Download App

प्रौपर्टी में निवेश

घर खरीदना हर व्यक्ति का सपना होता है. अपने इस सपने को पूरा करने के लिए अपनी सभी जिम्मेदारियों के साथ इस के लिए व्यक्ति आजीवन कोशिश करता है. सुरेश का उदाहरण ही लेते हैं जो दिल्ली के आसपास घर खरीदने के लिए पिछले 10 साल से बचत कर रहे हैं. नौकरी में अच्छी तरह से स्थापित हो चुके सुरेश के परिवार के लोग अब उस से घर की मांग कर रहे हैं. अपनी जिंदगी में सुरेश ने सब से अच्छा काम यह किया कि उस ने अपनी देनदारियों को नहीं बढ़ाया जिस से वह अपने वित्त का बखूबी प्रबंधन करने की स्थिति में है. खासतौर पर तब जबकि उसे घर लेने के लिए होम लोन लेने की जरूरत भी पड़ सकती है. हालांकि जब वह रियल एस्टेट एजेंट के पास पहुंचा तो कई आकर्षक विकल्प मिले जिन में पेमैंट के भी कई विकल्प थे. ऐसे में वह फैसला नहीं ले पा रहा था कि क्या करे क्योंकि इस से पहले उस के कई मित्र धोखा खा चुके थे.

खरीदार की सुविधा के लिए बिल्डर पेमैंट के कई विकल्प उपलब्ध कराते हैं. पहली नजर में तो सारे विकल्प ठीक ही लगते हैं लेकिन उन का विश्लेषण कर के यह जानना जरूरी हो जाता है कि उन में से कौन सा विकल्प आप के लिए सुविधाजनक और उपयुक्त रहेगा. नीचे कुछ ऐसे पेमैंट के विकल्प दिए गए हैं जिन में से कोई एक आप अपनी जरूरत के मुताबिक चुन सकते हैं.

डाउन पेमैंट प्लान

इस विकल्प का फायदा उठाने के लिए व्यक्ति को घर की कीमत की रकम तैयार रखनी चाहिए. आमतौर पर खरीदार घर की कीमत का 10 फीसदी हिस्सा बुकिंग के समय ही दे देते हैं. अगले 30 दिन के अंदर 80 से 85 फीसदी की रकम भी चुका दी जाती है. बाकी की 5 से 10 फीसदी रकम का भुगतान तब किया जाता है जब घर का पजेशन यानी कब्जा मिलता है. जो खरीदार इस विकल्प के तहत होम लोन लेना चाहते हैं उन की ईएमआई (मासिक किस्त) घर के आवंटन के बाद शुरू हो जाती है. पेमैंट का यह तरीका पूरी तरह से बिल्डर के हक में ही जाता है. ऐसे में वह खरीदार को 10 से 12 फीसदी तक की छूट देता है. कहने का मतलब है कि इस के जरिए खरीदार अच्छे तरीके से मोलभाव कर पाते हैं. इस प्लान का सब से बड़ा नुकसान यह है कि अगर प्रोजैक्ट पूरा होने में देरी होती है तो खरीदार का पैसा फंस जाता है और वह पूरी तरह से बिल्डर की दया पर आश्रित रहता है. ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिन की वजह से पेमैंट के इस विकल्प का महत्त्व कम होता जा रहा है.

कंस्ट्रक्शन लिंक्ड प्लान

छोटे खरीदारों के लिए यह काफी फायदेमंद प्लान है क्योंकि यह सीधे तौर पर प्रोजैक्ट के निर्माण से जुड़ा हुआ है. इस में घर के मूल्य की 10 फीसदी कीमत डाउन पेमैंट के तौर पर बुकिंग के वक्त चुका दी जाती है. इस के बाद 10 फीसदी अगले 30 दिनों के दौरान चुकानी होती है. बाकी का पैसा निर्माण के साथ ही जुड़ा होता है. निर्माण जिस स्तर से पूरा होता रहता है, उसी तरह 8 से 10 फीसदी रकम बिल्डर को चुकाई जाती है. इस तरीके से आप की पेमेंट 2 और 3 साल की अवधि तक फैल जाती है. जो खरीदार इस प्लान के तहत होम लोन लेते हैं उन्हें फायदा मिलता है क्योंकि बिल्डर को घर के निर्माण के साथ भुगतान किया जाता है. घर की वास्तविक ईएमआई घर का पजेशन मिलने के बाद ही शुरू होती है.

यह प्लान छोटे खरीदारों के लिए काफी अच्छा है क्योंकि इस में जोखिम कम है और आप का पैसा फंसता नहीं है. कंस्ट्रक्शन लिंक्ड प्लान थोड़ा महंगा होता है. बाकी के प्लान की तुलना में इस में खरीदार को केवल 5 से 6 फीसदी छूट ही दी जाती है. इतना ही नहीं, हाउसिंग फाइनैंस कंपनियां इस के लिए प्री-ईएमआई बैनिफिट चार्ज करती हैं जोकि पजेशन मिलने के बाद 5 किस्तों में क्लेम की जा सकती हैं. यह फायदा 1.5 लाख रुपए के ब्याज पर ही होता है जिसे वास्तविक ईएमआई में क्लेम किया जा सकता है. इस प्लान के जरिए कई बार आप को काफी नुकसान हो सकता है, खासतौर पर तब जबकि आप पजेशन मिलने से पहले किराए पर रह रहे हों.

टाइम लिंक्ड पेमैंट प्लान

यह प्लान बिल्डर के हक में ज्यादा काम करता है. इस में अनुबंध के तहत घर के कुल मूल्य की बिल्डर द्वारा तय की गई एक निश्चित राशि उस के द्वारा दी गई समयसीमा के अंदर चुकानी होती है. बाकी की रकम का भुगतान भी बिल्डर द्वारा दिए गए समय पर करना पड़ता है फिर चाहे प्रोजैक्ट पूरा करने में देरी क्यों न हो रही हो. यह सब से खराब स्थिति है जबकि आप बिल्डर के साथ अनुबंध में बंध जाते हैं.

फ्लैक्सी पेमैंट प्लान

घर खरीदने वालों के लिए यह उपयुक्त प्लान है. भुगतान के अन्य विकल्पों की तरह इस प्लान में भी 10 फीसदी रकम बुकिंग कराते वक्त चुकानी पड़ती है. बाकी 30 से 40 फीसदी राशि बुकिंग के 30 दिनों के अंदर चुकाई जाती है. बकाया रकम निर्माण से जुड़ी होती है और जैसेजैसे यह पूरा होता है, वैसेवैसे भुगतान किया जाता है. इस की शुरुआती पेमैंट कंस्ट्रक्शन लिंक्ड प्लान से थोड़ी ज्यादा होती है. यही कारण है कि आप को घर की कुल कीमत पर 5 से 6 फीसदी तक का डिस्काउंट मिल जाता है. अगर डाउन पेमैंट प्लान से तुलना करें तो शुरुआती रकम बहुत ज्यादा भी नहीं है और अन्य फायदों को देखते हुए यह प्लान छोटे खरीदारों के लिए किफायती है. इस के तहत पार्ट पेमैंट में कोई प्री-ईएमआई नहीं है. इस से आप के पैसे भी बच जाते हैं.

कौन सा प्लान है बेहतर

पहली बार देखने में सभी प्लान आकर्षक लगते हैं लेकिन जब आप घर की खरीदारी करें तो इन के बारे में ठोस जानकारी जरूर ले लें. प्रमुख बात यह है कि रियल एस्टेट मार्केट एक अनियंत्रित व असंगठित बाजार है. अगर प्रोजैक्ट पूरा होने में देरी होती है तो आप के पास शिकायत करने का विकल्प नहीं बचेगा. दूसरी बात यह है कि पिछले कुछ सालों में आकर्षक छूट के बावजूद टाइम पेमैंट स्कीम की चमक घटी है. कर्जदाता भी ऐसे प्रोजैक्ट के लिए फंड उपलब्ध कराने से थोड़ा बचते हैं. इस के विपरीत कंस्ट्रक्शन लिंक्ड प्लान आप के लिए अच्छा साबित हो सकता है पर इस में आप को ज्यादा भुगतान करना होगा क्योंकि छूट नहीं मिलती है. कुल मिला कर फ्लैक्सी प्लान आप की हर जरूरत को पूरा कर सकता है क्योंकि इस में छूट तो मिलती ही है, साथ ही आप कंस्ट्रक्शन लिंक्ड प्लान का फायदा भी उठा सकते हैं जिस से कुछ जिम्मेदारियां बिल्डर के कंधों पर भी आ जाती हैं.       

सारदा चिटफंड घोटाला

राज्य की बोगांव संसदीय सीट व कृष्णगंज विधानसभा की सीट के लिए हुए ताजा उपचुनावों के परिणामों ने यही साबित किया है कि ममता बनर्जी का जादू खत्म नहीं हुआ है. दोनों सीटों पर तृणमूल कांग्रेस विजयी रही है. लेकिन वहीं, कई मामलों में पार्टी और पार्टी आलाकमान के घिरे होने के चलते सरकार की छवि दागदार जरूर हो गई है. सारदा चिटफंड घोटाले ने तृणमूल कांग्रेस की नाक में दम कर रखा है. एक के बाद एक कई सांसद, विधायक और नेता गिरफ्तार किए जा चुके हैं. दूसरे कइयों के सिर पर तलवार लटक रही है. लेकिन अब लगता है देरसबेर एक और तृणमूल सांसद अहमद हसन इमरान पर शिकंजा कस सकता है. हसन इमरान का नाम पहले ही सारदा घोटाले में है. बंगलादेश में अस्थिरता फैलाने में सारदा के पैसों का इस्तेमाल करने का आरोप भी उन पर है. और अब बर्दवान विस्फोट कांड की जांच में सिमी समेत बंगलादेश और लंदन के इसलामी संगठन से भी इस राज्यसभा सांसद के तार जुड़े होने का खुलासा हुआ है.

माना जा रहा है कि देश में इसलामिक संगठन सिमी या इंडियन मुजाहिदीन की आतंकी गतिविधियों में भी सांसद का हाथ होगा. सारदा घोटाले के मामले में तृणमूल सांसद अहमद हसन इमरान ने पूछताछ के दौरान खुद भी स्वीकार किया था कि कुछ साल पहले वे प्रतिबंधित संगठन सिमी के पश्चिम बंगाल संस्थापक के रूप में कार्यरत थे. लेकिन संगठन को प्रतिबंधित करार दिए जाने के बाद उस से उन का संपर्क नहीं है. लेकिन राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआईए ने हाथ आए तथ्यों के आधार पर दावा किया है कि इमरान हसन का संगठन से अब भी संबंध है. ऐसा एक खुलासा बहुत पहले हो चुका है कि कोलकाता समेत पश्चिम बंगाल में बड़ी तादाद में सिमी के ‘स्लीपिंग सेल’ मौजूद हैं.

गौरतलब है कि सिमी यानी स्टुडैंट इसलामिक मूवमैंट औफ इंडिया का गठन अप्रैल 1977 में उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में मोहम्मद सिद्दीकी ने किया था. सिमी की स्थापना मूलरूप से जमातेइसलामी के लिए छात्रों को 1956 में स्थापित इसलामी छात्र संगठन को पुनर्जीवित करने के लिए की गई थी. आगे चल कर सिमी पश्चिमी भौतिकवादी सांस्कृतिक प्रभाव को खत्म कर इसलामिक समाज की स्थापना का उद्देश्य ले कर पूरे भारत में आतंकी गतिविधियों में सक्रिय रहा है. आतंकवादी गतिविधियों में सिमी के संबंध के ठोस सुबूत पाए जाने के बाद 2001 में केंद्र सरकार ने इसे प्रतिबंधित संगठन करार कर दिया था. हालांकि इस के बाद अगस्त 2008 में एक विशेष अदालत ने सिमी पर से प्रतिबंध हटा लिया था. लेकिन 6 अगस्त, 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर प्रतिबंध को फिर से बहाल कर दिया था.

उधर, बर्दवान के खगड़ागढ़ विस्फोट की जांच कर रही राष्ट्रीय जांच एजेंसी के एक अधिकारी ने बताया कि जांच का विषय भारतीय आतंकी संगठनों के तार बंगलादेशी जमातेइसलाम के साथ जुड़े होने को ले कर भी है. इस में न केवल एनआईए काम कर रही है, बल्कि दूसरे कई राज्यों की खुफिया एजेंसियां और बंगलादेश की खुफिया पुलिस भी जांच कर रही हैं. कुल मिला कर भारत व बंगलादेश की कई जांच एजेंसियां इस में एकदूसरे का सहयोग कर रही हैं. कुछ महीने पहले बंगलादेश की खुफिया जांच एजेंसी की अधिकारी कोलकाता आई थी.

हसन इमरान की कारगुजारियां

इन तमाम एजेंसियों ने अलगअलग कई रिपोर्ट्स तैयार की हैं. इन्हीं रिपोर्ट्स के आधार पर एनआईए ने दावा किया है कि तृणमूल सांसद हसन इमरान सिमी के शीर्ष नेता के रूप में अब भी सक्रिय हैं और पूर्वी राज्यों के अलावा पूर्वोत्तर के राज्यों में हसन इमरान के नेतृत्व में कई बेनामी संगठन के नाम से सिमी अपनी गतिविधियां चला रहा है. एनआईए का दावा है कि हसन इमरान द्वारा प्रकाशित ‘कलम’ नामक उर्दू पत्रिका के मध्य कोलकाता के इलिएट रोड स्थित दफ्तर में ही सिमी की गुप्त बैठक होती रही है. एजेंसी के हाथ ऐसे सुबूत भी लगे हैं जिन से पता चलता है कि सिमी को प्रतिबंधित करार दिए जाने के बावजूद 18 जून, 2006 को ‘कलम’ पत्रिका के दफ्तर में हसन इमरान की उपस्थिति में सिमी के नेताओं की बैठक हुई थी.

