16वीं लोकसभा चुनाव के नतीजे कई लिहाज से याद रखे जाएंगे. एक ओर जहां भारतीय जनता पार्टी को बहुमत हासिल हुआ वहीं दूसरी ओर मुसलिम नुमाइंदगी अब तक के सब से कम स्तर पर आ गई. दोनों ही स्थितियां चौंकाने वाली हैं, विशेषकर, मुसलिम नुमाइंदगी के बारे में तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. 1952 से ले कर अब तक जितने भी लोकसभा चुनाव हुए हैं उन में 15वीं लोकसभा में सब से कम अर्थात 29 मुसलिम सांसद थे. लेकिन 16वीं लोकसभा में यह संख्या घट कर 24 रह गई.
सब से ज्यादा आश्चर्यजनक बात उत्तर प्रदेश की है जहां 80 लोकसभा सीट में से एक भी मुसलिम उम्मीदवार कामयाब नहीं हुआ. इस से भी ज्यादा अहम बात यह कि भाजपा ने 482 उम्मीदवारों में 7 मुसलिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था. नरेंद्र मोदी की सुनामी थी लेकिन यह सुनामी भाजपा के मुसलिम उम्मीदवारों को कामयाब नहीं करा सकी. देश की 92 सीटें जिन पर मुसलिम निर्णायक भूमिका में हैं, 41 सीटों पर भाजपा ने कामयाबी हासिल की. 20-30 फीसदी मुसलिम बहुल 41 सीटों में से 16, 31-40 फीसदी मुसलिम बहुल 24 सीटों में से 13, 41-50 फीसदी 11 सीटों में से 5 और 50 फीसदी से अधिक की 16 सीटों में से भाजपा ने मात्र 1 सीट हासिल की.
मुसलमानों की कम हुई नुमाइंदगी के लिए आरएसएस और भाजपा की रणनीति को जिम्मेदार बताया जा रहा है. सवाल यह है कि इस रणनीति को आम आदमी समझेगा या मुसलिम संगठन जो रातदिन सांप्रदायिकता का खतरा बताते नहीं थकते हैं. इस बात पर कोई चर्चा नहीं हो रही है कि मुसलिम संगठनों की अपील कितनी स्पष्ट थीं.
मोदी को हराने की अपील कर के इन मुसलिम संगठनों ने मुसलिम वोटों का जो भ्रम था, वह तोड़ दिया और खुद ने मुसलमानों को राजनीतिक स्तर पर हाशिए पर पहुंचाने का काम कर डाला. इस प्रसंग में यदि मुसलिम संगठनों की अपील की समीक्षा की जाए तो जमाअत इसलामी हिंद जैसी दीनी (धार्मिक जमाअत) ने सैकुलर उम्मीदवारों की सूची जारी कर वोट देने की अपील की तो औल इंडिया मिल्ली काउंसिल, जिस ने अतीत में इसी तरह एक बार सूची जारी की थी, ने इस बार सूची जारी करने के बजाय सांप्रदायिक ताकतों को हराने की अपील की. औल इंडिया मुसलिम मजलिस मुशावरत, जो विभिन्न छोटीबड़ी और क्षेत्रीय पार्टियों का संयुक्त मोरचा है, ने भी मिल्ली काउंसिल की तर्ज पर अपील जारी की थी.
जमीअत उलेमा हिंद का शुरू से इस मामले में अलग दृष्टिकोण रहा है. वह कांगे्रस के प्रति नरम रुख रखता है. उस के कार्यकर्ता अपने स्तर से पार्टी के लिए काम करते हैं लेकिन जमीअत अधिकारिक तौर पर किसी के लिए अपील नहीं करती है.
बुनियादी बात यह है कि ये मुसलिम संगठन समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांगे्रस में से किसी एक को वोट देने की अपील क्यों नहीं करते, क्या इस का कारण, जैसा कि कहा जाता है, इन मुसलिम संगठनों के उन सियासी पार्टियों से संपर्क हैं और वे किसी एक के पक्ष में अपील कर के दूसरी पार्टी को नाराज नहीं करना चाहते हैं. इसीलिए गोलमोल अंदाज में मतदाताओं से अपील करते हैं. जो सैक्युलर उम्मीदवार सांप्रदायिक उम्मीदवार को हराने या जीतने की स्थिति में हो उस को वोट देने की अपील का हाल यह हुआ कि मतदाताओं ने इन मुसलिम संगठनों की तर्ज पर किसी सियासी पार्टी को नाराज करने के बजाय सभी सियासी पार्टियों के उम्मीदवारों को वोट दिया. इस से यदि भाजपा कामयाब हो गई तो इस में मुसलमानों की कोई गलती नहीं और न ही उन्हें इस के लिए दोषी ठहराया जा सकता है.
