धर्म का प्रचारप्रसार करने वाले किसी आदमी से बात करें या कोई धार्मिक किताब पढ़ें तो समझ में यही आता है कि कमजोर, बूढ़ों, बच्चों और औरतों की मदद करना इंसान का सब से बड़ा धर्म है. कई लोग इसे भारत की महान संस्कृति से भी जोड़ते हैं. इस की तारीफ करते दिनरात थकते भी नहीं हैं. असल में जब मौका आता है तो भारतीय धर्म और संस्कृति का झंडा बुलंद करने वाले यही लोग कमजोर लोगों, बच्चों और औरतों को अपने पैरों के नीचे कीड़ेमकोड़ों की तरह कुचलते हुए निकल जाते हैं. मंदिरों में हुए अब तक के सभी हादसों को देखें तो पता चलता है कि ज्यादातर लोग भीड़ के पैरों तले कुचल कर ही मरते हैं. 

25 अगस्त को उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित चित्रकूट और सतना जिले के बीच कामदगिरि परिक्रमा के दौरान हुए हादसे में 10 लोग भीड़ के पैरों तले कुचल कर मर गए और 25 लोग घायल हो गए. मरने वालों में महिलाएं और बूढ़े ही शामिल हैं. फतेहपुर जिले की रहने वाली 22 साल की आशा देवी अपने चचेरे भाई राजू के साथ कामदगिरि की परिक्रमा करने गई थी. चित्रकूट में उस दिन बहुत भीड़ थी.

एक तो मौनी अमावस्या दूसरे, दिन सोमवार होने के कारण 10 से 12 लाख लोग कामदगिरि में आ जुटे थे. इन में ज्यादातर लोग दलित और पिछड़ी जातियों के थे. ये लोग धार्मिक स्थलों पर लगने वाले मेलों के मोह में फंस कर मंदिरों में दर्शन और परिक्रमा के लिए आते हैं. 

आशा देवी के 2 बच्चे हैं. वह चाहती थी कि उस के पति को अच्छी सी नौकरी मिल जाए. आशा देवी ने सुना था कि कामदगिरि की परिक्रमा कर के कामतानाथ मंदिर में दर्शन करने से मनोकामना पूरी होती है. वह बड़ी मुश्किल से ट्रेन और बस के रास्ते चित्रकूट आई थी. उस ने अपने छोटे बच्चों को चचेरे भाई राजू के पास छोड़ दिया और खुद कामदगिरि परिक्रमा करने के लिए निकल गई. सब से पहले उस ने रामघाट जा कर मंदाकिनी नदी में स्नान किया. वहां बहुत भीड़ थी. जैसेतैसे बचतेबचाते वह वहां से बाहर निकली. इस के बाद वह पैदल ही कामदगिरि परिक्रमा के लिए चल पड़ी. आशा देवी की यात्रा पूरी ही होने वाली थी कि इसी बीच पीछे परिक्रमा कर रही भीड़ में भगदड़ मच गई. 

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