उल्लेखनीय है कि कलम पत्रिका की शुरुआत सिमी के मुखपत्र के रूप में ही हुई थी. बहरहाल, इस बैठक में चर्चा का विषय यही था कि प्रतिबंध को धता बता कर किस तरह संगठन का कामकाज जारी रखा जाए. बैठक में कोलकाता से हसन इमरान समेत आसनसोल से जुबैद अहमद और गुलाम मोहम्मद, मुर्शिदाबाद से तइदुल इसलाम और अब्दुल अजीज, लालगोला से सैयद सहाबुद्दीन के अलावा दिल्ली से मंसूर अहमद और कासिम रसूल इलियास, अलीगढ़ से अमानुल्ला खान इमरान जैसे सिमी नेता शामिल थे. जांच एजेंसी का दावा है कि इसी बैठक में 4 बेनामी संगठन शुरू करने का फैसला किया गया था और इसी तय की गई रणनीति के तहत ही जांच एजेंसी से तृणमूल सांसद हसन इमरान ने सिमी से संबंध खत्म किए जाने की बात कही है.

जांच एजेंसी का यह भी दावा है कि 9/11 की घटना के बाद 17 सितंबर, 2001 को जब तत्कालीन केंद्र सरकार ने सिमी को आतंकी संगठनों की सूची में शामिल कर प्रतिबंधित कर दिया, तब उस दौरान सिमी के तमाम नेताओं को कोलकाता और पश्चिम बंगाल में भूमिगत होने में मदद हसन इमरान ने की थी. 2006 से ले कर 2007 तक बंगलादेश के जमातेइसलाम और भारत के सिमी नेताओं के बीच कोलकाता में 4 बैठकें हुईं. एजेंसी के पास इन बैठकों की तारीख और बैठकस्थल को ले कर विस्तृत तथ्य हैं. खुफिया जांच से इस बात का भी खुलासा हुआ है कि 2006 से 2007 तक सिमी प्रतिनिधि के रूप में हसन इमरान का कई बार बंगलादेश जाना हुआ था.

इस दौरान हसन इमरान ने बंगलादेश में जमातेइसलाम के नेता मीर कासिम से मुलाकात की और कलम पत्रिका को दैनिक बनाने के नाम पर वसूली की. इस बाबत लाखों रुपए हवाला के माध्यम से कोलकाता आए. गौरतलब है कि यह मीर कासिम वही है जिसे 1971 के बंगलादेश नरसंहार मामले में युद्ध अपराध मामले की सुनवाई करने वाली विशेष अदालत ने फांसी की सजा सुनाई है. ‘कलम’ के नाम पर तृणमूल सांसद हसन इमरान ने न केवल बंगलादेश के आतंकी संगठन से रकम उगाही, बल्कि लंदन के इसलामिक फाउंडेशन से भी हसन इमरान को लगभग 10 लाख रुपए प्राप्त हुए.

पिछले दिनों भाजपा के सिद्धार्थ नाथ सिंह ने भी जांच एजेंसी के हवाले से यह बयान दिया है कि विगत 2 सालों में जमातुल मुजाहिदीन बंगलादेश यानी जेएमबी के साथ भी तृणमूल का संबंध रहा है. बताया जाता है कि जेएमबी के नेता शौकत अली के साथ हसन इमरान का 18 बार में टुकड़ेटुकड़े में लगभग 75 करोड़ रुपए का लेनदेन हुआ है. उधर, बर्दवान खगड़ागढ़ विस्फोट जांच में हसन इमरान के तार सिमी के अलावा बंगाल और असम में भारत में सक्रिय जमातेइसलाम और जमातुल मुजाहिदीन बंगलादेश से भी जुड़े होने का पता चला है. जांच एजेंसी का कहना है कि सिमी को प्रतिबंधित करार दिए जाने के बाद हसन इमरान के अन्य 4 बेनामी संगठन समेत इंडियन मुजाहिदीन के जरिए आतंकी गतिविधियों में सक्रिय होने का शक लंबे समय से केंद्रीय खुफिया एजेंसी और असम की खुफिया पुलिस को था. इसीलिए हसन इमरान का नाम संदेहास्पद लोगों की सूची में रहा है. यह भी कहा जाता है कि कई खुफिया एजेंसियां लगभग 20 सालों से हसन इमरान पर नजर रखे हुए थीं.

हसन इमरान के खिलाफ बंगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना भारत की मोदी सरकार को अपनी खुफिया एजेंसी की रिपोर्ट का हवाला देते हुए पहले ही पत्र लिख चुकी हैं. रिपोर्ट में बंगलादेश सरकार को अस्थिर करने के लिए सारदा के पैसे का इस्तेमाल 2013 में शाहबाग आंदोलन में करने की बात कही गई है. यही नहीं, राज्यसभा के लिए हसन इमरान को तृणमूल कांगे्रस का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद शेख हसीना ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को पत्र लिख कर अपनी नाराजगी भी जाहिर की थी. इस के बाद केंद्रीय गृह सचिव अनिल गोस्वामी ने कोलकाता आ कर हसन इमरान की कारगुजारियों की एक खुफिया फाइल ममता बनर्जी को सौंपते हुए उम्मीदवार बदलने का अनुरोध किया था पर ममता नहीं मानीं.

सकते में बंगाल की जनता

बहरहाल, नएनए खुलासे हो रहे हैं, जिन के मद्देनजर तृणमूल पार्टी और ममता बनर्जी सवालों के घेरे में हैं. माओवादियों को साथ ले कर भूमि अधिग्रहण आंदोलन खड़ा करने का मामला हो या जनता के खूनपसीने की कमाई से फलेफूले सारदा चिटफंड के घोटाले की रकम और बंगलादेशी आतंकी संगठनों से प्राप्त करोड़ों की रकम के बल पर चुनाव लड़ने का मामला हो या फिर गरीब जनता के पैसों के बल पर तृणमूल नेताओं के फर्श से अर्श तक पहुंचने का मामला हो, इन जैसे एक के बाद एक खुलासे होने से बंगाल की जनता सकते में है. सवाल उठ रहे हैं कि हसन इमरान की तमाम कारगुजारियों के बारे में पता होते हुए भी ममता बनर्जी क्यों चुप रहीं? क्या वे वोटबैंक की राजनीति के लिए अंतर्राष्ट्रीय आतंकी संगठनों से संपर्क रखने वाले हसन इमरान का इस्तेमाल कर रही हैं? ममता के लिए क्या राज्य की सत्ता पर काबिज रहना ही एकमात्र बड़ा मुद्दा है, भले ही सत्ता पर बने रहने का रास्ता नाजायज ही क्यों न हो? इन सवालों के जवाब जानना चाहती है बंगाल की जनता.

दिल्ली चुनाव : कट्टरता के खिलाफ जनता का फैसला

आम आदमी पार्टी यानी आप ने दिल्ली विधानसभा के चुनाव में अद्भुत जीत हासिल की है. चुनावी इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब 2 राष्ट्रीय दल मात्र 2 साल पुरानी एक नौसिखिया पार्टी से बुरी तरह परास्त हो गए. ‘आप’ की सुनामी में कांगे्रस का तो नामोनिशान ही मिट गया. राजनीति करना केवल राजनीतिक दलों का काम है. नेता उस शेर की तरह होता है जो अपनी मांद में किसी दूसरे का घुसना स्वीकार नहीं कर सकता. यह सोच पुरानी पड़ती जा रही है. दिल्ली विधानसभा चुनाव में जनता ने जिस तरह से आम आदमी पार्टी को उस की व सब की उम्मीदों से अधिक सीटें दे कर सरकार बनाने का मौका दिया है उस से राजनीति में एक नए कल्चर की शुरुआत हुई है.

दिल्ली देश का दिल है. यहां देश के हर राज्य के लोग रहते हैं. दिल्ली का वोटर राजनीतिक दलों को दूसरों से ज्यादा समझता है. वह दिल्ली और दिल्ली के बाहर इन के कामकाज को देखता है. उसे पता होता है कि उस के गृहप्रदेश, जहां का वह रहने वाला है और दिल्ली में जहां वह रहता है, के बीच क्या राजनीतिक दूरियां हैं. दिल्ली के वोटर ने ‘आप’ के अरविंद केजरीवाल पर इसलिए भरोसा किया क्योंकि वे उन को अपने बीच के इंसान लगते हैं

दिल्ली में प्रचंड जीत के बाद अरविंद केजरीवाल ने अपनी पत्नी सुनीता के सहयोग की न केवल तारीफ की बल्कि मंच पर सब के सामने उन को गले लगा लिया. ऐसा काम नेता करने का साहस नहीं कर सकते. आम आदमी खुश हो कर इसी तरह गले लगा कर पत्नी को सम्मान देता है. बहुत सारे नेता अपने घरपरिवार को जनता के सामने लाने में संकोच करते हैं, पत्नी को गले लगाना तो दूर की बात होती है. भारतीय राजनीति में आजादी के बाद से अब तक राजनीतिक दलों का प्रभाव रहा है. विभिन्न दल जातिबिरादरी और धर्म के नाम पर वोट पा कर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं. पहली बार जनता को लगा है कि राजनीतिक दलों से दूर रहते हुए भी न केवल चुनाव जीता जा सकता है बल्कि सरकार भी बनाई जा सकती है. विधानसभा की कुल 70 सीटों में से 67 सीटें हासिल कर ‘आप’ ने प्रचंड बहुमत पा लिया जबकि भारतीय जनता पार्टी केवल 3 सीटें ही ले पाई. भाजपा की तरफ से घोषित मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार किरण बेदी खुद चुनाव हार गईं. इस चुनाव में भाजपा ने 200 सांसद, भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्रिमंडल के 2 दर्जन सदस्य, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस और उस के सहयोगी संगठन, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह तथा स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विशाल फौज के साथ दिल्ली फतह करने उतरे थे.

भाजपा ने इस बार चुनावी घोषणापत्र नहीं, दृष्टिपत्र जारी किया, जिस में कोई नई बात नहीं थी. बिजली, पानी के बिल आधे करने के आश्वासन थे, झुग्गीझोपड़ी वालों को पक्के मकान बना कर देने के वादे थे. उस का दृष्टिपत्र आप के वादों का मुकाबला करने का आधाअधूरा ही प्रयास था. अन्ना आंदोलन में अरविंद केजरीवाल की सहयोगी रहीं किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बना दिया गया था. भाजपा की दुर्गति के जो कारण बताए जा रहे हैं उन में स्थानीय नेताओं की अनदेखी, अंतिम समय में पार्टी से बाहर की किरण बेदी को सेनापति बनाना, केजरीवाल पर व्यक्तिगत हमले, भाजपा नेताओं के बेतुके बयान और खुद प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अपने भाषणों में केजरीवाल पर निजी हमले तथा विज्ञापनों में उस का निम्न स्तर तक पहुंच जाना प्रमुख हैं.

उधर, आप नेता अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की जनता की व्यावहारिक समस्याओं की बात की. आप की पिछली 49 दिन की सरकार के कामकाज में एक बदलाव की झलक लोगों को दिखाई दी थी. बिजली सस्ती, पानी, वाईफाई फ्री जैसे वादों ने आम मध्यवर्ग से ले कर, निचले गरीब और युवाओं तक को लुभाया. भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने संकल्प को पार्टी ने दोहराया. अरविंद केजरीवाल ने पिछली बार 49 दिन में सरकार छोड़ने की गलती के लिए जनता से माफी मांगी. चुनाव में आम आदमी पार्टी की भारी जीत की जितनी चर्चा देशदुनिया में हो रही है, उतनी ही भाजपा की हार की. आखिर ऐसा क्या कारण है कि 8 महीने पहले दिल्ली की सभी 7 लोकसभा सीटें और 60 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल करने, हाल में महाराष्ट्र, झारखंड जीतने और जम्मूकश्मीर विधानसभा चुनाव में जीत के नजदीक पहुंचने वाली भाजपा का विजयरथ दिल्ली में क्यों बुरी तरह फंस गया. जिन प्रधानमंत्री मोदी की दुनिया भर में वाहवाही हो रही थी, वे क्यों निशाने पर आ गए?

दरअसल, भाजपा की हार के जो कारण मीडिया में बताए जा रहे हैं, मसलन, स्थानीय कार्यकर्ताओं की उपेक्षा, किरण बेदी को लाना, प्रचार में निचले स्तर तक गिर जाना, प्रधानमंत्री मोदी द्वारा भाषणों में कोरी लफ्फाजी करना और केजरीवाल को कोसना आदि सब सतही मात्र हैं.

सामंतशाही के खिलाफ गुस्सा

असल में यह मतदाताओं का महज चुनावी फैसला नहीं है, यह उस राजनीतिक और धार्मिक, सांस्कृतिक सामंतशाही के खिलाफ जनता का गुस्सा है जो सदियों से लोगों की बुनियादी और प्राकृतिक आवश्यकताओं पर अंकुश लगाने की कोशिशें करती आ रही है. सामंतशाही रूपी यह गठजोड़ समाज पर अपनी मरजी थोपने पर तुला हुआ है. विकास की आड़ में पुरानी सामाजिक सड़ीगली सोच को कायम रखने के प्रयास किए जा रहे हैं. राजनीतिक सत्ता उस रूढि़वादी, मध्यकालीन सामाजिक व्यवस्था की पैरोकार बनी दिखाई देती है जहां गैर बराबरी, मजहबी, जातीय भेदभाव, छुआछूत, ऊंचनीच, अमीरीगरीबी का फासला, भाग्यवाद समाज में हावी रहे हैं. जनता इस पुराने राजनीतिक और धार्मिक व्यवस्था के शिकंजे से निकलना चाहती है पर उसे सत्ता का प्रश्रय मिलता रहा है.

