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अफवाहों के भंवर में राजनाथ

पुरानी कहावत है- ‘बिना आग के धुआं नहीं होता’. भारतीय जनता पार्टी को केंद्र की सत्ता में आए 100 दिन भी पूरे नहीं हुए थे कि उस के बडे़ नेताओं के खिलाफ अफवाहों का तूफान आ गया. अफवाहें भी ऐसी कि देश के प्रधानमंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष को सामने आ कर सफाई देनी पड़ी. भाजपा कह रही है कि ये अफवाहें बेबुनियाद हैं. विरोधी दलों का कहना है कि भाजपा सत्ता में है, उसे अपने खिलाफ अफवाहें उड़ाने वाले का पता लगा कर दूध का दूध और पानी का पानी सामने कर देना चाहिए. भाजपा की हालत सांपछछूंदर वाली हो गई है. उसे न तो अफवाहों को उगलते बन रहा है न निगलते.  उलझे

देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह के बारे में यह कहा जाता है कि उन का आत्मविश्वास कभी कमजोर नहीं पड़ता है. इस की अपनी वजह भी है. उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के भभौरा गांव में पैदा हुए राजनाथ सिंह स्कू लटीचर थे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ कर वे उत्तर प्रदेश में मंत्री से ले कर मुख्यमंत्री तक की कुरसी पर पहुंच गए. भाजपा के संगठन में हर बडे़ पद पर वे आसीन रहे.

एक समय भाजपा में उन का नाम प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए भी सब से आगे चल रहा था. 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत मिला तो उन को प्रधानमंत्री के बाद की सब से ताकतवर मानी जाने वाली गृहमंत्री की कुरसी दी गई. 

भाजपा की सोच रही है कि गृहमंत्री के पद पर लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल जैसा नेता बैठना चाहिए. जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तो लालकृष्ण आडवाणी को गृहमंत्री की कुरसी दी गई थी. नरेंद्र मोदी की अगुआई में भाजपा ने केंद्र में अपनी सरकार बनाई तो राजनाथ सिंह को गृहमंत्री बनने का मौका दिया गया. राजनाथ सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद पद और गोपनीयता की शपथ ली. 

प्रधानमंत्री विदेश दौरे पर जाते हैं तो सत्ता की कमान गृहमंत्री राजनाथ सिंह के हाथ में सौंप कर जाते हैं. लोकसभा में डिप्टी लीडर का पद भी राजनाथ सिंह के पास है. ऐसे में आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजनाथ सिंह कितने मजबूत कद के नेता हैं. गृहमंत्री के हाथ में देश के अंदर सुरक्षा का पूरा चक्र होता है. खुफिया एजेंसियों की पूरी कमान गृहमंत्री के हाथ में होती है. देश का ऐसा प्रमुख व्यक्ति जब तथाकथित अफवाहों के जाल में फंसता है तो कितना बेचारा नजर आता है, यह देखना हो तो राजनाथ सिंह को देखें.

गृहमंत्री की उदासी

28 अगस्त को राजनाथ सिंह अपने संसदीय क्षेत्र यानी उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में थे. वे ‘प्रधानमंत्री जनधन योजना’ का उद्घाटन करने के लिए लखनऊ में थे. हमेशा खुशदिल और बेबाक बातचीत करने वाले राजनाथ सिंह के मुख पर उदासी की छाया थी. उन की बौडी लैंग्वेज में पहले जैसा आत्मविश्वास और भरोसा भी नहीं दिख रहा था. इस की बड़ी वजह एक तथाकथित अफवाह थी जिस में राजनाथ सिंह के पुत्र और उत्तर प्रदेश भाजपा के महासचिव पंकज सिंह पर निशाना साधा गया था. 

बात कुछ यों है, राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह पर आरोप लगा कि उन्होंने किसी बिजनैसमैन से काम कराने के बदले पैसा लिया था. इस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंकज सिंह को बुलाया और पैसे लौटाने के लिए कहा. अफवाह फैली कि नरेंद्र मोदी ने कहा कि बगल के कमरे में वे लोग बैठे हैं. उन का एकएक पैसा वापस कर दो. इस अफवाह से नरेंद्र मोदी की उस बात को पुख्ता करने का काम किया गया जिस में उन्होंने कहा था कि उन की सरकार में भ्रष्टाचार बरदाश्त नहीं किया जाएगा. न वे खाएंगे, न खाने देंगे. 

यह बात पहले राजनीतिक गलियारों में चर्चा का बिंदु बनी. उस के बाद सोशल मीडिया में वायरल हो गई. हालात यहां तक पहुंच गए कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भाजपा की सब से बड़ी सत्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के सामने गुहार लगाई. इस के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की तरफ से ऐसी घटना का खंडन किया गया. दोनों ही जगहों से राजनाथ सिंह और उन के पुत्र पंकज सिंह के काम, व्यवहार और पार्टी के प्रति समर्पण की तारीफ भी हुई.

बेबसी पर उठे सवाल

सामान्यतौर पर देखें तो इस के बाद भाजपा में सबकुछ सहज हो जाना चाहिए था. हकीकत में वैसा हुआ नहीं. इस अफवाह के बाद से पार्टी के कामकाज में पंकज सिंह की सक्रियता बेहद कम दिखने लगी. गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी बुझेबुझे नजर आने लगे. 28 अगस्त को लखनऊ में मीडिया के बीच चहकने वाले राजनाथ सिंह बेबस नजर आए. उन के परिवार को ले कर फैली अफवाहों पर जब सवाल किया गया तो वे बड़े ही दार्शनिक अंदाज में हवा में हाथ हिलाते बोले, ‘विधाता सब देख रहा है.’ उन से अगला सवाल हुआ, ‘क्या आप को इस में कोई साजिश नजर आ रही है?’ राजनाथ सिंह ने फिर सवाल के बदले में सवाल करते कहा, ‘आप लोग खोजी पत्रकार हैं, खोज करिए.’  जिस नेता के हाथ में देश की सब से बड़ी खुफिया एजेंसी हो वह इस तरह से बेबस नजर आए, ऐसा पहली बार देखा गया. उन से एक सवाल और किया गया, ‘आप को तो साजिश करने वाले का नाम, पता मालूम हो गया होगा?’ इस पर राजनाथ सिंह कुछ नहीं बोले, बस मुसकरा कर रह गए.

अफवाहों का यह पहला मामला नहीं था. इस के पहले भाजपा के 2 और बड़े नेताओं को ले कर अफवाहों का दौर चल चुका था. सब से पहले भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के घर में जासूसी यंत्र लगाए जाने की बात फैलाई गई थी. अरुण जेटली के करीबी माने जाने वाले पैट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधानऔर सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर भी अफवाहों के बाजार में छाए रहे. इन सभी के खिलाफ हलकीफुलकी अफवाहें थीं. 

अफवाहों ने भाजपा में पार्टी नेताओं के बीच चुनावी दौर में बनी सहजता को तोड़ दिया है. अगर गंभीर आरोप केवल अफवाह है तो केंद्र सरकार को इस के पीछे हवा देने वाले लोगों का पता करना चाहिए, जिस से किसी दूसरे नेता के खिलाफ ऐसे शर्मनाक आरोप न लग सकें. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि राजनाथ सिंह को ले कर चली अफवाह के पीछे के सच को राजनाथ सिंह जानते हैं. इसी वजह से वे इस मामले को तूल नहीं देना चाहते. उन को लगता है कि छानबीन करने में जो सच दिखेगा उसे स्वीकार करना सरल नहीं होगा. ऐसे में जानबूझ कर भाजपा सरकार दूध के साथ मक्खी को भी निगल जाना चाहती है.

सत्ता संग्राम का नतीजा

भाजपा भले ही इन बातों को अफवाह मान रही हो, सवाल उठता है इन को फैलाने वालों को बेनकाब करने में उस की दिलचस्पी क्यों नहीं है? यही वह सवाल है जो भाजपा के सत्ता संग्राम को दिखाता है, जिस का लाभ उठा कर विरोधी पार्टी और नेता दोनों सरकार पर निशाना साध रहे हैं. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि अगर यह काम किसी विरोधी दल का होता तो विपक्ष इन अफवाहों को हवा देने के लिए सामने आ जाता. अचंभे की बात यह है कि इन अफवाहों को फैलाने में किसी विरोधी दल की दिलचस्पी नहीं नजर आई. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार ने तो राजनाथ सिंह की तारीफ की और कहा कि वे ऐसे नेता नहीं हैं. भाजपा में एकदो नेताओं के अलावा किसी ने भी राजनाथ सिंह के समर्थन में आवाज नहीं उठाई. 

केंद्र में सरकार बनने के बाद से भाजपा में सत्ता का संघर्ष जारी है. अपनेअपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को स्थापित करने का दौर चल रहा है. ऐसे में इन अफवाहों को फैलाने के लिए जरूरी खाद और बीज मिल जाता है. भाजपा में नंबर 2 की रेस चल रही है. नंबर 2 की इस रेस में सब से आगे 2 नाम, राजनाथ सिंह और अरुण जेटली के हैं. देखा जाए तो खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन दोनों को ही बराबर मानते हैं. उन की ओर से दोनों नेताओं को अलगअलग जिम्मेदारी दी गई है.

कई बार इन नेताओं के समर्थक आपस में ऐसी रेस को जन्म देते हैं जो नेताओें के बीच खाई गहरी करने का काम करती है. कई बार नेताओं को लाभ होता है तो कई बार इस का नुकसान भी उठाना पड़ता है. नेताओं के बीच गहराती खाई का लाभ नेता को हो भी जाए तो पार्टी को उस का नुकसान झेलना ही पड़ता है. भाजपा नेताओं के बीच तालमेल के बिगड़ने का प्रभाव चुनावों पर भी पड़ रहा है. उत्तराखंड के बाद बिहार के उपचुनावों में जिस तरह से पार्टी की हार हुई है उस में इन अफवाहों का बड़ा हाथ माना जा रहा है. ताजा उपचुनावों में भी भाजपा की करारी हार से राजनीतिक रूप से कोमा में चली गई विपक्षी पार्टियों को अब उठ खड़े होने का मौका भी मिल गया है.

फिलहाल अफवाहें विरोधी नेताओं को निबटाने का जरिया बन कर उभरी हैं. ऐसे में अफवाहों के वारपलटवार की पूरी गुंजाइश बनी हुई है. जब तक अफवाहों के पीछे के तत्त्वों को बेनकाब नहीं किया जाएगा तब तक अफवाह और इन के पीछे की रणनीति पर होने वाली चर्चाओं को विराम नहीं दिया जा सकता है.

अफवाहों की राजनीति में उलझे राजनाथ

पुरानी कहावत है- ‘बिना आग के धुआं नहीं होता’. भारतीय जनता पार्टी को केंद्र की सत्ता में आए 100 दिन भी पूरे नहीं हुए थे कि उस के बडे़ नेताओं के खिलाफ अफवाहों का तूफान आ गया. अफवाहें भी ऐसी कि देश के प्रधानमंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष को सामने आ कर सफाई देनी पड़ी. भाजपा कह रही है कि ये अफवाहें बेबुनियाद हैं. विरोधी दलों का कहना है कि भाजपा सत्ता में है, उसे अपने खिलाफ अफवाहें उड़ाने वाले का पता लगा कर दूध का दूध और पानी का पानी सामने कर देना चाहिए. भाजपा की हालत सांपछछूंदर वाली हो गई है. उसे न तो अफवाहों को उगलते बन रहा है न निगलते.  उलझे देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह के बारे में यह कहा जाता है कि उन का आत्मविश्वास कभी कमजोर नहीं पड़ता है. इस की अपनी वजह भी है. उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के भभौरा गांव में पैदा हुए राजनाथ सिंह स्कू लटीचर थे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ कर वे उत्तर प्रदेश में मंत्री से ले कर मुख्यमंत्री तक की कुरसी पर पहुंच गए. भाजपा के संगठन में हर बडे़ पद पर वे आसीन रहे.

एक समय भाजपा में उन का नाम प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए भी सब से आगे चल रहा था. 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत मिला तो उन को प्रधानमंत्री के बाद की सब से ताकतवर मानी जाने वाली गृहमंत्री की कुरसी दी गई. 

भाजपा की सोच रही है कि गृहमंत्री के पद पर लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल जैसा नेता बैठना चाहिए. जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तो लालकृष्ण आडवाणी को गृहमंत्री की कुरसी दी गई थी. नरेंद्र मोदी की अगुआई में भाजपा ने केंद्र में अपनी सरकार बनाई तो राजनाथ सिंह को गृहमंत्री बनने का मौका दिया गया. राजनाथ सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद पद और गोपनीयता की शपथ ली. 

