आज समूचे विश्व में जहां नारी अधिकारों की चर्चा है और भारत में भी गांवों से ले कर संसद तक नारी अधिकारों की बातें हो रही हैं वहीं कुछ घरों में महिलाओं की स्थिति दयनीय है. वे शोषण व अत्याचार के दौर से गुजर रही हैं. यही नहीं, धर्म की आड़ में उन पर दमन बढ़ता ही जा रहा है.
ऐसा नहीं है कि दमन का शिकार केवल हिंदू महिलाएं हैं, ईसाई और इसलाम धर्मों में भी महिलाओं पर कई तरह के धार्मिक अत्याचार होते हैं जिन में खतना भी एक है. आप कल्पना कर सकते हैं कि धार्मिक आधार पर एक अबोध बच्ची के शरीर से कोई नाजुक अंग काट कर अलग किया जाए तो उसे किस कदर दर्द होगा पर धर्म के ठेकेदार कहते हैं कि धर्म में ऐसा है, इसलिए करो.
दरअसल, इंडोनेशिया में अब भी मुसलिम धर्म को मानने वालों में सदियों पुरानी बच्चियों का भी खतना करने की परंपरा चलन में थी जिस में अबोध लड़कियों के भगनासा को काटा जाता था लेकिन वहां की सरकार ने इस पुरानी धार्मिक प्रथा के खिलाफ कठोर कदम उठा कर सराहनीय कार्य किया.
मुसलिम कट्टरपंथियों का मानना है कि भगनासा काट देने से बच्ची के बड़े होने पर उस में सैक्स इच्छा कम हो जाती है और वह अपनी हद में रहती है. इस के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र भी कई बार आवाज उठा चुका है. उस का मानना है कि खतने के नाम पर महिलाओं के सैक्स और्गेन को नुकसान पहुंचाना उन के साथ अन्याय है. पर मुसलिम कट्टरपंथियों का मानना है कि यह धार्मिक प्रक्रिया है.
कई मुल्कों में है परंपरा
आज भी दुनिया के कई मुल्क ऐसे हैं जहां खतने की परंपरा आम है. 3 लाख से ज्यादा लड़कियां हर साल खतने का शिकार हो जाती हैं. खासकर, अफ्रीका और मिडल ईस्ट के देशों में खतने की परंपरा बिलकुल आम है.
एक सर्वे के मुताबिक दक्षिण अफ्रीकी देश गुआना में 98.6 फीसदी महिलाएं इस प्रकिया से गुजरती हैं. वहीं मिस्र में यह परंपरा शहरी इलाकों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में ज्यादा प्रचलन में है. मुसलिमों और ईसाइयों, दोनों में इस का प्रचलन है. दक्षिण अफ्रीका के देश माली में तो महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा इस परंपरा को जारी रखने का समर्थन करता है. समर्थन करने वालों में 15 से 49 वर्ष की उम्र तक की तीनचौथाई महिलाएं हैं. एरिट्रिया में भी ज्यादातर लोगों का मानना है कि यह उन के धर्म की मांग है.
जिबूती में इस के चलते मातृ मृत्युदर और शिशु मृत्युदर बहुत ज्यादा है. आंकड़े बताते हैं कि 14 से 45 वर्ष की उम्र की 93 फीसदी महिलाएं इस प्रक्रिया से गुजरती हैं. सोमालिया में करीब 80 से 98 फीसदी महिलाएं खतने का सामना करती हैं, वहां ज्यादातर 6 से 8 साल की बच्चियों को इस प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है. सूडान में भी शालीनता, मर्यादा और शादी की धारणाओं को ध्यान में रखते हुए बड़ी संख्या में खतना किया जाता है. अगर बात जाम्बिया की करें तो वहां इस प्रक्रिया से गुजरने वाली महिलाओं का प्रतिशत 60 से 90 तक है. इसी तरह बुर्किना में इसे कानूनी तौर पर मान्यता मिली हुई है. वहां महिलाओं को बिना एनस्थीसिया दिए खतने की दर्दनाक प्रक्रिया को अंजाम दिया जाता है. चाड में आंकड़े बताते हैं कि वहां कम से कम 60 फीसदी महिलाएं खतने से गुजरती हैं.