आज की राजनीतिक सत्ता ने समाज पर नियंत्रण का काम मजहबी ठेकेदारों को सौंप रखा है. इस से दोनों का भाईचारा खूब मजे से चल रहा है. आसाराम, रामपाल, गुरमीत रामरहीम, शाही इमाम और शंकराचार्यों से समर्थन लेने वाली पार्टियां किस लोकतंत्र और किस समाज का निर्माण कर रही हैं? तकनीक के इस युग में अपनी आस्था, विश्वास लोगों पर थोपने की कोशिशें की जा रही हैं. दिल्ली में भाजपा की हार, संघ की विचारधारा की हार है. यह उस पुरानी, पीछे ले जाने वाली सोच पर मतदाताओं की चोट है जो उस पर लादने की कोशिशें कर रही है.

कांगे्रस भी कट्टर

वैसे, इस मामले में भाजपा और कांगे्रस में कोई फर्क नहीं है. 1947 की कांगे्रस उतनी ही कट्टर हिंदूवादी थी जितनी आज भाजपा है. दोनों की विचारधारा में कोई बदलाव दिखाई नहीं देता. कांगे्रस धर्मनिरपेक्षता का झूठा राग अलाप कर देश की जनता पर धर्मों को थोपती रही. जातीय छुआछूत हटाने के नाम पर वह न तो जातीय भेदभाव खत्म कर पाई, न ‘गरीबी हटाओ’ जैसे नारे दे कर गरीबों की गरीबी खत्म कर पाई. धार्मिक पाखंडों को कांगे्रस ने खूब पाला, उतनी ही पैरवी आज भाजपा कर रही है. राजनीति में जब कट्टरवादी सोच की बात होती है तो सब से पहले भारतीय जनता पार्टी और जनसंघ जैसे दलों का नाम लिया जाता है. सही मानों में देखें तो भाजपा से अधिक कट्टरवादी सोच कांगे्रस की रही है. आजादी के बाद सब से पहले हिंदुओं को खुश करने के लिए कांगे्रस ने ही सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था. कांगे्रस ने राजेरजवाड़ों और जमींदारी प्रथा का उन्मूलन करने का दिखावा किया पर इस के साथ ही साथ, समाज में एक नए प्रकार के राजा, रजवाड़ों और जमींदारों को स्थापित करने का काम भी किया.

हिंदू कोड बिल में सुधार की जरूरतों को लंबे समय तक लटकाने का काम कांगे्रस ने किया. कांगे्रस के बड़े से बड़े नेता कभी किसी मंदिर तो कभी किसी मजार पर जा कर इस बात को बताते रहे कि राजनीति के लिए धर्म का साथ जरूरी होता है. राजनीति में वे धर्म को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने से भी कभी संकोच नहीं करते थे. इसी तरह से नेता को चुनाव लड़ाने से पहले जातीय समीकरण को देखने की शुरुआत भी कांगे्रस के जमाने से ही हुई.

धर्म के तराजू के एक पलड़े में वह हिंदू रखती थी तो दूसरे में मुसलिमों को रखना चाहती थी. इसी वजह से वह धर्मनिरपेक्ष हो कर काम नहीं कर पा रही थी. इंदिरा गांधी के समय तक जनता इन बातों को ठीक से समझ पाने में असफल रही थी. उन के बाद राजीव गांधी ने भी जब उसी कदम पर चलना चाहा तो कांगे्रस की पोल खुल गई. शाहबानो कांड और उस के बाद अयोध्या में राममंदिर का ताला खुलवाने की घटना ने कांगे्रस की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष छवि को उजागर कर दिया. केवल धर्म ही नहीं, सामाजिक सुधार और रूढि़वादी सोच को खत्म करने की दिशा में कांगे्रस ने हर कदम उठाने से पहले यह देखने की कोशिश की कि इस का धार्मिक प्रभाव क्या पड़ेगा? कांगे्रस की इसी परंपरा पर दूसरे दल भी चलने लगे, जिस का नुकसान देश को उठाना पड़ा. नएनए विरोधी पैदा करना फिर उन को दरकिनार करने की रणनीति बना कर कांगे्रस ने लंबे समय तक देश में राज करने का रास्ता निकाला था. जिस से एक बार चुनाव में कांगे्रस की हार हो भी जाती थी तो जल्दी वापसी भी हो जाती थी.

कट्टरवाद को नकारता वोटर

राजनीतिक दल वोटर के संदेश को तब तक पढ़ना और समझना नहीं चाहते जब तक उन को जोर का झटका नहीं लगता. राजनीति में धार्मिक कट्टरवाद को वोटर ने कभी स्वीकार नहीं किया. इस का सब से बड़ा उदाहरण 1992 में अयोध्या में बाबरी मसजिद विध्वंस के रूप में देखा जा सकता है. भारतीय जनता पार्टी को लगता था कि अयोध्या विवाद का राजनीतिक लाभ उसे मिलेगा. जबकि उस घटना के बाद पूरे देश में भाजपा को राजनीतिक नुकसान हुआ. 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने अपने नेता लालकृष्ण आडवाणी की कट्टर छवि का लाभ उठाने का प्रयास किया. वहां उस को हार का ही सामना करना पड़ा. भाजपा के अटल बिहारी वाजपेई को जब सरकार बनाने का मौका मिला तो उस में उन की उदारवादी छवि का बड़ा हाथ था. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को जो समर्थन मिला वह उन की विकासवादी छवि की वजह से मिला था.

नरेंद्र मोदी की अगुआई में सरकार बनने के बाद ही भाजपा के कुछ कट्टरवादी छवि के नेताओं ने विकास की बातों को छोड़ कर कट्टरवादी राजनीतिक काम करने शुरू कर दिए. भाजपा के कुछ ऐसे सांसद खुल कर सामने आने लगे जो अपनी कट्टरवादी छवि के लिए पहले से ही मशहूर थे. उत्तर प्रदेश सरकार को घेरने के चक्कर में भाजपा ने कभी मसजिद में लगने वाले लाउडस्पीकर को मुद्दा बनाया तो कभी लव जिहाद को ले कर राजनीति शुरू की. बीचबीच में ऐसे कट्टरवादी बयान भी आने लगे जिन्हें सुन कर ऐसा लगा जैसे नरेंद्र मोदी का अपने इन सांसदों पर कोई दबाव नहीं रह गया है. दिल्ली चुनावों के समय आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने इस बात को समझते हुए अपने को धार्मिक धु्रवीकरण से दूर रखा.

दिल्ली की जामा मसजिद के शाही इमाम मौलाना अहमद बुखारी ने जब आम आदमी पार्टी के पक्ष में मतदान करने के लिए मुसलमानों से अपील की तो अरविंद केजरीवाल ने उस को मना कर दिया. इस के उलट जब रामरहीम ने भाजपा के समर्थन की घोषणा की तो पार्टी के बड़े नेताओं ने उस को स्वीकार कर लिया. राजनीतिक चिंतक, समाजसेवी और मैगसेसे पुरस्कार विजेता डा. संदीप पांडेय कहते हैं, ‘देश का जनमानस अब बदल चुका है. कट्टरवादी सोच से उस को लुभाया नहीं जा सकता. भाजपा इस बात को समझना नहीं चाहती. नरेंद्र मोदी की जीत की सब से बड़ी वजह कांगे्रस का शासनकाल था जिस में जनता पूरी तरह से निराशहताश हो चुकी थी. सरकार बनाने के बाद नरेंद्र मोदी उन बातों को भूलने लगे. दिल्ली की हार से उन को सबक लेना चाहिए.’

दिल्ली के 1.70 करोड़ मतदाताओं का यह आक्रोश इसी राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ है जो उस की तरक्की, सम्मान में बाधक बनी रही है. यह आक्रोश एक दिन का नहीं है, पीढि़यों का है. आजादी के बाद से ये दल वर्णव्यवस्था का पोषण करते आ रहे हैं. वे सामाजिक भेदभाव बरकरार रखना चाहते हैं. सत्ताधारी धार्मिक, सांस्कृतिक ठेकेदारों की मदद कर स्त्रियों को पैर की जूती ही बनाए रखना चाहते हैं. युवाओं से उन का प्राकृतिक प्रेम का अधिकार अपने नियंत्रण में चाहते हैं. लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान कांगे्रस की अगुआई वाली संप्रग सरकार से इन्हीं वजहों से उकताई जनता ने मोदी को उन के विकास और सुशासन पर भरोसा कर पूरे बहुमत के साथ जिताया. पर 8 महीने आतेआते आम आदमी खुद को ठगा सा महसूस करने लगा. न तो उसे आर्थिक मोरचे पर कहीं कुछ राहत मिल पाई, न ही सामाजिक व सुरक्षा की दिशा में.

मोदी ने खुद को गरीब, पिछड़ा व एक चाय वाले का बेटा बताया था, लोगों ने सोचा यह तो हमारे ही बीच का है. लेकिन अब जब देखा कि मोदी 10 लाख का सोने की नक्काशी वाला कोट पहने हुए अहंकार से भरे हुए उन लोगों के भले की कोई बात नहीं कर रहे हैं, अब तक उन्होंने जो कुछ किया वह अंबानी और अदानी जैसों के लिए ही किया और ऊपर से उन की पार्टी के सांसद साक्षी महाराज औरतों को 5 बच्चे पैदा करने का फतवा जारी कर रहे हैं, मोहन भागवत हिंदू राष्ट्र बनाने का मंत्र जप रहे हैं और इसी मंडली के लोग मिल कर ‘लव जिहाद’, ‘घर वापसी’ के नाम पर धर्मांतरण जैसे मुद्दे आगे बढ़ा रहे हैं फिर भी मोदी मौन हैं, तब जनता ने भाजपा व नरेंद्र मोदी को सबक सिखा दिया.

धर्म से असुरक्षा का माहौल

दिल्ली के चुनावों में भाजपा के धार्मिक एजेंडे ने उसे धूलधूसरित किया है. सत्ता और धर्म की सांठगांठ सदियों से चली आई है. भाजपा ने पिछले 8 महीने से धार्मिक कट्टरता को प्रश्रय दिया. धर्म के नाम पर आतंक का माहौल बनाया. गोडसे पूजकों को बढ़ावा दिया. आज दुनियाभर में पाकिस्तान से पेरिस तक मजहबी आतंक और हिंसा का बोलबाला है, दिल्ली की जनता को इस ने भयभीत किया है. धर्म के नाम पर लोगों के भीतर असुरक्षा, भय फैल रहा है. पाकिस्तान, अफगानिस्तान, फ्रांस, नाइजीरिया, सूडान जैसे देशों में हो रही मजहबी, नृशंस, अमानवीय घटनाओं ने दिल्ली के लोगों में भी दहशत पैदा की है अगर भारत की सरकार भी अपने यहां धार्मिक कट्टरपंथियों को अपने ही धर्म के लोगों को नियंत्रित करने और दूसरे मजहब को भड़काने की स्वतंत्रता देगी तो जाहिर है जनता ऐसी सोच वाली सरकार को गहरा सबक सिखाने से नहीं चूकेगी.

भारतीय राजनीतिक दल विकास, सुशासन की बातें तो करते हैं पर वे धर्म, वर्ग, जाति, भाषा, क्षेत्रीयता के संकीर्ण दायरे से बाहर नहीं निकल पाए हैं. धर्म का पतित रूप सब जगह काबिज हो रहा है. इसी धार्मिक सोच की वजह से आज भी जनता बिजली, पानी, शिक्षा, घर, रोजगार जैसी बुनियादी समस्याओं से जूझ रही है. चुनाव जीतने के लिए नेता दलबदल, जातिधर्म समीकरण, बेमेल गठबंधन और बाहुबल जैसे कई टोटकों का सहारा लेते रहे हैं. नेताओं के इन टोटकों से वोटर दूर होता जा रहा है. दिल्ली में किरण बेदी की हार को इस रूप में देखने की जरूरत है. आजादी के बाद बहुत समय तक राजनीतिक दलों ने अपनेअपने वोटबैंक बनाए और उस के बल पर राज किया.

कांगे्रस को इस बात का लाभ मिलता रहा कि वह आजादी से जुड़ी थी. इस के बाद गांधीनेहरू के नाम और उन के परिवार का सहारा मिला. भाजपा ने हिंदू वोटबैंक बनाने की कोशिश की तो कुछ दलों ने जाति के आधार पर अपनेअपने वोटबैंक बना लिए. देश का एक बड़ा जनमानस इस तरह के वोटबैंक से अपने को दूर करने में लग गया है. शहर और देहात का जागरूक वर्ग वोटबैंक राजनीति से अपने को दूर करने में सफल होता दिख रहा है. दिल्ली में 60 लाख से ज्यादा मतदाता गरीब, निचले, पिछड़े तबकों के हैं जो झुग्गी बस्तियों, स्लम कालोनियों और निम्न व मध्य बस्तियों में रहते हैं. इन में से ज्यादातर लोग देश के दूसरे राज्यों से आए हुए हैं. ये जहां से आए हैं, अपने पीछे छुआछूत, जातीय भेदभाव, विद्वेष से जलालतभरी जिंदगी में कुछ बदलाव, बेहतरी की उम्मीद पाले हुए हैं. यहां आ कर उन्हें कम से कम थोड़ा सम्मान मिलने लगा. जातीय भेदभाव से राहत मिलने लगी पर सत्ता और धर्म की सांठगांठ उन्हें फिर उसी जलालत की ओर धकेल रही है, जिसे वे पीछे छोड़ चुके हैं.