प्रधानमंत्री विदेश दौरे पर जाते हैं तो सत्ता की कमान गृहमंत्री राजनाथ सिंह के हाथ में सौंप कर जाते हैं. लोकसभा में डिप्टी लीडर का पद भी राजनाथ सिंह के पास है. ऐसे में आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजनाथ सिंह कितने मजबूत कद के नेता हैं. गृहमंत्री के हाथ में देश के अंदर सुरक्षा का पूरा चक्र होता है. खुफिया एजेंसियों की पूरी कमान गृहमंत्री के हाथ में होती है. देश का ऐसा प्रमुख व्यक्ति जब तथाकथित अफवाहों के जाल में फंसता है तो कितना बेचारा नजर आता है, यह देखना हो तो राजनाथ सिंह को देखें.

गृहमंत्री की उदासी

28 अगस्त को राजनाथ सिंह अपने संसदीय क्षेत्र यानी उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में थे. वे ‘प्रधानमंत्री जनधन योजना’ का उद्घाटन करने के लिए लखनऊ में थे. हमेशा खुशदिल और बेबाक बातचीत करने वाले राजनाथ सिंह के मुख पर उदासी की छाया थी. उन की बौडी लैंग्वेज में पहले जैसा आत्मविश्वास और भरोसा भी नहीं दिख रहा था. इस की बड़ी वजह एक तथाकथित अफवाह थी जिस में राजनाथ सिंह के पुत्र और उत्तर प्रदेश भाजपा के महासचिव पंकज सिंह पर निशाना साधा गया था. 

बात कुछ यों है, राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह पर आरोप लगा कि उन्होंने किसी बिजनैसमैन से काम कराने के बदले पैसा लिया था. इस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंकज सिंह को बुलाया और पैसे लौटाने के लिए कहा. अफवाह फैली कि नरेंद्र मोदी ने कहा कि बगल के कमरे में वे लोग बैठे हैं. उन का एकएक पैसा वापस कर दो. इस अफवाह से नरेंद्र मोदी की उस बात को पुख्ता करने का काम किया गया जिस में उन्होंने कहा था कि उन की सरकार में भ्रष्टाचार बरदाश्त नहीं किया जाएगा. न वे खाएंगे, न खाने देंगे. 

यह बात पहले राजनीतिक गलियारों में चर्चा का बिंदु बनी. उस के बाद सोशल मीडिया में वायरल हो गई. हालात यहां तक पहुंच गए कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भाजपा की सब से बड़ी सत्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के सामने गुहार लगाई. इस के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की तरफ से ऐसी घटना का खंडन किया गया. दोनों ही जगहों से राजनाथ सिंह और उन के पुत्र पंकज सिंह के काम, व्यवहार और पार्टी के प्रति समर्पण की तारीफ भी हुई.

बेबसी पर उठे सवाल

सामान्यतौर पर देखें तो इस के बाद भाजपा में सबकुछ सहज हो जाना चाहिए था. हकीकत में वैसा हुआ नहीं. इस अफवाह के बाद से पार्टी के कामकाज में पंकज सिंह की सक्रियता बेहद कम दिखने लगी. गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी बुझेबुझे नजर आने लगे. 28 अगस्त को लखनऊ में मीडिया के बीच चहकने वाले राजनाथ सिंह बेबस नजर आए. उन के परिवार को ले कर फैली अफवाहों पर जब सवाल किया गया तो वे बड़े ही दार्शनिक अंदाज में हवा में हाथ हिलाते बोले, ‘विधाता सब देख रहा है.’ उन से अगला सवाल हुआ, ‘क्या आप को इस में कोई साजिश नजर आ रही है?’ राजनाथ सिंह ने फिर सवाल के बदले में सवाल करते कहा, ‘आप लोग खोजी पत्रकार हैं, खोज करिए.’  जिस नेता के हाथ में देश की सब से बड़ी खुफिया एजेंसी हो वह इस तरह से बेबस नजर आए, ऐसा पहली बार देखा गया. उन से एक सवाल और किया गया, ‘आप को तो साजिश करने वाले का नाम, पता मालूम हो गया होगा?’ इस पर राजनाथ सिंह कुछ नहीं बोले, बस मुसकरा कर रह गए.

अफवाहों का यह पहला मामला नहीं था. इस के पहले भाजपा के 2 और बड़े नेताओं को ले कर अफवाहों का दौर चल चुका था. सब से पहले भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के घर में जासूसी यंत्र लगाए जाने की बात फैलाई गई थी. अरुण जेटली के करीबी माने जाने वाले पैट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधानऔर सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर भी अफवाहों के बाजार में छाए रहे. इन सभी के खिलाफ हलकीफुलकी अफवाहें थीं. 

अफवाहों ने भाजपा में पार्टी नेताओं के बीच चुनावी दौर में बनी सहजता को तोड़ दिया है. अगर गंभीर आरोप केवल अफवाह है तो केंद्र सरकार को इस के पीछे हवा देने वाले लोगों का पता करना चाहिए, जिस से किसी दूसरे नेता के खिलाफ ऐसे शर्मनाक आरोप न लग सकें. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि राजनाथ सिंह को ले कर चली अफवाह के पीछे के सच को राजनाथ सिंह जानते हैं. इसी वजह से वे इस मामले को तूल नहीं देना चाहते. उन को लगता है कि छानबीन करने में जो सच दिखेगा उसे स्वीकार करना सरल नहीं होगा. ऐसे में जानबूझ कर भाजपा सरकार दूध के साथ मक्खी को भी निगल जाना चाहती है.

सत्ता संग्राम का नतीजा

भाजपा भले ही इन बातों को अफवाह मान रही हो, सवाल उठता है इन को फैलाने वालों को बेनकाब करने में उस की दिलचस्पी क्यों नहीं है? यही वह सवाल है जो भाजपा के सत्ता संग्राम को दिखाता है, जिस का लाभ उठा कर विरोधी पार्टी और नेता दोनों सरकार पर निशाना साध रहे हैं. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि अगर यह काम किसी विरोधी दल का होता तो विपक्ष इन अफवाहों को हवा देने के लिए सामने आ जाता. अचंभे की बात यह है कि इन अफवाहों को फैलाने में किसी विरोधी दल की दिलचस्पी नहीं नजर आई. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार ने तो राजनाथ सिंह की तारीफ की और कहा कि वे ऐसे नेता नहीं हैं. भाजपा में एकदो नेताओं के अलावा किसी ने भी राजनाथ सिंह के समर्थन में आवाज नहीं उठाई. 

केंद्र में सरकार बनने के बाद से भाजपा में सत्ता का संघर्ष जारी है. अपनेअपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को स्थापित करने का दौर चल रहा है. ऐसे में इन अफवाहों को फैलाने के लिए जरूरी खाद और बीज मिल जाता है. भाजपा में नंबर 2 की रेस चल रही है. नंबर 2 की इस रेस में सब से आगे 2 नाम, राजनाथ सिंह और अरुण जेटली के हैं. देखा जाए तो खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन दोनों को ही बराबर मानते हैं. उन की ओर से दोनों नेताओं को अलगअलग जिम्मेदारी दी गई है.

कई बार इन नेताओं के समर्थक आपस में ऐसी रेस को जन्म देते हैं जो नेताओें के बीच खाई गहरी करने का काम करती है. कई बार नेताओं को लाभ होता है तो कई बार इस का नुकसान भी उठाना पड़ता है. नेताओं के बीच गहराती खाई का लाभ नेता को हो भी जाए तो पार्टी को उस का नुकसान झेलना ही पड़ता है. भाजपा नेताओं के बीच तालमेल के बिगड़ने का प्रभाव चुनावों पर भी पड़ रहा है. उत्तराखंड के बाद बिहार के उपचुनावों में जिस तरह से पार्टी की हार हुई है उस में इन अफवाहों का बड़ा हाथ माना जा रहा है. ताजा उपचुनावों में भी भाजपा की करारी हार से राजनीतिक रूप से कोमा में चली गई विपक्षी पार्टियों को अब उठ खड़े होने का मौका भी मिल गया है.

फिलहाल अफवाहें विरोधी नेताओं को निबटाने का जरिया बन कर उभरी हैं. ऐसे में अफवाहों के वारपलटवार की पूरी गुंजाइश बनी हुई है. जब तक अफवाहों के पीछे के तत्त्वों को बेनकाब नहीं किया जाएगा तब तक अफवाह और इन के पीछे की रणनीति पर होने वाली चर्चाओं को विराम नहीं दिया जा सकता है.

ग्लोबल जिहाद

एक जमाना था जब नौजवान अपने देश के लिए लड़ते थे. अब ग्लोबलाइजेशन का जमाना है तो युद्ध भी ग्लोबल हो गए हैं और जिहाद भी. सीरिया और इराक में हो रहे शियासुन्नी गृहयुद्ध में लगभग 80 देशों से आए लड़ाके लड़ रहे हैं. इधर, भारत में ऐसा समझा जाता था कि यहां के मुसलमान अपनी समस्याओं में ऐसे उलझे हुए हैं कि उन का सीरिया या इराक के गृहयुद्ध से कोई लेनादेना क्यों होने लगा लेकिन अब यह सुदूर मध्यपूर्व का युद्ध नहीं रहा. वह हमारी देहरी लांघ कर अंदर आ पहुंचा है.

पहले खबर आई कि हमारे देश के 18 सुन्नी नौजवान इराक व सीरिया में सुन्नी जिहादियों की तरफ से लड़ रहे हैं. फिर खबर आई कि मुंबई के पास के कल्याण शहर के 4 मुसलिम युवा सुन्नी आतंकी संगठन आईएसआईएस की तरफ से लड़ने के लिए वहां पहुंच गए हैं. उन में से एक तो लड़ते हुए मारा गया. उस के बाद लड़ने के लिए इराक ले जाए जा रहे 4 युवाओं को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. तो दूसरी तरफ हजारों शिया करबला और नजफ शहरों में बने अपने धर्मस्थलों की रक्षा के लिए इराक जाने को तैयार हैं. वे इस बाबत एक फौर्म पर हस्ताक्षर भी कर चुके हैं.

भारत में इस का प्रभाव

इस तरह शिया और सुन्नी जो भारत में शांति के साथ रहते हैं वे इराक में जा कर मरनेमारने को उतारू हैं. कोई दावे के साथ अब यह नहीं कह सकता कि उन की दुश्मनी केवल इराक तक ही सीमित रहेगी और भारत में इस का प्रभाव नहीं पड़ेगा. गौरतलब है कि इसलामिक स्टेट इन इराक ऐंड सीरिया यानी आईएसआईएस एक खूंखार आतंकवादी संगठन है. इस के आतंकवादी सीरिया व इराक में वहां की सरकारों से लड़ रहे हैं. आईएसआईएस वहां कट्टरपंथी हुकूमत कायम करना चाहता है. उस के लड़ाके वहां के शिया मुसलमानों, ईसाइयों व दूसरे धर्मों के मानने वालों को सुन्नी मुसलमान बनने को मजबूर कर रहे हैं अगर वे इन की बात नहीं मानते हैं तो उन्हें मार डालते हैं.

भारत का आम मुसलिम समाज अमनपसंद है लेकिन सीरिया और इराक के गृहयुद्ध में तेजी के साथ उभरा जिहाद अब ग्लोबल हो गया है. यह ग्लोबल जिहाद भारत में भी अपना असर दिखाने लगा है. भारत के कुछ मुसलिम युवा विदेशों में जा कर मजहब के नाम पर लड़ना चाहते हैं.

नदवी की खतरनाक मंशा

बात केवल यहीं तक सीमित नहीं रही. हाल ही में इस में एक जानेमाने सुन्नी मौलाना भी कूद पड़े हैं. पिछले दिनों मौलाना सलमान नदवी की कुछ करतूतों से खलबली मच गई. उन्होंने इराक में नरसंहार करने वाले और स्वयं को खलीफा करार देने वाले आईएसआईएस के नेता अबूबकर अल बगदादी को न केवल मान्यता प्रदान की बल्कि 5 लाख सैनिकों को इराक भेजने की बात कह कर सांप्रदायिक उन्माद फैलाने की भी कोशिश की. उन्होंने 7 जुलाई को यह बयान दिया था लेकिन अमनपसंद मुसलिमों के विरोध के बाद वे बयान से मुकर गए और सारा दोष मीडिया पर मढ़ दिया. उन्होंने भारतीय नौजवानों की फौज बनाने की सऊदी अरब से अपील भी की और सऊदी अरब सरकार को इस बारे में खत लिख डाला.

नदवी कोई छोटीमोटी हस्ती नहीं हैं. वे दारुल उलूम, नदवा, लखनऊ के शरीयत विभाग के डीन हैं जिस की ख्याति भी दारुल उलूम देवबंद की तरह ही है. इस के अलावा वे औल इंडिया पर्सनल ला बोर्ड और अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के कोर्ट के सदस्य हैं. दरअसल, सऊदी अरब सरकार को लिखे पत्र में नदवी चाहते हैं कि वे अपनी व सऊदी अरब की सोच, जोकि एक ही है, वाले कट्टर मुसलमानों को संगठित करें और ऐसे मुसलमानों की एक वैश्विक इसलामी सेना भी हो. इस के लिए वे 5 लाख सैनिकों का योगदान देंगे.

