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बजट में दशक की उपलब्धियां

वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने 15वीं लोकसभा का आखिरी बजट अंतरिम बजट के रूप में पेश किया. शोरशराबे के बीच वित्तमंत्री को जब भी अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनानी होतीं तो वे जोर से अपनी पंक्ति पूरी करते या एक ही वाक्य को दोहराते. उन की पूरी कोशिश थी कि उन का अंतरिम बजट चुनाव में उन के लिए फायदे वाला हो लेकिन उन का यह प्रयास बहुत सफल होता हुआ नजर नहीं आता है. उन्होंने महंगाई रोकने की बात नहीं की, आदमी की बुनियादी जरूरत की वस्तुओं की कीमतें कम हों, इस पर चर्चा नहीं की. फोकस सिर्फ इस बात पर रहा कि सरकार ने 10 साल यानी यूपीए सरकार के 2 कार्यकाल में किस तरह से आम आदमी को मजबूत बनाने की कोशिश की है.

उन्होंने कहा कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने अपने लगातार 2 कार्यकाल के शासनकाल में 14 करोड़ से अधिक लोगों को गरीबी की रेखा से बाहर निकाला है. इधर, अकेले दिल्ली में लाखों लोग आज भी सराय में सर्द रातें बिता रहे हैं. उन की संख्या घटी नहीं, बढ़ी है. ऐसे में वित्त मंत्रीजी अपना आंकड़ा कहां से लाए? संप्रग ने सामाजिक क्षेत्र, खासकर शिक्षा, स्वास्थ्य तथा ग्रामीण विकास पर 1 दशक में व्यय को 1 लाख 33 करोड़ रुपए से बढ़ा कर 5 लाख 56 करोड़ रुपए किया है लेकिन इस का फायदा क्या उसी स्तर पर हुआ है, इस का आंकलन कभी नहीं किया गया. पैसे का आवंटन ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्वपूर्ण यह देखना भी है कि पैसे का सही इस्तेमाल हुआ है, संप्रग सरकार ने यह नहीं किया.

 

गरीबों का एक और कुनबा

सरकार ने आर्थिक आधार पर समाज को बांटने के लिए कुछ रेखाएं तय की थीं. उन में गरीबी की रेखा के ऊपर, गरीबी की रेखा पर अथवा गरीबी की रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले लोग हैं. इस चक्की में आम आदमी को पीसते हुए सरकार आंकड़ों का खेल खेलती है और अपनी उपलब्धियों का बखान करती है. अब एक और रेखा की बात हो रही है और इस रेखा का नाम है ‘अधिकारिता रेखा’ यानी ऐंपावरमैंट रेखा.

इस रेखा में उन लोगों को रखा गया है जो गरीबी रेखा से मामूली ऊपर हैं और जिन्हें भोजन, बिजली, पानी, घर, शौचालय, स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा जैसी आवश्यक सुविधाएं मिल रही हैं. हाल ही में आए सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 2022 तक देश की 36 फीसदी आबादी इस रेखा के नीचे जीवनयापन कर रही होगी. यह सर्वेक्षण मैककिंसी ऐंड कंपनी ने किया है.

रिपोर्ट के अनुसार, अगले 8 वर्ष में भी देश की 12 प्रतिशत आबादी गरीबी की रेखा के नीचे होगी. गरीबी की रेखा का सरकारी मतलब है व्यक्ति की प्रतिदिन की आय 32 रुपए है. इस से कम आय वाले लोग गरीबी की रेखा से नीचे हैं और सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2022 तक हमारी 1 प्रतिशत से अधिक आबादी गरीबी रेखा से नीचे होगी. अधिकारिता की रेखा से नीचे इस समय 50 प्रतिशत से अधिक की आबादी को बताया गया है.

यह रेखा डरावनी है और इसे देख कर स्वच्छ श्वेतवस्त्र पहने हमारे नीति निर्धारकों को शर्म आनी चाहिए. लेकिन शर्म आने की तो उन की नैतिकता ही खत्म हो चुकी है और जब यह स्थिति आती है तो इंसान हैवान बन जाता है. हमारे यहां इस नैतिकता के बिना ही बड़ी तादाद में लोग जनता के भाग्यविधाता बने हैं और जब तक उन की नैतिकता नहीं जागती, गरीबों के कुनबों की नई रेखाएं खिंचती जाएंगी.

 

अंतरिम बजट ने बाजार की सुस्ती तोड़ी

शेयर बाजार में सुस्ती के माहौल के बीच औद्योगिक उत्पाद के कमजोर आंकड़े आए लेकिन वित्तमंत्री पी चिदंबरम के 17 फरवरी को अंतरिम बजट पेश करने के बाद बाजार में रौनक लौट आई. बजट के दिन हालांकि बाजार में उत्साह का माहौल नहीं था लेकिन बाजार की सुस्ती को बे्रक लग चुका था और बाजार में गिरावट थमी व सूचकांक तेजी पर बंद हुआ. यही स्थिति अगले दिन भी रही और सूचकांक ने 170 अंक की छलांग लगाई. बजट के बाद तीसरे कारोबारी दिवस को तो बाजार 4 सप्ताह के उच्चतम स्तर पर बंद हुआ.

बाजार की इस बढ़त को अगले सत्र में मामूली झटका लगा और मुनाफा वसूली के कारण 3 दिन की तेजी मामूली गिरावट के साथ थम गई. लेकिन सप्ताह का आखिरी सत्र शुरुआत से ही तेजी के साथ खुला और सूचकांक 167 अंक की छलांग लगाते हुए बाजार 21 हजार अंक के मनोवैज्ञानिक स्तर की तरफ बढ़ता दिखा.

संसद के अनिश्चितकाल के लिए स्थगित होने के बाद नई सरकार के गठन तक कोई बड़े फैसले नहीं लिए जा सकते और आचारसंहिता लागू होने के कारण किसी सरकारी उपाय की संभावना नहीं है, इसलिए बाजार की चाल अब बहुतकुछ निवेशकों के उत्साह पर निर्भर करेगी.

 

भारत भूमि युगे युगे

बाल हिंदू परिषद
बात वाकई नपीतुली और स्वयंसिद्ध है कि एक जमाने में लोग ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करना शान और संपन्नता की बात समझते थे. नई पीढ़ी का हिंदू, बच्चों की भीड़ से डरता है. अब तो एक बच्चा भी ‘प्लान’ कर पैदा किया जाता है. 
विश्व हिंदू परिषद के मुखिया अशोक सिंघल ने हिंदुओं को मुफ्त मशविरा दिया है कि हर दंपती कम से कम 5 बच्चे पैदा करे. इस बात से हिंदुओं के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी. उलटे, खुद सिंघल जेडीयू के के सी त्यागी जैसे नेताओं के निशाने पर आ गए कि पहले सिंघल को शादी कर यह नेक काम करना चाहिए था और उन के प्रिय शिष्य नरेंद्र मोदी की भी दूसरी शादी करवा कर इतने ही बच्चे पैदा करवाने चाहिए थे. इस के बाद बच्चों की पैदाइश पर व्याख्यान देते तो बात में दम रहता. 
 
लौट के बुद्धू घर को आए
बिहार की राजनीति में एक म्यान में कई तलवारें साथ दिखती रही थीं पर लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान भी भगवा खेमे में जा मिले जिस की वजह वजूद की लड़ाई है. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि अब पासवान के पास खोने को कुछ नहीं बचा है. उन की जमीन व दौड़ दोनों खत्म हो चुके हैं. वे कहीं भी जाएं एक से दो नहीं हो सकते. 
दरअसल, पासवान सिद्धांतहीन राजनीति करने का खामियाजा भुगत रहे हैं. दलित समुदाय ने कभी उन्हें भी मायावती की तरह हाथोंहाथ लिया था पर वे खुद ही पहले एनडीए और फिर यूपीए के हाथों बहुमत को भुनाते इधरउधर होते रहे तो इसे कैरियर का उत्तरार्द्ध कहने में हर्ज नहीं.
 