2011 में दिल्ली के जंतरमंतर पर राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ जो आंदोलन हुआ उस में देशभर में जनाक्रोश का सैलाब उमड़ा. यह असल में उसी राजनीतिक, सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ गुस्सा था. ऐसा ही जनाक्रोश मिस्र, सीरिया, अल्जीरिया जैसे देशों में भी चला. जंतरमंतर के इस आंदोलन से अरविंद केजरीवाल निकले और उन्होंने 2 साल पहले आम आदमी पार्टी बना कर सत्ता की उन ताकतों को ललकारा जो दशकों से संसाधनों की लूटखसोट और जनता का शोषण करती आ रही थीं. आम आदमी पार्टी ने चुनाव में जाति, धर्म, वर्ग, भाषा जैसी संकीर्णता की कोई बात नहीं की. उन्होंने तो शाही इमाम की मुसलमानों से की गई अपील को भी ठुकरा दिया. दिल्ली में रहने वाले हर प्रांत, हर जाति, धर्म, वर्ग, भाषा के लोगों को लगा कि यह व्यक्ति और उस की आम आदमी पार्टी ही व्यवस्था में परिवर्तन कर सकती है. लिहाजा, पिछले चुनावों में आम आदमी पार्टी ने भ्रष्ट कांगे्रस का 15 साल का शासन उखाड़ फेंका और अब भाजपा की केंद्र सरकार और पार्टी की भजभज मंडली की विचारधारा पर बुरी तरह चोट कर के उसे चेता दिया है.

आप ने बदली राजनीति की दिशा

दिल्ली के चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत का सब से बड़ा संदेश है कि नेताओं को अपने अंदर बदलाव लाना होगा. जनता सफेद, लकदक कुरतापजामा, सूटबूट, महंगी गाड़ी, हथियारबंद गनर के बीच चलने वाले नेताओं को बहुत देख चुकी. उस को लगता है कि ये चीजें नेता को जनता से दूर करती हैं. चुनाव जीतने तक जो नेता जनता का करीबी होता था, अचानक वह जनता से दूर क्यों हो जाता है? दिल्ली चुनाव में भाजपा ने अरविंद केजरीवाल के मफलर और उस की खांसी का खूब मजाक उड़ाया. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केजरीवाल पर तंज कसते हुए उन को बदनसीब कहा. केजरीवाल ने बड़ी ही खूबी से अपने ऊपर किए जा रहे मजाक को ही हथियार बनाया. केजरीवाल के मफलर का मुकाबला मोदी के महंगे सूट से हो गया. नतीजा जनता ने केजरीवाल को अपना बहुमूल्य वोट दिया.

राजनीतिक विश्लेषक हनुमान सिंह ‘सुधाकर’ कहते हैं, ‘‘सही मानों में देखें तो अब लोकतंत्र की कल्पना साकार होती दिख रही है. जनता को इस बात का पूरा एहसास हो चुका है कि नेता आपस में मिल कर उन को बेवकूफ बना रहे हैं. ऐसे में उस ने अब खुद को किसी दल का वोटर बनाने से अलग कर लिया है. भाजपा के कट्टरवाद का समर्थन करने वाले केवल 6 फीसदी लोग हो सकते हैं. परेशानी की बात यह है कि राजनीतिक दल इस बात को स्वीकार नहीं करते. भाजपा हर पूजा करने वाले को कट्टर हिंदू मानने की गलती करती है. ऐसी गलती दूसरे दल भी करते हैं.’’

बहरहाल, आप की जीत ने देश की राजनीति की दिशा बदल दी है. राजनीतिक दलों को अब समझ लेना चाहिए कि जनता वोटबैंक नहीं रह गई है. वह देश का विकास चाहती है. रोजगार, सड़क, बिजली, पानी, अस्पताल, स्कूल और अपनी सुरक्षा चाहती है. अगर दलों ने जनता को भटकाने की कोशिश की तो चुनाव परिणाम ऐसे ही आएंगे जैसे भाजपा व कांगे्रस को दिल्ली में देखने पड़े हैं.

– जगदीश पंवार के साथ शैलेंद्र सिंह

धर्म की राजनीति फेल

भारतीय जनता पार्टी चाहे जितना कहती रहे कि उस का उद्देश्य देश को विकास के रास्ते पर ले जाना है, सुशासन देना है, देश को भ्रष्टाचारमुक्त करना है, स्वच्छ करना है, आम आदमी जानता है कि धर्म के व्यापार की कड़वी गोली पर ये बातें सिर्फ चीनी की रंगीन परतें हैं. जैसे ही पेट में जाएंगी, परतें घुल जाएंगी और धर्म का व्यापार चालू हो जाएगा. नरेंद्र मोदी सरकार से जनता में आशा की किरण फूटी थी कि वह भ्रष्ट परिवारवाद से लिपटी, निकम्मी, अहंकारी कांगे्रस और टूटतीजुड़ती समाजवादी पार्टियों से देशवासियों को मुक्ति दिलाएगी पर 8 माह ही में भाजपा ने जो रंग दिखाना शुरू किया वह यह साफ करने लगा कि गोली की कीमत क्या है. वादे तो होते ही झूठे हैं, जनता न उन के नाम पर वोट देती है और न उन्हें न निभाने या न पूरे करने पर वादा करने वालों को सजा देती है क्योंकि जो चीज हाथ में है नहीं, उस के न मिलने पर गम नहीं होता. गम तब होता है कि जो हाथ में है, वह छिन जाए. नरेंद्र मोदी के राज में भाजपा के कुछ लोग उस शांति को छीनने पर उतारू हो गए थे जो हाथ में थी.

भारतीय जनता पार्टी की भगवा ब्रिगेड 8 माह में मुखर हो गई. वह कभी लव जेहाद, कभी घर वापसी, कभी हिंदू राष्ट्र, कभी वेलैंटाइन डे पर जबरन विवाह, कभी हिंदू औरतों को 4 या 6 या 10 बच्चे जनने का निर्देश, कभी रामजादों और ह××मजादों की बात, कभी अलीगढ़ विश्वविद्यालय के आंतरिक मामलों में दखल, कभी शहरों के नाम बदलने वगैरह की बातें करने लगी. और नरेंद्र मोदी के मुंह पर ताला तो केवल विदेशी राष्ट्रपतियों या देशी उद्योगपतियों के सामने ही खुलता था, पार्टी को बिगाड़ने वालों के आगे नहीं. नरेंद्र मोदी से देशवासियों का मोहभंग होने का असर झारखंड, महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों में दिख गया था और सरकारें कम बहुमत पर ही बन पाई थीं, पर चूंकि जैसे भी हो बन गईं तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह अपने गले में कमलों का हार पहनते रहे थे. दिल्ली में उन को चुनौती दी अरविंद केजरीवाल ने. छोटे कद के, 56 इंच से कहीं कम छाती वाले, सीधे, सरल, कम बोलने वाले अरविंद ने गलीगली छान मारी. वह चाय वाला तो न था पर वह स्कूटर रिकशावालों, गलियों में रहने वालों, मैट्रो में चलने वालों का दोस्त था. उस का छिपा संदेश था ही नहीं क्योंकि जो अंबानी और अदानी को खुलेआम बेईमान कहता रहे वह बेईमानी कैसे कर सकता है. उस के पास छोटी गाड़ी, दिल्ली के निकट गाजियाबाद में मध्यवर्ग के लोगों की कालोनी में छोटा फ्लैट, कोई लागलपेट नहीं पर जज्बा भरपूर था. उस ने रातदिन एक कर दिया. पहले से ही ऐंटीकरप्शन मूवमैंट में वह नाम कमा चुका था. 49 दिनों तक दिल्ली का मुख्यमंत्री भी रहा था, उसे सत्ता की गलियों की पहचान हो चुकी थी. उसे कांगे्रस और भाजपा दोनों के काम करने के ढंग मालूम थे. उस ने न धर्म और जाति की बात की, उस ने स्वर्ग बनाने का वादा नहीं किया, उस ने अस्मिता, संस्कृति का रोना नहीं रोया. वह दिल्ली में बसे विभिन्न प्रदेशों से आए लोगों को बांट कर नहीं चला. उस ने सब को दिल्ली का हकदार माना. सिर्फ छोटीछोटी चीजों का वादा किया. ऐसे वादे जिन्हें निभाना कठिन हो सकता है पर असंभव नहीं.

भारतीय जनता पार्टी ने दिल्ली के चुनावों में जनता के उस भय को नहीं पहचाना जो उस की भगवा ब्रिगेड पैदा कर रही थी. लोगों को उतना मूर्ख नहीं समझना चाहिए कि वे पाकिस्तान में हो रहे धार्मिक आतंक के बारे में अनजान रहें. वे जानते हैं अफगानिस्तान में औरतों का क्या हाल है. उन्हें मालूम है कि इराक, ईरान, लीबिया, मिस्र, सीरिया, नाइजीरिया में धर्म के नाम पर औरतें कैसी कीमत चुका रही हैं. वे इस बात को दोहराते नहीं देखना चाह रहे थे. वे दिल्ली के त्रिलोकपुरी दंगे और चर्चों की तोड़फोड़ में गुजरात के दंगों की छवि देख रहे थे. अरविंद केजरीवाल ने धर्म के जहरीले सांपों की टोकरी को खोले बिना जता दिया कि चुनना किसे है, शांति को या कट्टरवाद को. उस ने भारतीय जनता पार्टी पर धर्म को ले कर हमला नहीं किया पर यह साफ था कि उस का उद्देश्य जनता को सीधा, सरल शासन देना है, किसी भगवाई या कौर्पोरेट के हवाले करना नहीं.

कांगे्रस के साफ हो जाने का लाभ उसे मिला और जिन लोगों ने मई में नरेंद्र मोदी को वोट दिए थे उन में से एकचौथाई ने तो अपना आदर्श बदल लिया और बाकी एकजुट हो गए राजनीति को एक नई शक्ल देने में, जो पुश्तैनी राजनीति को उखाड़ फेंके. 70 में से 67 सीटें दिला कर दिल्ली की जनता ने जता दिया है कि हिंदू बने रहने से ज्यादा जरूरी एक सभ्य, शांतिप्रिय और सक्रिय नागरिक बनना है. सारे अनुमानों को धराशायी करते हुए आम आदमी पार्टी के अदने से कार्यकर्ताओं ने अपने मिशन को जो सफलता दिलाई है वह अद्भुत है. बिना दंगेफसाद के, बिना झगड़े के, केवल कर्मठता और सही तमन्ना से जो काम सफेद टोपियों और लहराती झाड़ ुओं ने किया उस की गूंज देशभर में फैलेगी और विश्व भी इस से अछूता न रह पाएगा.

दुनियाभर की जनता धार्मिक कठमुल्लाओं से भी परेशान है, कौर्पोरेट शोषण से भी. हर जगह युवाओं के आंदोलन हो रहे हैं. अमेरिका में औक्युपाई वाल स्ट्रीट चल रहा है. हौंगकौंग में वास्तविक लोकतंत्र के लिए अंबै्रला क्रांति है. पेरिस में 40 लाख लोग धार्मिक हत्याओं का विरोध करने के लिए सड़कों पर उतर आए. दिल्ली ने भारतीय जनता पार्टी के लोकसभा में भारी बहुमत का उत्तर विधानसभा में 70 में से केवल 3 सीटें दे कर दे दिया. भारतीय जनता पार्टी क्या इस से सबक सीखेगी? शायद नहीं, क्योंकि उस की भगवा ब्रिगेड अपनेआप को ईश्वर का अंतहीन, अनाशवान एजेंट मानती है. उस के लिए अरविंद केजरीवाल तो केवल क्षणभंगुर है. भारतीय जनता पार्टी चाहे हिंदू महासभा और बलराज मधोक की जनसंघ की तरह सिमट कर शून्य रह जाए, भगवाधारी नहीं बदलेंगे. भक्तों के पैसे पर फलतेफूलते भगवाई स्वामियों ने हर रंग देखे हैं, वे सफेद टोपी के मटमैला होने का इंतजार करेंगे. 2004 में हारे थे लेकिन वे 2014 में जीत गए. अब अरविंद केजरीवाल के लिए यह भी चुनौती है कि वह उन के जाल और जंजाल से अपने को मुक्त रखे.

मैं उपहास को हास्य नहीं मानता

कई दशकों से अपनी हास्य कविताओं के जरिए लोगों को गुदगुदाने वाले सुरेंद्र शर्मा का मानना है कि हास्य का स्तर गिरता जा रहा है. ऐसा क्यों हो रहा है, जानते हैं उन्हीं की जबानी :

आप के लिए हास्य की क्या परिभाषा है?

हास्य की 2 विधाएं हैं, हास्य और व्यंग्य. इस में मूल रूप से जो अंतर है वह यह है कि व्यंग्य सोचने पर विवश करता है और हास्य सोचने से मुक्त करता है. हास्य को आप किस तरह से लेते हैं, आप हास्य कर रहे हैं कि उपहास कर रहे हैं. मैं उपहास को हास्य नहीं मानता. वह मखौल उड़ाना होता है. सब से बड़ी बात यह है कि हास्य का मतलब यह नहीं कि किसी को पीड़ा पहुंचाई जाए. किसी की तकलीफ पर हंसा जाए. किसी पर हंसना कितना खतरनाक हो सकता है, उस का पता इस बात से लगता है कि द्रौपदी की एक गलत हंसी ने महाभारत करवा दिया और कितना खूनखराबा हुआ.

हिंदी साहित्य का लेखक हंसनाहंसाना क्यों भूल गया है?

लोग भूले नहीं हैं, अब लिखा नहीं जा रहा है. लिखा इसलिए नहीं जा रहा है क्योंकि आदमी कुंठित हो गया है. कुंठित व्यक्ति जीवन में कभी भी स्वस्थ हास्य नहीं लिख सकता. उस का हास्य कहीं न कहीं पीड़ा पहुंचाता है. इस की वजह यही है कि पहले हम अपने सुख से सुखी रहते थे और आज हम दूसरे के सुख से दुखी हैं. सुख की परिभाषा बदल गई है. सुख हम उसे कहते हैं जो दूसरे के पास है. मुझे अपनी 2 गाडि़यां सुख नहीं देतीं, पड़ोसी की 3 गाडि़यां तकलीफ देती हैं.

