उपवन में लड़की भंवरे से परेशान हो कर तिलमिला रही है और उस की 2 सहेलियां उसे स्थिर रहने की सलाह दे रही हैं. पास ही पेड़ के पीछे छिपा युवक लड़की की मदद करने सामने आ जाता है.

‘‘आप ठीक तो हैं न?’’ वह पूछता है. उस का सुडौल रूप देख कर लड़की लजा जाती है, और उस की सहेली कहती है, ‘‘जी हां, आप जैसे अलबेले अतिथि जहां आएंगे, वहां सब ठीकठाक कैसे नहीं होगा?’’ फिर मुड़ कर लजाती हुई लड़की से कहती है, ‘‘अतिथि आए हैं, भाग कर सत्कार के लिए फलफूल तो ले आओ.’’

युवक जब रोक कर कहता है कि आप की मीठी बातों से ही मेरा सत्कार हो गया है, तो सहेलियों के भी सवालजवाब शुरू हो जाते हैं.

‘‘आप किस राजवंश के चमकते आभूषण हैं? किस देश की प्रजा को विरह में छोड़ कर आप इस तपोवन में पधारे हैं? कोई नाम?’’

युवक हंस देता है क्योंकि असल में वह राजा ही है, लेकिन इस वक्त इन लड़कियों को सच बताना नहीं चाहता. कुछ साधारण सा परिचय दे कर पीछे खड़ी लड़की के बारे में पूछ बैठता है, ‘‘ये देखने में किसी राजघराने की लगती हैं?’’

सहेली भी झट बताना शुरू कर देती है, ‘‘हैं भी ये प्रतापी राजर्षि कौशिकवंशी की बेटी. जब राजर्षि ने गौतमी के तट पर घोर तप करना शुरू किया तो देवता घबरा गए और राजा का तप बिगाड़ने के लिए अप्सरा मेनका को भेज दिया. वसंत का आरंभ था, राजर्षि की दृष्टि जैसे ही अप्सरा पर पड़ी, तो…’’ कहतेकहते अब सहेली की लजाने की बारी आ गई.

युवक ने तुरंत ‘ओह, मैं समझ गया.’ कह कर बात को संभाल लिया.

संस्कृत और खड़ीबोली

लगभग डेढ़ हजार साल पहले कालिदास ने अपने राजा के सामने शकुंतला और दुष्यंत का नाटक पेश किया था. संस्कृत में कृत ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ ने लोगों का मन ऐसा हरा कि सदियों बाद भी कालिदास का नाम और उन की कृतियां चिरस्थायी हैं. निसंदेह, दुनिया की अब तक की 100 सर्वोत्तम पुस्तकों में इस की गिनती होती है, यह जानने के लिए इतना ही काफी होगा कि हम कृति उठाएं और खुद इस बात को तय करें. लेकिन अफसोस, संस्कृत का ज्ञान जितनी रफ्तार से घट रहा है उस से कहीं तेजी से इस को एक मृत और अव्यावहारिक भाषा बताने वालों की संख्या बढ़ रही है. हमारे बीच कम ही होंगे जो संस्कृत में लिखी किसी भी किताब को उस के मूलरूप में संस्कृत में ही पढ़ पाएं. वैसे उत्तर भारत में भाषा के विकास के बारे में बात करें तो वही दिलचस्प पैटर्न बारबार देखने को मिलता है.

13वीं शताब्दी के तुर्की मूल के सुलतानों ने दिल्ली सल्तनत पर फारसी भाषा थोपी. लेकिन इस भाषा का साम्राज्यवाद एक शताब्दी से ज्यादा नहीं चल पाया. तुर्की मूल के परिवार में उत्तर प्रदेश के एटा में जन्मे अमीर खुसरो अपने को हिंदुस्तानी समझते थे. उन के ही जीवनकाल में प्रचलित खड़ीबोली का उत्तर भारत में प्रचार हुआ. अपने काम से उन्होंने हिंदी को ऊंचे दरजे पर पहुंचाया. उन्हें आज अकसर हिंदी का पहला कवि माना जाता है.

