धर्म परिवर्तन के मुद्दे को ले कर लोकसभा और राज्यसभा का शीतकालीन सत्र सामान्य नहीं चल सका. सरकार जिन कानूनों को पारित कराना चाहती थी उन्हें उसे अध्यादेश के जरिए लागू करना पड़ा है. बिना विपक्ष के योगदान व लेनदेन के कई कानून, जिन में इंश्योरैंस कंपनियों में विदेशियों की भागीदारी और किसानों को लूटने वाले जमीन अधिग्रहण कानून शामिल हैं, अब लागू हो गए हैं. यह लोकतंत्र और संसदीय प्रणाली की खूबी है कि लोकसभा में भारी बहुमत व राज्यसभा में जोड़तोड़ कर काम चला सकने वाली पार्टी भी कम से कम संसदीय तरीकों से तानाशाही नहीं चला सकी. सांसदों ने भारतीय जनता पार्टी के कट्टर समर्थकों द्वारा देश के अलग हिस्सों में हिंदू धर्मांतरण की नौटंकी खेल कर जो तेवर दिखाने की कोशिश की वह एक तरह से संसद के थोड़े से सांसदों के कारण फिलहाल फेल हो गई.
संसद में काम न हो पाने को अब निकम्मापन नहीं कहा जाना चाहिए, उसे तो जनता के अधिकारों की रक्षा करना कहना चाहिए. कई दशकों से हर नया कानून, जो संसद पारित करती है, असल में सरकार के हाथों में और शक्ति देता है जबकि जनता से छीनता है. कानूनों के जरिए सरकार यदाकदा ही अपने पर कोई नियंत्रण लगाती है. कानून का राज अब जनता का राज नहीं, सरकारी नौकरशाही का राज बन गया है. अंगरेजों ने जो कानून बनाए थे उन में से अधिकांश जनता के हित में थे क्योंकि उस समय अंगरेजों के पास असीमित अधिकार थे. उन्होंने कानूनों के जरिए सरकारी नौकरशाही व अफसरशाही के पर कतरे थे. 1947 के बाद व संविधान बनने के बाद नैतिक तौर पर सारे अधिकार जनता के हाथों में आ गए पर अब हर नया कानून जनता के हक छीनता नजर आता है.
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