यानी अब लोग ज्यादा स्वार्थी हो गए हैं?

जब विज्ञान तरक्की करेगा तो लोगों में ज्ञान की कमी होती जाएगी. विज्ञान ने इतनी विलासिता की वस्तुएं बाजार में लगा दी हैं कि हम उन सब को पाने की होड़ में अपना हास्य भूल गए हैं. पहले घर में एक कमाता था और सभी खाते थे पर अब सभी कमाने वाले हैं फिर भी लगता है कि फलां चीज की कमी रह गई. पहले सब आराम से चला करते थे, कोई दिक्कत नहीं होती थी. अब सब दौड़ने में लगे हुए हैं और दौड़ने वाला व्यक्ति यह नहीं देखता कि पीछे कौन कुचला, दबा जा रहा है.

अच्छा कौमेडियन या रचनाकार बनने के लिए क्या खूबियां होनी चाहिए?

अच्छा कौमेडियन या फिर अच्छा व्यक्ति होने के लिए अपनी कमियों की तरफ ध्यान दें न कि दूसरे की कमियों पर. अब हमारा ध्यान अपनी कमियों पर नहीं, दूसरों की कमियों को ढूंढ़ने में लगा हुआ है. जहां तक अच्छे रचनाकार की बात है तो समाज में व्याप्त कमियों की ओर ध्यान देना जरूरी है ताकि वह उन पर टीकाटिप्पणी कर सके. वह सामाजिक व्यवस्था में गिरावट, राजनीति या फिर न्यायपालिका में जहांतहां जो कमियां हैं उन पर व्यंग्य करता है. चाहे फिल्म हो या फिर टैलीविजन चैनलों में दिखाए जाने वाले कौमेडी शो, हास्य की आड़ में उन में ज्यादातर फूहड़ता और अश्लीलता परोसी जाती है. आप की राय?

हास्य में अश्लीलता होनी ही नहीं चाहिए. फूहड़ता को मैं हास्य नहीं मानता. द्विअर्थी संवाद या फूहड़ता को पूरा करने के लिए अगर आप हास्य डालते हैं तो इस का मतलब है कि आप के पास विषयों की कमी है. टैलीविजन चैनल्स में वही दिखाया जाता है जो जनता देखना चाहती है. उन्हें वह दिखाना चाहिए जो जनता को देखना चाहिए. लेखन में तभी गिरावट आई जब हम लोगों ने वही लिखा जो जनता पढ़ना चाहती थी. लेखन तब अच्छा था जब हम लिखते थे जो जनता को पढ़ना चाहिए. बाजार हरेक चीज में आता है लेकिन बाजारूपन नहीं आना चाहिए.

स्क्रीन पर जो चीजें हम सब के साथ बैठ कर नहीं देख सकते वह हास्य नहीं है. कई फिल्में भी आजकल आ रही हैं जिन में गालियां होती हैं. अगर वे गालियां हटा दी जातीं तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा और दुख की बात यह है कि ऐसी फिल्में बडे़बड़े फिल्मकार बना रहे हैं. लोग क्या चाहते हैं, इस से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि लोगों को क्या दिखाना चाहिए. एक अखबार ने मुझ से कहा कि आप की कविता का स्तर गिर रहा है. हम ने उन से कहा कि आप के अखबार में 4 नंगी तसवीरें छप रही हैं, क्या वह स्तर ऊंचा कर रहा है? तुम पहले अपना स्तर ठीक कर लो, मेरा स्तर बाद में देखना. दूसरों पर उंगली उठाने पर लोग ज्यादा विश्वास कर रहे हैं. सब से बड़ी दिक्कत है कि अपने फील्ड का कोई काम नहीं कर रहा. राजनीति वाले धर्म की बातें करते हैं, धर्म वाले राजनीति की बातें करते हैं और न्यायपालिका कार्यपालिका में घुसी जा रही है. अपना काम ईमानदारी से कोई नहीं करना चाहता.

लेखन में क्या हृषिकेश मुखर्जी ने साफसुथरे हास्य प्रस्तुत नहीं किए? राजकपूर, दिलीप साहब, महमूद साहब, अनुपम खेर, परेश रावल, अमिताभ बच्चन, जौनी वाकर, अशोक कुमार, किशोर कुमार जैसे कलाकारों ने बहुत अच्छी और साफसुथरी कौमेडी की. आज हास्य में गिरावट आई है. पहले लोग अपने ऊपर हंसते थे, अब किसी के ऊपर हास्य कर दो तो वह तुरंत मुकदमा ठोक देगा कि हमारी जाति को या काम को पीड़ा पहुंची है. अब ‘पीके’ फिल्म को ही ले लीजिए. अगर पीके में आमिर खान रोल नहीं करता तो शायद यह इश्यू नहीं बनता क्योंकि आमिर खान पर्टिकुलर एक धर्म से जुड़ा हुआ है, इसलिए यह मुद्दा बन गया. इसी तरह फिल्म ‘ओह माई गौड’ में परेश रावल की जगह कोई मुसलिम कलाकार रोल निभाता तो यह भी मुद्दा बन जाता.

क्या जब आप कोई हास्य कविता लिखते हैं तो खुद हंसते हैं? किस हास्य कविता ने आप को खिलखिलाने पर मजबूर किया?

मैं वैसे भी नहीं हंसता. न पढ़ते वक्त और न लिखते वक्त. हां, दूसरा कोई सुनाता है तो जरूर हंसता हूं. शैल चतुर्वेदी या काका हाथरसी की ऐसी बहुत सी कविताएं हैं या फिर शरद जोशी के ऐसे बहुत से व्यंग्य हैं जिन पर आदमी दिल से हंसता है. अब एक जोक है कि एक व्यक्ति का माथा सूजा हुआ था. किसी ने पूछा, माथा क्यों सूजा हुआ है? उस ने जवाब दिया कि टौंसिल का औपरेशन करवाया था. तो उस ने पूछा कि इस में माथा कैसे सूज गया? तो वह बोला, बेहोश करने की दवा खत्म हो गई थी तो डाक्टर ने सिर पर हथौड़ी दे मारी और मैं बेहोश हो गया. ह्यूमर तो एक झटके में आना चाहिए.

आज की राजनीति पर क्या कहना चाहेंगे? कुछ लाइनें हो जाएं.

राजनीति पर एक बार मैं ने राजीव गांधीजी को एक चुटकुला सुनाया था कि बेटे ने बाप से कहा कि मैं राजनीति में जाना चाहता हूं तो कुछ गुर बताइए. बाप ने कहा, रहने दे. बच्चा 8-10 साल का था तो उस ने जिद की कि मुझे राजनीति में ही जाना है. जब बच्चा नहीं माना तो बाप ने कहा कि ठीक है, पहली मंजिल पर चढ़ जा. बच्चा पहली मंजिल पर चढ़ गया. बाप ने कहा, नीचे कूद जा. इस पर बेटे ने कहा कि मुझे चोट लग जाएगी. बाप ने उसे तसल्ली देते हुए कहा कि मैं नीचे खड़ा हूं, तुम्हें पकड़ लूंगा. उस के बाद बच्चा कूद गया. बाप ने उसे पकड़ा नहीं, बच्चे के हाथपैर टूट गए. तब बेटे ने गुस्साते हुए कहा कि आप ने तो कहा था कि मैं पकड़ लूंगा, तुम्हें चोट नहीं लगेगी. इस पर बाप ने कहा, राजनीति की पहली शिक्षा यही है कि राजनीति में अपने बाप पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए. जो भी सोचना अपने दिमाग से सोचना. क्योंकि राजनीति में पहले नीति थी, फिर कूटनीति आई, अब कुट्टेनीति है. इसी पर एक कविता सुनाता हूं-

‘‘कोई फर्क नहीं पड़ता

इस देश में राजा

रावण हो या राम

जनता तो बेचारी सीता है

रावण राजा हुआ तो

वनवास से चोरी चली जाएगी

और राम राजा हुआ तो

अग्नि परीक्षा के बाद

फिर वनवास में भेज दी जाएगी.

कोई फर्क नहीं पड़ता

इस देश में राजा

कौरव हों या पांडव

जनता तो बेचारी द्रौपदी है

कौरव राजा हुए तो

चीरहरण के काम आएगी और

पांडव राजा हुए तो

जुए में हार दी जाएगी.

कोई फर्क नहीं पड़ता

इस देश में राजा

हिंदू हो या मुसलमान

जनता तो बेचारी लाश है

हिंदू राजा हुआ तो

जला दी जाएगी और

मुसलमान राजा हुआ तो

दफना दी जाएगी.’’

राजीव गांधी ने आप को दिल्ली में एक फ्लैट दिलवाया था, वह किस्सा क्या था?

गुलाम नबी आजाद के यहां इफ्तार की पार्टी थी. वहां मैं भी गया था. वहां राजीव गांधी के अलावा और लोग कहने लगे, शर्माजी, कुछ हो जाए. राजीवजी को मैं ने सुनाया कि एक आदमी आत्महत्या करने के लिए यमुना नदी में कूद गया. जब कूदा तो देखा कि सामने से एक तरबूज तैरता हुआ उस की तरफ आ रहा है. उस ने सोचा कि मरने से पहले कुछ खा ही लेता हूं, भूखा क्यों मरूं. तरबूज को हाथ में ले कर जब उस ने चीरा तो उस में एक जिन्न निकला और बोला, आका, हुक्म करो, मैं आप के लिए क्या कर सकता हूं? फिर उस आदमी ने सोचा कि मरने से क्या फायदा, सारा काम इसी से करवा लेता हूं. उस ने कहा कि दिल्ली में हमें 3 बैडरूम का फ्लैट दिलवा दो. जिन्न ने उसे एक तमाचा जड़ दिया और कहा, ‘सा…’ दिल्ली में रहने की जगह होती तो क्या मैं तरबूज के अंदर रहता. राजीवजी हंसते हुए बोले कि भई, यह मुझे क्यों सुना रहे हो तो मैं ने कहा कि वह तरबूज का जिन्न मैं ही तो हूं. फिर राजीवजी ने गुलाम नबीजी से कह कर कलाकार कोटे से एक 3 बैडरूम का फ्लैट दिलवा दिया जो तीसरे दिन ही मुझे मिल गया था. फिर नरसिम्हारावजी के समय वह फ्लैट मैं ने खाली कर दिया और अपना मकान ले लिया.

आप अपने हास्य में पत्नियों को ज्यादा टारगेट करते हैं?

पत्नियों पर मैं ने हास्य किया है, उपहास नहीं. मैं ने कभी भी महिलाओं को मखौल का विषय नहीं बनाया, उन्हें हास्य का विषय बनाया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुलैट ट्रेन लाने की बात कही है? इस पर क्या कहेंगे?

मनरेगा हो या फूड सिक्योरिटी बिल, ये जो भी स्कीमें हैं वे गरीब को गरीब बनाए रखने की स्कीम हैं न कि गरीबी मिटाने की. नरेंद्र मोदीजी बुलेट ट्रेन की बात करते हैं लेकिन देश की पहली प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि जो आदमी पैसे दे कर ट्रेन में, जहां शौचालय होते हैं वहां खड़े हो कर सफर करता है, उस के लिए कम से कम एक सीट की व्यवस्था करें. पैसे दे कर जो ट्रेन की छत पर सफर कर रहा है उसे एक सीट दें. घाव पर मखमल पहनने से हम अच्छे दिनों की उम्मीद कैसे कर सकते हैं. पहले घाव का इलाज करना चाहिए. हमारी जितनी भी सरकारें आई हैं वे फलों के ऊपर सिंचाई करती हैं, जड़ों की सिंचाई कोई नहीं करता. 2 रुपए किलो गेहूं नहीं चाहिए, हमें इस लायक बनाओ कि हम 10 रुपए किलो का गेहूं खरीद कर खा सकें ताकि आत्मसम्मान के साथ जी सकें. वृद्धावस्था की पैंशन स्कीम उस को क्यों मिले जो संपन्न हो? पैंशन उन्हें दें जिन वृद्धों के पास कुछ भी नहीं है.

आज हमें यह जान कर बड़ी तकलीफ हुई कि एसी जेल बनाई गई है. किस बात की एसी जेल? उन के लिए जिन्होंने अपराध किए हैं? ठंड में खुले आसमान के नीचे सोने वाले ठिठुरते रहते हैं क्या उन का अपराध यही है कि वे अपराधी नहीं हैं? उन के लिए पहले एक छत की व्यवस्था करे सरकार. क्रमबद्ध तरीके से विकास होना चाहिए, जिस का फायदा हरेक को मिले. बातें तो बहुत होती हैं कि गरीबी मिटाएंगे, बेरोजगारी दूर करेंगे पर पौपुलेशन पर चर्चा कोई नहीं करता. एक नेता कहते हैं कि 4-4 बच्चे पैदा करने चाहिए. खुद तो शादीशुदा हैं नहीं और 4 बच्चे की बात करते हैं. शादी कर के 4 बच्चे पैदा करें न, तब पता चलेगा.

दुनिया जिस आतंकवाद की चपेट में है, क्या हास्य उस से मुक्ति दिला सकता है?

कैसे मुक्ति दिलाएगा, जो चीज है. पाकिस्तान में इतने बच्चे मारे गए, क्या हंसी उन के परिवारों के जख्म को भर सकती है? जिस दिन सरकार का आतंक आतंकवादी से बड़ा हो जाएगा, उस दिन आतंकवाद खत्म हो जाएगा. हमारे मानव अधिकार आयोग सब के लिए हैं. इस की सुविधा सिर्फ मानव को ही मिलनी चाहिए न कि ‘दानव’ के लिए हो. लेकिन इस का फायदा तो ‘दानव’ ही उठा रहे हैं. हमें सख्त कानून की जरूरत है ही नहीं, हमें तो कानून की दहशत की जरूरत है. क्या टी एन शेषन ने इसी कानून के तहत चुनाव नहीं कराए? इसी कानून के तहत संजय गांधी ने देश में इमरजैंसी लगाई और तब सब सुधर नहीं गए थे? लोग सही समय पर दफ्तर जाने लगे थे. रेलें सही समय पर चलने लगी थीं.

