लोकतंत्र या कहिए वोटतंत्र, इस की खासीयत यह है कि यह नापसंद लोगों को भी पसंद करने को मजबूर करता है. जैसे नरेंद्र मोदी को जम्मूकश्मीर में सत्ता पाने के लिए भारतीय जनता पार्टी की हिंदू कट्टरवादिता मुसलिम वोटों को हासिल करने के चलते छोड़नी पड़ी वैसे ही श्रीलंका में राष्ट्रपति चुनावों में पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को तमिलों को पुचकारना पड़ा. अफसोस, श्रीलंका के तमिल व मुसलिम अल्पसंख्यकों ने महिंदा राजपक्षे की तानाशाही को गले नहीं लगाया और नएनवेले मैत्रीपाल सिरीसेना को भारी वोट दिए.
नतीजा यह हुआ कि जहां महिंदा राजपक्षे को 57.68 लाख वोट मिले, तमिलों और मुसलिमों के इलाकों से अतिरिक्त वोट पा कर मैत्रीपाल सिरीसेना ने 62.17 लाख वोट हासिल कर लिए और महिंदा राजपक्षे का तानाशाही युग फिलहाल समाप्त कर दिया. मैत्रीपाल सिरीसेना राजपक्षे की सरकार में ही स्वास्थ्य मंत्री थे. श्रीलंका में बदलाव की बयार भारत के लिए अच्छी है क्योंकि राजपक्षे चीन को सहूलियतें दे कर भारत को जानबूझ कर सुइयां चुभो रहे थे. भारत सरकार राजपक्षे से खफा थी पर आजकल बड़ा होते हुए भी कोई देश अपने से छोटे से देश का भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता.
श्रीलंका में महिंदा राजपक्षे ने काफी काम किए थे. उन्होंने तमिल टाइगर्स का सफाया कर के श्रीलंका को आतंकवाद और गृहयुद्ध से मुक्ति दिलाई थी. श्रीलंका भारत से कहीं ज्यादा साफसुथरा, उन्नत देश नजर आता है. वह अपनी शानदार सड़कों, खुले माहौल, बढि़या हरियाली के कारण पर्यटन का आकर्षण बनता जा रहा है. भारत में जो लोग एक जाति, एक धर्म, एक वर्ग के राज के सपने देख रहे हैं उन्हें सबक लेना चाहिए कि लोकतंत्र हो या तानाशाही, शासकों को सब को साथ ले कर चलना पड़ेगा. कोई भी सरकार अब अपने छोटे वर्ग पर कोई अत्याचार कर ही नहीं सकती. अगर बात वोटों की न हो तो भी सरकार के लिए एक हद से ज्यादा आतंक ढाना पाकिस्तान, अफगानिस्तान, उत्तरी कोरिया और क्यूबा की तरह खतरनाक साबित हो सकता है. सरकार या तानाशाह तो मजे में रहता है पर जनता को भारी कीमत चुकानी पड़ती है. क्या भारत के कट्टरपंथी इस से सबक सीखेंगे? यह देश तभी आगे बढ़ेगा, समाज तभी बंधनों से मुक्त होगा जब हरेक के लिए बराबर के अवसर होंगे और धर्म, पार्टी, पंथ, आश्रम के नाम पर, दूसरों की तो छोडि़ए अपनों पर भी, कोई बात जोरजबरदस्ती न थोपी जाए.
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