अरविंद की मेधावी उम्मीदवार
सपनों में भी आंदोलन करती रहने वाली समाजसेवी और ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ की मुखिया मेधा पाटकर भी ‘आम आदमी पार्टी’ से जुड़ कर मुंबई दक्षिण सीट से चुनाव लड़ेंगी, यह खबर अच्छी है, क्योंकि ‘आप’ और अरविंद केजरीवाल को एक अदद आंदोलन विशेषज्ञ की जरूरत थी जो गलीकूचों से ले कर जनपथ, रामलीला मैदानों और संसद तक में सनाका खींचने की योग्यता रखता हो. 
मेधा पाटकर इन तमाम पैमानों पर खरी उतरती हैं. ‘आप’ के ब्रैंडेड व्यक्तित्वों में उन का नाम भी शुमार हो गया है.  उम्मीद है मेधा जीतीं तो राजनेताओं से सारे हिसाब वे चुकता कर लेंगी जो उन्हें विदेशी एजेंट, ड्रामेबाज और न जाने क्याक्या कहा करते रहे हैं.
 
ठहाकों का दर्द
टैलीविजन कार्यक्रमों में गला फाड़ कर हंसतेहंसाते रहने वाले क्रिकेटर और भाजपा सांसद नवजोत सिंह सिद्धू के सीने में एक दर्द छिपा था जिसे उन्होंने उजागर कर ही दिया कि कल तक जो प्रकाश सिंह बादल उन्हें सगा बेटा मानते थे वे अब सौतेला बरताव करने लगे हैं और अमृतसर सीट से मुझे लड़ाने में उन की दिलचस्पी नहीं तो मैं भी कोई भिखारी नहीं. 
सूफियाना दर्शन के जानकार सिद्धू का दिल शायद भूल गया कि सारी दुनिया भिखारी है, देने वाला तो एक ही है-ऊपर वाला और नीचे नरेंद्र मोदी, जिन की शरण में जाएं तो किस की मजाल कि ठहाकों के मालिक को यों रोंआसा होने दें. वैसे भी राजनीति में कोई किसी का सगासौतेला नहीं होता. सारी लड़ाई पैसों और वोटों की होती है.

औरतों की आजादी में कानून व्यवस्था की भूमिका अहम- अनिला सिंह

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में न सिर्फ महिलाओं के खिलाफ अपराध चरम पर है बल्कि सियासत में भी उन्हें हाशिए पर रखा गया है. ऐसे में अखिल भारतीय जाट महासभा का अनिला सिंह को उपाध्यक्ष बनाना कई मानों में दिलचस्प और खास है. कैसे, इस के लिए शैलेंद्र ने उन से बातचीत की.  पश्चिमी उत्तर प्रदेश को आर्थिक और सामाजिक रूप से राज्य का सब से अहम हिस्सा माना जाता है. लेकिन पिछले कुछ समय से प्रदेश का यह खुशहाल हिस्सा कई तरह की परेशानियों में घिर गया है. औरतों पर पाबंदी, औनर किलिंग, सांप्रदायिक तनाव और खराब कानूनव्यवस्था ने यहां के सामाजिक ढांचे को गहरी चोट पहुंचाई है.
महिला राजनीति के हिसाब से देखें तो यह क्षेत्र आगे नहीं रहा है. हालांकि अब यहां की सोच बदल रही है. अखिल भारतीय जाट महासभा ने मुजफ्फरनगर की रहने वाली अनिला सिंह को उपाध्यक्ष बनाया. क्षेत्र के लोग चाहते हैं कि वे अमरोहा संसदीय सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ें. इस संबंध में अनिला सिंह के साथ एक खास बातचीत हुई. पेश हैं कुछ अंश :
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में महिला राजनीति हाशिए पर रहती है. ऐसे में आप को लोग अमरोहा से चुनाव लड़ाने के प्रयास में क्यों हैं?
मेरा नाम रातोंरात सामने नहीं आया है. मैं पिछले 6-7 सालों से अमरोहा और आसपास के क्षेत्रों में काम कर रही हूं. मेरा अपना अंत्योदय फाउंडेशन है. इस के जरिए मैं गरीब और कम पढे़लिखे लोगों के बीच काम कर रही हूं. इन सभी को सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने, उस की जानकारी देने और जरूरत पड़ने पर मदद देने के लिए काम करती रही हूं. कई होनहार बच्चों की फीस दे कर उन को आगे बढ़ाने में सहारा दिया. विधवा पैंशन, वृद्धावस्था पैंशन दिलाने का काम भी किया है. मेरा क्षेत्र के लोगों से वादा है कि अमरोहा को आम फल पट्टी के रूप में विकसित करने का काम करूंगी.
अमरोहा के राजनीतिक हालात कैसे हैं?
अमरोहा में करीब 16 लाख वोटर हैं.5 विधानसभा सीटें हैं. इन सभी पर समाजवादी पार्टी का कब्जा है.  समाजवादी पार्टी की तरफ से विधायक से मंत्री बने नेता की पत्नी लोकसभा का टिकट हासिल कर चुकी हैं. क्षेत्र के लोग चाहते हैं कि मैं उन का मुकाबला करूं. अमरोहा के हालात बाकी पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे ही हैं. मुजफ्फरनगर दंगों के बाद अखिलेश सरकार के प्रति दोनों ही समुदायों में नाराजगी फैली हुई है. कानून व्यवस्था की खराब हालत से लोग परेशान हैं.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ अपराध चरम पर रहा है. इस की क्या वजह आप को लगती है?
यहां का एक तबका पैसे वाला रहा है. पहले वह खेतीकिसानी से पैसे वाला था. गन्ने की खेती इस क्षेत्र के लोगों के लिए सोना थी. कुछ सालों से गन्ने की खेती उतनी मुनाफे की नहीं रही है. दिल्ली और उस से लगे एनसीआर क्षेत्र में जमीन के अधिग्रहण से किसानों को पैसा मिला. शहरों का विकास हुआ तो लोगों की जमीन ही सोना बन गई. ऐसे तमाम लोग रातोंरात पैसे वाले हो गए. जिन की जमीन बिकी इन्हीं में से बहुत सारे लोग शराब और दूसरी बुराइयों में फंस कर अपराध की दिशा में बढ़ गए. यहां की औरतें खेत में काम करने जाती हैं. शौच करने भी उन को खेतों में जाना होता है. ऐसे में वे अपराधियों का आसानी से निशाना बन जाती हैं. अपराधीतत्त्व चेन स्नेचिंग और लूटपाट कर के अपनी जरूरतें पूरी करते हैं.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश खाप पंचायतों के फैसलों, खासकर औनर किलिंग, को ले कर बदनाम रहा है. इस की क्या वजह है?
औनर किलिंग का मुद्दा लड़कियों की शादी की आजादी से जुड़ा है. समाज में हर जगह ऐसे ही हालात हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश का बड़ा हिस्सा हरियाणा से लगा है. वहां का समाज इस को ले कर बहुत सख्त है. उस का कुछ असर इधर भी दिखता है. औरतों की आजादी में कानून व्यवस्था का अहम रोल होता है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ ज्यादा हिंसा होने के चलते मांबाप अपनी लड़कियों को बाहर आनेजाने, मोबाइल फोन रखने, शहरों जैसे कपडे़ पहनने से मना करते हैं. उन को लगता है कि ऐसा करने से वे ज्यादा सुरक्षित रह सकती हैं. अगर कानून व्यवस्था की हालत में सुधार हो तो बाकी प्रदेश की तरह यहां की लड़कियों को भी ज्यादा आजादी हासिल हो सकेगी. धीरेधीरे हालात बदल रहे हैं.

मृत्युदंड पर सियासत

बीते दिनों मृत्युदंड से जुड़ी 2 बड़ी खबरें सुर्खियों में रहीं. पहली यह कि दिल्ली की द्वारका कोर्ट ने छावला से अगवा की गई लड़की के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के मामले के 3 दोषियों रवि, राहुल और विनोद को मृत्युदंड की सजा सुनाई है. कोर्ट ने 13 फरवरी को तीनों को दोषी ठहराया था जबकि फैसला 19 फरवरी को आया.
दूसरी खबर पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या से जुड़ी है. सुप्रीम कोर्ट ने 18 फरवरी को राजीव गांधी के 3 हत्यारे मुरुगन, संथन और पेरारिवलन की फांसी की सजा को उम्रकैद में तबदील कर दिया. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद तमिलनाडु सरकार ने दोषियों को रिहाई देने का फैसला किया लेकिन केंद्र सरकार की दाखिल अर्जी पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इन कैदियों की रिहाई पर रोक लगा दी. 
बहरहाल, मृत्युदंड को ले कर उठे इन दोनों मुद्दों पर गौर करने की जरूरत है. वोट की राजनीति के लिए कश्मीर से कन्याकुमारी तक केंद्रीय सरकार समेत सभी राजनीतिक दल देवेंद्र पाल सिंह भुल्लर को और राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी पर चढ़ाए जाने को ले कर जो रवैया अख्तियार किए हुए हैं उसे देख कर देश के आम आदमी के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या हमारे राजनीतिज्ञ अपने राजनीतिक हितों को हासिल करने की धुन में इस हद तक नीचे गिर गए हैं कि उन्हें अमन, शांति व कानून व्यवस्था की भी चिंता नहीं है? क्या वे कुरसी की दौड़ में देश के संविधान की मूल भावना को भी कुरबान करने पर आमादा हैं? 
 