आगे फिर मुगलों ने फारसी को वापस औपचारिक दरजा देना चाहा, तो 18वीं शताब्दी में मीर तकी ‘मीर’ आए.

हम को शायर न कहो मीर

कि साहिब हम ने

दर्दोगम कितने किए जमा

तो दीवान क्या…

आज इन के 6 दीवान यानी कविताओं के संकलन सुरक्षित हैं. इन की गजलें आज भी हिंदुस्तानियों के दिलों को छूती हैं. इन के जीवन के दौरान रेख्ता या सामान्य उर्दू का जन्म हुआ. इस तरह इतिहास हमें दिखाता है कि एक औपचारिक भाषा पर जीत हर बार जनसाधारण भाषा की होती है.

पतन और जातिप्रथा

संस्कृत की कहानी भी कुछ इसी प्रकार है. अरसे से मौखिक परंपरा द्वारा प्रसारित संस्कृत का भारतवर्ष में प्रचलन इतिहासकार और भाषाविद्वान ईसा से 1500 वर्ष पूर्व निर्धारित करते हैं. पाणिनि ने ईसा से 500 वर्ष पूर्व इस भाषा का जो व्याकरण, अष्ठाध्यायी, नियत किया था उस का आज तक अनुसरण किया जाता है. उस समय इसे भाषा के नाम से जाना जाता था.

संस्कृत, यानी कि सम्यक्+कृतम्, अर्थात भली प्रकार जुटाई हुई, नाम का चलन काफी बाद में प्रचलित हुआ. अपनेआप में यह अलग भाषा नहीं मानी जाती थी, बल्कि विशेषरूप से शिष्ट या निपुणता से वार्त्तालाप करने का तरीका थी. यह बात हम संस्कृत के गूढ़ व्याकरण नियमों में देखते हैं. पाणिनि, जो मानवजीवन क्रिया स्वरध्वनि निर्माण और संक्षिप्तता व सूक्ष्मता कायम रखते हुए भाषा के नियमों को विधिबद्ध करने का भली प्रकार से ज्ञान रखते थे, समय से आगे थे. विश्व की यह सर्वाधिक ‘पूर्ण’ एवं तर्कसम्मत भाषा है.

संस्कृत भाषा के पतन में हमारी संस्कृति में सन्निहित जातिप्रथा का योगदान है क्योंकि संस्कृत की शिक्षा उच्च वर्ण में ही दी जाती थी. इस तरह से संस्कृत का ज्ञान सामाजिक वर्ग व शैक्षिक स्तर का चिह्नक (सूचक) था. प्राचीन भारत की देशी भाषा प्राकृत थी. संस्कृत के पतन के और कारणों में समय के साथ राजनीतिक सत्ता, जो विद्वानों को संरक्षण देने में महत्त्वपूर्ण थी, की कमजोरी भी थी. अंतत: अन्य देशी भाषाएं, जो ज्यादा लोकप्रिय हो गई थीं, संस्कृत पर हावी हो गईं.

दिलचस्प आंकड़े

2001 के जनगणना ब्योरों से आश्चर्यजनक तो नहीं, कुछ संयत कर देने वाले आंकड़े जरूर सामने आए. देश की सवा अरब से भी अधिक जनसंख्या में कुल 14,135 जनों ने अपनी मातृभाषा संस्कृत बतलाई. जनगणना के आंकड़ों से कुछ अन्य दिलचस्प तथ्य भी सामने आए. संपूर्ण जनसंख्या में 41 प्रतिशत हिंदीभाषी हैं. देश की बाकी की 21 अनुसूचित भाषाओं में कोई भी भाषा ऐसी नहीं है जिसे 10 प्रतिशत से ज्यादा जनों ने अपनी मातृभाषा बताया हो.

