फांसी की सजा दुनिया में हजारों सालों से दी जा रही है और भारत भी इस से अछूता नहीं है. यहां हर अपराध पर फांसी की मांग की जाती है पर अदालतें क्रूरतम जुर्म के बावजूद मुजरिम को फांसी की सजा के बजाय आजन्म कारावास दे सकती हैं. अफजल गुरू जैसे इंसानियत के दुश्मनों को यदाकदा ही फांसी दी जाती है. फांसी का इंतजार कर रहे 15 अपराधियों की सजा को हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने आजन्म कारावास में बदल दिया क्योंकि उन की रहम की अर्जी राष्ट्रपति के पास 10-12 साल तक पड़ी रही थी.

सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक किया क्योंकि फांसी का इंतजार करता अपराधी कैद से भी ज्यादा मानसिक सजा भुगतता है. उस पर जो मानसिक तनाव रहता है वह वर्णित नहीं किया जा सकता. लड़ाई में मारे जाने वाले सैनिक को मौत तो मिलती है पर घंटों में, दिनों, सालों तक इंतजार नहीं करना पड़ता कि सामने वाला कब गोली चलाएगा. अपने को मारे जाने के दिन गिनने की सजा फांसी की वास्तविक सजा से भी ज्यादा दर्दनाक है और चाहे कानून की किताबों में यह बात न लिखी हो, पर वास्तविकता है.

सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला मानवीय है लेकिन दोधारी तलवार भी है. अब तक राष्ट्रपति ऐसे मामलों को लटका देते थे क्योंकि वे दया की अर्जी पर खून का निशान नहीं लगाना चाहते थे. एक राष्ट्रपति दूसरे पर टाल देता था. अब, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का मतलब है कि उसे तुरंत या तो हां कहनी होगी या ना.

यह फैसला तब होता जब देश में यह धारणा बैठ जाती कि घटना के 10-12 साल में सारी अपीलों के बाद अदालतें या तो खुद फांसी की सजा देना कम कर देतीं या राष्ट्रपति ज्यादातर मामलों में दया की याचिकाओं को स्वीकार कर लेते, तो ठीक था.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...