मखौल न बन जाए मृत्युदंड
जब भीमराव अंबेडकर जैसे देश के प्रबुद्ध दिग्गजों ने संविधान का मसविदा तैयार किया था तो उन्होंने सपने में भी इस बात की कल्पना नहीं? की होगी कि देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किसी मुजरिम की मौत की सजा पर मुहर लगाए जाने के बाद भी संविधान के क्षमायाचिका के प्रावधान को सरकार के गलियारों में निहित राजनीतिक हितों की सिद्धि के लिए बरसों तक इस कदर भटकाया जाएगा कि मृत्युदंड एक मखौल बन कर रह जाएगा. 
राजनीतिक दांवपेंच से इतर कई प्रबुद्ध लोग यह सवाल भी उठाने लगे हैं कि क्या किसी सजायाफ्ता मुजरिम को मृत्युदंड देना मानवता पर एक बदनुमा दाग नहीं है? क्या हमें अपने देश में मृत्युदंड को समाप्त कर के इसे ऐसे आजन्म कारावास में परिवर्तित नहीं कर देना चाहिए कि मुजरिम को अपनी शेष पूरी जिंदगी जेल में बितानी पड़े?
अंगरेजों ने 1860 में इंडियन पीनल कोड में मृत्युदंड का प्रावधान शामिल किया था. वे भी इसे अपने कानून की किताबों से निकाल कर इतिहास के कूड़ेदान में फेंक चुके हैं, लेकिन हम आज तक लकीर के फकीर बने हुए हैं. इंगलैंड ही नहीं, दुनिया के ज्यादातर देश मृत्युदंड को यह दलील दे कर अलविदा कह चुके हैं कि यह आज के सभ्य समाज के विचारों व मूल्यों के खिलाफ है. 1991-2010 के दौरान केवल 23 देशों ने पिछले साल अपने यहां मुजरिमों को फांसी पर चढ़ाया था, जबकि 2005 में यह सजा केवल 22 देशों में ही कार्यान्वित की गई थी.
 
दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत 
कुछ वर्ष पहले अफ्रीका का गैबों जैसा एक छोटा देश अपने यहां मौत की सजा पर पाबंदी लगा चुका है, जबकि मंगोलिया के राष्ट्रपति ने इस अमानवीय सजा पर स्थायी प्रतिबंध लगा दिया है और वहां सभी कैदियों की मौत की सजा को आजीवन कारावास में तबदील कर दिया गया है. 
एमनैस्टी इंटरनैशनल की एक रिपोर्ट के मुताबिक अब तक दुनिया के दोतिहाई से भी अधिक देश इस अमानवीय सजा को समाप्त कर चुके हैं. इन में से 16 देशों ने इसे सभी अपराधों के लिए समाप्त कर दिया है, जबकि 9 देशों ने अनेक अपराधों को इस सजा के दायरे से बाहर कर दिया है और इसे केवल कुछ खास व असामान्य अपराधों तक ही सीमित रखा है. 
संयुक्त राष्ट्रसंघ समयसमय पर प्रस्ताव पारित कर के अपने सदस्य देशों से इस अमानवीय सजा को समाप्त करने की अपील करता रहा है. हालांकि 2007 में भारत ने इस प्रस्ताव के विरोध में मतदान किया था फिर भी व्यवहारिक तौर पर भारत में भी मृत्युदंड एक अपवाद बन कर ही रह गया है. 2004 में धनंजय चटर्जी के बाद 2012 में अजमल आमिर कसाब को और 2013 में अफजल गुरू को फांसी पर लटकाया गया.
 
मृत्युदंड का विरोध
असल में मौत की सजा हमेशा से ही हमारी न्यायिक व्यवस्था का अंग रही है. जैसाकि हम पहले उल्लेख कर चुके हैं, इंडियन पीनल कोड की धारा 367 के अनुसार हत्या के हरेक मुजरिम के लिए मृत्युदंड का प्रावधान रखा गया था और किसी भी व्यक्ति को इस का अपवाद नहीं माना जा सकता था. लेकिन, दिलचस्प बात यह है कि अंगरेजों के जमाने से ही कानून के इस प्रावधान का विरोध होता रहा है. 1939 में लेजिस्लेटिव एसेंबली के एक सदस्य गया प्रसाद सिंह ने देश से मौत की सजा समाप्त करने के लिए एसेंबली में एक बिल पेश किया था, लेकिन यह बिल पास नहीं हो पाया था.  
1947 व 1949 के बीच भारतीय संविधान का प्रारूप तैयार करने के दौरान भी कई सदस्यों ने मृत्युदंड को समाप्त करने की बात उठाई थी, लेकिन ज्यादातर सदस्य इसे संविधान में रखने के पक्ष में थे. 1958 में राज्यसभा के सदस्य व फिल्म अभिनेता पृथ्वीराज कपूर और 1962 में लोकसभा के सदस्य रघुनाथ सिंह ने भी इस अमानवीय कानून के खिलाफ आवाज उठाई थी.
संसद के उक्त सदस्यों के बाद भी मौत की सजा का विरोध होता रहा, जिस के फलस्वरूप 1974 में एक नया पीनल कोड लाया गया, जिस के तहत इस पुरानी धारणा को समाप्त कर दिया गया कि हत्या के सभी अपराधियों को फांसी की सजा दी जाए. इस के विपरीत यह नया मानवीय कानून लागू किया गया कि मौत की सजा केवल असाधारण परिस्थितियों में ही सुनाई जाए. इस की वजह से 1975 व 1991 के बीच केवल 40 लोगों को ही फांसी लगाई गई. 
देश के आजादी हासिल करने से ले कर आज तक फांसी की सजा से कई विवाद जुड़े रहे हैं और सर्वोच्च न्यायालय के इस समस्या से संबंधित फैसलों का उल्लेख यहां करना जरूरी है. पहला मामला जगमोहन सिंह के केस से जुड़ा हुआ है, जिसे मृत्युदंड की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने यह कह कर इस दलील को खारिज कर दिया कि संविधान के अनुच्छेद 21 व 72 से यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि मौत की सजा अनुचित या सार्वजनिक हित के खिलाफ है. उसी साल लोगों की आम राय को ध्यान में रख कर नया पीनल कोड लाया गया, जिस में मौत की सजा को एक सामान्य कानूनी प्रावधान के बजाय अपवाद का दरजा दे दिया गया.
 
सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका
उक्त फैसले के बाद 1980 में बचन सिंह के केस में सर्वोच्च न्यायालय ने मौत की सजा की कानूनी वैधता को तो फिर से स्वीकार किया लेकिन इस के साथ ही उस ने यह भी स्पष्ट किया कि ‘हत्या के अपराधियों के लिए आजीवन कारावास एक सामान्य नियम होना चाहिए और फांसी की सजा केवल कुछ अपवादों में ही सुनाई जानी चाहिए.’ इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने मौत की सजा के लिए ‘रेयरैस्ट औफ द रेयर’ कथन का पहली बार इस्तेमाल किया और आज जब भी कोई अदालत फांसी की सजा सुनाती है तो वह अपने फैसले में इस कथन का इस्तेमाल करती आ रही है. 
इस के बाद मच्छी सिंह नामक अपराधी के केस में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ‘रेयरैस्ट औफ द रेयर’ कथन की विस्तार से व्याख्या करते हुए कहा कि यह निर्धारित करने के लिए कि कोई मामला फांसी की सजा के दायरे में आता है या नहीं, इन बातों पर गौर करना जरूरी है. जैसे हत्या किस प्रकार की गई है? हत्या का मकसद क्या था? अपराध की समाजविरोधी प्रकृति, हत्या के लिए अपराधी किस हद तक गया? और हत्या के शिकार व्यक्ति का व्यक्तित्व कैसा था आदि.
 
