बीते दिनों मृत्युदंड से जुड़ी 2 बड़ी खबरें सुर्खियों में रहीं. पहली यह कि दिल्ली की द्वारका कोर्ट ने छावला से अगवा की गई लड़की के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के मामले के 3 दोषियों रवि, राहुल और विनोद को मृत्युदंड की सजा सुनाई है. कोर्ट ने 13 फरवरी को तीनों को दोषी ठहराया था जबकि फैसला 19 फरवरी को आया.
दूसरी खबर पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या से जुड़ी है. सुप्रीम कोर्ट ने 18 फरवरी को राजीव गांधी के 3 हत्यारे मुरुगन, संथन और पेरारिवलन की फांसी की सजा को उम्रकैद में तबदील कर दिया. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद तमिलनाडु सरकार ने दोषियों को रिहाई देने का फैसला किया लेकिन केंद्र सरकार की दाखिल अर्जी पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इन कैदियों की रिहाई पर रोक लगा दी. 
बहरहाल, मृत्युदंड को ले कर उठे इन दोनों मुद्दों पर गौर करने की जरूरत है. वोट की राजनीति के लिए कश्मीर से कन्याकुमारी तक केंद्रीय सरकार समेत सभी राजनीतिक दल देवेंद्र पाल सिंह भुल्लर को और राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी पर चढ़ाए जाने को ले कर जो रवैया अख्तियार किए हुए हैं उसे देख कर देश के आम आदमी के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या हमारे राजनीतिज्ञ अपने राजनीतिक हितों को हासिल करने की धुन में इस हद तक नीचे गिर गए हैं कि उन्हें अमन, शांति व कानून व्यवस्था की भी चिंता नहीं है? क्या वे कुरसी की दौड़ में देश के संविधान की मूल भावना को भी कुरबान करने पर आमादा हैं? 
 
मखौल न बन जाए मृत्युदंड
जब भीमराव अंबेडकर जैसे देश के प्रबुद्ध दिग्गजों ने संविधान का मसविदा तैयार किया था तो उन्होंने सपने में भी इस बात की कल्पना नहीं? की होगी कि देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किसी मुजरिम की मौत की सजा पर मुहर लगाए जाने के बाद भी संविधान के क्षमायाचिका के प्रावधान को सरकार के गलियारों में निहित राजनीतिक हितों की सिद्धि के लिए बरसों तक इस कदर भटकाया जाएगा कि मृत्युदंड एक मखौल बन कर रह जाएगा. 
राजनीतिक दांवपेंच से इतर कई प्रबुद्ध लोग यह सवाल भी उठाने लगे हैं कि क्या किसी सजायाफ्ता मुजरिम को मृत्युदंड देना मानवता पर एक बदनुमा दाग नहीं है? क्या हमें अपने देश में मृत्युदंड को समाप्त कर के इसे ऐसे आजन्म कारावास में परिवर्तित नहीं कर देना चाहिए कि मुजरिम को अपनी शेष पूरी जिंदगी जेल में बितानी पड़े?
अंगरेजों ने 1860 में इंडियन पीनल कोड में मृत्युदंड का प्रावधान शामिल किया था. वे भी इसे अपने कानून की किताबों से निकाल कर इतिहास के कूड़ेदान में फेंक चुके हैं, लेकिन हम आज तक लकीर के फकीर बने हुए हैं. इंगलैंड ही नहीं, दुनिया के ज्यादातर देश मृत्युदंड को यह दलील दे कर अलविदा कह चुके हैं कि यह आज के सभ्य समाज के विचारों व मूल्यों के खिलाफ है. 1991-2010 के दौरान केवल 23 देशों ने पिछले साल अपने यहां मुजरिमों को फांसी पर चढ़ाया था, जबकि 2005 में यह सजा केवल 22 देशों में ही कार्यान्वित की गई थी.
 
दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत 
कुछ वर्ष पहले अफ्रीका का गैबों जैसा एक छोटा देश अपने यहां मौत की सजा पर पाबंदी लगा चुका है, जबकि मंगोलिया के राष्ट्रपति ने इस अमानवीय सजा पर स्थायी प्रतिबंध लगा दिया है और वहां सभी कैदियों की मौत की सजा को आजीवन कारावास में तबदील कर दिया गया है. 
एमनैस्टी इंटरनैशनल की एक रिपोर्ट के मुताबिक अब तक दुनिया के दोतिहाई से भी अधिक देश इस अमानवीय सजा को समाप्त कर चुके हैं. इन में से 16 देशों ने इसे सभी अपराधों के लिए समाप्त कर दिया है, जबकि 9 देशों ने अनेक अपराधों को इस सजा के दायरे से बाहर कर दिया है और इसे केवल कुछ खास व असामान्य अपराधों तक ही सीमित रखा है. 
संयुक्त राष्ट्रसंघ समयसमय पर प्रस्ताव पारित कर के अपने सदस्य देशों से इस अमानवीय सजा को समाप्त करने की अपील करता रहा है. हालांकि 2007 में भारत ने इस प्रस्ताव के विरोध में मतदान किया था फिर भी व्यवहारिक तौर पर भारत में भी मृत्युदंड एक अपवाद बन कर ही रह गया है. 2004 में धनंजय चटर्जी के बाद 2012 में अजमल आमिर कसाब को और 2013 में अफजल गुरू को फांसी पर लटकाया गया.
 
मृत्युदंड का विरोध
असल में मौत की सजा हमेशा से ही हमारी न्यायिक व्यवस्था का अंग रही है. जैसाकि हम पहले उल्लेख कर चुके हैं, इंडियन पीनल कोड की धारा 367 के अनुसार हत्या के हरेक मुजरिम के लिए मृत्युदंड का प्रावधान रखा गया था और किसी भी व्यक्ति को इस का अपवाद नहीं माना जा सकता था. लेकिन, दिलचस्प बात यह है कि अंगरेजों के जमाने से ही कानून के इस प्रावधान का विरोध होता रहा है. 1939 में लेजिस्लेटिव एसेंबली के एक सदस्य गया प्रसाद सिंह ने देश से मौत की सजा समाप्त करने के लिए एसेंबली में एक बिल पेश किया था, लेकिन यह बिल पास नहीं हो पाया था.  
1947 व 1949 के बीच भारतीय संविधान का प्रारूप तैयार करने के दौरान भी कई सदस्यों ने मृत्युदंड को समाप्त करने की बात उठाई थी, लेकिन ज्यादातर सदस्य इसे संविधान में रखने के पक्ष में थे. 1958 में राज्यसभा के सदस्य व फिल्म अभिनेता पृथ्वीराज कपूर और 1962 में लोकसभा के सदस्य रघुनाथ सिंह ने भी इस अमानवीय कानून के खिलाफ आवाज उठाई थी.
संसद के उक्त सदस्यों के बाद भी मौत की सजा का विरोध होता रहा, जिस के फलस्वरूप 1974 में एक नया पीनल कोड लाया गया, जिस के तहत इस पुरानी धारणा को समाप्त कर दिया गया कि हत्या के सभी अपराधियों को फांसी की सजा दी जाए. इस के विपरीत यह नया मानवीय कानून लागू किया गया कि मौत की सजा केवल असाधारण परिस्थितियों में ही सुनाई जाए. इस की वजह से 1975 व 1991 के बीच केवल 40 लोगों को ही फांसी लगाई गई. 
देश के आजादी हासिल करने से ले कर आज तक फांसी की सजा से कई विवाद जुड़े रहे हैं और सर्वोच्च न्यायालय के इस समस्या से संबंधित फैसलों का उल्लेख यहां करना जरूरी है. पहला मामला जगमोहन सिंह के केस से जुड़ा हुआ है, जिसे मृत्युदंड की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने यह कह कर इस दलील को खारिज कर दिया कि संविधान के अनुच्छेद 21 व 72 से यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि मौत की सजा अनुचित या सार्वजनिक हित के खिलाफ है. उसी साल लोगों की आम राय को ध्यान में रख कर नया पीनल कोड लाया गया, जिस में मौत की सजा को एक सामान्य कानूनी प्रावधान के बजाय अपवाद का दरजा दे दिया गया.
 
सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका
उक्त फैसले के बाद 1980 में बचन सिंह के केस में सर्वोच्च न्यायालय ने मौत की सजा की कानूनी वैधता को तो फिर से स्वीकार किया लेकिन इस के साथ ही उस ने यह भी स्पष्ट किया कि ‘हत्या के अपराधियों के लिए आजीवन कारावास एक सामान्य नियम होना चाहिए और फांसी की सजा केवल कुछ अपवादों में ही सुनाई जानी चाहिए.’ इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने मौत की सजा के लिए ‘रेयरैस्ट औफ द रेयर’ कथन का पहली बार इस्तेमाल किया और आज जब भी कोई अदालत फांसी की सजा सुनाती है तो वह अपने फैसले में इस कथन का इस्तेमाल करती आ रही है. 
इस के बाद मच्छी सिंह नामक अपराधी के केस में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ‘रेयरैस्ट औफ द रेयर’ कथन की विस्तार से व्याख्या करते हुए कहा कि यह निर्धारित करने के लिए कि कोई मामला फांसी की सजा के दायरे में आता है या नहीं, इन बातों पर गौर करना जरूरी है. जैसे हत्या किस प्रकार की गई है? हत्या का मकसद क्या था? अपराध की समाजविरोधी प्रकृति, हत्या के लिए अपराधी किस हद तक गया? और हत्या के शिकार व्यक्ति का व्यक्तित्व कैसा था आदि.
 
मृत्युदंड का मनोविज्ञान
फांसी की सजा के पक्ष में अकसर यह दलील दी जाती है कि इस से भावी अपराधियों के मन में एक भय की भावना पैदा होती है, जिस की वजह से वे ऐसा घिनौना अपराध करने से बचते हैं और इस प्रकार समाज अपनेआप को इन अपराधियों से सुरक्षित बनाने में कामयाब होता है. 
?दूसरी बात यह है कि इस अपराध के शिकार व्यक्ति के रिश्तेदारों को उस के फांसी पर लटकाए जाने से संतोष मिलता है. यह बात आतंकी हमलों के शिकार लोगों के परिवारों पर ज्यादा लागू होती है.  
मृत्युदंड के समर्थकों का यह भी कहना है कि अपराधी को फांसी की जगह आजीवन कारावास की सजा देने पर राज्य को इन अपराधियों पर एक बड़ी रकम खर्च करनी पड़ती है, जिसे उन्हें फांसी दे कर बचाया जा सकता है. अजमल आमिर कसाब की बात करें तो कसाब की कानूनी कार्यवाही और देखरेख में तकरीबन 29.5 करोड़ रुपए खर्च किए गए.
 
आंख के बदले आंख
आज सभ्य दुनिया सजा देने के इस आदिम तरीके के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने लगी है. गांधीजी ने कहा था कि हमें अपराधी के अपराध से नफरत करनी चाहिए, न कि स्वयं अपराधी से. सभ्य समाज में उसे अपने अपराध पर पछतावा करने और अपनेआप को सुधारने का एक मौका अवश्य दिया जाना चाहिए. इसी भावना को जाहिर करते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘आंख के बदले आंख के आदिम कानून को लागू किया जाए तो फिर तो यह पूरी दुनिया अंधी हो जाएगी.’’
मृत्युदंड को समाप्त करने के पक्ष में सब से बड़ी दलील यह भी दी जाती है कि चूंकि राज्य किसी को जीवन दे नहीं सकता, इसलिए उसे किसी का जीवन लेने का अधिकार नहीं है.
 
