Download App

Sanjay Singh : जीएसटी अफसर का सुसाइड और सुशासन का सच

Sanjay Singh : संजय सिंह कर्मठ और ईमानदार अधिकारियों में से एक थे. वे दिनरात काम में लगे रहते थे, बावजूद इस के उन को लगातार मानसिक रूप से प्रताड़ित और बेइज्जत किया जा रहा था. दबाव इस हद तक बढ़ चुका था कि मजबूर हो कर अंततः उन्होंने मौत को गले लगा लिया. अब शासनप्रशासन सिंह की आत्महत्या की वजह कैंसर से उत्पन्न तनाव को बताने में जुटा है.

उन्होंने मन लगा कर पढ़ाई की. सिविल सेवा की तैयारी में जीतोड़ मेहनत की. आईएएस नहीं बन पाए मगर जब पीसीएस चुने गए तो घर परिवार में ही नहीं गांवगिरांव और रिश्तेदारों ने खूब खुशियां मनाईं. उन का पूरा कैरियर बेदाग़ और शानदार रहा. फिर क्या हुआ कि सेवानिवृत्ति के करीब आ कर उन्होंने बिल्डिंग के 15वें माले से कूद कर आत्महत्या कर ली?

अति सौम्य, मिलनसार, अपने काम से काम रखने वाले प्रशासनिक अधिकारी संजय सिंह गाज़ियाबाद में जीएसटी डिपार्टमैंट में डिप्टी कमिश्नर पद पर कार्यरत थे. संजय सिंह मूल रूप से उत्तर प्रदेश के मऊ जिले के रहने वाले थे. पिछले 4 साल से वह गाजियाबाद में तैनात थे. उन का निवास नोएडा के सैक्टर 75 स्थित एक सोसायटी में था. अगले साल वे रिटायर होने वाले थे. रिटायरमैंट के बाद के प्लान उन्होंने बना रखे थे. बड़ा बेटा नौकरी में आ ही चुका था, छोटा अभी पढ़ रहा था. घर में एक प्रेम करने वाली पत्नी, जिस ने 10 साल पहले एक जानलेवा बीमारी होने पर उन की इतनी सेवा की कि उन्हें कैंसर मुक्त करा के ही दम लिया, तो आखिर ऐसी क्या वजह थी कि एक पल में अपने प्यारे परिवार को छोड़ने का फैसला उन्होंने ले लिया? कैंसर से लड़ कर जीतने वाले के सामने आखिर ऐसी कौन सी परेशानी खड़ी हो गई जिस से वह हार गया?

दरअसल देश में प्रशासनिक अधिकारियों की हालत ऐसी है कि वे शासन द्वारा अपने विरुद्ध जारी अत्याचार, प्रताड़ना, तनाव, दबाव, धमकी आदि के खिलाफ मुंह नहीं खोल सकते हैं. यह नाफरमानी मानी जाती है और फिर उन्हें ट्रांसफर, निलंबन या बर्खास्तगी जैसे दंड झेलने पड़ते हैं. जो अधिकारी भ्रष्ट हैं और भ्रष्टाचार के धन से पूरे सिस्टम को पालते हैं, वे मजे में रहते हैं, उन्हें अच्छी पोस्टिंग भी मिलती है और समय समय पर प्रमोशन भी मिलता है. वे भ्रष्टाचार से कमाए धन से बड़ेबड़े बंगले बना लेते हैं. बड़ीबड़ी गाड़ियां खरीद लेते हैं. बच्चों को विदेशों में पढ़ाते हैं और पूरे कार्यकाल में बस ऐश करते हैं. मगर जो अधिकारी कर्मठ हैं, ईमानदार हैं, काम में लगे रहते हैं, उन्हें शासन से भी गालियां और धमकियां मिलती हैं और अपने सीनियर अधिकारियों से भी. दंडस्वरूप दूरदराज के क्षेत्रों में स्थानांतरित किया जाना तो बहुत आम बात हो गई है. परिवार को छोड़ कर सालों साल ऐसी जगहों पर रहना जहां न खाने का ठिकाना न रहने का. इस से तंग आ कर अनेक अधिकारी समयपूर्व सेवानिवृत्ति ले लेते हैं या लम्बी छुट्टियों पर चले जाते हैं. दूसरी तरफ भ्रष्ट अधिकारी 15 से 20 साल एक ही स्थान पर जमे रहते हैं.

संजय सिंह कर्मठ और ईमानदार अधिकारियों में से एक थे. वे दिन रात काम में लगे रहते थे, बावजूद इस के उन को लगातार मानसिक रूप से प्रताड़ित और बेइज्जत किया जा रहा था. दबाव इस हद तक बढ़ चुका था कि मजबूर हो कर अंततः उन्होंने मौत को गले लगा लिया. अब शासनप्रशासन सिंह की आत्महत्या की वजह कैंसर से उत्पन्न तनाव को बताने में जुटा है, जबकि उन की पत्नी ने मीडिया को वह सर्टिफिकेट दिखाया जिस में संजय सिंह को 10 साल पहले कैंसर मुक्त घोषित किया जा चुका है. वे बिलकुल स्वस्थ थे. तभी तो दिनरात टारगेट पूरा करने में जुटे थे मगर प्रमुख सचिव एम. देवराज की तानाशाही के आगे वे हार गए.

आरोप है कि सरकार की ब्याज बचत योजना, जिस में हर अधिकारी को पांच व्यापारियों को जोड़ने का टारगेट प्रमुख सचिव द्वारा मिला था, संख्या न पूरी कर पाने पर संजय सिंह का नाम सस्पेंड किए जाने वाले अधिकारियों की सूची में शामिल कर लिया गया था. जबकि यह अतिरिक्त कार्य उन्हें कुछ समय पहले ही सौंपा गया था और उन को इतना समय ही नहीं दिया गया कि वे पांच व्यापारियों को समझा बुझा कर इस योजना में शामिल कर पाएं. फिर एक योजना जो कि एक स्वैच्छिक योजना है और जिस में आना, न आना व्यापारियों की मर्जी पर निर्भर करता है, उस को आननफानन में पूरा कर पाना किसी भी अधिकारी के बस में नहीं है. ऐसे में बिना स्पष्टीकरण मांगे सीधे निलंबन की संस्तुति कर देना कितना भयावह था उस अफसर के लिए जिस ने जीवन भर सरकार को कमा कर दिया और जिस का दामन हमेशा बेदाग़ रहा.

जीएसटी के डिप्टी कमिश्नर संजय सिंह की मौत ने पूरे उत्तर प्रदेश के जीएसटी अधिकारियों में भारी आक्रोश भर दिया है. विभाग के अधिकारी संजय सिंह की मौत का जिम्मेदार प्रमुख सचिव एम. देवराज के तानाशाही रवैए को बता रहे हैं. जिस के कारण विभाग में प्रताड़ना का स्तर इतना बढ़ गया है कि कोई भी स्‍वतंत्र विवेक से काम कर नहीं पा रहा है.

एम. देवराज के खिलाफ इतना अधिक गुस्सा अधिकारियों में है कि उन की तरफ से बनवाए गए व्हाट्सऐप ग्रुप को अधिकांश अधिकारियों ने छोड़ दिया है. जिस ग्रुप में पूरे प्रदेश के 845 से अधिक लोग जुड़े थे उस में से 800 से अधिक यह ग्रुप छोड़ चुके हैं. यानी अब वे प्रमुख सचिव एम. देवराज के किसी उलटे सीधे निर्देश का पालन नहीं करना चाहते हैं. अफसरों का कहना है कि प्रमुख सचिव नियमों के विपरीत मौखिक आदेश देते हैं. आदेश के तुरंत पालन का दबाव बनाते हैं जबकि हर कार्य की एक प्रक्रिया होती है.

टैक्स बार एसोसिएशन के पदाधिकारी अनुराग मिश्रा बताते हैं कि जीएसटी एक्ट में हर कार्य के लिए एक समय निर्धारित है, जिस के लिए अधिकारियों की जिम्मेदारी भी तय है, लेकिन विभाग के प्रमुख सचिव ने अपील से ले कर एसआईबी की जांच रिपोर्ट और वार्षिक विवरणी तक में हस्तक्षेप करते हुए काउंसलिंग द्वारा देश भर के लिए तय की गई तारीखों को ही बदल डाला है, जिस से उत्तर प्रदेश में व्यापारी और जीएसटी अधिकारी दोनों परेशान हैं.

मिश्रा बताते हैं, वित्तीय वर्ष 2024-25 की वार्षिक विवरणी दाखिल करने की अंतिम तिथि पूरे देश के लिए 25 सितंबर है. वार्षिक विवरणी में व्यापारी अपने पूरे वर्ष के रिटर्न में हुई भूल चूक को भी सुधरता है. यह एक तरह की बैलेंस शीट होती है. काउंसिल ने यह सुविधा व्यापारियों को उत्पीड़न से बचाने के लिए दी है, लेकिन शासन ने विभाग की विशेष जांच टीम एसआईबी की जांचों में जो मामले पकड़े हैं, उन में भी अपनी फाइनल रिपोर्ट लगा कर कर-निर्धारण साल पूरा होने से पहले ही किए जाने का मौखिक आदेश दिया है.

मिश्रा कहते हैं, एसआईबी की जांच के मामले में एक्ट में साढ़े चार साल और मैनुअल में 90 दिन में रिपोर्ट देने का प्राविधान है, ताकि व्यापारी को भी अपना पक्ष रखने का मौका मिल सके. प्रमुख सचिव द्वारा जल्दबाजी और दबाव के कारण एसआईबी के अधिकारी इस बात को ले कर परेशान हैं कि अगर एक्ट में दी गई व्यवस्था के तहत व्यापारी को अपना पक्ष रखने का मौक़ा नहीं मिला तो आगे चल कर जब ये मामले कोर्ट में जाएगा तो कोर्ट रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करने वाले अधिकारी को भी दंडित कर सकती है, क्योंकि शासन कोई भी आदेश लिखित रूप में जारी नहीं कर रहा है जिस से ये कहा जा सके कि किस के आदेश पर समय से पहले रिपोर्ट लगा कर कर निर्धारण कर दिया गया.

व्यापारियों की ब्याज माफी योजना में प्रतिदिन 5 व्यापारियों को शामिल करवाने का दबाव प्रमुख सचिव के मौखिक आदेश के बाद जोनल एडिशनल कमिश्नर अपने नीचे के अधिकारियों पर बना रहे हैं. जबकि यह योजना स्वैच्छिक है. व्यापारी एक पक्षीय मामलों में गलत टैक्स को क्यों स्वीकार करें? वहीं जो व्यापारी इसमें आना भी चाहते हैं और उन पर करोड़ों रूपए का टैक्स बकाया है, वह भी 31 मार्च आने का इंतज़ार कर रहे हैं. उन का कहना है कि आज जब बैंक प्रतिदिन के हिसाब से ब्याज दे रही है और सरकार ने भी इस योजना की अंतिम तिथि 31 मार्च तय की है, तो वह पहले से ही इतनी पूंजी सरकारी खजाने में जमा करके नुकसान क्यों सहन करें?

एक जीएसटी अधिकारी कहते हैं, “हमारे ऊपर दबाव बनाया जा रहा है कि व्यापारियों को एमएसटी स्कीम (ब्याज माफी योजना ) लेनी ही होगी. सेंट्रल वालों के लिए भी यही स्कीम है. मगर सेंट्रल जीएसटी वालों के यहां इस तरह का कोई दबाव नहीं है. हमें हर आदेश के बाद बोला जाता है कि करो वरना सस्पेंड कर दूंगा. हर जोन के लिए उक्त योजना लागू करने के लिए लक्ष्य दिया जा रहा है और न करने पर जोन से अधिकारियों के नाम मांगे जा रहे हैं, जिन के खिलाफ कार्रवाई की जा रही है. हर अधिकारी से कहा जा रहा है कि 5 व्यापारियों को समाधान योजना में लाओ. अब इस योजना में कौन आना चाहता है, कौन नहीं आना चाहता, यह अधिकारी कैसे तय करेगा? व्यापारी के पास योजना में न आने के कई कारण होते हैं. लेकिन अधिकारियों से कहा जाता है कि व्यापारियों को योजना में लाओ वरना सस्पेंड कर देंगे, इसी का शिकार डिप्टी कमिश्नर संजय सिंह भी हुए हैं. वो सुप्रीम कोर्ट में सरकार का पक्ष रखने वाले वकीलों को तथ्य मुहैया कराते थे, उन्हें कुछ समय पहले सेक्टर के टारगेट में झोंक दिया गया. समय दिया नहीं गया और सस्पेंड होने वाले अधिकारियों की सूची में उन का नाम डाल दिया गया. उन्होंने परेशान हो कर जान दे दी.”

एक जीएसटी अफसर नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, 7 मार्च को प्रमुख सचिव ने रोज की तरह औनलाइन मीटिंग ली. जिस में उन्होंने मौखिक आदेश सभी जोनल एडिशनल कमिश्नरों को दिए कि जिन खंड अधिकारियों ने सरकार की ब्याज माफ़ी योजना में 5 से कम व्यापारियों को पंजीकृत करवाया है, उन से स्पष्टीकरण नहीं सीधे उन के निलंबन की संस्तुती मुख्यालय को भेजी जाए. 8 तारीख को हुई बैठक में संजय सिंह से भी योजना में शामिल होने वाले व्यापारियों की संख्या पूछी गई तो उन्होंने बताया की उन को इस पद का अभी अतिरिक्त प्रभार मिला है, इसलिए उन की संख्या कम है. अब चूंकि कोई स्पष्टीकरण लिया ही नहीं जा रहा था, इसलिए जोनल एडिशनल कमिश्नरों ने पांच से कम वाले अधिकारियों के नाम भेजने शुरू कर दिए. इस लिस्ट में 21 जोनों के अधिकारियों के नाम शामिल थे. इस से संजय सिंह ही नहीं, विभाग के करीब एक हजार अधिकारी तनाव में आ गए. कारण यह था की इस आधार पर उन के निलंबन की कार्रवाई हो सकती थी. संजय सिंह इसलिये अधिक तनाव में थे क्योंकि उन की संयुक्त आयुक्त के पद पर पदोन्नति दोतीन माह में होनी तय थी और उन का सेवाकाल भी मात्र एक वर्ष ही बचा था.

भारत में ही नहीं शासनप्रशासन का तानाशाही रवैया पूरी दुनिया में बढ़ा है. अब नौकरियों को ले कर सुरक्षा का कोई एहसास नहीं बचा है. किसी को भी, किसी भी पोस्ट से, कहीं भी फायर कर दिया जाता है. अमेरिका की संघीय सरकार के खर्चों में कटौती के लिए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सरकारी दक्षता विभाग का गठन किया है. इस का जिम्मा अरबपति एलन मस्क को सौंपा है. इस अभियान के तहत हजारों कर्मचारियों को नौकरी से निकाला जा रहा है. नौकरीपेशा व्यक्ति आज सब से अधिक तनाव में जी रहा है. तनाव तमाम गंभीर बीमारियां दे रहा है और कई मामलों में समयपूर्व ही मौत.

उत्तर प्रदेश के जिन अधिकारियों से टैक्स चोरों को खौफ खाना चाहिए, वह खुद ही इन दिनों खौफ के साये में नौकरी कर रहे हैं. हर किसी पर टैक्स कलैक्शन बढ़ाने का दबाव है. यही वजह है कि कई अधिकारियों ने वीआरएस के लिए आवेदन कर दिया है. हर अधिकारी दबाव में जी रहा है और काम के दबाव में कोई भी गलत फैसला होने की संभावना से अधिकारियों में हताशा और निराशा है. छुट्टी के दिन में भी काम और मीटिंग लिया जाना, विभाग में मानवीय और भौतिक संसाधनों की कमी को पूरा न किया जाना, बिना अधिकारी का पक्ष जाने ही अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करना, एमनेस्टी स्कीम का अप्राप्य लक्ष्य निर्धारण कर के अधिकारियों के निलंबन का प्रस्ताव मांगने से जीएसटी अधिकारियों में भारी आक्रोश है. ज्यादातर अधिकारी वर्चुअल मीटिंग से किनारा कर चुके हैं.

जीएसटी अफसरों की यह डिजिटल बगावत प्रदेश की योगी सरकार पर भारी पड़ सकती है. मार्च महीना खत्म हो रहा है. वित्तीय वर्ष समाप्ति पर सब से ज्यादा जीएसटी से ही रेवेन्यू कलैक्शन होता है. अफसरों, कर्मचारियों की बगावत का सीधा असर इस काम पर पड़ेगा. जीएसटी औफिसर्स सर्विस एसोसिएशन के अधिकारियों ने आपातकालीन बैठक बुला कर विरोध को और तेज करने का ऐलान किया है. अधिकारियों ने सामूहिक अवकाश की धमकी भी दी है. फिलहाल अधिकारी घटना के विरोध में काला फीता बांध कर काम कर रहे हैं.

Grihashobha Inspire Awards 2025 में प्रेरणादायक महिलाओं को किया सम्मानित 

Grihashobha Inspire Awards 2025 : नई दिल्ली, 21 मार्च 2025 –गृहशोभा इंस्पायर अवार्ड्स 2025 का आयोजन 20 मार्च 2025 को त्रावणकोर पैलेस, नई दिल्ली में किया गया. इस कार्यक्रम में उन असाधारण महिलाओं को सम्मानित किया गया जिन्होंने अपने क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. इस कार्यक्रम में लोक कला, शासन, सार्वजनिक नीति, सामाजिक कार्य, व्यवसाय, विज्ञान, ऑटोमोटिव और मनोरंजन जैसे क्षेत्रों की प्रभावशाली और उपलब्धि हासिल करने वाली महिलाओं को सम्मानित किया गया. यह पुरस्कार उन लोगों को दिया गया जिन्होंने जिन्होनें अपने सामने आने वाली सभी मुश्किलों को पार कर एक नई राह बनाई.

इस इवेंट को लाइव देखने के लिए लिंक पर क्लिक करें –

https://www.facebook.com/share/v/15annFyN5g/?mibextid=wwXIfr

इस समारोह में, सार्वजनिक स्वास्थ्य और शासन में परिवर्तनकारी नेतृत्व के लिए केरल की पूर्व स्वास्थ्य मंत्री सुश्री के.के. शैलजा को पुरूस्कृत किया गया. साथ ही प्रसिद्ध अदाकारा सुश्री शबाना आज़मी को सिनेमा में उनके योगदान और मजबूत एवं मुश्किल किरदारों के प्रदर्शन के लिए मनोरंजन के माध्यम से सशक्तिकरण – आइकन के रूप में सम्मानित किया गया. डॉ. सौम्या स्वामीनाथन को सार्वजनिक स्वास्थ्य और वैज्ञानिक अनुसंधान में उनके अग्रणी नेतृत्व के लिए नेशन बिल्डर – आइकन पुरस्कार मिला. टाइटन वॉचेस की सीईओ सुश्री सुपर्णा मित्रा को कॉर्पोरेट नेतृत्व में नए स्टैंडर्ड स्थापित करने के लिए बिजनेस लीडरशिप – आइकन पुरूस्कार दिया गया.

