वरुण से किनारा
भाजपा के नए अध्यक्ष अमित शाह ने अपनी टीम में वरुण गांधी को न ले कर एक तरह से साफ कर दिया है कि वे अपने से बड़े कद का नेता संगठन में नहीं चाहते. टीम में शामिल अधिकांश चेहरे नए और दूसरी पंक्ति के हैं.
वरुण गांधी से परहेज की और भी वजहें हैं जिन में खास है कि वे कट्टर नहीं हैं. अब इस तरह की बातें तो होती रहेंगी कि मेनका गांधी अपने बेटे को उत्तर प्रदेश का सीएम प्रोजैक्ट कर रही थीं और वरुण अपने कजिन्स यानी राहुल व प्रियंका के साथ होटल में खाना खाने गए थे इसलिए उन की अनदेखी की गई लेकिन हकीकत उन को ले कर अमित शाह की घबराहट थी.
इरोम की मुहिम
सरकार आत्महत्या की कोशिश करने वाली धारा 309 को हटाने की बात कर ही रही थी कि उधर मणिपुर की एक अदालत ने मानव अधिकार कार्यकर्ता इरोम चानू शर्मिला को इसी आरोप से बरी कर दिया. यह मामला 14 साल अदालत में चला यानी 42 वर्षीय शर्मिला ने उम्र का एक हसीन हिस्सा नजरबंद रहते गुजार दिया. इस की भरपाई कौन करेगा, इस पर सब खामोश हैं और रहेंगे.
‘आयरन लेडी औफ मणिपुर’ के खिताब से नवाजी गई इरोम झक्की या सनकी नहीं हैं. वे एक सार्थक मुद्दे की बात पर भूखहड़ताल पर बैठी थीं कि पूर्वोत्तर राज्यों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून हटाया जाए जिस के चलते इन राज्यों में सरकारी बंदूकधारी मनमानी किया करते हैं. इरोम की लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है.
जीतन की फजीहत
बड़े आदमी का बेटा होना भी अपनेआप में कमतर गुनाह वाली बात नहीं होती. पिता का सम्मान और प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिलाने के लिए प्यार नाम की अनिवार्य रस्म भी छिप कर निभानी पड़ती है. इस में पकड़े जाओ तो कैसी फजीहत होती है, प्रवीण मांझी पिता जीतनराम मांझी, मुख्यमंत्री बिहार, इस की ताजा मिसाल हैं.
प्रवीण होटल के कमरे में छिप कर अपनी गर्लफ्रैंड से प्यार कर रहा था, इस उम्र में लोग यही करते हैं. पैसे न हों तो जोड़े जंगल, खेत या पहाड़ों के पीछे चले जाते हैं, उन्हें रोक पाने में कभी कोई कामयाब न हुआ न ही होगा. इस अनिवार्य आवश्यकता की व्याख्या जदयू के मुखिया शरद यादव ने कुछ यों कर डाली कि यह भी एक तरह की भूख है. बात सच है पर सीएम के बेटे को दूसरे से बेहतर मालूम होना चाहिए कि जितना मजा प्रेमियों को प्यार करने में आता है, उस से कहीं ज्यादा मजा प्रेमियों को पकड़ने वालों को आता है.
अपनेअपने हिंदुत्व
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का यह बयान कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है, कतई नया नहीं है. फर्क इतना भर आया है कि भाजपा के सत्ता में रहते और नरेंद्र मोदी के पीएम होते अब भागवत पर पहले से ज्यादा ध्यान दिया जाने लगा है, जो इन दिनों दार्शनिकों सरीखी धार्मिक व आध्यात्मिक बातें कर रहे हैं.
इन में से एक दिलचस्प और हास्यास्पद बात यह कि हिंदुओं को बराबरी पर लाना है यानी जातिगत भेदभाव खत्म करना है. हिंदुत्व का असली मतलब समझने वालों को ज्ञान प्राप्त हो गया कि अब छुआछूत और जातिपांति पर ध्यान नहीं देना है. जाति की खाने वाले हिंदूवादी पाला बदलने में कितने माहिर होते हैं, यह इस नई कवायद से साफ झलकता है. इसे यथार्थ पर लाने के लिए बेहतर होगा कि जल्द ही संघ का प्रमुख किसी दलित को बनाया जाए जिस से कथनी और करनी में फर्क स्पष्ट हो.