विश्व की सब से पुरानी पुस्तक, वेदों की भाषा संस्कृत के भी फारसी के समान देश से विलुप्त होने के आसार साफ दिखाई देते हैं. मगर दोनों भाषाओं में जमीनआसमान का फर्क है. जहां फारसी मूलत: परदेशी भाषा है, संस्कृत अधिकतर आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी है. खड़ीबोली के संस्कृतीकरण ने आधुनिक हिंदी को जन्म दिया. अधिकतर आधुनिक भारतीय भाषाओं की अधिकांश शब्दावली या तो संस्कृत से ली गई है या संस्कृत से प्रभावित है. इस तरह संस्कृत भारत को एकता के सूत्र में बांधने का सामर्थ्य रखती है. न केवल हिंदुओं के सभी पूजापाठ और धार्मिक संस्कार की भाषा संस्कृत है, हिंदू, बौद्ध, जैन आदि धर्मों के प्राचीन धार्मिक ग्रंथ भी संस्कृत में हैं. लेकिन सब से अहम बात यह है कि भारत का प्राचीन साहित्य, दर्शनशास्त्र, गणित तथा विज्ञान संस्कृत में लिखित है. संस्कृत के महाकाव्यों और ग्रंथों में जो भी ज्ञान और रहस्य छिपा है, वह ढूंढ़ने और समझने का सर्वाधिकार पंडितों ने अपने पास रख रखा है.

स्वयंसेवकों द्वारा चलाई गई संस्कृत भारती, संस्कृत को फिर से प्रचलित करने के प्रयास में 3 दशकों से जुटी हुई है. इस तरह का प्रयास विश्व में कोई नई बात नहीं है. एक समय था कि यहूदियों की भाषा हिबू्र भी संस्कृत की भांति विलुप्त होने लगी थी तब (19वीं और 20वीं शताब्दियों में) यूरोप और फिलिस्तीन में फैले कुछ यहूदियों ने इस को फिर से प्रचलन में लाने के लिए कदम उठाने शुरू किए. अब इस भाषा ने मृतभाषा के दरजे से उठ कर इसराईलवासियों और दुनियाभर के अधिकांश यहूदियों की मातृभाषा का स्थान प्राप्त कर लिया है.

शर्मिंदा हों या गर्व करें

आधुनिक भारत में संस्कृत के अध्ययन को संदेह की निगाह से देखा जाता है. इस संदेह के 2 मुख्य कारण हैं :

पहला, वक्त था जब संस्कृत, जिसे कई बार देवभाषा भी कहा जाता है, सिर्फ ब्राह्मण या उच्चजातीय लोग ही सीख और बोल सकते थे. निचले वर्गों और यहां तक कि उन की खुद की औरतों को इस जटिल भाषा का ज्ञान नहीं था. लेकिन यह बात भी ध्यान रखना जरूरी है कि उस वक्त की लोकप्रिय भाषा प्राकृत और संस्कृत में कई समानताएं थीं. फिर भी यह बात नकारी नहीं जा सकती कि आज के युग में संस्कृत के ज्ञान की बातचीत चिंतनशील लोगों में 2 अजब तरह के आवेग पैदा करने का सामर्थ्य रखती है. कुछ लोगों को इस के अध्ययन में अपने उद्गम के ज्ञान की प्राप्ति और इस तरह से एक विशेष प्रकार के गर्व की अनुभूति होती है. वहीं कुछ लोगों को इस में सिर्फ अन्याय की निर्मम व अनंत गाथा ही दिखती है.

दूसरा, विशेषत: 19वीं और 20वीं शताब्दियों में, संस्कृत भाषा एवं परंपरा को अनेक बार हिंदू राष्ट्रवाद की सेवा में भरती होना पड़ा. राजनीतिज्ञों द्वारा भाषा के इस व्यपहरण से देश को कई बार क्षति हुई जो लोेकमत में संस्कृत के लिए हानिकारक साबित हुई.