अन्य प्रतिष्ठित पुरस्कार विजेताओं में सुश्री मंजरी जरूहर शामिल रहीं, जिन्हें पुलिसिंग में उनके अग्रणी करियर के लिए फियरलेस वारियर – आइकन के रूप में सम्मानित किया गया. ग्रामीण कारीगरों को सशक्त बनाने वाली जमीनी स्तर की नेता सुश्री रूमा देवी को ग्रासरूट्स चेंजमेकर – आइकन पुरस्कार मिला, जबकि सुश्री अमला रुइया को जल संरक्षण में उनके अग्रणी कार्य के लिए ग्रासरूट्स चेंजमेकर – अचीवर के रूप में सम्मानित किया गया. सुश्री विजी वेंकटेश को कैंसर देखभाल में उनके सरहानीय योगदान के लिए न्यू बिगिनिंग- आइकन से सम्मानित किया गया.

बिजनेस इंडस्ट्री में, भारत की पहली कीवी वाइन मैकर सुश्री तागे रीता ताखे को बिजनेस लीडरशिप-अचीवर से सम्मानित किया गया, जबकि मेंस्ट्रुपीडिया की फाउंडर सुश्री अदिति गुप्ता को होमप्रेन्योर-अचीवर से सम्मानित किया गया. सुश्री कृपा अनंथन को ऑटोमोटिव इंडस्ट्री में चेंजमेकर के रूप में सम्मानित किया गया, और सुश्री किरुबा मुनुसामी को उनकी कानूनी सक्रियता के लिए सोशल इम्पैक्ट-अचीवर से पुरूस्कृत किया गया. डॉ. मेनका गुरुस्वामी और सुश्री अरुंधति काटजू को लैंगिक समानता और LGBTQ समुदाय के अधिकारों के लिए उनकी ऐतिहासिक कानूनी लड़ाई के लिए संयुक्त रूप से सोशल इम्पैक्ट-चेंजमेकर से सम्मानित किया गया.

लोक कलाओं के संरक्षण में उनके योगदान के लिए, डॉ. रानी झा को फोल्क हेरिटेज-आइकन से सम्मानित किया गया. डॉ. बुशरा अतीक को STEM में उत्कृष्टता के लिए सम्मानित किया गया.

एंटरनमेंट और डिजिटल इन्फ्लुएंस में, सुश्री तिलोत्तमा शोम और और सुश्री कोंकणा सेन को मनोरंजन के माध्यम से सशक्तिकरण के लिए ऑनस्क्रीन और ऑफस्क्रीन सम्मानित किया गया. सुश्री लीजा मंगलदास को कंटेंट क्रिएटर -एम्पावरमेंट, सुश्री श्रुति सेठ को कंटेंट क्रिएटर – पेरेंटिंग और डॉ. तनया नरेंद्र को कंटेंट क्रिएटर – हेल्थ में उनकी उत्कृष्टता के लिए सम्मानित किया गया.

माननीय अतिथि

सभी पुरस्कार आरटीआई कार्यकर्ता सुश्री अरुणा रॉय, वरिष्ठ अधिवक्ता सुश्री इंदिरा जयसिंह, प्रसिद्ध कथक नृत्यांगना सुश्री शोवना नारायण और महिला अधिकार कार्यकर्ता एवं राजनीतिज्ञ सुश्री सुभाषिनी अली द्वारा प्रदान किए गए. इन विशिष्ट अतिथियों ने अपने प्रेरणादायक शब्दों के साथ विजेताओं की उपलब्धियों के लिए उन्हें प्रोत्साहित किया.

जूरी पैनल

पुरस्कारों का निर्णय प्रतिष्ठित और सम्मानित महिलाओं के एक प्रतिष्ठित जूरी पैनल द्वारा किया गया, जिसमें लेखिका और फेमिना की पूर्व संपादक सुश्री सत्या सरन, लोकप्रिय अभिनेत्री सुश्री पद्मप्रिया जानकीरमन, चंपक की संपादक सुश्री ऋचा शाह, लर्निंग लिंक्स फाउंडेशन की अध्यक्ष सुश्री नूरिया अंसारी, आउटवर्ड बाउंड हिमालय की डायरेक्टर सुश्री दिलशाद मास्टर और कारवां की वेब संपादक सुश्री सुरभि कांगा शामिल थीं.

कार्यक्रम में बोलते हुए, दिल्ली प्रेस के प्रधान संपादक और प्रकाशक श्री परेश नाथ ने कहा: “गृहशोभा इंस्पायर अवार्ड उन लोगों को श्रद्धांजलि है जो आम धारणाओं को चुनौती देते हैं, और बदलाव लाने के लिए और भविष्य को आकार देने के लिए रचनात्मकता और साहस का उपयोग करते हैं. शोर से अभिभूत दुनिया में, ये पुरस्कार विजेता हमें याद दिलाते हैं कि सच्चा नेतृत्व उन लोगों के शांत लेकिन परिवर्तनकारी प्रभाव में निहित है जो सत्ता के सामने सच बोलने और ईमानदारी के साथ नेतृत्व करने का साहस करते हैं.”

गृहशोभा के बारे में:

गृहशोभा, जिसे दिल्ली प्रेस द्वारा प्रकाशित किया जाता है, भारत की सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली हिंदी महिला मैगजीन है, जिस के 10 लाख से अधिक रीडर्स हैं. यह मैगजीन 8 भाषाओं (हिंदी, मराठी, गुजराती, कन्नड़, तमिल, मलयालम, तेलुगु और बंगाली) में प्रकाशित होती है और इस में घरगृहस्थी, फैशन, सौंदर्य, कुकिंग, स्वास्थ्य और रिश्तों पर रोचक लेख शामिल होते हैं. पिछले 45 सालों से गृहशोभा महिलाओं के लिए प्रेरणा और मार्गदर्शन का स्रोत बनी हुई है.

दिल्ली प्रेस के बारे में:

दिल्ली प्रेस भारत के सबसे बड़े और विविध पत्रिका प्रकाशनों में से एक है. यह परिवार, राजनीति, सामान्य रुचियों, महिलाओं, बच्चों और ग्रामीण जीवन से जुड़ी 36 पत्रिकाएं 10 भाषाओं में प्रकाशित करता है. इस की पहुंच पूरे देश में फैली हुई है.

मीडिया से संपर्क करें:

अनंथ नाथ/ एला
9811627143/ 8376833833

Best Hindi Story : प्यार कभी मरता नहीं

Best Hindi Story : ‘हितेश तुम यहां…?’

‘यही सवाल तो मैं तुम से करना चाहता हूं शालू. तुम यहां कैसे?’

‘मुझे 2 दिन पहले ही सर ने यहां की ब्रांच में शिफ्ट किया है. लेकिन, तुम…?’

‘मैं यहां का मैनेजर हूं, 3 दिन से टूर पर था, आज ही आया हूं. तो क्या तुम इस कंपनी की सिस्टर कनसर्न दिल्ली में जौब करती हो?’

‘लेकिन, तुम्हारी शादी तो एक अमीर लड़के से हुई थी. फिर तुम और जौब…? कुछ समझ नहीं आया?’

‘खैर छोड़ो, यह बताओ कि तुम्हारा परिवार कैसा है? मेरा मतलब, बीवीबच्चे…?’

‘सब अच्छे हैं. और तुम्हारे बच्चे, पति सब कैसे हैं? क्या करते हैं तुम्हारे पति?’

‘सब मजे में हैं.’

‘बौस ने तुम्हारे रहने के लिए फ्लैट के लिए कहा है, मैं आज ही इंतजाम करवाता हूं, बस यही कहने आया था. देखा, तो तुम निकली. लेकिन,

अब तक तुम कहां रह रही हो?’

‘दरअसल, अभी मैं इस कंपनी की एंप्लाई सिस्टर डिसूजा के साथ रूम शेयर कर रही हूं.’

‘तो क्या मिस डिसूजा ने तुम्हारी फैमिली को साथ रहने के लिए हां कह दिया?’

‘अरे नहीं, मैं यहां अकेली ही आई हूं.’

‘तो अगर तुम ठीक समझो, तो क्या आज शाम को हम मिल सकते हैं? पता नहीं, फिर यह मौका मिले या न मिले. अगर तुम्हें या तुम्हारी फैमिली को कोई एतराज न हो तो…’

‘हां, अगर तुम्हारी फैमिली को एतराज नहीं तो हम मिल सकते हैं.’

औफिस के बाद मिलने को कह कर दोनों अपनेअपने केबिन में चले गए.

लेकिन शालू को चैन कहां? इतने बरसों से जिसे तलाश रही थी, वह आज मिला भी तो किसी और की अमानत बन चुका है.

शालू ने ताउम्र शादी नहीं की. लेकिन, हितेश ने उसे भुला कर कैसे किसी और को उस की जगह दे दी? क्या इतना ही प्यार था उस से, जो पलभर में खत्म हो गया. उसे यह बात बरदाश्त नहीं हो रही थी. पूरे समय शालू बेचैन रही, एक पल के लिए भी काम में उस का मन न लगा.

वह शाम का इंतजार करने लगी.खो गई खयालों में, अपने बीते कालेज के दिनों में, जब एकसाथ पढ़तेपढ़ते दोस्ती से बढ़ कर दोनों का रिश्ता प्यार में बदल गया.

लेकिन, हितेश के पापा कालेज में कैंटीन चलाते थे और शालू के पापा उस कालेज के ट्रस्टी थे. भला ये मेल कहां मिलता है?

लेकिन, बच्चों के प्यार की खातिर हितेश के पापा रिश्ता ले कर शालू के पापा के पास आए, लेकिन जवाब में बड़े ही सख्त लहजे में शालू के पापा ने कहा, ‘मुझ से रिश्ता जोड़ने की औकात है तुम्हारी…?’

शालू को बहुत बुरा लगा, लेकिन पापा के खिलाफ भी नहीं जा सकती थी वह. हितेश अपने मातापिता की बेइज्जती बरदाश्त न कर सका और मातापिता सहित दिल्ली छोड़ कर मुंबई आ गया और सब वहीं सैटल हो गए.

इधर, शालू के पापा एक से एक अमीर लड़के का रिश्ता लाते, लेकिन शालू किसी के लिए भी हां न करती.

आखिर इस तरह कब तक चलता.

‘शालू आखिर तुम चाहती क्या हो? एक से बढ़ कर एक अमीर घराने के रिश्ते खुद से आ रहे हैं, मगर तुम हो कि किसी के लिए भी हां नहीं करती हो. पहले तुम्हारी शादी हो, तभी तो हम तुम्हारी छोटी बहन के लिए भी लड़का ढूंढे़ं. वह भी तो बड़ी हो गई है.’

‘सौरी पापा, मैं हितेश की जगह किसी और को नहीं दे सकती. इसलिए आप मेरे लिए लड़का ढूंढ़ने के बजाय छोटी बहन के लिए कोई अच्छा लड़का देख कर उस की शादी कर दें.’

छोटी बहन ने जब सुना कि उस की शादी के बारे में सोचा जा रहा है, तो अगले ही दिन उस ने अपने बौयफ्रैंड राहुल को फोन लगाया.

‘हैलो राहुल, मेरे पापा मेरी शादी के बारे में सोच रहे हैं और मैं अच्छी तरह जानती हूं कि पापा हमें नहीं मिलने देंगे. क्योंकि पापा ने शालू दी के प्यार को एक्सैप्ट नहीं किया, जो कि लड़का बहुत ही मेहनती था. आगे चल कर वह जरूर कुछ बन कर दिखाता. लेकिन, मैं दीदी नहीं कि घुटघुट कर मर जाऊं. अगर हम पापा से कहेंगे, तो पापा हमें हमेशाहमेशा के लिए जुदा कर देंगे. इस से अच्छा है कि हम भाग कर शादी कर लें.’

राहुल के पापा एक सब्जी की रेहड़ी लगाते थे. वह बहुत ही समझदार और सुलझा हुआ होने के साथसाथ मेहनती लड़का था. लेकिन, छुटकी जानती थी कि पापा नहीं मानेंगे इस रिश्ते के लिए. इसलिए उसे यही रास्ता सही लगा. वह शालू की तरह अपने प्यार की कुरबानी नहीं दे सकती थी.

राहुल के मान जाने पर छुटकी 2 दिन बाद घर से लगभग 8-10 लाख की ज्वैलरी ले कर राहुल के साथ भाग गई.

पैसों की तो खैर उस के पापा को कोई परवाह नहीं थी, लेकिन इज्जत का जो मटियामेट कर गई, उस से शालू के पापा जब तक जिए उबर न पाए.

इस सदमे में उन्होंने बैड पकड़ लिया. मां हार्ट पेशेंट थीं. बेटी के घर से भागने का गम, उस पर बदनामी और पति का सदमे में चले जाना, इन सब से ऐसा हार्ट अटैक आया कि पल में छोड़ कर चली गईं सब को.

शालू पर गमों का पहाड़ टूट पड़ा. छुटकी को बहुत ढूंढ़ा, मगर कुछ सुराग न मिला. उधर मां भी छोड़ गईं. पापा भी सदमे में 15-20 दिन बाद स्वर्ग सिधार गए. लेकिन जातेजाते बेटी से हाथ जोड़ कर माफी मांग कर उसे हितेश को ढूंढ़ कर अपना घर बसाने के लिए इशारों में समझा गए.

शालू ने छुटकी के साथसाथ हितेश को भी बहुत ढूंढ़ा, मगर किसी की कोई खबर नहीं मिली, क्योंकि दोनों ने ही अपने मोबाइल के पुराने नंबर डेड कर दिए थे.

पापा का सारा बिजनैस भी जानकारी न होने के कारण अत्यधिक घाटे में चला गया. सबकुछ खत्म हो गया. शालू पढ़ीलिखी और मेहनती थी. उसे अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई. वह लगभग 18-19 साल से दिल्ली की शाह कंपनी को संभाले हुए थी, लेकिन इस बार शाह साहब बोले, ‘शालू, मेरी एक ब्रांच मुंबई में है, मैं अकसर वहां जाता रहता हूं अपडेट्स लेने, लेकिन अब मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती, जिस वजह से सफर करना मुश्किल हो जाता है. तुम्हारी ईमानदारी और काबिलीयत पर मुझे पूरा भरोसा है, इसलिए मैं चाहता हूं कि वहां का सारा काम तुम संभालो.’

और इस तरह से शालू मुंबई आई.

लेकिन, जब शाम को आज मिले, तो शालू पहले की तरह नार्मल हो कर बात करने लगी.

‘हितेश, तुम आज भी उतने ही हैंडसम हो, जितना कालेज के समय में थे.’

‘तुम भी तो गजब ढा रही हो. कालेज के समय में जैसे तुम बिजलियां गिराती थीं, आज भी कम नहीं हुई.’

इस पर शालू खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘देखो हंसा न करो इस कदर, कहीं जमाने की नजर न लग जाए, जरा बंद कर लो लबों को अपने कहीं जमाने को हमारे प्यार की खबर न लग जाए.’

‘ओ माई गौड, ये शेर तुम्हें अभी तक याद है. याद है, मैं जब भी इस तरह खिलखिला कर हंसती तो तुम यही शेर कहते. लगता है, शायद अब अपनी पत्नी के लिए शायरी करते हो? क्या वह बहुत खूबसूरत है?’

‘हां मेरी पत्नी चांद से भी हसीन, परियों से भी सुंदर है. इस जहान में उस की खूबसूरती का कोई मुकाबला नहीं.’

‘वाह क्या बात है… और बच्चे क्या करते हैं?’

‘अभी पढ़ रहे हैं, और तुम्हारे पति और बच्चे क्या करते हैं?’

‘पति नौकरी करते हैं और बच्चे पढ़ रहे हैं.’

इधरउधर की बातें और अपने बीते दिनों की बातें करतेकरते कुछ दिन निकल गए. कुछ दिन बाद हितेश के मुंह से सचाई निकल जाती है कि उस के मातापिता स्वर्ग सिधार चुके हैं, और वो घर पर अकेला ही है.

शालू के बहुत जोर देने पर उस ने बताया कि उस ने शादी नहीं की. जब भी कोई लड़की पास आती, उसे शालू की याद आ जाती. वह अब तक शालू की यादों के सहारे ही जिंदा है.

‘लेकिन, हितेश तुम ने ये कैसे मान लिया कि मैं ने शादी कर ली. क्या तुम्हें मेरे प्यार पर बस इतना ही भरोसा था? पापा ने मना किया था तुम से शादी के लिए मैं ने नहीं,’ शालू बोली.

‘मुझे पापा की बात का बुरा नहीं लगा, बस मेरे पापा को कहा इसलिए यह बुरा लगा. मुझे कुछ भी कह देते. खैर, अब पिछली बातें छोड़ो. अब आगे क्या सोचा है.’

‘मैं क्या सोचूंगी, मेरी सोच तुम से शुरू और तुम पर खत्म होती है.’

शालू ये जान कर कि हितेश भी उसी की तरह उसी के इंतजार में पलकें बिछाए बैठा है, इसलिए उस ने बिना एक पल गंवाए हितेश से कह दिया, ‘क्या तुम मुझे अपनी जिंदगी में शामिल करोगे?’

हितेश ने झुक कर उस का हाथ चूम लिया.

शालू ने महसूस किया कि आखिर आज उस ने अपना मुकाम पा ही लिया था, वह मुसकरा उठी. लग रहा था कि वर्षों बाद मन की कलियां फिर से खिलने को आतुर हैं. आज शालू जैसे आसमान में उड़ रही है. वह हितेश के आगोश में समाने को बेचैन है. बरसों से दिल के अरमानों को दबाए जी रही थी, पर आज उन अरमानों संग मधुशाला में बैठ माधुर्यपान कर के झूमना चाहती है. आज वह जीना चाहती है, मरना नहीं चाहती है. आज वह इस जहान को चीखचीख कर बताना चाहती है कि प्यार कभी मरता नहीं, प्यार सदा अमर रहता है दिलों में, सांसों में, लहू में.

हितेश ने शालू का हाथ पकड़ा और उसे अपने करीब ला कर अपनी मजबूत बाहों में भर लिया, इसी के साथ ही शालू उस के आगोश में हमेशा के लिए सो गई, कुछ ही पलों में हितेश भी खामोश हो गया.

एकसाथ दो दुख के दिनों की चिताएं जल रही हैं.

