अदालत के हालिया 2 आदेशों ने आमजन के घर के सपने को तोड़ दिया है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुंबई की कैंपा कोला सोसायटी के हजारों फ्लैटों को खाली करने का आदेश दिया गया तो वहीं दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर जिले में ओखला पक्षी विहार के पास बनाए गए हजारों फ्लैटों का आवंटन अधर में लटक  गया है. मुंबई में कैंपा कोला सोसायटी में पहले से रह रहे लोग अदालत के आदेश से परेशान हैं. सोसायटी परिसर में लोग धरने पर बैठे हैं और किसी भी हालत में अपने पसीने की कमाई का घर छोड़ना नहीं चाहते.

पहले बात करते हैं मुंबई की. यहां कैंपा कोला सोसायटी में बने 102 फ्लैटों को सुप्रीम कोर्ट ने अवैध घोषित कर के खाली कराने का आदेश दिया है. इन फ्लैटों में लोग कुछ समय से रह रहे हैं. दरअसल, 1981 में कैंपा कोला की जमीन पर भवन बनाने की इजाजत पीडीएस कंस्ट्रक्शन, डीवाई बिल्डर्स और पीएसबी कंस्ट्रक्शन नामक 3 बिल्डरों को मिली थी. 1983 में बिल्डरों ने 5-5 मंजिलों की इमारत बनाने का प्लान बना कर बीएमसी यानी बंबई महानगर पालिका को सौंपा था. प्लान को मंजूरी मिल गई लेकिन कुछ समय बाद बिल्डरों ने प्लान बदल कर और ज्यादा मंजिलों की योजना तैयार कर स्वीकृति हेतु बीएमसी को दी.

बिल्डरों ने अपने नए प्लान के अनुसार काम शुरू कर दिया. अब कहा जा रहा है कि बिल्डरों ने प्लान से हट कर कई फ्लैट बना डाले. बीएमसी ने इस बीच बिल्डरों को कई नोटिस दिए. इस के बावजूद 1989 तक इमारत बना कर लोगों को अवैध निर्माण की बात बताए बिना फ्लैट बेच दिए गए लेकिन इस हाउसिंग सोसायटी के सदस्यों को मालूम था कि उन के द्वारा खरीदे गए फ्लैट स्वीकृत प्लान का उल्लंघन कर के बनाए गए हैं.

उधर, बीएमसी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि बिल्डर ने गैरकानूनी निर्माण किया है. वह इस मामले को ले कर अदालत गई. पहले सिविल कोर्ट, फिर हाई कोर्ट और अंत में सुप्रीम कोर्ट. लेकिन फ्लैट खरीदारों को कोई राहत नहीं मिली. इन लोगों ने अपनी जिंदगीभर की कमाई एक अदद घर में लगा दी थी.

तब कहां थी बीएमसी

सरकार ने हाथ खड़े कर दिए हैं. दूसरे राजनीतिक दल अदालती आदेश के आगे खुद को बेबस बता रहे हैं. सवाल उठाए जा रहे हैं कि जब अवैध निर्माण हो रहा था तब बीएमसी कहां थी? बिल्डरों पर कुछ लाख का जुर्माना दे कर ही क्यों छोड़ दिया गया? उन पर धोखाधड़ी का मामला क्यों नहीं चलाया गया?

इसी तरह, ग्रीन ट्रिब्यूनल ने 28 अक्तूबर, 2013 को अपने फैसले में कहा था कि ओखला पक्षी विहार के 10  किलोमीटर का दायरा पर्यावरणीय और पारिस्थितिकी दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र में आता है. ऐसे में यहां बन रही इमारतों को कंपलीशन सर्टिफिकेट नहीं दिया जाएगा.

इस आदेश के खिलाफ जेपी इंफ्रास्ट्रक्चर ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई थी और ओखला पक्षी विहार इलाके में निर्माण कार्य पर लगी रोक हटाने की बात कही गई. इस पर कोर्ट ने सुनवाईर् से इनकार कर दिया और  ग्रीन ट्रिब्यूनल के फैसले को बरकरार रखा है. इस फैसले के बाद एनसीआर में करीब एक लाख फ्लैटों के आवंटन पर तलवार लटक गई है.