यह कुप्रथा इराकी कुर्दिस्तान में बड़े स्तर पर कायम है. वहां 72 फीसदी बच्चियों का खतना हो जाता है. डब्लूएचओ के 2013 के सर्वे के मुताबिक, खतने के दौरान मौत की आशंका 70 फीसदी बढ़ जाती है. इस के अलावा अफ्रीका में हर साल 5 से 7 हजार बच्चों की प्रसव के दौरान मौत का कारण मां का खतना होता है.
मुसलिम समाज में खतना
भले ही कुछ मुसलिम बुद्धिजीवी इस से इनकार करें, लेकिन यह सच है कि आज भी मुसलिम देशों के पिछड़े और ग्रामीण इलाकों में बालिकाओं का खतना किया जाता है और यह सब इसलाम के नाम पर होता है, कहीं दबे रूप में तो कहीं खुलेआम.
मुसलिम बुद्धिजीवियों का कहना है कि तकरीबन 1450 साल पहले कुछ मुसलिम देशों के कबीलों में ही लड़कियों का खतना होता था लेकिन धीरेधीरे इस पर अंकुश लगता गया.
नाम न छापने की शर्त पर दिल्ली में अपना क्लिनिक चलाने वाले एक डाक्टर का कहना है कि केवल पुरुषों का खतना होता है, औरतों का नहीं. इस के पीछे तर्क यह है कि इस से कई तरह की बीमारियों से बचा जा सकता है.
धर्म को आधार बना कर मुल्ला- मौलवियों ने जिस तरह मुसलिम महिलाओं का शोषण किया है वह किसी से छिपा नहीं है. कट्टरपंथियों की दकियानूसी सोच के कारण ही मुसलिम समाज में आज भी महिलाओं की दशा बेहद खराब है.
विरोध में उठी आवाज
कुछ वर्ष पहले की बात है. इमराना नाम की एक महिला के साथ उसी के पिता समान ससुर ने बलात्कार किया, लेकिन ससुर को सजा देना तो दूर, काजी ने उस के खिलाफ फतवा देते हुए यह कहा था कि इमराना अब अपने पति नूर इलाही की पत्नी नहीं बल्कि अपने ससुर अली मुहम्मद की पत्नी है. इसलिए अब वह अपने शौहर की बीवी नहीं बल्कि उस की मां के रूप में रह सकती है.
बेशक इमराना के ससुर अली मुहम्मद को अदालत ने सजा दी लेकिन धर्म की दुहाई दे कर मुसलिम समाज में जिस तरह औरतों को पुरुषों के हाथों का खिलौना समझा जाता है वह भी किसी से छिपा नहीं है. अपने ससुर द्वारा ही बलात्कार की शिकार हुई इमराना ने जब भी इस के खिलाफ कानून की ओर अपने कदम बढ़ाए, हर बार कठमुल्लों ने उस के कदम पीछे खींचने चाहे. यह तो इमराना की हिम्मत थी कि उस ने धर्म के खोखले उपदेशों के चंगुल में फंस कर आंसू बहाने या मुंह बंद कर रहने के बजाय मुल्लों के खिलाफ संघर्ष किया और अपने हक की लड़ाई लड़ी. इमराना तो बानगी भर है, न जाने ऐसी कई इमराना हैं जो इस की भुक्तभोगी हैं.
हाल ही में पाकिस्तान की शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता मलाला यूसुफजई ने भी महिलाओं का खतना किए जाने के खिलाफ आवाज बुलंद की है. मलाला ने ब्रिटेन में होने वाली महिला जननांग विकृति के विरोध में चल रहे अभियान को अपना समर्थन दिया है. गौरतलब है कि फिलहाल बर्मिंघम में बसी मलाला लड़कियों के अधिकार के मुद्दे पर ब्रिटिश स्कूलों में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से अपने किशोर साथियों की इस मुहिम को समर्थन दे रही है. अगर दुनियाभर में इसी तरह जानेमाने चेहरे धर्म के नाम पर हो रही इस क्रूर और अमानवीय परंपरा का विरोध करें तभी इस पर लगाम कसी जा सकती है.