मृत्युदंड का मनोविज्ञान
फांसी की सजा के पक्ष में अकसर यह दलील दी जाती है कि इस से भावी अपराधियों के मन में एक भय की भावना पैदा होती है, जिस की वजह से वे ऐसा घिनौना अपराध करने से बचते हैं और इस प्रकार समाज अपनेआप को इन अपराधियों से सुरक्षित बनाने में कामयाब होता है. 
?दूसरी बात यह है कि इस अपराध के शिकार व्यक्ति के रिश्तेदारों को उस के फांसी पर लटकाए जाने से संतोष मिलता है. यह बात आतंकी हमलों के शिकार लोगों के परिवारों पर ज्यादा लागू होती है.  
मृत्युदंड के समर्थकों का यह भी कहना है कि अपराधी को फांसी की जगह आजीवन कारावास की सजा देने पर राज्य को इन अपराधियों पर एक बड़ी रकम खर्च करनी पड़ती है, जिसे उन्हें फांसी दे कर बचाया जा सकता है. अजमल आमिर कसाब की बात करें तो कसाब की कानूनी कार्यवाही और देखरेख में तकरीबन 29.5 करोड़ रुपए खर्च किए गए.
 
आंख के बदले आंख
आज सभ्य दुनिया सजा देने के इस आदिम तरीके के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने लगी है. गांधीजी ने कहा था कि हमें अपराधी के अपराध से नफरत करनी चाहिए, न कि स्वयं अपराधी से. सभ्य समाज में उसे अपने अपराध पर पछतावा करने और अपनेआप को सुधारने का एक मौका अवश्य दिया जाना चाहिए. इसी भावना को जाहिर करते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘आंख के बदले आंख के आदिम कानून को लागू किया जाए तो फिर तो यह पूरी दुनिया अंधी हो जाएगी.’’
मृत्युदंड को समाप्त करने के पक्ष में सब से बड़ी दलील यह भी दी जाती है कि चूंकि राज्य किसी को जीवन दे नहीं सकता, इसलिए उसे किसी का जीवन लेने का अधिकार नहीं है.
 
बेगुनाह को फांसी तो नहीं 
यह बात केवल कल्पना तक ही सीमित नहीं है. अमेरिका में ऐसे कितने ही मामले सामने आए हैं जब उस देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उन लोगों की सजा की पुष्टि के बाद नए सबूतों का रहस्योद्घाटन हुआ, जिस के आधार पर अपराधियों को रिहा करना पड़ा. 2-3 मामले ऐसे भी हैं, जब इन अपराधियों की बेगुनाही उन्हें फांसी दिए जाने के बाद साबित हुई, लेकिन वह बेगुनाह व्यक्ति तो तब तक अपनी जान से हाथ धो बैठा था.
अमेरिका के ‘मृत्युदंड केंद्र’ के अनुसार 1973 से अब तक 138 अपराधियों को निर्दोष साबित किया जा सका है, इस प्रकार उन्हें मौत की सजा से बचाया जा सका है. विज्ञान की प्रगति के साथसाथ डीएनए परीक्षण जैसे आधुनिक तरीके पहले उपलब्ध नहीं थे और इसी वजह से अपराधियों का गुनाह पूरी तरह से साबित हुए बिना ही कई बेगुनाह लोगों को फांसी पर लटका दिया जाता था. 
अमेरिका का हैंक स्किनर ऐसा ही एक तथाकथित अपराधी था, जिस की डीएनए परीक्षण की मांग पूरी होने में 10 साल लग गए. अमेरिकी न्यायालय अकसर अपराधी की हर बात को ‘बचाव का बहाना’ मान कर नजरअंदाज करते आए हैं और अकसर उसे ऐसी बेचारगी की स्थिति में पहुंचा देते हैं कि उस के बचने के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं. 
हारवर्ड ला स्कूल के प्रोफैसर एलेन डेरशोवित्ज ने न्यायालय के इस रुख की कड़ी आलोचना करते हुए कहा है, ‘‘अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय का फैसला केवल इसी मामले में अंतिम कहा जा सकता है कि उसे बदला नहीं जा सकता. अगर किसी व्यक्ति को अपनी पत्नी की हत्या करने के अपराध में मौत की सजा दे दी गई है और यह सजा सुनाई जाने के बाद वह व्यक्ति किसी दिन अपनी उसी पत्नी के साथ अदालत में हाजिर हो जाए, जिस की हत्या के लिए उसे मौत की सजा दी जाने वाली है तो क्या फिर भी सर्वोच्च न्यायालय अपने फैसले पर फिर से विचार नहीं करेगा?’’
हमारे यहां तो किसी निर्दोष व्यक्ति को फांसी पर चढ़ाए जाने की संभावना और भी ज्यादा है, क्योंकि हमारी न्याय प्रणाली बहुत महंगी है और अगर कोई पैसे वाला व्यक्ति किसी गरीब आदमी को सबक सिखाने के लिए उस के खिलाफ खरीदे हुए प्रत्यक्षदर्शी गवाह पेश कर दे तो फिर तो कोई भी उस निरीह इंसान को फांसी के फंदे से नहीं बचा पाएगा.
सुप्रसिद्ध लेखिका हेलेन प्रिजीन के शब्द, ‘‘अगर हम यह मानते हैं कि हमारे समाज में किसी को हत्या करने की अनुमति नहीं दी जा सकती तो यह बात सभी पर समान रूप से लागू होनी चाहिए. ऐसा नहीं हो सकता कि राज्य व्यक्ति को हत्या करने से रोकता रहे और वह स्वयं कानून के नाम पर लोगों की हत्या करता रहे,’’ सर्वथा सही हैं. 
आज 21वीं सदी में विज्ञान जब मनुष्य की जिंदगी को लंबी बनाने के नएनए नुसखे ईजाद कर रहा है तो फिर हम अपनी अदालतों को सजा के तौर पर किसी आदमी की जिंदगी छोटी करने की अनुमति कैसे दे सकते हैं.