असल में हमारे देश में संस्कृत का धर्म और राजनीति ने अपहरण कर के रखा है. लेकिन संस्कृत तो मात्र एक भाषा है. निसंदेह, लेखक के धरती से जाने के बाद भी भाषा उस के विचारों को बरकरार रखती है. लिखित भाषा बीते हुए कल को जीवित रखने का सामर्थ्य रखती है. भाषा के माध्यम से हमें पुरातन जनों की सही या गलत मान्यताओं व धारणाओं के बारे में जानकारी मिलती है.

‘संस्कृत भारती’ की 30 सालों की उपलब्धियां कोई कम प्रभावशाली नहीं हैं, खासतौर पर अगर हम यह ध्यान में रखें कि 30 साल एक मनुष्य के लिए लंबा दौर होता है, मगर एक संगठन के लिए कम. संस्कृत भारती का ध्येय फिर संस्कृत को देश में वार्त्तालाप की लोकप्रिय भाषा बनाना है. इस उपलब्धि को इस संगठन ने बिना व्याकरण के नियम तोड़े संस्कृत को सरल बना कर हासिल किया है. आजादी के वक्त जब संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने का सुझाव रखा गया तो एकमात्र इस भाषा की कठिनता के कारण देश के संस्थापक पिताओं ने सुझाव अस्वीकार कर दिया था. परंतु 2010 में संस्कृत भारती के यत्नों से इसे उत्तरखंड की दूसरी राजभाषा का दरजा दिया गया.

आज भी प्रचलन में

देशभर में संस्कृत वार्त्तालाप और तरुणों के लिए ग्रीष्मकालीन संस्कृत कैंप चला कर, वीथिनाटकों (स्ट्रीटप्ले), प्रदर्शनियों, सभाओं और सम्मेलनों के जरिए संस्कृत भारती निश्चय ही साल दर साल अपने ध्येय के निकट आ रहा है. स्वयंसेवकों के विश्वास और प्रयत्नों के कारण इन 30 सालों में देश में कई ऐसे गांव हैं जिन में गांववासी संस्कृत में ही पूरा संवाद करते हैं. बेंगलुरु से 300 किलोमीटर दूर मुट्टूर गांव में कई घरों के बाहर लिखा है कि यहां संस्कृत बोली जाती है. अब यह पता करना होगा कि इन घरों के निवासी ब्राह्मण ही हैं या गैरब्राह्मण भी और पढ़ाई धर्मग्रंथों की होती है या वेश्याओं पर लिखे काव्यों की भी.

अमेरिका के बोस्टन नगरवासी, संस्कृत भारती के श्रीगिरी भारतन ‘संस्कृत भारती’ के प्रचार वाक्य के जरिए यह समझना चाह रहे थे कि इस संगठन की कार्यवाहियां किस प्रकार लाभप्रद हो सकने का सामर्थ्य रखती हैं. ‘‘भाषा उज्जीव्यताम्. संस्कृति: संवर्ध्यताम्. विश्वं परिवर्त्यताम्. अर्थात, भाषा का पुन: प्रचलन करें, फिर संस्कृति का नवीनीकरण हो, फिर संसार परिवर्तित हो. ऐसा करने के लिए आवश्यक है कि संस्कृत भाषा जनता के सामने सरल भाषा की तरह पेश की जाए.’’ भाषा को लोकप्रिय बनाने के लक्ष्य से इस संगठन ने सब से पहले इसे सरल बनाने का काम आरंभ किया. यह समझाने के लिए श्रीगिरी भारतन ने इस बात पर ध्यान दिलाया कि भाषा के 22 उपसर्गों और 2200 मूल क्रियापदों व संज्ञाओं के संयोजन से जो विशाल शब्दसंग्रह की संभावनाएं हैं, वे न केवल इस भाषा को आधुनिक युग के लिए सक्रिय बनाती हैं, बल्कि हर एक शब्द के लिए इतने सारे समानार्थक शब्द हमारे सामने रखती हैं कि हम वर्णन करने के लिए आराम से केवल सरल शब्द चुन कर एक सुखद वार्त्तालाप कर सकते हैं.