फतवे और फरमान
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि नामीगिरामी उलेमा पैसे ले कर फतवा जारी करते हैं. अब जहां पैसे ले कर फतवे जारी होते हैं वहां भला कोई औरत कैसे सुरक्षित रह सकती है. जाहिर है, इस से फतवों के वजूद और फरमानों पर तो सवालिया निशान लग ही जाता है.
हर धर्म के अनुयायी अपने धर्म और धार्मिक गुरुओं की बातों को केवल अमल में ही नहीं लाते बल्कि उन पर भरोसा भी करते हैं. यदि हम हिंदू समाज की बात करें तो वहां भी औरतें धर्मकर्म के नाम पर छली जाती रही हैं. कई तो साधुसंतों के हवस की शिकार हो जाती हैं और जो झांसे में नहीं आतीं उन्हें डायन कह कर प्रताडि़त किया जाता है.
धर्म की आड़ में
धर्मशास्त्रों की बात करें तो मनुस्मृति में लिखा है : ‘भार्या पुत्रश्च दासश्च प्रेवयो भ्राताय सोदार: प्राप्ता परा धास्ताडया: स्यू रज्जवा वेणुदलेन वा’. इस का मतलब होता है कि स्त्री, पुत्र, दास, शिष्या आदि कोई गलती करे तो उसे रस्सी से बांध कर बांस के डंडे से पीटा जाए.
रामचरितमानस में तुलसीदास ने नारी को ढोल की तरह पीटे जाने वाली वस्तु बताया है- ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’ यानी औरतों का दरजा यह है कि यदि उन को नियंत्रण में रखना है तो उन का दमन करना ही एकमात्र रास्ता है.
हिंदुओं के पौराणिक धर्मग्रंथों में बारबार सती होने का जिक्र मिलता है, मानो सती होने पर औरतों को जन्मजन्मांतर से मुक्ति मिल जाएगी. वहीं, यह कहा जाता है कि पितरों को सिर्फ बेटा ही पानी पिला सकता है, बेटी नहीं, जबकि हिंदू समाज में ऐसे कपूत बेटों की कोई कमी नहीं जो जीते जी अपने मातापिता को पानी तक नहीं पिलाते.
पाकिस्तान में महिलाओं की हालत बदतर है. कठमुल्लाओं के तुगलकी फतवों के चलते आज भी उन का खुली हवा में सांस लेना दूभर है. आंकड़े बताते हैं कि पाकिस्तान में हजारों औरतें जेलों में बंद सुनवाई का इंतजार कर रही हैं. उन में 88 फीसदी औरतें हुदूद कानून के तहत अपराधी हैं तो 90 फीसदी के पास कोई वकील तक नहीं है.
दरअसल, 1979 में जियाउल हक के फौजी शासन के दौरान हुदूद कानून लागू किया गया था जिस में किसी महिला के पति के सिवा दूसरे किसी विवाहित या अविवाहित पुरुष से व्यभिचार को अपराध घोषित किया गया था. यदि कोई जबरन किसी महिला का बलात्कार करता है और वह महिला यदि उस पर 4 पुरुषों की गवाही न जुटा पाए तो उसे अपराधी माना जाएगा. ऐसे में उस की सजा यही है कि उसे तब तक पत्थर मारा जाए जब तक कि उस की मौत न हो जाए.
यह कैसी तरक्की
एक ओर जहां कठमुल्ले इस कानून को निरस्त करने को कुरान की मुखालफत मानते हैं वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने अमेरिका में ‘वाशिंगटन पोस्ट’ को दिए अपने साक्षात्कार में कहा था कि पाकिस्तान की औरतें पैसा या कनाडियन वीजा पाने के लिए अपना बलात्कार करा रही हैं.
सच तो यह है कि इस तरह के कानून धर्म के नाम पर अत्याचार के सिवा और कुछ भी नहीं हैं. क्या यही 21वीं सदी की तरक्की है और यदि यही तरक्की है तो फिर पिछड़ापन किसे कहते हैं? इस के साथ विडंबना यह भी है कि दुनियाभर में धर्म का कहर औरतें झेल रही हैं, फिर भी वे ही धर्म की सब से बड़ी पैरोकार बनी नजर आती हैं. औरतों को धर्म और धर्म के बिचौलिए की परवा छोड़नी होगी, तभी वे सही माने में धर्म के कहर से बच पाएंगी.