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महायोग : 13वीं किस्त

अब तक की कथा :

आगे की योजना तैयार करने के लिए धर्म दिया को अपने घर ले आया. धर्म के घर आ कर दिया ने धर्म से पासपोर्ट दिखाने के लिए कहा. धर्म ने घरभर में पासपोर्ट तलाश कर लिया परंतु कहीं नहीं मिला. दिया को फिर से धर्म पर संदेह होने लगा. दोनों ने मशवरा किया और भारतीय दूतावास जाने का फैसला कर लिया. अब आगे…

रातभर दिया उनींदी रही. शरीर थका होने के कारण उसे बुखार भी आ गया था. धर्म का दिमाग बहुत असहज और असंतुलित सा था. कहीं ईश्वरानंद की सीआईडी तो उस के पीछे नहीं है?अचानक फोन की घंटी टनटना उठी. घबराते हुए धर्म ने फोन उठाया. दूसरी तरफ नील की मां थीं.

‘‘जी, क्या बात है, रुचिजी?’’

‘‘धर्मानंदजी, दिया को अभी यहां ले कर मत आना. नील के साथ नैन्सी भी आज यहां पहुंच गई है. बड़ी मुश्किल हो जाएगी,’’ वे काफी घबराई हुई थीं.

‘‘नैन्सी तो जानती है कि कोई मेहमान आई हुई हैं आप के यहां,’’ धर्म ने उन्हें उन के ही जाल में लपेटने का प्रयत्न किया.

‘‘आप नहीं जानते, मेरे लिए बड़ी मुश्किल हो जाएगी. आप उसे अपने पास ही रखिए. मैं आप को बताऊंगी, उसे कब यहां लाना है.’’

बेशक कुछ समय के लिए ही सही, पर धर्म व दिया के रास्ते का एक कांटा तो अपनेआप ही हट रहा था.

तेज बुखार के कारण दिया शक्तिहीन सी हो गई थी. धीरेधीरे चलती हुई वह रसोई में आ कर धर्म के पास बैठ गई.

‘‘धर्म, अब हमें एंबैसी चलना चाहिए. देर करने का कोई मतलब नहीं है,’’ दिया ने कहा.

‘‘पर दिया, तुम इस लायक तो हो जाओ कि थोड़ा चल सको. एक तो कल से तुम ने कुछ ठीक से खाया नहीं है, दूसरे, बुखार के कारण और भी कमजोर हो गई हो.’’

‘‘मुझे वहां कोई चढ़ाई थोड़े ही चढ़नी है, धर्म? एंबैसी में जल्दी पहुंच सूचित करना बेहद जरूरी है.’’

अचानक ही धर्म की दृष्टि कांच की खिड़की से बाहर गई और वह हड़बड़ा कर रसोई से निकल कर ड्राइंगरूम की ओर भागा. दिया को कुछ समझ में नहीं आ रहा था. किसी ने धीरे से दरवाजे पर खटखट की थी. आंखें खोल कर जब दिया ने इधरउधर दृष्टि घुमाई तो धर्म का कहीं अतापता नहीं था. वह डर गई. अचानक धर्म आया और  होंठों पर हाथ रख कर उस ने दिया को चुप रहने का संकेत भी किया. संकट को देखते हुए धर्म ने पुलिस को फोन कर दिया था.

एक बार फिर खटखट हुई. अब धर्म ने जा कर दरवाजा खोला व आगंतुकों को ले कर अंदर आ गया.

‘‘दरवाजा खोलने में इतनी देर क्यों हुई, धर्मानंदजी?’’

आगंतुकों में एक तो उस के चेले के समान रवींद्रानंद यानी रवि था और दूसरा पवित्रानंद, जो धर्म से काफी सीनियर था.

‘‘क्या बात है? यहां कैसे?’’ धर्मानंद ने सहज होने का प्रयास किया.

उसे शक तो था ही परंतु मन में कहीं भ्रांति भी थी कि वह ईश्वरानंद से कह कर, उन्हें बता कर आया था इसलिए शायद…

‘‘आप ने गुरुजी को इन्फौर्म भी नहीं किया? वे परेशान हो रहे हैं. आप को समझना चाहिए कि उन्हें आप की और दियाजी की कितनी चिंता है. एक तो आप कल के फंक्शन में से गायब हो गए और दूसरे…खैर, गुरुजी बहुत परेशान हो रहे हैं.’’

‘‘गुरुजी को फोन पर, इन्फौर्म कर देते,’’ रवींद्रानंद ने फिर से अपना मुंह खोला.

धर्म उसे घूर कर रह गया था.

‘‘दियाजी कहां हैं?’’ पवित्रानंद ने सपाट प्रश्न किया.

‘‘रसोई में. गुरुजी जानते हैं वे मेरे साथ हैं. फिर परेशानी क्यों?’’ धर्म ने ऊंचे स्वर में कहा कि दिया सुन सके. परंतु पवित्रानंद आंधी की भांति रसोई में प्रवेश कर गया जहां दिया आंखें मूंदे कुरसी से गरदन टिका कर बैठी थी.

‘‘दियाजी,’’ पवित्रानंद ने धीरे से, बड़े प्यार से दिया को पुकारा.

दिया चौंकी, आंखें खोल कर देखा तो अचानक घबरा कर खड़ी होने लगी. उस का चेहरा पीला पड़ा हुआ था और वह बहुत अस्तव्यस्त दिख रही थी.

‘‘अरे बैठिए, आप बैठिए, मैं पवित्रानंद,’’ उस ने दिया के समक्ष नाटकीय मुद्रा में अपने दोनों हाथ जोड़ दिए.

भय के कारण दिया को दिन में ही तारे दिखाई देने लगे थे. अचानक पवित्रानंद ने दिया के माथे पर अपना हाथ घुमाया.

‘‘अरे, आप को तो बुखार है,’’ पवित्रानंद ने उसे सहानुभूति की बोतल में उतारने की चेष्टा की.

धर्म और रवींद्रानंद भी वहां आ चुके थे.

‘‘धर्म, आप ने बताया नहीं, दियाजी बीमार हैं?’’ पवित्रानंद के लहजे में शिकायत थी.

‘‘गुरुजी जानते हैं,’’ धर्म ने ठंडे लहजे में उत्तर दिया.

दिया की समस्या अभी अनसुलझी पहेली सी बीच में लटक रही थी जिस का जिम्मेदार कहीं न कहीं धर्म स्वयं को मान रहा था.

‘‘धर्म, चलो दिया को ले चलते हैं. गुरुजी ही ट्रीटमैंट करवा देंगे,’’ अचानक पवित्रानंद ने धर्म के समक्ष प्रस्ताव रख दिया.

‘‘पर, ऐसी हालत में?’’ दिया के स्वेदकणों से भरे हुए मुख पर दृष्टिपात करते हुए धर्म ने कहा.

‘‘कुछ देर और इंतजार कर लेते हैं, फिर चलेंगे. तब तक दिया भी कुछ ठीक हो जाए शायद.’’

‘‘कम से कम गुरुजी को सूचित तो कर दें,’’ कह कर पवित्रानंद ने अपना मोबाइल निकाल कर गुरुजी से बात करनी प्रारंभ की ही थी कि किसी ने दरवाजा खटखटाया.

‘‘प्लीज, ओपन द डोर,’’ बाहर से किसी अंगरेज की आवाज सुनाई दी.

‘‘कौन होगा?’’ पवित्रानंद ने जल्दी से बात पूरी कर के मोबाइल बंद कर अपनी जेब में डाल लिया.

एक बार फिर खटखट हुई

‘‘कौन होगा?’’

‘‘मैं कैसे बता सकता हूं? खोलना पड़ेगा न,’’ धर्म आगे बढ़ा और दरवाजा खोल दिया.

‘‘पुलिस…’’ रवींद्रानंद और पवित्रानंद दोनों चौंक उठे. वे धर्म की ओर प्रश्नवाचक मुद्रा में देखने लगे.

धर्म ने मुंह बना कर कंधे उचका दिए. वह क्या जाने भला. परंतु पवित्रानंद ने भी घाटघाट का पानी पी रखा था. उस के मस्तिष्क में घंटियां टनटनाने लगी थीं.

‘‘हू इज दिया?’’ लंबेचौड़े ब्रिटिश पुलिस पुरुषों के पीछे से एक खूबसूरत महिला ने झांका.

‘‘हू इज दिया?’’ प्रश्न एक बार फिर उछला.

दिया ने अपनी ओर इशारा कर के बता दिया कि वही दिया है.

‘‘ऐंड यू?’’ बारीबारी से तीनों पुरुषों के नाम पूछे गए.

कोई चारा नहीं था. गुरुजी के प्रिय भक्तों को अपना नाम बताना पड़ा. समय ही नहीं मिला था कि वे अपने लिए कोई झूठी कहानी गढ़ पाते. धर्म ने भी अपना नाम बताया. दिया अंदर से कुछ डर रही थी. धर्म की भी पोलपट्टी अभी खुल जाएगी. पर जब पुलिस ने धर्म से कुछ पूछताछ ही नहीं की तब दिया को आश्चर्य हुआ. वह चुप ही रही. महिला पुलिस मिस एनी ने दिया को सहारा दिया और ड्राइंगरूम में ले आई. दौर शुरू हुआ दिया से पूछताछ का. दिया काफी आश्वस्त हो चुकी थी. उस ने अपनी सारी कहानी स्पष्ट रूप से बयान कर दी. साथ ही पवित्रानंद व रवींद्रानंद की ओर इशारा भी कर दिया कि विस्तृत सूचनाओं का पिटारा वे दोनों ही खोल सकेंगे. एनी के साथसाथ बाकी पुलिस वाले भी बहुत सुलझे हुए थे. पुलिस वालों ने रवींद्रानंद और पवित्रानंद के मोबाइल भी जब्त कर लिए. अब तो भक्तजनों के पास कोई चारा ही नहीं रह गया था, कैसे गुरुदेव को सूचना दी जाए? दोनों जल बिन मछली की भांति तड़प रहे थे. संबंधित विभागों को सूचनाएं प्रेषित कर दी गई थीं. अप्रत्याशित घेराव के कारण ईश्वरानंद के चेलों के चेहरे के रंग उड़ गए थे, वे एकदूसरे की लाचारी देख कर मुंह पर टेप चिपका कर बैठ गए थे. निराश्रित से बैठे रेशमी वस्त्रधारियों के श्वेत वस्त्र धीरेधीरे झूठ व बदमाशी के धब्बों से मैले होते जा रहे थे और मुख काले. उन के नेत्रों में भयभीत भविष्य की तसवीर उभर आई थी.

चारों लोगों को 2 गाडि़यों में 2-2 पुलिसकर्मियों के साथ बांट दिया गया. एक गाड़ी नील के घर के लिए व दूसरी ईश्वरानंद के आनंद में विघ्न डालने के लिए निकल पड़ी थी. पुलिस वाले आपस में वार्त्तालाप कर रहे थे. उन्हें महसूस हो रहा था कहीं यह घटना वर्षों पूर्व घटित घटना का कोई हिस्सा तो नहीं हो सकती? एनी शीघ्र ही दिया से घुलमिल गई थीं. दिया ने धर्म के बारे में भी सारी बातें एनी को बताईं तो एनी धर्म से भी बहुत सहज हो गई थीं. पुलिसकर्मियों के मन में दिया व धर्म दोनों की छवि साफसुथरी लग रही थी. पुलिस ने जो कुछ भी धर्म से पूछा उस ने बड़ी ईमानदारी से सब प्रश्नों के उत्तर दिए थे. दिया तो सबकुछ बता ही चुकी थी, रहासहा सच उस ने गाड़ी में नील के घर की ओर आते हुए उगल दिया था. एनी ने उस से बिलकुल स्पष्ट रूप से पूछा था कि वह क्या चाहती है?

दिया ने बड़े सपाट स्वर में कहा था कि वह उन सब लोगों के लिए बड़ी से बड़ी सजा चाहती है जो धर्म के नाम पर देह का व्यापार कर के उस के जैसी मासूम लड़कियों का जीवन बरबाद करने में जरा सा भी संकोच नहीं करते. न जाने उन लोगों के हाथ कितनी मासूम लड़कियों के खून से रंगे हुए होंगे. दिया ने अपने विवाह से ले कर, नील के व्यवहार, मिसेज शर्मा की दकियानूसी बातें, अपने मानसिक उत्पीड़न के बारे में विस्तारपूर्वक खुल कर एनी से बात की थी. गाड़ी में बैठेबैठे ही काउंसिल जनरल औफ इंडिया से फोन पर बात कर ली गई थी. एनी ने दिया से उस के पासपोर्ट नंबर के बारे में पूछा, दिया को नंबर याद नहीं था. धर्म के मुख से निकल गया था कि पासपोर्ट और कहीं नहीं, ईश्वरानंद की कस्टडी में ही होगा. बातों ही बातों में रास्ता जल्दी ही कट गया.

कमजोरी के बावजूद दिया अंदर व बाहर से काफी स्वस्थ महसूस करने लगी थी. एनी ने दिया की पीड़ा महसूस की और उस के कंधे पर सहानुभूति भरा हाथ रख कर उसे आश्वस्त कर दिया. कुछ देर पश्चात पुलिस ने मिसेज शर्मा के घर पर दस्तक दे दी. दरवाजे की आवाज से मिसेज शर्मा चौंक उठीं. ड्राइंगरूम में तिगड़ी जमी हुई थी. नील, नैन्सी और रुचिका यानी मिसेज शर्मा. तीनों सोफों पर जमे पड़े थे. खैर, दरवाजा खोलने वे ही आई थीं, चहकती सी. धर्मानंद को देखते ही उन की चहकन को ब्रेक लग गया, दिया भी मुंह बनाए साथ ही खड़ी थी.

‘‘धर्मानंदजी, क्या कहा था मैं ने आप से?’’ उन की स्नेहमयी मुद्रा अचानक  रौद्रमयी मुद्रा में परिवर्तित हो उठी, जैसे उन की पीठ पर चाबुक पड़ गया हो.

दरवाजे के बाहर से ही ड्राइंगरूम के दृश्य के स्पष्ट दर्शन हो रहे थे. धर्म उन की बात का कुछ उत्तर दे पाता, इस से पहले ही पुलिसवर्दी में 1 पुरुष व 1 महिला ने धर्म और दिया के पीछे से अपने गोरे मुखड़ों के दर्शन दे दिए. पुलिस वालों को देखते ही उस की रौद्रमयी मुद्रा की घिग्गी सी बंध गई. वे न तो कुछ बोल पाईं और न ही नील को पुकार पाईं. उन के पैर लड़खड़ाने लगे और वे लगभग गिरने को हुईं कि महिला पुलिस ने उन्हें अपनी मजबूत बांहों में थाम लिया और एक के बाद एक सब ने ड्राइंगरूम में प्रवेश किया, जहां प्रणय में डूबा हंसों का जोड़ा किल्लोल कर रहा था. कमरे में कदमों की आहट सुन कर हंसों का जोड़ा बिदक गया.

‘‘धर्म, ह्वाट इज दिस? ऐंड यू?’’ नील ने दिया की ओर इशारा किया.

नील का वाक्य पूरा होने से पहले ही सब लोग कमरे में प्रवेश कर चुके थे और चुपचाप नैन्सी व नील के सामने वाले सोफे पर निश्चिंतता से बैठ चुके थे. कोई कुछ भी समझ पाने की स्थिति में नहीं था. मानो कोई चलचित्र सा सब की दृष्टि के आगे चल रहा था. सब से पीछे नील की मां को थामे एसीपी एनी कमरे में पहुंच गईं और उन्होंने उन्हें एक कुरसी पर लगभग लिटा सा दिया था.

अब एनी के हाथ में दूसरे पुलिसकर्मी ने पैन और कागज देने चाहे. एनी ने उस को ही लिखने का इशारा किया और स्वयं चारों ओर का जायजा लेने लगीं.

‘‘हाऊ मैनी मैंबर्स आर हियर?’’

‘‘थ्री,’’ नील ने नैन्सी को आलिंगन मुक्त कर दिया था.

‘‘नेम आफ द मैंबर्स?’’

‘‘मिसेज रुचिका शर्मा, नील शर्मा ऐंड दिया शर्मा,’’ नील फटाफट बोल गया.

‘‘इज शी दिया?’’ पुलिसमैन ने नैन्सी की ओर इशारा कर के पूछा.

‘‘नो.’’

‘‘हू इज शी?’’

‘‘शी इज नैन्सी.’’

‘‘शी इज योर वाइफ?’’

‘‘नो, शी इज माय गर्लफ्रैंड.’’

‘‘हू इज दिया?’’

‘‘दिया, दैट गर्ल,’’ नील ने दिया की ओर इशारा किया.

‘‘हू इज शी? इज शी योर सिस्टर?’’

‘‘नो, शी इज अवर गैस्ट फ्रौम इंडिया.’’

‘‘इज शी स्टेइंग हियर?’’

‘‘यस.’’

‘‘वी वौंट टू सी हर पासपोर्ट.’’

नैन्सी का इश्क काफूर हो गया था. नील और उस की मां की सांसें रुकने लगीं. जिस धर्म पर वे लोग हमेशा अपने एहसानों की गठरी लादे रखते थे, आज उसी ने उन की पीठ पर वार किया था. मिसेज शर्मा के दिमाग में भन्नाहट भर उठी थी. तभी नील मुड़ कर फोन उठाने लगा, ‘‘नो, नो कौल प्लीज,’’ पुलिस वाले ने नील के हाथ से फोन ले लिया.

‘‘इट्स अर्जेंट,’’ नील ने कहा.

दोनों पुलिसकर्मियों ने एकदूसरे की ओर देखा और इशारों से बात कर के आखिरकार उसे फोन करने की इजाजत दे दी. वे दोनोें ही नहीं बल्कि धर्म व दिया भी जानते थे कि नील इस समय किस से बात करना चाहता है.

‘‘यस,’’ नील के डायल करते ही उधर से रोबीली आवाज आई. यह वह आवाज तो नहीं थी जो उस का उद्धार कर पाती.

उस ने फिर से कहा, ‘‘हैलो.’’

‘‘यऽऽऽ..स,’’ फिर वही भारी आवाज.

नील के मस्तिष्क को उस आवाज ने मानो ट्रैप कर लिया. माजरा क्या है? उस की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था. वह तो गुरुजी का पर्सनल फोन था जिस को उठाने की इजाजत स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश को भी नहीं थी. एक बार फिर ट्रायकरने के चक्कर में नील ने फिर से रिडायल का बटन दबा दिया.

‘‘मे आय टौक टू गुरुजी, प्लीज,’’ निहायत डरतेडरते उस ने पूछा.

‘‘नो, यू कांट,’’ फिर वही रोबीली आवाज.

‘‘हू इज दैट साइड?’’

‘‘दिस इज इंस्पैक्टर जौर्ज, हू इज देयर?’’

यह सुनते ही नील को काटो तो खून नहीं. उस के हाथ कंपकंपाने लगे. उस ने चुपचाप रिसीवर रख दिया और धर्म को घूरने लगा.उधर, नैन्सी के चेहरे पर भी हवाइयां उड़ रही थीं. कहां तो वह नील की मां को पोते का प्रलोभन दे कर उसे ब्लैकमेल करने लगी थी, कहां वह स्वयं इस पुलिसवुलिस के चक्कर में फंस रही है. 

‘‘नील, आय वौंट टू गो फ्रौम हियर,’’ नैन्सी अचानक अपना बैग समेट कर खड़ी हो गई.

‘‘नो, यू कांट गो फ्रौम हियर,’’ एनी ने बड़े स्पष्ट व सपाट स्वर में उस की बात काट दी.

‘‘बट, आय एम नौट द फैमिली मैंबर. आय एम जस्ट ए फ्रैंड औफ नील,’’ उस ने स्वयं को बरी करने का प्रयास किया.

‘‘मैम, यू आर प्रेजेंट हियर, यू कांट गो. एवरीबडी हैज टू बी पे्रेजेंट ऐट द पुलिस स्टेशन,’’ एनी ने बड़े धीरज मगर सख्ती से उसे समझाने का प्रयास किया.

‘‘बट…ह्वाय शुड आय? आय हैव नो कनैक्शन विद द फैमिली,’’ वह लगभग चीखी.

‘‘डोंट वरी, आफ्टर सम इन्क्वायरीज यू वुड बी रिलीव्ड, नो प्रौब्लम,’’ एनी ने उसे कंधों से पकड़ कर बड़े आराम से सोफे पर बिठा दिया.

नैन्सी बेचारी रोने को हो आई. खूबसूरत नैन्सी के गुलाबी मुखड़े पर बेचारगी पसर आई थी. निकलने का कोई रास्ता ही नजर नहीं आ रहा था. बुरी फंसी. भुनभुन करती हुई वह कभी नील को तो कभी उस की मां को घूरने लगी. मिसेज शर्मा का तो और भी बुरा हाल था. वे कभी दिया, कभी धर्म तो कभी नैन्सी को घूरे जा रही थीं. ‘कमाल है, ऐसे लोग भी होते हैं? अभी तो यह लड़की यहां बैठी नील से फ्यूचर प्लान डिसकस कर रही थी और अभी आय एम नौट फैमिली मैंबर हो गई. और यह धर्म का बच्चा? हाय, कितना बड़ा घाव दिया है इस बेहूदे ने. कहां तो रुचिजी, रुचिजी करता आगेपीछे घूमता रहता था और इस खूबसूरत बला के चक्कर में पड़ते ही हमें पुलिस तक पहुंचा दिया. इस की मां की बीमारी में इतनी हैल्प की और इस ने ही पीठ में छुरा घोंप दिया.’

‘‘यस, प्लीज शो दियाज पासपोर्ट,’’ एनी ने अपने असिस्टैंट से रिपोर्ट के कागज ले कर उन्हें पलटते हुए मिसेज शर्मा से कहा. मिसेज शर्मा अपनी सोच की गुफा से अचानक बाहर आ गिरीं. अब तक तो अंधेरा ही था, अब तो सामने ही इतनी गहरी खाई दिखाई दे रही थी उन्हें और उन के बेटे को. उस में कूदना ही पड़ेगा. कैसे निकल भागे? उन्होंने बेबस दृष्टि बेटे पर डाली.

‘‘मैडम, एक्च्वली…मिसिंग…’’ नील के पास और कुछ बताने का रास्ता ही नहीं था.

‘‘मिसिंग? ह्वेन? डिड यू रिपोर्ट एबाउट द पासपोर्ट?’’ पुलिस का रुख कड़ा होता जा रहा था.

‘‘दैट मस्ट बी विद धर्मानंद,’’ नील ने धर्म को लपेटने का प्रयास किया. वह जानता तो था ही कि उस की मां ने पासपोर्ट धर्म को दिया था.

एनी बहुत नाराज दिखाई दे रही थीं. पासपोर्ट के बारे में तो नील व उस की मां को भी यही मालूम था कि वह धर्म के पास है. अब? बात तो उलझती ही जा रही थी. उधर, सोफे पर बेचैनी से पहलू बदलती हुई नैन्सी अपने बचाव की फिराक में कभी नील के कान में भुनभुन करती, कभी उसे घूर कर देखती. नील बेचारा परेशान हो गया. वहां से कहीं और जा कर बैठ भी नहीं सकता था. सारे सोफे भरे हुए थे. हार कर उस ने एक बार और कोशिश करनी चाही. ‘‘प्लीज, कोऔपरेट, एवरीबडी,’’ एनी ने इशारा किया और इंस्पैक्टर ने सब को बाहर चलने का रास्ता दिखाया.

सब को पुलिस की गाड़ी में बैठने के आदेश मिले. नील की मां बेचारी और लंगड़ाने लगीं, उन के पैरों का दर्द असहनीय हो उठा. एनी ने उन्हें सहारा दे कर गाड़ी में बिठा दिया. बचारा नील, मां को घूरते हुए सोचने लगा कि उन के कारण ही वह दिया को हाथ तक न लगा पाया और अब नैन्सी भी उस के हाथों से फिसल रही है. न इधर के रहे, न उधर के. पुलिस की दूसरी गाड़ी पवित्रानंद और रवींद्रानंद को ईश्वरानंदजी के पास ले जा रही थी. दोनों की जान सांसत में थी. उन के मोबाइल भी जब्त कर लिए गए थे. पुलिस वालों ने उन से आश्रम का रास्ता दिखाने को कहा. मना करने या रास्ता न दिखाने का तो प्रश्न ही नहीं था. अचानक पवित्रानंद का मोबाइल बजा. अफसर ने मोबाइल का स्पीकर औन कर के उसे पकड़ा दिया.

‘‘अरे, कहां रह गए हैं आप लोग? दिया और धर्म मिल गए क्या?’’ ईश्वरानंद की रोबीली आवाज थी. आवाज सुन कर पवित्रानंद के चेहरे से लग रहा था कि उस के गले में किसी ने पत्थर अड़ा दिया था.

‘‘बोल क्यों नहीं रहे हो? कब आ रहे हो? धर्म और दिया साथ ही हैं न?’’

प्रश्नों का पुलिंदा खोल कर बैठ गया था ईश्वरानंद. पवित्रानंद को काटो तो खून नहीं. अफसर ने उसे उत्तर के लिए इशारा किया.

‘‘जी, हम लोग आ ही रहे हैं.’’

‘‘दिया साथ में ही है न?’’ फिर से वही प्रश्न.

पुलिस अफसर हिंदी बोलने में हिचकिचाते थे परंतु हिंदी व पंजाबी समझने में उन्हें कोई विशेष दिक्कत नहीं होती थी. पवित्रानंद को गुरुजी के कुछ ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने के लिए बाध्य होना पड़ा जो पुलिस जानना चाहती थी. पवित्रानंद को डर था कहीं उस की बातें टेप न हो रही हों. उस ने बस इतना ही कहा, ‘‘थोड़ी देर में पहुंच रहे हैं, रास्ते में ही हैं.’’

पुलिस की गाड़ी को गलियों में घूमते हुए काफी देर हो गई थी. अफसर भन्ना उठे, उन्होंने सख्ती से कहा कि वे चुपचाप उन्हें आश्रम पहुंचा दें वरना वे कुछ और सोचते हैं. वे समझ चुके थे कि गाड़ी घुमा कर ये होशियार बंदे उन का समय बरबाद करना चाहते थे.

घबराए हुए तो थे ही दोनों. काफी देर से पुलिस को मूर्ख भी बना रहे थे. समझ गए थे कि अब यह खेल अधिक देर तक नहीं खेला जा सकता. इसलिए उन्होंने परमानंद धाम के सही मार्ग की दिशा में गाड़ी मुड़वा दी. केवल 5 मिनट बाद ही गाड़ी एक गैरेजनुमा दरवाजे के बाहर खड़ी थी.वही मुख्यद्वार, वही गैरेजनुमा बड़ा सा हौल जहां धर्म, दिया को ले कर पहली बार आया था. बिलकुल सुनसान पड़ा था वह स्थल. सुंदर, सजी हुई जगह पर कोई जीवजंतु नहीं. हां, जंतु ही तो थे वे लोग, धर्म के नाम पर झूठ और मक्कारी के ना म पर पलने वाले कीड़े. बिना मस्तिष्क का प्रयोग किए कहीं पर भी रेंग जाने वाले.

अफसरों ने दोनों भक्तों से कईकई बार गुरुजी के बारे में पूछा पर उत्तर नदारद. पवित्रानंद व रवींद्रानंद चैन की सांस ले रहे थे. उन्हें भय था कि रात के कार्यक्रम के बाद अब सब लोग अपनेअपने दैनिक कार्यों में उलझ गए होंगे और प्रतिदिन की भांति यहां पर कोई न कोई मिल ही जाएगा. ओह, बच गए, दोनों की आंखों में चमक आ गई थी. अचानक सामने वाली दीवार पर लगी गोल्डन पेंटिंग ऊपर उठी और उस में से 3-4 लोगों ने हौल में प्रवेश किया. ओह, तो यह बात है. पुलिस अफसर ने पेंटिंग के पीछे से निकलने वाले लोगों को एक ओर बिठा दिया और उन से ईश्वरानंद के बारे में पूछताछ करने लगे पर किसी ने कुछ नहीं बताया. पुलिस सभी का मोबाइल जब्त कर चुकी थी.

अफसर ने आगे बढ़ कर पेंटिंग को हिलानेडुलाने का प्रयास किया लेकिन तब तक पेंटिंग दीवार पर चिपक चुकी थी. अफसर ने वहां बैठे हुए लोगों को पेंटिंगनुमा दरवाजे को खोलने का आदेश दिया परंतु कोई टस से मस नहीं हुआ. पुलिस अफसर जौर्ज को पता चल चुका था कि नील, उस की मां, नैन्सी, धर्म व दिया आदि पुलिस स्टेशन पहुंच चुके थे. उस ने फोन कर के दिया व धर्म को भी वहां से आने वाली पुलिस फोर्स के साथ बुला लिया था. लगभग 20-25 मिनट में पुलिस की गाड़ी सब को भर कर वहां पहुंच गई थी. इन लोगों के पहुंचने तक स्थिति वैसी ही बनी हुई थी. अब पुलिसकर्मी डंडों से दीवार को बजाबजा कर अंदर जाने का मार्ग खोजने का प्रयास करने लगे थे. परंतु रहस्य था कि खुल नहीं रहा था.             

-क्रमश:

मैं उदास हूं

पानी में पानी का रंग तलाशना

जता देना है मैं उदास हूं

खुशी में गम तलाशना

जता देना है मैं उदास हूं

ऊंची पहाडि़यों पर घाटियों को निहारना

जता देना है मैं उदास हूं

इंद्रधनुष के रंगों पर काली लकीर खींचना

जता देना है मैं उदास हूं

शब्दों पर लगा कर पूर्णविराम चुप होना

जता देना है मैं उदास हूं.

          – उपासना सियाग

फिल्म समीक्षा

एनएच-10

हमारे देश के कई हिस्सों, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में औनर किलिंग की घटनाएं देखने को मिल जाती हैं. इन इलाकों में पंचायतें ही सर्वेसर्वा होती हैं, जो अपना तुगलकी फरमान सुना कर एक ही गोत्र के लड़केलड़की को प्यार करने की सजा के बदले उन्हें मौत के घाट उतारने की सजा सुनाती हैं. पुलिस भी इन पंचायतों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाती, उलटे वह इस कुकृत्य का समर्थन करती है. इन ग्रामीण इलाकों में औरतों को लातघूंसों से मारा जाता है और उन्हें ‘रांड’ कहा जाता है. फिल्म ‘एनएच-10’ में औनर किलिंग की इसी भयावहता को दिखाया गया है. फिल्म निर्मात्री अनुष्का शर्मा ने इस ज्वलंत मुद्दे पर फिल्म बना कर और उस में एक बहादुर लड़की का किरदार निभा कर दर्शकों की वाहवाही बटोरी है. अब तक उस के और क्रिकेट खिलाड़ी विराट कोहली के रोमांस के चर्चे चटखारे लेले कर सुनेसुनाए जाते थे. लेकिन अब उस ने ‘मैरी कौम’ की प्रियंका चोपड़ा की तर्ज पर एनएच-10 में साहसी भूमिका निभा कर यह साबित कर दिया है कि अभिनय के मामले में वह भी किसी से कम नहीं है.

अनुष्का शर्मा के लिए यह रोल काफी चैलेंजिंग था. इस रोल को करने के लिए वह 11-11 घंटे तक हाईवे पर दौड़ कर प्रैक्टिस करती रही. फिल्म ‘एनएच-10’ की कहानी दिल्ली, गुड़गांव, हरियाणा के आसपास के हाईवे पर घटी सच्ची घटनाओं पर आधारित है. फिल्म की यह कहानी महिलाओं के साहस की बात करती है. फिल्म अंत तक दर्शकों को बांधे रखती है.

कहानी मीरा (अनुष्का शर्मा) और उस के पति अर्जुन (नील भूपलम) की है. एक रात को वे दोनों एनएच-10 पर अपनी कार में जा रहे होते हैं. रास्ते में वे एक ढाबे पर खाना खाने के लिए रुकते हैं, जहां उन की मुलाकात औनर किलिंग करने वाले कुछ लोगों के साथ होती है. वे जबरन एक युवती और उस के पति को उठा कर ले जाते हैं. अर्जुन से यह सब देखा नहीं जाता. वह मीरा के साथ अपनी कार उन की कार के पीछे लगा देता है. थोड़ी दूर जाने पर वह देखता है कि वे लोग उस युवक और युवती की बेरहमी से हत्या कर देते हैं. तभी उन सब की नजर मीरा और अर्जुन पर पड़ती है. मीरा और अर्जुन अपनी जान बचाने के लिए हाईवे पर दौड़ पड़ते हैं. हत्यारे उन के पीछे लग जाते हैं. अर्जुन बुरी तरह जख्मी हो जाता है. रात के अंधेरे में मीरा अर्जुन को एक पुल के नीचे छिपा कर पुलिस थाने पहुंचती है, जहां उसे पता चलता है कि पुलिस भी उन हत्यारों से मिली हुई है. फिर वह गांव की सरपंच (दीप्ती नवल) के घर पहुंचती है परंतु सरपंच उसे कमरे में बंद कर देती है.

दरअसल, हत्यारे सरपंच का बेटा सतबीर (दर्शन कुमार), जिस ने अपनी बहन और उस के प्रेमी की हत्या की थी और उस के साथी हैं. किसी तरह मीरा वहां से भाग निकलती है और एकएक कर सभी हत्यारों को मौत के घाट उतार देती है. फिल्म की यह कहानी औनर किलिंग जैसे सामाजिक अभिशाप का कच्चा चिट्ठा खोलती है. निर्देशक ने लोगों की अहंकारी सोच को दर्शाया है. फिल्म में हिंसा खूब दिखाई गई है लेकिन इस हिंसा को ग्लैमराइज नहीं किया गया है. निर्देशक नवदीप सिंह ने कहानी के प्रवाह को बनाए रखा है, खामखां की घटनाएं भरने से उस ने परहेज किया है. फिल्म की पटकथा सुदीप शर्मा ने लिखी है. पटकथा काफी कसी हुई है. संवाद भी जानदार है. पूरी फिल्म अनुष्का शर्मा के कंधों पर है. उस ने एक डरी हुई महिला और फिर प्रतिशोध लेने वाली महिला के किरदार में शानदार अभिनय किया है. सतबीर की भूमिका में दर्शन कुमार का अभिनय भी लाजवाब है. उस ने अपने कू्रर अभिनय से दर्शकों को चौंकाया है. अर्जुन की भूमिका में नील भूपलम थोड़ा कमजोर रहा है. छोटी सी भूमिका में दीप्ती नवल दर्शकों पर अपना प्रभाव छोड़ती है. फिल्म के गाने बैकग्राउंड में हैं और सही जगह पर फिट किए गए हैं. फिल्म की अधिकांश शूटिंग हाईवे पर ही की गई है. रात के अंधेरे में हाईवे पर दौड़ती छिटपुट गाडि़यां माहौल को डरावना बनाती हैं.

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दिल्ली वाली जालिम गर्लफ्रैंड

यह फिल्म दर्शकों को इरिटेट करती है. फिल्म की निर्देशिका, जो दुबई में रहती है, ने दर्शकों को कूड़ा परोसा है. लगता है उस ने निर्देशन की एबीसी सीखे बिना ही फिल्म को बनाया है. फिल्म में कलाकारों ने इस तरह का अभिनय किया है मानो वे दर्शकों पर कोई एहसान कर रहे हैं. फिल्म की कहानी है सिविल परीक्षा की तैयारी कर रहे नौजवान ध्रुव शेखावत (दिव्येंदु शर्मा) की, जो एक लोन देने वाली कंपनी में काम करने वाली साक्षी (प्राची मिश्रा) से पहली नजर में ही प्यार कर बैठता है. वह अपने दोस्त हैप्पी (प्रद्युम्न सिंह) के साथ मिल कर साक्षी की कंपनी से लोन लेता है. दोनों एक कार खरीद लेते हैं.

एक दिन साक्षी ध्रुव से 30 हजार रुपए उधार लेती है. जब धु्रव को कार की किस्त चुकानी होती है तो साक्षी उधार लिए पैसे चुकाने से इनकार कर देती है. फाइनैंशियल कंपनी वाले धु्रव की कार उठा ले जाते हैं. किसी तरह पैसे दे कर धु्रव कार वापस लाता है. एक दिन उस की कार चोरी हो जाती है. पता चलता है कि कार चोरों का एक गैंग है और उस का मुखिया मिनोचा (जैकी श्रौफ) है. इस गैंग को पकड़ने में एक प्रैस रिपोर्टर निम्मी (इरा दुबे) धु्रव और हैप्पी की मदद करती है. अब धु्रव को एहसास होता है कि जिस लड़की से उस ने प्यार किया उसी ने उसे धोखा दिया है.

फिल्म की यह कहानी और पटकथा बहुत कमजोर है. कार चोरी को दिखाने की घटना नाटकीय लगती है. टाइटल से लगता है नायक को जालिम गर्लफ्रैंड ने काफी दुख दिया होगा परंतु यहां तो नायक के चेहरे पर शिकन तक नहीं है. निर्देशन खराब है. फिल्म में गाने बहुत हैं. एक घंटे में ही 5 गाने स्क्रीन पर देखने को मिलते हैं. प्रद्युम्न सिंह को छोड़ कर कोई कलाकार प्रभावित नहीं करता. गायक हनी सिंह के गाने के बोल कुछ राहत का काम करते हैं. छायांकन अच्छा है.

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हे ब्रो

हे ब्रदर, यह तू ने क्या किया, अच्छाभला कोरियोग्राफी कर रहा था, क्या तुझे ऐक्ंिटग के कीड़े ने काटा कि हीरोगीरी पे उतर आया और इस फिल्म का सत्यानाश कर डाला. जी हां, हम बात कर रहे हैं बौलीवुड के जानेमाने कोरियोग्राफर गणेश आचार्य की. शरीर से भारीभरकम गणेश वैसे तो इस से पहले कई फिल्मों में अपने डांस स्टैप्स दिखाता नजर आता रहा है लेकिन इस फिल्म में वह पूरी तरह नाकाम रहा है. फिल्म की कहानी राजस्थान में अपने दादा (प्रेम चोपड़ा) के साथ रह रहे गोपी (गणेश आचार्य) की है. बड़ा होने पर गोपी को दादाजी बताते हैंकि उस का एक जुड़वां भाई और मां भी हैं जो मुंबई में रहते हैं. गोपी उन्हें ढूंढ़ने निकल पड़ता है. मुंबई आ कर उस की मुलाकात इंस्पैक्टर शिव (मनिंदर सिंह) से होती है, जो उस का जुड़वां भाई है लेकिन दोनों भाई इस बात से अनजान हैं. गोपी एक माफिया डौन बाबा (हनीफ हिलाल) के चंगुल में फंस जाता है. उधर शिव की मां अपने बेटे गोपी को पहचान लेती है. अब दोनों भाई बाबा और उस के गिरोह को खत्म कर डालते हैं. इस में इंस्पैक्टर शिव और अंजलि (नूपुर शर्मा) की प्रेम कहानी भी शामिल है.

फिल्म की कहानी और पटकथा एकदम बकवास है. किसी भी कलाकार ने अच्छी ऐक्टिंग नहीं की है. गणेश की ऐक्ंिटग में भी कोरियोग्राफी दिखती है. फिल्म में गाने बहुत ज्यादा हैं परंतु अंत में अमिताभ बच्चन, रणवीर सिंह, रितिक रोशन, अक्षय कुमार, प्रभु देवा, अजय देवगन पर फिल्माया गाना अच्छा बन पड़ा है. फिल्म में कौमेडी की असफल कोशिश की गई है. मारधाड़ के साथसाथ थोड़ीबहुत गोलीबारी भी है. फिल्म का निर्देशन बेकार है.

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हंटर

क्या आप जानते हैं वासुगीरी क्या होती है? नहीं न. तो हम आप को बताते हैं, वासुगीरी का मतलब है हर वक्त वासना में लिप्त रहना और वासु वह शख्स होता है जो सैक्स एडिक्ट हो. ‘हंटर’ एक ऐसे ही वासु नौजवान पर बनी फिल्म है. फिल्म की कहानी मंदार (गुलशन देवैया) की है. वह बचपन से ही लड़कियों को देख कर उन के प्रति आकर्षित होता रहा है. बचपन से छिप कर एडल्ट फिल्में देखता आया है, कुंवारी लड़कियों को सैक्स करने का आमंत्रण देता है. कई बार उस की पिटाई भी होती है. एक दिन उसे लगता है कि शादी कर लेनी चाहिए. लड़कियों से मिलता है. लेकिन सभी उसे रिजैक्ट कर देती हैं. तभी उस की मुलाकात तृप्ति (राधिका आप्टे) से होती है. वह एक बोल्ड लड़की है. मंदार को उस से प्यार हो जाता है. वह तृप्ति के सामने स्वीकार करता है कि वह वासु है और उस के संबंध 100 से ज्यादा लड़कियों के साथ रहे हैं. तृप्ति भी अपनी जिंदगी की सचाई मंदार को बताती है. दोनों एकदूसरे का हाथ थाम लेते हैं. गुलशन देवैया ने अपने सैक्सी मनोभावों को कुशलता से दिखाया है. राधिका आप्टे का अभिनय भी अच्छा है. कहींकहीं फिल्म में हास्य टपक पड़ता है.

जीवन में सैक्स और पैसा दोनों महत्त्वपूर्ण : शिल्पा शुक्ला

‘फाइनल सोल्यूशन’, ‘ययाति’, ‘गुड डाक्टर’, ‘रक्तकन्या’, ‘अंतिम दिवस’ सहित ढेर सारे नाटकों में अभिनय करने के बाद 2007 में प्रदर्शित फिल्म ‘चक दे इंडिया’ से जब शिल्पा शुक्ला ने फिल्मों में कदम रखा था तो लगा था कि बौलीवुड को एक सशक्त अदाकारा मिल गई. मगर वैसा कुछ नहीं हुआ. पूरे 6 साल बाद वे एक ईरोटिक फिल्म ‘बीए पास’ में नजर आईं. इस फिल्म में अभिनय करते हुए शिल्पा शुक्ला ने काफी बोल्ड व इंटीमेट सीन दिए थे. उस वक्त उन्होंने कहा था कि उन के पति भी कला से जुड़े हुए हैं, इसलिए उन की और उन के पति की सोच में फर्क नहीं है. मगर बौलीवुड में चर्चाएं गरम हैं कि इस फिल्म के रिलीज के बाद उन के पति ने उन से दूरी बना ली. यह अलग बात है कि इस बात को वे सुनना पसंद नहीं करतीं.

फिल्म ‘चक दे इंडिया’ ने आप को जबरदस्त शोहरत दिलाई थी लेकिन उस हिसाब से आप को काम नहीं मिला, जिस हिसाब से मिलना चाहिए था? 

मैं इस बात को सोचती ही नहीं हूं. मैं बहुत यात्राएं करती हूं. जहां भी जाती हूं, हर जगह लोग मुझे एक कलाकार के तौर पर पहचानते हैं. इस से बड़ी उपलब्धि क्या हो सकती है. तमाम कलाकार आतेजाते हैं, उन सब के बीच यदि मेरी पहचान बनी हुई है तो यह उपलब्धि कम नहीं है.

फिल्म ‘बीए पास’ की रिलीज के बाद किस तरह का रिस्पौंस मिला?

जो मैं ने सोचा था उस से कहीं ज्यादा अलग व बेहतर रिस्पौंस मिला. हमें समझ में आया कि हिंदुस्तानी दर्शक बहुत ज्यादा संजीदा हैं. हम ने बहुत ध्यान से फिल्म बनाई थी. फिल्म के रिलीज के बाद मुझे काफी इज्जत मिली. लोगों ने खुल कर बात की.

इस फिल्म के रिलीज से पहले आप ने कहा था कि इस के रिलीज के बाद आपराधिक प्रवृत्ति के लोग सुधरेंगे? क्या ऐसा हुआ?

मुझे ऐसा लगता है कि ऐसा जरूर हुआ होगा. यदि आप फिल्म के साथ अंत तक हैं तो आप की सोच बदलनी चाहिए. फिल्म की शुरुआत में जो पहले आप को सुंदर लग रही है या आप को लग रहा है कि वह रिझा रही है, वही बाद में गले की हड्डी बन जाती है. वह बला बन कर आप के गले में लटकती है. तो मुझे लगता है कि कोई भी इंसान किसी बला को अपने गले में लटकाना नहीं चाहता. यानी कि फिल्म में एक सकारात्मक संदेश के साथ समाज की कड़वी सचाई को पेश किया गया है.

‘बीए पास’ के बाद कौन सा कमैंट आप के दिल को छू गया?

बिहार के वैशाली जिले के मेरे पैतृक गांव से जब मुझे खबर मिली कि वहां सब मेरी फिल्म ‘बीए पास’ देख कर खुश हैं तो अच्छा लगा. एक अखबार के मेरे जानने वाले एक रिपोर्टर ने बताया कि गांव वालों का मानना है कि हम ने इस फिल्म में काम कर के उन सभी का नाम रोशन किया है. यह बात मेरे दिल को छू गई कि मेरे अपने लोग हमें अपना रहे हैं. लोगों ने आम्रपाली के साथ मेरा नाम लिया. यह मेरे लिए गौरव की बात थी. यह जरूरी होता है कि आप के घर के लोगों को फिल्म पहले पसंद आनी चाहिए.

क्या फिल्म के सीन या फिल्म के पात्र, कलाकार की निजी जिंदगी पर असर डालते हैं?

निजी स्तर पर, निजी जिंदगी पर असर होता है या नहीं, यह नहीं कह सकती. कला तो कला होती है पर अनुभव सालोंसाल जमा होते रहते हैं. हम अपनी जिंदगी के अनुभवों को कभीकभी किरदार के माध्यम से पेश भी करते हैं. मुझे लगता है कि हमारे अनुभव बैंक की तरह होते हैं. वे हमारी जिंदगी पर असर करते हैं. मैं ने पारिवारिक फिल्म ‘के्रजी कुक्कड़ फैमिली’ में काम किया, जिसे लोगों ने पसंद किया. इस फिल्म में इस बात को दिखाया गया कि किस तरह परिवार टूट रहे हैं. परिवार के सदस्य सिर्फ प्रौपर्टी के लिए ही एकदूसरे से संबंध रखते हैं. पर इन दोनों फिल्मों का मेरी जिंदगी पर कोई असर नहीं हुआ.

फिल्म ‘के्रजी कुक्कड़ फैमिली’ में दिखाया गया है कि बचपन के झगड़े बड़े होने पर भी असर डालते हैं. तो क्या आप मानती हैं कि बचपन की घटनाएं इंसान को कुंठाग्रस्त बना देती हैं?

इंसान की जिंदगी में बचपन में घटी घटनाओं का बहुत बड़ा हाथ होता है. बचपन की घटनाएं हम भूल जाते हैं या ध्यान नहीं देते हैं. लेकिन बचपन के जो अनुभव हैं, वे कभी न कभी इंसान की जिंदगी में अहम भूमिका निभाते ही हैं. इस फिल्म में दिखाया गया है कि समाज में प्रौपर्टी को ले कर बहुत झगड़े होते हैं जोकि कड़वा सच है. मैं जब भी दिल्ली जाती हूं तो हमें प्रौपर्टी को ले कर ही परिवार के सदस्यों के बीच झगड़े की कहानियां सुनने को मिलती हैं. भाई भाई से लड़ रहा है. घर के अंदर कोई औरत आई है, तो वह चाहती है कि जल्दी से बंटवारा हो जाए. पूरी दुनिया प्रौपर्टी को ले कर ही झगड़ती नजर आती है. प्रौपर्टी का जिक्र हुए बगैर कोई बात खत्म नहीं होती. यह हमारी जिंदगी का हिस्सा हो गई है.

समाज में आए बदलाव की वजह इंसान मटेरियलिस्टिक हो गया है या?

मुझे ऐसा लगता है कि हर इंसान सिर्फ अपने बारे में सोचने लगा है. आज एकाकी परिवार का चलन है. लोग बड़ों के बारे में सोचना भूल गए हैं. अब हर इंसान 30 साल की उम्र में अपने लिए मकान, शादी, गाड़ी आदि की योजना बना कर काम करने लगा है. यानी कि अब हर इंसान सोचने लगा है कि मेरे पास प्रौपर्टी, कपड़े ये सब हों. लोगों की इसी सोच के चलते संयुक्त परिवार टूटे. लोग अपनीअपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए संयुक्त परिवार से निकल गए. इसी के चलते बहुत बड़ा बदलाव आया है.

आप को नहीं लगता कि संयुक्त परिवारों में जो अनुशासन होता है उस में लोग रहना नहीं चाहते?

अनुशासन से ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि संयुक्त परिवार में लोग अपने से कहीं ज्यादा दूसरों के बारे में सोचते थे, पर अब लोग सिर्फ अपने बारे में सोचने लगे हैं. एकाकी परिवार को मैं गलत नहीं कहती. पर एकाकी परिवार में पहले हम अपने बच्चे के बारे में, अपने बारे में सोचेंगे. मुझे लगता है कि हर चीज का फायदा व नुकसान है. मगर अब समय ऐसा आ गया है कि जो अच्छी चीजें हैं उन्हें हमेशा कायम रखना चाहिए.

पर सिनेमा से परिवार गायब हो चुका है?

सिनेमा में परिवार अपने तरीके से आता है. कुछ फिल्में शादियों पर बनती हैं. पर इंसानी जिंदगी व परिवार के अंदर की छोटीमोटी, खट्टीमीठी चीजों पर फिल्में नहीं बनतीं. हां, फिल्म ‘क्रेजी कुक्कड़ फैमिली’ में ऐसा परिवार पेश किया गया जो कई बरसों से गायब है. भाईबहन नजर नहीं आते. यदि नजर भी आते हैं तो उन्हें बड़े टिपिकल रूप से पेश किया जाता है. मुझे लगता है कि फिल्मों में ऐसा परिवार होना चाहिए जिस में भाईबहन हों क्योंकि उस से हर इंसान का बचपन जुड़ा होता है.

बीच में चर्चाएं थीं कि फिल्म ‘बीए पास’ की रिलीज के बाद आप और आप के पति के बीच अलगाव हो गया? इस में क्या सचाई है?

मैं निजी जिंदगी को ले कर कोई चर्चा नहीं करना चाहती. पर ऐसा कुछ नहीं है. मैं उन के साथ एक नाटक कर रही हूं. इस का निर्देशन वे ही कर रहे हैं और मैं उस में अभिनय कर रही हूं. देखिए, फिल्मों का असर नहीं होता. हम दोनों बचपन के दोस्त हैं और दोस्त ही हैं. वे दिल्ली में रहते हैं और मैं मुंबई में रहती हूं, लेकिन मैं अपनेआप को शादीशुदा, आदमीऔरत, पतिपत्नी की कैटेगरी में नहीं डालना चाहूंगी. हम दोनों कलाकार हैं. अभिनय हम दोनों की जिंदगी के हिस्से हैं. पर हम दोनों के बीच कुछ भी कौंपलीकेटेड नहीं है.

क्या सिनेमा में देश व समाज को बदलने की ताकत है?

नहीं. मैं इसे इस तरह से नहीं देखती. मेरा मानना है कि सिनेमा समाज को सोचने पर मजबूर करने की ताकत रखता है. सिनेमा के पास इतनी ताकत है कि वह दर्शक को सोचने पर मजबूर कर देता है. दर्शक सिनेमा देख कर ज्यों का त्यों अपने अंदर नहीं डालता है, बल्कि उस का ज्ञान कुछ न कुछ बढ़ता जरूर है.

निजी जिंदगी में आप सैक्स और पैसे को कितनी अहमियत देती हैं?

मेरी सोच बहुत अलग है. मेरा मानना है कि इन चीजों को दबाने से विकृति पैदा होती है. इस से किसी भी समस्या का हल नहीं निकलता. सैक्स को ले कर किस ढंग से बात की जाती है, किस तरह से लोगों को बताया जाता है, यह महत्त्वपूर्ण है. सैक्स और पैसे को ले कर मेरी जो सोच है उस पर तो मैं 6 पन्ने लिख सकती हूं. मैं मानती हूं कि जीवन में सैक्स और पैसा दोनों महत्त्वपूर्ण हैं. लोगों की जिज्ञासा को मैच्योरिटी के साथ शांत किया जाना चाहिए ताकि इंसान की जिज्ञासा खुद को नुकसान न पहुंचाए, खुद को बरबाद न करे. यदि हम किसी चीज को बारबार मना करते हैं और कहते हैं कि यह गलत है, तो उस के परिणाम अच्छे नहीं निकलते हैं.

गट्टू का आतंक

पंजाब का अमृतसर शहर कुछ अरसे से एक आसमानी आतंक के साए में है. यह आतंक गट्टू का है. गट्टू नाम का यह आतंक आसमान से कब किसी पर टूट पडे़गा, कोई नहीं जानता. आसमान से होने वाला गट्टू का हमला अब तक कई हादसों का सबब बन चुका है. हादसों में कुछ लोगों को अपनी जान तक गंवानी पड़ी, कई गंभीर रूप से घायल हो कर अस्पताल में पहुंच गए. गट्टू सरकार के लिए एक बड़ी परेशानी और आम लोगों के लिए खतरा बना हुआ है.

आखिर गट्टू है क्या

गट्टू दरअसल चीन में बनी पतंग उड़ाने वाली डोर का देसी नाम है. अपनी मजबूती और तेज धार के कारण भारतीय बाजार में कदम रखने के बाद से ही यह डोर पतंगबाजों की पहली पसंद बन गई है. गट्टू के प्रति लोगों में दीवानगी इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि चीन से आने वाली दूसरी चीजों की भांति ही यह पारंपरिक भारतीय डोर के मुकाबले काफी सस्ती है. सस्तेपन की चाहत में भारतीय ग्राहक चीनी माल के घातक और नकारात्मक पहलुओं को हमेशा ही अनदेखा करते रहे हैं. गट्टू के मामले में भी ठीक कुछ ऐसा ही हुआ. एक तो सस्ती, दूसरी, मजबूत और तेज, गट्टू के मुकाबले में पारंपरिक भारतीय डोर टिक नहीं सकी. देखते ही देखते उस का भारतीय बाजार पर पूरा कब्जा ही हो गया.

चीनी डोर को ड्रैगन डोर के नाम से भी जाना जाता है किंतु आम बोलचाल की जबान में लोग इस को गट्टू ही कहते हैं. गट्टू के दीवाने लोगों को शुरूशुरू में यह समझ ही नहीं आया कि गट्टू की असलियत क्या थी और वह कितनी घातक थी, उस की मजबूती और तेज धार कितनी खतरनाक और जानलेवा थी? वास्तव में गट्टू डोर को बनाने में एकदम से गैर पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल किया गया. डोर सूत के बजाय प्लास्टिक के धागे से बनाई गई. उस पर जो मांझा चढ़ाया गया, उस में कांच के बुरादे के स्थान पर लोहे के अति घातक बुरादे का प्रयोग किया गया. इस से उस की स्थिति बिजली के तार जैसी हो गई जिस में से आसानी से करैंट गुजर सकता है. गट्टू के हाईवोल्टेज बिजली के तारों के ऊपर गिरने से पतंगबाजों को बुरी तरह झुलसने की असंख्य घटनाएं घट चुकी हैं. कई बार तो गट्टू डोर में आए करैंट की वजह से पतंगबाजी करने वाले व्यक्ति की मौत भी हो गई.

गट्टू की मजबूती और धार की बात करें तो यह जानलेवा ही है. अगर किसी की गरदन के गिर्द लिपट जाए तो उस को काटती चली जाएगी और दूसरी आम पारंपरिक डोरों की भांति टूटेगी नहीं. गट्टू से पतंग उड़ाने वाले की उंगलियों में आए चीरों के जख्म भी आसानी से नहीं भरते. गट्टू का शिकार अधिकतर छत पर धूप का आनंद लेने वाले लोग और स्कूटर या मोटरसाइकिल सवार बनते हैं. आकाश में उड़ने वाली कोई पतंग कब कटेगी और नीचे को गिरती उस की डोर कब किसी पर आफत बन टूट पड़ेगी, यह किसी को मालूम नहीं होता. अगर गट्टू की डोर किसी तेज रफ्तार स्कूटर या मोटरसाइकिल सवार पर गिर गई तो बाइकसवार के शरीर के किसी हिस्से पर गहरा जख्म हो जाना तय है. डोर में उलझने से ऐक्सिडैंट की संभावना भी प्रबल रहती है.

प्रतिबंध का उलटा असर

चीनी डोर से होने वाले हादसों को देख गत वर्ष प्रशासन ने गट्टू डोर की बिक्री और उस के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया था. मगर इस प्रतिबंध का असर उलटा ही हुआ. जैसा कि आमतौर पर दूसरे मामलों में होता है. प्रतिबंध लगने से गट्टू के प्रति लोगों का आकर्षण और भी बढ़ा और उस की बड़े पैमाने पर कालाबाजारी होने लगी. इस बार सर्दी के मौसम की शुरुआत होते ही इस गट्टू की वजह से इतने ढेर सारे लोग हादसों का शिकार हो, मौत के करीब पहुंच गए कि प्रशासन को सक्रिय होना पड़ा. इस समय अमृतसर में घातक चीनी डोर गट्टू के विरुद्ध एक जबरदस्त अभियान चल रहा है. एक तरफ पुलिस जहां छापेमारी कर के गट्टू बेचने वालों को गिरफ्तार कर रही है तो वहीं प्रशासन स्कूलों के सहयोग से बच्चों को गट्टू के विरुद्ध जागरूक कर रहा है. बहुत ही सख्त रुख अपनाते हुए प्रशासन ने यहां तक कहा है कि अगर कोई बच्चा पतंग उड़ाने के लिए गट्टू का इस्तेमाल करता है तो अभिभावकों पर कानूनी कार्यवाही होगी.

हैरानी यह है कि इन सब के बावजूद, अभी भी बड़ी संख्या में पतंगें गट्टू के साथ ही आसमान में मंडरा रही हैं यानी सख्ती के बावजूद गट्टू डोर बिक रही है. ऐसे में भविष्य में भी हादसे होंगे. अच्छा होगा कि गट्टू बेचने वाले दुकानदारों को पकड़ने के बजाय प्रशासन उन स्रोतों पर चोट करे जिन स्रोतों से वह लगातार बाजार में आ रही है. ड्रैगन अर्थात गट्टू डोर के मामले में एक सचाई यह भी है कि इसे अवैध रूप से अब पूरी तरह भारत में तैयार किया जा रहा है. इस डोर की चरखी पर लगे लेबल के ऊपर उस को बनाने वाली कंपनी का कोई अतापता नहीं. लेबल पर दिए गए ईमेल और वैबसाइट के कोड बोगस हैं. मतलब यह कि अगर आप ड्रैगन डोर बनाने वाली कंपनी को ढूंढ़ने निकलेंगे तो वह आप को मिलेगी नहीं. सारा धंधा ही दो नंबर में चल रहा है.

मजे की बात यह है कि पुलिस और कानून की आंखों में धूल झोंकने के लिए ड्रैगन डोर को जरमन तकनीक से तैयार किया दर्शाया जा रहा है. पुलिस की कार्यवाही फिलहाल छापेमारी कर के ड्रैगन अर्थात गट्टू डोर को जब्त करने तक ही सीमित है और छोटेमोटे दुकानदार ही उस के निशाने पर हैं. ड्रैगन डोर का अवैध कारोबार करने वाली बड़ी मछलियां अब भी उस की पकड़ से कोसों दूर हैं. इसलिए लाख सख्ती के बावजूद, ड्रैगन डोर का धंधा बदस्तूर जारी है. ड्रैगन डोर के सहारे आज भी पतंगें बड़े मजे से आकाश में उड़ रही हैं और घटनाएं घटती रहती हैं.

यह बताना भी जरूरी है कि ड्रैगन डोर का भारतीय बाजार में प्रवेश तो हुआ था सिलाई के काम में आने के लिए, किंतु इस का भरपूर दुरुपयोग हुआ और इस को पतंग उड़ाने वाली घातक डोर की शक्ल दे दी गई.

खेल खिलाड़ी

आस्ट्रेलिया बना वर्ल्ड चैंपियन

आस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम ने 5वीं बार क्रिकेट वर्ल्ड कप का खिताब जीता और कप्तान माइकल क्लार्क को शानदार विजयी विदाई भी दी. मिचेल स्टार्क को प्लेयर औफ द सीरीज और जेम्स फाल्कनर को प्लेयर औफ द मैच चुना गया. इस जीत के साथ ही आस्ट्रेलिया को 3,975,000 यूएस डौलर यानी 24.64 करोड़ रुपए इनाम के तौर पर मिले. विश्व कप में नौक आउट तक सभी मैच जीतने वाली कीवी टीम का कोई भी बल्लेबाज कंगारू गेंदबाजी के आगे चल नहीं सका. कीवी बल्लेबाज आक्रामक बल्लेबाजी के चक्कर में एक के बाद एक पवेलियन लौटते गए और 183 रनों में पूरी टीम सिमट गई जबकि आस्ट्रेलिया ने 184 रनों का लक्ष्य 33.1 ओवरों में 3 विकेट खो कर हासिल कर लिया.

मेलबर्न क्रिकेट मैदान पर हुए फाइनल मुकाबले का मजा लेने के लिए तकरीबन 91 हजार दर्शक मौजूद थे लेकिन वे थोड़े निराश जरूर हुए क्योंकि मैच शुरू से ही एकतरफा रहा. चौकेछक्के अधिक नहीं लगे. कंगारू टीम के खिलाडि़यों को भी न तो पसीना बहाना पड़ा और न ही किसी भी खेलप्रेमी के दिल की धड़कनें तेज हुईं. न्यूजीलैंड ने टौस जीत कर पहले बल्लेबाजी करने का फैसला किया लेकिन कंगारू टीम शुरू से हावी रही और घातक गेंदबाजी व क्षेत्ररक्षण में आस्ट्रेलियाई खिलाडि़यों ने कोई गलती नहीं की. आस्ट्रेलियाई टीम की यह शुरू से ही खासीयत रही है कि वह मजबूत रणनीति के साथ मैदान में उतरती है. उस की बल्लेबाजी काफी मजबूत है तथा 9वें और 10वें क्रम तक के खिलाड़ी भी बल्लेबाजी की क्षमता रखते हैं. साथ ही गेंदबाजी भी घातक है. कुल मिला कर आस्ट्रेलियाई टीम वाकई जीत की हकदार थी.

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बिना लड़े ही हार गए

टीम इंडिया का विश्व कप से बाहर होना भारतीय क्रिकेट प्रेमियों को सदमा दे गया. सेमीफाइनल मुकाबले में आस्ट्रेलियाई खिलाडि़यों ने खेल जज्बे को दिखाते हुए धौनी के धुरंधरों को धूल चटा दी. इस के साथ ही टीम इंडिया ने लगातार 7 मैच जीत कर जो भरोसा हासिल किया था वह भी खो दिया. जबकि टीम इंडिया ने इस से पहले पाकिस्तान, दक्षिण अफ्रीका, वेस्टइंडीज, आयरलैंड, जिम्बाब्वे समेत संयुक्त अरब अमीरात को पटकनी दी लेकिन सेमीफाइनल में टीम इंडिया के जिन खिलाडि़यों पर सब से ज्यादा भरोसा था उन्हीं खिलाडि़यों ने उस भरोसे को तोड़ दिया. शिखर धवन, रोहित शर्मा, विराट कोहली और सुरेश रैना जैसे बल्लेबाज गैरजिम्मेदाराना शौर्ट खेल कर चलते बने. वहीं रवींद्र जडेजा को औलराउंडर के तौर पर लिया गया था लेकिन जडेजा किस बात के औलराउंडर क्रिकेट पंडितों को लगे ये तो वही जानें. इस विश्व कप में जडेजा के बल्ले से न तो रन बना और न ही गेंदबाजी में कोई कारनामा दिखा.

जहां तक गेंदबाजों की बात है तो टीम इंडिया के लिए यह समस्या हमेशा से रही है लेकिन इस विश्वकप में गेंदबाजों से थोड़ीबहुत उम्मीद जरूर जगी थी लेकिन सिडनी के मैदान में जिस तरह गेंदबाजों ने शौर्ट गेंद डाल कर बाउंस कराना चाहा, वह प्रयास भी असफल रहा क्योंकि उन की गेंद में स्पीड थी ही नहीं इसलिए कंगारुओं ने इस का जम कर फायदा उठाया. हारजीत तो खेल का हिस्सा है. किसी एक टीम की हार तो होनी ही है लेकिन कंगारुओं ने क्या 329 रन का टारगेट दिया कि टीम इंडिया ने पहले ही घुटने टेक दिए. टीम इंडिया को विश्वचैंपियन की तरह खेलना चाहिए था पर ऐसा हो न सका.

बहरहाल, यही कहा जा सकता है कि सिडनी के मैदान में टीम इंडिया के योद्धा बिना लड़े ही मैच हार गए क्योंकि मैदान पर उस दिन न तो जज्बा दिखा और न ही जनून. टीम इंडिया को आस्ट्रेलियन खिलाडि़यों से सबक लेना चाहिए. आज अगर आस्ट्रेलिया चैंपियन है तो मैदान में खिलाडि़यों का जज्बा और जनून दोनों दिखता है.

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वर्ल्ड की नंबर वन साइना

विश्व की नंबर वन बैडमिंटन खिलाड़ी का ताज अपने सिर सजाने के एक दिन बाद साइना नेहवाल ने इंडियन ओपन सुपर सीरीज बैडमिंटन चैंपियनशिप के फाइनल में थाईलैंड की रातनचोक इंतानोन को पराजित कर खिताब अपने नाम कर लिया. फाइनल जीतने के बाद साइना ने कहा कि वे पिछले 4 वर्षों से इस के लिए मेहनत कर रही थीं. उन्होंने आगे कहा कि उन के सिर पर बहुत बड़ा बोझ था जो अब उतर गया. साइना एक जुझारू खिलाड़ी हैं. वे संघर्ष करने में विश्वास करती हैं और हारने के बाद ऐसा नहीं है कि वे जीतने की कोशिश छोड़ देती हैं. इस के लिए वे दिनरात कड़ी मेहनत करती हैं. और लगन से मेहनत करने पर एक न एक दिन कामयाबी मिल ही जाती है. शायद, इसी का नतीजा है कि साइना आज विश्व की नंबर वन बैडमिंटन खिलाड़ी हैं.

बच्चों के मुख से

मेरे पति बाजार से हमारे पोते अंकित के लिए छोटी साइकिल ले आए. अंकित साइकिल को देख कर नाच उठा. मैं ने कहा, ‘अब जरा इसे चला कर देखो.’ अंकित ने कहा, ‘नहीं दादी, पहले हमें छोटे दादाजी के यहां जाना होगा. वहां जाऊं, लाइसैंस मिल जाए, बाद में साइकिल चलेगी. पापा भी स्कूटर का लाइसैंस रखते हैं न?’यह सुन कर घर के सभी सदस्य हंसने लगे. 

इंदुमती पंड्या, राजकोट (गुज.)

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मेरा बेटा प्रतीक यूकेजी में पढ़ता था. वह बेहद शरारती व चुलबुला था. खेलने का बेहद शौकीन और पढ़ाई का महत्त्व अभी उस के दिमाग में शायद आया ही नहीं था. मेरी रोजमर्रा की दिनचर्या थी, बैंक से वापस आने पर उसे पास बिठा कर पढ़ाना, उस का होमवर्क करवाना. उस दिन, मेहमानों के वापस जातेजाते रात के 9 बज चुके थे, अगले दिन बेटे की परीक्षा थी. उस समय तक उस ने परीक्षा की कोई तैयारी नहीं की थी. मुझे उसे पढ़ाना था, खाना बनाना था और घर का बिखरा कामकाज भी निबटाना था. लिहाजा, मुझे बहुत चिंता थी. जैसे ही बेटा सामने पड़ा, मेरे मुंह से निकला, ‘आज मैं तुझे जम के पीटूंगी.’ बड़ी हैरानी और भोलेपन से 4 वर्षीय प्रतीक, तुरंत बोला, ‘फ्रिज में जमा के.’ यह सुनते ही सब की हंसी छूट गई.

मंजुला वाधवा, चेन्नई (तमिलनाडु)

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मेरी बेटी शालू सपरिवार मेरे घर आई थी. हंसीमजाक के साथ नाश्ते का दौर चल रहा था. शालू की 3 वर्षीया बेटी अहाना रसगुल्ला लेने की जिद करने लगी. मैं उठी और कटोरी में एक रसगुल्ला रख कर अहाना को पकड़ा दिया. अहाना रसगुल्ला पा कर इधरउधर डोलने लगी. अचानक वह जोर से चिल्लाई, ‘‘मां, सूसू.’’

‘‘तुम ने बताया नहीं और सूसू कर दिया. नानी, मामा क्या सोचेंगे? गंदी बच्ची.’’ शालू झेंपती और बड़बड़ाती हुई कपड़ा ले कर अहाना के पास पहुंच गई.

शालू ने देखा, कहीं भी कुछ गीला नहीं था. वह जोर से चीखी, ‘‘कहां किया तुम ने सूसू?’’

अहाना चुपचाप कटोरी से रसगुल्ला उठा कर टपकते शीरे को दिखाते हुए बोली, ‘‘इस ने किया सूसू.’’

सब की निगाह अहाना पर टिक गई. रसगुल्ले से शीरा टपक रहा था और अहाना टपकते रसगुल्ले को पकड़े बड़ी मासूमियत से सब को घूर रही थी. अहाना की इस भोली अदा पर हम लोग हंसतेहंसते लोटपोट हो गए.

रेणुका श्रीवास्तव, लखनऊ (उ.प्र.)

बेचारी झाड़ू

झाड़ू को बेचारी कह कर मैं उस का उपहास नहीं उड़ा रही. मैं जानती हूं कि झाड़ू अंतर्राष्ट्रीय ख्याति की वस्तु है. वह रोज नए कीर्तिमान गढ़ रही है. हमें भी झाड़ू पर गर्व है. कितने आश्चर्य की बात है कि एक अदनी सी झाड़ू, जिस का कोई महत्त्व न था, घर के किसी कोने में पड़ी रहती. घर में कहीं गंदगी होती तो सफाई के लिए उठा ली जाती थी. सफाई कर के फिर कोने में पटक दी जाती थी. इसी उठापटक में वह सदियों से करवटें बदलती रही. महात्मा गांधी ने मलिन बस्तियों की सफाई के लिए झाड़ू हाथ में पकड़ी थी, लेकिन उन का अभियान उस समय सिर नहीं चढ़ा क्योंकि वह अंगरेजों का जमाना था. उस समय जब आम आदमी की कोई बिसात न थी तो झाड़ू कैसे परवान चढ़ती.

मुझे लिखते समय एक लोकगीत के बोल याद आ रहे हैं जिसे बुजुर्ग महिलाएं यानी मेरी दादी मां और मां अकसर सफाई करते हुए प्रभाती के रूप में गुनगुनाया करती थीं.

‘उठो री सुहागिन नार, झाड़ू दे लो अंगना…’

यानी सुबह उठ कर घरआंगन साफ करना आवश्यक था. औरतें विशेष रूप से सफाई अभियान में जुटती थीं. आज भी जुटती हैं बिना किसी हीलहुज्जत के, लेकिन अब सफाई करतेकरते थोड़ा मुसकरा भी रही हैं कि चलो, देर आए दुरुस्त आए. अब मर्द झाड़ू लगाना सीख रहे हैं वरना सफाई पर उन का ही एकाधिकार था. बड़ा ही बोरिंग काम है.

झाड़ू कभीकभी खूब लड़ी मरदानियों के हाथ की शोभा भी बन जाती है. झाड़ू युद्ध देखना बड़ा रोमांचक है. कभी इस की जद में शोहदे, पड़ोसी, दुश्मन, चोरउचक्कों के साथ पति महोदय भी आ जाते हैं. एक अन्य पक्ष भी रहा है झाड़ू का. त्योहारों, पर्वों पर सफाई का विशेष महत्त्व, शादीब्याह में भी, गृह प्रवेश में भी. यानी नए घर में प्रवेश करना है, मंडप सजाना है, रंगोली बनानी है तो स्थान विशेष की सफाई तो करनी ही पड़ेगी.सो, बुजुर्गों ने झाड़ू को तथाकथित लक्ष्मी बता खरीदना आवश्यक कर दिया. अब हालात ये हैं कि कोई भी संस्कार बाद में होगा, नई झाड़ू पहले आएगी. 

लेकिन भला हो अरविंद केजरीवाल का जिन्होंने अपनी पार्टी का चुनाव चिह्न झाड़ू को बना लिया. चुनाव चिह्न झाड़ू और पार्टी का नाम आप रख लिया यानी आप की झाड़ू. बात कुछ समझ में आई, कुछ नहीं. लगा, यह नेता झाड़ू लगालगा कर पूरे देश की सफाई कर देगा.

मतलब सड़कें साफ करने से नहीं था. संसद में चुन कर जाने वाले भ्रष्ट नेताओं को टिकट नहीं मिलेगा, भ्रष्ट लोगों का सफाया होगा, रिश्वतखोरी, मुनाफाखोरी, घोटाले, काली कमाई सब पर झाड़ू फिर जाएगी और एक स्वच्छ भारत, माने स्वच्छ दफ्तर, स्वच्छ नेता की छवि बनेगी. लेकिन जुमाजुमा 2 महीने भी नहीं गुजरे कि झाड़ू केजरीवाल के हाथ से खिसक मोदी के हाथ में आ गई. बेचारे घर के रहे न घाट के. अब मोदी समझा रहे हैं जिन्हें झाड़ू चलाने की तमीज नहीं, वे झाड़ू उठा कर चल रहे हैं. देखो, झाड़ू कैसे चलाई जाती है. हमें आती है झाड़ू चलानी. अब बारी केजरीवाल के चौंकने की थी. झाड़ू उन की, लिए घूम रहे हैं मोदी. बनारस के घाट, गुजरात के गलीकूंचे और पूरे देश में नेता झाड़ू हाथ में लिए देश बुहारने में लगे हैं. अखबार और न्यूज चैनल धड़ाधड़ बता रहे हैं कहां, किस ने झाड़ू लगाई. बेचारे कैमरामैन कैमरा लिएलिए नेताओं के पीछे भाग रहे हैं. औफिस के बाबूचपरासियों की तो बिसात ही क्या, फिल्मी हस्तियां, समाजसेवी, छोटेबड़े सभी अफसर झाड़ू लगा कर अपने नाम के झंडे गाड़ रहे हैं. झाड़ुओं के टैंडर भरे जा रहे हैं. सफाईकर्मी नेताओं के आगेपीछे कूड़े की ट्रौली ले कर दौड़ रहे हैं, पता नहीं कब, कहां कूड़ा फैलाना पड़ जाए. फिर बारी आई केजरीवाल की. केजरीवाल ने दिल्ली में मोदी की झाड़ू पर पानी फेर दिया और वे देखते रहे. लेकिन बड़ी अजीब स्थिति है. झाड़ू को भी समझ में नहीं आ रहा कि वह आगे किस की शोभा बनेगी.

उत्तर प्रदेश के जिला बुलंदशहर की तहसील सिकंदराबाद में निंमुज महाशय ने अपने 9 सहयोगियों के साथ लगातार 36 घंटे तक सफाई अभियान चला कर वर्ल्ड रिकौर्ड बना लिया जिस में पूरा प्रशासनिक अमला और 400 सफाई कर्मचारी लगे रहे. सब के हाथों में झाड़ू. झाड़ू भी चलतेचलते थक गई, घिस गई. लोगों ने छोड़ दी, नई उठा ली, पर किसी ने यह आंकड़ा नहीं बताया कि कितनी झाड़ू खरीदी गईं, टैंडर कितने का था, झाड़ू किस कंपनी की थी. हमेशा ऐसा ही होता है. आंकड़े आधेअधूरे रह जाते हैं. पर एक बात तो है कि सिकंदराबाद भी विश्वपटल पर चमाचम चमक गया.

सुना है अब मर्दों ने जोश में आ कर झाड़ू हाथ में थाम ली है. घरद्वार वे ही बुहार रहे हैं. स्वच्छ भारत अब ऐसे ही स्वच्छ होगा. औरतों के वश में यह काम कहां है? विश्व रिकौर्ड ज्यादातर मर्दों ने ही बनाए हैं. स्वच्छ भारत अभियान से मेरी विचारधारा कुछ ऐसी बन गई है कि कहीं भी कूड़ा पड़ा देखती हूं, तो हाथ झाड़ू पकड़ने के लिए मचलने लगते हैं. एक जगह मैं ने ढेर सा कूड़ा पड़ा देखा, मुझे सहन नहीं हुआ. मैं ने सामने वाले घर की कुंडी बजा दी और गुर्राते हुए बोली, ‘तुम्हें सड़क गंदी करते शर्म नहीं आती?’

मुझे उस से भी तेज आवाज में उत्तर मिला, ‘सुबहसुबह क्यों दिमाग खराब करती है. यह कचरा मैं ने डलवाया है. फोटो खिंचानी है. फोटोग्राफर आता होगा. तब झाड़ू पकड़ूंगी. तू भी खड़ी हो कर देख. तू भी एक झाड़ू मेरे साथ उठा ले.’ यह सुन कर मैं हतप्रभ रह गई. झाड़ू की इतनी बेइज्जती. हाय झाड़ू, अब झाड़ू सफाई की नहीं, प्रदर्शन की चीज है. संभव है कभी शोकेस में सज जाए. इतरा रही है झाड़ू, चुनौती दे रही है झाड़ू, सिर चढ़ कर बोल रही है झाड़ू. है कोई आज मुझ सा…

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