पिछलग्गू बन रहे भाजपा के बड़े नेता

कल तक भाजपा के प्रमुख और अग्रिम पंक्ति के नेता आज नरेंद्र मोदी के आगेपीछे घूमते नजर आ रहे हैं. ज्योंज्यों चुनाव प्रचार चरम पर पहुंच रहा है त्योंत्यों पार्टी के ये नेता मोदी के सामने चाकरों से नजर आ रहे हैं. मोदी के इस प्रचार अभियान ने क्यों और कैसे इन वरिष्ठ नेताओं को हाशिए पर ला पटका है, विश्लेषण कर रहे हैं शैलेंद्र सिंह.
लोकसभा चुनाव के लिए भारतीय जनता पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के प्रचार अभियान ने पार्टी के नेताओं और संस्थापकों तक को हाशिए पर कर दिया है. पार्टी के चुनाव निशान कमल को बदला नहीं जा सकता वरना तो शायद कमल की जगह पर ‘हरहर मोदी, घरघर मोदी’ जैसा कुछ नारा आ जाता. प्रचार के दौरान प्रयोग की जा रही मोदी टोपी से ले कर मोदी पैन तक छा गए हैं. ऐसे में दूसरे नेता केवल पिछलग्गू बने ही नजर आ रहे हैं.
टीवी पर दिखाए जाने वाले सीरियलों की तरह भाजपा यानी भारतीय जनता पार्टी में भी नेताओं के रोल की कांटछांट होने लगी है. समय और टीआरपी को ध्यान में रखते हुए या तो उन को सीन से ही बाहर कर दिया जाता है या उन के रोल काट कर इतने छोटे कर दिए जाते हैं कि वे परदे पर कब आए और कब चले गए, पता ही नहीं चलता. कल तक जिन भाजपा नेताओं को पार्टी का प्रमुख चेहरा माना जाता था आज वे हाशिए पर नजर आ रहे हैं.
एक समय था जब लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, वेंकैया नायडू, रविशंकर प्रसाद, यशवंत सिंह और मुरली मनोहर जोशी का नाम हर चुनाव के दौरान जोरजोर से लिया जाता था. उन को स्टार प्रचारक मान कर हर प्रदेश में उन की मांग होती थी. उन में कुछ नेता कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे अक्खड़ स्वभाव के होते थे, जो अपनी उपेक्षा से आहत हो कर धार्मिक कहानियों के संतमहात्माओं की तरह श्राप दे कर तपस्या करने के लिए अज्ञातवास पर चले जाते थे.
पीएम से कम नहीं समझते मोदी
आगामी लोकसभा चुनावों का प्रचार जैसेजैसे आगे बढ़ रहा है वैसेवैसे भाजपा के ये बड़े नेता गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और उन के खास सिपहसालारों के सामने चाकर से नजर आने लगे हैं. भाजपा ने नरेंद्र मोदी को अपना प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाया है. नरेंद्र मोदी अभी चुनाव जीते नहीं हैं पर उन्होंने अपने को प्रधानमंत्री मानना शुरू कर दिया है.
रैलियों में उन की अकड़ और घमंड साफतौर पर देखा जा सकता है. वे विरोधियों को ललकारते हैं और अपनी पार्टी के नेताओं पर अपना नेतृत्व दिखाते हैं. उन के मंच पर किस नेता की कुरसी लगेगी, किस की नहीं, इस का फैसला उन के सिपहसालार करते हैं. रैलियों के प्रबंधन और संचालन में भाजपा के जमीन से जुड़े नेताओं की पूरी उपेक्षा की जाती है.
लोकसभा चुनावों के टिकट वितरण में भी भाजपा पर नरेंद्र मोदी के सलाहकारों की टीम भारी पड़ती दिख रही है. मोदी की टीम चाहती है कि भाजपा के बड़े नेता लोकसभा का चुनाव न लड़ें. इस में सब से पहला नाम लालकृष्ण आडवाणी का है जो गुजरात के गांधीनगर से चुनाव लड़ते हैं. दूसरा नाम मुरली मनोहर जोशी का है जो उत्तर प्रदेश की वाराणसी सीट से सांसद हैं.
मुरली मनोहर जोशी ऐसे नेताओं में हैं जो हर हालत में चुनाव जीतते हैं. 2009 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा की सब से खराब हालत थी तब भी वे वाराणसी से चुनाव जीत गए थे. इस के बाद भी इस चुनाव में उन से लोकसभा चुनाव न लड़ने को कहा गया. लेकिन आडवाणी और जोशी दोनों ही प्रमुख नेताओं ने लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला लिया है. पार्टी की तरफ से यह कहा गया कि वे लोग लोकसभा चुनाव न लड़ें, चुनाव के बाद उन को राज्यसभा में भेजा जाएगा.
दरअसल, नरेंद्र मोदी की टीम को लगता है कि अगर लोकसभा की 272 सीटें जीतने का मोदी का सपना पूरा नहीं हुआ तो पार्टी में प्रधानमंत्री पद के लिए लड़ाई नए सिरे से शुरू हो जाएगी. इस हालत में पार्टी के नंबर वन रहे नेता प्रधानमंत्री की कुरसी के सब से करीबी दावेदार हो सकते हैं. ऐसे में उन का पत्ता पहले ही साफ कर दिया जाए. जब वे लोकसभा सदस्य ही नहीं रहेंगे तो प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी नहीं बन सकेंगे. भाजपा के ये नंबर वन नेता टीम मोदी की इस चाल को अच्छी तरह समझते हैं. इसीलिए वे हर हालत में लोकसभा चुनाव लड़ने का अपना इरादा जाहिर कर चुके हैं.
अध्यक्ष पर हावी प्रभारी
लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की 80 सीटों का अपना अलग महत्त्व है. यहां पर 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को केवल 9 सीटें ही मिली थीं. भाजपा को लगता है कि वह यहां ज्यादा से ज्यादा सीटें ला सकती है. इस के लिए नरेंद्र मोदी ने अपने सब से खास अमित शाह को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनवाया. अमित शाह के प्रदेश प्रभारी बनते ही उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता कलराज मिश्र, विनय कटियार, कल्याण सिंह, ओम प्रकाश सिंह, लालजी टंडन, प्रेमलता कटियार सहित खुद प्रदेश अध्यक्ष डा. लक्ष्मीकांत वाजपेयी जैसे लोग फकत तमाशाई बन कर रह गए. जो दरबार पहले इन नेताओं के यहां लगता था अब वह अमित शाह के आसपास लगने लगा है. अमित शाह को प्रदेश प्रभारी बने 1 साल से ज्यादा का समय बीत चुका है. वे लखनऊ में नहीं रहते. अगर कभी लखनऊ में रुकना पडे़ तो सरकारी गेस्ट हाउस के बजाय होटल में रुकना पसंद करते थे.
रात रुकने के लिए दिल्ली या गुजरात वापस चले जाते थे. चुनाव के दरम्यान काम के बोझ के बढ़ने पर अमित शाह ने लखनऊ में ही एक घर लेने की बात चलाई तो पूरी भाजपा उन के लिए मकान तलाश करने लगी. आखिरकार एक भाजपा कार्यकर्ता का ही फ्लैट उन को पसंद आया. अब इस में अमित शाह कितना रहेंगे, यह वक्त बताएगा. अमित शाह की टिकट वितरण पर पूरी पकड़ है. इस कारण भाजपा का हर नेता और कार्यकर्ता उन के आसपास रहना चाहता है. कोई यह नहीं चाहता कि वह अमित शाह से दूर रहे. उत्तर प्रदेश भाजपा में कोई भी राज्य प्रभारी इस से ज्यादा ताकतवर कभी नहीं रहा. पिछले चुनाव के समय कल्याण सिंह को यह जिम्मेदारी दी गई थी. टिकट वितरण में उन की एक नहीं चली थी. भाजपा हाईकमान ने अपने मनमाने तरीके से टिकट वितरण किया. इस से नाराज हो कर कल्याण सिंह ने भाजपा छोड़ दी. वे अब वापस भाजपा में हैं.
कल्याण सिंह का रुतबा भी अमित शाह के सामने फीका पड़ गया है. भाजपा से जुड़े लोग कहते हैं कि कल्याण सिंह के बारबार पार्टी से बाहर जाने से उन की यह हालत हो गई है. पार्टी महासचिव विनय कटियार और 3 बार प्रदेश अध्यक्ष की कुरसी संभाल चुके कलराज मिश्र उपेक्षित क्यों हैं, यह बात समझ नहीं आई.
भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही, रमापतिराम त्रिपाठी जैसे लोग कब कार्यालय आते हैं कब नहीं, इस की सूचना भाजपा का मीडिया विभाग कभी नहीं देता. अमित शाह कब आते हैं, कब जाते हैं, क्या बोलते हैं, इस की औफ द रिकौर्ड और औन द रिकौर्ड दोनों ही तरह की सूचनाएं भेज दी जाती हैं. नरेंद्र मोदी के दबाव में उत्तर प्रदेश भाजपा के ये नेता कसमसा जरूर रहे हैं पर चुनाव तक चुप रहने में ही भलाई समझ रहे हैं. दबी जबान से ये लोग स्वीकार करते हैं कि अमित शाह के कद के आगे प्रदेश के तमाम नेता उपेक्षित किए जा रहे हैं.
प्रचार में बस मोदी ही मोदी
लोकसभा चुनाव में प्रचार के लिए नरेंद्र मोदी मोबाइल की कौलर ट्यून से ले कर सड़कचौराहों पर चाय की चौपाल लगाने तक का काम कर रहे हैं. मोदी टोपी, मोदी स्कार्फ, मोदी टीशर्ट, मोदी पैन, मोदी बज और मोदी नोटपैड तक दिखाई दे रहे हैं. हर जगह केवल मोदी ही मोदी है. भाजपा के किसी दूसरे नेता का प्रचारप्रसार में नाम नहीं है.
नरेंद्र मोदी अपने को ऊपर रखने के लिए भाजपा के बड़े महापुरुषों, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय के नाम को याद करने के लिए कांगे्रसी सरदार वल्लभभाई पटेल की मूर्ति लगाने का काम कर रहे हैं. ‘मोदी फौर पीएम डोनेशन’ अभियान में भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं का पूरी तरह से उपयोग तो किया जा रहा है पर किसी नेता का नाम इस के प्रचार में शामिल नहीं किया गया.
मोदी ने रैलियों की तैयारी के लिए जो टीम बनाई उस में उन के अपने खास लोग ही शामिल हैं. गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में ही वाररूम बनाया गया है. इस में 250 लोगों की एक टीम रिसर्च का काम करती है. मोदी ने अपने काम की जिम्मेदारी जिन नेताओं को दे रखी है उन में महाराष्ट्र से मंगल प्रभात लोढ़ा, हरियाणा से कैप्टन अभिमन्यु, पंजाब में अजय जामवाल, ओडिशा में धर्मेंद्र प्रधान, बिहार में सुशील कुमार मोदी और उत्तर प्रदेश में अमित शाह प्रमुख हैं. मोदी ने अपने खास लोगों को परदे के पीछे रख कर उन से काम करने के लिए कहा है. ये लोग हर लोकसभा सीट को देखसमझ रहे हैं. उन की रिपोर्ट पर ही मोदी कुछ भाजपा नेताओं को चुनाव न लड़ने की बात कह रहे हैं. मोदी का प्रचार बड़े ही सलीके से सोशल मीडिया फेसबुक, ट्वीटर और यूट्यूब पर किया जा रहा है.
मोदी सीधे धर्म की बात करने से जरूर बचते हैं पर अपनी रैली में वे उस जगह के धार्मिक मंदिर का नाम लेना नहीं भूलते. उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और बनारस में वे गोरखपुर मंदिर और काशी विश्वनाथ मंदिर जाते हैं तो ओडिशा में जगन्नाथ मंदिर की ओर हाथ कर के भीड़ से जय जगन्नाथ का नारा लगवाना नहीं भूलते हैं. मोदी की हर रैली को टीवी नैटवर्क पर लाइव दिखाने का पूरा इंतजाम होता है. मोदी की रिसर्च टीम ने देश की करीब 150 ऐसी लोकसभा सीटों का चयन किया है जहां सोशल मीडिया के जरिए ज्यादा प्रचार किया जाएगा. छोटे शहरों और कसबों तक पहुंच बनाने के लिए ‘चाय की चौपाल’ लगाने का फैसला किया गया है. मोदी जो भाषण देते हैं, उन के विषयों को तैयार करने के लिए 25 से अधिक लोगों की एक टीम काम करती है. इस के आधार पर ही नरेंद्र मोदी अपना भाषण तय करते हैं.
5 माह में मोदी पूरे देश में 78 रैली कर चुके हैं. इस चुनाव प्रचार में लगे युवाओं को रोजगार का मौका भी मिल गया है. रैली में भारी भीड़ जुटाने के लिए हर बूथ लैवल के कार्यकर्ता को कम से कम 100 लोगों को लाने का काम सौंपा जाता है. इस बहाने कार्यकर्ताओं को मोदी से जुड़ने का सीधा अवसर प्राप्त हो रहा है. वह मोदी से जुड़ाव के चलते भाजपा के पुराने नेताओं को भूल रहा है.