Love Story : उसके लिए – एक दिलफेंक आशिक की प्रेम कहानी

Love Story : वह मुंह फेर कर अपूर्वा के सामने खड़ा था. अपूर्वा लाइबे्ररी में सैल्फ से अपनी पसंद की किताबें छांट रही थी. पैरों की आवाज से वह जान गई थी कि प्रणव है. तिरछी नजर से देख कर भी अपूर्वा ने अनदेखा किया. सपने में यह न सोचा था कि दिलफेंक आशिक किसी दिन इस तरह से आ सकता है. दोनों का यह प्यार परवान तो नहीं चढ़ा, पर दिलफेंकों के लिए जलन का सबब रहा. प्रणव तो अपूर्वा की सीरत और अदाओं पर ही क्या काबिलीयत पर भी फिदा था. रिसर्च पूरी होने तक पहुंचतेपहुंचते एक अपूर्वा ही उस के मन चढ़ी. मन चढ़ने के प्रस्ताव को उस के साथ 2 साल गुजारते भी उगल न सका.

अपूर्वा प्रणव की अच्छी सोच की अपनी सहेलियों के सामने कई बार तारीफ कर चुकी थी. मनचले और मसखरे भी प्रणव को छेड़ते, ‘अपूर्वा तो बनी ही आप के लिए है.’ कुछ मनचले ऐसा कहते, ‘यह किसी और की हो भी कैसे सकती है? यह ‘बुक’ है, तो सिर्फ आप के वास्ते.  कुछ कहते, ‘इसे तो कोई दिल वाला ही प्यार कर सकता है.’

अपूर्वा के सामने आने का फैसला भी प्रणव का एकदम निजी फैसला था. यह सब उस ने अपूर्वा के दिल की टोह लेने के लिए किया था कि वह उसे इस रूप में भी पसंद कर सकती है या नहीं. प्रणव ने बदन पर सफेद कपड़ा पहन रखा था और टांगों पर धोतीनुमा पटका बांधा था. पैरों में एक जोड़ी कपड़े के बूट थे. माथे पर टीका नहीं था. अपूर्वा रोज की तरह लाइब्रेरी में किताबें तलाशने में मगन थी. प्रणव दबे पैर उस के बहुत करीब पहुंचा और धीमे से बोला, ‘‘मिस अपूर्वा, मुझे पहचाना क्या?’’

अपूर्वा थोड़ा तुनकते हुए बोली, ‘‘पहचाना क्यों नहीं…’’ फिर वह मन ही मन बुदबुदाई, ‘इस रूप में जो हो.’

प्रणव ने कनैक्शन की गांठ चढ़ाने के मकसद से फिर पूछा, ‘‘मिस अपूर्वा, मैं ने आप के पिताजी को अपनी कुछ कहानियों की किताबें आप के हाथ भिजवाई थीं. क्या आप ने उन्हें दे दी थीं?’’

‘‘जी हां, दे दी थीं,’’ वह बोली.

‘‘आप के पिताजी ने क्या उन्हें पढ़ा भी था?’’

‘‘जी हां, उन्होंने पढ़ी थीं,’’ अपूर्वा ने छोटा सा जवाब दिया.

‘‘तो क्या आप ने भी उन्हें पढ़ा था?’’

‘‘हां, मैं ने भी वे पढ़ी हैं,’’ किताबें पलटते व छांटते हुए अपूर्वा ने जवाब दिया और एक नजर अपने साथ खड़ी सहेली पर दौड़ाई.

सहेली टीना ने बड़ी मुश्किल से अपनेआप को यह कहते हुए रोका, ‘‘रसिक राज, उन्हें तो मैं ने भी चटकारे लेते गटक लिया था. लिखते तो आप अच्छा हो, यह मानना पड़ेगा. किसी लड़की को सस्ते में पटाने में तो आप माहिर हो. चौतरफा जकड़ रखी है मेरी सहेली अपूर्वा को आप ने अपने प्रेमपाश में.’’ प्रणव ने फिर हिम्मत जुटा कर पूछा, ‘‘मिस अपूर्वा, क्या मैं उन किताबों की कहानियों में औरत पात्रों के मनोविज्ञान पर आप की राय ले सकता हूं? क्या मुझे आज थोड़ा वक्त दे सकती हैं?’’ अपूर्वा इस बार जलेकटे अंदाज में बोली, ‘‘आज तो मेरे पास बिलकुल भी समय नहीं है. हां, कल आप से इस मुद्दे पर बात कर सकती हूं.’’

प्रणव टका सा जवाब पा कर उन्हीं पैरों लाइब्रेरी से बाहर आ गया. अगले कल का बिना इंतजार किए लंबा समय गुजर गया, साल गुजर गए. इस बीच बहुतकुछ बदला. अपूर्वा ने शादी रचा ली. सुनने में आया कि कोई एमबीबीएस डाक्टर था. खुद प्रोफैसर हो गई थी. बस… प्रणव ने सिर्फ शादी न की, बाकी बहुतकुछ किया. नौकरीचाकरी 3-4 साल. संतों का समागम बेहिसाब, महंताई पौने 4 साल.

65 साल का होने पर लकवे ने दायां हिस्सा मार दिया. लिखना भी छूट गया. नहीं छूटा तो अपूर्वा का खयाल. लंगड़ातेलंगड़ाते भाई से टेर छेड़ता है अनेक बार. कहता है, ‘‘भाई साहब, वह थी ही अपूर्वा. जैसा काम, वैसा गुण. पढ़नेलिखने में अव्वल. गायन में निपुण, खेलकूद में अव्वल, एनसीसी की बैस्ट कैडेट, खूबसूरत. सब उस के दीवाने थे. ‘‘वह सच में प्रेम करने के काबिल थी. वह मुझ से 9 साल छोटी थी. मैं तो था अनाड़ी, फिर भी उस ने मुझे पसंद किया.’’

प्रणव का मन आज बदली हुई पोशाक में भी अपूर्वा के लिए तड़प रहा है. भटक रहा है. उसे लगता है कि अपूर्वा आज भी लाइब्रेरी की सैल्फ से किताबें तलाश रही है, छांट रही है. एनसीसी की परेड से लौट रही है. वह उसे चाय पिलाने के लिए कैंटीन में ले आया है. पहली बार पीले फूलदार सूट में देखी थी अपने छोटे भाई के साथ. रिसैप्शन पार्टी में उस ने सुरीला गीत गया था. श्रोता भौंचक्क थे.

प्रणव ने कविता का पाठ किया था. इस के बाद पहली नजर में जो होता है, वह हुआ. कविताकहानियों की पोथियां तो आईं, पर रिसर्च पूरी नहीं हुई. वह अभी भी जारी है. 40-45 सालों के बाद भी ये सारे सीन कल की बात लगते हैं. बारबार दिलोदिमाग पर घूमते हैं. वह कल आज में नहीं बदल सकता, प्रणव यह बात अच्छी तरह जानता है. वह आज सिर्फ अपूर्वा की खैर मांगता है. उस की याद में किस्सेकहानियां गढ़ता है. उस की खुशहाली के गीत रचता है.

Hindi Kahani : उस दिन की बात है – ज्ञानेंद्र जी अंधेरे कोने में क्यों खड़े थे?

Hindi Kahani : चाय पर असली चर्चा तो इसी घर में होती है. अखबार का पहला पन्ना तो शायद ही पढ़ा जाता हो लेकिन तीसरे पन्ने का हर पात्र उस घर का पात्र बन जाता है. चाय का तीसरा घूंट अभी अंदर नहीं गया था और मंजुला यानी श्रीमती समझदार के मुंह से चच्च की ध्वनि निकलने लगी, ‘‘अरे यह भी कोई बात हुई, कोई बचाने नहीं आया, कैसेकैसे लोग हैं.’’

‘‘क्या हो गया, कौन बचाने नहीं आया?” उत्सुकता दिखाना मजबूरी है ज्ञानेंद्र यानी श्रीमान महान की.

‘‘अरे, शंकरगढ़ में लडक़ी को सरेआम गुंडा चाकू मार रहा था और लोग चुपचाप देख रहे थे.’’

‘‘हां, आजकल कोई किसी के मामले में नहीं बोलता. वैसे भी, कोई चाकू मार रहा है तो आदमी डरता है, पता चला झगड़ा छुड़ाने गए और उलटा फंस गए,’’ इतना बोल कर ज्ञानेंद्र फंस गए.

‘‘हां, आदमी डरता है, तुम्हारे जैसा आदमी डरता है. जब हम लोग बाजार गए थे, लडक़े लड़ाई कर रहे थे तब भी तुम ने कुछ नहीं किया. तुम्हारे जैसे लोग ही डरते हैं.’’

‘‘यार, कब की बात कर रही हो.’’

‘‘क्यों, अब याद भी नहीं. मुश्किल से 15 दिनों पहले की ही बात है. मैं ने बोला भी कि जा कर छुड़ाओ.’’

‘‘अरे यार, इतने दिनों की बात ले कर बैठी हो. वैसे तो तुम भी मत पड़ा करो इन चक्करों में, आजकल कोई भरोसा नहीं. पता चला आप छुड़ाने चले हैं और लेने के देने पड़ जाएं.’’

यह हिदायत कलह में बदल गई. दरअसल, कुछ दिनों पहले बाजार में बाइक छू जाने पर 2 लडक़ों में लड़ाई हो गई थी. दूसरे वाले ने अपने दोस्त बुला लिए. लोगबाग छुड़ा रहे थे. लेकिन लड़ाई इतनी जमी नहीं थी कि इस दुकान को छोड़ कर वहां जाना पड़े. उस लड़ाई को देख कर लौट रहे लोगों ने ही मुंह बना कर किस्सा बता दिया था. लेकिन मंजुला बोले जा रही थी.

‘‘खुद भी डरपोक बने रहो और दूसरों को भी वैसे ही बना दो, तुम्हारे जैसे ही लोग थे जो उस दिन वहां खड़े रहे और चुपचाप देखते रहे.’’

मंजुला थोड़ी वीरबाला मिजाज की थीं. जान नहीं थी लेकिन लड़ाईझगड़ा छुड़ाने में हमेशा आगे रहती थीं और उन की दिली ख्वाहिश थी कि उन के पति इस के चैंपियन बन जाएं. लेकिन ज्ञानेंद्र को अपनी हड्डीपसली पर तरस आता. वैसे भी, मंजुला के झगड़ों का भी निबटारा उन्हें करना पड़ता था. लेकिन मजाल क्या कि मंजुला हथियार डाल दें. मंजुला के पास पूरी लिस्ट थी- कबकब, किसकिस मौके पर ज्ञानेंद्र डर के मारे चुप रहे. बहस शुरू हुई नहीं कि कितने गड़े मुर्दे उखड़ जाते. वक्त के साथ हर मुरदा डरावना हो जाता था. और फिर तो श्रीमान महान और श्रीमती समझदार की दुनिया खबर से बहस पर और बहस से तूतूमैंमैं पर उतर आती.

श्रीमान महान हार कर दुनियावी सुकून के लिए हर बात पर हामी भर देते. नतीजतन, होता यह कि दुनिया के हर पुरुष द्वारा किए गए अपराध के बदले उसे थोड़ीबहुत सजा मिल ही जाती. वे भी दिल के हाथों मजबूर थे. आखिरकार पुरुष होने की कुछ न कुछ तो सजा बनती ही थी. मंजुला जी उन के उतरे बीपी को चढ़ा देती थीं और उन के बढ़े बीपी को उतार देती हैं.

मजे की बात, बहुत ही गरममिजाज मंजुला को ब्लडप्रैशर लो रहता था और बहुत ही शांतमिजाज ज्ञानेंद्र का ब्लडप्रैशर हाई रहता था. जिंदगी की डोज वो एकदूसरे को ऐसे ही देते थे. पिछले 18 बरसों से चाहे अच्छा लगे या बुरा, अखबार का वह पन्ना एक दिन भी उन से नहीं छूटता था. दुनिया की सभी खबरें उन के लिए उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं थीं जितनी उन के आसपास घटी कोई घटना. श्रीमान महान कितनी भी कोशिश कर लें कि बातचीत को माइक्रो लैवल से मैक्रो लैवल तक ले आएं लेकिन यहां दुनिया विस्तृत से सूक्ष्म तक आती थी और सूक्ष्म तक आतेआते उन तक आ जाती थी. फिर क्या वह सुपरबग मिल जाता जिस के इलाज करने से जहान की बीमारियां व तकलीफें दूर हो सकती थीं. जैसे कि अगर वे चाह लें तो जगत समस्या का समाधान हो जाए.

ज्ञानेंद्र जी अकेले में कभीकभी सोचते थे कि भला हो कि मैडम कोई महान वैज्ञानिक नहीं हुईं वरना लाल रंग का कच्छा पहना के महाशय को हवा में फेंक देतीं और बड़े ही शहीदाना अंदाज में कहतीं- जाओ, दुनिया की मुसीबतें हल करो. लेकिन इस में भी वे रिमोट कंट्रोल अपने हाथ में रखतीं ठीक वैसे ही जैसे हौलीवुड की फिल्म का वैज्ञानिक रखता है.

कितनी कम उम्र में वह लडक़ा चला गया. बामुश्किल सत्रहअट्ठारह साल का रहा होगा. पता नहीं उस के परिवार पर क्या बीत रही होगी. आदमी इतनी मुश्किल से बच्चा पालता है. अखबार में एक नौजवान लडक़े की एक ऐक्सिडैंट में मौत हो जाने की खबर छपी थी.

“हां, आजकल लडक़े तेज बाइक चलाते हैं.”

“मांबाप भी तो दिला देते हैं,” मंजुला ने थोड़ा उदास हो कर कहा.

“मांबाप भी क्या करें, कभीकभी बच्चे इतनी जिद करने लग जाते हैं कि उन को दिलाना ही पड़ता है. हाईस्कूल के बाद तो मैं भी स्कूटर चलाता था.” बस, ज्ञानेंद्र  की इसी बात में पेंच था.

“तुम्हारे जैसे लोग ही ऐसा करते हैं. जैसे तुम चलाते थे वैसे ही बच्चों के लिए भी सोचते हो. तुम्हारे जैसे लोग ही अपने बच्चों को बाइकस्कूटर दिलाते हैं,” मंजुला का पारा चढ़ रहा था.

“अरे, इस में क्या खराबी है, स्कूटर से अपनी मां को बाजार तक छोडऩे जाता था.” चूंकि ज्ञानेंद्र जी का ध्यान कहीं और था, इसलिए गलती से यह जवाब दे दिया.

“यही असली बात है. तुम्हारे अंदर कम उम्र के लडक़ों के गाड़ी चलाने को ले कर चिढ़ नहीं है. उलटा, तुम ग्लोरिफाई कर रहे हो. ऐसे ही लोग बाद में रोते हैं. वैसे, बाद में रोने से कुछ भी हासिल नहीं होता,” मंजुला जी का धैर्य अब समाप्त हो चुका था. उन्होंने साथ में धमकी भी दे डाली, “याद रखना अपना यह सोचना अपने पास रखना. बच्चे के आगे कभी मत कहना कि मैं 10वीं में स्कूटर चलाता था. गलती से मेरे बच्चे को यह पता न चले. वैसे भी, 2दो महीने बाद वह 9वीं में आ जाएगा.”

“अरे, इस से क्या होगा. इतना मत घबराया करो. आजकल तो बच्चे स्मार्ट हैं.”

“क्या होगा?” मंजुला की आंख भर आई थी, “पढ़ो यह मैसेज: ‘रोहित, आज तुम को गए हुए 10 साल हो गए. तुम हमें रोज उतना ही याद आते हो.’

जानते हो इस लडक़े की मौत सडक़ दुर्घटना में हुई थी. आज अगर यह परिवार बाइक न देता तो उसे यों रोना न पड़ता.

“अरे, जीनामरना किसी के हाथ में है क्या. वैसे भी तुम्हें क्या पता कि वह बाइक चला रहा था या नहीं. साइकिल को भी तो कोई गाड़ी टक्कर मार देती है.”

बस, अब तो सुबह की चाय ही आखिरी चाय होगी यहां. फिर क्या लड़ाइयों की संख्या पानीपत का युद्ध जितनी बार लड़ा गया उस से भी ज्यादा एकदिन में होनी तय हो गई. 10 वर्षों पहले सडक़ दुर्घटना में दुनिया छोड़ गए रोहित का शोकसंदेश किसी के घर में इतना शोक भर देगा, इतना तो रोहित के लिए विज्ञापन देते समय उस के परिवार के लोगों ने भी न सोचा होगा. सारे तीर, खंजर, तलवार वहां उपस्थित हो गए. खानदान की बखिया उधडऩे लगी.

2 दिनों बाद मामला सुलझा था जब ज्ञानेंद्र जी खुद और अपने बेटे से भी कबूलवाया कि 18 साल की उम्र होने से पहले घर में बाइक की बात नहीं होगी.

लेकिन आज तो कुछ अलग ही माहौल था. खबर थी कि एक लडक़ी शराब के नशे में धुत थी. उसे ले कर एक लडक़ा अपने घर गया क्योंकि लडक़ी का घर दूर था और उस ने कहा कि ऐसी हालत में वह अपने घर नहीं जाना चाहती. सुबह घर वाले जब ढूंढ़़ते हुए आए तो उस ने कह दिया कि लडक़ा उसे जबरदस्ती ले कर आया है. लडक़ी ने यह भी कहा कि लडक़े ने उस के साथ जबरदस्ती संबंध बनाए हैं. घरवालों ने पुलिस बुला ली और लडक़ा जेल में डाल दिया गया. चूकि बात पड़ोस की थी, इसलिए अखबार की गरमी से भी ज्यादा गरम हो कर उन के घर तक आ गई थी.

मंजुला का पारा चढ़ा हुआ था, “तुम्हारी दोस्ती लड़कियों से बहुत है. देख लो, क्या हुआ.”

ज्ञानेंद्र जी को कुछ समझ न आया.

“अरे, मतलब यह है कि तुम उन के साथ पीनेपिलाने का सिस्टम मत रखना.”

“अरे, मैं कौन सा पीता पिलाता हूं.” यहां तक तो जवाब ठीक था लेकिन लंबा जवाब ज्ञानेंद्र जी पर भारी पडऩे वाला था. उन्होंने अपनी महानता का प्रदर्शन करते हुए कहा, “वैसे भी, हर लडक़ी वैसी नहीं होती.”

अब तो बहस ने जोर पकड़ लिया. सारे गड़े मुरदे फिर एक बार आ खड़े हो गए. हर बात इतनी ताजी कि अब जैसे अभीअभी बीती हो. एक सैकंड का चित्रात्मक वर्णन होने लगा.

ज्ञानेंद्र जी भी थोड़ा नाराज से हो गए थे. उन्होंने कहा, “यह बात तो तुम्हारे ऊपर भी लागू होती है. अपने बारे में सोचो.”

“मैं अपने बारे में क्या सोचूं, मैं तुम्हारी तरह नहीं हूं. मुझे आदमी की परख है. हर बार मेरी बात सही निकली है.”