मुसलिम वोटों का विभाजन
भाजपा को कुल 31 फीसदी वोट मिले. इस का साफ मतलब है कि मुसलिम वोटों का विभाजन. यह विभाजन किसी और ने नहीं खुद सियासी पार्टियों ने किया. कांगे्रस यदि चाहती तो सैकुलरिज्म के लिए वह अपने सहयोगियों से मिल कर चुनाव लड़ती और मुसलिम वोट विभाजित न होता और इस का अच्छा प्रभाव अन्य सियासी पार्टियों पर पड़ता और तब उन पर दबाव बनाया जाना संभव हो सकता था लेकिन कांगे्रस ने ऐसा न कर के सैक्युलर वोटों के विभाजन का रास्ता खोल दिया.
ऐसी सूरत में कुछ मुसलिम बुद्धिजीवियों द्वारा यह कहना कि उन्होंने अपने स्तर से प्रयास किए कि मुसलमानों के निर्णायक वाले क्षेत्रों में जीतने वाले उम्मीदवार के पक्ष में अन्य सैक्युलर पार्टी के उम्मीदवार मैदान से हट जाएं, लेकिन उस में कामयाबी नहीं मिली. यह जानने के बावजूद कि ये सियासी पार्टियों के उम्मीदवार हैं और सियासी पार्टियों ने उन्हें अपना उम्मीदवार बनाया है, वे अपनी मरजी से मैदान से नहीं हट सकते, इस प्रयास का मकसद क्या था? यदि यही दबाव पार्टी नेतृत्व पर डाल कर उस का टिकट वापस करा दिया जाता या उन क्षेत्रों में किसी एक को टिकट देने के लिए सैक्युलर पार्टियों को सहमत कर लिया जाता तो निश्चय ही यह बड़ा काम होता.
औल इंडिया फैडरेशन फौर डैवलपमैंट एजुकेशनल के चेयरमैन अब्दुल अलीम बर्नी कहते हैं कि मुसलिम संगठन खुद एकजुट हैं नहीं और 24 करोड़ मुसलमानों को एकजुट होने का संदेश दे रहे हैं, यह कितना विचित्र है, सोचा भी नहीं जा सकता. उल्लेखनीय है कि मुसलिम संगठनों के सामने भ्रष्टाचार, महंगाई और विकास जैसे मुद्दे कभी नहीं रहे. जबकि युवा पीढ़ी इन समस्याओं से बुरी तरह ग्रस्त है और इन की वजह से उस में काफी नाराजगी पाई जा रही थी. सैक्युलरिज्म के संरक्षण और सांप्रदायिकता को रोकने की अपील उन्हें प्रभावित नहीं कर सकी.
सब से ज्यादा मातम इस बात पर किया जा रहा है कि देश के सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश से एक भी मुसलिम सांसद निर्वाचित नहीं हो सका. मुसलिम सांसद मुसलिम समस्याओं के प्रति कितने सजग होते हैं, इस का अंदाजा इस एक घटना से लगाया जा सकता है कि संसद में आतंक विरोधी मामलों के संबंध में सरकार से सवाल द्वारा स्थिति स्पष्ट करने की मांग किसी मुसलिम सांसद ने नहीं बल्कि वाम मोरचा के एक गैरमुसलिम सांसद ने की, बाद में इस मुहिम में मुसलिम सांसद भी शामिल हो गए.
गत वर्ष सितंबर में मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक हिंसा पीडि़तों को सियासी पार्टियों का एजेंट और पेशेवर भिखारी करार दिया गया. इस के बावजूद समाजवादी पार्टी के एक भी मुसलिम विधायक ने इस पर किसी तरह का विरोध नहीं किया. समाजवादी पार्टी का मुसलिम चेहरा आजम खां तक उन के जख्मों पर मरहम रखने के लिए वहां नहीं गया. इन परिस्थितियों में यदि संसद में मुसलिम नुमाइंदगी के कम होने का रोना रोया जाए तो यह एक भावनात्मक बात हो सकती है लेकिन इस का कोई बहुत ज्यादा महत्त्व नहीं है.
मुसलिम संगठनों की कार्यशैली को सियासी पार्टियां भलीभांति जानती हैं. इन का स्वरूप राजनीतिक नहीं, धार्मिक है. ये चुनाव में अपने उम्मीदवार खड़े भी नहीं करती हैं लेकिन मुसलमानों के सियासी मैदान, विशेषकर किस पार्टी को वोट दिया जाए, की अपील जरूर करती हैं. उर्दू समाचारपत्रों में इन के द्वारा विज्ञापन भी दिए जाते हैं. इसी आधार पर आम धारणा यह है कि इन मुसलिम संगठनों को सियासी पार्टियों से पैसा मिलता है जिस की वजह से, कभी ‘इसलाम खतरे में है’ तो कभी ‘सैक्युलरिज्म खतरे में है’, जैसे नारे सुनाई पड़ते हैं. मुसलिम युवाओं ने जिस तरह इन खतरों को उखाड़ फेंका है, 16वीं लोकसभा उसी का परिणाम है.