पुनर्जीवित करने का प्रयास

मिसाल के तौर पर यदि हमारे वार्त्तालाप का विषय हमारी सास हों तो मन की पूरी बात अपनी श्वश्रू: को ले कर संस्कृत भाषा में करने की कोशिश में मन थक जाएगा, बेचैन हो जाएगा. लेकिन यदि हमें बताया जाए कि वरवत्सला शब्द भी श्वश्रू: शब्द के समानार्थक है तो अपनी सास पर संस्कृत में आराम से पूरा का पूरा भाषण दिया जा सकता है. इसी तरह से पितृ के बजाय जनक या भ्रातृ के बजाय सहोदर आदि के उपयोग से वार्त्तालाप को सरल बनाया जा सकता है.

‘संस्कृत भारती’ के अमेरिकी कोऔर्डिनेटर, वासुवज ईश्वरमङ्गलम के अनुसार, एक बच्चा अपनी मातृभाषा क्रमश: 4 कदमों में सीखता है. ये हैं, सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना. साधारणतया भारतीय विद्यालयों में संस्कृत सीधे तीसरे और चौथे कदमों से सिखानी शुरू की जाती है. वासुवज के अनुसार, यही वजह है कि अकसर विद्यार्थियों को संस्कृत नीरस लगने लगती है और वे उन्नत स्तर का अनुकरण नहीं करते.

वासुवज की बात सुन कर मैं सोच रही थी कि 20 साल पहले भारत में शिक्षा पाने वाला सच में कोई बच्चा संस्कृत से बच नहीं पाता था. सीखनी सब को पड़ती थी. फलम्, फले, फलानी, संस्कृत कभी नहीं आनी, वाले दिन फिर याद आ गए.

राम के रूप याद करने की बड़ी अच्छी तरकीब सिखाई थी मेरे मौसेरे भाई ने :

‘‘यह क्या वाहियात तरीके से रट लगाए चली जा रही हो. इलाहाबाद में रूप कोई भी ऐसे बेड़ेबेड़े याद नहीं करता है.’’

बेड़ेबेड़े से उन का मतलब था, राम:- रामौ-रामा: फिर, रामम्-रामौ-रामान्… वाला क्रम, उलटे उस दिन मैं ने पन्नू दादा से रूप को ऊपर से नीचे लंबवत याद करना सीखा.

‘‘सब से मुश्किल यह पहली वाली खड़ी है. इसे बस ठीक से याद कर लो. फिर दूसरी खड़ी में तो सिर्फ 2 बार रामौ है, 3 बार रामाभ्याम्, 2 बार रामयो:, फिर हे रामौ…’’

बहरहाल, बिना किसी नाटकविज्ञापन के जैसेतैसे संस्कृत का भी बेड़ा पार हो गया. नहीं तो हथियार तो अपनी मम्मीपापा के सामने मैं ने कई बार डाल दिए थे कि नहीं याद हो पाएगी मुझ से यह संस्कृत.