कंपनी के वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने दलील देते हुए कहा था कि लगभग 4 हजार फ्लैट ग्राहकों को सौंपे जाने के लिए तैयार हैं. ऐसे में अगर कंपलीशन सर्टिफिकेट नहीं दिया जाता है तो बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी. सब से बड़ी दिक्कत ग्राहकों के सामने है. नोएडा अथौरिटी द्वारा सर्टिफिकेट नहीं देने से वे ग्राहक गहरे सदमे में हैं जो अधिकतर भुगतान कर चुके हैं और पजेशन का इंतजार कर रहे हैं.

पर्यावरण व कंकरीट का जंगल

मालूम हो कि यह सैंक्चुरी सुर्खियों में तब आई जब लाखों लोगों ने रिहायशी फ्लैट और कमर्शियल प्रोजैक्ट में हो रही देरी के खिलाफ आवाज उठाई. सैंक्चुरी के नजदीक इस जोन में 1 लाख से ज्यादा लोग बसने वाले थे लेकिन ग्रीन ट्रिब्यूनल ने पिछले साल अक्तूबर में लगभग 58 बिल्डरों से अपने उन प्रोजैक्टों को तुरंत बंद करने को कहा था जो ओखला पक्षी विहार के नजदीक थे. ये वे प्रोजैक्ट थे जिन के लिए उन्होंने नैशनल बर्ड फौर वाइल्डलाइफ से पर्यावरण संबंधी अनुमति नहीं ली.

नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने नोएडा अथौरिटी से साफ कह दिया है कि काम पूरा होने का प्रमाणपत्र उन प्रोजैक्टों को हरगिज न दें जो इस सैंक्चुरी के 10 किलोमीटर के दायरे में आते हैं. इस से लोगों को फ्लैट या कमर्शियल संपत्ति पर कब्जा नहीं दिया जा सकेगा.

गौरतलब है कि ओखला बर्ड सैंक्चुरी दिल्लीनोएडा सीमा, कालिंदी कुंज के बैराज के नजदीक स्थित है. यह करीब 3.5 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुई है. इस सैंक्चुरी को 1990 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इंडियन वाइल्ड लाइफ प्रोटैक्शन ऐक्ट के तहत प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित किया था. ग्रीन ट्रिब्यूनल के अप्रैल 2014 के आदेश के बाद नोएडा स्थित बिल्डर लगभग 30 हजार परिवारों को घर नहीं दे पा रहे हैं. ट्रिब्यूनल ने जिन प्रोजैक्टों का जिक्र अक्तूबर 2013 के आदेश में किया था, वे सैक्टर 44, 45, 46, 50, 52, 76, 78, 94, 96, 97, 98, 107, 110, 120, 131, 132, 133, 134, 135 और 137 के हैं.

नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल से अगस्त 2013 में नोएडा निवासियों और पर्यावरणविदों ने ओखला पक्षी विहार के 10 किलोमीटर के दायरे में चल रहे अवैध निर्माण को रोकने की मांग की थी. इस पर ट्रिब्यूनल ने नोएडा अथौरिटी से कहा था कि वह ओखला पक्षी विहार के 10 किलोमीटर के दायरे में हो रहे सभी निर्माण कार्यों को तुरंत बंद करवाए. इस के साथ ही ट्रिब्यूनल ने केंद्र सरकार से कहा कि सैंक्चुरी के बफर जोन के लिए कुछ तय नियम बनाए जाएं.

नियमकायदों का रोड़ा

असल में यह परेशानी सरकारी नियमकायदों की वजह से हो रही है. ओखला पक्षी विहार के संबंध में हुआ यह था कि दिसंबर 2006 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद वन एवं पर्र्यावरण मंत्रालय को राज्य सरकार से बफर जोन का मसौदा तैयार करने के लिए कहा था. आदेश दिया था कि सरकार के पास ईको सैंसिटिव जोन तय करने के लिए आखिरी मौका है, पर इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया. राज्य सरकार ने करीब 7 साल बाद ईको सैंसिटिव जोन तय करने के प्रति थोड़ी सक्रियता दिखाई.

अगस्त 2013 में उत्तर प्रदेश सरकार ने ओखला बर्ड सैंक्चुरी के 1 किलोमीटर के दायरे को ईको सैंसिटिव जोन माना और इस की घोषणा की लेकिन सरकार ने बाद में सुर बदले और यह दायरा महज 100 मीटर कर दिया. इस साल अप्रैल में अपने एक आदेश में नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने कहा कि यह समझ से बाहर है कि आखिर किस आधार पर उत्तर प्रदेश सरकार ईको सैंसिटिव जोन को 100 मीटर तक दायरे में सीमित कर रही है. हालांकि यह मामला अभी भी वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की स्वीकृति का इंतजार कर रहा है. मंत्रालय अभी किसी भी नतीजे पर नहीं पहुंच पाया है कि आखिर सीमा क्या हो. मंत्रालय के पास हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली व अन्य राज्यों से ईको सैंसिटिव जोन से संबंधित घोषणाएं मिल चुकी हैं. तकनीकी विशेषज्ञों की टीम के साथ बातचीत के बाद ही अंतिम निर्णय लिया जा सकेगा.

वास्तविकता यह भी है कि जटिल और ज्यादातर बेमतलब के अनगिनत सरकारी नियमकायदों के चलते ग्राहक और रियल एस्टेट कारोबारी घुटने टेकने को मजबूर हैं.

मुबई में एक इमारत के निर्माण के लिए करीब 40 विभागों की अनुमति लेनी पड़ती है. मसलन, गैर कृषि भूमि की स्वीकृति, ट्री अथौरिटी (बीएमसी), वाटर ऐंड डै्रन डिपार्टमैंट, सेवरेज विभाग, हाइड्रोलिक विभाग, इन्वायरनमैंटल विभाग, स्थापना एवं संचालन, प्राचीन धरोहर विभाग, एअरपोर्ट अथौरिटी औफ इंडिया, टै्रफिक ऐंड कोऔर्डीनेशन विभाग, सीएफओ-फायर विभाग, स्ट्रक्चरल प्लान स्वीकृति और इलैक्ट्रिक विभाग. यह तो खासखास हैं. ये फेहरिस्त बढ़ती ही जा रही है. कुछ समय से निर्माण के मामले में पर्यावरण का संबंध भी आ जुड़ा है. यही हाल दिल्ली का है. एक भवन निर्माता कैसे इन तमाम विभागों की स्वीकृति के बगैर भवन बना कर लोगों को आवंटित कर सकता है?

नियमों की आड़ में लूट

दरअसल, सरकारी विभागों ने अनगिनत दस्तावेजी खानापूरी करने वाले नियम बना रखे हैं ताकि हर दस्तावेज की मंजूरी के लिए बिल्डरों और मकान बनाने वालों से रिश्वत वसूली जा सके. नियमों की आड़ में बिल्डर और ग्राहक दोनों को लूटा जाता है.

देश का कोईर् भी हिस्सा हो, वहां भवन निर्माण का कोईर् भी प्रोजैक्ट शुरू करने के लिए दर्जनों अप्रूवल लेने पड़ते हैं. एक बिल्डर को 100 से ऊपर दस्तावेज जमा कराने होते हैं. ये सब करने के लिए उसे केंद्र और राज्य सरकारों तथा स्थानीय निकायों के पास जाना पड़ता है. अगर कोई बिल्डर अफसरों द्वारा बनाए गए नियमकायदों के अनुसार चलेगा तो उस का प्रोजैक्ट शुरू होने में ही 2-4 साल लग जाएंगे. लिहाजा, सरकारी देवताओं से जल्दी काम कराने के लिए उन पर चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है. यह पैसा बिल्डर अपनी जेब से देंगे, लेकिन बाद में उपभोक्ताओं से ही वसूलेंगे.

कैंपा कोला सोसायटी और ओखला बर्ड सैंक्चुरी के नजदीक बने फ्लैट ही नहीं, ऐसे और भी कई निर्माण हैं जहां डैवलपर, बिल्डर और ग्राहक सरकारी अफसरों की रिश्वतखोरी के कारण नुकसान झेलने पर मजबूर हैं. लोगों के घर का सपना टूटे नहीं, इस के लिए सरकारों को घूसखोरी के रास्ते बंद कर ऐसे सरल नियम बनाने चाहिए ताकि जहां न धोखाधड़ी की गुंजाइश रहे और न ही किसी की उम्रभर की कमाई लुटे.

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