सरित प्रवाह, अगस्त (द्वितीय) 2014
आप की संपादकीय टिप्पणी ‘राजनीति और न्यायपालिका’ निसंदेह एक अहम व चिंतनीय स्थिति को उजागर करती है क्योंकि जिस संदर्भ में यह प्रश्न उठाया गया है उस व्यवस्था पर न केवल जनसाधारण की एक अटूट आस्था ही निर्भर करती रही है बल्कि उस के वाहकों को हम तथाकथित ‘भगवान’ तक मान कर पूजते भी रहे हैं.
लेकिन शायद यह हमारी सामाजिक दिग्भ्रमितता ही कही जाएगी कि यहां भी हम गलत ही ठहरे जो इंसानों को भगवान रूप में उकेर कर अतिभ्रम के शिकार हो गए. वरना हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि हमारे न्यायविद भी तो उसी समाज के अंग हैं जहां जर, जोरू और जमीन के भंवर में फंस कर सभी ‘गलतियों के पुतलों’ में तबदील होते नजर आए हैं. ऐसी शर्मनाक तथा कलुषित स्थिति के लिए हम किन्हीं को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं तो वे हमारी गंदली राजनीति, सत्तालोलुप प्रशासक तथा हमारी दोगली मानसिकता ही हैं.
ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)
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‘राजनीति और न्यायपालिका’ संपादकीय पढ़ा. कुछ वर्षों से देखने में आ रहा है कि हमारे देश में कई बड़े अधिकारी, न्यायाधीश व राजनीतिक हस्तियां अपने कार्यकाल में तो अपनी हैसियत, सत्ता और शक्ति का बिना उफ किए जम कर फायदा उठाते हैं परंतु रिटायर होने या सत्ता से हटने के बाद जब वे हाशिए पर आ जाते हैं तब नैतिकता का लबादा ओढ़ कर, बयानबाजी कर के या किताबें लिख कर व्यर्थ की सनसनी फैलाते हैं. कोई उन से पूछे कि जब आप की तूती बोलती थी तब ये सनसनीखेज बातें आप ने क्यों होने दीं और उसी समय क्यों नहीं सार्वजनिक कीं? तब आप का तथाकथित जमीर कहां सोया था? देखा जाए तो ऐसे लोगों की बातों को यदि मीडिया ज्यादा महत्त्व न दे तो इस प्रकार की घटनाएं बंद हो जाएंगी.
न्यायाधीशों की नियुक्तियों में जस्टिस काटजू द्वारा बताई गई कथित एक गड़बड़ से भूतकाल में हुई सभी असंख्य नियुक्तियों को संदिग्धता के दायरे में लाना तो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है. फिर उन्होंने ऐसा कोई केस नहीं बताया जिस में उस कथितरूप से दागी जज साहब ने न्याय करने में कोई गलती की हो. ऐसे में जस्टिस काटजू के आरोप औचित्यहीन ही माने जाएंगे. अच्छा होता कि जस्टिस काटजू वर्तमान में विभिन्न कोटों में लंबे समय से पैंडिंग लाखों मुकदमों के शीघ्र निबटारे व भ्रष्टाचार रोकने के उपाय बताते.
बी डी शर्मा, यमुना विहार (दिल्ली)
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‘राजनीति और न्यायपालिका’ शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय में आप के विचार पढ़े. निष्पक्ष एवं निडर सरिता के माध्यम से मैं कहना चाहूंगी कि कब तक नेतागण सस्ती लोकप्रियता हेतु करोड़ों के खर्च पर जबरदस्ती भीड़ इकट्ठी करते रहेंगे. रैलियों, सभाओं में अपने उबाऊ भाषण से अनपढ़, गंवार, दिग्भ्रमितों से तालियां पिटवा कर वाहवाही बटोरते रहेंगे. लाशों पर राजनीति करने वाले ये नेतागण अपनी रक्षा हेतु काफिलों में चल कर जनजीवन को अस्तव्यस्त करते रहेंगे. भाजपा के नेतागण से मेरी यही गुजारिश है कि वे गंगा, यमुना, सरस्वती अभियान को त्याग कर बेकारी, महंगाई, भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को युद्धस्तर पर चलाएं.