संस्कृत और अमेरिकी कैंप

वर्ष 2012 में अमेरिका के उत्तरी कैलिफोर्निया के सैन होजे में संस्कृत भारती द्वारा 12 से 17 साल के बच्चों के लिए सप्ताहभर जो इमर्शन कैंप आयोजित किया गया उस में वासुवज के निर्देशन में संस्कृत भाषा सिखाने की शुरुआत पहले कदम से ही हुई. कैंप में बच्चे भाषा में अपनी प्रवीणता के अनुसार बिगिनर, इंटरमीडिएट और ऐडवांस्ड श्रेणियों में विभाजित थे. शुरुआत की ‘मम् नाम: वासुवज’ से. फिर बारीबारी से लगे पूछने उन 15 बच्चों से जिन्होंने कभी संस्कृत न बोली थी न ही सुनी, ‘भवत: नाम: किम्?’ पूछतेपूछते पाठ के खत्म होने तक बच्चों को न केवल परिचय देना और लेना आ गया, बल्कि उन्होंने ‘मैं इधर हूं’, ‘वह वहां है’, ‘मैं भारतीय हूं’, ‘मैं अमेरिकन हूं’ इत्यादि वर्णन करना भी सीख लिया.

यह कैंप संस्कृत भारती द्वारा अमेरिका में हाईस्कूल के बच्चों के लिए तैयार किया हुआ 3 साल के ‘संस्कृत एज फौरेन लैंग्वेज’ नामक औनलाइन संचारित पाठ्यक्रम का भाग है. इस के संचालक गोविंद येलागलावाड़ी ने बताया कि अब तक इस की 2 ग्रेजुएटिंग कक्षाओं में क्रमश: 8 और 9 विद्यार्थी सफलतापूर्वक पास हुए हैं. इस साल सैन होजे के कैंप में 28 बच्चों ने भाग लिया.

विदेशी गपशप में शुमार

कक्षा के बाहर 3 नवयुवक अध्यापकगण आपस में खड़े हो कर संस्कृत में बातचीत कर रहे थे. मैं चौंकी. रुक कर उन की बातें सुनने लगी. मुझे लगा कि वे तीनों हाल में घोषित हौलीवुड फिल्मस्टार जैनी डैप के अपनी गर्लफ्रैंड वनैसा पैराडिस से विच्छेद की बात कर रहे हैं. यह जान कर बड़ी प्रभावित हुई कि इस तरह की सैलिब्रिटी गपशप भी ये लोग संस्कृत में कर लेते हैं. मैं भी उन से बात करने लग गई. बातचीत के दौरान उन नवयुवक अध्यापकों ने जनवरी 2011 और 2012 में बेंगलुरु तथा दिल्ली में हुए विश्व संस्कृत बुक फेयर के बारे में बताना शुरू कर दिया. उन में से एक अध्यापक दोनों उत्सवों में मौजूद थे.

यह महत्त्वपूर्ण बात है कि चीन की मैनडरीन भाषा के बाद विश्व में सब से अधिक बोली जाने वाली भाषा हिंदी है. 1950 में जब हमारा संविधान लागू हुआ तो भारतीय गणतंत्र की प्रमुख आधिकारिक भाषा के लिए हिंदी और सहायक आधिकारिक भाषा के लिए अंगरेजी को तय किया गया. लेकिन खासतौर पर आजादी मिलने के पहले 3 दशकों में सरकारी कार्यवाहियों द्वारा जो खड़ीबोली हिंदी का संस्कृतीकरण होना शुरू हुआ, उस से शायद आम भारतीय जनता ऐसी घबराई कि उस के प्रतिघात के रूप में हम लोगों में पिजन हिंदी, यानी अंगरेजीमिश्रित हिंदी का प्रचलन बढ़ते देख रहे हैं. भाषा का यह चिंताजनक प्रदूषण आज टैलीविजन के कई चैनलों के हिंदी खबरों के प्रसारण में साफ झलकता है. शायद कहीं ज्यादा अच्छा होता यदि पाठशालाओं में संस्कृत अध्ययन के संचालन पर ज्यादा ध्यान दिया जाता, न कि संस्कृतनिष्ठ हिंदी पर.

भाषा सर्वथा वही लोकप्रिय होगी जो जनता को सरल लगे, साथ में विकासशील हो, समय से मेल खाए हुए हो और जिस का आधुनिक साहित्य लोगों को रोचक व रोमांचक लगे.

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