पंचायतों का औरतों पर जुल्म?

विजातीय प्रेम संबंध की सजा सामूहिक बलात्कार. प्रगतिशील बंगाल के एक गांव लाभपुर की एक सालिसी सभा में यही सजा सुनाई गई थी, जिस की चर्चा देशभर में है. कुछ साल पहले पाकिस्तान के मुजफ्फरगढ़ के मीरवाल गांव में भी भाई के विजातीय प्रेम संबंध की सजा बहन मुख्तारन को पंचायत ने सुनाई थी. वह भी कुछ ऐसी ही सजा थी. सामूहिक बलात्कार के बाद उस के बदन के बाकी बचे कपड़े को भी तारतार कर के देह का प्रदर्शन पूरे गांव में किया गया.

पाकिस्तान की ऐसी तालिबानी संस्कृति भारत में भी है. इस का सबूत है लाभपुर. हालांकि इस से पहले उत्तर प्रदेश के बेहमई गांव में फूलन देवी के साथ हुई घटना को भी याद कर लिया जाए. लगभग 35 साल पहले की घटना है. ठाकुरों ने मल्लाह जाति द्वारा की गई हुक्म उदूली यानी आदेश की अवहेलना की सजा फूलन देवी को सुनाई थी. सामूहिक बलात्कार और बेधड़क मारकुटाई के बाद फूलन को बाल पकड़ कर घसीटते हुए पूरे गांव में निर्वस्त्र घुमाया गया था.

अंतत: बीहड़ में बागियों के दल में जा कर उस ने आश्रय लिया. लेकिन वहां भी ठाकुरों और मल्लाह जाति के बीच पिसती रही फूलन. ठाकुर जाति के एक बागी ने फूलन को चांटा मारा. बचपन से बागी तेवर वाली फूलन को यह सहन नहीं हुआ. बागियों का सरदार मल्लाह जाति का विक्रम था. विक्रम के कहने पर ठाकुर जाति के बागी को फूलन से माफी मांगनी पड़ी. लेकिन बाजी पलट गई. विक्रम को मार कर ठाकुर जाति के बागियों ने दल पर कब्जा कर लिया. एक बार फिर से फूलन ठाकुरों के निशाने पर आई. फिर से सामूहिक बलात्कार और नंगा कर घुमाए जाने का अपमान सहना पड़ा फूलन को.

बाद में फूलन ने अपना दल बनाया और ठाकुरों को छलनी कर दिया. खुलेआम सामूहिक बलात्कार की सजा खुलेआम सामूहिक नरसंहार. ठाकुरों के खून का तिलक लगाया फूलन ने. समाज में धिक्कार का स्वर फूटा. सामूहिक नरसंहार का मामला चला फूलन पर. लेकिन बारबार सामूहिक बलात्कार का? इस का जवाब न तो पुलिस व प्रशासन के पास है और न ही न्याय व्यवस्था के पास. वर्ष 2001 में फूलन की हत्या कर दी गई.

लाभपुर की घटना

कहने को तो मुजफ्फरगढ़ और लाभपुर के बीच हजारों किलोमीटर का फासला होगा पर यह तालिबानी संक्रमण पश्चिम बंगाल के एक गांव लाभपुर में भी मौजूद है. यहां की घटना इस प्रकार है :

वीरभूम जिले के लाभपुर थानांतर्गत राजारामपुर गांव वालों ने एक आदिवासी युवती को किसी विजातीय युवक के साथ शाम को घूमते हुए देखा तो दबोच लिया. रातभर दोनों को एक पेड़ से बांध कर रखा गया. अगले दिन स्वयंभू ग्रामप्रधान बलाई माड्डी के निर्देश पर दोनों को पड़ोस के एक गांव सुबलपुर की सालिसी सभा में ले जाया गया. यहां दोनों पर 25-25 हजार रुपए का जुर्माना लगाया गया. युवती ने सभा में ही अपनी गरीबी का हवाला देते हुए 25 हजार रुपए देने में असमर्थता जताई.

इस पर बलाई माड्डी ने वहां उपस्थित गांव वालों से कहा, ‘अगर इस के परिवार ने जुर्माना अदा नहीं किया तो रातभर तुम लोग इस के साथ मस्ती  करो.’ ग्रामप्रधान के निर्देश का बाकायदा पालन हुआ. रातभर युवती के साथ गांव के 12 लोगों ने ‘मस्ती’ की और युवती के साथ यह सब करने वाले सभी उस के पिता, दादा और भाई के बराबर उम्र के थे.

युवती के साथ दबोचे गए युवक को उस के घर वाले 25 हजार रुपए अदा कर वापस ले गए थे. बताया जाता है कि हाल ही में हुए पंचायत चुनाव में भुजु हेमब्रम को सरदार यानी ग्रामप्रधान चुना गया था. लेकिन गांवभर में बलाई माड्डी का ही हुक्म चलता है.

हालांकि घटना की चौतरफा निंदा और आरोपियों को गिरफ्तार न किए जाने के कारण पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने वीरभूम के पुलिस अधीक्षक पी सुधाकर को हटा दिया.

बंगाल की सालिसी संस्कृति

देश में खाप पंचायत के बारे में बहुतकुछ लिखा व सुना जाता रहा है. उत्तर भारत में खाप संस्कृति का चलन है. बंगाल में उसी व्यवस्था का रूपांतर है सालिसी सभा.

बंगाल में यह कोई नई व्यवस्था नहीं, बल्कि सदियों पुरानी संस्कृति है. पर इस बार इस की खास चर्चा का कारण इस में सुनाई गई सजा है. अकसर सालिसी सभा में इंसानियत को शर्मसार करने वाली ऐसी भी सजाएं सुनाई जाती रही हैं. हां, लाभपुर की घटना से पहले ऐसी समानांतर न्याय व्यवस्था के बारे में देशदुनिया को शायद खबर नहीं थी.

बहुत पुरानी बात नहीं है. अप्रैल 2012 में वीरभूम, रामपुरहाट के बटतला की एक सालिसी सभा में आदिवासी युवती को विजातीय प्रेम संबंध के लिए गांवभर में नंगा घुमाने की सजा सुनाई गई थी.

ऐसा भी नहीं है कि ऐसी सजा केवल आदिवासी गांव तक ही सीमित है. कथित तौर पर इस तरह की समानांतर न्याय व्यवस्था का अस्तित्व महानगर कोलकाता में भी है. यादवपुर में प्रीमियम की रकम लेने आए एक स्थानीय एलआईसी के एजेंट ने घर पर अकेली महिला के साथ बलात्कार किया. महल्ले में सालिसी सभा बुलाई गई और आरोपी को 1 लाख रुपए जुर्माना अदा कर मामले को सुलटा दिया गया.

एक दूसरी घटना में दक्षिण कोलकाता के एक उपनगर में एक महिला टीचर द्वारा अपने पुरुष सहयोगी टीचर के साथ ब्याह को ले कर स्कूल में सालिसी सभा बुलाई गई, जिस में प्रधानाध्यापक और स्कूल प्रशासन ने दोनों टीचर्स को नौकरी से बरखास्त कर दिया.

हाल ही में उत्तर कोलकाता में मकान मालिक व किराएदार के बीच विवाद को सुलझाने के नाम पर तृणमूल के एक स्थानीय नेता ने मालिक पक्ष की ओर से किराएदार को मानसिक रूप से प्रताडि़त किया. मामला हाईकोर्ट तक गया. कोर्ट ने सालिसी सभा के लिए फटकार लगाई.

लाभपुर की घटना के 2 दिन बाद डायमंड हार्बर के काकद्वीप में एक व्यक्ति द्वारा पान चोरी किए जाने की सजा सुनाने के लिए सालिसी सभा बुलाई गई. सभा के बाद उस की जम कर पिटाई की गई. बीचबचाव करने आई पत्नी के कान काट लिए गए. इतना ही नहीं, उसे इलाज के लिए अस्पताल न जाने की भी कड़ी हिदायत दी गई.

वर्ष 2001 में हुगली जिले के पांडुआ में सालिसी सभा बुला कर एक युवती द्वारा गांव का ‘नियम’ न मानने पर सजा के तौर पर उस का ब्याह महल्ले के एक लावारिस कुत्ते से करा दिया गया.

यही नहीं, 2010 में बागनान में विजातीय विवाह की एक घटना में सालिसी सभा द्वारा 25 हजार रुपए का जुर्माना लगाया गया. राज्य में सत्ता किसी की भी हो, केशपुर, गड़वेता, नंदीग्राम, खेजुरी के लोग जुर्माना देने को अभिशप्त हैं. वाममोरचा के शासन के बाद इस के समर्थकों को गांव में लौटने व खेतीबारी करने के एवज में सत्ता पक्ष की स्थानीय समिति को जुर्माना अदा करना पड़ा.

नागरिक समिति

वाम शासन में महल्लों में नागरिक या स्थानीय या क्षेत्रीय समिति के नाम पर भी समानांतर न्याय व्यवस्था चलाने की संस्कृति रही है. राज्य में ममता बनर्जी के आने पर सत्ता परिवर्तन के बाद भी यह प्रथा कायम है. समय में बदलाव आया लेकिन पुराने जमाने की पंच प्रथा कायम रह गई. हां, रूप बदल गया है. पहले इस का प्रधान गांव का मुखिया होता था लेकिन अब राजनीतिक वर्चस्व वाली सालिसी सभा बैठती है, जहां फैसला राजनीतिक पार्टी का कोई नेता सुनाता है. ऐसी सालिसी सभा में वैधअवैध प्रेमसंबंध, पतिपत्नी के बीच रिश्ते का विवाद, संपत्ति विवाद का निबटारा होता है. पर कभीकभी राजनीतिक प्रभाव के तहत मामले का फैसला विवादित हो जाता है, जैसा कि कोलकाता के दमदम में हुआ.

दरअसल, लंबे समय से वाम शासन में वाम घटक के तमाम दल अपने क्षेत्र में सालिसी सभा के रूप में समानांतर न्याय व्यवस्था चला रहे थे. इस की वजह यह भी थी कि ज्यादातर पंचायत पर माकपा का ही कब्जा था. यहां तक कि पंचायत को सालिसी की जिम्मेदारी देने के लिए बुद्धदेब भट्टाचार्य कानून बनाने की भी तैयारी कर रहे थे. इस के लिए विधानसभा में एक विधेयक भी पेश किया गया था. लेकिन आम सहमति न बन पाने के कारण विधेयक को वापस ले लिया गया.

सत्ता से चुकने के बाद आत्ममंथन के दौरान माकपा ने माना कि गांवकसबे से ले कर शहरी नागरिक समाज के किसी मामले में पार्टी का टांग अड़ाना मतदाताओं को रास नहीं आया. सत्ता हाथ से खिसकने से पहले ही वाममोरचे को इस का इल्म हो चुका था. इसीलिए आखिरी दिनों में माकपा सहित वाममोरचा घटक पार्टियां अपने कार्यकर्ताओं को बारबार पत्र लिख कर पतिपत्नी के बीच दांपत्य कलह, मकान मालिक व किराएदार विवाद और यहां तक कि निर्माण सामग्रियों की दलाली से बचने की हिदायत देने लगी थीं.

रंग बदला, चरित्र नहीं

वर्ष 2011 में चुनाव के बाद राज्य का राजनीतिक रंग जरूर बदल गया है लेकिन वाम जमाने की यह कवायद आज भी जारी है. तृणमूल ने वाममोरचे से कोई सबक नहीं सीखा. अब भी देखा जा रहा है कि मामले को पुलिस तक जाना चाहिए या नहीं, मकान बनाने पर किस स्थानीय क्लब को कितना पैसा देना है या नहीं देना है, मकान मालिक-किराएदार के विवाद में किस के पक्ष में फैसला देना है, ये सब पार्टी के स्थानीय नेता तय करते हैं. इस के अलावा दांपत्य कलह का निबटारा, महल्ले में वैधअवैध प्रेमसंबंध का विवाद भी पार्टी वर्चस्व वाली सालिसी सभा निबटाती है.

यहां तक कि मकान बनाने के लिए बालू, सीमेंट, ईंट, गारा, गिट्टी, सरिया कहां से लेना होगा, यह भी स्थानीय पार्टी दफ्तर तय करता है. इस कवायद को ‘सिंडीकेट’ का नाम दिया गया है.

कुल मिला कर स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं है. आईना वही है, बस, चेहरे बदल गए हैं. हाल ही में अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने स्थानीय स्तर पर महल्ला समितियां बनाने की बात कही थी. बंगाल में पहले से ही महल्ला समितियां हैं और वे किस तरह अपना काम करती हैं, यह अब किसी से छिपी बात नहीं है. ऐसे में इस तरह की समानांतर न्याय व्यवस्था पर सवालिया निशान लग ही जाता है. फिर चाहे वह 2 पक्ष के बीच किसी तरह का विवाद हो या प्रेम संबंध का मामला हो.

बहरहाल, अगर महिलाओं की अस्मिता की ही बात करें तो क्या उस की स्थिति हमेशा दोयम दरजे की ही रहेगी? लाभपुर में जुर्माना की रकम अदा कर के युवक बच गया. उसे कोई सजा नहीं मिली. न ही मुख्तारन के भाई को, जिस ने सवर्ण जाति की युवती से प्रेम किया. कीमत चुकानी औरतों को पड़ती है और वह भी अपनी आबरू दे कर. ऐसा क्यों? साफ है ऐसी सजा के पीछे औरत के शरीर को भोगने की पुरुष लालसा ही काम करती है.

लेकिन सुधार बहुत बलवान होते हैं. पाकिस्तान में मुख्तारन की लंबी लड़ाई रंग लाई है. उस के कुसूरवार जेल की चक्की पीस रहे हैं. मुख्तारन का आज अपना घरपरिवार है. 

इस पूरे प्रकरण में सुकून देने वाली बात यह है कि आज समाज द्वारा प्रताडि़त और सामूहिक बलात्कार की शिकार बनी मुख्तारन को पत्नी और मां का दरजा देने वाला भी इसी समाज का पुरुष है. लेकिन फूलन को न्याय नहीं मिला. ठाकुरों के खिलाफ जिस लड़ाई को वह आजीवन अकेले लड़ती रही, उन्हीं ठाकुरों ने उसे हमेशा के लिए दिल्ली में गोली मार कर खामोश कर दिया.

बहरहाल, लाभपुर की हालिया घटना में समाज का एक बड़ा वर्ग भुक्तभोगी आदिवासी युवती के साथ है. ऐसे में उम्मीद है कि शायद इस युवती को सही माने में न्याय मिल जाएगा बशर्ते समाज व प्रशासन ईमानदार रहे.

तर्क और तथ्य

आज जनता आमतौर पर तर्क और तथ्य से कतराती है और आस्था और निष्ठा की बात करती है क्योंकि उस में न सोचविचार करना होता है न फैसलों की जिम्मेदारी लेनी होती है. बात घर की हो या घर के बाहर की, औसत जना किसी ऐसे को पकड़ लेता है जिस की बात को वह आंख और दिमाग बंद कर के स्वीकार कर सके.

घरों में यदि कोई बुजुर्ग है तो वह इस पदवी को ले लेता है. हम तो ऐसा ही करेंगे क्योंकि बाबूजी ने कह दिया, ताऊजी ने कह दिया, दादाजी ने कह दिया. कई घरों में पत्नी इस पदवी को जबरन, चीखपुकार कर के व रोधो कर हथिया लेती है. जी, पत्नी नहीं मानती, पत्नी का दिल रखना है न, घरवाली का कहना है. इन्हीं सब से तर्क और तथ्य को नाली में बहा दिया जाता है.

राजनीति में तो आजकल यह जोरों से चल रहा है. एक बड़ा वर्ग तर्क और तथ्य को भुला कर नरेंद्र मोदी को अपना आदर्श मानने पर अड़ा है. हिंदुत्व की जगह गुजरात मौडल औफ डैवलपमैंट का नारा स्वीकार कर लिया गया है. नरेंद्र मोदी कह दें कि सिकंदर पटना में आया था तो सच ही होगा. वहीं, कुछ पुराने लोग स्वार्थों के चलते सोनिया गांधी के वाक्यों को सत्यवचन मान लेते हैं. बाकी लोगों ने अपनेअपने गुरु पकड़ रखे हैं.

नए दल आमतौर पर तर्क और तथ्य पर चलते हैं क्योंकि उन की बातों पर आस्था और निष्ठा की काई जमने में देर लगती है. आम आदमी पार्टी शुरुआती दौर से गुजर रही है. उसे तर्क और तथ्य पर परखा जा रहा है. उस की एकएक बात पर सवाल उठाए जा रहे हैं.

यह अच्छी बात है पर यही फार्मूला सभी दलों पर लागू होना चाहिए. कांगे्रस और भाजपा ही नहीं, बसपा, सपा, राजद, जदयू आदि सभी दलों को भी बख्श दिया गया है और उन के कामों की समीक्षा नहीं की जा रही.

दरअसल, यह धर्म की देन है. धर्म सिखाता है कि आस्था और निष्ठा को अपनाओ, धर्म व धर्मगुरु की जांच तर्क और तथ्य स्तर पर मत करो. धर्म के तथ्य कुछ भी कहते रहें, आप की आस्था बनी रहे. तभी तो वैंडी डौनिगर की पुस्तक ‘द हिंदूज’ के खिलाफ 4 लोग अदालत पहुंच गए यानी तर्क और तथ्य को रिजैक्ट कर दिया गया जबकि किसी धर्मग्रंथ को खंगाल लें, ‘द हिंदूज’ उस के सामने सिर्फ प्रतिच्छाया लगेगी. पर धर्म में तर्क और तथ्य का स्थान है कहां?

अंधविश्वासों के कारण ही इस देश की सामाजिक ही नहीं राजनीतिक दुर्दशा हो रही है. हमारी आस्था है सड़ेगले धर्म में, सड़ीगली पार्टियों में और सलीगड़ी कू्रर आततायी सरकार में.

आधुनिक विकास की पहली सीढ़ी है तर्क और तथ्य. सुखी परिवार तर्क और तथ्य पर समृद्ध होते हैं. प्रकृति तर्क और तथ्य पर चलती है, तभी तो नियत समय पर सवेरा होता है.

फांसी की सजा

फांसी की सजा दुनिया में हजारों सालों से दी जा रही है और भारत भी इस से अछूता नहीं है. यहां हर अपराध पर फांसी की मांग की जाती है पर अदालतें क्रूरतम जुर्म के बावजूद मुजरिम को फांसी की सजा के बजाय आजन्म कारावास दे सकती हैं. अफजल गुरू जैसे इंसानियत के दुश्मनों को यदाकदा ही फांसी दी जाती है. फांसी का इंतजार कर रहे 15 अपराधियों की सजा को हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने आजन्म कारावास में बदल दिया क्योंकि उन की रहम की अर्जी राष्ट्रपति के पास 10-12 साल तक पड़ी रही थी.

सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक किया क्योंकि फांसी का इंतजार करता अपराधी कैद से भी ज्यादा मानसिक सजा भुगतता है. उस पर जो मानसिक तनाव रहता है वह वर्णित नहीं किया जा सकता. लड़ाई में मारे जाने वाले सैनिक को मौत तो मिलती है पर घंटों में, दिनों, सालों तक इंतजार नहीं करना पड़ता कि सामने वाला कब गोली चलाएगा. अपने को मारे जाने के दिन गिनने की सजा फांसी की वास्तविक सजा से भी ज्यादा दर्दनाक है और चाहे कानून की किताबों में यह बात न लिखी हो, पर वास्तविकता है.

सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला मानवीय है लेकिन दोधारी तलवार भी है. अब तक राष्ट्रपति ऐसे मामलों को लटका देते थे क्योंकि वे दया की अर्जी पर खून का निशान नहीं लगाना चाहते थे. एक राष्ट्रपति दूसरे पर टाल देता था. अब, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का मतलब है कि उसे तुरंत या तो हां कहनी होगी या ना.

यह फैसला तब होता जब देश में यह धारणा बैठ जाती कि घटना के 10-12 साल में सारी अपीलों के बाद अदालतें या तो खुद फांसी की सजा देना कम कर देतीं या राष्ट्रपति ज्यादातर मामलों में दया की याचिकाओं को स्वीकार कर लेते, तो ठीक था.

फांसी की सजा किसी भी तरह से अपराधों को कम करने में काम नहीं आती. कारावास में 15-18 साल बिताने के बाद अगर कोई बाहर आता भी है तो वह दोबारा अपराध नहीं करता. फांसी की सजा देने से अपराध भी कम नहीं होते. सदियों से फांसी की सजा सुनाई जाती रही है पर अपराधों की संख्या वैसी ही रही है. विश्व युद्धों में भारी तादाद में सैनिक मरे पर नए भरती होने वालों की कमी कभी नहीं रही. लोग मौत को, मरजी से या जबरन, हमेशा गले लगाते रहे हैं.

मौत के डर के कारण लोग अपना काम नहीं छोड़ते. गांधी परिवार में इंदिरा व राजीव की हत्या हुई पर सोनिया व राहुल राजनीति में आज भी जोखिम ले रहे हैं. दुनिया भर के पत्रकार जोखिम लेते हैं. तानाशाह देशों में जान की बाजी लगा कर सत्ता का विरोध करने वाले कुछ लोग मिल ही जाते हैं.

मौत की सजा तो केवल किताबों तक रहे, वास्तविकता में यह न दी जाए. हां, अगर अपराध जानबू?ा कर खूंखारों ने किया हो तो कारावास 10-12 साल का ही न हो कर, 70 वर्ष तक की आयु का तो हो ही.

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