मेरी 8 वर्षीय बेटी चेरी एक दिन बोली, ‘‘मम्मी, आज मुझे टिफिन में पोहा बना कर देना.’’ मैं ने उसे टिफिन में पोहा बना कर दे दिया. स्कूल से जब वह वापस आई तो बहुत खुश थी, चहक कर बोली, ‘‘मम्मी, मेरी सब सहेलियों को पोहा बहुत टेस्टी लगा. सब ने मुझ से कहा, ‘वाह, तेरी मम्मी कितना अच्छा पोहा बनाती हैं.’’’

‘‘अच्छा,’’ मैं ने प्यार से उस से कहा.

‘‘हां मम्मी, तो मैं ने उस से कहा कि मेरी मम्मी बहुत अच्छी कुकर हैं. खाना बहुत अच्छा बनाती हैं.’’

उस की बात सुन कर मुझे जोर से हंसी आ गई और मैं ने उसे समझाया कि अच्छा खाना बनाने वाले को ‘कुकर’ नहीं ‘कुक’ कहते हैं.

विनीता राहुरीकर, भोपाल (म. प्र.)

*

बात मेरी चचेरी बहन के विवाह की है. बरातियों के स्वागत के लिए गरमागरम चाय, कौफी, सूप की व्यवस्था की गई थी. 12 बजे रात को शादी का विधिविधान आरंभ हुआ. सभी बुजुर्ग व महिलाएं स्टाल पर जा कर गरमागरम कौफी की चुसकियां ले रहे थे. तभी मेरी 5 वर्षीया भतीजी ईशा आई. उस ने मुझ से बड़े प्यार से कहा, ‘‘बूआ, मुझे भी कौफी चाहिए.’’

मैं ने सहमति देते हुए कहा, ‘‘ठीक है, जाओ ले लो.’’

इस पर ईशा ने बड़ी मासूमियत से कहा, ‘‘मेरे पास पैसे नहीं हैं, पैसे दो न.’’ उस की बात सुन कर मैं ही नहीं, आसपास खड़े लोग भी मुसकरा उठे. दरअसल, विवाह में लगे स्टौल को भी वह दुकान समझ बैठी थी.

मृणालिनी, कोलकाता (प.बं.)

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मेरी 2 पोतियां हैं--मनु और इनु. वे 3 व 4 साल की हैं. मुझे सब्जी वगैरह लाने के लिए रोज बाजार जाना पड़ता है. मैं जब भी बाहर जाने लगती हूं तो बच्चे साथ में जाने के लिए मचलने लगते हैं. एक दिन गरमी में जब मैं बाहर जाने के लिए निकलने लगी तो वे पीछे लग गए और बोलने लगे, ‘‘आप कहां जा रहे हो, हम भी जाएंगे.’’ मैं ने उन्हें साथ न ले जाने के बहाने से उन से कहा, ‘‘मैं धक्के खाने जा रही हूं.’’ तो बच्चे एकसाथ बोल पड़े, ‘‘हम भी धक्के खाएंगे.’’ बच्चों के मुख से निकले इस वाक्य को याद कर हम सब आज भी हंसे बिना नहीं रह पाते.

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