बेगुनाह को फांसी तो नहीं 
यह बात केवल कल्पना तक ही सीमित नहीं है. अमेरिका में ऐसे कितने ही मामले सामने आए हैं जब उस देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उन लोगों की सजा की पुष्टि के बाद नए सबूतों का रहस्योद्घाटन हुआ, जिस के आधार पर अपराधियों को रिहा करना पड़ा. 2-3 मामले ऐसे भी हैं, जब इन अपराधियों की बेगुनाही उन्हें फांसी दिए जाने के बाद साबित हुई, लेकिन वह बेगुनाह व्यक्ति तो तब तक अपनी जान से हाथ धो बैठा था.
अमेरिका के ‘मृत्युदंड केंद्र’ के अनुसार 1973 से अब तक 138 अपराधियों को निर्दोष साबित किया जा सका है, इस प्रकार उन्हें मौत की सजा से बचाया जा सका है. विज्ञान की प्रगति के साथसाथ डीएनए परीक्षण जैसे आधुनिक तरीके पहले उपलब्ध नहीं थे और इसी वजह से अपराधियों का गुनाह पूरी तरह से साबित हुए बिना ही कई बेगुनाह लोगों को फांसी पर लटका दिया जाता था. 
अमेरिका का हैंक स्किनर ऐसा ही एक तथाकथित अपराधी था, जिस की डीएनए परीक्षण की मांग पूरी होने में 10 साल लग गए. अमेरिकी न्यायालय अकसर अपराधी की हर बात को ‘बचाव का बहाना’ मान कर नजरअंदाज करते आए हैं और अकसर उसे ऐसी बेचारगी की स्थिति में पहुंचा देते हैं कि उस के बचने के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं. 
हारवर्ड ला स्कूल के प्रोफैसर एलेन डेरशोवित्ज ने न्यायालय के इस रुख की कड़ी आलोचना करते हुए कहा है, ‘‘अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय का फैसला केवल इसी मामले में अंतिम कहा जा सकता है कि उसे बदला नहीं जा सकता. अगर किसी व्यक्ति को अपनी पत्नी की हत्या करने के अपराध में मौत की सजा दे दी गई है और यह सजा सुनाई जाने के बाद वह व्यक्ति किसी दिन अपनी उसी पत्नी के साथ अदालत में हाजिर हो जाए, जिस की हत्या के लिए उसे मौत की सजा दी जाने वाली है तो क्या फिर भी सर्वोच्च न्यायालय अपने फैसले पर फिर से विचार नहीं करेगा?’’
हमारे यहां तो किसी निर्दोष व्यक्ति को फांसी पर चढ़ाए जाने की संभावना और भी ज्यादा है, क्योंकि हमारी न्याय प्रणाली बहुत महंगी है और अगर कोई पैसे वाला व्यक्ति किसी गरीब आदमी को सबक सिखाने के लिए उस के खिलाफ खरीदे हुए प्रत्यक्षदर्शी गवाह पेश कर दे तो फिर तो कोई भी उस निरीह इंसान को फांसी के फंदे से नहीं बचा पाएगा.
सुप्रसिद्ध लेखिका हेलेन प्रिजीन के शब्द, ‘‘अगर हम यह मानते हैं कि हमारे समाज में किसी को हत्या करने की अनुमति नहीं दी जा सकती तो यह बात सभी पर समान रूप से लागू होनी चाहिए. ऐसा नहीं हो सकता कि राज्य व्यक्ति को हत्या करने से रोकता रहे और वह स्वयं कानून के नाम पर लोगों की हत्या करता रहे,’’ सर्वथा सही हैं. 
आज 21वीं सदी में विज्ञान जब मनुष्य की जिंदगी को लंबी बनाने के नएनए नुसखे ईजाद कर रहा है तो फिर हम अपनी अदालतों को सजा के तौर पर किसी आदमी की जिंदगी छोटी करने की अनुमति कैसे दे सकते हैं.

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