इन दिनों स्वच्छता अभियान चल रहा है, इस पर आप क्या कहेंगे?

मोदीजी का स्वच्छता अभियान अच्छा है पर स्वच्छता अभियान का पहला सबक यह होना चािहए कि मैं गंदगी नहीं फैलाऊंगा. यहां तो गंदगी को शिफ्ट किया जा रहा है. गंदगी इधर से उधर, उधर से इधर और घूमफिर कर फिर वापस आ गई. गंदगी मिट जाए तो स्वच्छता अभियान होगा. शौचालय की भी बात की जा रही है पर जिन गांवों में पीने का पानी नहीं है, महिलाएं कई किलोमीटर दूर से पानी ढो कर लाती हैं तो शौचालय के लिए वहां पानी आएगा कहां से? पहले पीने के लिए पानी की व्यवस्था तो हो.

हास्य को रोजगार से कैसे जोड़ा जा सकता है?

मेरा हास्य रोजगार से जुड़ा है. जिस दिन आप दूसरे के सुख से दुखी हो जाएंगे या दूसरे के दुख से दुखी होंगे तभी आप हास्य से जुड़ जाएंगे. हास्य इसलिए लिखा नहीं जा रहा है कि हमारे सुख व्यक्तिगत हो गए हैं और दुख सार्वजनिक हो गए हैं. जिस दिन हम दुख व्यक्तिगत कर लेंगे और सुख सार्वजनिक कर देंगे तो आप अपनेआप ही हास्य से जुड़ जाएंगे. जिंदगी में आदमी को थक कर सोना चाहिए. हम रोज बुझ कर सोते हैं. ऐसे में हास्य कहां से निकलेगा?

जयपुर लिटरेचर फैस्टिवल को हौवा ज्यादा बना दिया जाता है, इस बारे में आप की क्या राय है?

पहले लेखन में हृदय का इस्तेमाल होता था, अब बुद्धि का होने लगा है. मेरी अनपढ़ मां को आज भी कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास व मीरा की पंक्तियां याद हैं. आजादी के बाद हालत यह है कि बड़ेबड़े कविता लिखने वाले को सम्मान तक मिल गए और उन की कविता किसी को याद नहीं. और जिन्होंने लिखी उन को खुद को अपनी याद नहीं. आज भी प्रेमचंद को याद किया जाता है, उन के पात्रों को पढ़ कर आंखें छलछला जाती हैं.

टैलीविजन पर ‘कौमेडी नाइट्स विद कपिल’ का खूब बोलबाला है?

‘कौमेडी नाइट्स विद कपिल’ में सेंस औफ ह्यूमर है. और सब से बड़ी बात यह है कि इस शो में बाकी जो कलाकार हैं वे सभी मिल कर कौमेडी करते हैं पर कभीकभी वहां मौजूद दर्शकों का भी उपहास किया जाता है.

राजनेताओं की पोल खोलते हास्यबाण

राजनीति में हास्यव्यंग्य की हमेशा से बहार रही है. इस देश में राजनीतिबाजों ने कुछ और दिया हो या नहीं, जनता को हंसाने की भरपूर सामग्री दी है. राजनीतिबाजों पर काफी अधिक जोक, व्यंग्य लिखे जाते रहे हैं. लोग राजनेताओं पर बने चुटकुले खूब मजे से सुनतेसुनाते हैं. नेताओं की खामियों से ले कर छोटेबड़े तमाम मुद्दों पर जोक बने हैं. चुनावों के दौर में तो चुटकुलों के माध्यम से हंसीठिठोली की बयार बहने लगती है. लेखकों, कार्टूनिस्टों, व्यंग्यकारों के लेखन से ले कर सोशल मीडिया तक पर नेताओं पर चुटकुले लोगों को खूब हंसा रहे हैं.

व्यंग्य कसने वाले किसी भी नेता को बख्शते नहीं दिखाई देते. वे प्रधानमंत्री से ले कर विपक्षी नेताओं की हंसी उड़ाने में लगे हुए हैं. नेहरू से ले कर मनमोहन सिंह तक हास्य के तीर झेलते रहे हैं, अब मोदी भी फेस कर रहे हैं. इस समय नेताओं को ले कर चुटकुलों का सब से बड़ा अड्डा सोशल मीडिया बना हुआ है जहां हर पार्टी, हर पद पर बैठे नेता को निशाना बनाया गया है. इन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल, मनमोहन सिंह, भाजपा में ताजा शामिल हुईं किरण बेदी को ले कर मजेदार चुटकुले प्रचलित हैं.

नेताओं पर हंसीमजाक अकसर किसी के ज्ञान, किसी के स्वभाव, भ्रष्टाचार, झूठ, धोखा, बेईमानी, लापरवाही, निकम्मेपन, बेवकूफियों, मूर्खता, लालच और धार्मिक कट्टरता व पोंगापंथी जैसे विषयों को ले कर उड़ाए जाते हैं. इन पर गढे़ गए जोक्स लोगों को खूब गुदगुदाते हैं तो कुछ नेताओं को आईना दिखाते हैं. आइए, कुछ बानगी देखते हैं-

‘हर चीज में कमियां ढूंढ़ता है,
ऐ दिल कहीं तू केजरीवाल तो नहीं.’

एक और देखिए-

‘यदायदा हि ‘धरना’ स्य,
ग्लानिर्भवति भारत:,
‘अभ्युत्थानं ‘अधरना’ स्य
केजरीवाल सृजाम्यहं.’

अर्थात, जबजब भारत में धरने कम होंगे, केजरीवाल पैदा होंगे.

इन दोनों चुटकुलों में अरविंद केजरीवाल के स्वभाव को हंसीमजाक के जरिए जाहिर किया गया है. केजरीवाल बातबात पर धरना देने के लिए मशहूर हो गए हैं और सरकारी, राजनीतिक व्यवस्था में खामियां ढूंढ़ना उन की फितरत दिखती है, इसलिए केजरीवाल पर बने चुटकुले बहुत लोकप्रिय हो रहे हैं.

केजरीवाल के मफलर और खांसी को ले कर भी टैलीविजन चैनलों पर मिमिक्री की जा रही है.

इधर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वादे को ले कर भी उन्हें चुटकुलों के जरिए आड़े हाथों लिया गया है. किस तरह, देखिए-

‘एक व्यक्ति ने बैंक से लोन लिया था और वह चुका नहीं रहा था. बैंक वाले उस के पास उगाही के लिए गए तो उस व्यक्ति ने कहा, थोड़े दिन और रुक जाइए, मेरे खाते में 15 लाख रुपए आने ही वाले हैं. इन में से आप अपने काट लेना. इस पर बैंक वाले बोले, हमें आप पर भरोसा नहीं है. व्यक्ति बोला, मुझ पर तो भरोसा नहीं है पर कम से कम देश के प्रधानमंत्री पर तो भरोसा करिए.’ मोदी ने लोकसभा चुनावों के दौरान कालाधन वापस लाने का वादा किया था और चुनावी रैलियों में लोगों से कहते थे कि विदेशों में इतना कालाधन है कि हरेक भारतीय के खाते में 15-15 लाख रुपए जमा होंगे.

इसी तरह कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की समझ को ले कर खूब जोक चल रहे हैं.

‘राहुल गांधी पूछते हैं, मंगलयान को इतनी दूर क्यों भेजा गया? रामपुर के जंगलों में ही भेज देते. इस पर सोनिया गांधी कहती हैं, जंगल में? राहुल बोले, हां, जंगल में ही मंगल होता है न.’

एक और चुटकुला देखिए-

‘राहुल गांधी और उमर अब्दुल्ला झारखंड और जम्मूकश्मीर के चुनावों के बाद मिले तो राहुल ने पूछा, अब तुम क्या करोगे? उमर ने कहा, वही जो तुम पिछले 10 महीने से कर रहे हो. राहुल बोले, अच्छा तो चल फिर छोटा भीम और डोरेमौन देखते हैं.’

एक चुटीला चुटकुला और देखिए-

‘सुना है राहुल गांधी को कांग्रेस का सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुना जाएगा. कांग्रेसी इस के बाद भले ही देशभर में मोतीचूर के लड्डू बांटें पर यह तय है कि हलवाई के पैसे का भुगतान तो भाजपा ही करेगी.’

आजकल राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने की बात चल रही है और माना जा रहा है कि इस के बाद बंटाधार तय है.

हर हिंदू महिला द्वारा 5 बच्चे पैदा करने को ले कर मजाक जारी है. भाजपा सांसद और हिंदूवादी नेता साक्षी महाराज ने हिंदू औरत को 5 बच्चे पैदा करने की बात कही थी. विश्व हिंदू परिषद के नेता प्रवीण तोगडि़या 10 बच्चों की नसीहत दे रहे हैं. इसी विषय पर आम आदमी पार्टी को छोड़ कर हाल में भाजपा में आईं शाजिया इल्मी पर सोशल मीडिया पर जोक चल रहा है-

‘मुझे तो 10 बच्चों की बात भा गई, इसलिए मैं बीजेपी में आ गई-शाजिया इल्मी.’

इसी को ले कर नारे भी गढ़ लिए गए हैं, ‘अब की बार, मोदी सरकार, हर औरत के बच्चे चार.’

कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह द्वारा इस उम्र में एक युवा टैलीविजन एंकर से की गई शादी पर कई जोक जनता में लोकप्रिय हैं. इन में एक है-

‘केजरीवाल ने ‘नायक’ फिल्म को गंभीरता से देखा. मनमोहन सिंह ने ‘पुष्पक’ फिल्म को और दिग्विजय सिंह ने ‘चीनी कम’ फिल्म को अधिक गंभीरता से देखा.’

मनमोहन सिंह शासन के घोटालों और उन की सोनियाभक्ति पर भी व्यंग्यबाज उन्हें आईना दिखाने से नहीं चूके-

‘मनमोहन सिंह जब अपनी आत्मकथा लिखेंगे तो उस का शीर्षक होगा, 3 मिस्टेक्स औफ माई लाइफ,  2जी, 3जी और सोनियाजी.’

दलबदल और सिद्धांत परिवर्तन पर किरण बेदी को निशाने पर लिया गया है, ‘अन्ना हजारे, आप भ्रष्टाचार को खत्म करो, आंदोलन जारी रखो, मैं बीजेपी में हो कर आती हूं.’

इन्हीं पर एक और चुटकुला है-

‘जब कोई नौनवेज से दूर रहने का उपदेश देने वाला संत आदमी केएफसी में बटरचिकन खाने जाता है तो वह किरण बेदी कहलाता है.’

 भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी पिछले काफी समय से रुष्ट नजर आते हैं. इसी को ले कर किसी ने सोशल मीडिया पर लिखा है, ‘जब आडवाणीजी पैदा हुए तो डाक्टर ने कहा कि रूठा हुआ बालक पैदा हुआ है.’

राजनीतिबाजों पर जोक बहुत पहले से चले आ रहे हैं. जवाहर लाल नेहरू पर उन के जमाने में चुटकुले चलते थे. अखबारों में वे कार्टूनिस्टों के निशाने पर होते थे. लेकिन नेहरू उन कार्टूनों पर हंसते थे और कार्टूनिस्टों को बुला कर प्रोत्साहित करते थे कि वे इसी तरह उन की खामियां बताते रहें. राजीव गांधी की नासमझी पर भी जोक बड़े पौपुलर रहे हैं. एक बार राजीव गांधी किसानों की सभा को संबोधित कर रहे थे. उन दिनों देश में लालमिर्च की कमी चल रही थी, भाव आसमान छू रहे थे. इस पर राजीव गांधी किसानों से कह बैठे कि आप लोग हरीमिर्च की जगह लालमिर्च की बुआई अधिक करें तो यह कमी दूर हो सकती है.

देश के प्रधानमंत्री की इस समझ पर जनता के बीच हंसी छूटी और खूब तालियां बजीं पर फिर भी राजीव गांधी समझे कि उन्होंने किसानों और जनता के भले की कोई बहुत बढि़या बात कह दी है.

राजनीतिक चुटकुलों की चाहत जनता में बहुत बढ़ रही है. कई चुटकुले तो नेताओं में तिलमिलाहट उत्पन्न करने वाले होते हैं. जनता से किए वादे जब वे निभा नहीं पाते तो लोग व्यंग्य के बाण मारने से परहेज नहीं करते. असल में राजनीतिबाजों पर इस तरह के जोक्स उन की आंख खोलने के लिए काफी होते हैं. यह बात और है कि उन की आंख न खुले पर जनता के लिए ये चुटकुले किसी हथियार की तरह काम करने वाले होते हैं. सोशल मीडिया में नेताओं पर ऐसे बहुत तीर चलाए जा रहे हैं. नेताओं पर जब किसी का वश न चलता हो तो उन पर व्यंग्यबाणों की बरसात करें. यह उन से बदला लेने का एक स्वस्थ साधन है. लोग चुटकुले हंसीमजाक के जरिए नेताओं को उन का फर्ज याद दिलाते रहते हैं. कई जोक तो बहुत उद्देश्यपूर्ण होते हैं.