“जा कर भविष्यवाणी की दुकान क्यों नहीं खोल लेती हो, खूब चलेगी,” ज्ञानेंद्र जी ने तल्खी से कहा.

“हां, भविष्वाणी ही कर रही हूं. अगर तुम नहीं संभले तो तुम्हारा भी हश्र वही होगा जो उस लडक़े का हुआ,” फिर कुछ सोचसमझ कर उन को समझाने लगीं, “अरे, कभी ऐसा हो, मान लो, कोई सडक़ पर मिल जाए.

“हां, सडक़ पर लड़कियां पी कर लडख़ड़ाते मिल ही जाती हैं, तुम को जरूर मिलती होंगी,” ज्ञानेंद्र जी आज सुनने को तैयार नहीं थे.

“अरे, मान लो मिल जाए, तो कभी यह मत करना कि छोडऩे चले जाओ. अरे, पुलिस को फोन करो तुरंत. लेकिन तुम्हारे जैसे आदमी बहादुर बनने लगते हैं. वैसे भी, आदमी को क्या चाहिए, मदद करने का बहाना. लेकिन गलती न करना. अब अलग तरह की दुनिया है. पता चला कि तुम मदद करने चले हो और लडक़ी कुछ का कुछ बता दे. वैसे भी, पीनापिलाना कोई अच्छी बात नहीं है.”

“अरे, तुम तो ऐसे बात कर रही हो जैसे कोई मैं महफिल सजा कर बैठता हूं. प्लीज, बेवकूफों की तरह बात न करो.”

“तुम मेरा मुंह मत खुलवाओ. क्या तुम ने अमिता के साथ एक बार ड्रिंक नहीं किया था,” मंजुला ने 5 वर्षों पहले वाली बात पिटारे से निकाली.

“अरे, यह क्या बात हुई. हम लोग इतने पागल नहीं हैं. वैसे भी, वह बहुत मैच्योर है और एक पैग से कुछ नहीं होता.”

यह वाली बात तो आग में घी बन गई. मंजुला जी को वैसे भी औफिस ट्रिप का यह किस्सा शुरू से नापसंद रहा था. आज तो खैर नहीं.

“तुम्हारे जैसे एक पैग और दो पैग की थ्योरी वाले लोग ही मुसीबत की जड़ हैं.”

“अरे, तुम दवा खा कर अपना इलाज करती हो, मैं दारू, क्या दिक्कत है? श्रीमान महान ने मजाक का एक गुब्बारा फेंका, सोचा कि मंजुला बच्ची कि तरह है, थाम कर खुश हो जाएगी.

“मैं ने पहले ही कह दिया कि बेवजह मजाक मत किया करो. तुम्हारे जैसे आदमी ही फंसते हैं. तुम को सैंस नहीं कि किस के साथ बैठो किस के साथ नहीं.”

अब आगे का किस्सा यहीं समाप्त होता है. नहीं आगे कुछ हुआ है सुनिए.

ज्ञानेंद्र जी डर के मारे कुछ नहीं बोले. जी में रोज आ रहा था कि वे पूछें- वैसे. वह पी कर कर बहकने वाली औरत किस जगह पर मिलेगी. देख तो आऊं, पक्का पुलिस को फोन करूंगा, घर ले कर नहीं आऊंगा, न ही छोडऩे जाऊंगा. लेकिन, कभी मंजुला से जिक्र करने की हिम्मत नहीं पड़ी.

शनिवार की बात थी, ज्ञानेंद्र जी ने पक्का इरादा कर लिया था. बार के बाहर अंधेरे वाली जगह पर जा कर खड़े हो गए. दिल भीतर से घबरा रहा था लेकिन बहुत ही रोमांचित महसूस कर रहे थे. लग रहा था कि अभी कोई सुंदरी सुरापान से लडख़ड़ाते हुए निकलेगी और वे उसे बांहों में थाम लेंगे. लेकिन इतना साहस नहीं था कि रैस्तरां कम बार के बाहर खड़े हो जाएं. वे थोड़ा दूर नाली के पास अंधेरे वाले कोने में आ कर खड़े हो गए. उसी समय जादू हुआ, उन का ध्यान नाली के पास उलटी करती एक महिला पर गया.

लग रहा है कि महिला को सुरा हजम नहीं हुई, ज्ञानेंद्र जी यह सोच कर बहुत प्रसन्न हुए. महिला के घुंघराले बाल पीठ पर फैले थे और झुकने के कारण जंपर थोड़ी ऊपर उठ गई थी. कमर का हिस्सा दिख रहा था. उस जगह पर अंधेरा इतना था कि ठीक से पहचाना नहीं जा रहा था. ज्ञानेंद्र जी को थोड़ी राहत भी लग रही थी कि अच्छा है कोई औफिस का आदमी नहीं देख पाएगा.

वे नजदीक जा कर बोले, ‘आप की तबीयत ठीक नहीं लग रही. कोई मदद चाहिए.’ तब तक वह महिला पानी की बोतल निकाल कर अपना मुंह धो रही थी, वह पलटी नहीं. ‘अगर आप को ठीक लगे तो घर छोड़ सकता हूं आप को.’ आज भी ज्ञानेंद्र जी को जब वह मनहूस वाक्य याद आता है तो सारे ग्रहनक्षत्रों को कोसने लगते हैं वे.

महिला ने पर्स गोदी में से उठाया और अपने बाल समेटे व पलट कर बोली, “कैब बुक कर दिया, ज्ञानेंद्र जी?” श्रीमती मंजुला अपने पति की आंखों का एक्सरे करते हुए बोलीं. मजे की बात यह रही कि अगले दिन के अखबार में इस घटना का जिक्र नहीं था.

Emotional Story : लापता – आखिर पापा कहां गए थे ?

Emotional Story : जी हां, आप ने सही पहचाना. वह मेरे पापा ही हैं. त्रिलोकी नाथ चैहान. है न भारीभरकम नाम. बहुत कडक आदमी हैं जनाब. अपने समय के कलंदर.

एक वाक्य बोल कर सब को चुप करवा देते थे. डोंट ट्राई टू बी ओवरस्मार्ट. मैं तो क्या हर आदमी, जो उन से वास्ता रखता था, उन से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता था. एनसाइक्लोपीडिया तो फिर एक छोटा शब्द है उन के सामने. कोई कहता कि वह अपनेआप में एक बहुत बड़ी संस्था थे.

हर चीज में उन का दखल काबिलेगौर था- संगीत, कविता, धर्म, विज्ञान, इतिहास या राजनीति. आप बात कर के देखते उस समय. उन के सामने बहुत छोटा महसूस करते थे हम. उन का हर वाक्य एक कमांड होता था और हरेक शब्द एक संदेश. कभी अपनी पीठ नहीं लगने दी उन्होंने.

उन का सब से बड़ा प्लस प्वाइंट यह था कि बहुत बेदाग चरित्र के मालिक थे वे. साफसुथरी छवि के मालिक. कभी कोई अनर्गल बात नहीं करते थे. जो बात आज उन्होंने कही, 10 साल बाद भी वही हूबहू हजारों लोगों के नाम मानो तोते की तरह रटे हुए थे.

अब कहां हैं…?

जी हां, जिंदा हैं अभी.

जिंदा भी ऐसे मानो मांस का लोथड़ा हों. दिन में पता नहीं कितनी बार हिंसक हो उठते हैं. घर के एक कमरे में कैद कर के रखना पड़ता है उन्हें. ताला लगा कर.

डिमेंशिया नाम का रोग सुना होगा आप ने. इस में स्मरण शक्ति खत्म हो जाती है. रोजाना की आम गतिविधियां नहीं कर सकता वह आदमी. बातचीत में ठहराव नहीं रहता, कोई फोकस नहीं. बच्चों से भी गयागुजरा हो जाता है. बच्चा तो फिर भी हर रोज एक नई बात सीखता है, मगर पापा जैसा आदमी लगातार भूलता जाता है. आसपास, अपनेआप को. अपने शरीर के अंगों से नियंत्रण घटता जाता है उन का.

कई रूप हैं इस बीमारी के. मैं तो ठीक से बता भी नहीं पाऊंगा. अल्जाइमर रोग है या कुछ और.

मगर जो भी है, आदमी आलूगोभी की तरह हो जाता है. सामने है, मगर उस का वजूद न के बराबर. अपनेआप में गुम हो गया लगता है. खो गया लगता है.

लापता हो जैसे.

हम लोग पापा को कई अस्पतालों में ले गए. शुरूशुरू में पापा का कुछ और ही रूप था. तब शुरुआत थी शायद.

डाक्टर पूछता कि क्या नाम है?

पापा चैकन्ने हो कर जवाब देते, ‘त्रिलोकीनाथ चैहान.’

डाक्टर सहम जाता, ‘अरे, आप हैं सर. बहुत नाम सुना है आप का. आप को कौन नहीं जानता. आप ने तो बहुत बड़ेबड़े काम किए हैं, जो कोई दूसरा नहीं कर सकता.’

पापा मुसकराते, अजीब सी दंभभरी मुसकराहट. चेहरे पर अहंकार भरे भाव आ जाते उन के.

शुरू के सालों में पापा अपनी यह बीमारी मिलने वालों पर जाहिर नहीं होने देते थे. घर में कोई भी आता, उस से मिल कर खुश हो जाते. भले ही पहचानते नहीं थे, मगर आने वाले के पास बैठते. बेशक, कुछ न पूछते, मगर ऐसा भी नहीं कि कोई रुचि न लेते हों. कहते, ‘खाना खाया, कब आए हो?’

दोचार बातों तक ही सिमट कर रह गया था उन का सारा अस्तित्व.

फिर धीरेधीरे वे अपने कमरे में ही रहने लगे.

सब से बुरी बात तब हुई, जब वह आईने में अपनी ही सूरत भूल जाते. खुद को कोई अन्य समझ कर अपने अक्स से बात करने लगते.

फिर आसपास से बेखबर होने लगे. सुबह को शाम समझने लगे. दिन, तारीख तो अब क्या याद रखनी थी उन्होंने. कुछ बातों की जिद पकड़ लेते. कभी अपने घर की बालकनी में हम पापा को बिठाते तो कुछ देर बाद वह अपने कमरे या बाथरूम का ठिकाना भूल जाते.

खाने को ले कर बहुत लोचा होने लगा. उन्हें कभी तो बहुत भूख लगती, तो किसी दिन उन्हें चाय के साथ बिसकुट खिलाना भी मुसीबत हो जाता हम लोगों के लिए.

कभी अपने स्वर्गीय पिताजी को याद करने लगते. कहते, ‘मुझे उन के पास छोड़ आओ.’ मम्मी समझातीं, ‘आप 90 के हैं, तो आप के पिता तो कब के स्र्वग सिधार गए होंगे.’

वे हैरान हो कर पूछते, ‘अच्छा… कब मरे? मुझे बताया क्यों नहीं?’

उन की आंखों में आंसू छलकने लगते.

पापा की स्मरण शक्ति बहुत तेजी से घटती जा रही थी. अब मुझे पहचानते थे या मेरी मम्मी को. मम्मी उन से 10 साल छोटी थीं. सेहत तो उन की भी अच्छी नहीं थी.

बहुत क्षुद्र जीव है यह आदमी. ज्यादा देर तक शासन नहीं चला सकता. दूसरों पर ठीक है. दूसरों को 40-50 बरस काबू कर लेगा, मगर खुद अपने शरीर से नियंत्रण हट जाए तो बहुत मुसीबत आ जाती है. खुद के साथ समीकरण बिगड़ जाए तो साथ वालों की जिंदगी हराम हो जाती है.
आप का कहना अपनी जगह सही है. सब के साथ नहीं होता ऐसा.

इंगलैंड की रानी 90 के आसपास है. खूब कर रही है राज. अजी, क्या पावर है उस के पास. औपचारिक रूप से बस सोने की मुहर ही है. हां, बस इतनी सी पावर हो तो आदमी का दिमाग खराब नहीं होता.

पापा से मनोचिकित्सक उन के आसपास बैठे लोगों के बारे में पूछता, ‘ये कौन हैं?’

पापा तिरस्कार के भाव से कहते, ‘ये मेरा नालायक बेटा है. कुछ नहीं हो सका इस से. नैशनल डिफैंस एकेडेमी से भाग आया. अब अपना बिजनैस चैपट कर के बैठा है.’

मुझ से बहुत उम्मीदें थीं पापा की. खुद तो बहुत बड़े महत्वाकांक्षी थे ही. मुझे ले कर कुछ ज्यादा ही पजेसिव थे. मुझे अपने से भी ऊपर देखना चाहते थे.

जब मैं आर्मी अफसर के प्रशिक्षण केंद्र से भाग आया और इधरउधर हाथपांव मार रहा था, तब पापा मुझे उलाहने देते. बारबार कहते, ‘मैं खाली हाथ आया था दिल्ली. बाप की 5 रुपए महीने की पैंशन थी. खाने वाले 10 थे. अब तुम्हारे लिए चंडीगढ़ में 2 कनाल की कोठी बनवाई है मैं ने. 10 एकड़ का फार्महाउस है. घर में 4 कारें खड़ी हैं. साले, तुम ने क्या किया? मेरा नाम को बट्टा लगा दिया.’

मेरी हर चीज से शिकायत थी पापा को. मैं उन की किसी उम्मीद पर खरा नहीं उतरा.

मैं क्या बनना चाहता था? अरे साहब, जब से होश संभाला है, मुझ से किसी ने पूछा ही नहीं. बस हुक्म दे दिया जाता कि ये कर लो, वो कर लो.
पूरे इलाके में पापा का इतना ज्यादा रौब था, रसूख था. एक से एक बढ़िया स्कूल में मुझे दाखिला मिल जाता. कालेज में आराम से एडमिशन मिल जाता. टीचर मुझ से खौफ खाते कि कहीं मेरे पापा उन के खिलाफ किसी को टैलीफोन न कर दें.

एक वक्त था, शहर ही बहुत बड़ी ताकत का पर्याय थे वह, बहुत बड़ी हस्ती थे पापा. वे इतने ज्यादा पढ़ते नहीं थे. बस दिमाग बहुत बड़ा था. पता नहीं, सबकुछ कैसे समा जाता था. सुबह अखबार पढ़ते थे. याददाश्त बहुत गजब की थी. सामने वाले को तर्क देने लायक नहीं छोड़ते थे.

बहुत सारी महत्वपूर्ण घटनाएं थीं उन के जीवन की. फौज से सीधे अफसर बन कर गए थे. आजादी के तुरंत बाद पुलिस के बड़े अफसर आर्मी से लिए गए. पापा की टौप के लोगों में गिनती होने लगी. काम के माहिर थे और राजनीति से दूर. नेताओं ने खूब फायदा उठाया पापा का. पापा को अच्छे प्रभार मिलते. जहांजहां दंगा या अलगाववादी उपद्रव होते, पापा ने हीरो की तरह काम किया.

मैं क्याक्या बताऊंगा. आप गूगल से पूछ लेना. वह बतातेबताते थकेगा नहीं, मगर आप सुनतेसुनते बोर हो जाएंगे.

हम परिवार वाले बुरी तरह पक गए थे पापा की इस मशहूरी से. उस का हमारी नार्मल लाइफ पर बहुत बुरा असर पड़ा.

मां की जबान चली गई.

जी नहीं, गूंगी नहीं र्हुइं. पापा के सामने बौनी होती गईं. विरोध नहीं कर पाती थीं वे. पापा ने जो कह दिया वह पत्थर की लकीर.

मैं खुद कहांकहां नहीं धकेला गया. मैं था कि हर जगह नाकाम करार दे दिया जाता. क्योंकि मैं वह सब नहीं करना चाहता था.

क्या करना चाहता था?

टजी, सोचने का मौका ही कब मिला मुझे. पापा ही हावी रहे मेरी सोच पर.

रिटायरमैंट भी बहुत लंबी थी पापा की. 80 साल की उम्र तक तो वे बहुत ही सक्रिय रहे. कई तरह के असाइनमैंट मिलते रहे पापा को. विदेशों में भी जाते रहते. हर समय उन का सूटकेस तैयार रहता.

बस एक ही बात बताई जाती हमें कि दिल्ली जा रहे हैं.

हमारी सांस में सांस आती कि कुछ दिन आराम से कटेंगे.

समय बदला, लोग बदले, सरकारें बदलीं, पापा का स्थान दूसरे लोगों ने ले लिया. पापा की उपयोगिता कम होती जा रही थी. अब ईमानदारी की कोई कीमत नहीं रह गई थी. पापा अनवांटेड हो गए. समय सापेक्ष नहीं रहे. बूढ़े भी हो गए.

जब पापा की उम्र 85 से 90 के बीच थी, तब पापा रुतबे से घटते गए. चिड़चिड़े से हो गए थे वे. मैं 60 का हो गया था.

क्या करता हूं?

छोटेमोटे धंधे करता हूं. पापा ने इतना कुछ जमा कर लिया, उसे संभालता हूं.

लोगों ने पापा से मिलना छोड़ दिया. पापा अपने कमरे में अकेले होते गए.

कभीकभार कुछ लिखते. वह दिखाऊंगा आप को. मेरे तो कुछ पल्ले नहीं पड़ा. देश की राजनीति पर कुछ निबंध वगैरह हैं.

जी हां, पापा का लिखा दिखाया था प्रकाशकों को. वे कहते हैं कि बिकेगा नहीं. अगर 20 साल पहले लिखा होता तो शायद कुछ करते.

इनसान की यही लिमिटेशन है. समय पर खरीदा माल समय पर ही बेच देना चाहिए. बाद में कोई कीमत नहीं मिलती.

पापा को अब घर में बांध कर रखना भी अपनेआप में फुलटाइम काम होता जा रहा था. किसी को कुछ नहीं समझते थे वे. किसी का कहना नहीं मानते थे. मम्मी को समझते थे कि घर की नौकरानी है.

मैं अब उन से खुल कर झगडने लगा था. शायद तभी मेरे काबू में आ जाते थे. अब मेरा डर खत्म हो गया था. पापा अब ऐसे बूढ़े शेर थे, जिस के दांत टूट चुके थे और गुर्राना भी वे भूल चुके थे.

अब एक नई मुसीबत का सामना करना पड़ रहा था हमें. पापा बिन बताए मौका पाते ही घर से निकल जाते.

एक बार नहीं, बारबार वे घर से निकल कर भागे. पहले तो यहीं अपने एरिया में ही गुम हो जाते. हम ढूंढ़ लाते या कोई जानपहचान वाला छोड़ जाता.

दाढ़ी बढ़ आई थी उन की. शक्ल बदल गई थी. शहर बदल गया था. दुकानदारों को तो पापा की बीमारी के बारे में पता था, मगर जानपहचान के पुराने लोग कम होते जा रहे थे. कुछ बच्चों के साथ चले गए. कुछ मरमरा गए.