उन्होंने लिखा है कि इराक के शियाओं से लड़ने के लिए दूसरे देशों के मुसलमानों की मदद की जरूरत है. ऐसे में यह सेना कारगर साबित होगी जिस के गठन की उन्होंने सऊदी अरब से अपील की है. विदित हो कि कोई संगठन दोदो देशों की सरकारों से अकेले नहीं लड़ सकता. आईएसआईएस को सऊदी अरब, कतर व अन्य कुछ देशों की तरफ से हर तरह की मदद मिल रही है. नदवी ने सऊदी अरब सरकार को यह भी लिखा है कि आईएसआईएस के लड़ाकों को दुनिया आतंकवादी न समझे, उन्हें जिहादी कहा जाए क्योंकि वे महान कार्य में लगे हुए हैं. उन्होंने अरब के सभी जिहादी संगठनों का महासंघ बनाने की अपील भी की ताकि वे अपने को एक शक्तिशाली वैश्विक शक्ति में तबदील कर सकें. इस के अलावा नदवी स्वयंभू खलीफा और आईएसआईएस के नेता अबूबकर अल बगदादी को शुभकामनाएं भेज चुके हैं.

इस तरह नदवी सारे एशिया के इकलौते मौलाना हैं जिन्होंने बगदादी की खिलाफत को मान्यता दी है. लेकिन उन के जिस बयान से मुसलिम समुदाय में खलबली मची है वह भारतीय लड़ाकुओं की विदेशों में लड़ने के लिए सेना खड़ी करने की बात है. यह मुसलिम युवाओं को उग्रवादी बनाने की कोशिश है जो अब तक तो ग्लोबल जिहाद से दूर ही थे.

शिकंजा क्यों नहीं

उधर, भड़काऊ और सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वाले बयानों के बावजूद सरकार या खुफिया एजेंसियों ने सलमान नदवी के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की है. जानकारों का मानना है कि उग्रवाद को बढ़ावा देने वाली इस कोशिश को कुचला नहीं गया तो यह एक बड़ी लहर बन सकती है. पिछले दिनों इस की एक झलक देखने को भी मिली जब लखनऊ में शिया समुदाय के लोगों ने उत्तर प्रदेश सरकार के अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री आजम खान, जो सुन्नी समुदाय के हैं, के खिलाफ उग्र प्रदर्शन किया और उन के सरकारी आवास को घेरने की कोशिश की. पुलिस को प्रदर्शनकारियों पर लाठियां चलानी पड़ीं जिस में कई जख्मी हुए. इस के बाद आजम खां के खिलाफ शियाओं ने मोरचा खोल दिया. उन के इस्तीफे की मांग शुरू हो गई. वैसे तो लखनऊ में कई बार शिया सुन्नी दंगे हुए हैं लेकिन शियाओं में ऐसी उग्रता पहली बार दिखाई दी.

दरअसल, कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि मध्यपूर्व के युद्ध ने शिया और सुन्नी समुदायों की नफरत को इतना बढ़ा दिया है कि इस बार शियाओं ने बड़े पैमाने पर भाजपा को वोट डाले. इस से भी सुन्नी नेता नाराज हैं. उधर, महाराष्ट्र के 4 नौजवानों के अलावा तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र के कुछ सुन्नी युवकों के मोसुल और टिकरित में आईएसआईएस के साथ शियाओं के खिलाफ चल रहे युद्ध में शामिल होने की बात कही जा रही है. पहले उन के फंसे होने की बात कही जा रही थी. इस के अलावा एक अंगरेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रैस ने कुछ ऐसे भारतीय मुसलिम नौजवानों के नाम व फोटो छापे थे जो पाकिस्तानअफगानिस्तान सीमा पर लड़ रहे हैं.

सब से पहले सीरिया के भारत में रहे राजदूत ने जरूर एक बार टिप्पणी की थी कि भारतीय लड़ाके सीरिया में असद सरकार के खिलाफ जारी आतंकवादी गतिविधियों में शामिल हैं और तब विदेश मंत्रालय ने उन्हें बुलाया था व उन के बयान के लिए उन्हें लताड़ लगाई थी. हाल ही में कश्मीर और तमिलनाडु में कई आईएसआईएस के प्रशंसक उस की टी शर्ट पहन कर घूमते देखे गए.

पिछले महीने आईएसआईएस के मुखिया और स्वयंभू खलीफा बगदादी ने मोसुल की ग्रांड मसजिद में अपने पहले भाषण में कहा कि खिलाफत ने भारतीय, शामी, चीनी, इराकी, यमनी, मिस्री, मगरिबी, मेरिकी, फ्रेंच, जरमन और आस्ट्रेलियायियों को इसलाम के दुश्मनों से बदला लेने के लिए एक झंडे तले इकट्ठा किया है. एक तरफ सुन्नी इराक जा कर आईएसआईएस की तरफ से लड़ना चाहते हैं तो दूसरी तरफ शिया इराक स्थित अपने धर्मस्थलों को सुन्नी हमलों से बचाने के लिए इराक जाना चाहते हैं.

दिल्ली स्थित शिया संगठन अंजुमन ए हैदरी ने उर्दू अखबारों में विज्ञापन दिया कि आतंकवादी हमलों के शिकार बेकुसूर इराकियों की मदद करने के लिए डाक्टर, नर्स, इंजीनियर के तौर पर इराक जाने के लिए अपने नाम दर्ज कराएं. विज्ञापन में भले ही बेकुसूरों की मदद करने के लिए वहां जाने की बात कही गई है मगर असल में वे शिया धर्मस्थलों की रक्षा करने जाना चाहते हैं. संगठन के नेताओं ने पहले दावा किया था कि 20 हजार लोगों ने अपने नाम दर्ज कराए हैं. उन में 25 प्रतिशत महिलाएं हैं.

दूसरी तरफ, 40 साल पुराने शिया संगठन, औल इंडिया शिया हुसैनी फंड ने लखनऊ और देश के दूसरे हिस्सों में लगाए पोस्टरों में घोषणा की है कि जो कोई आईएसआईएस के खलीफा, अल कायदा के सुप्रीमो अयमान अल जवाहिरी, जमाततुद-दावा के प्रमुख हाफिज सईद, तालिबान के मुखिया मुल्ला उमर और हरकत अल मुजाहिदीन के नेता अजहर मसूद में से किसी का कटा हुआ सिर ले कर आएगा तो उसे करोड़ रुपए का ईनाम दिया जाएगा. संगठन के महासचिव हसन मेहंदी का कहना है, ‘ये लोग पाकिस्तान से सीरिया तक हजारों बेकुसूर शिया मुसलिम, हिंदुओं, सिखों और ईसाइयों की हत्या कर मानवता के खिलाफ अपराध कर रहे हैं. इस के अलावा अल कायदा ने हाल ही में भारत की तबाही के लिए अलग इकाई बनाने की घोषणा की है. इसलिए इन लोगों को धरती से खत्म किया जाना जरूरी है.’

चपेट में कई देश

ग्लोबल जिहाद से केवल भारत का नेतृत्व ही चिंतित हो, ऐसा नहीं है. यह अब दुनिया के कई देशों की समस्या बनती जा रही है. अब तक कुछ मुसलमान उन स्थानों पर जा कर लड़ते थे जहां उन्हें लगता था कि मुसलिमों पर अत्याचार हो रहा है, जैसे चेचेन्या या अफगानिस्तान आदि. लेकिन अब बात इस से आगे बढ़ गई है. इराक और सीरिया में जिहाद के नाम पर सुन्नी से लड़ रहे हैं. वे दोनों मुल्कों में शियाओं की भी मार रहे हैं. अपनी रक्षा में शियाओं को भी उन से लड़ना पड़ रहा है. सुन्नी जिहादियों के साथ कई देशों के लड़ाके लड़ रहे हैं. लंदन के इंटरनैशनल सैंटर फौर स्टडी औफ रेडिकलाइजेशन ऐंड पौलिटिकल वायलैंस के मुताबिक, सीरिया में बशर अल असद की सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए 74 देशों के 11 हजार विदेशी लड़ाके भी लड़ रहे थे. पहले इन में से ज्यादातर पड़ोसी देशों के थे लेकिन बाद में आईएसआईएस ने और देशों में भी भरती शुरू की जिस में वह सफल भी रहे.

बता दें कि सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद न तो शिया मुसलमान हैं न ही सुन्नी मुसलमान. वे नुसैरी मुसलमान हैं, उन्हें अलवी मुसलमान भी कहा जाता है. आईएसआईएस के लड़ाकों में पश्चिमी देशों के युवा भी बड़ी संख्या में हैं लेकिन इन में ज्यादा संख्या इन देशों के मुसलिम अप्रवासियों के नातीपोतों की है और थोड़ेबहुत धर्मांतरित सुन्नी मुसलमान हैं. फ्रांस के 320, आस्ट्रेलिया के 100 और ब्रिटेन के 500 लोग बताए जाते हैं. अमेरिका और कनाडा के युवा भी हैं लेकिन उन की सही संख्या का पता नहीं है.

जिहादियों में महिलाएं भी

इस के अलावा कई और देशों के युवा भी हैं. अब तो आईएसआईएस संगठन महिलाओं को भी जिहाद में योगदान करने के लिए बुला रहा है. कुछ देशों की महिलाएं वहां पहुंच भी गई हैं. इन देशों की अभी सब से बड़ी चिंता यह है कि ये जिहादी जब लौटेंगे तो अपने साथ उग्रवादी मानसिकता ले कर लौटेंगे जो समाज में अशांति फैलाएगी. उस से कैसे निबटा जाए. वैसे, फ्रांस ऐसा कानून बनाने वाला है जिस से लड़ने के लिए जाने वालों पर रोक लगे. वहीं ब्रिटेन उन लोगों के लौटने पर पाबंदी लगाने की सोच रहा है जो लड़ने गए हैं. जरमनी अपने युवाओं से संपर्क साध रहा है, वह उन की काउंसलिंग कराएगा और रोजगार मुहैया कराएगा. भारत अभी असमंजस में है कि ऐसे युवाओं का क्या करे. अभी उसे यह भी पता नहीं है कि कितने युवा वहां हैं.

आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल

आतंकी संगठन आईएसआईएस अपने सामाजिक और धार्मिक विचारों में भले ही पुरातनपंथी हो लेकिन तकनीक के मामले में पूरी तरह आधुनिक है. वह अपने प्रचारप्रसार के लिए न्यूमीडिया की तकनीक, औनलाइन, जिहादी वीडियो और यूट्यूब, इसलामी वैबसाइट का बखूबी इस्तेमाल करता है जिन को लाखों लोग देखते हैं. विदेशी मुसलिमों को आकर्षित करने के लिए अमेरिका और कनाडा के मुसलिम लड़ाकों ने इराक व सीरिया के अपने मिशन पर जाने से पहले औनलाइन संदेश डाले हैं जिस में वे दुनियाभर के मुसलिमों से अपील करते हैं कि भौतिकवाद की सुविधाओं को छोडि़ए, सीरिया और इराक में लड़ रहे जिहादियों के साथ सच्ची खुशी खोजिए.

दरअसल, जो 4 मुसलिम युवा घर से गायब हो कर लड़ने के लिए मोसुल गए थे वे मुल्लामौलवियों के उपदेशों से प्रभावित हो कर नहीं बल्कि आतंकी संगठनों के औनलाइन प्रचार से प्रभावित हो कर गए थे. उन्हें इस औनलाइन प्रचार को आत्मसात करते देर नहीं लगी कि मुसलिम अत्याचारों का शिकार हो रहे हैं और उन को काफिरों से बचाने के लिए शक्ति के इस्तेमाल की जरूरत है. वहीं, पिछले दिनों गाजा पर इसराईली हमले के जो फोटो पिं्रट में व औनलाइन मीडिया में प्रसारित हुए. उन से ग्लोबल जिहाद को बढ़ावा मिला है.

इन दिनों देश में ‘लव जिहाद’ की बड़ी चर्चा है लेकिन आतंकी जिहाद पर सरकार, विपक्ष और मीडिया सभी चुप्पी साधे हुए है क्योंकि इस से कोई राजनीतिक या स्वहित का फायदा नजर नहीं आ रहा. इराक और सीरिया के मामले में चौंकाने वाली बात यह है कि पहले इसलाम को बचाने के लिए या मुसलिमों को काफिरों के अत्याचार से बचाने के लिए जिहाद किया जाता था.  अब जिहाद और भी ज्यादा संकीर्ण हो गया है. लोग शिया और सुन्नियों के सांप्रदायिक युद्ध को भी जिहाद का नाम देने लगे हैं. शियाओं को सुन्नियों से बचाने और सुन्नियों को शियों से बचाने के लिए सुन्नी जिहाद और शिया जिहाद शब्द चल पड़े हैं. अब मुसलिमों को मुसलिम से बचाने का भी जिहाद कहा जाने लगा है. जिहाद शब्द का इस से बड़ा मजाक क्या हो सकता है. लेकिन धीरेधीरे यह साफ होने लगा है कि इस से भारत के शिया व सुन्नियों के बीच भी तनाव पैदा होने लगा है.

आप के पत्र

सरित प्रवाह, अगस्त (द्वितीय) 2014

आप की संपादकीय टिप्पणी ‘राजनीति और न्यायपालिका’ निसंदेह एक अहम व चिंतनीय स्थिति को उजागर करती है क्योंकि जिस संदर्भ में यह प्रश्न उठाया गया है उस व्यवस्था पर न केवल जनसाधारण की एक अटूट आस्था ही निर्भर करती रही है बल्कि उस के वाहकों को हम तथाकथित ‘भगवान’ तक मान कर पूजते भी रहे हैं.

लेकिन शायद यह हमारी सामाजिक दिग्भ्रमितता ही कही जाएगी कि यहां भी हम गलत ही ठहरे जो इंसानों को भगवान रूप में उकेर कर अतिभ्रम के शिकार हो गए. वरना हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि हमारे न्यायविद भी तो उसी समाज के अंग हैं जहां जर, जोरू और जमीन के भंवर में फंस कर सभी ‘गलतियों के पुतलों’ में तबदील होते नजर आए हैं. ऐसी शर्मनाक तथा कलुषित स्थिति के लिए हम किन्हीं को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं तो वे हमारी गंदली राजनीति, सत्तालोलुप प्रशासक तथा हमारी दोगली मानसिकता ही हैं.

ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)

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‘राजनीति और न्यायपालिका’ संपादकीय पढ़ा. कुछ वर्षों से देखने में आ रहा है कि हमारे देश में कई बड़े अधिकारी, न्यायाधीश व राजनीतिक हस्तियां अपने कार्यकाल में तो अपनी हैसियत, सत्ता और शक्ति का बिना उफ किए जम कर फायदा उठाते हैं परंतु रिटायर होने या सत्ता से हटने के बाद जब वे हाशिए पर आ जाते हैं तब नैतिकता का लबादा ओढ़ कर, बयानबाजी कर के या किताबें लिख कर व्यर्थ की सनसनी फैलाते हैं. कोई उन से पूछे कि जब आप की तूती बोलती थी तब ये सनसनीखेज बातें आप ने क्यों होने दीं और उसी समय क्यों नहीं सार्वजनिक कीं? तब आप का तथाकथित जमीर कहां सोया था? देखा जाए तो ऐसे लोगों की बातों को यदि मीडिया ज्यादा महत्त्व न दे तो इस प्रकार की घटनाएं बंद हो जाएंगी.

न्यायाधीशों की नियुक्तियों में जस्टिस काटजू द्वारा बताई गई कथित एक गड़बड़ से भूतकाल में हुई सभी असंख्य नियुक्तियों को संदिग्धता के दायरे में लाना तो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है. फिर उन्होंने ऐसा कोई केस नहीं बताया जिस में उस कथितरूप से दागी जज साहब ने न्याय करने में कोई गलती की हो. ऐसे में जस्टिस काटजू के आरोप औचित्यहीन ही माने जाएंगे. अच्छा होता कि जस्टिस काटजू वर्तमान में विभिन्न कोटों में लंबे समय से पैंडिंग लाखों मुकदमों के शीघ्र निबटारे व भ्रष्टाचार रोकने के उपाय बताते.

बी डी शर्मा, यमुना विहार (दिल्ली)

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‘राजनीति और न्यायपालिका’ शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय में आप के विचार पढ़े. निष्पक्ष एवं निडर सरिता के माध्यम से मैं कहना चाहूंगी कि कब तक नेतागण सस्ती लोकप्रियता हेतु करोड़ों के खर्च पर जबरदस्ती भीड़ इकट्ठी करते रहेंगे. रैलियों, सभाओं में अपने उबाऊ भाषण से अनपढ़, गंवार, दिग्भ्रमितों से तालियां पिटवा कर वाहवाही बटोरते रहेंगे. लाशों पर राजनीति करने वाले ये नेतागण अपनी रक्षा हेतु काफिलों में चल कर जनजीवन को अस्तव्यस्त करते रहेंगे. भाजपा के नेतागण से मेरी यही गुजारिश है कि वे गंगा, यमुना, सरस्वती अभियान को त्याग कर बेकारी, महंगाई, भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को युद्धस्तर पर चलाएं.

नेताओं ने 68 साल तक भाषणों के सिवा जनगण को दिया ही क्या है? जब तक वे देश को खुशहाल नहीं करते उन्हें कोई हक नहीं है कि वे शहीदों को श्रद्धांजलि दें, गांधीजी की समाधि पर जाएं या खून के आंसुओं से भीगी हिंद देश की धरती पर सुख, शांति व स्वतंत्रता के प्रतीक तिरंगे को लहराएं.

रेणु श्रीवास्तव, पटना (बिहार)

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संपादकीय टिप्पणी ‘टैक्नोलौजी की असलियत’ पढ़ी. यह सोलह आने सच है. टैक्नोलौजी क्रांति से जितना सुधार नहीं हुआ है उस से अधिक समस्याएं पैदा हो गई हैं. आज का युवावर्ग गैजेट्स का उपयोग कम, दुरुपयोग अधिक कर रहा है. साइबर क्राइम इस का जीताजागता उदाहरण है. पहले भी लड़कियों के साथ छेड़छाड़ की घटनाएं होती थीं मगर तब कुछ लोग ही इसे जान पाते थे. जबकि आज बच्चेबच्चे की जबान पर चढ़ जाता है. सोशल मीडिया पर लाइक और शेयर करने की होड़ लग जाती है. तब कहा जाता है कि देश की जनता पीडि़ता के साथ है मगर यह सोचने वाली बात है कि जब लाखों लोग इसे कुकृत्य ठहरा रहे हैं तब साल में बलात्कारियों एवं अत्याचारियों की संख्या 70 हजार के पार कैसे चली गई? सच तो यह है कि जिस बात पर लाइक एवं शेयर करने में चंद सेकंड लगते हैं उसी बात को अपने जीवन में उतारने में एक जन्म कम पड़ जाता है. सोशल मीडिया पर लोग सच कम, झूठ ज्यादा बोलते हैं. हजारों रुपए टैक्नोलौजी पर खर्च करने वाले युवाओं के पास इतना समय नहीं होता कि वे अपने स्वास्थ्य पर ध्यान दे सकें.

क्या कोई ऐसी टैक्नोलौजी नहीं ईजाद की जा सकती जो गरीबी दूर कर सके, जो आतंकवाद मिटा सके, जो बलात्कारियों को रोक सके, जो धर्म एवं जाति का भेदभाव मिटा सके, जो लोगों में इंसानियत पैदा कर सके? यदि हम ऐसे गैजेट्स बनाने में असमर्थ हैं तो फिर हमें कोई हक नहीं बनता टैक्नोलौजी क्रांति का दंभ भरने का. टैक्नोलौजी से जितनी दूरियां नहीं मिटी हैं उस से कहीं अधिक खाइयां बन गई हैं भविष्य के लिए टेक्नोलौजी के कदम इतने आगे बढ़ चुके हैं कि रास्ते कम पड़ते महसूस हो रहे हैं.

आरती प्रियदर्शिनी, गोरखपुर (उ.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘टैक्नोलौजी की असलियत’ पढ़ कर ऐसा लगता है कि यही हाल रहा तो लोग विवाह करना, लिव इन रिलेशनशिप छोड़ कर सोशल साइट्स देख कर अकेले रहेंगे क्योंकि उन के लिए बीवी, बच्चे सिरदर्द बन रहे हैं. किसी दिन जापान की तरह यहां भी रबड़ की औरत बनेगी जिस के साथ आदमी यौन इच्छा पूरी करेगा. अकेले रहो, मोबाइल पर बात करो, सोशल साइट्स देखो और खुश रहो.

इंदर प्रकाश, अंबाला छावनी (हरियाणा)

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ढोंग है जन्मपत्री मिलान

लेख ‘दूसरी शादी जोखिम भी है’ अगस्त (द्वितीय) अंक में पढ़ा. भारत में जन्मपत्री मिला कर विवाह करने का रिवाज है लेकिन फिर भी शादियां टूट रही हैं. अमेरिका में साइकोलौजिस्ट से सलाह कर के विवाह हो रहे हैं. भारत में लोग अच्छा खानदान और पैसा देखते हैं. लेकिन यह सुखी होने की गारंटी नहीं है.

इंदर ‘अकेला’, करनाल (हरियाणा)

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उत्तम कार्य

सरिता का मैं बहुत पुराना पाठक हूं. अगस्त (द्वितीय) अंक पढ़ने के उपरांत फिर अनुभूति हुई कि आप समाज की विभिन्न अंधकुरीतियों को मिटाने की दिशा में उत्तम कार्य कर रहे हैं. आभारी हूं.

अभिराम जयशील, लाजपत नगर (न.दि.)

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प्रभावशाली अंक

अगस्त (द्वितीय) अंक बेहद प्रभावशाली था. लेख ‘एक शायर गुलजार’ के अंतर्गत गुलजार साहब के विषय में पढ़ना अच्छा लगा. कहानी ‘पिता का दर्द’ दिल को छू गई. जब बेटा अपना फर्ज भूल कर पिता को धोखा दे तो यह पूरे समाज के लिए शर्म की बात होती है. संभव हो तो कहानियों की संख्या बढ़ाने की कृपा करें.

सुमेंद्र कुमार श्रीवास्तव, बेतिया (बिहार)

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अगस्त (द्वितीय) अंक में कहानी ‘पिता का दर्द’ एकसाथ कई सवालों को ले कर चलती है. पहला, उन पिताओं के लिए सबक है जो सोचते हैं कि पुत्र नहीं होगा तो अरथी को कंधा कौन देगा, वंश को आगे कौन बढ़ाएगा. दूसरा, यह गलतफहमी कि पढ़ाई हो तो बस विदेश में हो चाहे अपने घर का सबकुछ ही क्यों न बेचना पड़ जाए. तीसरा, आज भी समाज में बेटों की चाह में बेटियों की अवहेलना जारी है. अब चाहे दिखावे के लिए लोग इन्हें एक जैसा मानने लगे हों, मगर 2 लड़कियों के बाद भी

लड़के की चाहत बनी रहती है. चौथे, आज के जमाने को देखते हुए भी अपना सबकुछ अपनी मृत्यु से पहले ही अपनी संतान को सौंप देना कहां की अक्लमंदी है.

कहानी में कई संदेश होने के बावजूद कहानी में दर्शाई गई समस्या का कोई ठोस समाधान न होने से लगता है कि एक पिता इतना समर्थ होने के बाद भी अपनी स्वार्थी संतान से हार गया, जो सही नहीं लगा. कहानी का कोई तार्किक अंत होना चाहिए था.

मुकेश जैन ‘पारस’, बंगाली मार्केट (न.दि.)

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दिल छूती कहानियां

अगस्त (द्वितीय) अंक में छपी कहानी ‘टेसू के फूल’ और ‘अंतर्व्यथा’ बेजोड़ लगीं. पढ़ कर आंखों में आंसू आ गए.

आर के वर्मा, गुमला (झारखंड)

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मार्मिक कहानी

अगस्त (द्वितीय) अंक में प्रकाशित कहानी ‘अंतर्व्यथा’ बहुत ही मार्मिक और हृदयस्पर्शी लगी. लेखिका ने मां की व्यथा को बहुत ही सुंदर ढंग से दर्शाया है. मातापिता के गलत निर्णय के कारण मां और बच्चे की मानसिक व्यथा को बहुत ही खूबसूरती से पेश किया है. इस कथा से हमें सीख मिलती है कि पुरुष यदि किसी विधवा या तलाकशुदा स्त्री से शादी करता है तो उसे उस स्त्री को उस के बच्चे समेत स्वीकार करने की खुली विचारधारा रखनी चाहिए. संकीर्ण मानसिकता से वह 2 जानों पर अन्याय करेगा. साथ ही, मासूम जिंदगियों को दलदल में डालने जैसे घृणित कृत्य का भागीदार भी रहेगा.

मातापिता को भी पुत्री का पुनर्विवाह उस के अबोध बच्चे समेत ही करने का साहस करना चाहिए, जिस से उन दोनों को तनावमुक्त नई जिंदगी मिले और शिशु ममता की छांव में पलेबढ़े. मां को बच्चे से अलग करने से उत्पन्न मां की व्यथा  को बहुत सुंदर ढंग से लेखिका ने व्यक्त किया है.

मनीषा रायपूरे, मुंबई (महाराष्ट्र)

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निष्ठुर युवा पीढ़ी

अगस्त (प्रथम) अंक में लेख ‘मां बनी आया’ पढ़ कर आज की युवापीढ़ी पर बड़ा गुस्सा आता है कि जो मां अपने खून से सींच कर कलेजे के टुकड़े को पालपोस कर जीने की राह दिखाती है वही बेटा मां को भूख से बिलखते, बेसहारा छोड़ देता है.     

जीतेंद्र कुमार, रांची (झारखंड)

धर्म के नाम पर करोड़ों स्वाहा

पत्थरों में भगवान की मौजूदगी मान कर अपने देश में वर्षभर कहीं न कहीं और किसी न किसी रूप में भगवान की पूजा होती है. सार्वजनिक पूजा के नाम पर करोड़ों रुपए की बरबादी टीस पैदा करती है. पश्चिम बंगाल समेत देश के कई राज्यों में दुर्गा पूजा की प्रारंभिक तैयारियां शुरू हो चुकी हैं. पूजापंडाल व आलोक सज्जा की रूपरेखा बनने लगी है. मूर्तिकार प्रतिमाएं गढ़ने में व्यस्त हैं. इस का दायरा महोत्सव से बढ़ कर एक प्रतियोगिता का रूप ले रहा है. सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही यदि दुर्गा पूजा पर होने वाले खर्च का आकलन किया जाए तो यह राशि कम से कम 200 करोड़ रुपए के आसपास पहुंचती है. क्या इस राशि को गरीबों के कल्याण पर खर्च करने की बाध्यता को लागू नहीं किया जा सकता. दुर्गोत्सव में सामाजिक व जनकल्याण कार्य भी किए जाते हैं लेकिन ये काफी कम होते हैं. ज्यादा जोर तामझाम और फुजूलखर्ची पर ही नजर आता है. दुर्गा पूजा के दौरान उत्सव में डूबे संभ्रांत व मध्यवर्गीय परिवारों की खुशी के बीच गरीबों की तंगहाली खासकर बच्चों की बेबसी सर्वत्र नजर आती है. समाज का एक वर्ग पूजापंडालों में गरीबों के बीच वस्त्र वितरण जैसे कार्यक्रम भी आयोजित कराता है लेकिन बदहाली के बावजूद जो सार्वजनिक मंचों पर जा कर सहायता लेना मंजूर नहीं कर सकें, उन का क्या? दुर्गा पूजा के दौरान सरकारी कर्मचारीवर्ग तो लंबी छुट्टियों की सौगात के साथ बोनस व एरियर के तौर पर मोटी रकम से भी लैस रहता है. जबकि सामान्य वर्ग को इस पर्व को मनाने के लिए पाईपाई जुटाने में ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है. इन्हीं वजहों से उत्सवों के दौरान आत्महत्या की घटनाएं बढ़ जाती हैं. पूजा को पूजा के तौर पर न ले कर मौजमस्ती के रूप में मनाने की प्रवृत्ति भी है. प्रतिमा विसर्जन के दौरान तड़कभड़क की दिनोंदिन बढ़ती प्रतियोगिता और युवकों का नशे में धुत्त हो कर नाचनेगाने का बेहूदा चलन भी है.

अमितेश कुमार ओझा, खड़गपुर (प.बं.)

फोर्ब्स का फोबिया

अमेरिका से प्रकाशित फोर्ब्स पत्रिका की बादशाहत को चुनौती नहीं दी जा सकती. हाल ही में उस ने दुनिया की 100 प्रमुख कंपनियों की सूची जारी की है जिस में भारत की 5 कंपनियां–हिंदुस्तान यूनिलीवर, टाटा कंसलटैंसी सर्विस, एल ऐंड टी, सनफार्मा और बजाज शामिल हैं. यह हमारे लिए खुशी की बात है. पत्रिका ने उन्हीं कंपनियों को सूची में शामिल किया है जिन की बाजार पूंजी 10 अरब डौलर है और जिस ने अपने कुल अर्जित राजस्व का ढाई फीसदी धन शोध व विकास कार्यों पर खर्च किया है. शोध व विकास कार्यों के कारण ये सभी कंपनियां सुर्खियों में रही हैं. सूची में हिंदुस्तान यूनिलीवर 14वें स्थान पर है जबकि शेष चारों कंपनियां 50 से 100 के बीच के क्रम में हैं.

पत्रिका हर साल वैश्विक स्तर पर उद्योगों की सूची जारी करती है और दुनिया की कंपनियां सूची में अपना नाम देख कर खुश हो जाती हैं. यही हालत अमेरिकी रेटिंग एजेंसियों की भी है, सब कुछ अमेरिका के पास है. हमारी इंडिया टुडे, बिजनैस इंडिया, आउटलुक या सरिता यदि इस तरह की पहल करें तो उन की कोई सुनने वाला नहीं है. आखिर अपनी पत्रिकाओं के सर्वेक्षण में अपना नाम शीर्ष स्तर पर देख कर हमारे लोग खुश क्यों नहीं होते हैं. हमें ध्यान रखना है कि सूची में नाम आने पर हम खुशी का जो इजहार करते हैं वह फोर्ब्स पत्रिका की प्रतिष्ठा की बुनियाद है. जरूरत स्वयं पर, अपने लोगों पर और अपने प्रकाशनों पर भी विश्वास करने की है.

दिन दहाड़े

मेरे पति को जब भी स्कूटर की सर्विसिंग करानी होती तो वे पास के परिचित सर्विस सैंटर पर जा कर बोल देते और बस से औफिस चले जाते थे. सर्विस सैंटर वाले अपना आदमी भेज कर घर से स्कूटर मंगवा लेते और सर्विसिंग कर के वापस भिजवा देते थे. एक दिन दोपहर में एक व्यक्ति आया और स्कूटर की सर्विसिंग की बात कही. मैं ने यह सोच कर कि कल टूर पर जाते समय मेरे पति मुझ से सर्विसिंग की बात बताना भूल गए होंगे, सो मैं ने स्कूटर की चाबी उसे दे दी. वह स्कूटर ले कर चला गया. अगले दिन जब पति टूर से वापस आए तो सर्विसिंग की बात पूछने पर उन्होंने कहा कि उन्होंने तो सर्विस सैंटर वाले से कुछ कहा ही नहीं था. हम से मांग कर स्कूटर ले जाने वाला व्यक्ति सर्विस सैंटर का नहीं, चोर था. अंजुला अग्रवाल, मीरजापुर (उ.प्र.)

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मेरी बेटी स्कूटी से मेरे पति के साथ जा रही थी. तभी एक बाइकर बारबार उस की स्कूटी में टक्कर मारने की कोशिश कर रहा था. मेरी बेटी ने स्पीड कम कर दी, उसे आगे निकलने का रास्ता दिया. बाइकर ने मेरी बेटी के गले से चेन खींच ली और बाइक तेजी से चलाता हुआ भाग गया. मेरे पति ने 100 नंबर पर पुलिस को फोन किया. 3 पीसीआर आईं, उन्हें बाइक का नंबर और दिशा बताई कि वह किधर गया है. यह सब 2 मिनट के अंतर पर हुआ. किंतु दिल्ली पुलिस के बहादुर जवानों ने उस के पीछे जाने की जहमत न उठा कर बस यह कहा, ‘‘हम कुछ नहीं कर सकते. आप ने पूरी नंबर प्लेट ठीक से नहीं पढ़ी.’’
रेखा, द्वारका (न.दि.)

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मैं अपनी नई मारुति कार से परिवार सहित ससुराल नाहन जा रहा था. नई गाड़ी देख कर चंडीगढ़ पुलिस के एक सिपाही ने सैक्टर 20 सी के चौराहे पर गाड़ी रुकवाई. उस ने कहा कि आप ने यातायात नियमों का उल्लंघन किया है. इसलिए तुम्हारा चालान किया जाएगा. मैं ने कहा, ‘‘सर, मैं ठीक ढंग से ड्राइविंग कर रहा हूं. फिर भी यदि कोई गलती हुई हो तो क्षमा करें.’’ उस ट्रैफिक पुलिस वाले ने सीटी बजा कर कई पुलिस कर्मियों को वहां इकट्ठा कर लिया. फिर 400 रुपए की रिश्वत ले कर मुझे जाने दिया. जब रक्षक ही भक्षक बन कर दिनदहाड़े लूट रहे हों तो लुटेरे तो लूटेंगे ही.
प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)

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शाम हो चली थी और एक बस ही जाने को थी. सब की सब सवारियां बस में चढ़ गईं. कंडक्टर बोला, ‘‘अपनेअपने टिकट नीचे उतर कर बनवा लो.’’ भीड़ की वजह से लोग बस से न उतर सके. एक लड़के से कहा गया कि वह नीचे चला जाए और टिकट बनवा लाए. करीब 10 लोगों ने उसे पैसे दे दिए. लड़का गया पर फिर ऊपर नहीं आया. वह सब के पैसे ले कर भाग गया था.

घनश्याम शरण श्रीवास्तव, जालौन (उ.प्र.)

महायोग : दूसरी किस्त

अब तक की कथा :

नील लंदन से अपनी मां के साथ लड़की देखने भारत आया था. दिया व उस के परिवार के ठाटबाट से प्रभावित नील व उस की मां ने विवाह के लिए तुरंत हां कर दी थी. अपनी दादी की कन्यादान करने की जिद तथा पंडित की ‘महायोग’ की भविष्यवाणी ने दिया के पत्रकार बनने के सपने को चिंदीचिंदी कर के हवा में बिखरा दिया.

अब आगे..

यशेंदु के मन में कहीं कुछ हलचल व बेचैनी थी. एक तरफ उन्हें दिया रूपी घर की रोशनी के विलीन हो जाने का गम सता रहा था तो दूसरी ओर मां के प्रति उन का दायित्व व आदर उन्हें उन के चरणों में झुकने को मजबूर कर रहे थे. आज की युवतियों के लिए केवल पति पा जाना ही उपलब्धि नहीं होती, वे पहले अपने भविष्य के प्रति सचेत व चौकन्नी होती हैं. उस के बाद विवाह के बारे में सोचती हैं. दिया का विवाह हुआ पर उसे स्वयं ही विश्वास नहीं हो रहा था कि वाकई उसी का विवाह हुआ है.

दिया सुंदर थी. मुसकराते मुख पर सदा एक चमक बनी रहती. इसी दिया को उस की सहेली के भाई के विवाह में नाचते हुए जब एक परिवार ने देखा तो झट से उन्हें लंदन में बसे हुए अपने घनिष्ट मित्र की याद आई. मित्र की मृत्यु हो चुकी थी, उन की पत्नी और बेटा लंदन में ही रहते थे. मां अपने सुपुत्र के लिए सुंदर, सुघड़ बहू की तलाश कर रही थी. दिया को जिन लोगों ने पसंद कर लिया था वे खोजते हुए दिया की दादी के पास पहुंच गए थे और उन्होंने सारी बात दादी के समक्ष खोल कर रख दी थी. लंदन वाला लड़का अपनी मां के साथ जल्दी ही भारत में दुलहन खोजने आने वाला था. इस से पहले भी वह दुलहन की तलाश में 2-3 बार भारत के चक्कर लगा चुका था. परंतु कहीं पर जन्मपत्री न मिलती तो कहीं उन के हिसाब से सुंदर, सुशील कन्या न मिल पाती. दिया को पसंद करते ही लड़के के पिता के मित्र ने दिया की दादी से मिल कर जन्मपत्री बनवा ली थी और इस प्रकार दिया के जीवन पर विवाह की मुहर लगाने का फैसला करना निश्चित होने जा रहा था.

लड़का गोत्र, धर्म के अनुसार भी उच्च था और सितारों के हिसाब से भी. दादी को बस एक ही बात की हिचक थी कि उन की पोती सात समंदर पार चली जाएगी तो म्लेच्छ हो जाएगी परंतु जब उन्होंने बिचौलिए से यह सुना कि लंदन में बस जाने वाला परिवार अति धार्मिक, पूजापाठ व पंडितपुजारियों को पूजने वाला है तो उन की बाछें खिल गईं. अरे, ऐसा ही तो घरवर चाहिए था उन्हें अपनी पोती के लिए. बस, इतनी दूर. बीच वालों ने आश्वासन दिया, ‘‘अरे अम्माजी, आजकल ये दूरी क्या दूरी है. यशेंदुजी तो कितनी बार औफिस के काम से विदेश जा चुके हैं. पूरी दुनियाभर का दौरा कर लिया है उन्होंने, फिर लंदन तो ये रहा.’’

बीच वालों ने चुटकी बजाते हुए दिया की दादी के समक्ष कुछ ऐसा खाका खींचा कि दादी बिना लड़के को देखे व बिना लड़के की मां से मिले ही विभोर हो गईं और उन पर व यशेंदु पर कुछ ऐसा सम्मोहन हुआ कि उन्होंने पंडित से दोनों की कुंडली मिलवाने का फैसला कर ही लिया. जब कामिनी से ही पूछने की आवश्यकता नहीं समझी गई तो दिया की तो बात ही कहां आती थी? परंतु जब कामिनी के समक्ष बात आई तब वह छटपटा उठी और  उस ने दबे स्वर से विरोध किया भी परंतु उन के पुरोहित के हिसाब से जन्मपत्री इतनी बढि़या मिल रही थी कि मानो संसार के सर्वश्रेष्ठ गुण दिया की झोली में आ पड़ेंगे. कामिनी को लगा कि उस की ही कहानी एक बार फिर दोहराई जा रही है.

कामिनी ने रोती हुई दिया को समझाया था, अभी कौन सा लड़के ने उसे और उस ने लड़के को देख लिया है. अभी दिल्ली दूर है, चिंता न करे. परंतु दिल्ली दूर नहीं थी. 15 दिनों में ही वह सुदर्शन लड़का अपनी मां के साथ अहमदाबाद पधार गया. कामिनी ने कई बार यशेंदु यानी यश से कहा कि वह कम से कम लड़के वालों के मूल का तो पता कर ले. यश ने पूछताछ जो भी की हो, पत्नी को तो अपने खयाल से उस समय संतुष्ट कर ही दिया था, जो वास्तव में अंदर से बहुत अधिक असहज थी.

दिया का भी बुरा हाल था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि उस के घर वाले उसे इस प्रकार घर से खदेड़ने पर क्यों तुले हैं? उत्तर वही था जन्मपत्री का बहुत बढि़या मिलान, क्या ग्रह हैं, सारे गुण मिल रहे हैं न.

‘‘नहीं यश, इस लड़के को हाथ से न जाने देना,’’ दादी बेटे को फुसला रही थीं.

वैसे तो यशेंदु ने भी मन ही मन कहीं कुछ हलचल सी, बेचैनी सी महसूस की थी परंतु मां के बारंबार एक ही बात की पुनरावृत्ति करने व पंडित के दृढ़ विश्वास के कारण उन के मन में भी अपनी बेटी के भविष्य की एक सुखद झांकी सज गई थी. उन की लाड़ली सुंदर, कमसिन व फूल सी प्यारी थी.

हर व्यक्ति को अपनी मानसिक व शारीरिक जरूरतों को पूरा करना होता है. ये जरूरतें नैसर्गिक हैं. ये यदि न हों तो भी व्यक्ति नौर्मल नहीं है और यदि ये पूरी न हों तो भी व्यक्ति नौर्मल न रहे. प्रकृति के साथ किसी भी प्रकार का झगड़ाटंटा मोल लेने की आखिर जरूरत क्या है? अब अपनी बात को बल देने अथवा अपनी बात मनवाने या फिर प्राकृतिक गुणों अथवा अवगुणों को किसी गणना से अपने अनुसार फिट बैठाने के लिए हम जिन उपायों को उपयोग में लाते हैं वे तो हमारे स्वयं के ही बनाए गए होते हैं. परंतु जब गले तक डूब कर हम उन में बारंबार डुबकी लगाते रहते हैं तो कभी न कभी तो थोड़ाबहुत पानी गले के अंदर भी पहुंच ही जाता है. यही हाल यशेंदु का हो रहा था.

उन्हें कभी मां की बात सही लगती तो वे उन के साथ बेटी के ब्याह के स्वप्निल समुद्र में गोते लगाने लगते, कभी फिर कामिनी पर दृष्टि घुमाते तो कामिनी की बात उन्हें काफी हद तक ठीक लगती और जब अपनी लाड़ली पर दृष्टिपात करते तो उन का कलेजा मुंह को आता. हाय, अपनी फूल सी बच्ची को अपनी दृष्टि से इतनी दूर भेज देंगे. उस के जाने से रह क्या जाएगा इस घर में. सारी रोशनी उस के जाते ही विलीन हो जाएगी. परंतु मातापिता की परमभक्ति ने यश का पलड़ा मां

के चरणों में झुका दिया था. सालभर पहले पिता तो पोती का कन्यादान देने की हुड़क मन में समेटे कूच कर गए थे, अब क्या मां भी? नहींनहीं, वे रात को उठ कर बैठ जाते.

कामिनी सबकुछ देखसुन कर भी न कुछ देख पाती, न कुछ सुन पाती. एकाध बार एकांत में पति के सम्मुख उस ने अपनी विचारधारा रखने का प्रयास किया था, ‘‘क्यों नहीं आप, अम्माजी को समझा पाते? आप शिक्षित हैं, दुनिया देखी है. देख रहे हैं, तब भी…’’

‘‘कामिनी, प्लीज, मैं मां के विरुद्ध नहीं जा पाऊंगा, मुझे परेशान मत करो,’’ वे जैसे पत्नी को झिड़क से देते.

कामिनी और भी शांत हो जाती. बेटी का मासूम चेहरा, उस की आंखों के मासूम सपने उस की आंखों में घूमने लगते. और दिया? उसे तो मानो अपने से ही अजीब सी शर्म व अलगाव सा महसूस होने लगा था. कैसे बचाए वह अपनेआप को? उस की कई करीबी सहेलियां थीं जिन्हें इस के बारे में जानकारी थी बल्कि उसी की एक सहेली से ही तो दिया व उस के परिवार के बारे में पूछताछ कर के यह रिश्ता दिया की दादी तक पहुंचा था. जब कभी सहेलियों में चर्चा होती, दिया की प्रशंसा होने लगती :

‘‘वाह दिया, बैठेबिठाए इतना बढि़या रिश्ता.’’

‘‘और क्या, पता नहीं, क्यों यह बिसूरता सा मुंह बनाए रहती है. अरे पहले लड़के को देख तो ले.’’

‘‘कभीकभी अगर कोई छोटामोटा दुर्गुण हो तब भी उसे देख कर मुंह घुमा लेना पड़ता है. तू बेकार ही…’’

दिया खीज जाती. क्या ये सहेलियां वे ही हैं जो उस से अपने पैरों पर खड़े होने की, अपने कैरियर की बातें करती थीं? रिश्ते की बात दिया की हो रही थी और शहनाई इन के दिलों में बजने लगी थी.

‘‘तो भाई, तुम लोगों में से कोई कर लो उस लड़के से शादी,’’ दिया खीज कर बोल उठी थी.

‘‘हमारे ऐसे दिन कहां?’’ एक ने लंबी सांस भर कर कहा और सब की सब खिलखिला कर हंस दी थीं. फिर तो दिया ने कभी कोई बात करने की चेष्टा भी नहीं की. ‘जो होगा, देखा जाएगा,’ उस ने अपने सिर को झटक दिया था और अपने भविष्य के बारे में सिर खपाना ही छोड़ दिया था.

आखिरकार, वह वक्त आया कि मां, बेटा व उन का बिचौलिया दिया के घर में पधारे. नील 27वें वर्ष में लगा था. दिया 19 की हो कर 20वें में लगी थी और ग्रेजुएशन कर रही थी. कामिनी का मन अब उम्र की देहरी पर पहुंच गया. आज के जमाने में कौन उम्र में इतना लंबा गैप रखता है? वह सोच ही रही थी कि भाई के साथ दिया ड्राइंगरूम में आ पहुंची. निर्विकार भाव से वह नमस्ते कर के अपनी मां के पास सोफे पर बैठ गई. नील और उस की मां ने दृष्टि उठा कर दिया को देखा और दोनों के चेहरे खिल उठे.

‘‘बेटी, यहां आ कर बैठो, मेरे पास,’’ नील की मां ने दिया को संकेत से बुलाया परंतु वह वहीं जमी रही.

‘‘अरे शरमा क्यों रही हो, आओ न,’’ उन्होंने फिर उसे बुलाया.

दिया ने एक सरसरी दृष्टि मां कामिनी पर डाली और जा कर नील की मां के पास बैठ गई. उस ने कोई पैरवैर छूने का दिखावा नहीं किया. कुछ ही पल में दिया वहां से उठ कर चल दी थी क्योंकि बड़ा भाई स्वदीप उसे हिदायत दे कर लाया था कि नील ने लड़का हो कर उन की मां के पांव छुए हैं तो वह भी नील की मां के पैर छुए. लेकिन दिया ने बड़े भाई को कुछ ऐसी दृष्टि से घूरा था कि वह सकपका कर वहां से चल दिया था. उसी के पीछेपीछे दिया भी चली आई थी. पर कुछ ही देर में पुन: नील की मां के पास आ कर बैठ गई.

नील की मां दिया से इधरउधर की बातें करती रहीं. उन्हें बताया गया था कि दिया संगीत व नृत्य में भी पारंगत है तो उन्होंने बड़ी प्रसन्नता दिखाई थी. उन के अनुसार, नील उन का इकलौता पुत्र था. सो, उन के घर में सारी रौनक नील व उन के परिवार से ही होनी थी.

जब दिया व नील का परिचय कराया गया तब दिया ने एक बार नील को ठीक से देखा, उस के युवा मन में एक बार तो थोड़ी धुकधुक सी हुई थी परंतु उसे अपने पत्रकारिता के शौक को पूरा न कर पाने का दुख महसूस हो रहा था.

युवा मन न जाने कितने सपने संजोता है. आज की युवतियों के लिए केवल पति पा जाना ही उपलब्धि नहीं होती, वे पहले अपने भविष्य के प्रति सचेत व चौकन्नी होती हैं. उस के बाद विवाह के बारे में सोचती हैं. दिया भी ऐसा ही सोचती थी. उस के घर में सभी तो सुशिक्षित हैं, सभी के शिक्षित स्वप्न हैं. नवीन सोच, नए परिवेश, भारत से विदेश तक लड़की को भेजने की तैयारी पर उसे परोसी जाने वाली थेगली सी चिपकी मानसिक पीड़ा भी. पता नहीं क्या होने को है? कामिनी व दिया की बेचैनी उन के मुख पर पसरी हुई थी.

‘‘आगे क्या करने का विचार है, बेटी?’’ अचानक नील की मां ने चुप्पी तोड़ी.

‘‘जी,’’ दिया ने दृष्टि उठा कर नील की मां की ओर देखा तो उस की दृष्टि नील से जा टकराई. प्रश्न अनुत्तरित रह गया, उस ने अपनी दृष्टि फिर नीची कर ली. शायद नील की दृष्टि के सम्मोहन से बचने के लिए.

‘‘मैं पूछ रही थी आगे क्या करना चाहती हो, दिया?’’ नील की मां ने फिर प्रश्न चाशनी में लपेट कर उस के समक्ष परोस दिया था.

‘‘पत्रकारिता, जर्नलिज्म,’’ उस ने उत्तर दिया व होंठ दबा लिए.

‘ऐसे पूछ रही हैं जैसे मुझे दाखिला ही दिलवा देंगी,’ मन ही मन उस ने बड़बड़ की और एक आह सी ले कर फिर मां को ताका जो निरीह सी अपने पति से सटी बैठी थीं. छुरी तो उस की गरदन पर चलने वाली है और मां हैं कि सबकुछ देखसुन रही हैं. उसे मां से भी नाराजगी थी, बहुत नाराजगी. यह क्या व्यक्तित्व हुआ जो इतना शिक्षित, समझदार होने के बाद भी अपने अस्तित्व को बचा कर न रख सके. एक मां के साथ केवल उस का व्यक्तित्व ही नहीं, बच्चों का अस्तित्व भी जुड़ा रहता है.

‘‘दिया का सपना है कि वह एक दिन पत्रकारिता की दुनिया में अपना नाम कर सके. मीडिया से तो बहुत पहले से ही जुड़ी हुई है, अपने स्कूलटाइम से, इसीलिए मुझे भी लगता है कि इसे अपने कैरियर पर पहले ध्यान देना चाहिए,’’ न जाने कामिनी के मुख से कैसे ये शब्द फटाफट निकल गए. मानो कोई इंजन दौड़ा जा रहा हो. उस दौरान दिया की आंखों की चमक देखते ही बन रही थी. न सही अपने लिए, मां मेरे लिए बोलीं तो सही.

‘‘यस, आई वांट टू गो फौर जर्नलिज्म,’’ दिया ने एकदम जोर से कहा तो सब के चेहरे कामिनी की ओर से मुड़ कर दिया की तरफ हो गए.

‘‘कामिनी, ठीक है पर ये लोग कह रहे हैं कि दिया की पढ़ाई में जरा भी ढील नहीं होगी. सोचो, तुम्हारी बेटी औक्सफोर्ड से जर्नलिज्म करेगी,’’ यश उन्मुक्त गगन में स्वच्छंद विचरण करते पंछी की तरह उड़ान भर रहे थे. नील के सलीके व सुदर्शन व्यक्तित्व ने उन पर भी जादू कर दिया था.

दादी का चेहरा अपने अपमान से झुलसने लगा. उन के सामने इतने वर्षों में कभी भी मुंह न खोलने वाली कामिनी आज बाहर के लोगों के समक्ष…परंतु चालाक थीं, बात को संभालना जानती थीं. बनती हुई बात आखिर बिगड़ने कैसे देतीं? और उन का कन्यादान का सपना? वह तो अधर में ही लटक जाता. यह उन का अहं कभी बरदाश्त न कर पाता. घर में आई तो बेटी बेशक 2 पीढि़यों के बाद ही सही पर उन की ही कमी से? नहीं, वे ऐसा नहीं होने देंगी. उन्होंने वहीं बैठेबैठे पंडितजी की ओर दृष्टि से ही संकेत किया.

‘‘देखिए मांजी,’’ पंडितजी ने दिया की दादी से मुखातिब हो कर कहा, ‘‘अब आप ने हमें यहां बुलाया है तो किसी प्रयोजन से ही न. हम तो पहले ही इस कुंडली का मिलान कर चुके हैं. हम ने आज तक इतने बढि़या ग्रह नहीं देखे. क्या ग्रह हैं. मानो स्वयं रामसीता की कुंडली मेरे हाथ में आ गई हो.’’

पंडितजी बोल तो गए परंतु बाद में उन्होंने अपनी जबान मानो दांतों से काट ली. रामसीता यानी विरह?

नील की मां की आंखों में एक बार हलकी सी निराशा की झलक आई फिर उन्होंने स्वयं को कंट्रोल कर लिया. ‘‘जरा देखें तो सही कामिनीजी, कैसी सुंदर जोड़ी है. सच ही, रामसीता की सी जोड़ी,’’ नील की मां को कुछ तो कहना ही था. उन्होंने पंडित की बात दोहराई तब भी किसी का ध्यान रामसीता पर नहीं गया, मानो सब हां में नतमस्तक हो कर ही बैठे थे.

‘‘देखिए जजमान,’’ पंडितजी ने फिर अपनी नाक घुसाई, ‘‘या तो भगवान, पत्री, सितारों और भाग्य को मानिए नहीं और अगर मानते हैं तो पूरे मन से मानिए. यहां स्पष्ट रूप से सितारे बोल रहे हैं कि दोनों ही एकदूसरे के लिए बने हैं. जब भगवान

ही इन दोनों को जोड़ना चाहता है तो हम लोग हैं कौन उस की बात न मानने वाले. आप चाहें तो किसी और पंडित से बंचवा लें पत्री, मिलवा लें कुंडली.’’ कह कर पंडितजी अपनी पोथीपत्रा समेटने का नाटक करने लगे.

‘‘अरे, क्या बात कर रहे हैं, पंडितजी?’’ दिया की दादी ने उन्हें डपट कर बैठा दिया, ‘‘कितने सालों से हमारे यहां हो. पहले पिताजी आते थे तुम्हारे. अब क्या हम किसी और के पास मारेमारे फिरेंगे. बैठो यहीं पर शांति से,’’ अब किस का साहस कि दादीजी की बात टाल सके. सब मुंह बंद कर के बैठ गए.

‘‘हम ने तो आप को पहले ही नील की जन्मपत्री मंगवा दी थी. आप ने मिलवाई, उस के बाद ही हम ने इन को बुलवाया है. आप तो जानते हैं कि बारबार इतनी दूर से आना, वह भी काम छोड़ कर …’’ अब बिचौलिए से भी नहीं रहा गया.

‘‘देखो दिया बिटिया, तुम्हें नील से कुछ बातवात करनी हो तो…’’ आवाज में कुछ बेरुखी सी थी फिर तुरंत ही संभल कर बोलीं नील की मां, ‘‘मेरा मतलब था कि एक बार बात तो कर लो नील से. अब आजकल सब पढ़ेलिखे बच्चे होते हैं. अपना भलाबुरा समझते हैं. तुम एक बार बात करो नील से, फिर जो भी तुम्हारा डिसीजन हो…’’

‘‘जाओ बिटिया, अपना कमरा तो दिखाओ नील को,’’ दादी ने दिया को आज्ञा दी तो उसे उठना ही पड़ा. मां के इशारे से नील भी दिया के पीछेपीछे हो लिया था.

जिंदगी का पता ही नहीं चलता, अचानक किस मोड़ पर आ कर खड़ी हो जाती है कभीकभी. जिस दिया को विवाह करना ही नहीं था, जिस के सपने अभी अधर में झूमती पतंग की भांति जीवन के आकाश में लहलहा रहे थे, उसी दिया ने न जानेकिन कमजोर क्षणों में विवाह के लिए हामी भर ली. इतनी जल्दी में विवाह हुआ कि उसे स्वयं पर ही विश्वास करने में काफी कठिनाई हुई कि वाकई उसी का विवाह हुआ है. उस जैसी लड़की इतनी आसानी से हां कैसे कर सकती है? पर यह कोई सपना नहीं था, जीवन से जुड़ी एक ऐसी वास्तविकता थी जिस से बंध कर दिया को ताउम्र रहना था.

विवाह के बाद कुछ दिन तो दिया को अभी यहीं रहना था. नील लंदन जा कर प्रौसीजर पूरा करने पर ही दिया को ले जा सकता था. इस प्रकार दिया अपनी सपनीली आंखों का सुनहरा भविष्य संजोने लगी थी. दादी बड़ी प्रसन्न थीं कि वे अपने जीतेजी अपनी पोती का ब्याह देख पाई थीं बल्कि कहें कि इसलिए प्रसन्न थीं कि उन्होंने कन्यादान कर दिया था. दिया अपनी शादी से पहले इस शब्द (कन्यादान) से बहुत चिढ़ती थी. वह अकसर अपनी मां कामिनी से बहस करती, ‘‘यह क्या ममा, लड़की क्या इसलिए होती है कि उसे दान किया जाए? जैसे वह कोई व्यक्ति न हो कर कोई चीज हो. और उस चीज के साथ मानो पूरा घर ही उठा कर उस की झोली में डाल दिया जाता है. कैश, हीरे और सोने के आभूषणों के रूप में दहेज. क्या जरूरत है इन सब की?’’

मां तो क्या उत्तर दे पातीं, पहले ही दादी शुरू हो जातीं, ‘‘अरे बिटिया, जमाने की रीत है. लड़का न हो तो वंश कैसे चले और लड़की का कन्यादान न हो तो भला…ये सब तो तेरा हक है…’’ दादी बीच में रुक जातीं और कुछ समझ में न आता तो कहने लगतीं, ‘‘बिटिया, लड़की तो होती ही है दान के लिए. अब हमारे यहां 3 पीढि़यों से बिटिया नहीं हुई थी. तेरे दादाजी तो इतने निराश हो गए थे कि कुछ न पूछो. जब तू हुई तो उन का मुंह फूल सा खिल गया था और उन्हें लगने लगा कि वे भी अब कन्यादान कर सकेंगे. पंडितजी से कितनी पूजा करवाई थी, पूछ अपनी मां से,’’ दादी बड़े गर्व से बोली थीं, ‘‘क्या शानदार पार्टी दी थी.’’

‘‘तो बिटिया इसलिए पैदा की जाती है कि उसे बड़ा कर के किसी दूसरे को दान कर दें?’’ कह कर दिया चुप हो जाती.

दादी को दिया बहुत प्यारी थी परंतु उन्हें उस का इस प्रकार प्रश्न करना कभी नहीं भाया था. वे कभीकभी यशेंदु से कहतीं भी, ‘‘यश, बेटा ध्यान रखो. लड़की है, दूसरे के घर जाना है. बहुत सिर पर चढ़ा रहे हो.’’

यशेंदु चुप ही बने रहते. बड़ी मुश्किल से तो एक गुलाब सी बिटिया महकी थी घर में. उस पर अंकुश लगाना उन्हें बिलकुल पसंद न था. पर मां के सामने बोलती बंद ही रहती थी.

‘‘अच्छा दादी, तब आप के पंडित कहां थे जब गंधर्व विवाह हुआ करते थे. और हां, वैसे तो आप देवताओं को पूजते हो, राजाओं का गुणगान करते हो, पर ये नहीं देखते कि उन्होंने भी अपनी पसंद से गंधर्व विवाह किए थे, वह सब ठीक था, दादी? तब कौन करता था कन्यादान? और आप को पता है, दान शब्द तो तब भी था ही. कर्ण की दान परंपरा को आज तक लोग मानते हैं और कहते रहते हैं, ‘दानी हो तो कर्ण जैसा.’ पर उसी जमाने में द्रौपदी जैसी औरतें भी हुई हैं. दादी, कुछ लौजिक तो होगा ही न? अच्छा, अपने पंडितजी से पूछिएगा, वे जरूर इस पर कुछ प्रकाश डाल सकेंगे.’’

‘‘दिया बेटा, दादी से इस तरह बात नहीं करते. जो कुछ हुआ है या होता रहा है, दादी ने तुम्हें वे ही कहानियां तो सुनाई हैं,’’ यश अपनी बिटिया को समझाने का प्रयास करते.

‘‘ये लौजिकवौजिक तो मैं जानती नहीं, बस, यह पता है कि हमारे पुरखे भी यही सब करते रहे हैं और हमें भी अपनी परंपराओं में चलना चाहिए,’’ दादी कुछ नाराजगी प्रकट करतीं.

‘‘बेटा, लौजिक यह है कि लड़की इसलिए होनी चाहिए जिस से घर भराभरा रहे. लड़की तो एक चिडि़या की तरह होती है जो घरभर में चींचीं करती हुई घूमती रहती है. अगर लड़की न हो तो मां और दादी लड़कों को कैसे सजाएंगी? कैसे उन के लिए शृंगार की चीजें बनेंगी? लड़की घर की रोशनी होती है, घर की आत्मा होती है. सो लड़की के बिना घर सूना रहता है. वहीं, पहले से ही दुनियाभर में नियम है कि लड़की घर में नहीं खपती,’’ कामिनी उसे समझाने की चेष्टा करतीं.

‘‘खपती, मतलब?’’ दिया ने टोका.

‘‘बता रही हूं, चैन से सुनो तो सही. खपने का मतलब है लड़की को घर में नहीं रखा जा सकता.’’

‘‘यानी लड़का घर में जिंदगीभर रह सकता है, लड़की बोझ बन जाती है?’’

‘‘नहीं पगली, बोझ नहीं. दरअसल, लड़की की सभी जरूरतें पूरी हो सकें इसलिए हमारे समाज ने उसे एक परंपरा या स्ट्रक्चर का रूप दे दिया है ताकि लड़की की शादी कर के उसे दूसरे कुल में भेज दिया जाए. सब को एक साथी की जरूरत होती है न? गंधर्व विवाह में भी तो कन्या अपने पति के साथ उस के घर जाती थी न? अपने पिता के घर तो नहीं रहती थी,’’ ऐसे मामलों में कामिनी अपनी बेटी को समझाने में पूरी जान लगा देती थी.

‘‘अरे ममा, मैं शादी की बात ही कहां कर रही हूं? मैं बात कर रही हूं दान की और ये पंडितजी बीच में कहां से घुस जाते हैं? इन्होंने यह दानवान बनाया होगा. आय एम श्योर.’’

‘‘अरे, पंडितजी को क्यों बीच में घसीट लाती है?’’ दादी बिगड़ कर बोलतीं, ‘‘पंडित न हो तो तुम्हें पत्रीपतरे कौन बांच कर देगा? कौन बताएगा यह समय शुभ और यह अशुभ है?’’

‘‘ओह दादी, जरूरत ही कहां है शुभ और अशुभ समय पूछने की? भगवान, जो आप ही तो कहती हैं, हम सब में है…’’

‘‘हां, तो झूठ कहती हूं क्या मैं…’’ दादी बिफरतीं.

‘‘मैं कहां कह रही हूं कि आप झूठ कहती हैं. मेरा मतलब यह है कि जब हम सब में वही है तब उन का कहना न मान कर इन पंडितों के चक्कर में क्यों पड़ती हैं?’’

‘‘अच्छा, तो वे तुझे साक्षात दर्शन देंगे क्या? कोई तो चाहिए रास्ता सुझाने वाला. तुम कालेज जाती हो? पहले स्कूल जाती थीं. तुम्हें पढ़ाने वाले टीचर नहीं होते वहां? झक मारने जाती हो क्या?’’

‘‘पर वे टीचर अपने सब्जैक्ट के ऐक्सपर्ट होते हैं. आप के पंडितजी क ख ग तक तो जानते नहीं अपने सब्जैक्ट में और…’’

‘‘देख बेटा, मेरे जीतेजी तो पंडितजी का अपमान होगा नहीं इस घर में. मेरे मरने के बाद जैसे तुम लोगों को रहना है रह लेना,’’ दादी और नाराज हो उठतीं. कैसा जमाना आ गया है? वे अच्छी प्रकार जानती थीं कि उन की बहू कामिनी भी इन्हीं विचारों की है परंतु उन्हें इस बात का संतोष भी था कि उन की बहू ने उन के सामने तो कभी अपनी जबान खोली नहीं है अब इस नए जमाने की छोकरी को देखो, क्या पटरपटर बोलती है. भला जिस घर में ब्राह्मण का अपमान हो और वह घर पनप जाए? जिंदगीभर कुलपुरोहित ने उन्हें समयसमय पर सहारा दिया है, चेताया है, हर विघ्न की पूजा करवाई है.

– क्रमश:

फूलों से महकती पूनम की फुलवारी

फूलों और पौधों की खुशबू व हरियाली उन्हें खूब भाती है. रोज के कामकाज से निबट कर वे अपने बगीचे में चली जाती हैं. फूलों और पौधों के बीच समय गुजारना व उन की नियमित रूप से सेवा करना उन की रोज की दिनचर्या में शामिल है. सुबह हो या दोपहर, शाम हो या रात, जब भी मौका मिलता है वे अपने बगीचे में पहुंच जाती हैं. कई खूबसूरत फूलों और सजावटी पौधों की किस्में उन के बगीचे में चार चांद लगा रही हैं, जिन्हें उन्होंने बड़े ही जतन और सलीके से सजायासंवारा है. उन के बगीचे में 300 से ज्यादा कलात्मक गमले हैं और सैकड़ों पौधों को जमीन में क्यारी बना कर लगाया गया है.

झारखंड की राजधानी रांची के मुख्य इलाके रातू रोड के देवी मंडप रोड स्थित स्टेट बैंक औफिसर्स कालोनी के अपने मकान में रहते हैं झारखंड के स्टेट टीबी औफिसर डा. राकेश दयाल व उन की पत्नी पूनम दयाल. पूनम ने अपने घर के पीछे खाली पड़ी जगह को बगीचे का रूप दे रखा है. वे कहती हैं कि 16 साल पहले जब वे अपने घर में आईं तो पति, बच्चों और परिवार की देखरेख में ही समय गुजारना होता था. पति के दफ्तर और बच्चों के स्कूल जाने के बाद वे काफी समय सो कर गुजार देती थीं. घर के पिछले हिस्से में खाली पड़ी जमीन में काफी जंगलझाड़ हो गए थे. कई बार मजदूरों से उसे साफ करवाते थे पर कुछ दिनों बाद फिर से जंगली पेड़पौधे उग आते थे. एक दिन खयाल आया कि क्यों न बेकार पड़ी जमीन में फूलपौधे लगाए जाएं. बचपन से बागबानी का शौक था. उसी शौक को जमीन पर उतारने के लिए जमीन मिल गई. बगीचे की देखरेख कर अब मैं खाली समय का बेहतर इस्तेमाल कर रही हूं.

पूनम बताती हैं कि उन का खिलता और महकता बगीचा पिछले 14-15 सालों की मेहनत का नतीजा है. फूलों की कई किस्में उन के बगीचे को गुलजार कर रही हैं. हर प्राकृतिक प्रेमी की तरह उन्हें भी फूलों का राजा गुलाब काफी पसंद है. उन्होंने अपने बगीचे में कोरल गुलाब, क्रिमसन गुलाब, औरेंज गुलाब, खुबानी गुलाब, कौपर गुलाब, सफेद गुलाब, पीला गुलाब समेत टू टोन गुलाब लगा रखे हैं. इस के अलावा डहेलिया, चमेली, रात की रानी, रजनीगंधा, मुसंडा आदि फूलों की कई किस्में आसपास के माहौल में महक बिखेरती रहती हैं.

मेहनत और लगन चाहिए

पूनम अपने बगीचे के पौधों में हरी खाद या वर्मी कंपोस्ट का इस्तेमाल करती हैं. इस से मिट्टी की गुणवत्ता और ताकत बनी रहती है. उन का मानना है कि कैमिकल खादों के इस्तेमाल से मिट्टी बंजर हो जाती है. बगीचे में ही एक कोने में 8 फुट लंबा, 5 फुट चौड़ा और 4 फुट गहरा गड्ढा बना रखा है. गार्डन को साफ करने के दौरान उखाड़े गए घासपतवार को उस में डाल देती हैं. कुछ गोबरकूड़ा भी डाल कर उसे कुछ समय के लिए सड़ने को छोड़ देने से अच्छीखासी जैविक खाद तैयार हो जाती है. वे कहती हैं कि बागबानी करने के लिए जरूरी औजार आदि रखना आवश्यक होता है. खुरपी और प्लांटकटर काफी जरूरी औजार हैं. खुरपी से पौधों की जड़ों के आसपास मिट्टी को हलका कर देने से उस की जड़ों में हवा व पानी आसानी से पहुंचता है. प्लांटकटर से काफी ज्यादा बड़ी हो चुकी बेढब डालों को काट कर अलग कर पौधों की खूबसूरती को कायम रखा जा सकता है. पूनम दयाल के बगीचे में घूमने से उन की मेहनत, लगन और कलाकारी की झलक महसूस की जा सकती है.

दिल तो बच्चा है जी

कहते हैं इंसान के विचार समुद्र की लहरों की तरह होते हैं. वे हरदम मचलने को तैयार रहते हैं. वहीं उस की भावनाओं की कोई थाह नहीं होती और भावनाएं ही उसे अपनों से जोड़े रखती हैं. लेकिन यह जरूरी नहीं कि भावनात्मक रिश्ता सिर्फ अपनों से ही हो. वह किसी से भी हो सकता है. कई भावनात्मक रिश्ते ऐसे भी होते हैं जिन का कोई नाम नहीं होता. इन में एकदूसरे के प्रति प्रेम, अपनेपन का भाव तो होता है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि इन के बीच शारीरिक आकर्षण भी हो. इसे हम दिल का रिश्ता कहते हैं. इस भावनात्मक रिश्ते का न कोई नाम होता है और न ही इस में उम्र का कोई बंधन होता है. यह कभी भी किसी के साथ भी हो सकता है, लेकिन तभी जब दोनों के विचार आपस में मिलते हों.

अभी हाल ही में पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के 21 वर्षीय बेटे बिलावल भुट्टो और पाकिस्तान की 34 वर्षीय विदेश मंत्री हिना रब्बानी के बीच कुछ ऐसा ही रिश्ता देखने को मिला. इस के बारे में बालाजी ऐक्शन मैडिकल इंस्टीट्यूट की मनोवैज्ञानिक शिल्पी आस्ता का कहना है, ‘‘समय की कमी की वजह से जब हमें अपने साथी से इमोशनल सपोर्ट नहीं मिल पाता तो हमें जहां यह मिलता है, हम उसी की तरफ आकर्षित होते चले जाते हैं.

‘‘आजकल फिजिकल नीड सैकंडरी हो गई है. आज सब को अपने लैवल का साथी चाहिए, एकदम परफैक्ट. वैसे ह्यूमन नेचर यही है कि खानापीना, सैक्स, सेफ्टी मिले तो हम सेफ महसूस करते हैं, लेकिन आजकल लोगों का नजरिया बदल गया है. लोग जिंदगी में ठहराव नहीं चाहते. शारीरिक सुख के साथ उन्हें मानसिक सुख की भी बहुत आवश्यकता होती है. लेकिन अगर आप को अपने लैवल का साथी नहीं मिला है तो इस का मतलब यह नहीं कि आप उसे छोड़ दें या दूसरी ओर मुड़ जाएं. जरूरत है आप को समझदारी दिखाने की. आप समझदारी दिखा कर रिश्ते को संभाल भी सकते हैं.’’

रिश्ते का मूल्यांकन जरूरी: शिल्पी आस्ता आगे कहती हैं कि जहां तक हो सके रिश्ते को संभालने की कोशिश कीजिए. अपने पाटर्नर से रिश्ता तोड़ने से पहले यह जान लीजिए कि रिश्ता तोड़ना आसान होता है पर जोड़ना बहुत कठिन होता है. अगर आप का किसी से इमोशनल रिश्ता बन गया है, तो सोचिए कि क्या सचमुच वह इमोशनल रिश्ता है या आप को उस के साथ सिर्फ टाइम स्पैंड करना अच्छा लग रहा है? यह भी सोचिए कि यह इमोशनल रिश्ता कितने समय तक चलेगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि इमोशनल अफेयर की जड़ें भावनात्मक असुरक्षा से ही संबंधित हों. इसलिए सोचविचार कर रिश्तों का मूल्यांकन करें.

क्यों बनता है ऐसा रिश्ता: आज के तनाव भरे माहौल में लोग सुकून के पल तलाशते हैं. खासकर विवाहित पुरुष चाहते हैं कि घर पहुंचने पर पत्नी उन की बातों को सुने व समझे. लेकिन घर व औफिस के कामों में उलझी पत्नी जब ऐसा नहीं कर पाती, तो उस का पति वह सुख बाहर तलाशने लगता है.

यह अकसर देखा जाता है कि कुछ विवाहित लोग अपने साथी को भावनात्मक लगाव प्रदान नहीं कर पाते या अपनी व्यस्त जिंदगी के कारण अपने साथी को जरूरी समय नहीं दे पाते, तो उन का साथी अपना मन बहलाने के लिए अपने दोस्तों या सहकर्मियों के साथ अधिक समय व्यतीत करने लगता है. अगर इन दोस्तों या सहकर्मियों के बीच कोई उसे ऐसा व्यक्ति मिल जाए, जो उस के खाली पड़े भावनात्मक पक्ष को भरने में सफल रहे, तो उस व्यक्ति के साथ यह रिश्ता बनने में ज्यादा समय नहीं लगता.

मौडर्न होता जा रहा रिश्ता: आज के समय में इमोशनल अफेयर्स यानी भावनात्मक रिश्तों के केस तेजी से फैल रहे हैं. इस से विवाहित पुरुष ही नहीं स्त्रियां भी तेजी से जुड़ रही हैं. समय के साथसाथ लोगों की सोच और जीवनशैली में भी तेजी से बदलाव आया है. आजकल शादीशुदा स्त्रियां भी अपना जीवन अपनी मरजी से जी रही हैं, क्योंकि वे पढ़ीलिखी होने के साथसाथ आत्मनिर्भर भी हैं. अगर वे अपने पति से खुद को उपेक्षित या असुरक्षित समझने लगती हैं तो वे भी बाहर ऐसा साथी तलाशने लगती हैं, जो उन्हें इमोशनल सिक्योरिटी दे सके.

ऐसा ही कुछ फिल्म ‘कभी अलविदा न कहना’ में दिखाया गया है. इस में नायिका के विचार अपने पति से नहीं मिलते, जिस से उस का अपने पति से भावनात्मक लगाव नहीं रहता. वह अपने पति से भावनात्मक रूप से जुड़ नहीं पाती. जब दूसरा पुरुष उस की जिंदगी में आता है, जो उसे भावनात्मक सहारा देता है, जिस के विचार उस से मिलते हैं, तो उस के साथ कुछ पल वह सुकून से गुजारती है. आजकल सोशल नैटवर्किंग साइटें अपनी लोकप्रियता के चरम शिखर पर हैं. इन साइटों के जरीए स्त्री हो या पुरुष दोनों ही ऐसे अनजान दोस्तों के संपर्क में आ जाते हैं, जिन्हें भले ही वे न जानते हों, लेकिन उन के साथ वे भावनात्मक जुड़ाव महसूस करने लगते हैं. लगातार एकदूसरे से जुड़े रहने के कारण वे एक ऐसी डोर में बंध जाते हैं जिसे वे कोई नाम नहीं दे सकते.

दोस्तों के साथ भावनात्मक रिश्ता कोई धोखा नहीं है. समय के साथसाथ लोगों की सोच और जीवनशैली में तेजी से बदलाव होता जा रहा है, तभी तो इस हाई टैक्नीक के जमाने में रिश्ते ही हाईटैक होते जा रहे हैं. आजकल कामकाजी पतिपत्नी को अपना ज्यादातर समय औफिस में गुजारना होता है. ऐसे में यदि किसी के विचार अपने सहकर्मी से मिलते हैं, तो वह उसे धीरेधीरे पसंद आने लगता है और वह उस से अपने दिल की बातें शेयर करने लगता है. तब न चाहते हुए भी उन में एकदूसरे के प्रति भावनात्मक संबंध पनपने लगता है.

शिल्पी आस्ता कहती हैं कि स्त्रियां ज्यादा इमोशनल होती हैं, जबकि पुरुष प्रैक्टिकल सोच रखते हैं. इसलिए स्त्रियों को भावुकता के प्रति ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है. एक सर्वेक्षण के मुताबिक, रिश्ते को संजीदा बनाए रखने के लिए लगभग आधी महिलाएं आत्मीयता और भावनात्मक लगाव को ही महत्त्वपूर्ण मानती हैं. केवल 2 फीसदी महिलाएं ही ऐसी हैं, जो शारीरिक संबंधों को महत्त्व देती हैं. अब निंदनीय नहीं यह रिश्ता: अब लोग ऐसे रिश्ते में कोई बुराई नहीं मानते क्योंकि उन्हें ऐसा महसूस होता है कि भावनात्मक लगाव व्यक्ति का मनोबल बढ़ाता है. यह रिश्ता जब बनता है तब व्यक्ति उत्साह से भरा हुआ होता है और यही उत्साह उसे काम में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है, जिस से व्यक्ति सुकून भरी जिंदगी गुजारता है.

ऐसे रिश्ते को गलत न मानते हुए एक भावनात्मक और स्वस्थ रिश्ते की शुरुआत कह सकते हैं. इस रिश्ते में एक ऐसा दोस्त होता है, जिस के साथ वह अपने सुखदुख बांट सकता है. जो उस के सुखदुख, परेशानियों में उस का भरपूर साथ देता है और कदमकदम पर अच्छेबुरे का ज्ञान कराता है. अपने जीवनसाथी की उपेक्षा झेल रहे व्यक्ति का बाहर किसी के साथ एक स्वस्थ संबंध बनाना गलत नहीं है. अगर उस के साथ वह खुशी के कुछ पल बिता ले, जो उसे सुकून दें तो इस में कुछ बुराई नहीं है. भावनात्मक लगाव बदलते युग का एक चलन बन गया है, जिसे कुछ लोग सहजता से स्वीकार कर रहे हैं, क्योंकि इस से उन को आत्मिक खुशी मिल रही है.

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