नेताओं ने 68 साल तक भाषणों के सिवा जनगण को दिया ही क्या है? जब तक वे देश को खुशहाल नहीं करते उन्हें कोई हक नहीं है कि वे शहीदों को श्रद्धांजलि दें, गांधीजी की समाधि पर जाएं या खून के आंसुओं से भीगी हिंद देश की धरती पर सुख, शांति व स्वतंत्रता के प्रतीक तिरंगे को लहराएं.
रेणु श्रीवास्तव, पटना (बिहार)
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संपादकीय टिप्पणी ‘टैक्नोलौजी की असलियत’ पढ़ी. यह सोलह आने सच है. टैक्नोलौजी क्रांति से जितना सुधार नहीं हुआ है उस से अधिक समस्याएं पैदा हो गई हैं. आज का युवावर्ग गैजेट्स का उपयोग कम, दुरुपयोग अधिक कर रहा है. साइबर क्राइम इस का जीताजागता उदाहरण है. पहले भी लड़कियों के साथ छेड़छाड़ की घटनाएं होती थीं मगर तब कुछ लोग ही इसे जान पाते थे. जबकि आज बच्चेबच्चे की जबान पर चढ़ जाता है. सोशल मीडिया पर लाइक और शेयर करने की होड़ लग जाती है. तब कहा जाता है कि देश की जनता पीडि़ता के साथ है मगर यह सोचने वाली बात है कि जब लाखों लोग इसे कुकृत्य ठहरा रहे हैं तब साल में बलात्कारियों एवं अत्याचारियों की संख्या 70 हजार के पार कैसे चली गई? सच तो यह है कि जिस बात पर लाइक एवं शेयर करने में चंद सेकंड लगते हैं उसी बात को अपने जीवन में उतारने में एक जन्म कम पड़ जाता है. सोशल मीडिया पर लोग सच कम, झूठ ज्यादा बोलते हैं. हजारों रुपए टैक्नोलौजी पर खर्च करने वाले युवाओं के पास इतना समय नहीं होता कि वे अपने स्वास्थ्य पर ध्यान दे सकें.
क्या कोई ऐसी टैक्नोलौजी नहीं ईजाद की जा सकती जो गरीबी दूर कर सके, जो आतंकवाद मिटा सके, जो बलात्कारियों को रोक सके, जो धर्म एवं जाति का भेदभाव मिटा सके, जो लोगों में इंसानियत पैदा कर सके? यदि हम ऐसे गैजेट्स बनाने में असमर्थ हैं तो फिर हमें कोई हक नहीं बनता टैक्नोलौजी क्रांति का दंभ भरने का. टैक्नोलौजी से जितनी दूरियां नहीं मिटी हैं उस से कहीं अधिक खाइयां बन गई हैं भविष्य के लिए टेक्नोलौजी के कदम इतने आगे बढ़ चुके हैं कि रास्ते कम पड़ते महसूस हो रहे हैं.
आरती प्रियदर्शिनी, गोरखपुर (उ.प्र.)
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संपादकीय टिप्पणी ‘टैक्नोलौजी की असलियत’ पढ़ कर ऐसा लगता है कि यही हाल रहा तो लोग विवाह करना, लिव इन रिलेशनशिप छोड़ कर सोशल साइट्स देख कर अकेले रहेंगे क्योंकि उन के लिए बीवी, बच्चे सिरदर्द बन रहे हैं. किसी दिन जापान की तरह यहां भी रबड़ की औरत बनेगी जिस के साथ आदमी यौन इच्छा पूरी करेगा. अकेले रहो, मोबाइल पर बात करो, सोशल साइट्स देखो और खुश रहो.
इंदर प्रकाश, अंबाला छावनी (हरियाणा)
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ढोंग है जन्मपत्री मिलान
लेख ‘दूसरी शादी जोखिम भी है’ अगस्त (द्वितीय) अंक में पढ़ा. भारत में जन्मपत्री मिला कर विवाह करने का रिवाज है लेकिन फिर भी शादियां टूट रही हैं. अमेरिका में साइकोलौजिस्ट से सलाह कर के विवाह हो रहे हैं. भारत में लोग अच्छा खानदान और पैसा देखते हैं. लेकिन यह सुखी होने की गारंटी नहीं है.
इंदर ‘अकेला’, करनाल (हरियाणा)
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उत्तम कार्य
सरिता का मैं बहुत पुराना पाठक हूं. अगस्त (द्वितीय) अंक पढ़ने के उपरांत फिर अनुभूति हुई कि आप समाज की विभिन्न अंधकुरीतियों को मिटाने की दिशा में उत्तम कार्य कर रहे हैं. आभारी हूं.
अभिराम जयशील, लाजपत नगर (न.दि.)
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प्रभावशाली अंक
अगस्त (द्वितीय) अंक बेहद प्रभावशाली था. लेख ‘एक शायर गुलजार’ के अंतर्गत गुलजार साहब के विषय में पढ़ना अच्छा लगा. कहानी ‘पिता का दर्द’ दिल को छू गई. जब बेटा अपना फर्ज भूल कर पिता को धोखा दे तो यह पूरे समाज के लिए शर्म की बात होती है. संभव हो तो कहानियों की संख्या बढ़ाने की कृपा करें.
सुमेंद्र कुमार श्रीवास्तव, बेतिया (बिहार)
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अगस्त (द्वितीय) अंक में कहानी ‘पिता का दर्द’ एकसाथ कई सवालों को ले कर चलती है. पहला, उन पिताओं के लिए सबक है जो सोचते हैं कि पुत्र नहीं होगा तो अरथी को कंधा कौन देगा, वंश को आगे कौन बढ़ाएगा. दूसरा, यह गलतफहमी कि पढ़ाई हो तो बस विदेश में हो चाहे अपने घर का सबकुछ ही क्यों न बेचना पड़ जाए. तीसरा, आज भी समाज में बेटों की चाह में बेटियों की अवहेलना जारी है. अब चाहे दिखावे के लिए लोग इन्हें एक जैसा मानने लगे हों, मगर 2 लड़कियों के बाद भी
लड़के की चाहत बनी रहती है. चौथे, आज के जमाने को देखते हुए भी अपना सबकुछ अपनी मृत्यु से पहले ही अपनी संतान को सौंप देना कहां की अक्लमंदी है.
कहानी में कई संदेश होने के बावजूद कहानी में दर्शाई गई समस्या का कोई ठोस समाधान न होने से लगता है कि एक पिता इतना समर्थ होने के बाद भी अपनी स्वार्थी संतान से हार गया, जो सही नहीं लगा. कहानी का कोई तार्किक अंत होना चाहिए था.
मुकेश जैन ‘पारस’, बंगाली मार्केट (न.दि.)
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दिल छूती कहानियां
अगस्त (द्वितीय) अंक में छपी कहानी ‘टेसू के फूल’ और ‘अंतर्व्यथा’ बेजोड़ लगीं. पढ़ कर आंखों में आंसू आ गए.
आर के वर्मा, गुमला (झारखंड)
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मार्मिक कहानी
अगस्त (द्वितीय) अंक में प्रकाशित कहानी ‘अंतर्व्यथा’ बहुत ही मार्मिक और हृदयस्पर्शी लगी. लेखिका ने मां की व्यथा को बहुत ही सुंदर ढंग से दर्शाया है. मातापिता के गलत निर्णय के कारण मां और बच्चे की मानसिक व्यथा को बहुत ही खूबसूरती से पेश किया है. इस कथा से हमें सीख मिलती है कि पुरुष यदि किसी विधवा या तलाकशुदा स्त्री से शादी करता है तो उसे उस स्त्री को उस के बच्चे समेत स्वीकार करने की खुली विचारधारा रखनी चाहिए. संकीर्ण मानसिकता से वह 2 जानों पर अन्याय करेगा. साथ ही, मासूम जिंदगियों को दलदल में डालने जैसे घृणित कृत्य का भागीदार भी रहेगा.
मातापिता को भी पुत्री का पुनर्विवाह उस के अबोध बच्चे समेत ही करने का साहस करना चाहिए, जिस से उन दोनों को तनावमुक्त नई जिंदगी मिले और शिशु ममता की छांव में पलेबढ़े. मां को बच्चे से अलग करने से उत्पन्न मां की व्यथा को बहुत सुंदर ढंग से लेखिका ने व्यक्त किया है.
मनीषा रायपूरे, मुंबई (महाराष्ट्र)
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निष्ठुर युवा पीढ़ी
अगस्त (प्रथम) अंक में लेख ‘मां बनी आया’ पढ़ कर आज की युवापीढ़ी पर बड़ा गुस्सा आता है कि जो मां अपने खून से सींच कर कलेजे के टुकड़े को पालपोस कर जीने की राह दिखाती है वही बेटा मां को भूख से बिलखते, बेसहारा छोड़ देता है.
जीतेंद्र कुमार, रांची (झारखंड)
धर्म के नाम पर करोड़ों स्वाहा
पत्थरों में भगवान की मौजूदगी मान कर अपने देश में वर्षभर कहीं न कहीं और किसी न किसी रूप में भगवान की पूजा होती है. सार्वजनिक पूजा के नाम पर करोड़ों रुपए की बरबादी टीस पैदा करती है. पश्चिम बंगाल समेत देश के कई राज्यों में दुर्गा पूजा की प्रारंभिक तैयारियां शुरू हो चुकी हैं. पूजापंडाल व आलोक सज्जा की रूपरेखा बनने लगी है. मूर्तिकार प्रतिमाएं गढ़ने में व्यस्त हैं. इस का दायरा महोत्सव से बढ़ कर एक प्रतियोगिता का रूप ले रहा है. सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही यदि दुर्गा पूजा पर होने वाले खर्च का आकलन किया जाए तो यह राशि कम से कम 200 करोड़ रुपए के आसपास पहुंचती है. क्या इस राशि को गरीबों के कल्याण पर खर्च करने की बाध्यता को लागू नहीं किया जा सकता. दुर्गोत्सव में सामाजिक व जनकल्याण कार्य भी किए जाते हैं लेकिन ये काफी कम होते हैं. ज्यादा जोर तामझाम और फुजूलखर्ची पर ही नजर आता है. दुर्गा पूजा के दौरान उत्सव में डूबे संभ्रांत व मध्यवर्गीय परिवारों की खुशी के बीच गरीबों की तंगहाली खासकर बच्चों की बेबसी सर्वत्र नजर आती है. समाज का एक वर्ग पूजापंडालों में गरीबों के बीच वस्त्र वितरण जैसे कार्यक्रम भी आयोजित कराता है लेकिन बदहाली के बावजूद जो सार्वजनिक मंचों पर जा कर सहायता लेना मंजूर नहीं कर सकें, उन का क्या? दुर्गा पूजा के दौरान सरकारी कर्मचारीवर्ग तो लंबी छुट्टियों की सौगात के साथ बोनस व एरियर के तौर पर मोटी रकम से भी लैस रहता है. जबकि सामान्य वर्ग को इस पर्व को मनाने के लिए पाईपाई जुटाने में ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है. इन्हीं वजहों से उत्सवों के दौरान आत्महत्या की घटनाएं बढ़ जाती हैं. पूजा को पूजा के तौर पर न ले कर मौजमस्ती के रूप में मनाने की प्रवृत्ति भी है. प्रतिमा विसर्जन के दौरान तड़कभड़क की दिनोंदिन बढ़ती प्रतियोगिता और युवकों का नशे में धुत्त हो कर नाचनेगाने का बेहूदा चलन भी है.
अमितेश कुमार ओझा, खड़गपुर (प.बं.)