ये ससुरा चंडीगढ़ है न. यहां सारे सैक्टर एकसमान लगते हैं. सैक्टर 35 की मार्केट और सैक्टर 36 की मार्केट में फर्क करना मुश्किल हो जाता है. चैक, मकान, मोड़ सब एकजैसे दिखते हैं.

अब पापा को काबू करना सच में मुश्किल हो गया था. जरा सा मौका मिलता, वह निकल भागते. दीवार फांद लेते.

सारी उम्र दिल्ली जाते रहते थे. अब भी हर वक्त एक ही रट लगाते, ‘मुझे दिल्ली ले चलो. वहां मेरे पिताजी हैं. उन की देखभाल कौन करता होगा.’ यह सब सुन मम्मी रोने लगतीं. पापा पर कोई असर नहीं होता था.

बाकी के सारे रिश्तेदार भूल गए थे उन्हें. सिर्फ मुझे नहीं भूले. हम उन के गले में या बाजू पर नाम, पता या मेरे मोबाइल का नंबर लिखा रिबन बांध देते, मगर वे उसे उखाड़ कर फैंक देते. कमीज के कौलर या बाजू के कफ के अंदर लिखा रहता पेन से. मगर किसी दूसरे को क्या पड़ी है. आजकल आदमी अपनेआप से बेखबर रहने लगा है. किसी दूसरे की तरफ तो देखता तक नहीं. पुलिस…? अरे साहब, उन का अपना पेट नहीं भरता. वह आम नागरिक की मदद क्यों करने लगी भला.

एक दिन वही हुआ, जिस का हमें हर वक्त डर सताता रहता था.

पापा लापता हो गए.

हर वक्त दिल्ली जाने की रट लगाते रहते थे. तो किसी ने दिल्ली की बस में बिठा दिया होगा.

अब दिल्ली तो एक समंदर है. हम लोग यहां अपने शहर अंबाला, पटियाला में ढूंढ़ते रहे. पुलिस स्टेशन, वृद्धाश्रम, बसस्टैंड, रेलवे स्टेशन, सराय सब जगह. 2 आदमी रखे पैसे दे कर. उन्हें हर रोज सब तरफ भेजते. लापता होने के पोस्टर भी लगवाए गए. अखबारों में कई दिन इश्तिहार दिया.

पापा सैक्टर 35 के स्टेट बैंक से अपनी पेंशन लेते थे. वहां पता किया. मम्मी के नाम पेंशन लगवाने की बात हुई, तो वे बोले कि किसी जगह से मृत्यु का प्रमाणपत्र लाओ या कुछ साल इंतजार करो. उस के बाद कचहरी से लापता हो कर मरा हुआ जान कर ऐसा प्रमाणपत्र मिल जाएगा.

साल बीता. कोई खबर नहीं मिली पापा की.

घर का बंदा गुम हो जाए, तो कितना तकलीफदेह हो जाता है रहनासहना.

हर रोज एक आस जगती है. फिर इस उम्र का आदमी घर से चला जाए तो सोच कर देखिए जनाब.

हम चुप हो कर बैठे थे. क्या कर सकते थे हम.

फिर एक दिन बैंक से ही मुझे फोन आया कि आप के पापा जिंदा हैं.

दिल्ली में सरकारी अस्पताल एम्स में भरती हैं.

आखिर दिल्ली जा कर ही दम लिया पापा ने.

वहां पता नहीं कहांकहां भटकते रहे होंगे. बीमार हुए तो किसी ने लावारिस समझ कर एम्स में भरती करवा दिया होगा. अंगरेजी बोलते थे तो किसी ने सोचा कि अच्छे घर के होंगे. अपना नाम तक याद नहीं था पापा को.

कैसे पता चला.

डाक्टर हर रोज उन से बात करते होंगे, तो एक दिन अचानक पापा ने बोला, ‘त्रिलोकीनाथ चैहान, स्टेट बैंक, सैक्टर 35, चंडीगढ़.’

वहां के लोगों ने यहां नंबर मिलाया और बैंक वालों ने मुझे सूचित किया.

मैं पापा को लेने के लिए निकला. मन में गुस्सा भी था और अपराधबोध भी कि हम उन की परवरिश ठीक से नहीं कर रहे हैं.

लावारिस की तरह जनरल वार्ड में पड़े मिले पापा. गंदे से कपड़ों में. बहुत शर्म आई. बहुत देर लगी यह बताने में कि मैं उन का बेटा हूं. बिलकुल पराए से लग रहे थे. आंखों में कोई भाव नहीं. कोई भी ले जाता उन्हें वहां से.

मुझे उन के खर्च की फीस भरने को कहा गया. मैं 2 लाख रुपए नकद ले कर गया था. काउंटर पर बैठे आदमी ने बताया, ‘एक हजार, दो सौ साठ रुपए.’

मेरा यकीन करना साहब.

बहुत पत्थर दिल इनसान हूं मैं, मगर पहली बार फूटफूट कर मेरे आंसू निकले. गला रुंध गया. वाह रे खुदा. ये मैं क्या देख रहा हूं. कितने दिनों से यह आदमी यहां फटेहाल पड़ा है. अब कहीं भागने की हिम्मत भी नहीं रही इस की.

मैं घर ले आया उन्हें. लाश जैसे थे वे. कार की सीट बेल्ट से बांध कर. बारबार लुढ़क जाते.

अब तो सब शांत है.

जिंदा हैं बस. मुझे भी बहुत बार नहीं पहचानते.

पता नहीं, किस बात का इंतजार है उन्हें. तरस आता है. जीवन की नियति यही होती है क्या? तमाम उम्र कितनी भागदौड़ करते हैं हम. चोरी, डाका, फरेब, झगड़े, और अंत में क्या शेष रहता है. एक शून्य, एक गुमशुदगी, एक लामकानी, खोई हुई अस्मिता. अपनेआप में कोई इतना लापता कैसे हो सकता है भला.

Hindi Story : ईंट का जवाब पत्थर से – चित्रा ने क्यों दिया नंदन को करारा जवाब ?

Hindi Story : चित्रा सोने की चिडि़या थी. मातापिता की एकलौती लाड़ली. उस के पिता लाखों रुपए कमाने वाले एक वकील थे. मां पूजापाठ के लिए मंदिरों के चक्कर लगाती रहती थीं. चित्रा पर किसी का कंट्रोल नहीं था. उस की मनमानी चलती थी. चित्रा कालेज में बीए के फर्स्ट ईयर में पढ़ रही थी. वह बहुत खूबसूरत थी. उस के एकएक अंग से जवानी फूटती थी. वह अपने जिस्म को ढकने के बजाय दिखाने में ज्यादा यकीन करती थी.

चित्रा का बैग रुपयों से भरा रहता था, इसलिए उस की सहेलियां गुड़ की मक्खी की तरह उस से चिपकी रहती थीं. लड़के उस की जवानी का मजा लेने के लिए पीछे पड़े रहते थे.

इसी बात का फायदा उठा कर चित्रा कालेज में ग्रुप लीडर बन गई. इस से वह और भी ज्यादा घमंडी हो गई.

चित्रा के कालेज में सैकंड ईयर में नंदन नाम का एक लड़का पढ़ता था. वह उस इलाके के सांसद का बेटा था. रोजाना नई कार से कालेज आना उस का शौक था.

सच तो यह था कि नंदन कालेज नाम के लिए आता था. लड़कियों को अपने इश्क के जाल में फंसा कर उन से मन बहलाना उस का शौक था. वह एक नंबर का जुआरी था. शराब पीना उस का रोजमर्रा का काम था.

एक दिन नंदन की नजर चित्रा पर पड़ी. दरअसल, उस ने कालेज के इलैक्शन में हिस्सा लिया था. चित्रा भी उन्हीं के ग्रुप में शामिल थी. दोनों ने खूब प्रचार किया. नंदन ने पानी की तरह पैसा बहाया और जीत गया.

इसी जीत की खुशी में नंदन ने अपने फार्महाउस में शानदार पार्टी दी थी. चित्रा और उस के दोस्त भी वहां पहुंच गए थे. रातभर शराब पार्टी चली. सब ने खूब मौजमस्ती की.

तभी से नंदन और चित्रा ने क्लबों में घूमना शुरू कर दिया. फिर वे दोनों नंदन के फार्महाउस में मिलने लगे और उन्होंने हमबिस्तरी भी की.

इसी तरह एक साल बीत गया. वे दोनों हवस के सागर में गोते लगाते रहे. अचानक ही चित्रा को एहसास हुआ कि पिछले 3 महीने से उसे माहवारी नहीं आई है. वह डाक्टर के पास गई. डाक्टर ने बताया कि वह 3 महीने के पेट से है.

यह सुन कर चित्रा मानो मस्ती के आसमान से नीचे गिर पड़ी.

चित्रा ने नंदन से इस बारे में बात की और उस पर शादी करने का दबाव डाला. नंदन लड़कियों के साथ हमबिस्तरी तो करता था, पर चित्रा से शादी करने की उस ने कभी नहीं सोची थी. अपने नेता पिता की तरह वह लड़कियों से प्यार के वादे तो करता था, पर उन्हें निभाता नहीं था.

नंदन चित्रा की बात सुन कर सतर्क हो गया. उस ने चित्रा से मिलनाजुलना बंद कर दिया. जब वह फोन पर उस से बात करना चाहती, तो टाल देता.

लेकिन एक दिन चित्रा ने नंदन को पकड़ ही लिया. बहुत दिनों तक बातचीत न होने से नंदन भी थोड़ा नरम पड़ गया था. बातें करतेकरते वे दोनों नंदन के फार्महाउस जा पहुंचे.

वह फार्महाउस दोमंजिला था. वे दोनों दूसरी मंजिल पर गए. वहां एक खूबसूरत बैडरूम था. वे दोनों एक सोफे पर जा कर बैठ गए.

चित्रा बहुत खूबसूरत लग रही थी. उसे देख कर नंदन की हवस जाग गई. वह बोला, ‘‘डार्लिंग, शुरू हो जाएं क्या?’’ इतना कह कर उस ने चित्रा की कमर पर अपना हाथ रख दिया.

चित्रा ने नंदन के रंगढंग देख कर कहा, ‘‘नंदन, पहले मुझे तुम से कुछ जरूरी बातें करनी हैं, बाकी काम बाद में,’’ इतना कह कर चित्रा ने नंदन का हाथ अपनी कमर से हटा दिया.

‘‘अच्छा कहो, क्या कहना चाहती हो तुम?’’ नंदन ने पूछा.

‘‘वही बात. शादी के बारे में क्या सोचा है तुम ने? मेरा पेट दिन ब दिन फूल रहा है. घर में पता चल गया, तो पता नहीं मेरा क्या होगा. मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा है. ऊपर से तुम भी मुझ से बात नहीं करते हो,’’ कहते हुए चित्रा रोने लगी.

‘‘रोती क्यों हो… मेरे पापा विदेश गए हुए हैं. उन के आते ही हम शादी कर लेंगे,’’ नंदन ने इतना कह कर चित्रा को अपनी बांहों में भरना चाहा.

लेकिन चित्रा छिटक कर दूर हो गई और बोली, ‘‘नंदन, आज मुझे यह सब करने का मन नहीं है. पहले हमारी शादी का फैसला होना चाहिए. हम किसी मंदिर में जा कर शादी कर लेते हैं. हमारे घर चलते हैं. मेरे पापा बुरा नहीं मानेंगे. वे बहुत अमीर हैं. हम शानोशौकत में जीएंगे. हम कोई नया कामधंधा भी शुरू कर लेंगे.’’

‘‘डियर चित्रा, यों चोरीछिपे मंदिर में शादी करना मुझे पसंद नहीं है. हम सब के सामने शान से शादी करेंगे. मेरे पापा इस इलाके के सांसद हैं. हम उन की हैसियत की शादी करेंगे.

‘‘सब से पहले तो तुम यह बच्चा गिरवा लो. इतनी जल्दी बच्चे की क्या जरूरत है. अभी तो हम पढ़ रहे हैं. मैं पूरा इंतजाम करा दूंगा. थोड़े दिनों के बाद हम फिर से मस्ती मारेंगे.’’

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’ यह सुन कर चित्रा ने गुस्से में पूछा.

‘‘मतलब यह है कि अभी से शादी और बच्चे की बातें क्यों? अभी तो हमारे मस्ती के दिन हैं.’’

‘‘नंदन, शादी करने के बाद हम खुलेआम मस्ती करेंगे.’’

‘‘लेकिन, अभी मुझे शादी नहीं करनी है.’’

‘‘क्यों?’’ चित्रा ने जोर दे कर सख्ती से पूछा.

‘‘सच कहूं, तो मेरे पापा ने अपने एक सांसद दोस्त की बेटी से मेरी शादी तय कर रखी है.’’

‘‘यह तुम क्या कह रहे हो? इतने दिनों तक मेरे तन के साथ खेल कर अब दूर जाना चाहते हो?’’

‘‘नहीं, हम पहले की तरह प्यार करते रहेंगे, पर शादी नहीं. वैसे भी मैं अकेला कुसूरवार नहीं हूं. तुम भी तो मेरा जिस्म पाना चाहती थी. हम ने एकदूसरे की जरूरत पूरी की. लेकिन अब तुम नहीं चाहती, तो मैं अपने रास्ते और तुम अपने रास्ते,’’ नंदन ने दोटूक कह दिया.

‘‘दिखा दी न अपनी औकात. लेकिन, मैं दूसरी लड़कियों की तरह नहीं हूं. हमारी शादी तो हो कर ही रहेगी, नहीं तो…’’

‘‘नहीं तो क्या… चुपचाप यहां से चली जाओ. तुम्हारी कुछ अश्लील वीडियो क्लिप मेरे पास हैं. मैं उन को मोबाइल फोन पर अपलोड कर के अपने दोस्तों में भेज दूंगा. तुम्हारी इज्जत को सरेआम नीलाम कर दूंगा.’’

‘‘तो यह है तुम्हारा असली चेहरा. लड़कियों को फूलों की तरह मसलना तुम्हारा शौक है. लेकिन अगर तुम मेरे पेट में पल रहे बच्चे के बाप नहीं बने, तो मैं तुम्हारी जिंदगी बेहाल कर दूंगी,’’ इतना कह कर चित्रा ने अपने बैग से एक लिफाफा निकाला और नंदन के मुंह पर फेंक दिया.

‘‘यह सब क्या ड्रामा है?’’ नंदन ने बौखलाहट में पूछा.

‘‘खुद देख लो,’’ चित्रा बोली.

नंदन ने लिफाफा खोला, तो उस में से निकल कर कुछ तसवीरें जमीन पर जा गिरीं. उन तसवीरों में नंदन और चित्रा हवस का खेल खेल रहे थे.

नंदन गुस्से से भर उठा और चिल्लाते हुए बोला, ‘‘ये तसवीरें तुम्हारे पास कहां से आईं?’’

‘‘चिल्लाओ मत. अकेले तुम ही शातिर नहीं हो. अगर तुम मेरी बेहूदा वीडियो क्लिप बना सकते हो, तो मैं भी तुम्हारी ऐसी तसवीरें खींच सकती हूं.’’

यह सुन कर नंदन भड़क गया और चिल्लाते हुए बोला, ‘‘बाजारू लड़की, मैं तुम्हारा रेप कर के यहीं बगीचे में जिंदा गाड़ दूंगा,’’ कह कर उस ने चित्रा को पकड़ना चाहा.

चित्रा उस की पकड़ में नहीं आई और गरजी, ‘‘अक्ल से काम लो और मेरे साथ शादी कर लो, नहीं तो मैं तुम्हारी जिंदगी बरबाद कर दूंगी. तुम्हारे पापा भी तुम्हें बचा नहीं पाएंगे. मुझे ऐसीवैसी मत समझना. मैं एक वकील की बेटी हूं.’’

‘‘वकील की बेटी हो, तो तुम मेरा क्या कर लोगी. मैं अभी तुम्हारा गला दबा कर इस कहानी को यहीं खत्म कर देता हूं,’’ इतना कह कर नंदन चित्रा पर झपट पड़ा.

लेकिन चित्रा तेजी से खिड़की के पास चली गई और बोली, ‘‘जरा यहां से नीचे तो देखना.’’

झल्लाया नंदन खिड़की के पास गया और बाहर झांका. नीचे मेन गेट पर पुलिस की गाड़ी खड़ी थी. एक सबइंस्पैक्टर अपने 4 सिपाहियों के साथ ऊपर ही देख रहा था.

‘‘देख लिया… अगर मुझ पर हाथ डाला, तो तुम भी नहीं बचोगे. मैं यहां आने से पहले ही सारा इंतजाम कर के आई थी.

‘‘अब तुम ज्यादा मत सोचो और जल्दी से मेरे साथ शादी के दफ्तर में पहुंचो. मेरे पापा वहीं पर तुम्हारा बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं,’’ इतना कह कर चित्रा अपना बैग और वे तसवीरें ले कर बाहर चली गई.

नंदन भीगी बिल्ली बना चित्रा के साथ शादी के दफ्तर पहुंच गया.

Romantic Story : लक्ष्य – कहीं सुधा ने निलेश को माफ करने में देर तो नहीं कर दी थी ?

Romantic Story : निलेश और सुधा दोनों दिल्ली के एक कालेज में स्नातक के छात्र थे. दोनों में गहरी दोस्ती थी. आज उन की क्लास का अंतिम दिन था. इसलिए निलेश कालेज के पार्क में गुमसुम अपने में खोया हुआ फूलों की क्यारी के पास बैठा था. सुधा उसे ढूंढ़ते हुए उस के करीब आ कर पूछने लगी,  ‘‘निलेश यहां क्यों बैठे हो?’’

उस का जवाब जाने बिना ही वह एक सफेद गुलाब के फूल को छूते हुए कहने लगी, ‘‘इन फूलों में कांटे क्यों होते हैं. देखो न, कितना सुंदर होता है यह फूल, पर छूने से मैं डरती हूं. कहीं कांटे न चुभ जाएं.’’ निलेश से कोई जवाब न पा कर उस ने फिर कहा, ‘‘आज किस सोच में डूबे हो, निलेश?’’

निलेश ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘सोच रहा हूं कि जब हम किसी से मिलते हैं तो कितना अच्छा लगता है पर बिछड़ते समय बहुत बुरा लगता है. आज कालेज का अंतिम दिन है. कल हम सब अपनेअपने विषय की तैयारी में लग जाएंगे. परीक्षा के बाद कुछ लोग अपने घर लौट जाएंगे तोकुछ और लोग की तलाश में भटकने लगेंगे. तब रह जाएगी जीवन में सिर्फ हमारी यादें इन फूलों की खूशबू की तरह. यह कालेज लाइफ कितनी सुहानी होती है न, सुधा.

‘‘हर रोज एक नई स्फूर्ति के साथ मिलना, क्लास में अनेक विषयों पर बहस करना, घूमनाफिरना और सैर करना. अब सब खत्म हो जाएगा.’’ सुधा की तरफ देखता हुआ निलेश एक सवाल कर बैठा, ‘‘क्या तुम याद करोगी, मुझे?’’

‘‘ओह, तो तुम इसलिए उदास बैठे हो. आज तुम शायराना अंदाज में बोल रहे हो. रही बात याद करने की, तो जरूर करूंगी, पर अभी हम कहां भागे जा रहे हैं?’’ वह हाथ घुमा कर कहने लगी, ‘‘सुना है दुनिया गोल है. यदि कहीं चले भी जाएं तो हम कहीं न कहीं, किसी मोड़ पर मिल जाएंगे. एकदूसरे की याद आई तो मोबाइल से बातें कर लेंगे. इसलिए तुम्हें उदास होने की जरूरत नहीं.’’

सुधा का अंदाज देख कर निलेश गंभीर होते हुए बोला, ‘‘दुनिया बहुत बड़ी है, सुधा. क्या पता दुनिया की भीड़ में हम खो जाएं और फिर कभी न मिलें? इसलिए आज तुम से अपने दिल की बातें करना चाहता हूं. क्या पता कल हम मिलें, न मिलें. नाराज मत होना.’’ वह घास पर बैठा उस की आंखों में झांकते हुए बोला, ‘‘सुधा, मैं तुम से प्यार करने लगा हूं. क्या तुम भी मुझ से प्यार करती हो?’’

यह सुनते ही सुधा के चेहरे का रंग बदल गया. वह उत्तेजित हो कर बोली, ‘‘यह क्या कह रहे हो, निलेश? हमारे बीच प्यार कब और कहां से आ गया? हम एक अच्छे दोस्त हैं और दोस्त बन कर ही रहना चाहते हैं. अभी हमें अपने कैरियर के बारे में सोचना चाहिए, न कि प्यार के चक्कर में पड़ कर अपना समय बरबाद करना चाहिए. प्यार के लिए मेरे दिल में कोई जगह नहीं.

‘‘सौरी, तुम बुरा मत मानना. सच तो यह है कि मैं शादी ही नहीं करना चाहती. शादी के बाद लड़कियों की जिंदगी बदल जाती है. उन के सपने मोती की तरह बिखर जाते हैं. उन की जिंदगी उन की नहीं रह जाती, दूसरे के अधीन हो जाती है. वे जो करना चाहती हैं, जीवन में नहीं कर पातीं. पारिवारिक उलझनों में उलझ कर रह जाती हैं. मेरे जीवन का लक्ष्य है कुशल शिक्षिका बनना. अभी मुझे बहुत पढ़ना है.’’

‘‘सुधा, पढ़ने के साथसाथ क्या हम प्यार नहीं कर सकते? मैं तो प्यार में सिर्फ तुम से वादा चाहता हूं. भविष्य में तुम्हारे साथ कदम मिला कर चलना चाहता हूं. जब अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे तभी हम घर बसाएंगे. अभी तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं, और रही बात शादी के बाद की, तो तुम जो चाहे करना. मैं कभी तुम्हें किसी भी चीज के लिए टोकूंगा नहीं.’’

‘‘पर मैं कोई वादा करना नहीं चाहती. अभी कोई भी बंधन मुझे स्वीकार नहीं.’’ तब सुधा की यह बात सुन कर उस ने कहा, ‘‘प्यार इंसान की जरूरत होती है. आज भले ही तुम इस बात को न मानो, पर एक दिन तुम्हें यह एहसास जरूर होगा. इन सब खुशियों के अलावा अपने जीवन में एक इंसान की जरूरत होती है. जिसे जीवनसाथी कहते हैं. खैर, मैं तुम्हारी सफलता में बाधक बनना नहीं चाहता. दिल ने जो महसूस किया, वह तुम से कह बैठा. बाकी तुम्हारी मरजी.’’

वह अनमना सा उठा और घर की तरफ चल पड़ा. उस के पीछेपीछे सुधा भी चल पड़ी. कुछ देर चुपचाप उस के साथसाथ चलती रही. अब दोनों बस स्टौप पर खड़े थे, अपनीअपनी बस का इंतजार करने लगे. तभी सुधा ने खामोशी तोड़ने के उद्देश्य से उस से पूछा, ‘‘तुम्हारे जीवन में भी तो कोई लक्ष्य होगा. स्नातक के बाद क्या करना चाहोगे क्या यों ही लड़की पटा कर शादी करने का इरादा?’’

यह सुन कर निलेश झुंझलाते हुए बोला, ‘‘ऐसी बात नहीं  है, सुधा. मैं तुम्हें पटा नहीं रहा था. अपने प्यार का इजहार कर रहा था. पर जरूरी तो नहीं कि जैसा मैं सोचता हूं वैसा ही तुम सोचो, और प्यार किसी से जबरदस्ती नहीं किया जाता. यह तो एक एहसास है जो कब दिल में पलने लगता है, हमें पता ही नहीं चलता. आज के बाद कभी तुम से प्यार का जिक्र नहीं करूंगा. दूसरी बात, जीवन के लक्ष्य के बारे में अभी मैं ने कुछ सोचा नहीं. वक्त जहां ले जाएगा, चला जाऊंगा.’’

‘‘निलेश, यह तुम्हारी जिंदगी है, कोई और तो नहीं सोच सकता. समय को पक्ष में करना तो अपने हाथ में होता है. अपने लक्ष्य को निर्धारित करना तुम्हारा कर्तव्य है.’’

इस पर निलेश बोला, ‘‘हां, मेरा कर्तव्य जरूर है लेकिन अभी तो स्नातक की परीक्षा सिर पर सवार है. उस के बाद हमारे मातापिता जो कहेंगे वही करूंगा.’’ तभी सुधा की बस आ गई और वह बाय करते हुए बस में चढ़ गई. निलेश भी अपने गंतव्य पर चला गया.

सुधा अब अपने घर आ चुकी थी. जब खाना खा कर वह अपने कमरे में बिस्तर पर लेटी तो सोचने लगी,

क्या सचमुच निलेश मुझ से प्यार करता है? या यों ही मुझे आजमा रहा था. पर उस ने तो अपने जीवन का निर्णय मातापिता पर छोड़ रखा है. उन्हीं लागों को हमेशा प्रधानता देता है. क्या जीवन में वह मेरा साथ देगा? अच्छा ही हुआ जो उस का प्यार स्वीकार नहीं किया. प्यार तो कभी भी किया जा सकता है, पर जीवन का सुनहला वक्त अपने हाथों से नहीं जाने दूंगी. समय के भरोसे कोई कैसे जी सकता है? जो स्वयं अपना निर्णय नहीं ले सकता वह मेरे साथ कदम से कदम मिला कर कैसे चल सकता है? क्या कुछ पल किसी के साथ गुजार लेने से किसी से प्यार हो जाता है? निलेश न जाने क्यों ऐसी बातें कर रहा था? यह सोचतेसोचते वह सो गई.

अगले दिन वह परीक्षा की तैयारी में लग गई. निलेश से कम ही मुलाकात होती. एकदिन सुबह वह उठी तो रमन, जो निलेश का दोस्त था ने बुरी खबर से उसे अवगत कराया कि निलेश के पापा एक आतंकी मुठभेड़ में मारे गए हैं. आज सुबह 6 बजे की फ्लाइट से वह अपने गांव के लिए रवाना हो गया. उस के पापा की लाश वहीं गांव में आने वाली है. वह बहुत रो रहा था. उस ने कहा कि तुम्हें बता दें.

यह सुन वह बहुत व्याकुल हो उठी. उस को फोन लगाने लगी पर उस का फोन स्विच औफ आ रहा था. वह दुखी हो गई, उसे दुखी देख उस की मां ने सवाल किया कि सुधा क्या बात है, किस का फोन था? तब उस ने रोंआसे हो कर कहा, ‘‘मां, निलेश के पापा की आतंकी मुठभेड़ में मृत्यु हो गई,’’ यह कहते हुए उस की आंखों में आंसू आ गए और कहने लगी, क्यों आएदिन ये आतंकी देश में उत्पात मचाते रहते हैं? कभी मंदिर में धमाका तो कभी मसजिद में करते हैं तो कहीं सरहद पर गोलीबारी कर बेकुसूरों का सीना छलनी कर देते हैं. क्या उन की मानवता मर चुकी है या उन के पास दिल नहीं होता जो औरतों के सुहाग उजाड़ लेते हैं. आतंक की डगर पर चल कर आखिर उन्हें क्या सुख मिलता है?’’

सुधा के मुख से यह सुन उस की मां उस के करीब जा कर समझाने लगी, ‘‘बेटी, कुछ लोगों का काम ही उत्पाद मचाना होता है. अगर उन के दिल में संवेदना होती तो ऐसा काम करते ही क्यों? पर तुम निलेश के पिता के लिए इतनी दुखी न हो. सैनिक का जीवन तो ऐसा ही होता है बेटी, उन के सिर पर हमेशा कफन बंधा होता है. वे देश के लिए लड़ते हैं, पर उन का परिवार एक दिन अचानक ऐसे ही बिखर जाता है. मरता तो एक इंसान है लेकिन बिखर जाते हैं मानो घर के सभी सदस्य. हम उस शहीद को नमन करते हैं. ऐसे लोग कभी मरते नहीं बल्कि अमर हो जाते हैं.’’

पर सुधा अपने कमरे में आ कर सोचने लगी कि काश, निलेश के लिए वह कुछ कर पाती. आज वह कितना दुखी होगा. एक तरफ मैं ने उस का प्यार ठुकरा दिया, दूसरी तरफ उस के सिर से पिता का साया उठ गया. इस समय मुझे उस के साथ होना चाहिए था. आखिर दोस्त ही दोस्त के काम आता है. कई बार जब मैं निराश होती तो वह मेरा साहस बढ़ाता. आज क्या मैं उस के लिए कुछ नहीं कर सकती? वह बारबार फोन करती पर कोई जवाब नहीं आता तो निराश हो जाती.

2 महीने बाद परीक्षा हौल में उस की आंखें निलेश को ढूंढ़ रही थीं. पर उस का कोई अतापता नहीं था. वह सोचने लगी, क्यों उस के विषय में वह चिंतित रहने लगी है? वह मात्र दोस्त ही तो था, एकदिन जुदा तो होना ही था. फिर उसे ध्यान आया कि कहीं उस की परीक्षा खराब न हो जाए, और वह अपना पेपर पूरा करने लगी.

एक महीने बाद जिस दिन रिजल्ट निकलने वाला था, वह कालेज गई तो सभी दोस्तों से उस का हाल जानने का प्रयत्न किया पर किसी ने उसे संतुष्ट नहीं किया. सभी अपने कैरियर की बातों में मशगूल दिख रहे थे. वह घर लौट गई. एकदिन अपनी डिगरी हाथ में ले कर सोचने लगी कि काश, निलेश को भी स्नातक की उपाधि मिली होती तो उस की खुशियां भी दोगुनी होती. न जाने वह जिंदगी कहां और कैसे काट रहा है? जिन आंखों को देख कर वह उन में समा जाना चाहता था क्या वे आंखें अब उसे याद नहीं आतीं? कालेज के अंतिम दिन जो बातें मुझ से की थीं, क्या वह सब नाटक था या यों ही भावनाओं में बह कर बयां कर दिया था, पर मैं ने भी तो उसे तवज्जुह नहीं दी थी. कहीं वह मुझ से नाराज तो नहीं. उस के मन में अनेक खयालों के बुलबुले उठते रहते.

इस तरह 2 साल गुजर गए. उस ने स्नातक के बाद बीएड भी कर लिया, ताकि स्कूल में पढ़ा सके. जब उसे निलेश की याद सताती तो वह चित्र बनाने बैठ जाती. उसे चित्र बनाने का बहुत शौक था. स्कूल में भी बच्चों को चित्रकला का पाठ सिखाने लगी. इस तरह वह अपने चित्रों के साथ दिल बहलाती रही. अब वह किसी से नहीं मिलती, अपने सभी दोस्तों से कन्नी काटती रहती. अपना काम करती और घर आ कर गुमसुम रहती.

उस की हालत देख उस के मातापिता भी परेशान रहने लगे. उस की शादी के लिए उसे किसी लड़के की तसवीर दिखाते तो उस में निलेश की तसवीर ढूंढ़ने लगती. उस के प्यारभरे शब्द याद आने लगते. तब वह मन ही मन कहने लगती, क्या उसे निलेश से प्यार होने लगा है, पर वह तो मेरी जिंदगी से, शहर से जा चुका है. क्या वह लौट कर कभी आएगा मेरी जिंदगी में. इस तरह उस की यादों में सदा खोई रहती.

एक दिन उस के स्कूल के बच्चों ने चित्रकला प्रतियोगिता में जब अनेक स्कूलों के साथ हिस्सा लिया और प्रथम स्थान प्राप्त किया तो उन की तसवीर अखबार में प्रकाशित हुई, उन के साथ सुधा की भी तसवीर उन बच्चों के साथ साफ दिखाई दे रही थी.

उधर जब एक समाचारपत्र पढ़ते हुए निलेश ने सुधा की तसवीर देखी तो दंग रह गया और सोचने लगा, आखिर सुधा अपनी मंजिल पर पहुंच ही गई. उस ने जो कहा था, कर दिखाया. सचमुच जब मन में दृढ़विश्वास हो तो सफलता मिल ही जाती है. मैं भी कितना मशगूल हो गया कि अपने दोस्तों को भूल गया. कल क्या थी मेरी जिंदगी और आज क्या बन गई. कहां उसे पाने का ख्वाब देखा करता था, और आज उस की कोई तसवीर भी मेरे पास नहीं. मैं तो आज भी सुधा से प्यार करता हूं, पर न जाने क्यों वह प्यार से अनजान है. क्यों न एकबार उसे फोन किया जाए. बधाई तो दे ही सकता हूं.

उस ने फोन किया तो सुधा उस की आवाज सुन चकित रह गई. जब उस ने ‘हैलो सुधा,’ कहा तो आवाज पहचान गई, और शब्दों पर जोर दे कर वह बोल पड़ी, ‘‘क्या तुम निलेश बोल रहे हो?’’

‘‘हां, सुधा.’’

‘‘तुम तो सचमुच दुनिया की भीड़ में खो गए, निलेश, और मैं तुम्हें ढूंढ़ती रही.’’ उस ने अनजान बनते हुए पूछा, ‘‘क्यों ढूंढ़ती रही, सुधा? तुम तो मुझ से प्यार भी नहीं करती थी?’’ तब वह रोष प्रकट करती हुई बोली, ‘‘पर दोस्ती तो थी तुम से? क्यों कभी पलट कर मुझे देखने की आवश्यकता नहीं समझी?’’

वह उधर से उदास स्वर में बोला, ‘‘जीवन की कठिनाइयों ने भूलने पर मजबूर कर दिया सुधा वरना मैं तुम्हें कभी नहीं भूला. मैं तो अपनेआप को ही भूल चुका हूं. पापा क्या गुजर गए, मेरी तो दुनिया ही बदल गई. मैं दिल्ली लौट जाना चाहता था अपनी स्नातक की परीक्षा देने के लिए. पर जिस दिन दिल्ली के लिए रवाना हो रहा था, मां की तबीयत खराब हो गई. अस्पताल ले गया तो जांच में पता चला कि मां को ब्रेन ट्यूमर है. इसलिए मैं उन की देखभाल करने लगा. मां को ऐसी हालत में छोड़ कर जाना उचित नहीं समझा. मेरी मां अकेले न जाने कब से अपने दर्द को छिपाए जी रही थीं. कहतीं भी तो किस से. पापा तो थे नहीं.

‘‘मेरी पढ़ाई खराब न हो, मां ने कुछ नहीं बताया. ऐसे में उन्हें अकेले छोड़ दिल्ली आता भी तो कैसे.’’

‘‘ओह, तुम इतना सबकुछ अकेले सहते रहे. अब तुम्हारी मां कैसी हैं?’’

निलेश ने धीरे से कहा, ‘‘अभी 2 महीने पहले ही तो औपरेशन हुआ है बे्रन ट्यूमर का. अभी भी इलाज चल रहा है. कीमोथेरैपी करानी पड़ती है. ब्रेन ट्यूमर कोई छोटी बीमारी तो होती नहीं, कई तरह के साइड इफैक्ट हो जाते हैं. बहुत देखभाल की जरूरत होती है. इसलिए मैं कहीं उन्हें छोड़ कर जा भी नहीं सकता. तुम अपनी सुनाओ. आज तुम्हें अपनी मंजिल पर पहुंचते देख मैं अपनेआप को रोक नहीं पाया. स्कूल के बच्चों के साथ चित्रकारिता में इनाम लेते हुए अखबार में तसवीर देखी, तो फोन उठा लिया. आखिर तुम चित्रकारी में सफल हो ही गई. बहुत बधाई. तुम सफलताओं के ऊंचे शिखर पर विराजमान रहो, मैं तुम्हें दूर से देखता रहूं, यह मेरी कामना है.’’

‘‘धन्यवाद निलेश, पर मैं तुम से एक बार मिलना चाहती हूं. तुम नहीं आ सकते तो अपने घर का पता ही बता दो, मैं आ जाऊंगी.’’

यह सुन नीलेश को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. उस ने पूछा, ‘‘सुधा, सचमुच मुझ से मिलने आओगी?’’

‘‘यकीन नहीं हो रहा न, एक दिन यकीन भी हो जाएगा. अपने घर का पता मैसेज कर देना.’’

एक सप्ताह बाद सुधा, अपने मातापिता की अनुमति ले कर घर से निकल कोलकाता एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गई. वहां पहुंच कर निलेश के बताए पते पर एक टैक्सी में सवार हो कर उस के गांव पहुंच गई. ज्योंज्यों वह उस के घर के करीब जा रही थी उस के दिल में उथलपुथल मचने लगी कि उस के घर के सदस्य क्या कहेंगे. वह ज्यादा निलेश के परिवार के बारे में जानती भी तो नहीं. वह गांव के वातावरण से अनभिज्ञ थी. उस ने टैक्सी ड्राइवर से रुकने को कहा और टैक्सी से उतर स्वयं ढूंढ़ते हुए वह निलेश के घर पहुंच गई. वह दरवाजा खटखटाने लगी. दरवाजा खुलते ही उस की नजर निलेश पर पड़ी तो खुशी का ठिकाना न रहा.

निलेश ने हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘सुधा, मैं कहीं सप तो नहीं  देख रहा हूं.’’

उस का कान मरोड़ते हुए वह बोली,‘‘तो जाग जाओ अब सपने से.’’

सुधा का बैग उस ने अपने हाथों में ले कर कमरे में प्रवेश किया. जहां उस की मां एक पलंग पर बैठी थीं. पलंग से सटी एक मेज थी जिस पर दवाइयां रखी थीं. कमरा बहुत बड़ा था. सामने की दीवार पर एक तसवीर टंगी थी, जिस पर फूलों की माला लटक रही थी. सुधा ने उस की मां के चरणों को स्पर्श किया तो वे पलंग पर बैठे उसे आश्चर्यचकित नजरों से देखने लगीं.

तभी निलेश ने उस का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘मां, यह सुधा है, दिल्ली से आई है. कालेज में मेरे साथ पढ़ती थी.’’ उस की मां सुधा से औपचारिक बातें करने लगीं, पर सुधा की नजरें दीवार पर लगी उस तसवीर पर टिकी थीं.

निलेश ने कहा, ‘‘सुधा, यह मेरे पिताजी की तसवीर है. वह पलंग से उठ कर उस तसवीर को स्पर्श कर भावविह्वल हो गई. उस की आंखों से आंसू टपकने लगे. निलेश की मां देख कर समझ गई कि  यह बहुत भावुक लड़की है.’’

उन्होंने उस का ध्यान हटाने के उद्देश्य से कहा, ‘‘बेटी, मेरे पति जिंदा होते तो तुम्हें देख कर बहुत खुश होते, पर नियति को कौन टाल सकता है. आओ, मेरे पास बैठो. लगता है तुम मेरे बेटे से बहुत प्यार करती हो. तभी तो इतनी दूर से मिलने आई हो वरना इस कुटिया में कौन आता है. मेरी बूढ़ी आंखें कभी धोखा नहीं खा सकतीं. क्या तुम मेरे बेटे को पसंद करती हो?’’

यह सुन सुधा ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘हम और निलेश कालेज में बहुत अच्छे दोस्त थे.’’

जब निलेश की मां ने कहा, ‘‘तो क्या अब नहीं हो?’’ मुसकराते हुए उस ने बड़ी सहजता से कहा, ‘‘हां, अभी भी मैं उस की दोस्त हूं, तभी तो मिलने आई हूं.’’

निलेश की मां मुसकराने लगीं, और उस के सिर पर हाथ रख कहा, ‘‘सदा खुश रहो बेटी, मेरा बेटा बहुत अच्छा है, पर मेरी बीमारी के कारण वह कोई डिगरी न पा सका. मैं ने बहुत समझाया कि दिल्ली जा कर अपनी पढ़ाई पूरी कर ले, मेरा क्या है, आज हूं कल नहीं रहूंगी. पर उस की तो पूरी जिंदगी पड़ी है.’’

सुधा ने तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘मांजी, आप बहुत जल्दी ठीक हो जाएंगी. आप को इस हालत में छोड़ कर कोई भी बेटा कैसे जा सकता था?’’

तभी निलेश चाय का प्याला ले कर कमरे में उपस्थित हुआ और सुधा की बातें सुन कर सोचने लगा कि क्या यह वही सुधा है? जो परिवार की जिम्मेदारी के नाम से कोसों दूर भागती थी. मां को खुश करने के लिए कितना अच्छा नाटक कर रही है. न जाने क्यों झूठी तसल्ली दे रही है. वह उस के करीब जा कर कहने लगा, ‘‘सुधा, तुम सफर में थक गई होगी, फ्रैश हो कर चाय पी लो.’’ चाय मेज पर रखते हुए उसे आदेश दिया.

निलेश की मां पलंग से उठीं और अपने कमरे से बाहर चली गईं ताकि वे दोनों आपस में बातें कर सकें. उन के जाते ही सुधा निलेश से सवाल कर बैठी,  ‘‘निलेश, क्या चाय तुम ने बनाई है?’’

‘‘हां, सुधा, मुझे सबकुछ काम करना आता है और कोई है भी तो नहीं हमारी मदद करने के लिए घर में.’’

सुधा आश्चर्यचकित होती हुई बोली, ‘‘तुम लड़का हो कर भी अकेले कैसे सब मैनेज कर लेते हो. अब तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए, ताकि तुम्हें जीवन में कुछ आराम तो मिलता.’’

निलेश ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘यह तुम कह रही हो सुधा. आजकल की लड़कियां घर की चारदीवारी तक ही सीमित नहीं रहना चाहतीं. हर लड़की के सपने होते हैं. किसी लड़की के उन सपनों को मैं बिखेरना नहीं चाहता. मैं जैसा भी हूं, अकेले ही ठीक हूं.’’

सुधा अचानक एक प्रश्न कर बैठी, ‘‘क्या तुम मुझ से शादी करना चाहोगे?’’

वह उस की तरफ देख कर फीकी हंसी हंसते हुए बोला, ‘‘सुधा, क्यों मजाक कर रही हो?’’

‘‘यह मजाक नहीं निलेश, हकीकत है. क्या तुम मुझ से शादी करोगे? तुम से बिछड़ने के बाद एहसास हुआ कि जीवन में एक हमसफर तो होना ही चाहिए. अब जीवन में मुझे किसी चीज की कोई कमी नहीं है. मैं ने जो चाहा, सब किया पर खुशी की तलाश में अब तक भटक रही हूं. मुझे लगता है कि वो खुशी तुम हो, कोई और नहीं. न जाने क्यों दिल तुम्हें ही पुकारता रहा. तुम ने ठीक कहा था. प्यार कब किस से हो जाए पता नहीं चलता, जब पता चला तो दिल पर तुम्हारा ही नाम देखा. तुम्हारी प्यारभरी बातें, मुझे सोने नहीं देतीं.’’

‘‘यही तो प्यार है, सुधा, दो दिल मिलते हैं पर कभीकभी एकदूजे को समझ नहीं पाते, और जब समझते हैं तो बहुत देर हो जाती है. सुधा, सच तो यह है कि मैं तुम्हें खुश नहीं रख पाऊंगा. क्या तुम इस गांव के वातावरण में मेरे साथ रह पाओगी? मेरी परिस्थिति अब तुम्हारे सामने हैं. जैसी जिंदगी तुम्हें चाहिए, मैं नहीं दे सकता. तुम्हें बंधन पसंद नहीं और मैं उन्मुक्त नहीं. तुम्हारे सपने अधूरे रह जाए, यह मुझे मंजूर नहीं.’’

चाय की चुस्की लेते हुए सुधा ने कहा, ‘‘निलेश, मेरे सपने तो अब पूरे होंगे. अब तक मैं शहर के बच्चों को पढ़ाती रही, चित्रकला भी सिखाती रही पर अब तुम्हारे गांव के बच्चों के साथ बिताना चाहती हूं. शहर में तो सभी रहना चाहते हैं, पर अब मैं तुम्हारे गांव के बच्चों को पढ़ाऊंगी. एक अलग अनुभव होगा मेरे जीवन में. इस तरह तुम्हारी मां की देखभाल भी कर पाऊंगी, अब मेरा नजरिया बदल गया है. जिम्मेदारी और प्यार का एहसास तो तुम्हीं ने कराया है. तुम ठीक कहा करते थे कि बंधन में सुख भी होता है और दुख भी.’’

वह सुधा की बातें सुन, अवाक उसे देखने लगा. उस का जी चाहा कि सुधा को गले लगा ले. वह सोचने लगा, वक्त ने सुधा को कितना परिपक्व बना दिया या मेरी जुदाई ने प्यार का एहसास करा दिया है कि जब किसी से प्यार होता तो सभी परिस्थितियां अनुकूल दिखाई देने लगती हैं.

‘क्या सोच रहे हो, निलेश, दरअसल, तुम से जुदा हो जाने के बाद मुझे एहसास हो गया कि दोस्ती और प्यार के बिना इंसान जीवनपथ पर चल नहीं सकता. कभी न कभी औरत हो या पुरुष दोनों को जीवन में एकदूसरे की आवश्यकता होती ही है. फिर तुम क्यों नहीं मेरी जिंदगी में. आज उस प्यार को स्वीकार करने आई हूं जो कभी ठुकरा दिया था. बोलो, क्या मुझे स्वीकार करोगे?’’

‘‘सुधा, बात स्वीकार की नहीं, लक्ष्य की है. तुम तो अपनी सफलता की सारी मंजिले पार कर गई. पर मैं आज भी लक्ष्यविहीन हूं. तुम्हारे शब्दों में कहूं तो समय पर भरोसा जो करता था.’’

उसे दिलासा देते हुए सुधा ने कहा, ‘‘निलेश, परिस्थितियां इंसान को बनाती हैं, और बिगाड़ती भी हैं. इस में तुम्हारा कोई दोष नहीं. तुम ने तो अपनी मां के लिए अपना कैरियर दांव पर लगा दिया. ऐसा बेटा होना भी तो आजकल इस संसार में दुर्लभ है. क्या तुम्हारा यह लक्ष्य नहीं? आज मुझे तुम पर गर्व है. तुम्हें घबराने की जरूरत नहीं है. तुम्हारे पास अभी भी समय है, अपनी अधूरी शिक्षा पूरी कर सकते हो. बीए कर सेना में भरती हो सकते हो तुम्हारे पिता की भी यही इच्छा थी न?’’

यह सुन निलेश की खुशी का ठिकाना न रहा,‘‘तुम सचमुच ग्रेट हो. यहां आते ही मेरी हर समस्या को तुम ने ऐसे सुलझा दिया जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो.’’

तभी दरवाजे की ओर से निलेश की मां ने जब यह सुना तो खुशी से फूले न समाईं. अपने बेटे के भविष्य को ले जो उन के हृदय पर संकट के बादल घिर आए थे, वे सब छंट गए. आगे बढ़ कर सुधा को उन्होंने गले लगा लिया.

सुधा ने कहा, ‘‘आंटी, यदि आप इजाजत दें तो मैं अपनी नौकरी और शहर छोड़ कर यहीं आ जाऊं?’’

‘‘आंटी नहीं, सुधा, आज से तुम मुझे मां कहोगी,’’ निलेश की मां ने जब यह कहा तो दोनों मुसकरा पड़े. सुधा ने अपने मातापिता की इजाजत ले कर निलेश से शादी कर ली और गांव में ही जीवन व्यतीत करने लगी.

निलेश ने स्नातक की परीक्षा पास कर सेना में भरती होने के लिए अर्जी दे दी थी. आज वह अपने देश की सीमा पर तैनात है. शादी के 6 महीने बाद ही निलेश की मां की मृत्यु हो गई थी.

आज वे जीवित होतीं तो कितनी खुश होतीं. सीमा पर तैनात निलेश यही सोच रहा है. शायद यही जीवन की रीत है. कभी मिलती खुशी तो कभी गम की लकीर. पर जिंदगी रुकती तो नहीं है. सुधा ठीक तो कहा करती थी कि इंसान चाहे तो कभी भी, कुछ भी कर सकता है. पर आज अगर अपने लक्ष्य तक पहुंचा हूं तो सुधा के सहयोग से. जीवन का हमसफर साथ दे तो कोई भी जंग इंसान जीत सकता है.

Emotional Story : नई दिशा – आलोक के पत्र में क्या था ?

Emotional Story : नीता स्कूल से लौट कर आई. उस ने घड़ी पर नजर डाली, शाम के 6 बजने वाले थे. उस ने किताबें टेबल पर रख दीं और थकी सी पलंग पर बैठ गई.

उसे कमरा बेहद सूना लग रहा था. ‘आलोक आज चला जो गया था. अगर वह कुछ दिन और रहता तो कितना अच्छा लगता पर…’ सोचतेसोचते वह पिछले दिनों की यादों में खो गई.

उस दिन ठंड कुछ ज्यादा थी. घर के अंदर भी ठंड का एहसास हो रहा था. मम्मी धूप में बैठी स्वैटर बुन रही थीं. धीरज जोरजोर से बोल कर सबक याद कर रहा था. नीता टिफिन तैयार कर रही थी कि तभी घंटी बजी.

दरवाजा खोलने मम्मी ही गईं. सामने एक अपरिचित युवक खड़ा था.

‘चाचीजी, नमस्ते. आप ने पहचाना मुझे?’ वह हाथ जोड़ कर बोला.

‘आप…कौन?’ उन्हें चेहरा जानापहचाना लग रहा था.

‘मैं रामसिंहजी का बेटा, आलोक…’ वह बोला.

‘अरे, तुम रामसिंह भैया के बेटे हो. कितने बड़े हो गए हो. तभी तो मुझे लगा मैं ने तुम्हें कहीं देखा है,’  वे हंस कर बोलीं, ‘बेटा, अंदर आओ न.’

वे दरवाजे से एक तरफ हट गईं. आलोक ने बैग कंधे से उतार कर नीचे रख दिया. फिर आराम से सोफे पर बैठ गया. उस ने एक पत्र अपनी जेब से निकाल कर मम्मी को दिया.

‘अच्छा, तो तुम यहां पीएससी की परीक्षा देने आए हो?’ पत्र पढ़ते हुए मम्मी ने पूछा.

‘जी चाचीजी,’ उस ने आदर से कहा.

‘ठीक है. इसे अपना ही घर समझो,’ फिर वे रुक कर बोलीं, ‘अरी, नीता बिटिया, देख कौन आया है और सुन चाय भी बना ला.’

नीता की समझ में कुछ नहीं आया. कौन है, देखने के लिए वह बाहर आ गई.

‘बेटी, यह आलोक है, तेरे बचपन का दोस्त. जानती है एक बार इस ने तेरी चोटी रस्सी से बांध दी थी. मुश्किल से बाल काट कर खोलनी पड़ी थी,’ मम्मी ने हंस कर बताया.

‘मम्मीजी, मुझे तो कुछ याद नहीं, कब की बात है?’ नीता ने पूछा.

‘उस दिन तेरा जन्मदिन था. बड़ी अच्छी फ्रौक पहन, 2 चोटियां कर के तू आलोक को बताने गई थी. आलोक उस समय तो कुछ नहीं बोला. मैं इस की मां के साथ बातों में लगी थी कि तभी इस ने चुपके से तेरी चोटी बांध दी थी,’ मां ने याद दिलाया.

‘अब मुझे याद आ गया,’ आलोक अचानक बोला, ‘नीता, मुझे माफ करना. अब ऐसी गलती नहीं करूंगा.’

नीता शरमा कर अंदर चाय बनाने चली गई.

आज से करीब 12 साल पहले नीता और आलोक के पापा विजय नगर में आसपास रहते थे. कालोनी में उन की दोस्ती की अकसर चर्चा हुआ करती थी.

दोनों की जाति अलगअलग थी पर विचार एक से थे. दोनों परिवारों की स्थिति भी एक जैसी थी. पर नीता के पापा अपने काम के सिलसिले में इंदौर आ बसे. इस शहर में उन का धंधा अच्छा चल निकला. इसलिए वे यहीं के हो कर रह गए.

इतने सालों बाद अब आलोक परीक्षा देने उन के यहां आया था.

सुबह से शाम तक नीता उस का खयाल रखती. इस साल वह भी 12वीं की परीक्षाएं देने वाली थी. आलोक पढ़ाई में तेज था. अपनी पढ़ाई के साथसाथ वह नीता को भी पढ़ाई के गुर सिखलाता. ‘मन लगा कर पढ़ोगी तो जरूर अच्छे नंबर आएंगे,’ वह समझाता. नीता को भी उस की बातें बहुत अच्छी लगतीं.

मम्मी ने आलोक को एक अलग कमरा दे दिया था ताकि वह अपनी तैयारी ठीक से कर सके. वह 2 पेपर दे चुका था. पेपर बहुत अच्छे हुए थे. आलोक का चायनाश्ता, खानापीना, सभी मम्मी ने नीता के हवाले कर दिया था. नीता का जवान दिल जैसे आलोक को पा कर मस्त हो रहा था. रात को घंटों वह आलोक के पास बैठी रहती. मम्मी भी उन की बातों से अनजान रहतीं.

आलोक का आखिरी पेपर 2 दिन बाद था. वह तैयारी करना चाहता था पर नीता ने जिद कर के आलोक और धीरज के साथ पिक्चर जाने का मन बना लिया. फिर दूसरे दिन कमला पार्क में पिकनिक का प्रोग्राम भी बना डाला.

आलोक पिकनिक नहीं जाना चाहता था पर उसे मजबूरन नीता का साथ देना पड़ा. इन 2 दिनों में नीता के मन में आलोक के प्रति एक अजीब आकर्षण पैदा हो गया था. जैसे वह मन ही मन आलोक की तरफ खिंचती चली जा रही थी.

उस दिन आलोक का अंतिम पेपर था. नीता भी उसे खाना दे कर कैमिस्ट्री का कुछ पूछने बैठ गई. रात अधिक हो चुकी थी. उस के मम्मीपापा दूसरे कमरे में बेखबर सो रहे थे. अचानक नीता ने आलोक का हाथ पकड़ लिया और बोली, ‘आलोक, जाने क्यों तुम मुझे अच्छे लगने लगे हो.’

आलोक भी कुछ ऐसा ही महसूस कर रहा था. उस का मन हुआ कि वह नीता के बहुत करीब हो जाए. पर तभी वह संभल गया, ‘जिस चाचीजी ने मुझ पर विश्वास किया है, क्या उन्हें समाज के सामने जलील होना पड़ेगा?’ ऐसा सोच कर उस ने धीरे से अपना हाथ छुड़ा लिया.

‘देखो नीता, यह समय हमारे प्यार करने का नहीं है बल्कि अपनाअपना कैरियर बनाने का है. अगर हम ने इस समय ऐसावैसा कुछ किया तो शायद हमें जीवन भर पछताना पड़े. इसलिए मैं तो कहता हूं कि तुम 12वीं में अच्छी डिवीजन लाओ.

‘मैं भी नौकरी की तैयारी करता हूं. मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि नौकरी लगते ही सब से पहले पिताजी को तुम्हारे घर भेजूंगा, हमारे रिश्ते की बात चलाने के लिए,’ उस ने नीता को समझाया.

‘हां आलोक, मम्मी भी मुझे डाक्टर बनाने का सपना देख रही हैं. अच्छा हुआ जो तुम ने मुझे सोते से जगा दिया,’ वह शरमा कर बोली.

थोड़ी देर चुप्पी रही. ‘मैं कल पेपर दे कर चला जाऊंगा. मुझे एक इंटरव्यू की तैयारी करनी है. अब तुम अपने कमरे में जाओ. रात बहुत हो चुकी है,’ मुसकराते हुए आलोक बोला.

नीता भी मन में नई दिशा में बढ़ने का संकल्प ले कर अपने कमरे की ओर चल पड़ी

Online Hindi Story : लक्ष्मण रेखा – मिसेज राजीव कैसे बन गईं धैर्य का प्रतिबिंब

Online Hindi Story : मेहमानों की भीड़ से घर खचाखच भर गया था. एक तो शहर के प्रसिद्ध डाक्टर, उस पर आखिरी बेटे का ब्याह. दोनों तरफ के मेहमानों की भीड़ लगी हुई थी. इतना बड़ा घर होते हुए भी वह मेहमानों को अपने में समा नहीं पा रहा था.

कुछ रिश्ते दूर के होते हुए भी या कुछ लोग बिना रिश्ते के भी बहुत पास के, अपने से लगने लगते हैं और कुछ नजदीकी रिश्ते के लोग भी पराए, बेगाने से लगते हैं, सच ही तो है. रिश्तों में क्या धरा है? महत्त्व तो इस बात का है कि अपने व्यक्तित्व द्वारा कौन किस को कितना आकृष्ट करता है.

तभी तो डाक्टर राजीव के लिए शुभदा उन की कितनी अपनी बन गई थी. क्या लगती है शुभदा उन की? कुछ भी तो नहीं. आकर्षक व्यक्तित्व के धनी डाक्टर राजीव सहज ही मिलने वालों को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं. उन की आंखों में न जाने ऐसा कौन सा चुंबकीय आकर्षण है जो देखने वालों की नजरों को बांध सा देता है. अपने समय के लेडीकिलर रहे हैं डाक्टर राजीव. बेहद खुशमिजाज. जो भी युवती उन्हें देखती, वह उन जैसा ही पति पाने की लालसा करने लगती.

डाक्टर राजीव दूल्हा बन जब ब्याहने गए थे, तब सभी लोग दुलहन से ईर्ष्या कर उठे थे. क्या मिला है उन्हें ऐसा सजीला गुलाब  सा दूल्हा. गुलाब अपने साथ कांटे भी लिए हुए है, यह कुछ सालों बाद पता चला था. अपनी सुगंध बिखेरता गुलाब अनायास कितने ही भौंरों को भी आमंत्रित कर बैठता है. शुभदा भी डाक्टर राजीव के व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर उन की तरफ खिंची चली आई थी.

बौद्धिक स्तर पर आरंभ हुई उन की मित्रता दिनप्रतिदिन घनिष्ठ होती गई थी और फिर धीरेधीरे दोनों एकदूसरे के लिए अपरिहार्य बन गए थे. मिसेज राजीव पति के बौद्धिक स्तर पर कहीं भी तो नहीं टिकती थीं. बहुत सीधे, सरल स्वभाव की उषा बौद्धिक स्तर पर पति को न पकड़ पातीं, यों उन का गठा बदन उम्र को झुठलाता गौरवर्ण, उज्ज्वल ललाट पर सिंदूरी गोल बड़ी बिंदी की दीप्ति ने बढ़ती अवस्था की पदचाप को भी अनसुना कर दिया था. गहरी काली आंखें, सीधे पल्ले की साड़ी और गहरे काले केश, वे भारतीयता की प्रतिमूर्ति लगती थीं. बहुत पढ़ीलिखी न होने पर भी आगंतुक सहज ही बातचीत से उन की शिक्षा का परिचय नहीं पा सकता था. समझदार, सुघड़, सलीकेदार और आदर्श गृहिणी. आदर्श पत्नी व आदर्श मां की वे सचमुच साकार मूर्ति थीं.

उन से मिलते ही दिल में उन के प्रति अनायास ही आकर्षण, अपनत्व जाग उठता, आश्चर्य होता था यह देख कर कि किस आकर्षण से डाक्टर राजीव शुभदा की तरफ झुके. मांसल, थुलथुला शरीर, उम्र को जबरन पीछे ढकेलता सौंदर्य, रंगेकटे केश, नुची भौंहें, निरंतर सौंदर्य प्रसाधनों का अभ्यस्त चेहरा. असंयम की स्याही से स्याह बना चेहरा सच्चरित्र, संयमी मिसेज राजीव के चेहरे के सम्मुख कहीं भी तो नहीं टिकता था.

एक ही उम्र के माइलस्टोन को थामे खड़ी दोनों महिलाओं के चेहरों में बड़ा अंतर था. कहते हैं सौंदर्य तो देखने वालों की आंखों में होता है. प्रेमिका को अकसर ही गिफ्ट में दिए गए महंगेमहंगे आइटम्स ने भी प्रतिरोध में मिसेज राजीव की जबान नहीं खुलवाई. प्रेमी ने प्रेमिका के भविष्य की पूरी व्यवस्था कर दी थी. प्रेमिका के समर्पण के बदले में प्रेमी ने करोड़ों रुपए की कीमत का एक घर बनवा कर उसे भेंट किया था.

शाहजहां की मलिका तो मरने के बाद ही ताजमहल पा सकी थी, पर शुभदा तो उस से आगे रही. प्रेमी ने प्रेमिका को उस के जीतेजी ही ताजमहल भेंट कर दिया था. शहरभर में इस की चर्चा हुई थी. लेकिन डाक्टर राजीव के सधे, कुशल हाथों ने मर्ज को पकड़ने में कभी भूल नहीं की थी. उस पर निर्धनों का मुफ्त इलाज उन्हें प्रतिष्ठा के सिंहासन से कभी नीचे न खींच सका था.

जिंदगी को जीती हुई भी जिंदगी से निर्लिप्त थीं मिसेज राजीव. जरूरत से भी कम बोलने वाली. बरात रवाना हो चुकी थी. यों तो बरात में औरतें भी गई थीं पर वहां भी शुभदा की उपस्थिति स्वाभाविक ही नहीं, अनिवार्य भी थी. मिसेज राजीव ने ‘घर अकेला नहीं छोड़ना चाहिए’ कह कर खुद ही शुभदा का मार्ग प्रशस्त कर दिया था.

मां मिसेज राजीव की दूर की बहन लगती हैं. बड़े आग्रह से पत्र लिख उन्होंने हमें विवाह में शामिल होने का निमंत्रण भेजा था. सालों से बिछुड़ी बहन इस बहाने उन से मिलने को उत्सुक हो उठी थी.

बरात के साथ न जा कर मिसेज राजीव ने उस स्थिति की पुनरावृत्ति से बचना चाहा था जिस में पड़ कर उन्हें उस दिन अपनी नियति का परिचय प्राप्त हो गया था. डाक्टर राजीव काफी दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे. डाक्टरों के अनुसार उन का एक छोटा सा  औपरेशन करना जरूरी था. औपरेशन का नाम सुनते ही लोगों का दिल दहल उठता है.

परिणामस्वरूप ससुराल से भी रिश्तेदार उन्हें देखने आए थे. अस्पताल में शुभदा की उपस्थिति, उस पर उसे बीमार की तीमारदारी करती देख ताईजी के तनबदन में आग लग गई थी. वे चाह कर भी खुद को रोक न सकी थीं.

‘कौन होती हो तुम राजीव को दवा पिलाने वाली? पता नहीं क्याक्या कर के दिनबदिन इसे दीवाना बनाती जा रही है. इस की बीवी अभी मरी नहीं है,’ ताईजी के कर्कश स्वर ने सहसा ही सब का ध्यान आकर्षित कर लिया था.

अपराधिनी सी सिर झुकाए शुभदा प्रेमी के आश्वासन की प्रतीक्षा में दो पल खड़ी रह सूटकेस उठा कर चलने लगी थी कि प्रेमी के आंसुओं ने उस का मार्ग अवरुद्ध कर दिया था. उषा पूरे दृश्य की साक्षी बन कर पति की आंखों की मौन प्रार्थना पढ़ वहां से हट गई थी.

पत्नी के जीवित रहते प्रेमिका की उपस्थिति, सबकुछ कितना साफ खुला हुआ. कैसी नारी है प्रेमिका? दूसरी नारी का घर उजाड़ने को उद्यत. कैसे सब सहती है पत्नी? परनारी का नाम भी पति के मुख से पत्नी को सहन नहीं हो पाता. सौत चाहे मिट्टी की हो या सगी बहन, कौन पत्नी सह सकी है?

पिता का आचरण बेटों को अनजान?े ही राह दिखा गया था. मझले बेटे के कदम भी बहकने लगे थे. न जाने किस लड़की के चक्कर में फंस गया था कि चतुर शुभदा ने बिगड़ती बात को बना लिया. न जाने किन जासूसों के बूते उस ने अपने प्रेमी के सम्मान को डूबने से बचा लिया. लड़के की प्रेमिका को दूसरे शहर ‘पैक’ करा के बेटे के पैरों में विवाह की बेडि़यां पहना दीं. सभी ने कल्पना की थी बापबेटे के बीच एक जबरदस्त हंगामा होने की, पर पता नहीं कैसा प्रभुत्व था पिता का कि बेटा विवाह के लिए चुपचाप तैयार हो गया.

‘ईर्ष्या और तनावों की जिंदगी में क्यों घुट रही हो?’ मां ने उषा को कुरेदा था.

एकदम चुप रहने वाली मिसेज राजीव उस दिन परत दर परत प्याज की तरह खुलती चली गई थीं. मां भी बरात के साथ नहीं गई थीं. घर में 2 नौकरों और उन दोनों के अलावा और कोई नहीं था. इतने लंबे अंतराल में इतना कुछ घटित हो गया, मां को कुछ लिखा भी नहीं. मातृविहीन सौतेली मां के अनुशासन में बंधी उषा पतिगृह में भी बंदी बन कर रह गई थी. मां ने उषा की दुखती रग पर हाथ धर दिया था. वर्षों से मन ही मन घुटती मिसेज राजीव ने मां का स्नेहपूर्ण स्पर्श पा कर मन में दबी आग को उगल दिया था.

‘मैं ने यह सब कैसे सहा, कैसे बताऊं? पति पत्नी को मारता है तो शारीरिक चोट ही देता है, जिसे कुछ समय बाद पत्नी भूल भी जाती है पर मन की चोट तो सदैव हरी रहती है. ये घाव नासूर बनते जाते हैं, जो कभी नहीं भरते.

‘पत्नीसुलभ अधिकारों को पाने के लिए विद्रोह तो मैं ने भी करना चाहा था पर निर्ममता से दुत्कार दी गई. जब सभी राहें बंद हों तो कोई क्या कर सकता है?

‘ऊपर से बहुत शांत दिखती हूं न? ज्वालामुखी भी तो ऊपर से शांत दिखता है, लेकिन अपने अंदर वह जाने क्याक्या भरे रहता है. कलह से कुछ बनता नहीं. डरती हूं कि कहीं पति को ही न खो बैठूं. आज वे उसे ब्याह कर मेरी छाती पर ला बिठाएं या खुद ही उस के पास जा कर रहने लगें तो उस स्थिति में मैं क्या कर लूंगी?

‘अब तो उस स्थिति में पहुंच गई हूं जहां मुझे कुछ भी खटकता नहीं. प्रतिदिन बस यही मनाया करती हूं कि मुझे सबकुछ सहने की अपारशक्ति मिले. कुदरत ने जिंदगी में सबकुछ दिया है, यह कांटा भी सही.

‘नारी को जिंदगी में क्या चाहिए? एक घर, पति और बच्चे. मुझे भी यह सभीकुछ मिला है. समय तो उस का खराब है जिसे कुदरत कुछ देती हुई कंजूसी कर गई. न अपना घर, न पति और न ही बच्चे. सिर्फ एक अदद प्रेमी.’

उषा कुछ रुक कर धीमे स्वर में बोली, ‘दीदी, कृष्ण की भी तो प्रेमिका थी राधा. मैं अपने कृष्ण की रुक्मिणी ही बनी रहूं, इसी में संतुष्ट हूं.’

‘लोग कहते हैं, तलाक ले लो. क्या यह इतना सहज है? पुरुषनिर्मित समाज में सब नियम भी तो पुरुषों की सुविधा के लिए ही होते हैं. पति को सबकुछ मानो, उन्हें सम्मान दो. मायके से स्त्री की डोली उठती है तो पति के घर से अर्थी. हमारे संस्कार तो पति की मृत्यु के साथ ही सती होना सिखाते हैं. गिरते हुए घर को हथौड़े की चोट से गिरा कर उस घर के लोगों को बेघर नहीं कर दिया जाता, बल्कि मरम्मत से उस घर को मजबूत बना उस में रहने वालों को भटकने से बचा लिया जाता है.

‘तनाव और घुटन से 2 ही स्थितियों में छुटकारा पाया जा सकता है या तो उस स्थिति से अपने को अलग करो या उस स्थिति को अपने से काट कर. दोनों ही स्थितियां इतनी सहज नहीं. समाज द्वारा खींची गई लक्ष्मणरेखा को पार कर सकना मेरे वश की बात नहीं.’

मिसेज राजीव के उद्गार उन की समझदारी के परिचायक थे. कौन कहेगा, वे कम पढ़ीलिखी हैं? शिक्षा की पहचान क्या डिगरियां ही हैं?

बरात वापस आ गई थी. घर में एक और नए सदस्य का आगमन हुआ था. बेटे की बहू वास्तव में बड़ी प्यारी लग रही थी. बहू के स्वागत में उषा के दिल की खुशी उमड़ी पड़ रही थी. रस्म के मुताबिक द्वार पर ही बहूबेटे का स्वागत करना होता है. बहू बड़ों के चरणस्पर्श कर आशीर्वाद पाती है. सभी बड़ों के पैर छू आशीष द्वार से अंदर आने को हुआ कि किसी ने व्यंग्य से चुटकी ली, ‘‘अरे भई, इन के भी तो पैर छुओ. ये भी घर की बड़ी हैं.’’ शुभदा स्वयं हंसती हुई आ खड़ी हुई.

आशीष के चेहरे की हर नस गुस्से में तन गई. नया जवान खून कहीं स्थिति को अप्रिय ही न बना दे, बेटे के चेहरे के भाव पढ़ते हुए मिसेज राजीव ने आशीष के कंधों पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘बेटा, आगे बढ़ कर चरणस्पर्श करो.’’

काम की व्यस्तता व नई बहू के आगमन की खुशी में सभी यह बात भूल गए पर आशीष के दिल में कांटा पड़ गया, मां की रातों की नींद छीनने वाली इस नारी के प्रति उस के दिल में जरा भी स्थान नहीं था.

शाम को घर में पार्टी थी. रंगबिरंगी रोशनियों से फूल वाले पौधों और फलदार व सजावटी पेड़ों से आच्छादित लौन और भी आकर्षक लग रहा था. शुभदा डाक्टर राजीव के साथ छाया सी लगी हर काम में सहयोग दे रही थी. आमंत्रित अतिथियों की लिस्ट, पार्टी का मीनू सभीकुछ तो उस के परामर्श से बना था.

शहनाई का मधुर स्वर वातावरण को मोहक बना रहा था. शहर के मान्य व प्रतिष्ठित लोगों से लौन खचाखच भर गया था. नईनेवली बहू संगमरमर की तराशी मूर्ति सी आकर्षक लग रही थी, देखने वालों की नजरें उस के चेहरे से हटने का नाम ही नहीं लेती थीं. एक स्वर से दूल्हादुलहन व पार्टी की प्रशंसा की जा रही थी. साथ ही, दबे स्वरों में हर व्यक्ति शुभदा का भी जिक्र छेड़ बैठता.

‘‘यही हैं न शुभदा, नीली शिफौन की साड़ी में?’’ डाक्टर राजीव के बगल में आ खड़ी हुई शुभदा को देखते ही किसी ने पूछा.

‘‘डाक्टर राजीव ने क्या देखा इन में? मिसेज राजीव को देखो न, इस उम्र में भी कितनी प्यारी लगती हैं.’’

‘‘तुम ने सुना नहीं, दिल लगा गधी से तो परी क्या चीज?’’

‘‘शुभदा ने शादी नहीं की?’’

‘‘शादी की होती तो अपने पति की बगल में खड़ी होती, डाक्टर राजीव के पास क्या कर रही होती?’’ किसी ने चुटकी ली, ‘‘मजे हैं डाक्टर साहब के, घर में पत्नी का और बाहर प्रेमिका का सुख.’’

घर के लोग चर्चा का विषय बनें, अच्छा नहीं लगता. ऐसे ही एक दिन आशीष घर आ कर मां पर बड़ा बिगड़ा था. पिता के कारण ही उस दिन मित्रों ने उस का उपहास किया था.

‘‘मां, तुम तो घर में बैठी रहती हो, बाहर हमें जलील होना पड़ता है. तुम यह सब क्यों सहती हो? क्यों नहीं बगावत कर देतीं? सबकुछ जानते हुए भी लोग पूछते हैं, ‘‘शुभदा तुम्हारी बूआ है? मन करता है सब का मुंह नोच लूं. अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊं तो मैं तुम्हें अपने साथ ले जाऊंगा. तुम यहां नहीं रहोगी.’’

मां निशब्द बैठी मन की पीड़ा, अपनी बेबसी को आंखों की राह बहे जाने दे रही थी. बच्चे दुख पाते हैं तो मां पर उबल पड़ते हैं. वह किस पर उबले? नियति तो उस की जिंदगी में पगपग पर मुंह चिढ़ा रही थी.

बेटी साधना डिलीवरी के लिए आई हुई थी. उस के पति ने लेने आने को लिखा तो उस ने घर में शुभदा की उपस्थित को देख, कुछ रुक कर आने को लिख दिया था. ससुराल में मायका चर्चा का विषय बने, यह कोईर् लड़की नहीं चाहती. उसी स्थिति से बचने का वह हर प्रयत्न कर रही थी. पर इतनी लंबी अवधि के विरह से तपता पति अपनी पत्नी को विदा कराने आ ही पहुंचा.

शुभदा का स्थान घर में क्या है, यह उस से छिपा न रह सका. स्थिति को भांप कर ही चतुर विवेक ने विदा होते समय सास और ससुर के साथसाथ शुभदा के भी चरण स्पर्श कर लिए. पत्नी गुस्से से तमतमाती हुई कार में जा बैठी और जब विवेक आया तो एकदम गोली दागती हुई बोली, ‘‘तुम ने उस के पैर क्यों छुए?’’

पति ने हंसते हुए चुटकी ली, ‘‘अरे, वह भी मेरी सास है.’’

साधना रास्तेभर गुमसुम रही. बहुत दिनों बाद सुना था आशीष ने मां को अपने साथ चलने के लिए बहुत मनाया था पर वह किसी भी तरह जाने को राजी नहीं हुई. लक्ष्मणरेखा उन्हें उसी घर से बांधे रही.

आंतरिक साहस के अभाव में ही मिसेज राजीव उसी घर से पति के साथ बंधी हैं. रातभर छटपटाती हैं, कुढ़ती हैं, फिर भी प्रेमिका को सह रही हैं सुबहशाम की दो रोटियों और रात के आश्रय के लिए. वे डरपोक हैं. समाज से डरती हैं, संस्कारों से डरती हैं, इसीलिए उन्होंने जिंदगी से समझौता कर लिया है.

सुना था, इतनी असीम सहनशक्ति व धैर्य केवल पृथ्वी के पास ही है पर मेरे सामने तो मिसेज राजीव असीम सहनशीलता का साक्षात प्रमाण है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें