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विज्ञान कोना

कार में जैट प्लेन का मजा

हम अभी सिर्फ 160 किलोमीटर रफ्तार की ट्रेन को चलाने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं हुए हैं जबकि दुनिया में 1,600 किलोमीटर रफ्तार की कार चलाने का मसौदा तैयार हो गया है. ब्रिटेन में एक ऐसी कार बनाने पर काम चल रहा है जिस की रफ्तार प्रति घंटा 1 हजार मील से ज्यादा होगी. ब्रिटिश ब्लडहाउंड के इस प्रोजैक्ट को विमान इंजन बनाने वाली कंपनी रौल्स रौयस प्रायोजित कर रही है. रौल्स रौयस इस के लिए वित्तीय और तकनीकी, दोनों तरह की मदद मुहैया कराएगी. इस सुपर कार में ईजे 200 जैट इंजन लगाया जाएगा जिस का इस्तेमाल अकसर लड़ाकू विमान यूरोफाइटर टाइफून में होता है. ब्लडहाउंड का कहना है कि पहले जैट इंजन का इस्तेमाल कर कार की रफ्तार को लगभग 350 मील प्रति घंटा किया जाएगा. उस के बाद उस की रौकेट मोटर को शुरू कर दिया जाएगा जिस से कार को सुपरसोनिक रफ्तार मिलेगी. इस प्रोजेक्ट का मकसद अगले साल जमीनी रफ्तार के मौजूदा रिकौर्ड 763 मील प्रति घंटा को तोड़ना है. इस के बाद 2015 में इस की स्पीड को बढ़ा कर 1 हजार मील प्रति घंटा यानी 1,610 किलोमीटर प्रति घंटा तक ले जाने की योजना है. एरोडायनेमिक शेप में डिजाइन की गई कार का डिजाइन स्वेनसिया विश्वविद्यालय की टीम ने तैयार किया है. अगर हमारे देश में यह कार आती है तो पत्नियों को मायके जाने के लिए ज्यादा सोचना नहीं पड़ेगा.

30 साल बाद देखी दुनिया

जन्म से ही अंधेपन का शिकार हुए लारी हैस्टर ने कभी नहीं सोचा था कि वे इस रंगरंगीली दुनिया को देख पाएंगे. अमेरिका के नौर्थ कैरोलिना के लारी हैस्टर 30 साल के बाद बायोनिक आंख की बदौलत आज देख पा रहे हैं. बायोनिक आंख रोशनी के सिग्नलों को दिमाग तक भेजती है.  बायोनिक आंख का इस्तेमाल करने वाले मरीजों को खास चश्मा पहनना पड़ता है. इस चश्मे में वीडियो कैमरा, बेहद छोटा सा कंप्यूटर, सैंसर आदि लगे होते हैं. बायोनिक आंख (चश्मे) पर लगा वीडियो कैमरा वस्तुओं को देखता है, फिर इसे कंप्यूटर के पास भेजता है, इस के बाद आंख में स्थापित सैंसर को संदेश भेजा जाता है. यह संदेश नस को भेजा जाता है, जो दिमाग को दिखाई देने वाली वस्तुओं के बारे में संदेश भेजती है. नतीजतन, मरीज को किसी भी वस्तु की आकृति सहजता से दिख जाती है. 

दौड़ेगा, दहाड़ेगा नहीं

भारत में चीता और शेरों की घटती संख्या से चिंता है जबकि अमेरिका में टाइगर की संख्या में अचानक तेजी आ गई है. यह टाइगर जंगलों में रहने वाला जीव नहीं, मशीनी टाइगर है, जो आम चीते की तरह दौड़ लगा सकता है, छलांग लगा सकता है पर दहाड़ नहीं सकता. इसे वाशिंगटन स्थित मैसाचुएट्स ‘इंस्टिट्यूट औफ टैक्नोलौजी’ यानी एमआईटी के शोधकर्ताओं ने बनाया है. यह मैकेनिकल बिग कैट 4 टांगों का प्राणी है जो कि गियर्स, मोटर्स और बैटरीज के सहारे चलता है. पहले इसे एक केबल के जरिए मेन पावर से जोड़ा गया था. इस रोबोट को वाइल्ड कैट का नाम दिया गया है. हाल ही में इसे 10 किलोमीटर प्रति घंटे की स्थिर रफ्तार से दौड़ता हुआ फिल्माया गया. शोधकर्ताओं का मानना है कि इस की रफ्तार 30 किलोमीटर प्रति घंटे तक बढ़ाई जा सकती है.     

 

क्या गीता ५११५ साल पुरानी है?

हिंदुओं में एक वर्ग ऐसा है जो हर हिंदू किताब को, हर हिंदू धर्मग्रंथ को, पुराने से पुराना सिद्ध करने पर तुला रहता है. वह वर्ग यह समझता है कि शायद जो ग्रंथ जितना पुराना होता है उतना ही प्रामाणिक होता है. उस का यह सोचना उस की अस्वस्थ सोच का परिचायक है, क्योंकि प्राचीनता प्रामाणिकता न पर्याय होती है और न हो सकती है. इसीलिए कई बार प्राचीन इमारतों और प्राचीन वृक्षों को नगरपालिका के अधिकारियों को, लोगों की जान की रक्षा करने के लिए गिराना पड़ता है और पुरानी पड़ चुकी व ऐक्सपाइरी डेट लांघ चुकी दवाओं को नष्ट करना पड़ता है. यदि यह नियम हो कि ‘जितनी पुरानी, उतनी प्रामाणिक’ तो इन पुरानी हो चुकी जर्जर इमारतों, पुराने वृक्षों और ऐक्सपाइरी डेट लांघ चुकी दवाओं को तो ज्यादा लाभकारी व प्रामाणिक होना चाहिए, न कि इन्हें लोगों के भले के लिए, उन की रक्षा हेतु, नष्ट व ध्वस्त करना चाहिए. ऐसे में पता नहीं क्यों हिंदू अतीतवादियों का एक वर्गविशेष हर पोथी को पुरानी से पुरानी सिद्ध करने के लिए एड़ीचोटी का जोर लगाए रहता है.

निराधार गणना

पिछले दिनों एक राजनीतिक दल ने अपने कुछ पंडेपुरोहितों को इकट्ठा कर गीता जयंती का आयोजन किया था, जिस में यह इतिहास विरोधी घोषणा की गई कि गीता 5115 वर्ष की हो गई है जबकि इतिहासकारों का कहना है कि 3515 वर्ष पहले भारत में गीताकार और गीताभक्तों के आदि पूर्वजों (आर्यों) तक का कहीं कोई नामोनिशान तक नहीं था. अतीतवादी पंडेपुजारी कलियुग की शुरुआत और द्वापर युग के अंत की बात किया करते हैं और उन के आधार पर वर्षों की, बिना किसी आधार के और बिना किसी सन के, गिनती किया करते हैं. यदि पूछा जाए कि ये कलियुग आदि कहां से टपक पड़े तो पंडेपुजारी व उन के पैरोकार पुराणों का नाम ले लिया करते हैं, जबकि पुराण ग्रंथ स्वयं अप्रामाणिक और अर्धसत्य हैं. आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती का मानना है कि पुराण विषमिश्रित अन्न के समान त्याज्य हैं. यदि पल भर के लिए पुराणों को प्रामाणिक मान भी लें तो प्रश्न पैदा होता है कि तुम जिस कलियुग की शुरुआत की बात करते हो, आप के आदरणीय पुराण उस कलियुग की शुरुआत की गई तिथियां बताते हैं, जिन में हजारों वर्षों का अंतर है.

इस विषय पर डा. अंबेडकर ने ‘रिडल्स औफ हिंदुइज्म’ नामक पुस्तक में विस्तार से लिखा है और कम से कम 2 अध्यायों में विषय की प्रामाणिक चर्चा की है. यदि भारत की ऐतिहासिक सामग्री पर विचार करें तो ईसा की 7वीं शताब्दी से पहले किसी भी दस्तावेज में कलियुग का उल्लेख नहीं मिलता. कलियुग का सब से पहला उल्लेख 610 ई. से 642 ई. तक शासन करने वाले पुलकेशिन (द्वितीय) के एक शिलालेख में हुआ है. वहां 2 तिथियां अंकित हैं : शक संवत 556 और कलि संवत 3735. इसी को आधार बना कर कलियुग का आरंभ 3101 ई. पूर्व माना जाता है, जो एकदम गलत है.

‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ नामक ग्रंथ (5 बड़ेबड़े भागों में) लिखने वाले और इसी के लिए भारतरत्न से सम्मानित किए गए डा. पांडुरंग वामन काणे ने उक्त गलती को पकड़ा था और घोषणा की थी कि 3101 ई. पूर्व न तो महाभारत के युद्ध की तिथि है और न ही कलियुग के आरंभ होने की. इस गलत तिथि को आधार बना कर गीता की जो उम्र बताई जाती है वह सही कैसे हो सकती है : 3101+2014=5115? क्या गीता इतने मात्र से महान हो जाएगी कि वह 5115 वर्ष पुरानी है? गीता की इस गलत उम्र से भी ज्यादा उम्र की चीजें दुनिया में मौजूद हैं. मिस्र के पिरामिड इस गलत उम्र से भी हजारों वर्ष पहले के हैं और उन की उम्र भी किसी गलत तथ्य पर घोषित नहीं की गई है तो उम्र की दृष्टि से क्या वे गीता से ज्यादा महान नहीं बन जाते?

डा. काणे ने पुराणों और अन्य ग्रंथों के आधार पर यह दर्शाया है कि 3101 ई.पूर्व कल्प के आरंभ की तिथि है, कलि के आरंभ की नहीं. जिस पंडे ने शिलालेख पर तिथि अंकित की उस ने ‘कल्पादि’ शब्द को जल्दबाजी में ‘कल्यादि’ पढ़ कर कुछ का कुछ बना दिया. महाभारत की तिथि पुराणों के अनुसार 1263 ई.पूर्व बनती है. इस तरह पुराणों के अर्धसत्यों के अनुसार, गीता ज्यादा से ज्यादा 1263+ 2014=3277 वर्ष की सिद्ध होती है, न कि 5115 वर्ष की. एकदूसरे विद्वान गोपाल अय्यर की गणना के अनुसार, कलियुग का आरंभ 1177 ई.पूर्व हुआ, क्योंकि परीक्षित का राजतिलक और श्रीकृष्ण का देहांत इसी दिन हुआ था. तदनुसार, गीता 3191 वर्ष पुरानी ही हो सकती है, न कि 5115 वर्ष पुरानी.

भिन्नभिन्न मत

इस तरह हम देखते हैं कि अतीतवादी पंडेपुरोहित व उन के पैरोकार जिन हिंदू पुराणों के आधार पर हिसाबकिताब लगाते हैं, वे खुद ही गड़बड़ हैं. उन में 1 नहीं, 3 भिन्नभिन्न तिथियां मिलती हैं. ऐसे पुराण प्रामाणिक कैसे माने जा सकते हैं? भारतीय विद्वानों ने गीता की उम्र जानने के लिए बहुत प्रयत्न किए हैं, परंतु कोई भी विद्वान गीता को ई.पूर्व हजारों वर्षों की नहीं बताता. इतिहासकार आर जी भंडारकर, गीता को ई.पूर्व चौथी सदी की रचना मानते हैं, तो देशभक्त बाल गंगाधर तिलक लंबीचौड़ी दलीलें पेश करने के बाद यह कहने को विवश हैं कि जिस रूप में गीता आज उपलब्ध है, उस रूप में वह ई.पूर्व 5वीं सदी में मौजूद थी.

जी एस खैर का ‘द क्वैस्ट फौर द ओरिजिनल गीता’ में कहना है कि गीता 500 ई. पूर्व से 300 ई.पूर्व के दौरान 3 भिन्नभिन्न व्यक्तियों द्वारा लिखी गई– पहले ने 6 अध्यायों के कुछ अंश लिखे, दूसरे ने 6 अध्याय अपनी ओर से जोड़ दिए तथा तीसरे ने पूरी पुस्तक को फिर लिखा और 6 अध्याय अपनी ओर से जोड़ने के अतिरिक्त यहांवहां श्लोक भी फिट कर दिए. डा. राधाकृष्णन का कहना है कि यह ई.पूर्व 5वीं शताब्दी की रचना है. जवाहर लाल नेहरू, स्वामी वीरेश्वरानंद जैसे लोगों का कहना है कि गीता बुद्ध से पहले की रचना है, परंतु डी डी कौशांबी ने अपनी पुस्तक ‘मिथ ऐंड रियलिटी’ में (पृ. 16 पर) यह तथ्य दर्शाया है कि नेहरू के गुरु गांधी के आश्रम की प्रार्थनासभा में गीता के अध्याय 2 के 55 से 72 तक के जो श्लोक प्रतिदिन गाए व दोहराए जाते थे, वे कभी रचे नहीं जा सकते थे यदि गीता बुद्ध से पहले की रचना होती.

गीता में कहीं निर्वाण अथवा ब्रह्मनिर्वाण, कहीं ‘शरण’, कहीं मध्यममार्ग, कहीं ब्रह्मविहार और कहीं कुछ ऐसा मिलता है जो इस बात का प्रबल प्रमाण है कि बुद्धिज्म की शब्दावली तब वातावरण में चारों ओर गूंजती थी और गीता रचनाकार चाह कर भी उस के प्रभाव से अपने को बचा नहीं पाया. नतीजतन, गीता में बहुत कुछ ऐसा है जो बौद्ध है. सो, गीता किसी भी प्रकार बुद्ध के पहले की रचना नहीं हो सकती. इसलिए इसे 5115 वर्ष की बताना इतिहास से एक भद्दा मजाक ही कहा जा सकता है. ‘बुद्धिज्म और गीता’ शीर्षक पुस्तिका में एकएक श्लोक उद्धृत कर के दर्शाया गया है कि कैसे गीता ने बुद्धिज्म के पारिभाषिक शब्दों, विशिष्ट शब्दावली, संकल्पों, यहां तक कि वाक्यों व कथनों को भी उठा कर अपने कलेवर में रख लिया है. परंतु उन का पता नहीं बताया है. उसे एकदम छिपा लिया है ताकि भंडा न फूट जाए. गीता ने उपनिषदों के श्लोक भी इसी तरह चुपचाप उठा लिए हैं और उन का पता छिपा लिया है. यह कौपीराइट कानून का उल्लंघन है और साहित्यिक चोरी का मामला है. गीता को 5115 वर्ष की बताने पर भी ये तथ्य धुल नहीं जाते.

हमारे विचार से गीता ईसा की 5वीं शताब्दी की रचना है. यह चौथी अथवा 5वीं शताब्दी में रचित ब्रह्मसूत्रों पर आधारित है. गीता के कई श्लोकों में ब्रह्मसूत्र शब्दश: प्रयुक्त हुए हैं. एक जगह तो साफतौर पर यह कह भी दिया गया है कि इस का गान ब्रह्मसूत्र के निश्चित और तर्कसंगत पदों (वाक्यों) द्वारा किया गया है :

ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितै:

(गीता, 13/4)

जब तक गीता में ब्रह्मसूत्रों की मौजूदगी है, जो चौथीपांचवीं शताब्दी की रचना है, तब तक गीता को ईसा की 5वीं शताब्दी से ज्यादा पुरानी सिद्ध करने का कहीं कोई तर्क नहीं है. ब्रह्मसूत्र गीता को हजारों साल पुरानी सिद्ध करने वालों के गले की फांस सिद्ध हो रहे हैं. गीता 1514 वर्षों से ज्यादा पुरानी नहीं है. तथ्यों के आधार पर यह इस से ज्यादा पुरानी सिद्ध नहीं की जा सकती. हां, गप हांकनी हो तो जितनी चाहे उस की उम्र बताते जाओ– 5115 बताओ या 51015 साल बताओ.  आप का मुंह है और जो मुंह में आए कहने का आप को अधिकार है. परंतु बुद्धिमान जानते हैं कि इतिहास और मिथ्याहास एवं गप में जमीनआसमान का अंतर होता है. इसलिए कोई विद्वान पंडेपुजारियों व पेशेवर साधुसंतों द्वारा बताई तिथि को इतिहास नहीं मानता. इस गीता को ‘राष्ट्रीय ग्रंथ’ घोषित करने की मांग कुछ लोगों द्वारा की जा रही है, परंतु वे यह नहीं बता पा रहे हैं कि इस में ऐसा क्या है जो इसे राष्ट्रीय ग्रंथ बनाया जाए. इस में राष्ट्र की किसी समस्या का समाधान नहीं है, बल्कि यह तो ताऊ और चाचा के पुत्रों अर्थात चचेरे भाइयों में पैतृक संपत्ति के विवाद तक को भी हल करने में असमर्थ रही है.

इस के वक्ता श्रीकृष्ण ने इस विवाद का जातिवादी हल बताते हुए कहा है कि अर्जुन, तुम क्षत्रिय हो और क्षत्रिय का कर्तव्य लड़ना होता है. इसलिए तुम अपने चचेरे भाइयों से भिड़ जाओ और उन के समर्थन में जो भी रिश्तेदार, गुरुजन आदि आएं, उन को नष्ट कर दो. उसे आगे बताया है कि तुम उन के केवल शरीरों को ही नष्ट कर सकते हो, इसलिए उन्हें नष्ट कर दो. उन्हें मारने पर तुम्हें पाप नहीं लगेगा क्योंकि उन की आत्माएं अमर हैं, जिन्हें तीर या तलवार से नष्ट नहीं किया जा सकता. तुम अपना वर्णधर्म, अपनी जाति का कर्म करते जाओ और फल की परवा न करो.

गीता का सारा उपदेश अर्जुन को चचेरे भाइयों से लड़ने के लिए ही दिया गया है. इस उपदेश से प्रेरित हो कर अर्जुन निर्ममता से अपने चचेरे भाइयों, गुरुजनों, स्वजनों आदि को मौत के घाट उतार देता है. यह एक परिवार का मामला है. पैतृक संपत्ति का विवाद आपसी मारकाट के बाद तो असभ्य और जंगली लोग भी सुलझा लेते हैं और इस के लिए उन्हें कभी किसी गीतोपदेश की जरूरत नहीं पड़ती. क्या शाहजहां के पुत्रों ने बिना गीतोपदेश के आपस में लड़कट कर पैतृक सिंहासन का विवाद नहीं सुलझा लिया था? गीता की महानता तो तब थी, जब वह उस विवाद को उस तरह सुलझाने का कोई मार्ग बताती जिस तरह आज चुपचाप और आपसी सद्भाव से दुनिया भर में करोड़ोंअरबों सभ्य लोग सुलझाते हैं.

यदि गीतोपदेश तब दिया गया होता जब विदेशियों ने भारत पर आक्रमण किया होता और इस उपदेश से प्रेरित हो कर अर्जुन ने देश की आजादी एवं अखंडता की रक्षा की होती, तब तो इसे राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने की मांग का कोई औचित्य होता, परंतु एक परिवार की गृहकलह व चचेरे भाइयों की आपसी क्षुद्र लड़ाई का राष्ट्र के लिए क्या महत्त्व हो सकता है?

औचित्य पर सवाल

यह देश सदियों तक गुलाम रहा. मुट्ठीभर लोग यहां आ कर साम्राज्य स्थापित करते रहे. परंतु तब न कोई गीता अवतरित हुई, न कोई अर्जुन ही कहीं दिखाई दिया. सैकड़ों वर्षों की गुलामी से जब अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के दबाव में आजाद हुए भी तो आधा देश लुटा कर आजाद हुए. ऐसे में गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने का क्या औचित्य है? इस की क्या प्रासंगिकता है? वर्तमान गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने का अर्थ होगा लोगों की पैतृक जायदाद के लिए हो रही क्षुद्र घरेलू कलहों को महिमामंडित करना, जो किसी भी तरह राष्ट्र के भले के लिए नहीं होगा. राष्ट्र का भला इसी में है कि लोगों में, परिवारों में, आपस में प्रेम बढ़े, वे संस्कारी हों. वे अर्जुन तथा दुर्योधन के परिवारों जैसे झगड़ालू और घरेलू समस्याएं हल करने के अयोग्य न हों.

कुछ आँखों देखि कुछ कानों सुनी

बिहार में रेखा

बिहार के पर्यटन मंत्री जावेद अंसारी के उत्साह की दाद देनी होगी जो मशहूर फिल्म अभिनेत्री और सांसद रेखा को बिहार पर्यटन का ब्रैंड ऐंबैसेडर बनाने की पहल कर रहे हैं. इस राज्य में किसी सरकार ने पर्यटन विकास के बारे में न कभी कुछ सोचा, न किया. बीमारू राज्यों की गिनती में इस के शुमार होने की एक बड़ी वजह पर्यटन के प्रति उदासीनता भी रही है.जावेद की सोच स्वागत योग्य है जिन्होंने गुजरात से सबक सीखा कि पर्यटन को बढ़ावा देना है तो अमिताभ बच्चन जैसी किसी मशहूर सैलिब्रिटी को लाओ. वैसे उन्हें बिहार के पर्यटन स्थलों की बदहाली पर ध्यान देते हुए प्रचारप्रसार पर जोर देना चाहिए और देश के बाकी हिस्सों के लोग बिहार जाने के नाम से क्यों कतराते हैं, यह भी जावेद को सोचना चाहिए. रेखा हां करें या न, यह बाद की बात है लेकिन बिहार सरकार की प्राथमिकता पर्यटन को व्यवसाय बनाने की होनी चाहिए.

सोनिया का दम

चिंतनमनन करने के लिए अस्पताल भी बुरी जगह नहीं है जहां बिस्तर पर लेटेलेटे दलिया, सूप और जूस का सेवन करते हुए सोचने के मामले में अधीनस्थों की निर्भरता से मुक्त हुआ जा सकता है. यही तरीका कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपनाया. 3 दिन के लिए दिल्ली के एक अस्पताल में भरती रह कर वे वापस घर आईं तो जोश से भरी दिखीं.इसी जोश में उन्होंने निष्प्राण होती कांग्रेस में मार्च से नई जान फूंकने का ऐलान कर डाला. हालांकि यह दुष्कर काम कैसे होगा, यह उन्हें ही पता होगा लेकिन यह तय है कि सोनिया फिर इस शाश्वत ज्ञान की तरफ बढ़ रही हैं कि देश रसातल में जा रहा है, सांप्रदायिक ताकतें हावी हो रही हैं. ऐसे में जरूरी है कि कांग्रेस खत्म न हो. यह जोश 10 जनपथ तक ही सिमटा नजर आया, मुमकिन है कोई चमत्कारी तरीका वे अपनाएं और नए रूप में अवतरित हों.

फंदा सुनंदा का

कांग्रेसी सांसद शशि थरूर अपनी पत्नी सुनंदा की मौत के मामले में फंसते जा रहे हैं जो 17 जनवरी, 2014 को हुई थी. धन्य है हमारी पुलिस जो अब तक जांच ही कर रही है जिस से शशि परेशान हैं और बयान भी दे चुके हैं कि पुलिस उन्हें और घरेलू नौकरों को पूछताछ की आड़ में परेशान कर रही है. अब नया खुलासा यह हुआ है कि सुनंदा को धीमा जहर दे कर मारा गया था.यह हाईप्रोफाइल मौत या हत्या अब पुराने जासूसी उपन्यासों सरीखी होती जा रही है जिस में प्यार, रहस्य, रोमांच वगैरह सब हैं. दिक्कत की बात पुलिसिया तरीका है जिस में शशि थरूर शक के दायरे से बाहर नहीं हैं. जब तक मामले पर खात्मा नहीं हो जाता तब तक परेशानी तो उन्हें उठानी ही पड़ेगी क्योंकि केंद्र में अब कांग्रेस की नहीं, भाजपा की सरकार है.

दलित रत्न

बसपा प्रमुख मायावती इन दिनों बेहद बौखलाई हुई हैं. उन की बौखलाहट की कई राजनीतिक और गैरराजनीतिक वजहें हैं जिन में प्रमुख यह है कि बसपा अब कहीं गिनती में नहीं है. दलितों का मोह उस से भंग हो चला है. इस भंग मोह को जोड़ने के लिए उन्होंने भारतरत्न पर भी जातिवाद का आरोप मढ़ डाला कि सरकार एक ही जाति के लोगों को यह खिताब दे रही है. यह ज्योति बा फुले और कांशीराम को भी दिया जाना चाहिए. दलित समुदाय ने इस खुलासे पर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. उलटे, सवाल यह उछलने लगे कि इन 2 महान हस्तियों ने आखिर ऐसा किया क्या था. सवाल बड़ा पेचीदा है जिस का जवाब बेहद साफ है कि देश के लिए कोई कुछ नहीं करता, देश लोगों के लिए करता है, तमाम पुरस्कार देना उन में से एक है.

सावधान आप सर्वेलेंस में हैं

मौल में आप ऐस्कलेटर पर खड़े हैं. नीचे भीड़ में फैशनेबल दिखने वालों को जांच रहे हैं, आसपास होर्डिंगों पर नजर दौड़ा रहे हैं, ऊपर पहुंचतेपहुंचते दुकानों के उभरते डिस्प्ले आंक रहे हैं. तभी अचानक आप की नजर सामने मौनीटर पर पड़ती है और आप चौंक जाते हैं. अरे, यह तो मैं हूं, अपने आप से कह कर शुरू में तो चौंके, फिर तुरंत, सर्वेलेंस कैमरा है, समझ, मन ही मन मुसकराए और अपने बालों पर हाथ फेर कर उन्हें ठीक करने में लग गए. मौल में सर्वेलेंस होना उचित है. वापस घर में पत्नी का कामकाज में कुछ हाथ बंटाया. बच्चों को होमवर्क में मदद कर सोने भेज दिया. फिर थोड़ी देर कंप्यूटर के सामने बिताया. फेसबुक पर गए, पिछली ऐंट्री में किस ने क्या कमैंट डाले, कितने लाइक्स मिले, नोट किए, ईमेल जांची, थोड़ी खबरें पढ़ीं, फिर इधरउधर की वैब सर्फिंग कर घंटा बिता दिया. सोने जब गए तो तकिए पर सिर रख कर यही खयाल आया न, ‘होम, स्वीट होम’. लेकिन सावधान हो जाइए, कोई आप को अब भी सर्वे कर रहा है.

यह कैमरे वाली सर्वेलेंस नहीं, डेटाबैलेंस की बात हो रही है. वह जो रोज रात को बिना जाने आप इंटरनैट पर खुद अपनी डिजिटल आईडैंटिटी बनाते हैं, आप के व्यवहार, हाल की गतिविधियां, आप के बारे में कोई भी बदलती जानकारी, उस सब पर कोई है जो छिप कर निगरानी रखे हुए है और कर भी क्या सकता है बेचारा. अगर वह सीधेसीधे आप को इन सब जानकारियों के लिए फौर्म पकड़ाए, तो क्या आप उसे भरने को राजी होंगे? वह जो आज औफिस में बौस ने यों ही बातोंबातों में विदेश से बेटे की हवाना सिगार ले कर आने की बात छेड़ी थी और फिर आप ने शाम को इंटरनैट में उत्सुकतावश सिगारों की खोज की थी, तब से आप की आईडैंटिटी पर कोई 4 या 5 सिगरेट कंपनियां रुचि दिखा रही हैं. कल ईमेल खोलिएगा, तो इनबौक्स में न सही, स्पैम फोल्डर में उन के संदेश जरूर पाइएगा.

फेसबुक क्या आया, दुनिया की एक- चौथाई जनसंख्या के समक्ष इंटरनैट में अपनीअपनी जीवनियां प्रस्तुत करने का बड़ा मौका सामने आ गया. लेकिन क्या आप को यों नहीं लगता कि आप के जन्म की तारीख से ले कर आप के औफिस के हाल की जानकारियां जरूरत से ज्यादा लोगों के कान में पड़ रही हैं. मेरी बहन भाग्यवंती, जो दिन में 5-6 बार अपना फेसबुक अकाउंट जांचती है, की तो यही शिकायत है कि पता नहीं क्यों इंटरनैट में चाहे जो भी पेज क्यों न खुला हो, बगल में हमेशा वही 50 साल या उस से ऊपर उम्र के दिलचस्प मर्दों से मिलने वाला विज्ञापन दिखता है. हैपिली मैरिड भाग्यवंती को गुस्सा इस बात पर नहीं आता कि इन अमेरिकी डेटिंग कंपनियों की मजाल कैसे हुई मुझे ऐसे ऐड भेजने की, बल्कि वह तो इस बात से चिढ़ जाती है कि मुझे ये लोग हमेशा 50 साल या उस से ऊपर की उम्र वाले मर्द ही क्यों सुझाते हैं.

डेटा माइनिंग की गतिविधियां

फेसबुक के अनुसार, एक महीने के अंदर अमेरिका में 168 मिलियन, ब्राजील में 63 मिलियन, भारत में 62 मिलियन, कुल मिला कर 1 बिलियन से अधिक उपयोगकर्ताओं ने जोरों से फेसबुक का इस्तेमाल किया. गूगल और याहू के आंकड़े भी लगभग इसी के आसपास हैं. ये सभी कंपनियां सोशल मीडिया सर्विस का प्रबंध करने के अलावा, डेटा माइनिंग की गतिविधियों में भी व्यस्त हैं. ये कंपनियां आप में, आप की प्रवृत्तियों और उन में बदलाव खोजने में और आमतौर पर आप के निजी डेटा में बेहद दिलचस्पी रखती हैं. वे आप की और आप के जैसे अन्य उपयोगकर्ताओं के विवरण बड़े डेटाबेसों में इकट्ठा कर के खास कंप्यूटर प्रोग्रामों द्वारा उपयोग करने लायक बना कर रखती हैं जहां से ये जानकारियां आप की आदतों और शौकों में रुचि रखने वाली संस्थाओं, कंपनियों को बेचती हैं. तभी जब आप इंटरनैट में सर्फ कर रहे होते हैं तो पन्नों के किनारों पर वे विज्ञापन होते हैं जो उन के अनुमान के मुताबिक आप के लिए रुचिकर होंगे.

यही बात ईमेलों के साथ भी लागू होती है. ईमेल प्रबंधकों के लिए उपयोगकर्ताओं के ईमेल स्कैन करना आम बात है. मकान खरीदने के सिलसिले में ईमेल लिख रहे हैं तो वैब पेज के अगलबगल में अच्छे रेट का वादा करने वाले बैंकों के इश्तिहार देखने को मिलेंगे. गाड़ी खराब हो गई तो आटो इंश्योरैंस के ऐड, अपनी किताब के लिए पब्लिशर ढूंढ़ रहे हैं तो ऐमेजौन की सैल्फ पब्लिश्ंिग स्कीम बारबार सामने आने लगेगी. यह है आज अमेरिका में इंटरनैट प्रयोगकर्ताओं का हाल, जहां व्यवसायियों में अपने उत्पाद बेचने की होड़ चरम पर है. दुनिया के सभी देशों में शायद स्थिति इस हद तक न पहुंची हो मगर यह जानना जरूरी है कि व्यवसायों का इस प्रकार का व्यवहार आज हर देश में संभव है. इश्तिहार झुंझलाहट ला सकते हैं लेकिन असल में चिंताजनक तो वे ‘बिग ब्रदर’ बड़े भैया हैं जो पीछे से हरदम हम पर निगरानी रखे हुए हैं या उस की सामर्थ्य रखते हैं.

कौन चाहता है ये डाटा

बिग ब्रदर नाम का प्रचलन 1949 में छपी जौर्ज और्वेल के उपन्यास ‘1984’ से हुआ. स्टालिन के सोवियत संघ और द्वितीय युद्धकालीन इंगलैंड में लोकतांत्रिक सिद्धांतों के पतन से प्रेरित 1984 हर नागरिक पर बिग ब्रदर के नेतृत्व में सर्वसत्तावादी समाजवादी पार्टी का लगातार सर्वेलेंस पर एक व्यंग्यात्मक उपन्यास था. आज अमेरिकी सरकार के पैट्रियौट ऐक्ट के तहत अमेरिकी सरकार संदिग्ध जनों की खोज में हर किसी पर कानूनन निगरानी रख सकती है. आप की छोटी से छोटी ‘पोस्ट’, जैसे कि आप ने कोई फिल्म देखी, चाहे वह आप को पसंद आई या न आई हो, आप ने यह बात तुरंत अपने फेसबुक में लिख डाली और आप को लगेगा कि इस महत्त्वहीन बात में कौन दिलचस्पी दिखाएगा, को डेटा माइनर तुरंत दर्ज कर लेता है और इसी तरह की आप के द्वारा इंटरनैट में व्यक्त की गई छोटीबड़ी बातों, आप की गतिविधियों, सर्फिंग की आदतों, विश्वासों, सोशल कनैक्शनों को इकट्ठा कर वह जो आप की विस्तृत रूपरेखा बनाता है, उस को ऐडवाइज और टैलौन जैसे प्रोग्राम का इस्तेमाल कर सरकार यह तय कर सकती है कि आप किसी प्रकार (राजनीतिक या सैनिक तौर) से देश के लिए खतरनाक तो नहीं हैं.

उधर फेसबुक, याहू, गूगल और पिकासा व यू-ट्यूब जैसे अन्य शेयरिंग साइट चीन में संपूर्ण रूप से प्रतिबंधित हैं. जहां एक तरफ चीन में सुधार उस देश को सुदृढ़ रूप से मार्केटअर्थव्यवस्था की ओर ले जा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ इंटरनैट पर ये प्रतिबंध चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का अपने मूल्यों और राजनीतिक विचारधाराओं के संरक्षण हेतु प्रयत्न हैं. ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि चीन में इंटरनैट पर प्रतिबंधों को अमल में लाने के लिए तकरीबन 30 हजार इंटरनैट पुलिस तैनात है. 1980 के दशक में चीनी नेता डैंग शाओ पिंग ने कहा था कि जब ताजी हवा के लिए खिड़की खोलते हैं तो मक्खियां भी अंदर आती हैं. इंटरनैट पर ये प्रतिबंध कुछ उन मक्खियों को मसलने के समान है ं. अजीब विडंबना तो यह है कि इंटरनैट और खासतौर पर फेसबुक के फैलते प्रभाव से प्रेरित आज चीनी सरकार फेसबुक की बड़ी हिस्सेदारी खरीदने के प्रयत्नों में भी लगी है.

बेचना जरूरी है

सरकार और आतंकवादी इंटरनैट का स्वाभाविक इस्तेमाल तो करेंगे ही, लेकिन लोकतंत्र में आम आदमी को शायद कौर्पोरेट बड़े भैया से चौकस रहना ज्यादा जरूरी है. कैपिटलिस्टिक अर्थव्यवस्था में सिर्फ एक चालक है. धन और उपभोक्ताओं के जरिए ज्यादा से ज्यादा धन इकट्ठा करने के प्रयत्नों में व्यवसाय इंटरनैट के इस्तेमाल में सब से अधिक सफल सिद्ध हुए हैं. आज आप के खर्च करने की प्रवृत्ति का पूर्वानुमान लगाने में कंपनियों के लिए आप की निजी साइटों तक पहुंचना अत्यावश्यक हो गया है. इन्हें तो सिर्फ दिलचस्पी है कि जैसे भी हो सके, आप को अपने उत्पाद बेच पाएं, चाहे आप को उस की जरूरत हो या न हो. उदाहरण के तौर पर दुनिया के सब से ज्यादा इस्तेमाल किए जाने वाले खोज इंजन गूगल की कार्यशैली देखिए : 

18 महीनों की अवधि तक गूगल अपने इंजन से की गई हर खोज आईपी ऐडे्रस समेत अपने डेटाबेस में रखती है.

अपनी जीमेल सेवा के प्रयोक्ताओं की ईमेलें स्कैन कर उन की रुचि के ऐड उन के स्क्रीन में लगातार पेश करती है.

अपने ‘कुकीज’ आप के कंप्यूटर में छोड़ कर इंटरनैट में आप की संपूर्ण गतिविधियों को लगातार ट्रैक करती रहती है और इस तरह आप की सर्फिंग की आदतों को समझती है. फिर आप की रूपरेखा तैयार कर अन्य कंपनियों को बेचती है.

कइयों को व्यवसायों के इस ध्येय से ज्यादा एतराज न भी हो लेकिन ऐसे अनेक लोग भी होंगे जिन्हें अपने निजी जीवन में इन का अनावश्यक हस्तक्षेप नापसंद होगा. कुछ को अनजान लोगों की रुचि का अनुमान लगा कर उन के सामने लगातार कुछ सीमित किस्म के ऐड डालने वाली बात माइंडकंट्रोल के समान लगेगी या खुद अपने शौक की चीज उपलब्ध करने की स्वतंत्रता को छीनने के समान लगेगी. जिस पर औरों का जवाब यह होगा कि आप के सामने कोई कितना भी कुछ पेश करे, आप के निर्णय लेने की जबरदस्ती तो कोई नहीं कर सकता.

शौकों पर नजर

डेटा माइनिंग पूर्णतया कंप्यूटर एल्गोरिश्मों द्वारा किया जाता है. डेटामाइनिंग कंपनियों को हमारे संपूर्ण निजी डेटा को छानने में कोई मुश्किल नहीं होती. ये कंपनियां व्यक्तिगत रूप से हम में रुचि नहीं रखतीं. वे केवल हमारे शौकों और हमारे शौकों में किसी प्रकार की नई तबदीलियों को ढूंढ़ती हैं, फिर भी गूगल, फेसबुक, ट्विटर, विभिन्न ब्लौग व वैबसाइटें हमारी हर छोटीबड़ी हलकीफुलकी बात को दर्ज करती हैं, उन्हें वर्गीकृत करती हैं और औनलाइन में खोजने लायक बनाती हैं. इस तरह से इन का डेटाबेस निश्चित तौर से बहुत बड़ा तो है ही, प्रभावशाली भी कम नहीं है. उदाहरणस्वरूप गूगल के फ्लू ट्रैंड्ज को ही देखें. गूगल के शोधकों ने इंटरनैट में कुछ खोज शब्दों को विश्वभर में डेंगू या फ्लू के उदित होने में अच्छा संकेतक पाया है. और इस तरह उन शब्दों का अनुश्रवण कर वे डाक्टरों से भी पहले विश्व में हर उस जगह, जहां सक्रिय इंटरनैट प्रयोक्ता हैं, महामारी की प्रवृत्ति पहचान सकते हैं.

इसी प्रकार कोई भी नया ट्रैंड, चाहे वह भाषा में हो, वेशभूषा में या उभरते अभिनेता या सैलिब्रिटी, डेटामाइनिंग के जरिए फौरन पहचाना जा सकता है. एक बार ट्रैंड पहचान में आ जाए, उस के उत्थान को एकसाथ जोरदार बढ़ावा दिया जा सकता है. इसी प्रकार के ट्रैंड सुझाते हैं गूगल के गूगल ट्रैंड्ज और गूगल ऐनालिटिक्स. तो डेटामाइनिंग, जो पहली प्रतिक्रिया के रूप में खौफ जगाती है, असल में कई दिलचस्प, बल्कि यों कहना चाहिए कि विकासशील उपयोग रखती हैं. फिर भी जिन लोगों को ये कंपनियां सिर्फ एक अवांछनीय सामाजिक प्रयोग लगती हैं, टैक्नोलौजी के पास उन के लिए भी कोई उपाय हैं. ये लोग याहू जैसे दखलंदाज खोज इंजन का उपयोग छोड़ डकडकगो जैसे इंजन, जो स्वच्छ इंटरफेस प्रदान करने के अलावा प्रयोक्ता को ट्रैक भी नहीं करते, का इस्तेमाल कर सकते हैं. ईमेल में चरम श्रेणी की गोपनीयता चाहते हैं तो विकर का सैल्फडिस्ट्रक्ंिटग मैसेजिंग इस्तेमाल कर सकते हैं. ईमेल में जो मरजी आए लिखें और भेजने से पहले खुद इस के नष्ट होने का वक्त तय करें. तय किए पल के बाद मैसेज का कहीं पर कोई नामोनिशान नहीं रहेगा. वाकई में टैक्नोलौजी हर स्थिति के लिए कुछ न कुछ उपचार ढूंढ़ ही लेती है.

आतंक दहेज कानून का

‘‘मेरी शादी को 9 साल हो गए हैं. मेरे 60 वर्षीय एडवोेकेट ससुर ने दहेज प्रताड़ना कानून 498ए की धमकी दे कर मुझे परेशान कर रखा था. मेरी बीवी 6 महीने से मायके में है. वह अपनी सारी ज्वैलरी व सामान भी ले गई है. अब उन लोगों ने मेरे खिलाफ दहेज प्रताड़ना व घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज करा दी है. जब मैं ने शिकायत वापस लेने की बात की तो उन्होंने मेरे खिलाफ भरणपोषण का केस दाखिल कर दिया.’’ ‘‘मेरी भाभी ने हमारा जीना मुहाल कर रखा है. बातबात पर वे मेरे बूढ़े मांबाप और मुझे जेल भिजवाने की धमकी देती रहती हैं, छोटेछोटे घरेलू विवाद को वे दहेज प्रताड़ना का नाम देती हैं. इस तरह इस कानून का वे नाजायज फायदा उठा रही हैं. हम बहुत परेशान हैं.’’

आंकड़े क्या कहते हैं?

वर्ष 2011 में दहेज प्रताड़ना में 99,135 केस दाखिल हुए, 2012 में 1,06,527 केस दाखिल हुए, 2013 में 1,197,762 केस दाखिल हुए, नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो यानी एनसीआरबी के अनुसार, 2011 में 47,746 महिलाओं ने आत्महत्या की वहीं 87,839 पुरुषों ने आत्महत्या की. 2012 में 46,992 महिलाओं ने आत्महत्या की जबकि आत्महत्या करने वाले पुरुषों की संस्था 88,453 थी. इन सभी आंकड़ों में अधिकांश विवाहित पुरुष हैं और आत्महत्या का कारण घरेलू झगड़े हैं.

ये घटनाएं और आंकड़े एक बानगी भर हैं जहां सैकड़ों परिवार दहेज कानून के आतंक के चलते प्रताडि़त हो रहे हैं, तलाक के बजाय ज्यादा घर दहेज प्रताड़ना कानून के चलते बरबाद हो रहे हैं. छोटेछोटे घरेलू विवाद दहेज प्रताड़ना में तबदील हो रहे हैं. कई बार बहू और उस के परिवार वाले अन्य मामलों के विवाद का बदला लेने के लिए इस कानून का सहारा लेते हैं जिस के चलते लड़के के परिवार वालों का जीवन प्रभावित होता है.

कवच बना हथियार

दरअसल 498ए यानी दहेज प्रताड़ना कानून के तहत दहेज के लिए पत्नी को प्रताडि़त करने पर पति व उस के रिश्तेदारों के खिलाफ कार्यवाही का प्रावधान किया गया था. दहेज प्रताड़ना का मामला गैरजमानती है और इसे संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया है. लेकिन यह कानून लीगल टेररिज्म यानी कानूनी आतंक का रूप लेता जा रहा है. लड़की व उस के परिवार वाले पतिपत्नी के बीच अहं, मामूली पारिवारिक विवाद, अलग रहने की इच्छा के चलते इस कानून का दुरुपयोग कर रहे हैं. इस कानून के दुरुपयोग का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘‘यह कानून सुरक्षा कवच बनने के बजाय हथियार की तरह इस्तेमाल हो रहा है.’’ कोर्ट के अनुसार, 2012 में धारा 498 के तहत अपराध के लिए 19,772 व्यक्ति गिरफ्तार किए गए और गिरफ्तार व्यक्तियों में करीब एकचौथाई पतियों की मां, बहन, बुजुर्ग थे. यह भारतीय दंड संहिता के तहत हुए कुल अपराधों का 4.5 फीसदी है जो चोरी और चोट पहुंचाने जैसे अपराधों से कहीं अधिक है. 498ए के मामलों में चार्जशीट की दर 93.6 प्रतिशत है जबकि सजा की दर मात्र 15 प्रतिशत है.

सुप्रीम कोर्ट का भी मानना है कि इस कानून का प्रयोग कर महिलाएं झूठे मुकदमे दर्ज करवाती हैं. कई बार तो साथ न रहने वाले सासससुर पर भी दहेज के लिए प्रताडि़त करने का आरोप लगाती हैं. एक सर्वेक्षण, जिस में विख्यात पूर्व पुलिस अधिकारी किरण बेदी भी शामिल थीं, के अनुसार दहेज विरोधी कानून के तहत जितने मुकदमे दर्ज कराए जाते हैं उन में से अधिकांश झूठे व निराधार होते हैं. वे गलत इरादों से दर्ज कराए जाते हैं.

संस्था को बदनाम करता कानून

एक महिला एडवोकेट, जो अपने खुद के परिवार में इस कानून के दुरुपयोग की गवाह हैं, का कहना है, ‘‘यह कानून पैसे कमाने का जरिया बन गया है. उन की खुद की भाभी ने उन के खिलाफ केस दर्ज किया हुआ है. भाभी ने 498ए के साथ सीआरपीसी की धारा 125, धारा 406 का झूठा मुकदमा दर्ज कराया है.’’ इस एडवोकेट के पास रिकौर्डेड मैसेज भी है : ‘‘अगर मेरे सासससुर मर जाएं और मेरे नाम यह मकान कर दें तो अभी मैं ससुराल चली जाऊंगी.’’

इस एडवोकेट का कहना है, ‘‘इस कानून को लड़कियों ने ससुराल वालों से पैसा उगाहने का जरिया बना लिया है. वे ससुराल वालों के पैसों के जरिए अपना मायके का खर्च चलाना चाहती हैं. वे प्रौपर्टी ग्रैबिंग के चक्कर में 498ए का दुरुपयोग कर रही हैं. परिणामस्वरूप घर बरबाद हो रहे हैं. विवाह की संस्था बदनाम हो रही है. यह कानून लेनदेन का जरिया बन गया है. इस कानून के जरिए समाज में गंदगी फैल रही है. छोटे बच्चों, जिन्हें दादादादी के प्यार की छांव तले रहना चाहिए, से कोर्ट में  झूठ बुलवाया जा रहा है.’’

इस कानून के तहत मिले अधिकारों से लैस पुलिस प्रशासक व वकील भी आतंकवादी जैसे बनते जा रहे हैं. पैसे ले कर केस रजिस्टर कर रहे हैं, वकील विवाहित लड़कियों को गलत सलाह दे रहे हैं. वे 498ए के साथसाथ दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत प्रतिमाह अपने और अपने बच्चे के लिए भरणपोषण की राशि मांगने का केस दाखिल करने की सलाह दे रहे हैं. वकील कह रहे हैं कि आप शादी के समय दिए गए सामान की लिस्ट बनाइए और शिकायत दर्ज कराइए. पति, परिवार वाले फाइनैंशियल सपोर्ट नहीं देते तो मेंटिनैंस का केस दायर कीजिए. इस कानून का उद्देश्य महिलाओं को दहेज प्रताड़ना से बचाना था लेकिन इस का प्रयोग पुरुषों के विरुद्ध हो रहा है. पत्नियां इस कानून का सहारा ले कर पतियों को ब्लैकमेल कर रही हैं, उन्हें घरपरिवार अलग होने, जमीनजायदाद उन के नाम करने के लिए धमका रही हैं. बहुएं कानून की दहशत फैला कर मनमानी कर रही हैं.

एडवोकेट विवेक गुप्ता, जो ऐसे केसेज में मध्यस्थता का भी काम करते हैं, का कहना है, ‘‘ज्यादातर केसेज में ऐसे परिवार, जिन में अकेली बेटी या सिर्फ बेटियां हैं और वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं या उन के ससुराल वाले आर्थिक रूप से संपन्न हैं, इस कानून का अधिक सहारा लेते हैं और लड़के वालों से सीआरपीसी की धारा 125 के तहत मोटी रकम वसूलते हैं.’’ उन्होंने यह भी बताया, ‘‘हाल ही में उन की एक क्लाइंट स्वाति (बदला हुआ नाम) को 1 करोड़ रुपए से अधिक की रकम ससुराल वालों से हासिल हुई है. विवाहित लड़कियां पतियों पर नपुंसकता व व्यभिचार का आरोप लगा कर उन से मनमानी रकम वसूलती हैं. इस कानून का दुरुपयोग कर के वे बेगुनाहों को भी शिकार बनाती हैं.’’

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

दहेज प्रताड़ना के मामलों यानी 498ए के मामलों में बड़ी तादाद में हो रही गिरफ्तारियों और इस के बढ़ते आतंक पर सुप्रीम कोर्ट ने भी चिंता जताई है. 2 जुलाई, 2014 को दहेज से जुड़े एक मामले का निर्णय देते हुए कोर्ट ने कहा है कि ऐसे मामलों में गिरफ्तारी के समय पुलिस के लिए निजी आजादी व सामाजिक व्यवस्था के बीच संतुलन रखना जरूरी है. कोर्ट ने कहा कि दहेज प्रताड़ना सहित 7 साल तक की सजा के प्रावधान वाले मामलों में पुलिस केस दर्ज होते ही आरोपी को गिरफ्तार नहीं कर सकती. उसे गिरफ्तारी के लिए पर्याप्त कारण बताने होंगे. 498ए में कोई भी शिकायत आए तो गिरफ्तारी तब तक न हो जब तक कोई सबूत या गवाह उपलब्ध न हो. एफआईआर की अप्लीकेशन में जो आरोप, जैसे विवाह में दहेज की मांग, लगाया जा रहा हो, उस को साबित करने के लिए दो गवाह या सुबूत मांगे जाने चाहिए, तभी एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए, ताकि 498ए के संज्ञेय और गैर जमानती होने के कारण असंतुष्ट व लालची पत्नियां इस का इस्तेमाल सुरक्षा कवच के बजाय हथियार के रूप में न कर सकें.

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि इस कानून में ऐसे भी प्रावधान होने चाहिए जिन से केस को लंबित करने व केस के  झूठे होने पर वादी को सजा मिल सके ताकि 498ए कानून के दुरुपयोग को रोका जा सके. कोर्ट ने पुलिस को भी यह हिदायत दी है कि दहेज उत्पीड़न के केस में आरोपी की गिरफ्तारी, सिर्फ जरूरी होने पर ही, की जाए. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिन किन्हीं मामलों में 7 साल की सजा हो सकती है उन की गिरफ्तारी सिर्फ इस आधार पर नहीं की जा सकती कि आरोपी ने यह अपराध किया ही होगा. इस कानून के दुरुपयोग ने शादी को तोड़ना आसान बना दिया है व निभाना कठिन. विवाहित महिलाएं आंतरिक कलह का बदला दहेज का केस कर के लेने लगी हैं. इस से घरपरिवार तबाह हो रहे हैं, ससुराल वालों को आर्थिक, मानसिक रूप से प्रताडि़त किया जा रहा है. इस कानून के चलते बहू पहले पति व ससुराल वालों को अभियुक्त बनाती है सिर्फ इस सोच के साथ कि बाद में समझौते के तहत अधिक से अधिक एकमुश्त रकम प्राप्त कर सके.

इस सामाजिक बुराई को खत्म करने के लिए दहेज देने वाले व लेने वाले दोनों को गुनाहगार मानना होगा. सिर्फ लेने वाले के खिलाफ केस दर्ज हो लेकिन देने वाले के खिलाफ नहीं, इसे बदलना होगा. शादी के समय लेनदेन को पंजीकृत किया जाए व उस लेनदेन पर मुहर लगाई जाए कि वह दानस्वरूप है या दहेजस्वरूप. यदि लेनदेन दहेजस्वरूप है तो शादी को तुरंत खारिज कर दिया जाए व कानून के तहत दहेज देने वाले को कानून के तहत तुरंत जेल भेजा जाए. जिस ने दहेज दिया है उस की कमाई के जरियों की जांच हो ताकि उस पर टैक्स लगाया जा सके. वैवाहिक संस्था की गरिमा बनी रहे, इस के लिए बदलते समय के साथ स्त्रीपुरुष के बदलते रिश्तों में भी संतुलन लाना होगा जिसे किसी कानून द्वारा कायम नहीं किया जा सकता. पतिपत्नी के बीच अहं व मामूली पारिवारिक विवाद में दहेज कानून का सहारा ले कर पत्नियों द्वारा पति को ब्लैकमेल किया जा रहा है.

ममता की साख गिरी माकपा के दिन फिरे

देश में अच्छे दिन आएं या न आएं, पर वाममोरचा के प्रमुख घटक दल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी माकपा के अच्छे दिन जरूर आते दिख रहे हैं. सारदा घोटाले के जाल में फंसी है ममता बनर्जी सरकार. विधानसभा चुनाव के 1 साल के बाद ही पश्चिम बंगाल की जनता के बीच ममता बनर्जी द्वारा लाए गए ‘परिवर्तन’ पर सवाल उठने लगे थे. रहीसही कसर सारदा चिटफंड घोटाले ने पूरी कर दी. घोटाले की सीबीआई जांच से जैसेजैसे परदा उठ रहा है, राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी माकपा के लिए जमीन तैयार होती जा रही है.

बंगाल में 34 सालों तक गठबंधन की राजनीति का इतिहास रचने वाला वाम मोरचा 2011 के विधानसभा चुनाव में पराजित हो गया. वाम मोरचा का सब से बड़ा घटक माकपा इस बात का इंतजार कर रही थी कि तृणमूल कांगे्रस के प्रति बंगाल की जनता का भ्रम टूटे. एक हद तक अब यह हो भी गया है. पिछले 3 सालों में ममता के प्रति शहरी और ग्रामीण दोनों जनता का मोहभंग हुआ है.

सारदा घोटाले के रूप में लगभग 6 हजार करोड़ रुपए का चिटफंड छींका आखिर टूट ही गया. छींका टूटने की ‘धम’ से माकपा अपनी शीतनिद्रा से जाग गई. अब अगले 2 साल बंगाल में चुनाव की गहमागहमी रहने वाली है. 2015 में पहले कोलकाता नगर निगम समेत अन्य नगरपालिका चुनावों के बाद 2016 में विधानसभा चुनाव होने हैं. अब तक ‘वेट ऐंड वाच’ की नीति पर चल रही माकपा ने सारदा कांड के भरोसे एक बार फिर से चंगा होने की कवायद शुरू कर दी है. पिछले 1 महीने से माकपा लगातार सड़क के नुक्कड़ों पर जनसभाएं आयोजित कर ममता बनर्जी और उन की पार्टी तृणमूल कांगे्रस के खिलाफ हवा बना रही है. इस के लिए भाजपा से उधार लिए गए स्लोगन – भाग ममता भाग – तक का सहारा लेने से भी वह पीछे नहीं हट रही है. आजकल माकपा की रैलियों में पार्टी के नेताओं के मुंह पर भाजपा का स्लोगन चस्पां है. बड़ी बात यह है कि ये जनसभाएं सफल भी नजर आ रही हैं.

अन्य पार्टियों को जनसभा बुलाने से रोकने की हर संभव कोशिश की गई. भाजपा को जनसभा के लिए अनुमति न देने में पूरा प्रशासन जुट गया. आखिरकार कोर्ट के निर्देश के बाद लोकसभा चुनाव में 2 सीट मिलने के बाद भाजपा भी शक्ति प्रदर्शन के इस खेल में शामिल हो ही गई है. राजनीतिक हलकों में माना जा रहा है कि सारदा घोटाले से ममता बनर्जी की सरकार की साख गिरने के बाद तृणमूल नेताओं और कार्यकर्ताओं का भय व आतंक कम हुआ है. इसीलिए भाजपा या माकपा की जनसभाओं में भीड़ नजर आ रही है. राजनीतिक विश्लेषक पार्थ चटर्जी का कहना है कि अगले साल होने वाले नगर निगम और नगरपालिकाओं के चुनाव बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं. भाजपा और तृणमूल कांगे्रस दोनों हिंदूमुसलिम मतदाताओं को ले कर धु्रवीकरण की लगातार कोशिश कर रही हैं. जबकि बंगाल के बहुसंख्यक मतदाता धर्मनिरपेक्ष हैं. इस का फायदा भारतीय जनता पार्टी को नहीं, माकपा व वाममोरचा को ही मिलेगा.

आत्महत्या क्या यह खुदगर्जी नहीं?

मम्मी, पापा मुझे माफ कर देना, मैं हमेशा के लिए जा रही हूं, मैं स्वेच्छा से फांसी लगा रही हूं, आई लव यू.’’
–प्रेरणा.

यह 4 वाक्यों का सुसाइड नोट है. 16 वर्षीय पे्ररणा निभोरे का घर का नाम पिंकी था. वह भोपाल के हबीबगंज क्षेत्र में रहती थी. घर में मातापिता के अलावा 2 बहनें और एक भाई भी है. घर के मुखिया देवचंद निभोरे पेशे से वैल्डर हैं. बीती 24 दिसंबर की सर्द रात में साढ़े 3 बजे वे बाथरूम जाने उठे तो उन्होंने अपनी लाड़ली बेटी को अपने कमरे में दुपट्टे के सहारे फांसी पर झूलते देखा. देवचंद की नींद, होश, चैन, सुकून सब एक झटके में उड़ गए. 25 दिसंबर को वे सकते और सदमे की सी हालत में थे. उन के चेहरे पर क्षोभ, ग्लानि और शर्ंमदगी के मिलेजुले भाव थे. पिंकी ऐसा भी कर सकती है, उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था. सूचना मिलने पर पुलिस आई, जांचपड़ताल की तो पता चला, प्रेरणा अकसर बीमार रहती थी. उसे चक्कर आते थे और कभीकभी दौरा भी पड़ता था.

प्र्रेरणा एक कहानी थी जो शुरू होने से पहले ही खत्म हो गई. लेकिन इस कहानी के दूसरे किरदारों की हालत भी मुर्दों से कम नहीं. उस की दोनों बहनों का रोतेरोते बुरा हाल था. वे कभी मां को ढाढ़स बंधातीं जो रोतेरोते अचेत हो जाती थीं तो सहम कर, वे भाई से लिपट कर रोने लगती थीं जिस का स्वेटर आंसुओं से भीगा था. इन तीनों की यह गुहार सुन कर मौजूद लोग भी रोंआसे हो उठते कि कोई तो पिंकी को वापस ला दे. प्रेरणा एकदम अबोध या नादान नहीं थी. उस की परेशानी जो भी रही हो, उस के साथ चली गई. लेकिन उसी के महल्ले में महज 4 घर दूर कुछ महिलाएं चर्चा कर रही थीं कि बीमारी तो बहाना है. जरूर कुछ और बात है जो छिपाई जा रही है, आखिर लड़की जवान जो थी.

निभोरे परिवार का दुख वक्त के साथसाथ कम होता जाएगा लेकिन यह विश्लेषणात्मक चर्चा जिंदगीभर उन का पीछा नहीं छोड़ने वाली, जिस का खासा खमियाजा परिवार के सदस्यों को भुगतना पड़ेगा. एक ऐसी गलती की सफाई उन्हें जिंदगीभर देनी पड़ेगी जो उन्होंने की ही नहीं. जिंदगी के वे बेहद तकलीफदेह पल होते हैं जब आप किसी और की गलती का स्पष्टीकरण देने को मजबूर हों. मामला खुदकुशी का हो तो इस का प्रभाव तो और गहरा पड़ता है. 3 दिन में ही देवचंद निभोरे को यह अहसास बेवजह नहीं होने लगा कि दोनों बेटियों की तो दूर की बात है, अब बेटे की शादी भी वे आसानी से नहीं कर पाएंगे. प्रेरणा ने इन सब बातों और दूरगामी नतीजों से कोई वास्ता नहीं रखा कि उस की एक गलती से सारा परिवार किनकिन और कैसेकैसे संकटों व सवालों का सामना लंबे वक्त तक करेगा. वह तो मर कर मरी है लेकिन बाकी 5 लोग तो जीतेजी मृतप्राय से हैं. ये पांचों प्रेरणा को याद कर दुखी होते रहेंगे और जिंदगीभर सहज नहीं हो पाएंगे.

घाव जिंदगीभर का

भोपाल के एक 65 वर्षीय रिटायर्ड सरकारी अधिकारी हरिनारायण सक्सेना (बदला नाम) भी सहज नहीं हो पाए हैं. 21 साल पहले उन की पत्नी आशा (बदला नाम) ने आत्महत्या कर ली थी. तब बेटा 8 और बेटी 4 साल की थी. अपने सुसाइड नोट में आशा ने भी यही कहा था कि वह अपनी मरजी से खुदकुशी कर रही है, उस की मौत के बाद किसी को परेशान न किया जाए. अपने पति को संबोधित करते आशा ने यह भी कहा था कि बच्चों का खयाल रखना. हरिनारायण ने बच्चों की खातिर दूसरी शादी नहीं की और जैसेतैसे अकेले बच्चों की परवरिश की. वे बताते हैं, ‘‘जिंदगी में ऐसे कई मौके आए जब आशा को मैं ने याद किया और उसे कोसा भी, काश वह देख पाती कि बिन मां के बच्चे किन कठिनाइयों और परेशानियों में पलते हैं. खासतौर से बेटी को बड़ा करने में तो मैं रो दिया. कई बातें और परेशानियां ऐसी थीं जिन्हें बिटिया मुझ से साझा नहीं कर सकती थी. मैं सब कुछ समझता था पर बेबस था. एक अनजाना सा डर लंबे वक्त तक मेरे दिलोदिमाग पर छाया रहा. कुछ महीनों तक तो मैं इतना असुरक्षित रहा कि दोनों बच्चों के बीच में सोता था और उन्हें देखता रहता था कि कहीं वे भी…’’

नम आंखों से हरिनारायण बताते हैं कि शुरू के 2 साल जब उन्हें रिश्तेदारों और समाज के भावनात्मक सहयोग की जरूरत थी तब हुआ उलटा, हमदर्दी की चाशनी में शक का जहर हर कोई घोल जाता था. लिहाजा, उन्होंने खुद को समाज से जानबूझ कर काट लिया. कुछ दिनों में वे तीनों सामान्य हुए और उन्होंने बच्चों में जीने का जोश भरा. हर मुमकिन कोशिश यह रहती थी कि उन्हें न मां की याद आए और न ही उस की कमी खले. आशा से जुड़ी हर वह चीज उन्होंने घर से हटा दी जो बच्चों को मां की याद दिलाती थी. वे बताते हैं कि एक हद तक वे इस में कामयाब भी रहे. इसी दीवाली के बाद जब उन्होंने बेटे की शादी के लिए अखबार में विज्ञापन दिया तो कई जगह बात चली. देशभर से प्रस्ताव आए लेकिन उन्हें झटका उस वक्त लगा जब पहले ही दौर की परिचयात्मक बातचीत में लड़की वालों ने उन से आशा की आत्महत्या के बाबत पूछा. कई पर तो वे झल्ला उठे कि बेटी की शादी करनी है या 21 साल पहले हुए सुसाइड की इन्वैस्टीगेशन करनी है.

बुजुर्ग, पके हुए हरिनारायण बेहद शांत लहजे में यह भी मानते हैं कि लड़की वालों की भी क्या गलती, जिस घर में भी वे बेटी देंगे उस के अतीत की तो छानबीन करेंगे ही. विवाह के लिए प्रस्ताव अब भी आते हैं तो मैं अब पहले ही खुलेतौर पर लड़की वालों को बता देता हूं कि लड़के की मां ने आत्महत्या की थी. पहले इस बात पर गौर कर मन बनाएं फिर आगे की बातचीत करना बेहतर होगा. शादी की बातचीत निर्णायक रूप में कहीं नहीं पहुंच पा रही है तो जाहिर है इस की असल वजह आशा है जो मां होने के माने नहीं समझ पाई. केवल सुसाइड नोट में पति को निर्दोष ठहरा देने से दुनिया और समाज ने उसे सच नहीं मान लिया. बकौल हरिनारायण, ‘‘सब कुछ होते हुए भी मेरे पास कुछ नहीं है. जिंदगीभर मैं एक अपराधबोध, शर्मिंदगी और ग्लानि में जिया. बच्चों की हालत भी जुदा नहीं. वे बड़े हो गए हैं और सबकुछ समझते हैं. उन की हालत देख मेरा कलेजा मुंह को आता है. जब उन के हमउम्र होटलों और पार्टियों में लाइफ एंजौय कर रहे होते हैं तब वे घर में बैठे लैपटौप पर खुद को व्यस्त रखने की कोशिश कर रहे होते हैं. ऐसे में मैं आशा को दोषी क्यों न ठहराऊं.’’हरिनारायण की बात में दम है और वास्तविकता भी. आत्महत्या कर लेना आसान है लेकिन यह देख पाना उतना ही मुश्किल है कि इस के खुद से जुड़े लोगों पर क्याक्या तात्कालिक और दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेंगे.

मजबूरी या खुदगर्जी

इन 2 और इस किस्म के लाखोंकरोड़ों मामले देख साफ कहा जा सकता है कि आत्महत्या एक स्वार्थ है जिस में मरने वाला अपने परिजनों, जिम्मेदारियों और भविष्य से कोई लगाव नहीं रखता. खुदकुशी के मामलों को नजदीक से देखने पर पता चलता है कि वह महज खुदगर्जी थी. ‘स्वेच्छा से मर रहा हूं’ जैसे कथन और उद्घोषणा बताते हैं कि आत्महत्या करने वाले में पर्याप्त समझ थी. फौरी तौर पर वह ऐसी समस्या या परेशानी से घिर गया था जिस का कोई हल उसे नहीं सूझ रहा था, इसलिए उसे जिंदगी खत्म कर लेना आखिरी विकल्प लगा. मशहूर मनोचिकित्सक सिंगमंड फ्रायड से ले कर आज के मनोचिकित्सक भी मानते हैं कि अगर आत्महत्या करने वाले को कुछ सैकंड का भी वक्त मिले तो वह अपना फैसला बदल सकता है. यह थ्योरी शुरू से ही विवादों में रही है और अब तो अप्रासंगिक नजर आने लगी है. वजह, हर दूसरी आत्महत्या काफी सोचसमझ कर और अलग तरीके से की जा रही है.

अगर जिंदगी खत्म करने की मुकम्मल वजहें हों तो एक बार मरने वाले से सहमत हुआ जा सकता है कि उस का जीना वाकई दुश्वार हो चला था. लेकिन 80 फीसदी मामलों से साबित यह होता है कि मृतक की मंशा खुद को नहीं, अपने आसपास के लोगों को सजा देने की थी. यह बात पारिवारिक और सामाजिक तौर पर बेहद बारीकी से देखी जानी चाहिए. वजह, आत्महत्या करने वाला अकसर आत्मकेंद्रित होता है और उसे सिवा अपनी परेशानी के कुछ और नजर नहीं आता. कई सुझाव इस बाबत दिए जाते हैं और ऐसे आत्मघाती लोगों की पहचान के लक्षण भी बताए जाते हैं. लेकिन दिक्कत उस वक्त पेश आती है जब उन्हें लोग सामान्य, स्वस्थ लोगों में देखना शुरू कर देते हैं. दरअसल, हर आत्महत्या एक अलग ढंग का मामला होती है और उस की वजह भी अलग होती है.

अधिकांश युवा प्रेमप्रसंग, बेरोजगारी, कैरियर और पढ़ाई में पिछड़ने पर आत्महत्या करते हैं तो अधेड़ लोगों की समस्या विवाहेतर संबंध, कोई बड़ी गलती, दांपत्य कलह या कार्यालयीन व कारोबारी परेशानी में पड़ जाना होती है. इस उम्र में आर्थिक जिम्मेदारियां ज्यादा होती हैं, लिहाजा कर्ज भी खुदकुशी की अहम वजह होती है. युवतियों और महिलाओं के मद्देनजर देखें तो कुछ और वजहें भी जुड़ी रहती हैं. मसलन, अविवाहित स्थिति में गर्भ ठहर जाना, कोई बड़ा भावनात्मक झटका और कई कारणों से पैदा हुआ अवसाद. सब से ज्यादा आत्महत्याएं पढ़ाई, कैरियर और प्रेमप्रसंग में असफलता को ले कर हो रही हैं. यह उम्र जीने की होती है, सपने देखने और उन्हें साकार करने की होती है, झूमने, नाचनेगाने की होती है. इसी में कोई खुदकुशी जैसी गलती कर बैठे तो उसे मजबूरी करार दे कर दोषमुक्त नहीं किया जा सकता. उस के परिवारजनों को इस के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता.

पूरे देश सहित भोपाल में भी आएदिन इन्हीं वजहों के चलते युवा ऐसे खुदकुशी करते हैं मानो कहीं टहलने जा रहे हों. होस्टल्स और किराए के मकान में रह रहे युवाओं को किसी चीज की कमी नहीं होती. अभिभावक उन की हर जरूरत पूरी करने के लिए पैसा देते हैं. इस के बाद भी वे मामूली बातों पर आत्महत्या करें तो दोटूक कहा जा सकता है कि उन्होंने आत्महत्या नहीं की बल्कि अपने मातापिता व भाईबहनों की हत्या की है. भारतीय परिवार व्यवस्था की मिसाल इसलिए भी दी जाती है कि इस में एक सदस्य बीमार पड़ता है तो बाकी सब उस की तीमारदारी में जुट जाते हैं. उस के स्वस्थ हो जाने तक वे बीमारों की तरह रहते हैं.

गत 17 नवंबर को भोपाल के कोलार इलाके में 19 वर्षीय विशाल यादव की आत्महत्या इस की अपवाद नहीं. विशाल एक प्राइवेट मैडिकल कालेज में एमबीबीएस प्रथम वर्ष का छात्र था. उस के पिता इंद्रजीत यादव हरियाणा के रेवाड़ी जिले में रहते हैं. हादसे के दिन विशाल ने एक इमारत की छठी मंजिल से कूद कर आत्महत्या कर ली थी. आत्महत्या के पहले उस ने अपने एक दोस्त को वाट्सएप पर मैसेज किया था कि मैं जा रहा हूं, मेरा फेसबुक स्टेटस अपडेट कर देना, तुम तो जानते हो कि किस को क्या कहना है. उस का दोस्त मैसेज की मंशा समझ पाता, इस के पहले ही विशाल कूद गया. यह लड़का कतई जिंदगी और अपने परिजनों के प्रति गंभीर नहीं था. उसे आत्महत्या करना एक रोमांचक खेल लग रहा था.

वाट्सएप पर उस ने लिखा था, ‘‘आई लव फ्री फाल, फोन साथ ले जा रहा हूं, सौंग सुनूंगा रास्ते में, आई एम बुलेटप्रूफ, नथिंग टू लूज…आफ्टर अ सैकंड, मेरी लाइफ के हर क्वेश्चन का आंसर मेरे पास होगा. आई एम वैरी हैप्पी फौर दैट, बाय, कल पेपर देने जाओ. आई हैव वैरी मच कौमन विद मेल कैरेक्टर औफ फौल्ट इन अवर स्टार्स. नाम याद भी नहीं आ रहा है अब उस का तो… ऐंड एक और मम्मी का कौल आया अभी. वे बारबार कह रही हैं मैडिसिन ले आया, बीमार है. मैं तो परमानैंट मैडिसिन लेने जा रहा हूं. टेक केयर ऐंड से बाय टू औल औफ माय फ्रैंड्स ऐंड ईवन से, माय बाय टू माय डैड ऐंड ब्रदर ऐंड टैल देम कि मैं ने कभी शो नहीं किया कि मैं उन्हें लव नहीं करता, बट आय लव देम…’’

हिंदी और टूटीफूटी अंगरेजी मिश्रित सुसाइट नोट में मूर्खता ज्यादा है जिस पर भावुकता का मुलम्मा चढ़ा कर खुद को सही ठहराने की कोशिश विशाल ने की है. मौत के बाद दोस्तों ने बताया कि उस का पर्चा बिगड़ गया था, इसलिए उस ने आत्महत्या की होगी. क्या बिगड़ा था, यह अहम नहीं है पर हकीकत में जो बिगड़ा विशाल जैसे युवा उसे देख ही नहीं पाते. जिंदगी इन के लिए खिलवाड़ है और घर वाले मजाक हैं. कथित रूप से एक पर्चा बिगड़ने पर खुदकुशी जैसा घातक फैसला कर लेना अपरिपक्वता, अवसाद, हताशा या तनाव की नहीं बल्कि खुदगर्जी की बात है. खुद से और हालात से भागने की बात है. नई पीढ़ी के युवा कभी नहीं देखते, न ही सोचते कि मातापिता उन्हें कैसे पाल कर बड़ा करते हैं. 1200 किलोमीटर दूर बैठी मां, बेटे की मामूली बीमारी में दवा की चिंता कर रही है पर बेटे को मां की भावनाओं, सपनों और उम्मीदों की परवा नहीं. यह वही मां है जो रातरात भर जाग कर उस की गीली नैप्पी साफ करती है. पिता खुद हजार रुपए वाले मामूली मोबाइल फोन से काम चला ले पर बेटे की खुशियां और स्टेटस के लिए उसे 10-15 हजार रुपए का स्मार्ट फोन दिलाता है. इस के बाद भी बेटा कहे कि ‘बाय, बट आय लव यू’ तो उस पर तरस ही खाया जा सकता है. वह किसी से प्यार करता नहीं लगता सिवा अपनी बेहूदगियों से.

इंद्रजीत यादव अपने बेटे विशाल का शव ले कर घर पहुंचे होंगे तो उन पर क्या गुजरी होगी, इस का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता. कह पाना मुश्किल है कि वे बेटे की लाश ले गए या खुद की. एक हंसताखेलता परिवार लंबे वक्त के लिए बल्कि हमेशा के लिए शोक में डूब गया. मातापिता कैसे बचपन में उंगली पकड़ कर पार्क घुमाने ले जाते हैं, बच्चों की जरूरतें, फरमाइशों और जिद पूरी करने के लिए खुद की जरूरतों में कटौती करते हैं. ऐसी बातों, जो दरअसल त्याग हैं, से विशाल जैसे युवा कोई सरोकार नहीं रखते. वे जिंदगी देने वाले मातापिता से उन की खुशी बड़ी बेरहमी से छीन लेते हैं जिस का कतई हक उन्हें नहीं है.

अधकचरी फिलौसफी में जीने वाले और उसी में अपनी बात कहने को ही उपलब्धि मानने वाले युवा मातापिता और परिजनों पर टूटे दुखों के पहाड़ का अंदाजा नहीं लगाते तो यह उन की पर्चा बिगड़ने या कोई दूसरे किस्म की परेशानी नहीं बल्कि खुदगर्जी है. विशाल के दोस्त गमगीन आंखों से अपने दोस्त के इस कायराना कदम को देखते अपने स्तर पर विश्लेषण करते रहे, शायद कुछ ने इंद्रजीत की हालत देख कोई सबक सीखा हो. बेटे की गलती में मातापिता उम्रभर अपनी गलती ढूंढ़ने की गलती करते रहेंगे. अब उन के पास खोने के लिए कुछ नहीं है. वे खामोश हैं और यही खामोशी उन की नियति बन गई है.

विशाल ने आत्महत्या नहीं की है बल्कि 3 हत्याओं का गुनाह किया है. एक आदमी अपनी कथित व्यक्तिगत परेशानियों के चलते खुदकुशी करता है पर खुद से जुड़े लोगों को एक स्थायी दर्ददुख दे जाता है जिस का कोई इलाज नहीं. मृत आदमी की याद, खासतौर से वह युवा हो, तो अकसर टीसती है, कसक देती है. आत्महत्या के अधिकांश मामलों में वजह कतई मरने लायक नहीं होती, लोग उस का सामना करने की कोशिश ही नहीं करते. इस नए दौर, जिस में संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, के नुकसान भी हैं और फायदे भी. बच्चों को सुखसुविधाएं ज्यादा मिल रही हैं. पिछली पीढ़ी की तरह उन्हें अभावों से नहीं जूझना पड़ रहा. ऐसे में उन की अहम जिम्मेदारी यह है कि वे घर वालों का खयाल रखें. जिंदादिली के साथ परिजनों, खासतौर से मातापिता, भाईबहनों की खुशी के लिए जिंदा रहें. आत्महत्या कभी किसी समस्या का समाधान नहीं रहा. समाधान है हालात से लड़ते रहना, उन्हें अपने मुताबिक ढालना बजाय इस के कि पलायन कर लिया जाए और पूरे परिवार को दुख के अंधे कुएं में लंबे वक्त के लिए ढकेल दिया जाए.

चक्कर में ममता

पश्चिम बंगाल की आग उगलने वाली नेता ममता बनर्जी को सारदा चिटफंड की लगाई आग से अब अपने पल्लू को बचाना पड़ रहा है. धीरेधीरे यह साफ हो रहा है कि सारदा चिटफंड से तृणमूल कांगे्रस के नेताओं को धन मिल रहा था और तभी सारदा चिटफंड गांवगांव पहुंच गया था. गरीबों को मोटे ब्याज का लालच दे कर उस ने हजारों करोड़ रुपए खा लिए थे, जो कहां गए, पता नहीं है. इसी पैसे से कई सांसदों ने चुनाव लड़ा था, यह बात अब जांच एजेंसियों के जरिए मालूम हुई है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को आरोपी मंत्रियों को बचाना मुश्किल हो रहा है.

यह पक्का है कि तृणमूल कांगे्रस को चुनाव लड़ने के लिए कहीं से तो पैसा मिला ही है. चूंकि वह उद्योग विरोधी है इसलिए यह पैसा उसे कोलकाता के उद्योगपतियों ने नहीं दिया था. कोलकाता के उद्योगपति व व्यापारी तो धर्मभीरु, अंधविश्वासी हैं. वे भारतीय जनता पार्टी को समर्थन दे कर पुण्य कमाना चाहते हैं. सारदा चिटफंड विशुद्ध बंगाली उपक्रम था जिस ने गरीब जनता का पैसा जमा कर के गरीबों की सरकार बनाने में सहायता की थी पर अब लेने के देने पड़ रहे हैं. गरीबों की पार्टियों को फंड की हमेशा दिक्कत रहती है. मायावती, समाजवादी दल, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान जैसों को पैसा जमा करना हमेशा भारी रहा है क्योंकि उन के कार्यकर्ता कर्मठ हों तो भी न तो गांठ से पैसा खर्च कर सकते हैं और न ही चाहते हैं. उन्हें हर ऐसा आसामी भाता है जो थोड़ाबहुत पैसा दे जाए.

तृणमूल कांगे्रस ने सारदा चिटफंड का सहारा लिया हो तो कोई बड़ी बात नहीं. अब अमीरों की पार्टियां कांगे्रस व भारतीय जनता पार्टी उस सहारे को छीन कर ममता बनर्जी को नष्ट कर के ही मानेंगी. यह पक्का दिख रहा है कि ममता बनर्जी अब आक्रामक न हो कर सुरक्षात्मक रवैया अपनाए हुए हैं और वे ज्यादा दिन टिक न पाएंगी. उन के 2 मंत्री जेल में हैं और सत्ता में होने के बावजूद ममता अपने मंत्रियों को जेल से निकाल नहीं पा रहीं. उन के पास सिवा रोनेचिल्लाने के, कुछ खास नहीं है. ममता बनर्जी जैसी जुझारू नेता को खयाल रखना चाहिए था कि वे पैसे वालों को बांट कर रखें. यदि बड़े पैसे वालों, टाटा जैसों का विरोध करना है तो उन्हें छोटे व्यापारियों का संरक्षक बनना चाहिए था, जो पार्टी को लगातार पैसा दे सकें. जो लोग सारदा चिटफंड के खजाने भर सकते थे वे ममता बनर्जी को कुछ न देंगे, यह नहीं माना जा सकता. चिटफंड, चीट फंड यानी धोखा फंड है, यह लोगों को अरसे से मालूम है और जो सरकार में हैं वे तो जानते ही हैं. ममता उन के चक्कर में फंसीं, यह बात यह बताने को काफी है कि आग उगलने वाले गलों को किस तरह ईंधन की भी जरूरत होती है.

सत्ता, नौकरशाही और जनता

धर्म परिवर्तन के मुद्दे को ले कर लोकसभा और राज्यसभा का शीतकालीन सत्र सामान्य नहीं चल सका. सरकार जिन कानूनों को पारित कराना चाहती थी उन्हें उसे अध्यादेश के जरिए लागू करना पड़ा है. बिना विपक्ष के योगदान व लेनदेन के कई कानून, जिन में इंश्योरैंस कंपनियों में विदेशियों की भागीदारी और किसानों को लूटने वाले जमीन अधिग्रहण कानून शामिल हैं, अब लागू हो गए हैं. यह लोकतंत्र और संसदीय प्रणाली की खूबी है कि लोकसभा में भारी बहुमत व राज्यसभा में जोड़तोड़ कर काम चला सकने वाली पार्टी भी कम से कम संसदीय तरीकों से तानाशाही नहीं चला सकी. सांसदों ने भारतीय जनता पार्टी के कट्टर समर्थकों द्वारा देश के अलग हिस्सों में हिंदू धर्मांतरण की नौटंकी खेल कर जो तेवर दिखाने की कोशिश की वह एक तरह से संसद के थोड़े से सांसदों के कारण फिलहाल फेल हो गई.

संसद में काम न हो पाने को अब निकम्मापन नहीं कहा जाना चाहिए, उसे तो जनता के अधिकारों की रक्षा करना कहना चाहिए. कई दशकों से हर नया कानून, जो संसद पारित करती है, असल में सरकार के हाथों में और शक्ति देता है जबकि जनता से छीनता है. कानूनों के जरिए सरकार यदाकदा ही अपने पर कोई नियंत्रण लगाती है. कानून का राज अब जनता का राज नहीं, सरकारी नौकरशाही का राज बन गया है. अंगरेजों ने जो कानून बनाए थे उन में से अधिकांश जनता के हित में थे क्योंकि उस समय अंगरेजों के पास असीमित अधिकार थे. उन्होंने कानूनों के जरिए सरकारी नौकरशाही व अफसरशाही के पर कतरे थे. 1947 के बाद व संविधान बनने के बाद नैतिक तौर पर सारे अधिकार जनता के हाथों में आ गए पर अब हर नया कानून जनता के हक छीनता नजर आता है.

संसद का काम तो यह है कि वह सरकार के मंसूबों को काबू में रखे. वे ही कानून पारित होने दे जो आवश्यक हैं. सरकार का क्या, वह तो प्रैस रजिस्ट्रेशन कानून भी पारित कराना चाहती है जिस से प्रैस का अधिकार सरकार द्वारा दिया गया लाइसैंस बन जाए और अखबार तब टैलीविजन की तरह हल्ला तो मचा सकें पर असल आलोचना न कर पाएं. संसद में कम काम होना जनता के लिए लाभदायक है. विपक्षी दलों को धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होंने सरकारी मनमानी को नियंत्रित किया और भारतीय जनता पार्टी को इंदिरा गांधी वाला अध्यादेशों का रास्ता अपनाने को मजबूर किया.

विपक्षी दलों ने साबित कर दिया कि विकास, भ्रष्टाचारमुक्त नारे पहले के समाजवाद और गरीबी हटाओ जैसे हैं और उन का मकसद सत्ता पाना था जो पूरा हो गया. असल मकसद मंदिरों के मार्फत पैसा कमाना है जिस में भाजपाई जम कर लग गए हैं उसी तरह, जिस तरह इंदिरा गांधी ने निजी क्षेत्र के कारखाने व्यवसायियों से छीन कर अपने चहेतों को सौंप दिए थे. भारतीय जनता पार्टी कुछ व्यवसायियों व विदेशी कंपनियों को किसानों की जमीन दिलवा रही है. संसद जितने दिन इसे रोक सके, अच्छा ही है.

लोकतंत्र और कट्टरपंथ

लोकतंत्र या कहिए वोटतंत्र, इस की खासीयत यह है कि यह नापसंद लोगों को भी पसंद करने को मजबूर करता है. जैसे नरेंद्र मोदी को जम्मूकश्मीर में सत्ता पाने के लिए भारतीय जनता पार्टी की हिंदू कट्टरवादिता मुसलिम वोटों को हासिल करने के चलते छोड़नी पड़ी वैसे ही श्रीलंका में राष्ट्रपति चुनावों में पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को तमिलों को पुचकारना पड़ा. अफसोस, श्रीलंका के तमिल व मुसलिम अल्पसंख्यकों ने महिंदा राजपक्षे की तानाशाही को गले नहीं लगाया और नएनवेले मैत्रीपाल सिरीसेना को भारी वोट दिए.

नतीजा यह हुआ कि जहां महिंदा राजपक्षे को 57.68 लाख वोट मिले, तमिलों और मुसलिमों के इलाकों से अतिरिक्त वोट पा कर मैत्रीपाल सिरीसेना ने 62.17 लाख वोट हासिल कर लिए और महिंदा राजपक्षे का तानाशाही युग फिलहाल समाप्त कर दिया. मैत्रीपाल सिरीसेना राजपक्षे की सरकार में ही स्वास्थ्य मंत्री थे. श्रीलंका में बदलाव की बयार भारत के लिए अच्छी है क्योंकि राजपक्षे चीन को सहूलियतें दे कर भारत को जानबूझ कर सुइयां चुभो रहे थे. भारत सरकार राजपक्षे से खफा थी पर आजकल बड़ा होते हुए भी कोई देश अपने से छोटे से देश का भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता.

श्रीलंका में महिंदा राजपक्षे ने काफी काम किए थे. उन्होंने तमिल टाइगर्स का सफाया कर के श्रीलंका को आतंकवाद और गृहयुद्ध से मुक्ति दिलाई थी. श्रीलंका भारत से कहीं ज्यादा साफसुथरा, उन्नत देश नजर आता है. वह अपनी शानदार सड़कों, खुले माहौल, बढि़या हरियाली के कारण पर्यटन का आकर्षण बनता जा रहा है. भारत में जो लोग एक जाति, एक धर्म, एक वर्ग के राज के सपने देख रहे हैं उन्हें सबक लेना चाहिए कि लोकतंत्र हो या तानाशाही, शासकों को सब को साथ ले कर चलना पड़ेगा. कोई भी सरकार अब अपने छोटे वर्ग पर कोई अत्याचार कर ही नहीं सकती. अगर बात वोटों की न हो तो भी सरकार के लिए एक हद से ज्यादा आतंक ढाना पाकिस्तान, अफगानिस्तान, उत्तरी कोरिया और क्यूबा की तरह खतरनाक साबित हो सकता है. सरकार या तानाशाह तो मजे में रहता है पर जनता को भारी कीमत चुकानी पड़ती है. क्या भारत के कट्टरपंथी इस से सबक सीखेंगे? यह देश तभी आगे बढ़ेगा, समाज तभी बंधनों से मुक्त होगा जब हरेक के लिए बराबर के अवसर होंगे और धर्म, पार्टी, पंथ, आश्रम के नाम पर, दूसरों की तो छोडि़ए अपनों पर भी, कोई बात जोरजबरदस्ती न थोपी जाए.

 

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