण करते थे. आज हमारे पास न तो खेती के लिए जमीन रह गई है और न ही कोई दूसरा काम. ऐसे में हमारे परिवार भुखमरी के कगार पर पहुंच गए हैं.

बच्चों की पढ़ाईलिखाई नहीं हो पा रही है. हमें मजदूरी कर के अपना पेट पालना पड़ रहा है. हम सभी किसान मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, कानूनमंत्री और राष्ट्रपति तक अपनी बात पहुंचा चुके हैं पर कोई भी सुनने को तैयार नहीं है. हम जिला न्यायालय में यह मुकदमा लड़ रहे हैं.

‘‘कोर्ट में लड़ाई इतनी सुस्त गति से चल रही है कि 22 साल बाद भी कुछ नहीं हुआ. हमारी एक पीढ़ी तो गुजर गई. बच्चे बडे़ हो गए. कब हमें न्याय मिलेगा, पता नहीं. जो जमीन अधिग्रहण के पहले सब्जी और फूलों से लहलहाती थी, अब जंगल बन गई है. इसे देख कर दुख होता है. सरकार की लालफीताशाही के चलते हम और हमारे परिवार भूखों मरने के कगार पर हैं.’’

कई किसान तो मुआवजे के इंतजार में दुनिया छोड़ चुके हैं. अब उन के परिवार वाले संघर्ष कर रहे हैं. रामकथा पार्क के लिए ली गई जमीन का राममंदिर बनाने के लिए अधिग्रहण कर लिया गया. तब से मामला केंद्र्र सरकार के पाले में चला गया है. अब उत्तर प्रदेश सरकार यह कह रही है कि जमीन की मालिक केंद्र्र सरकार है. वह ही तय करे, क्या करना है? विनीत मौर्य कहते हैं, ‘‘हम किसानों से जमीन प्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग ने ली थी. हमें मुआवजा और नौकरी देने की बात भी प्रदेश सरकार ने की थी. ऐसे में वह मसला केंद्र्र के पाले में क्यों डाल रही है. हमारी जमीन केंद्र्र को देने के पहले राज्य सरकार को हम किसानों से किया गया वादा पूरा करना चाहिए था.’’

सरकार की मनमानी

विनीत मौर्य कहते हैं, ‘‘हम ने सूचना अधिकार के तहत राज्य सरकार से इस अधिग्रहण के कानूनी पहलू की जानकारी मांगी तो पर्यटन विभाग ने किसी भी तरह की जानकारी देने से इनकार कर दिया. उस का कहना है कि उस के पास इस जमीन से जुड़ा कोई कागज नहीं है.’’

किसानों की जमीन को ले कर सरकार कैसे उस का मनमाना उपयोग करती है, इस का भी उदाहरण यहां देखने को मिलता है. जिन किसानों की जमीन पर्यटन विभाग ने रामकथा पार्क बनाने के लिए ली थी उस को 1 रुपए सालाना की दर से रामजन्मभूमि न्यास को पट्टे पर दे दिया. रामकथा पार्क दूसरी जगह पर बना लिया गया.

विनीत मौर्य आगे कहते हैं, ‘‘केंद्र्र सरकार कहती है कि जब उस ने जमीन का अधिग्रहण किया तो वह रामकथा पार्क की जमीन थी. उस में किसी भी किसान का नाम नहीं था. प्रदेश का पर्यटन विभाग अब अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रहा है. ऐसे में हम सभी किसानों ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को पत्र लिख कर मांग की है कि अगर हमें 26 जनवरी, 2014 तक जमीन का मुआवजा नहीं मिलेगा तो हम सभी किसान अनिश्चितकालीन धरना देने के लिए मजबूर होंगे.’’

इस संबंध में जब राज्य के पर्यटन विभाग से उन का पक्ष जानने की कोशिश की गई तो पर्यटन विभाग ने बात करने से मना कर दिया. उन का तर्क था कि किसान जमीन के मुआवजे की लड़ाई अदालत में लड़ रहे हैं. जैसा अदालत का फैसला होगा, हम करेंगे.

धर्म को आधार बना कर लड़ाई लड़ने वाले सभी दल इन किसानों से अपना पल्ला झाड़ रहे हैं. उन को इन की कोई चिंता नहीं है. कांग्रेसी सांसद निर्मली खत्री हों या समाजवादी पार्टी के विधायक और मंत्री तेज नारायण पांडेय या भारतीय जनता पार्टी के नेता विनय कटियार, इन किसानों की लड़ाई लड़ने की पहल कोई नहीं कर रहा है.

इन किसानों को अब केवल अदालत का भरोसा रह गया है. इन किसानों की लड़ाई भी राममंदिर विवाद जैसी लंबी हो गई है. सरकार न तो किसानों की जमीन उन को वापस दे रही है और न उस का मुआवजा ही.

उद्देश्य से भटकता मीडिया

हम गणना नहीं कर सकते कि भारत में छपने वाले समाचारपत्रों और पत्रिकाओं की संख्या कितनी है. इस संबंध में जो आंकड़े छपते रहते हैं उन से तसवीर बहुत गुलाबी लगती है. बताया जाता है कि विभिन्न भाषाओं में छपने वाले अखबारों की संख्या हजारों में है तो साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्रिकाएं भी इतनी हैं कि उन की गणना नहीं हो सकती. कई पत्रपत्रिकाएं तो लाखों की संख्या में छपती और बिकती हैं. कुल मिला कर ये करोड़ों में बिकते और अरबों का व्यापार करते हैं.

जाहिर है, उन्हें पढ़ने वाले करोड़ों की तादात में होंगे. पूरे शिक्षित अथवा अर्धशिक्षित, अपनी भाषा का कोई न कोई अखबार सभी पढ़ते हैं. शिक्षा और सूचना के प्रसार में पत्रिकाओं का योगदान भी कम नहीं है. एक तरह से देखें तो यह एक विस्फोट है जो भारत में इतने व्यापक रूप से पहली बार हो रहा है. अपनीअपनी दिलचस्पी और जरूरत के मुताबिक हम अपना कोई पत्र और पत्रिका चुन ही लेते हैं, और उन्हें पढ़ते रहने की हमारी एक आदत सी बन जाती है.

कुछ कठिनाई दूरदराज में रहने वाले उन पाठकों को होती है जहां पत्रपत्रिकाएं नहीं पहुंच पातीं या देर से पहुंचती हैं. उन्हें उन छोटेछोटे स्थानीय समाचारपत्रों को पढ़ कर अपनी भूख मिटानी पड़ती है जो आसपास के कसबों और जिलों से प्रकाशित होते हैं. उन की प्रसार संख्या चाहे बहुत कम हो, पर पाठकों के बीच उन की पैठ गहरी होती है. 2 से 4 पन्नों के इन अखबारों की संख्या कई हजार है.

इन अत्यंत स्थानीय दैनिकों और साप्ताहिकों में स्थानीय ‘मसाले’ का जम कर प्रयोग किया जाता है. उन का एकमात्र उद्देश्य होता है समाचारों को चटपटा बना कर पेश करना. अधिक महत्त्व की राष्ट्रीय खबरें भी देरसवेर उन में छप ही जाती हैं. सुबह या शाम को छपने वाले इन अखबारों का लोग बेसब्री से इंतजार करते हैं. फिर नुक्कड़ों पर गुट बना कर पढ़ते और अपनीअपनी सोच के अनुसार टीकाटिप्पणी करते हैं.

पाठकों की रुचि की अनदेखी

विडंबना यह है कि पाठकों की रुचि को समझने और अपने प्रकाशन को सुधारने की कोशिश बहुत कम पत्रपत्रिकाएं करती हैं. पढ़ने के लिए वे जो सामग्री पेश करती हैं उन में सही सूचना देने, मार्गदर्शन करने और भाषा सुधारने का कोई खास संकल्प नहीं दिखाई देता. जो जनमत वे तैयार करती हैं या उन्हें पढ़ कर जो जनमत तैयार होता है, वह वास्तविकता से कोसों दूर रह जाता है. पाठक को दरअसल क्या मिलना चाहिए, यह जाने बगैर उन्हें छापा और बेचा जाता है.

जो समाचारपत्र कोई राजनीतिक खिचड़ी पकाने के लिए झूठे व चटपटे मसालों का प्रयोग करते हैं वे उस महत्त्वपूर्ण मकसद से भटक जाते हैं कि उन का मुख्य काम जनता में जागरूकता फैलाना भी है. सनसनी फैला कर जीने वाली ऐसे पत्रपत्रिकाओं का मायाजाल बढ़ता ही जा रहा है. हालांकि आज का जागरूक पाठक उन की इस चाल को समझता है. मजे के लिए वह चाहे उन्हें थोड़ी देर के लिए देख ले, पर वह अपना स्थायी संबंध उन्हीं से बनाता है जो अच्छी और जीवनोपयोगी सामग्री छापते हैं.

‘जीवनोपयोगी’ एक ऐसा शब्द है जिसे आज के मीडिया वाले हंसीमजाक में टाल देते हैं. उन का कहना है कि ऐसी पत्रकारिता का अर्थ है जीने के गुर सिखाना और यह काम पत्रकारिता का नहीं सड़कछाप किताबों का है. फिर भी आप देखेंगे कि वे उन से पूरी तरह कन्नी नहीं काट पाते हैं. उन के अखबारों में एकाध कोना जीवनोपयोगी सामग्री के लिए भी सुरक्षित रहता है. जो पत्रिकाएं जीवनोपयोगी सामग्री को अधिक गंभीरता के साथ पेश करती हैं उन से उन के पाठक अपना नाता तोड़ नहीं पाते और बाजार में उन का वर्चस्व स्थापित रहता है.

शुद्ध साहित्यिक कही जाने वाली मासिक और त्रैमासिक पत्रिकाओं की भी अपने यहां कमी नहीं है. वे जीतीमरती, संघर्ष करती हुई आगे बढ़ती हैं. साहित्य से सरोकार रखने वाले पाठक उन्हें पढ़ते हैं. स्वयं रचनाकार भी उन के प्रकाशित होने का बेसब्री से इंतजार करते हैं. उन में कविता, कहानी, समीक्षा, साहित्यिक समाचार और आलोचनाप्रत्यालोचना को विशेष स्थान दिया जाता है. पर पिछले कुछ वर्षों में इन में एकदूसरे पर कीचड़ उछालने की प्रवृत्ति बढ़ी है. समालोचना के नाम पर गालीगलौज और चरित्रहनन करने वाली इन तथाकथित साहित्यिक पत्रिकाओं से आम पाठक का क्या लेनादेना?

प्रिंट मीडिया के साथसाथ अब इलैक्ट्रौनिक मीडिया भी काफी लोकप्रिय हुआ है. पर अपने आकर्षक रूपरंग और ग्लैमर के बावजूद अखबारों और पत्रिकाओं की तुलना में वह बौना साबित हो रहा है. दरअसल, टीवी देखने या रेडियो सुनने वालों के सामने पठनपाठन से प्राप्त होने वाले आनंद का विकल्प नहीं रहता. उन्हें जो दिखाया या सुनाया जाता है उसी को देखनेसुनने को वे अभिशप्त हैं.

कार्यक्रमों का दोहराव

इस मीडिया की एक न्यूनता यह भी है कि पहले दिखा दिए गए कार्यक्रमों को बारबार दोहराया जाता रहता है. ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ व कुछ दूसरे धारावाहिकों को अलगअलग चैनलों पर बारबार बेचा और दोहराया गया. दूसरी ओर पत्रपत्रिकाओं में जो एक बार छप जाता है, उसे दोबारा नहीं छापा जाता. इस ‘चीटिंग’ से इन के पाठक मुक्त रहते हैं. फिर कुछ टीवी कार्यक्रमों में ‘मैगजीन फौर्मेट’ की नकल साफ झलकती है. किसानों, महिलाओं, युवाओं और बच्चों के लिए प्रसारित होने वाले कार्यक्रम अपने को इस सीमा से मुक्त नहीं कर पाए हैं.

पत्रिकाओं के कहानी रूप का एक टीवी रूप वे धारावाहिक हैं जो छोटे परदे पर लगातार छाए रहते हैं. ध्यान से देखें तो मालूम होगा कि वे हमें फैंटेसी की दुनिया में वहां ले जाते हैं जहां वास्तविक जीवन की झलक नहीं के बराबर है. फैमिली ड्रामा की तो बरसात सी हो रही है और कहना मुश्किल हो जाता है कि एक धारावाहिक दूसरे धारावाहिक से भिन्न कैसे है. फिर जो धारावाहिक सफल हो जाता है उसी तरह के दूसरे धारावाहिकों की बाढ़ आ जाती है.

दर्शकों को सब से अधिक खीझ होती है समाचार चैनलों पर समाचारों को बारबार दोहराए जाने पर. कुछ चैनल तो 3-4 समाचारों में ही पूरा दिन काट देते हैं. अखबारों में एक बार छपी खबर दोबारा नहीं छापी जाती. पत्रिकाओं में तो समाचारों का विश्लेषण भी छापा जाता है. सैकड़ों पत्रिकाओं में समाचार समीक्षा की दृष्टि से आप जो चाहे चुन सकते हैं. टीवी पर तो आप को जो दिखाया जाता है उसे ही देखना पड़ता है.

कमोबेश यही स्थिति सोशल मीडिया की भी है. तमाम वैबसाइट्स में उन्हीं खबरों या कहें गौसिप्स को तरजीह दी जाती है जिन से उन्हें सर्वाधिक हिट्स मिलें और विज्ञापन भी. टीवी की टीआरपी की तरह सोशल साइट्स भी अपनीअपनी वैबसाइट्स को नंबर वन बनाने की होड़ के चलते उद्देश्य से भटक रही हैं.

सूचना मंत्रालय की नीतियों के अनुसार, मीडिया के कुछ निर्धारित उद्देश्य हैं. ये उद्देश्य हैं शिक्षा, सूचना और मनोरंजन. प्राइवेट चैनलों के मालिक इस का मतलब अपनेअपने ढंग से निकालते हैं और निर्माताओं से उसी तरह के कार्यक्रम बनवाते हैं. सूचना के नाम पर दूरदर्शन तो बस वही सब दिखाता है जिस से सरकार का कोई राजनीतिक लाभ होता है. दर्शकों के साथ यह कहां का न्याय है?

बहरहाल, पाठकों के सामने बड़ा सवाल सही पत्रपत्रिकाओं के चुनाव का है. समाचारपत्र व पत्रिका चुनते समय ध्यान रखें कि वे आप के सवालों का कितना अच्छा जवाब देते हैं. वे आप के रोजमर्रा के जीवन के वास्तविक दर्पणस्वरूप होने चाहिए. जो सामग्री उन में पेश की जा रही है उन की भाषा ऐसी हो जो आप की बोलचाल से मिलतीजुलती हो, वह लेखक के पांडित्यप्रदर्शन जैसी न लगे, पाठक को मात्र चमत्कृत करने की दृष्टि से न लिखी गई हो. बहुत से समाचारपत्रों के संपादकीय पेज तो इसीलिए बिन पढ़े रह जाते हैं.  

रामदेव व्यापारी हैं बाबा नहीं

पहले योग फिर कारोबार करने वाले रामदेव ‘बाबा’ के मुखौटे में विशुद्ध व्यापारी है. खरबों रुपए के ढेर पर बैठे इस योगगुरु को यह कामयाबी योग के दम पर नहीं बल्कि कारोबार के जरिए मिली है. कई तरह की हेरफेर के चलते कानूनी मुश्किलों से घिरे रामदेव भविष्य में कानूनी शिकंजे से बचने के लिए किस तरह सियासी दलों में सेंध लगा रहे हैं, पढि़ए भारत भूषण श्रीवास्तव के लेख में.

नवंबर महीने के तीसरे हफ्ते में उत्तराखंड सरकार द्वारा हरिद्वार में योगगुरु रामदेव और उन के संस्थानों के खिलाफ 23 मामले और दिसंबर महीने के दूसरे हफ्ते में 11 मामले दर्ज किए गए. तब तिलमिलाए रामदेव की प्रतिक्रिया हमेशा की तरह यही थी कि यह सब सोनिया गांधी के इशारे पर हो रहा है. इस तरह की प्रतिक्रिया की आम और खास सभी लोगों को अपेक्षा थी जिस का सार यह है कि अगर नरेंद्र मोदी या दूसरा कोई भाजपाई नेता प्रधानमंत्री होता तो एक हिंदू योगगुरु के संस्थानों पर छापा मारने की जुर्रत कोई राज्य या केंद्र सरकार न करती. महज इसलिए रामदेव चाहते हैं और हाड़तोड़ मेहनत भी कर रहे हैं कि कैसे भी हो, केंद्र और सभी राज्यों में भाजपा की सरकारें हों.

इन छापों का सच क्या था, इस से पहले संक्षिप्त में यह समझ लेना जरूरी है कि बारबार सोनियाराहुल गांधी को कोस कर रामदेव साबित क्या करना चाहते हैं और उन का असल मकसद क्या है? दरअसल, रामदेव दूसरे कई बाबाओं की तरह बड़े कारोबारी हैं. कारोबारी होना हर्ज या एतराज की बात नहीं पर कर चोरी करना, जमीनों के सौदों में हेरफेर करना और राजस्व न चुकाना, ये जरूर एतराज की बातें हैं, जिन पर से आम लोगों का ध्यान बंटाते रामदेव, सोनियाराहुल पर दोष मढ़ते रहते हैं. मंशा यह जताना रहती है कि चूंकि वे हिंदू हैं, योगगुरु हैं इसलिए विदेशी मूल की सोनिया गांधी को यह रास नहीं आता. नतीजतन, परेशान करने के मकसद से उन के यहां छापे पड़वाए जाते हैं.

लोगों के दिलोदिमाग में सच का हजारवां हिस्सा भी न आ जाए, इस बाबत रामदेव क्याक्या बोल चुके हैं, ये हर कोई जानता है. अक्तूबर के आखिरी हफ्ते में तो वे सारी हदें तोड़ते इंदौर में योग और क्रोध के संबंध को भुला कर यह तक कह चुके थे कि कांग्रेस उन्हें हत्या, ड्रग और सैक्स रैकेट जैसे मामलों में फंसाना चाहती है. इसी दिन उन्होंने कांग्रेस को हार का श्राप तक दे डाला था. उन दिनों रामदेव के भाई रामभरत पर अपहरण का एक आरोप लगा था.

बात सच भी है कि इस लोकतांत्रिक देश में योगगुरु रामदेव या उन का भाई होना ही एक गैरमामूली बात है. इन में से किसी पर कोई कानूनी कार्यवाही या जुर्म किए जाने पर भी आपराधिक मामले की कार्यवाही की जानी भी गैर लोकतांत्रिक है. इसलिए रामदेव ने उसी दिन यह भी कहा था कि एक खानदान ने सारे देश को बंधक बना रखा है. यह लोकतंत्र का मजाक है.

सार यह कि अगर रामदेव को सीधेसीधे गैरकानूनी तरीकों से कारोबार करने दिया जाए, उन के संस्थानों व कंपनियों पर छापे न मारे जाएं और उन की पूजा की जाती रहे तो ही देश में लोकतंत्र है वरना नहीं. सभी को चौंकाते इसी दिन रामदेव ने नरेंद्र मोदी को भी घमंडी कहा था, यह दरअसल, भड़ास और कुंठा के अलावा भगवा खेमे को धौंस भी थी कि यदि मेरा पैसा व समर्थन चाहिए तो छापों और भाई की गिरफ्तारी का विरोध करो, नहीं तो सत्ता नहीं मिलने दूंगा. यह दीगर बात है कि भाजपा और नरेंद्र मोदी दोनों को बाबाओं की ऐसी धमकियों और उन की सचाई का ज्यादा पता है, इसलिए वे इन बाबाओं का इस्तेमाल तो करते हैं पर उन से एक हद के बाद ज्यादा खौफ नहीं खाते.

छापे और कारोबार

उत्तराखंड सरकार ने जो 85 मामले रामदेव के खिलाफ दर्ज किए उन में स्टांप चोरी के 54, खरीदफरोख्त में शर्तों के उल्लंघन के 23, सरकारी जमीनों पर कब्जे के 3 और रिवीजन से संबंधित 5 थे.

एक अंदाजे के मुताबिक, रामदेव का साम्राज्य 15 हजार करोड़ रुपए का है जो जाहिर है अकेले योग से बनाना कतई मुमकिन नहीं. रामदेव खाद्य पदार्थों, सौंदर्य सामग्री और आयुर्वेदिक दवाइयों सहित दूसरे विभिन्न तरह के उत्पादों का कारोबार भी करते हैं. ये कारोबार दिन दूना रात चौगुना बढ़े. बाबा के भक्तों ने तो इन उत्पादों को खरीद कर इस्तेमाल करना शुरू किया ही, साथ ही आम लोग भी इन्हें खरीदने लगे.

बीते 3 सालों में रामदेव के उत्पादों की बिक्री में हजारगुने से भी ज्यादा इजाफा महज इस मानसिकता के चलते हुआ कि चूंकि ये उत्पाद एक धर्मगुरु द्वारा बनवाए हुए हैं, इसीलिए धर्मग्रंथों में वर्णित चमत्कारों की तरह पूरे नहीं तो थोड़ेबहुत तो असरकारी होंगे ही.

3 साल पहले जब भोपाल जैसे ‘बी’ श्रेणी के शहर में रामदेव के पतंजलि योग पीठ की महज एक दुकान, दवाखाना, गोदाम या बिक्री केंद्र, जो भी कह लें, एमपी नगर, जोन 1 में हुआ करता था. मांग बढ़ी तो शहर के विभिन्न इलाकों में दर्जनों दुकानें खुल गईं और जल्द ही किराने की दुकानों में भी बाबा के उत्पाद बिकने लगे.

इस प्रतिनिधि ने कोई हफ्तेभर लगातार रामदेव के उत्पादों के खरीदारों और विक्रेताओं से बातचीत की तो उन्होंने बताया कि चूंकि ये उत्पाद आखिरकार एक धार्मिक संस्थान में निर्मित हो रहे हैं, इसलिए गुणवत्ता वाले तो होंगे ही.

इन लोगों यानी ग्राहकों को छापों से कोई सरोकार नहीं था, न ही इस बात से मतलब था कि रामदेव का भाई नितिन त्यागी नाम के कर्मचारी के अपहरण, गालीगलौज और उसे बंधक बनाए रखे जाने के जुर्म में गिरफ्तार हुआ था. उन्हें यह भी नहीं मालूम था कि रामदेव के हरिद्वार स्थित पतंजलि होस्टल से दिल्ली की एक छात्रा, जो बीए योग में पढ़ रही थी, गायब हो गई थी.

प्रचार का माध्यम बनते भक्त

किसी नामी कंपनी की तरह रामदेव ने योग के बाद हलदी, गरममसाला, च्यवनप्राश, टूथपेस्ट, मंजन और ब्यूटी क्रीम भी बेचना शुरू कर दिया. ऐसे लगभग 200 उत्पादों की रोजाना बिक्री करोड़ों रुपयों की है. बिक्री बढ़ाने के लिए रामदेव को कहीं विज्ञापन, प्रचार, प्रसार की जरूरत नहीं पड़ी उन के भक्त ही प्रचार का माध्यम बने.

इन उत्पादों की गुणवत्ता को भी ले कर गुरु रामदेव शक के दायरे में हैं. 16 अगस्त, 2012 को उत्तराखंड के खाद्य सुरक्षा विभाग ने रामदेव के दिव्य योग मंदिर से रामदेव की कंपनियों द्वारा निर्मित खाद्य पदार्थों के नमूने जांच के लिए लिए थे. तब रामदेव, उन के समर्थक और भाजपाई तिलमिलाए थे कि यह ज्यादती है, कांग्रेसी साजिश है पर हकीकत में देश के विभिन्न राज्यों के खाद्य सुरक्षा विभागों ने 2 दर्जन से भी ज्यादा नोटिस रामदेव की कंपनियों को दे रखे हैं.

साफ है कि रामदेव और कंपनियों में कोई फर्क किसी भी स्तर पर उत्पादों और कारोबार के मामले में नहीं है. रामदेव हड़कंप महज इसलिए मचाते रहे हैं कि इन उत्पादों को धर्म और आस्था की आड़ में खरीदा जाता रहे. ये उत्पाद सस्ते नहीं हैं, इस बाबत खरीदारों का कहना है कि ऐसा इन का असली और दुर्लभ जड़ीबूटियों से निर्मित होने के चलते होगा.

इन सब के बाद भी रामदेव कहें कि वे कारोबारी नहीं, तो यह ठगी नहीं तो और क्या है. कारोबार करते हैं तो खुद को कारोबारी स्वीकारने का नैतिक साहस उन में क्यों नहीं है?

पैसा कमाने के लिए रामदेव ने हर शहर में एक वैतनिक वैद्य भी नियुक्त कर रखा है जो उन की महंगी दवाइयां बिकवाता है. कहीं यह वैद्य कभी अलग हो कर खुद की दुकान न चलाने लगे यानी खुद प्रैक्टिस न करने लगे, इसलिए 2-3 साल में उस का स्थानांतरण कर दिया जाता है.

दवाइयों से भी करोड़ोंअरबों कमाने वाले रामदेव कभी छाती ठोक कर दावा किया करते थे कि तमाम साध्य और असाध्य बीमारियों का इलाज वे केवल योग से कर सकते हैं जो खुद उन्होंने ही आयुर्वेद के व्यापार से मिथ्या साबित कर दिया. योग की पोल सामने है कि सारा ड्रामा पहले भक्त बढ़ाने के लिए किया गया था जो अब ग्राहक हो कर पैसा दे रहे हैं.

और भी हैं सच

आम लोगों की जेब और सेहत से संबंध रखती ये बातें रामदेव से जुड़े विवादों और आर्थिक साम्राज्य के सामने काफी बौनी हैं पर हैं महत्त्वपूर्ण क्योंकि बाबा अपना घड़ा भरने के लिए बूंदबूंद की कीमत जानते हैं.

रामदेव हमेशा विवादों में रहे हैं और उन पर कई गंभीर आरोप भी हैं. साल 2006 में पतंजलि योगपीठ की स्थापना रामदेव के साथसाथ शंकरदेव, भूपेंद्र सिंह ठक्कर, साध्वी कमला, जीवराज पटेल और बालकृष्ण नाम के लोगों ने मिल कर की थी. हरिद्वार स्थित इस आश्रम की सारी जमीनजायदाद तब आचार्य शंकरदेव के नाम पर थी. वर्ष 2006 से पहले तक यहां गरीब लोग आ कर रहा और ठहरा करते थे.

देखते ही देखते हैरतअंगेज तरीके से रामदेव इस के मुखिया बन बैठे और दूसरे 3 साथियों का आज कहीं अतापता नहीं. रामदेव की कारगुजारियों से त्रस्त आचार्य कर्मवीर त्यागपत्र दे कर गायब हो गए तो साध्वी कमला को जबरन आश्रम से भगा दिया गया. रामदेव के गुरु शंकरदेव के रहस्यमय ढंग से लापता होने पर सीबीआई जांच चल रही है.

चंद सालों में ही योग का प्रचारप्रसार करतेकरते रामदेव काफी दौलतमंद, रसूखदार और इतने लोकप्रिय हो गए कि उन से जुड़े इन कारनामों पर परदा डल गया. पर रामदेव को मालूम था और मालूम है कि पुराने पाप कभी भी सिर उठा सकते हैं. कानून किसी को बख्शता नहीं, इसलिए उन्होंने पहले सोनिया गांधी को प्रभाव में लेने की कोशिश की पर वे झांसे में नहीं आईं तो बचाव के लिए वे नरेंद्र मोदी के मुरीद होने का वैसा ही स्वांग करने में लगे हैं, जैसा कभी आसाराम किया करते थे.

प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी की एक गोपनीय रिपोर्ट में रामदेव द्वारा विदेशों में किए गए करोड़ों के लेनदेन का जिक्र है. इस रिपोर्ट के मुताबिक, रामदेव के 5 ट्रस्टों में से एक अमेरिका और एक ब्रिटेन में भी है. विदेश में ही कहीं रामदेव का एक टापू भी है.

आरोपों से घिरे रामदेव

ईडी की रिपोर्ट के मुताबिक, रामदेव की पतंजलि आयुर्वेदिक लिमिटेड ने 2009 से 2011 के बीच कुल 20 करोड़ रुपए का सामान विदेशों से मंगाया. आस्था चैनल का नाम हर धर्मपे्रमी भारतीय जानता है और श्रद्धालु इसे देखते भी हैं पर इन लोगों को भी नहीं मालूम कि क्यों रामदेव ने इस चैनल को चलाने वाली कंपनी वैदिक ब्रौडकास्ंिटग लिमिटेड को 4 करोड़ रुपए से भी ज्यादा की राशि भेजी थी. यह राशि पतंजलि आयुर्वेद ने भारतीय निवेश और परामर्श शुल्क नाम से भेजी थी. इस में से कुछ व्यवसायिक, तकनीकी शुल्क के नाम से भी भेजी गई.

उल्लेखनीय है कि वैदिक ब्रौडकास्ंिटग का संचालन रामदेव के दाहिने हाथ आचार्य बालकृष्ण करते हैं. यहां गुत्थी इतनी भर है कि जब घी खिचड़ी में ही जाना था यानी पैसा अपने पास ही रहना था तो उसे डौलर और पौंड में तबदील करने की जरूरत क्या थी?

इस के पहले उत्तराखंड के बिक्री कर विभाग ने रामदेव की हरिद्वार में लक्सर स्थित पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड से दवाओं से भरे कई ट्रक पकड़े थे जिन्हें बगैर कर चुकाए ले जाया जा रहा था. टैक्स चोरी के मामले में भी रामदेव की कंपनियां अव्वल हैं, ऐसे कई मामले उजागर हुए हैं जिन में उल्लेखनीय उन की दिव्य फार्मेसी पर 5 करोड़ रुपए की कर चोरी का आरोप है जिस की जांच चल रही है.

कब चेतेंगे हम

महत्त्वाकांक्षी रामदेव अपना कारोबार बढ़ाने के लिए अमेरिका की मशहूर मल्टीनैशनल पैकेजिंग कंपनी टे्रटा से भी करार कर चुके हैं. हालफिलहाल इस करार के तहत, आंवला कोल्ड ड्रिंक बाबा की दुकानों से बेचा जा रहा है पर जल्द ही सभी फलों का रस बेचा जाएगा. योग की वास्तविकता की तरह स्वदेशी के नाम पर रामदेव ने लोगों के साथ छल ही किया है.

इन तमाम अनुबंधों और लिखापढ़ी में रामदेव की कंपनियां तो हैं लेकिन खुद को उन्होंने कानूनी और तकनीकी तौर पर दूर रखा है क्योंकि वे जानते हैं कि गाज कभी भी गिर सकती है.

रामदेव बिलाशक खरबपति हैं पर योग के नहीं, कारोबार के दम पर हैं. भविष्य में कानूनी शिकंजे से बचने के लिए वे चाहते हैं कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन जाएं.

दरअसल, देश के लोगों की कमजोरी है कि जो ‘बाबा’ इश्तिहार और मीडिया के प्रचार के जरिए लोकप्रिय होने लगता है, उसे महान संत या तपस्वी की तरह पूजते वे सिर पर बैठा लेते हैं और हकीकत जब बड़े पैमाने पर खुल कर सामने आती है तो बजाय सबक लेने के, कोई दूसरा ‘बाबा’ पैदा कर उसे हीरो बना लेते हैं. आसाराम और उन के बेटे नारायण साईं का सच सामने है. गिरफ्तारी से पहले उन का यह सच कोई कहता तो उसे झूठा, नास्तिक, धर्म और संस्कृति का दुश्मन करार दे दिया जाता.

अपनी मेहनत की कमाई धर्म के नाम पर बाबाओं, उन के उत्पादों और दवाइयों पर जब तक लोग लुटाते रहेंगे तब तक जरूर लोकतंत्र और संस्कृति खतरे में रहेगी और धर्म का कारोबारी चेहरा चमकता, दमकता व गरजता रहेगा. 

बच्चों के मुख से

दीवाली मनाने के लिए मेरे बेटेबहू व दोनों पोतियां बेंगलुरु से भोपाल आए थे. छोटी पोती श्रेया 5 वर्ष की है. हम सब बातों में मशगूल थे. श्रेया को व्यस्त रखने की गरज से मैं ने उसे पुराना एलबम दे दिया, जिस में मेरे बेटे यानी श्रेया के डैडी के बचपन के फोटो लगे हुए थे.
उन चित्रों को देख कर वह आश्चर्यचकित थी कि उस के डैडी कभी इतने छोटे भी थे. तभी अचानक उस ने जोर से आवाज लगाई, ‘‘मम्मी, देखो डैडी डस्टबिन में खड़े हैं.’’ एक पल के लिए तो किसी को कुछ समझ में नहीं आया लेकिन दूसरे पल सभी के मुंह पर मुसकराहट आ गई.
बात उस समय की है जब मेरे बेटे यानी श्रेया के डैडी ने किसी चीज को पकड़ कर खड़ा होना और थोड़ाथोड़ा चलना सीखा था. एक बार फोटो खींचते समय एक गोल स्टूल, जो डमरू के शेप का था, को उलटा कर के उस में उसे खड़ा कर दिया था. उस स्टूल के लिए डस्टबिन जैसा शब्द चुनना श्रेया की सचमुच मौलिक सूझ थी.
मधुरिमा सिंगी, भोपाल (म.प्र.)
 
मेरी बेटी 4 साल की है. प्यारीप्यारी बातें करती रहती है. एक दिन मैं उस के साथ बाजार गई व वापसी के समय मैं ने 2 कप आइसक्रीम खरीदी. मैं ने एक कप आइसक्रीम बिटिया को खाने के लिए दे दी. चलतेचलते उस ने अपनी आइसक्रीम खा ली. थोड़ा आगे चलने पर वह बोली, ‘‘मम्मी, आइसक्रीम जंकफूड होता है. इस के खाने से दांतों में कैविटी हो जाती है. आप ऐसा करें कि जो आइसक्रीम आप के पास है, आप उसे नहीं खाना. कहीं आप को कैविटी न हो जाए. इसलिए आप इसे भी मुझे दे दीजिए क्योंकि मेरे दांतों में तो कैविटी पहले ही हो रही है.’’
मैं उस की प्यारी बात सुन कर हंसे बिना न रह सकी.
शिखा मलिक, विकासपुरी (नई दिल्ली)
 
मेरा 4 वर्षीय बेटा तेजस नटखट और बहुत ही हाजिरजवाब है. जब वह बोलता है तो मेरे पति का गुस्सा फौरन काफूर हो जाता है. इसी बात पर मैं ने एक दिन उन्हें गुस्से में कहा, ‘‘आप बहुत जल्दी पिघल जाते हैं.’’
इस पर वहीं खड़े मेरे बेटे ने पापा से पूछा, ‘‘पापा, तुम बर्फ हो क्या?’’ उस के पापा ने तुरंत कहा, ‘‘नहीं.’’ जवाब सुन कर तेजस तुरंत बोला, ‘‘फिर तुम पिघल कैसे जाते हो?’’
उस की बात समझ में आते ही हम ठहाका लगाए बिना न रह सके.
निशा सिन्हा, माल्या (प.बं.)

भारत भूमि युगे युगे

कश्मीर का कटोरा
जम्मूकश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की बोलने और रहनसहन की अपनी खास मौलिक शैली है जब वे बोलते हैं तो लगता है कि जीभ होंठों के बीच में कहीं दबी है और कोई गुलाम अली गजल गा रहा है. पर उमर अब गातेगाते चिल्लाने लगे हैं. वजह, नरेंद्र मोदी हैं जिन की पहुंच नहीं, बल्कि दृष्टि इतनी व्यापक हो गई है कि उन्हें कश्मीर भिखारी राज्य नजर आने लगा है जो हर वक्त केंद्र के सामने कटोरा लिए खड़ा रहता है.
पर असल बात निर्धनता या लोकतांत्रिक भिक्षा नहीं, बल्कि धारा 370 और कश्मीर की शांति है. इस बाबत उमर की पीठ थपथपाई जा सकती है. अब यह तो मोदी की मोतियाबिंदी नजर है जो पीठ के बजाय पेट की बात ऐसे कर रही है मानो गुजरात केंद्र से सहायता नहीं मांगता हो, बल्कि उलटे उसे देता हो. 
इशारा साफ है कि अगर मोदी का दिवास्वप्न पूरा हो पाया तो सब से पहले कश्मीर की इमदाद खत्म करना उन की प्राथमिकता रहेगी.
 
टौयलेट रीडर
गोआ के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर शौचालय में पढ़ते हैं यह बात खुद उन के मुंह से जान कर किसी को खास हैरत नहीं हुई क्योंकि आजकल अधिकांश लोग शौचालय में ही साहित्य सेवन करते हैं. पर्रिकर की इस बात से जरूर सहमत हुआ जा सकता है कि वह इकलौती जगह है जहां आप अबाध यानी बेरोकटोक पढ़ सकते हैं. बैडरूम और ड्राइंगरूम को टीवी निगल गया है, ऐसे में लोगों के पास वाकई सुकून वाली इकलौती जगह शौचालय बची है जहां वे पढ़ने का अपना शौक पूरा कर सकते हैं.
शौचालय में पढ़ने को अब भारतीय अन्यथा नहीं लेते. वजह, बदलती जीवनशैली है और छोटे होते घरों में बंधक बने रहने के एहसास से आजादी भी है. जरूरत इस बात की है कि शौचालय पाठकों को प्रोत्साहित करने के लिए कोई अभियान चलाया जाए पर इस से पहले सर्वेक्षण करना जरूरी है कि कितने प्रतिशत भारतीय टौयलेट रीडर हैं.
 
अरविंद दर्शन
एक अमेरिकी पत्रिका द्वारा जारी की गई सूची में आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल का नाम दुनिया के 100 शीर्ष विचारकों में 32वें नंबर पर शामिल हो गया है. ईमानदारी शब्द ही इतना बेईमान हो गया है कि उस पर लोग भगवान सरीखा भरोसा करते हैं जो होते हुए भी नहीं है और नहीं होते हुए भी है. यानी विश्वास करना ऐच्छिक है, अनिवार्य नहीं. पहले अरविंद केजरीवाल ने ज्यादा चिंतनमनन किया होगा, ऐसा लग नहीं रहा. वे बुद्ध जैसे सैकड़ों दार्शनिकों की तरह सालभर दिल्ली की गलियों की खाक छानतेछानते विचारकों की श्रेणी में शामिल हो गए पर अच्छी बात यह है कि वे अपनी तरफ से कोई नया सिद्धांत नहीं थोप रहे. किसी दर्शन का न होना भी अपनेआप में एक दर्शन ही दर्शनशास्त्री मानते हैं.
 
बात और धौंस
विश्व हिंदू परिषद के मुखिया प्रवीण तोगडि़या बोलते नहीं हैं, उन का लहजा ही धौंस सरीखा लोगों को लगता है. इन दिनों तोगडि़या नरेंद्र मोदी के पीछे हाथ धो कर पड़ गए हैं. कभी भी वे गुजरात के हिंदुओं पर अत्याचार की बात करते हैं तो दूसरे ही दिन बयान दे डालते हैं कि नरेंद्र मोदी को मंदिर मुद्दे पर अपना रुख साफ करना चाहिए.
नरेंद्र मोदी चौतरफा दबाव में हैं और आगे भी रहेंगे. हिंदूवादी संगठनों की हिंदुत्व और मंदिर निर्माण की बातों पर खामोश रहना उन की राजनीतिक मजबूरी है क्योंकि सच बोलेंगे तो कांग्रेसी हल्ला मचाने लगेंगे.
जाहिर है, 2014 लोकसभा चुनाव के नतीजों को ले कर हिंदूवादी संगठन या तो अतिआत्मविश्वास के शिकार हैं या आश्वस्त ही नहीं हैं. नरेंद्र मोदी बेचारे 2 पाटों के बीच पिसते शायद यही सोचते रहेंगे कि इस से तो बेहतर गुजरात ही था. 
 

चिटफंड कंपनियों पर मेहरबान ममता

पश्चिम बंगाल में सारदा चिटफंड का हादसा हुए भले ही अरसा हो गया हो लेकिन राज्य की ममता सरकार की एक स्वीकारोक्ति ने सियासत में इन फर्जी कंपनियों की भूमिका पर सवाल खड़े कर दिए हैं. आखिर ममता बनर्जी इन चिटफंड कंपनियों पर मेहरबानी क्यों दिखा रही हैं, पड़ताल कर रही हैं साधना शाह.

पश्चिम बंगाल इन दिनों चिटफंड रूपी बारूद के ढेर पर बैठा हुआ है जिस में कभी भी विस्फोट हो सकता है. चिटफंड कंपनियों का अस्तित्व वाम जमाने में भी था. लेकिन अब ये कंपनियां पहले से कहीं अधिक सक्रिय हैं और बड़े पैमाने पर फलफूल भी रही हैं. बल्कि अब तो ज्यादातर ऐसी फर्जी कंपनियां अपना चरित्र बदलने के जुगाड़ में लग गई हैं. यहां की सारदा कंपनी के कारण आम लोगों की बरबादी का जो ट्रेलर पूरे देश ने देखा है, कभी भी उस की अगली कड़ी पूरे बंगाल में देखने को मिल सकती है. और तब कानून व्यवस्था का मामला गंभीर हो जाएगा.

राज्य में सैकड़ों कंपनियां इस फर्जीवाड़े में लगी हैं. लेकिन इन पर कोई कार्यवाही नहीं हो रही है. वहीं एक तरफ सारदा ग्रुप के मालिक सुदीप्तो सेन बचाव की उम्मीद में मुख्यमंत्री को क्लीन चिट दे रहे हैं, तो दूसरी ओर खुद मुख्यमंत्री ने अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव के मद्देनजर चिटफंड कंपनी से पैसे पाने की बात को मान लिया है.

ममता की स्वीकारोक्ति

बंगाल में पार्टी फंड से ले कर चुनाव खर्च तक का भार चिटफंड कंपनियां उठा रही हैं. बदले में कारोबारी सुकून हासिल करती हैं ये फर्जी कंपनियां. ये सब वाम जमाने में भी हो रहा था और अब भी हो रहा है. पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने में सारदा ग्रुप का बड़ा हाथ रहा है, अब यह जगजाहिर है.

गौरतलब है कि सारदा मामले की सीबीआई जांच की मांग के लिए कोलकाता हाईकोर्ट में एक मामला विचाराधीन है. उधर कुणाल घोष की गिरफ्तारी भी हो गई है. लेकिन गिरफ्तारी से पहले पत्रकार सम्मेलन बुला कर और फिर फेसबुक में कुणाल ने सारदा मामले में ममता बनर्जी, मुकुल राय सहित तृणमूल के 12 मंत्रियों-नेताओं के नाम भी लिए हैं.

अहम बात यह है कि हाल ही में ममता बनर्जी ने एक जनसभा में इस बात को अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार भी कर लिया. हालांकि वे कार्यकर्ताओं को यह कहते हुए नसीहत दे रही थीं कि ‘खाओ, पर जितना जरूरी हो, उतना ही. ज्यादा खा लिया तो हजम नहीं होगा.’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘मुझे रुपए की जरूरत नहीं. हजारोंहजार करोड़ रुपए कमाना मेरा मकसद नहीं. इलैक्शन के लिए ‘मिनिमम’ जितने की जरूरत है, उतना होने से ही मेरा काम चल जाएगा.’

अब यहां सवाल उठता है कि तृणमूल सांसद व पत्रकार कुणाल घोष ने क्या ज्यादा ‘खा’ लिया था, इसलिए उन्हें ‘बदहजमी’ हो गई? और यह भी कि इलैक्शन के लिए जरूरी ‘मिनिमम’ रुपए कहां से आए और वह रकम कितनी थी? साफ है, सारदा ग्रुप से. ममता का यह बयान मुख्यमंत्री के दिमागी दिवालिएपन की ओर संकेत करता है.

फर्जीवाड़े की खुली छूट

राज्य में लगभग 125 फर्जी कंपनियां सक्रिय हैं और लगभग 1 लाख एजेंट इन कंपनियों से जुड़े हुए हैं. सारदा कांड के बाद भी इन चिटफंड कंपनियों के खिलाफ अभी तक कोई कार्यवाही नहीं हुई है. इन का धंधा बदस्तूर जारी है और ऐसा भी नहीं है कि 3-4 सालों में ये कंपनियां स्थापित हुई हैं, बल्कि वाममोरचा शासन काल से ये कंपनियां सक्रिय हैं. और तब वाममोरचे ने भी इन कंपनियों पर लगाम नहीं लगाई.

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि वाममोरचा के भी कुछ नेता चिटफंड कंपनियों से व्यक्तिगत रूप से या पार्टी फंड में मोटी रकम लिया करते थे. यह और बात है कि 2010 में ही हवा के रुख के साथ इन कंपनियों ने अपना आका बदल लिया.

यह भी सही है कि वाम जमाने में कई चिटफंड कंपनियों ने पश्चिम बंगाल में अपना कारोबार शुरू किया था. लेकिन आज तृणमूल शासन में वे चिटफंड कंपनियां पूरी तरह से बाकायदा फलफूल चुकी हैं. ऐसी फर्जी कंपनियों में प्रमुख हैं: एमपीएस ग्रुप औफ कंपनीज, पताका ग्रुप, यूरो ग्रुप, वारिस ग्रुप, रोजवैली ग्रुप औफ कंपनीज, प्रयाग ग्रुप, रूपसी बांग्ला, सनशाइन आदि. ये कंपनियां एग्रो से ले कर मनोरंजन, होटल रिसोर्ट व रियल एस्टेट क्षेत्र में सक्रिय हैं. बांग्ला फिल्म उद्योग में चिटफंड का पैसा लगा हुआ है. हाल ही में प्रयाग ग्रुप ने पश्चिम मेदिनीपुर में प्रयाग फिल्मसिटी की स्थापना की और उस का उद्घाटन शाहरुख खान ने किया.

सीआईडी जांच ठंडे बस्ते में

सारदा कांड से 3 साल पहले तृणमूल विधायक, अभिनेता तापस पाल की शिकायत पर सीआईडी की एक टीम चिटफंड कंपनियों की जांच में लगी थी. हालांकि खुद तापस पर भी चिटफंड कंपनी से जुड़े होने का आरोप है. माना जा रहा है कि किसी खुन्नस की वजह से ही तापस पाल ने चिटफंड कंपनी के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी. बहरहाल, अचानक किन्हीं अनजान कारणों से जांच का काम बीच में ही ठंडे बस्ते में चला गया. इस के बाद सारदा कांड का मामला सामने आया.

लेकिन सीआईडी की आधीअधूरी जांच में जो तथ्य निकल कर सामने आया वह यह कि उस समय राज्य में 873 चिटफंड कंपनियां सक्रिय थीं. राज्य सीआईडी की आर्थिक भ्रष्टाचार दमन शाखा ने जांच के दौरान यह भी पाया कि सारदा कांड से 3 साल पहले ही इन कंपनियों ने 3 हजार करोड़ रुपए बाजार से उठा लिए थे. आज वह रकम लगभग 20 हजार करोड़ रुपए हो चुकी है.

एक तरफ सुमंगल नामक चिटफंड कंपनी ‘सब का मंगल’ का नारा दे कर आलू में निवेश के नाम पर उस की जमाखोरी करती चली गई. आलू में निवेश के लिए 2 तरह की स्कीम ले कर आई थी सुमंगल. 1 लाख 20 हजार रुपए के निवेश में 15 महीने में 2 लाख रुपए का रिटर्न और 1 लाख रुपए निवेश पर 15 महीने की अवधि में 1 लाख 40 हजार रुपए रिटर्न का सपना दिखाया. इतना रिटर्न देने की सफाई में कंपनी ने विदेश में आलू निर्यात करने और आलू की कीमत बढ़ने पर इसे कोल्ड स्टोरेज से बाहर निकाल कर खुले बाजार में बेच कर मुनाफा कमाने का भरोसा दिया था. लेकिन 15 महीने बीत जाने पर आलू की पैदावार खराब होने या कम होने की बात कह कर कंपनी टालमटोल करती गई.

सहकारी संस्था का चोला

सरकार की नाक तले अपना धंधा कर रही तकरीबन 125 चिटफंड कंपनियां अपना चरित्र बदलने में लगी हुई हैं. राज्य वित्त विभाग के अधिकारियों का मानना है कि कानूनी लूपहोल का फायदा उठा कर कई चिटफंड कंपनियां सहकारिता की ओर कदम बढ़ा रही हैं.

सारदा कांड के बाद राज्य की बहुत सी चिटफंड कंपनियां अपने कारोबार को वैध बनाने के लिए सहकारी संस्था के रूप में अपनेआप को स्थापित करने में जुट गई हैं.

कोलकाता शेयर बाजार के जानकार रमेश शर्मा का कहना है कि कलैक्टिव इन्वैस्टमैंट स्कीम के तहत किसी प्रोजैक्ट के लिए लोगों से पैसे इकट्ठा करने के लिए सेबी से अनुमति जरूरी है. यह मिलना कठिन होने के कारण ये कंपनियां सहकारी कंपनी के रूप में अपने पैर मजबूत बनाने में लगी हुई हैं. दरअसल, सहकारिता कानून के तहत क्षेत्रीय आधार पर ही मंजूरी की जरूरत होती है.

रमेश शर्मा बताते हैं कि नियमानुसार अगर कोलकाता में सहकारिता की मंजूरी प्राप्त करनी हो तो 10 लोगों की एक समिति संयुक्त रूप से सहकारिता के लिए आवेदन कर सकती है. लेकिन 10 लोगों की समिति में 1500 सदस्यों का होना अनिवार्य है. देखने में आता है कि परिसेवा सहकारी कंपनी के रूप में पंजीकरण करवा कर कंपनियां लोगों से पैसे इकट्ठा करती हैं और उन्हें अपने सदस्य के रूप में पेश कर देती हैं.

सहारा का हवाला देते हुए रमेश शर्मा कहते हैं कि सेबी ने जब सहारा को लोगों से पैसे इकट्ठा करने पर रोक लगा दी तो कंपनी ने अपना चरित्र बदल कर सहकारिता का चोला पहन लिया. वहीं, 2002 के सहकारी कानून के नियमानुसार 4 महीने के भीतर आवेदन अगर खारिज नहीं हुआ तो मान लिया जाता है कि आवेदन स्वीकार कर लिया गया है. अब तक 200 से अधिक आवेदन किए जा चुके हैं. जाहिर है, इसी रास्ते चल कर चिटफंड कंपनियां अपने कारोबार को वैध बनाने की जुगत में हैं.

ममता की दरियादिली पर सवाल

सारदा चिटफंड कांड में बरबाद हुए बहुत सारे निवेशकों ने आत्महत्या कर ली है. इस पर भी राज्य में चल रही इतनी सारी फर्जी कंपनियों के खिलाफ कार्यवाही करने के बदले मुख्यमंत्री ने दरियादिली दिखाते हुए प्रभावित लोगों के लिए अपने राहत कोष का द्वार खोल दिया.

मुख्यमंत्री के निजी कोष से सारदा ग्रुप के 3 हजार से भी ज्यादा मीडिया कर्मचारियों में से चुनिंदा 168 कर्मचारियों को एकमुश्त 16-16 हजार रुपए दिए गए. इस के अलावा चिटफंड में पैसा गंवाए लोगों को भी मुख्यमंत्री के इसी कोष से रुपए बांटे गए हैं. साथ ही, सारदा मीडिया के अधिग्रहण की भी उन्होंने घोषणा की थी, लेकिन फिलहाल यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया है.

सवाल उठता है कि केवल कुछ कर्मचारियों के प्रति ममता की ऐसी मेहरबानी का औचित्य क्या है? एक चिटफंड कंपनी के मालिकों के बंद हुए चैनलों, अखबारों के पसंदीदा पत्रकारों पर राहत कोष का पैसा मुख्यमंत्री कैसे लुटा सकती हैं?

गौरतलब है कि मुख्यमंत्री राहतकोष का महत्त्व आमतौर पर प्राकृतिक आपदा, गरीब बच्चों का इलाज, शिक्षा में है. पंचायत चुनाव के मद्देनजर प्रचार के मकसद से मुख्यमंत्री ने सारदा ग्रुप के चैनल का जिम्मा उठा लिया. जबकि राज्य परिवहन विभाग की हालत बहुत ही नाजुक है. परिवहन विभाग के कर्मचारियों को नियमित रूप से वेतन नहीं मिल पा रहा है. नई नियुक्तियां नहीं हो रही हैं.

50 फीसदी बसें और ट्राम सड़क से उठा लिए गए हैं. कुल मिला कर आर्थिक रूप से राज्य दिवालिया है, आकंठ कर्ज डूबी है सरकार. राज्य का बजट घाटा बढ़ता चला जा रहा है. बावजूद इन सब के, ममता बनर्जी भ्रष्टाचार के प्रति ममतामयी बनी हुई हैं.

गांव बन रहे हैं मारुति की जीवनरेखा

देश की प्रमुख कार निर्माता कंपनी मारुति सुजुकी इंडिया लिमिटेड शहर की सवारी बन कर थक चुकी है. शहर में कारों की बिक्री घट गई है. शहर मंदी की चपेट में हैं. वित्त वर्ष की अंतिम तिमाही छोडि़ए, जो आर्थिक हालात हैं उन्हें देखते लगता नहीं कि मंदी थमेगी और अगले साल तक भी कारों के बाजार में तेजी आएगी. करीब एक दशक में पहली बार कार बाजार में मंदी दिख रही है और कारों की बिक्री घटी है.

वर्ष 2012-13 की कार बिक्री की इस हालत के 2013-14 में भी बने रहने की आशंका व्यक्त की जा रही है. कंपनी का कहना है कि उस की कारों की बिक्री 70 प्रतिशत से घट कर 64 फीसदी रह गई है. कार बाजार में इस साल 4.5 फीसदी की गिरावट आई है लेकिन ग्रामीण क्षेत्र मंदी के इस दौर में मारुति के लिए जीवनरेखा साबित हुए. वहां उस की कारों की बिक्री 18 फीसदी बढ़ी है.

गांव की खरीदारी क्षमता से उत्साहित कंपनी इसे गांवों का अपने ऊपर ऋण मान रही है और इस ऋण को चुकाने के बहाने वह ग्रामीण क्षेत्र में अपने लिए और बाजार तलाश रही है. इस के लिए कंपनी ने विशेष योजना बनाई है. वित्त वर्ष की अंतिम तिमाही तक उस ने 1 लाख गांवों में पहुंचने का लक्ष्य तय किया है.

कंपनी का कहना है कि मंदी के इस शहरी माहौल में देश के गांव उस की जीवनधारा बन कर उभरे हैं. मारुति कंपनी तो गांवों की शक्ति पहचान गई है लेकिन गांव को उस के हाल पर छोड़ने वाली हमारी सरकारों की नींद न जाने कब खुलेगी? राजनेता वोट भर के लिए गांवों की अहमियत समझते हैं. वे उन के विकास को अहमियत नहीं देते. सवाल यह है कि गांव की ताकत से आखिर हम कब परिचित होंगे?

सरकारी मदद पर ट्रकों की सेल

सरकार सड़कों की स्थिति नहीं सुधार पाती है. छोटे रास्तों को तो छोडि़ए, राजमार्गों तक पर भी गड्ढों से मुक्ति नहीं मिलती है. चौड़े बनाए गए राजमार्गों पर भी जाम लगा रहता है. जाम को खोलने के उगाही करने में जुटे पुलिसकर्मियों को फुरसत नहीं होती है.

दिल्ली से लगे राष्ट्रीय राजमार्गों को ही देखें, गाजियाबाद में ही खड़े हो जाइए तो रात को 1 बजे भी जाम मिलेगा. कारण, पुलिस वाले उगाही में लगे रहते हैं और इसी वजह से होने वाली जिरह के कारण ट्रकों की लाइन लग जाती है और मोहन नगर जैसे चौराहे को पार करने में सुबह हो जाती है.

आंकड़े कहते हैं कि पिछले  22 महीनों से लगातार ट्रकों की बिक्री घट रही है जिसे बढ़ाने के लिए सरकार ने सड़क पर ट्रक वालों को तंग करने के उपाय कम करने के बजाय ट्रक का जीवन 15 साल निर्धारित कर दिया है और डेढ़ दशक तक सड़क पर ट्रक चलाने के बाद नया ट्रक खरीदने पर मालिक को 1 लाख रुपए की मदद देने का निर्णय लिया है.

सोचिए, जो ट्रक मालिक 15 साल में मालामाल हुआ है उसे नया ट्रक खरीदने के लिए उपहार सिर्फ इसलिए दिया जा रहा है कि नए ट्रकों की बिक्री बढ़े और मोटर वाहन बनाने वाली कंपनियों को फायदा पहुंचे.

साफ है कि दुनिया के 200 देशों की सूची में भ्रष्टाचार के मामले में 95वें स्थान पर रहने वाले भारत के बाबुओं ने यह कदम बिना खाएपिए ईमानदारी से नहीं उठाया होगा. जाहिर है दूसरों को लाभ पहुंचाने की योजना बनाते समय वाहन निर्माण कंपनियों से मोटा पैसा बाबुओं की जेब तक पहुंचा है.

 

खांसी बुखार में स्वास्थ्य बीमा दावे बढ़े

वाणिज्य और उद्योग मंडल यानी फिक्की ने एक सर्वेक्षण कराया है जिस के आधार पर स्वास्थ्य बीमा विजन 2020 तैयार किया गया. रिपोर्ट में कहा गया है कि बढ़ते प्रदूषण और बदलते माहौल को देखते हुए अगले 7 सालों में देश की 80 फीसदी आबादी को स्वास्थ्य बीमा योजना के दायरे में लाया जाना चाहिए. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि हाल के वर्षों में लोगों में भी स्वास्थ्य बीमा के प्रति जागृति आई है और स्वास्थ्य बीमा प्रीमियम में वृद्धि दर 30 प्रतिशत दर्ज की गई है.

महानगरों में दूषित पर्यावरण तेजी से बढ़ रहा है. छोटे नगरों में प्रदूषण नहीं है. वहां की आबोहवा निर्मल है. वहां स्वास्थ्य सुविधाएं भी नगण्य हैं, फिर भी लोग कम बीमार होते हैं. भीड़भाड़ भी कम है. इस के ठीक विपरीत महानगरों का जीवन प्रदूषण के कारण दूभर होता जा रहा है. लोगों में जुकाम, बुखार, खांसी जैसी सामान्य बीमारियां आम हो रही हैं और इस पर बड़ा पैसा खर्च करना पड़ रहा है.

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में इन मामूली बीमारियों पर बढ़ रहे खर्च के कारण लोगों ने स्वास्थ्य बीमा योजना को तेजी से स्वीकार किया है. इसी का परिणाम है कि इन सामान्य बीमारियों के स्वास्थ्य बीमा दावों में पिछले कुछ माह में 20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, नोएडा, गाजियाबाद, फरीदाबाद में अप्रैलसितंबर के दौरान पिछले साल के 10 फीसदी की तुलना में स्वास्थ्य बीमा दावों की संख्या बढ़ कर 30 फीसदी हो गई है.

मौसम बदलने व दूसरे कई कारणों से होने वाली सामान्य बीमारियों के आधार पर दावों पर यह आंकड़ा तैयार किया गया है.

 

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