बीते साल जब मशहूर हास्य कलाकार रौबिन विलियम्स ने खुदकुशी की तब किसी ने हास्य कलाकारों को ले कर बेहद दिलचस्प और अजीबोगरीब धारणा प्रस्तुत करते हुए कहा था कि दुनियाभर के कलाकारों, खासतौर से हास्य कलाकारों की मौत आकस्मिक और तनावग्रस्त परिस्थितियों में होती है. कितनी अजीब बात है कि परदे पर दुनिया को हंसाने वाले ज्यादातर हास्य कलाकार या तो चार्ली चैपलिन, भगवान दादा व महमूद जैसे मुफलिसी या तनाव में अपना आखिरी वक्त काटते हैं या फिर रौबिन की तरह मौत को गले लगा लेते हैं. इन दिनों टीवी और सिनेमा पर दिखाया जाने वाला हास्य भी लगता है मुफलिसी और डिप्रैशन की गिरफ्त में है. इसीलिए मनोरंजन के माध्यमों से हास्य लगभग गायब हो चुका है.

ज्यादातर शो या तो किसी पुरुष कलाकार को भौंडी महिला के गैटअप में पेश कर मजाक के नाम पर अश्लीलता परोसते हैं और बाकी सीनियर कलाकारों की मिमिक्री की आड़ में उन्हीं की बेइज्जती करने में मसरूफ दिखते हैं. फिल्मों की बात तो मत ही कीजिए, वहां तो हंसाने के लिए किसी किरदार को अंधा या लूलालंगड़ा बना कर उस की अपंगता से उपजी विसंगतियों पर हंसने को कहा जाता है. या फिर किसी महिला की साड़ी का पल्लू नीचे खिसका कर हंसाने की बेहूदगीभरी कोशिश की जाती है. बड़ा सवाल है कि आखि?र क्यों टीवी और फिल्मों पर सामाजिक सरोकारों से भरे हास्य की कमी होती जा रही है? आइए, जवाब तलाशते हैं.

हास्य के सामाजिक सरोकार

दुनिया में अगर किसी कलाकार ने हास्य को सामाजिक विसंगतियों के साथ सटीक ढंग से पेश किया है तो वे हैं चार्ली चैपलिन. चार्ली ही अकेले हास्य कलाकार थे जिन्होंने हास्य का ऐसा स्वरूप रचा, जिस में विनोद के साथसाथ संवेदनशीलता, विचार, व्यंग्य और कू्रर व्यवस्था पर प्रहार था. उन की बनाई लगभग सारी फिल्में समाज के वंचित तबके की आवाज को हास्य की चाशनी में लपेट कर प्रस्तुत करती हैं. उन्हीं की बनीबनाई छवि की नकल कर राज कपूर ने भारत से रूस तक लोकप्रियता हासिल की. उन की फिल्मों में दी ग्रेट डिक्टेटर, दी गोल्ड रश, मौडर्न टाइम्स, सर्कस ऐसी ही हैं जो व्यवस्था के मारे लोगों की बेबसी को हास्य के सहारे सब तक पहुंचाती हैं.

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