इंटरनैट पर लगातार आ रहे व्यंग्यबाणों ने यह तय कर दिया है कि हर नेता को आईना दिखाना है. नेता लोग आमतौर पर खुद का मजाक उड़ाया जाना पसंद तो नहीं करते पर बड़ी संख्या में आम लोग उन की कमियों पर हंसहंस कर लोटपोट होते रहते हैं. ऐसे चुटकुलेबाजों का कहना है कि हंसने पर कोईर् रोकटोक नहीं है. हंसने के लिए कोई कानून भी नहीं है. हंसने पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता. हंसीमजाक के रूप में कही गई बातों की पहुंच बहुत व्यापक और संवेदनाओं के विभिन्न स्तरों को छूने वाली होती है. यह अच्छी बात है कि हमारे राजनीतिबाज चुटकुलों का बुरा नहीं मानते. इस हिसाब से देश के राजनीतिबाजों में कम से कम इस मामले में एक परिपक्वता है जो बहुत आवश्यक है.

राजनीति और राजनीतिबाजों पर तमाम तरह के चुटकुलों को ले कर एक प्रश्न यह है कि क्या समाज उन का मजाक बना कर उन्हें महत्त्वहीन बना रहा है? नहीं, इस का मकसद लोगों को राजनीति और नेताओं से विमुख करना नहीं, उन्हें रास्ता दिखाना है. गंभीरता से कही गई कोई बात यदि हंसीमजाक के माध्यम से कही जाए तो वह ज्यादा प्रभावी मानी जाती है. समाज में हास्यबोध का होना बहुत जरूरी है. जो समाज हास्यबोध से सराबोर है उस में छोटीमोटी बातों पर लड़ाई, झगड़े, कलह बहुत कम होते हैं. ऐसा परिवार जहां बातबात में हास्य के फौआरे छूटते हैं उस में वास्तविक आनंद और जिंदादिली होती है.

लेकिन अब समाज, परिवार में हास्य हाशिए पर खिसकता जा रहा है. अब बहुत कम लोग रह गए हैं जो खुद की बेवकूफियों पर हंसते हैं. खुद का मजाक उड़ाना सब से बड़ा काम है, औरों का मजाक तो कोई भी बना लेता है. हमारे नेताओं में अब बिरला ही कोई है जो अपनी खामियों को सार्वजनिक तौर पर बखान कर जनता को हंसाता है. राजनीतिबाजों ने जनता को और कुछ दिया हो या न, पर हंसने के लिए उन की बेशुमार खामियां उपलब्ध हैं. नेताओं पर चुटकुले स्वस्थ, मर्यादित और उन की आंखें खोलने वाले हैं, यह सकारात्मक बात है. 

ऐसा भी होता है

हम लोग अपने एक मित्र से मिलने उन के घर गए. वे घर पर नहीं थे. पता चला अचानक उन की तबीयत खराब हो गई थी. उन्हें दिल्ली के एक हौस्पिटल में ऐडमिट किया गया था. हम सब बहुत चिंतित हुए. लंबे समय के बाद वे स्वस्थ हो कर वापस आए. हम मिलने गए. उन्होंने अपनी बीमारी का कारण शुगर का बढ़ जाना और हीमोग्लोबिन का बहुत कम हो जाना बताया. वे कहने लगे, बहुत से लोगों ने उन्हें डाइबिटीज से छुटकारा दिलाने के उपाय बताए. किसी ने मेथी का तो, किसी ने करेले का सेवन करने को कहा. किसी ने बोगनवेलिया (फूल) के पत्ते को रोज चबाने को कहा और एक अन्य हितैषी ने तो शर्तिया इलाज बताते हुए कहा, ‘मैं जो कहता हूं वह कीजिए, बीमारी का नामोनिशान नहीं रहेगा. सदाबहार फल को एक हफ्ते तक अपने पैर के नीचे रखिए फिर देखिए इस का चमत्कार.’ उन्होंने सब की बातें मानीं. प्रतिदिन च्यवनप्राश, बादाम भी खाते रहे लेकिन फिर भी उन्हें डाक्टर और हौस्पिटल की शरण में जाना पड़ा.

नीरू श्रीवास्तव, मथुरा (उ.प्र.)

मेरी एक कमजोरी है. मेरे परिचितों के मुताबिक वह एक बीमारी है. उस बीमारी का नाम है, समय की पाबंदी. एक शादी के कार्ड में आशीर्वाद समारोह का समय रात 8 बजे से था. हम 1 घंटा देरी से यानी 9 बजे पहुंचे. दूल्हादुलहन अभी तक स्टेज पर पधारे ही नहीं थे क्योंकि दुलहन अभी पार्लर से ही नहीं आई थी और दूल्हे मियां भी तैयार ही हो रहे थे. हजार डेढ़ हजार लोगों का एकएक घंटा मिला लें तो भी डेढ़ हजार घंटे बरबाद हुए. लेकिन इस का किसी को भी कोई गिला नहीं था, ये सब तो चलता रहता है. भई, यह इंडियन टाइम है.

एक सगाई की रस्म का आयोजन दोपहर 4 बजे का था. मैं 1 घंटा देरी से यानी 5 बजे पहुंचा. सगाई हो चुकी थी. जलपान चालू था. सभी कहने लगे, ‘तुम तो समय के पाबंद हो. तुम ने आने में देर कैसे कर दी?’ अब मेरा सिर पीटने को मन कर रहा था. सही समय पर जाओ तो सिर्फ कैटरर्स मिलते हैं स्वागत करने के लिए. थोड़ा भी देरी से जाओ तो पता चलता है कि कार्यक्रम हो गया. आखिर करें तो क्या? लोग खुद तो समय का महत्त्व समझते नहीं और ऊपर से बदनाम करते हैं इंडिया को, ‘इंडियन टाइम’ कह कर. अरे, यह इंडियन टाइम है जो कभी सही नहीं रहता. अब आप ही बताइए, मेरी इस बीमारी का इलाज.

एस संजय कुमार, बेंगलुरु (कर्नाटक)

हास्यव्यंग्य का गिरता शटर

वैसे तो जब से मैं ने अपने इस लिखारीभिखारी दोस्त को देखा है तब से परेशान ही देखा है. उस ने पैदा होने के बाद कलम चलाने का बाप से हट कर धंधा चूज किया तो मैं ने बाप का ही मूंगफली की रेहड़ी लगाने का. उस की इसी कभी न सुधरने वाली गलती को देख कर मैं ने उसे फुल अपनापे से कई बार अनौपचारिक सलाह भी दी, ‘हे लिखारी दोस्त, बहुत हो ली साहित्यिक पत्रिका की मार्फत समाजसेवा के नाम पर यारदोस्तों से चंदे की ठगी. तू है कि किसी न किसी बहाने मक्खीचूस से मक्खीचूस दोस्तों को बहलाफुसला कर पत्रिका के सालभर के 12 अंकों के हिसाब से चंदा मार ही लेता है और अपनी पत्रिका के अंक लेदे कर 2 ही निकालता है, संयुक्तांक की चाल चल कर. अब ऐसा कर कि पत्रिका निकालनी बंद कर और इस से पहले कि वीपी चैक करने की मशीन के सारे आंकड़े पार कर जाएं, अपना बीपी चैक कर, उसे नौर्मल लाने की दवा खा. दवा के पैसे मेरी ओर से. इस वक्त भाभी को तेरी सब से अधिक जरूरत है, पत्रिका को नहीं.’

पर जो मान जाए वह पत्रिका का संपादक काहे का. सच कहूं, मैं ने अपनी जिंदगी में 2 ही हठी जीव देखे, एक मेरी पत्नी और दूसरा यह विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका का संपादक. अरे, उस में थोड़ी नमकमिर्च डाल फिर देख क्यों न बिके माल. पर नहीं, छपेगा तो विशुद्ध ही. अरे, लोगों को तो आज शुद्ध भी नहीं पच रहा. इधर, गलती से शुद्धवुद्ध सा कुछ खा लिया तो 2 घंटे बाद अस्पताल के बैड पर. ‘यार, अब के मेरा एक काम कर दे. बस, आगे से तेरा सहारा नहीं लूंगा,’ कह संपादक दोस्त ने कहीं से बैरंग लिफाफे में आए बेढंगदार व्यंग्य को घूरना शुरू किया.

‘देख दोस्त, मैं सबकुछ करूंगा पर अब के अपनी मूंगफली रेहड़ी का विज्ञापन तेरी पत्रिका के हास्यव्यंग्य विशेषांक को नहीं दूंगा. बहुत हो ली मूंगफली बेच साहित्यसेवा. सच कहूं, तेरी जगह मैं होता न, तो आज समाज को जगाने के बदले कभी का अपनेआप जाग जाता और ये बेकार का काम बंद कर कोई दूसरा काम शुरू कर देता.’ मैं एबीसी बापू हुआ तो वह मेरी ओर 50 साल पहले सा मुसकराता बोला, ‘बस यार, यही तो बेसिक कमी है मुझ में और तुझ में, कामरेड. तू चौथे दिन नया धंधा मजे से बदलने की फिराक में रहता है और मैं समाज को बदलने की फिराक में.’

‘सो तो ठीक है पर…’

‘पर क्या? अच्छा, मेरी पत्रिका को अपनी मूंगफलियों का विज्ञापन न देना हो तो मत देना. अब के होली व्यंग्य विशेषांक तो हर हाल में छपेगा ही छपेगा, होली आए न आए. पर बुरा मत मानना, इस वक्त समाज को तेरी मूंगफलियों की उतनी जरूरत नहीं जितनी हास्य की है, व्यंग्य की है. मेरे दोस्त, आज आम आदमी की जिंदगी में हास्य बचा ही कहां है? बेचारा सुबह तनाव में जागता है और सारा दिन तनाव झेलताझेलता मारकाट की खबरें पढ़ता, सुनता सो जाता है.

‘टीवी, अखबार वाले बिन हंसे, हंसाने की कोशिश करतेकरते थक गए कि भैया, खुद नहीं हंस सकते तो हमारी नकली हंसी देख, पढ़ कर ही हंस लो. पर नहीं, टीवी पर प्रायोजित हंसी हंसने वाला सीरियल भी यों देखते हैं मानो कोई ट्रेजडी देख रहे हों. पत्रिकाओं में छपे हास्यव्यंग्य को ऐसे घूरते हैं जैसे परियों को हंसाने की बात हो रही हो. हम जैसे तो तुम जैसे लोगों को हंसाने की कोशिश खुद उदास रह बहुत करते हैं, पर असल में क्या होता है? कुछ नहीं. आज का जीव जब अपने समाज में पैदा होता है, अपना लाइफटाइम ह्यूमर तो जैसे ऊपर ही छोड़ आता है. व्यंजना तो छोडि़ए, अगर किसी से लक्षणा में भी बात करो तो ऐसे घूरता है जैसे चीनी में बात कर रहे हों.’

‘तो?’ लगा उस के भीतर का राइटर कम फाइटर अधिक जागने लगा था.

‘तो क्या? बस, तब तक घर के बरतन तक बेच पत्रिका का हास्यव्यंग्य विशेषांक निकालता रहूंगा जब तक एक भी बंदे को मैं हंसा न पाया, समझा न पाया. जिस दिन मेरी पत्रिका में छपे हास्यव्यंग्य से एक भी बंदा हंसा न, तो समझना मेरा पत्रिका निकालना सार्थक हुआ,’ कह दोस्त दूसरे बैरंग लिफाफे में आई अज्ञात विधा की रचना की ओर लपका. पर जब लिफाफा खोल कर देखा तो कमबख्त कविता निकली, और वह भी असफल प्रेम की. तो उस का चेहरा देखने लायक था.

‘तो मुझे क्या आदेश है, हे घर के बरतन बेच समाजजगाऊ धकाधक संपादक?’

‘यार, कल से 50 बैरंग लिफाफे खोल दिए पर पत्रिका के लिए व्यंग्य केवल 2 ही मिले, और वे भी लंगड़ेलूले. ऐसे में तू अगर अपनी मूंगफली की रेहड़ी का विज्ञापन पत्रिका के लिए दे भी दे तो भी…’ कह उस ने कन्याकुमारी से ले कर कश्मीर तक जितनी लंबी आह भरी तो मुझे न चाहते हुए भी कमबख्त के दुख में शामिल होना पड़ा.

‘तो?’

‘अगर कोई तेरी पहचान के व्यंग्यकार हों तो…’

‘मेरी रेहड़ी पर मुफ्त की मूंगफलियां खाने वाले लेखक आते तो बहुत हैं पर… कल पूछता हूं कि उन में व्यंग्यकार भी कोई है क्या भाई, पर मुझे उन में कोई व्यंग्यकार दिखता नहीं.’

‘कैसे?’

‘ऐसे कि उन में से किसी के शब्दों में तो छोडि़ए, चेहरे तक पर हासविलास नहीं होता. सभी सीधी सी बात भी मुंह बना कर यों करते हैं जैसे…’

‘तो?’

‘पर मैं ने उन से कभी पूछा नहीं कि कौन क्या लिखता है,’ मैं ने कहा तो लगा कि वह भीतर से टूट गया.

‘तो इस का मतलब?’

मैं ने कुछ देर सोचने के बाद हंसते हुए कहा तो उस की उखड़ी सांसें नौर्मल होने लगीं, ‘मित्र, मेरे एक साहित्य के होलसैलर मित्र हैं. उन के पास हर तीजत्योहार के हिसाब से रचनाएं कापियों में बंद तीजत्योहार आने के इंतजार में रहती हैं. कोई त्योहार, व्रत आए तो वे खुले में सांस लें. वे चुटकुले से ले कर फुटकुले तक सबकुछ लिखते हैं. एक ही माल से कोई भी बड़ी दुकान आजतक चली है जो साहित्य की चले? उन से दोचार धांसू हास्यव्यंग्य मंगवा लेंगे. तू भी खुश और होली भी खुश.’

‘तो उस से संपर्क कर 4-6 दमदार व्यंग्य मंगवा ले. इधर, जो रचनाएं आई हैं वे हास्यव्यंग्य पर ही हंसीमजाक हैं,’ कह वह मेरे पांव पकड़ने को हुआ तो मैं ने अपने पांव खींचते हुए कहा, ‘मित्र, माना, आजकल पुरस्कार हेतु ये सब जायज है पर सरस्वती का उपासक मूंगफली बेचने वालों के पांव नहीं छुआ करता.’

‘तो उस से अभी मेरे मोबाइल से पूछ,’ वह इतना उतावला कि… ‘बैलेंस है तेरे मोबाइल में?’ मैं ने लिखने की बीमारी से सुसज्जित का बीपी अपनी सभी सीमाओं को पार कर जाए, इस से पहले ही अपने तथाकथित साहित्य के होलसैलर लेखक मित्र को फोन किया.

‘कौन?’ उधर से पूछा गया.

‘अरे वही, जिस की रेहड़ी पर आप मूंगफली लेते 50 ग्राम हो, खा 100 ग्राम जाते हो.’

‘ओह, क्या हाल हैं?’ कह आवाज बिलकुल नहीं शरमाई, जो शरमाए वह कामयाब लेखक ही काहे का?

‘भैया जी, एक मुसीबत आन पड़ी है.’

‘क्या? कोई कवितासविता चाहिए का? होली पर 10 रचनाएं जाने को तैयार हैं. कहो तो 2-4 ऊपरनीचे कर तुम्हें भेज दूं. यार, बहुत मूंगफली खाई हैं तुम्हारी, तनिक कर्ज चुक जाएगा.’

‘नहीं, भैयाजी, एक 2-4 धांसू हास्यव्यंग्य चाहिए थे.’

‘व्यंग्य? अरे तुम व्यंग्यश्यंग कब से पढ़ने लगे? पागल होने का इरादा है का? पुलिस वाले ने हफ्तावसूली की जगह रोज वसूली शुरू कर दी क्या? कुछ और हलकाफुलका पढ़ो जो पढ़ने की लत लग ही ली है तो. अब तो लोग अपने पर हंसना तो छोडि़ए, कोरा हंसना तक भूल रहे हैं. अगर कोई गलती से हंसते हुए दिखता भी है तो ऐसे हंस रहा होता है मानो रो रहा हो. ऐसे में हास्यव्यंग्य पर स्याही, दिमाग, कागज खराब करना कहां की समझदारी है बबुआ? सच कहें तो अब हास्यव्यंग्य केन तो प्रतिबद्ध पाठिए रहे न पाठक.’

‘अपने एक…’ आगे कुछ कहता कि दोस्त ने कुछ भी न बताने का इशारा कर दिया.

‘देखो, भुजिए, कहानी मांगो तो अभी दे सकता हूं. उपन्यास मांगो तो कल ले लेना. कविताएं तो मेरे पास बेचारी बाहर निकल खुले में सांस लेने को बेचैन हैं. जितनी चाहे ले लो पर…’

‘पर साहब, हास्यव्यंग्य ही चाहिए थे.’

‘अरे बबुआ, कहा न, अब जिंदगी में वह सब जब रहा ही नहीं तो उसे लिख कर क्या करना? लिख भी लिया तो पढ़ेगा कौन? पढ़ भी लिया तो समझेगा कौन? कोई न समझा तो काहे की कलममारी? इधर जब से जीव ने हंसना छोड़ दिया, हास्यव्यंग्य वाले भी संन्यासी हो गए. कभीकभार कोई भूलाभटका किसी मैगजीन में दिख जाए तो दिख जाए.’

‘पर अपुन चाहते हैं कि जिंदगी से हास्यव्यंग्य गायब हो गया तो कम से कम पत्रपत्रिकाओं में तो बेचारा हास्यव्यंग्य जवान रहे ताकि आगे आने वाली पीढि़यां, जो कभी साहित्य के पन्ने पलटने का जोखिम उठाएं तो…’ मुझे लगा कि वह मुझे सुनने के बदले मुझे कोस रहा था. अंतत: होल सेलर ने जोर का ठहाका लगाया और फोन बंद कर दिया

‘अब?’ लिखारी भिखारी फिर परेशान.

‘अब क्या? जब साहित्य के होलसैलर के पास ही हास्यव्यंग्य नहीं, तो साहित्य की रेहड़ीफड़ी वालों के पास तो शायद ही. पर चलो, ट्राई करने में क्या जाता है?’ मैं ने कहा तो वह अपने दोनों हाथों से मेरा सिर थामने को उठा. मैं उठा और अपनी मूंगफली की रेहड़ी लगाने को चल दिया.

भारत भूमि युगे युगे

कोयले की आग

पूछताछ पुलिसिया हो या किसी भी सरकारी एजेंसी की, अच्छी तो कतई नहीं होती और अगर  यह पुचकार से शुरू हो तो हर कोई समझ जाता है कि अब आगे क्याक्या होगा. कोयला घोटाले में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से उन के घर जा कर सीबीआई अधिकारियों ने कथित तौर पर पूछताछ नाम की रस्म निभाई तो तय है कि इस चर्चित घोटाले का अंत बड़ा विध्वंसक व नाटकीय होगा. आमतौर पर चुप रहने में भरोसा करने वाले सज्जन व्यक्ति मनमोहन सिंह भी समझ रहे हैं कि उन पर शिकंजा कसा जा रहा है, अब बात और हालात पहले जैसे नहीं रहे. उन की राजनीतिक अभिभावक सोनिया गांधी खुद दामाद के भूमिप्रेम को ले कर संकट में हैं. ऐसे में सीबीआई के कदमों का उन के घर पर पड़ना शुभ संकेत तो कतई नहीं, जिस के जिम्मेदार पूर्व कोयला सचिव पी के पारेख हैं जिन्होंने एक कायदे की बात यह कह दी थी कि जो भी था, आखिरी फैसला तो प्रधानमंत्री ने लिया था. अब तो छानबीन इस पर हो रही है कि पहला फैसला किस ने लिया था.

चिंता या चेतावनी

तकरीबन 5 दशक राजनीति कर चुके राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की चिंता वाजिब है कि अध्यादेशों के जरिए कानून बनाना ठीक नहीं है. बात एकतरफा या पूर्वाग्रही न लगे, इस बाबत उन्होंने सभी दलों की संयुक्त खिंचाई की. अध्यादेश कांग्रेस सरकार के जमाने में भी आते थे और खूब कानून भी उन के जरिए बने. भाजपा सरकार ने तो अभी यह खेल खेलना शुरू ही किया है. जैसे सरकारी दफ्तरों में बाबुओं और साहबों की टेबलों पर फाइलों का अंबार लगा रहता है वैसे ही संसद से राष्ट्रपति भवन तक अध्यादेशों का कागजी पहाड़ खड़ा रहता है. इन फाइलों की तरह अध्यादेश बताते हैं कि सरकार काम कर रही है. सभी ने प्रणब मुखर्जी की चिंता का स्वागत कर उसे खारिज कर दिया. अब अध्यादेश रहित संसद की कल्पना कोई कैसे करे.

फिर टोपी पुराण

बतौर केंद्रीय मंत्री नजमा हेपतुल्ला कतई खरी नहीं उतरी हैं पर बहैसियत एक मुसलिम चेहरा, वे जरूर भाजपा के काम की हैं. मंत्रिमंडल के पिछले फेरबदल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें यह सोचते बने रहने दिया कि जैसा है चलने दो, यह काम तो कभी भी किया जा सकता है. मोदी का शुक्रिया अदा करते नजमा ने लालू और नीतीश कुमार पर यह कहते निशाना साधने की नाकाम कोशिश की है कि ये लोग तो मुसलिम टोपी दिखावे के लिए पहनते हैं, उस की इज्जत नहीं करते. लेकिन लोगों का ध्यान बजाय इन दोनों के, मोदी की तरफ गया जिन्होंने कभी मुसलिम टोपी पहनने से इनकार कर बवाल खड़ा कर दिया था. इस बात के माने नजमा की निष्ठा ही नहीं बल्कि धर्म के नाम पर बेवजह बवाल मचाना है जिस की कोई तुक नहीं.

झूठा हीरो

डेरा सच्चा सौदा के मुखिया स्वयंभू भगवानों में से एक राम रहीम ने अपनी फिल्म ‘मैसेंजर औफ गौड’ के प्रदर्शन को ले कर खासा बवाल मचवा डाला. राम रहीम जो भी है बड़ा दिलचस्प आदमी है. जिन चमत्कारों का झांसा दे कर अरबों रुपया बनाया उन्हीं को कहानी में पिरो कर अब और ज्यादा कमाने का कमाल भी कर रहा है. इस युवा और ऐयाश बाबा ने जो देखा और भोगा उस की पोल खोल दी तो ऐसा लगा मानो चंबल का कोई डाकू आत्मसमर्पण करने की पेशकश कर रहा हो. इस पर दूसरे गिरोह स्वत: तिलमिलाए हुए हैं. भगवान और उस का दूत बनना हमेशा से ही मुनाफे का धंधा रहा है. इसे भुनाने के लिए राम रहीम ने कोई मौका और तरीका नहीं छोड़ा.

विज्ञान कोना

दिमाग में हैं जीपीएस

आज हम कहीं भी पहुंचने के लिए टैक्नोलौजी के शुक्रगुजार हैं, जिस में गूगल मैप और जीपीएस सब से बड़ा रोल निभाते हैं. लेकिन जब ये चीजें नहीं थीं या जो आज भी इन का इस्तेमाल नहीं करते हैं वे सही चीजों को कैसे याद रखते हैं. सवाल यह है कि क्या इंसान के दिमाग में कोई आंतरिक जीपीएस है? इस पर रिसर्च हुई और वैज्ञानिकों ने अहम जानकारियां जुटाई हैं.  1960 के अंत में एक रिसर्च हुई कि दिमाग कैसे किसी चीज को याद रखता है और चूहे भूलभुलैया के रास्तों को कैसे पहचानते हैं. इस में देखा गया कि चूहे अलगअलग जगह पर जाते थे तो उन की अलगअलग विशिष्ट तंत्रिका कोशिका ऐक्टिव होती थीं. इस से उन के दिमाग में ‘प्लेस सैल’ जगह का पता चला.

इस के बाद चूहों के दिमाग में प्लेस सैल को सक्रिय करने वाले संकेतों का पता लगाया गया. इन संकेतों का कंप्यूटर से विश्लेषण किया गया और उन के हिलनेडुलने से एक नक्शा बना. इस के बाद चूहों के दिमाग के एक हिस्से को सुन्न किया गया और देखा कि उसे संकेत कहां से आते हैं. चूहों को जहां छोड़ा गया था वह जगह षट्कोणीय नहीं थी पर उन के दिमाग में संकेत इसी पैटर्न पर आते थे. यह दिमाग की भाषा का एक कोड है, जिस का इस्तेमाल चूहों ने रास्ता ढूंढ़ने के लिए किया. दूसरी चौंकाने वाली बात यह थी कि षट्कोणीय ग्रिडों के कोनों के बीच बढ़ती दूरी हर पौइंट पर एक निश्चित अनुपात में बढ़ रही थी. वैज्ञानिकों का कहना है कि यह अनोखी खोज है कि दिमाग इतने सरल गणित का इस्तेमाल करता है. इस का मतलब है बच्चे, चूहे या इंसान जिस जगह पर रहते हैं उन के दिमाग में शुरू में ही एक खाका बन जाता है, जो धीरेधीरे विकसित होता है.

कैसे सही बैठते हैं अनुमान

आप ने स्टेज शो, टीवी पर अकसर ऐसे मजेदार गेम्स देखे होंगे जिन में एक डब्बे में 3-4 रंगों की गेंदें डाल कर हिलाई जाती हैं और फिर पूछा जाता है कि पहले कौन से रंग की गेंद निकलेगी? इस तरह के सही अनुमान को प्रोबैबिलिटी का मैथ्स या समझ कहते हैं. कई के मुताबिक यह समझ पैदायशी होती है तो कई इसे पढ़ाई का नतीजा मानते हैं. 2013 के एक शोध से पता चला कि वनमानुष भी अनुमान लगा सकते थे. इसी तरह एक शोध में पता चला कि 1 साल में बच्चों में भी एक हद तक अनुमान लगाने की क्षमता विकसित हो जाती है. ऐसा ही एक टैस्ट साउथ अफ्रीका के उस समुदाय के लोगों पर किया गया जिन्हें गणित या कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी. इस में उन का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा और गेंदों के रंग बदलने पर उन्होंने अपने अनुमान भी बदले. इस से कहा जा सकता है कि अनुमान लगाने की क्षमता कुछ हद तक नैसर्गिक भी होती है.

लैब में बना लिवर

अब मनुष्य को बाहरी ही नहीं, आंतरिक कृत्रिम अंगों को प्राप्त करने के लिए ज्यादा आपाधापी नहीं करनी पड़ेगी. वैज्ञानिकों ने स्टैम सैल्स की मदद से लैब में लिवर का एक छोटा संस्करण बनाने में सफलता हासिल कर ली है. शुरुआत इंसान के स्टैम सैल्स से की और उन्हें उन चरणों से हो कर गुजारा जो भ्रूण के विकास में नजर आते हैं. एक हौस्पिटल ने स्टैम सैल्स ले कर उन्हें डैवलप किया और जरूरी परिस्थितियां उपलब्ध कराईं, जो भ्रूण में लिवर बनने के लिए जरूरी होती हैं. सैल्स जब 3 दिन के थे तब उन्हें प्रोटीन के एक मिश्रण में रखा गया. 9 दिनों के बाद कोशिकाओं को प्रोटीन के रस में छोड़ दिया गया. 34वें दिन अंगाणु बने, उन में न तो ब्लड सैल्स थे और न ही प्रतिरक्षा कोशिकाएं. इन अंगाणुओं में पित्त का निर्माण करने की क्षमता नहीं थी, लेकिन ग्रंथियों की संरचना नैचुरल लिवर जैसी थी. इस शोध का इस्तेमाल कई अन्य परीक्षणों के लिए किया जा सकता है. लिवर के मुंह के संक्रमण अल्सर, कैंसर का कारण बनते हैं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें