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एग फ्रीजिंग : बढ़ रहा है ट्रैंड

असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टैक्नोलौजी यानी एआरटी अथवा हिंदी में कहें तो ‘प्रजनन में सहयोग की तकनीक’ ने पिछले कुछ सालों में क्रांतिकारी विकास किया है, खासतौर से भारत में. अब हर जोड़ा अपना एक आदर्श परिवार बना सकता है, अपने बच्चे को जन्म दे सकता है, चाहे उसे कोई स्वास्थ्य संबंधी समस्या हो अथवा किसी कारणवश शादी में देरी हो रही हो. यह सब संभव हो सका है विभिन्न तकनीकों की मदद से. ये ऐसी तकनीकें हैं जिन की पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी.

ऐसी ही एक तकनीक शहरी महिलाओं में काफी लोकप्रिय हो रही है और उसे अपनाने के लिए महिलाएं खुल कर आगे आ रही हैं. यह तकनीक है ओसाइट क्रायोप्रिजर्वेशन, जिसे आम बोलचाल की भाषा में एग फ्रीजिंग कहते हैं, यानी अंडाणुओं को फ्रीज करना. अब वह समय नहीं रहा जब महिलाएं 30 साल की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते न सिर्फ शादीशुदा हो जाती थीं बल्कि मां भी बन जाती थीं. आजकल की महिलाएं अपने कैरियर को अधिक महत्त्व देने लगी हैं. स्वतंत्र हैं और नए अनुभवों के साथ विकास के नए माने तलाश रही हैं, जैसाकि पहले नहीं होता था. पहले अधिकतर महिलाओं के जीवन का पहला लक्ष्य होता था 30 साल की उम्र से पहले शादी कर लेना और मां बनना.महिलाओं के शरीर की बनावट प्राकृतिक रूप से ऐसी है कि उन के शरीर में 30 साल की उम्र तक सब से बेहतरीन क्वालिटी के अंडाणुओं का उत्पादन होता है. इस के बाद धीरेधीरे इस की क्वालिटी में गिरावट आने लगती है, खासतौर से 35 की उम्र के बाद. ऐसे में ओसाइट क्रायोप्रिजर्वेशन, जिस के तहत अंडाणुओं को निकाल कर उन्हें फ्रीज किया जाता है और बाद के इस्तेमाल के लिए उन्हें स्टोर कर लिया जाता है, के जरिए महिलाओं को भविष्य में अपनी सुविधा के हिसाब से बच्चे पैदा करने की स्वतंत्रता मिल गई है.

अंडाणुओं को फ्रीज कराने की जरूरत एक अन्य स्थिति में भी होती है. यह तब जब महिला को कीमोथेरैपी करानी हो, क्योंकि कीमोथेरैपी में अंडाणु कोशिकाएं डैमेज हो जाती हैं. कई बार आईवीएफ ट्रीटमैंट के समय भी आईवीएफ साइकल के दौरान पुरुष पार्टनर शुक्राणु सैंपल देने में सक्षम नहीं होते हैं. इस स्थिति के लिए भी अंडाणुओं को फ्रीज कर के रखा जा सकता है और शुक्राणु सैंपल उपलब्ध होने पर इस्तेमाल किया जा सकता है. यह प्रक्रिया बेहद साधारण है. ओसाइट क्रायोप्रिजर्वेशन के लिए महिला को प्रजनन संबंधी दवाएं दी जाती हैं जिस से अधिक से अधिक संख्या में अंडाणु परिपक्वता के स्तर पर पहुंचते हैं. फोलिकल स्टिम्युलेटिंग हार्मोन नियमित इंजैक्शन के रूप में एक हफ्ते तक ली जा सकती है. 2 हफ्तों तक गर्भाशय में इस के असर की निगरानी की जाती है. जैसे ही अंडाणु पूरी तरह से तैयार हो जाते हैं, इन बीजों को निकाला जाता है. इस में 10 से 15 मिनट का समय लगता है. इस के बाद अंडाणुओं को स्लो फ्रीज अथवा फ्लैश फ्रीजिंग प्रक्रिया, जिसे विट्रिफिकेशन भी कहते हैं, के तहत फ्रीज किया जाता है. इस के लिए अंडाणुओं में पर्याप्त नमी की व्यवस्था की जाती है और पानी की जगह एंटी फ्रीज यानी ऐसा तत्त्व डाला जाता है जो जमता नहीं है. इस से अंडाणुओं को जमने से बचाया जाता है वरना ये डैमेज हो सकते हैं.

एग फ्रीजिंग की सफलता दर महिला की उम्र पर निर्भर करती है. जितनी कम उम्र में फ्रीज कराया जाएगा, उस के सफल होने की संभावना उतनी ही अधिक होगी. एग डोनेशन के जरिए फ्रीज किए गए अंडाणुओं की गुणवत्ता ताजे एग के समान ही होती है. हालांकि महिला की उम्र 35 साल हो जाने के बाद इस की गुणवत्ता में तेजी से गिरावट आने लगती है. चूंकि अंडाणुओं को फ्रीज करने की प्रक्रिया अभी नई है, ऐसे में अध्ययन यह बताते हैं कि इन्हें 2 साल तक सुरक्षित तौर पर फ्रीज किया जा सकता है. यह प्रक्रिया सुरक्षित इसलिए मानी जाती है क्योंकि इन अंडाणुओं के इस्तेमाल से जन्मे बच्चे पूरी तरह स्वस्थ होते हैं. उन के जन्मजात समस्याओं का स्तर भी सामान्य ही होता है जितना कि ताजे अंडाणुओं में संभावना रहती है. वहीं, यह बात हर किसी को अपने दिमाग में रखनी चाहिए कि प्रजनन के लिए इस्तेमाल होने वाली दवाओं के जो खतरे हैं वे तो जरूर रहेंगे. एग फ्रीजिंग एक नई प्रक्रिया है. निकाले गए सभी अंडे स्टोर किए जाने के पूरे काल में जीवित नहीं रहेंगे, ऐसे में सारे अंडाणु प्रजनन के लिए उपयुक्त बचें, यह जरूरी नहीं है.

एग फ्रीजिंग की सीमाएं 

आप जब भी एग फ्रीज कराने की योजना बनाएं, इस के लिए आगे बढ़ने से पहले पूरी प्रक्रिया, इस के खतरों और इस की सीमाओं के संबंध में सारी जानकारी हासिल कर लें. क्योंकि एग फ्रीजिंग के सार्वभौमिक इस्तेमाल के संदर्भ में अभी और रिसर्च व डाटा की जरूरत है. ऐसे में यह सलाह दी जाती है कि महिलाओं को फ्रीज किए गए अंडाणुओं पर पूरी तरह निर्भर हो कर प्रेग्नैंसी को लंबे समय तक टालना नहीं चाहिए, क्योंकि उम्र बढ़ने के साथ समस्याएं बढ़ने का खतरा बना ही रहता है.

(लेखिका आईवीएफ एवं फर्टिलिटी विशेषज्ञा हैं)

कुछ आंखों देखी कुछ कानों सुनी

जंतरमंतर लाइव

आम आदमी पार्टी की 22 अप्रैल की दिल्ली के जंतरमंतर पर आयोजित रैली वाकई ऐतिहासिक थी. पीपली लाइव के केंद्रीय पात्र किसान नत्था को पीछे पछाड़ते किसान गजेंद्र सिंह ने ऐसे खुदकुशी कर ली मानो टहलने निकला हो. इस लाइव सुसाइड पर खूब बवाल मचा पर गजेंद्र के परिवार पर पैसों की बारिश हो गई. हमदर्दी तो इतनी मिली कि उस के परिजन पैसों के साथसाथ आश्रितों को नौकरी और गजेंद्र को शहीद मानने तक का दरजा मांगने लगे.यह दरअसल लालच और निकम्मेपन की हद थी जिस में संवेदनाओं की हत्या राजनेताओं से ज्यादा गजेंद्र के परिजनों ने की. उस की मौत पर जम कर सौदेबाजी हुई और तमगे तक मांगे गए. बुद्धिजीवी और बेवकूफी की ऐसी कद्र हमारे देश में ही होना मुमकिन है.

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संजय का महाभारत

नरेंद्र मोदी 4 दिन के लिए विदेश क्या गए, इधर कोहराम सा मच गया. दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय, और कई दिग्गज नेताओं के घर के बाहर दीवारों पर पोस्टर लग गए जिन में एक कवितानुमा गुजारिश थी कि संजय जोशी को वापस ले लिया जाए. भाजपा से निष्कासित संजय जोशी नरेंद्र मोदी के धुरविरोधी हैं इस के बाद भी वे घरवापसी के सपने देख रहे हैं तो बात हैरानी की है कि उन की इतनी जुर्रत कैसे हुई. बवाल मचा जिस पर मोदी तो कुछ नहीं बोले लेकिन संजय जोशी ने जरूर मोदी को अपना नेता मानने का एहसान सा कर डाला. मानोअब तक मोदी अधूरे और अपूर्ण नेता थे. मोदी, जोशी से किस हद तक चिढ़ते हैं, इस का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि जोशी के जन्मदिन पर बधाई वाले पोस्टर में उन का नाम, फोटो होने के चलते केंद्रीय राज्यमंत्री श्रीपाद येस्सो नाईक को खासी फटकार पड़ी थी. इन मामलों से कुछ लोग कयास लगा रहे हैं कि भाजपा के भीतर गुटबाजी शुरू हो गई है.

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भक्ति मार्ग

खुद को काबू में रखने के साथसाथ कामयाब नेता वह होता है जो अपने विरोधी को उकसाने की कला में माहिर हो. कुछ दिन कथित अज्ञातवास में गुजारने के बाद राहुल गांधी देश वापस आए तो सीधे केदारनाथ जा पहुंचे जहां उन्होंने शंकर से मांगा कुछ नहीं. न शादी की मन्नत की और न ही प्रधानमंत्री बन जाने की मंशा जताई. राहुल गांधी का केदारनाथ जाना दरअसल नरेंद्र मोदी को उकसाने की कोशिश थी जो आज नहीं तो कल रंग जरूर लाएगी. गांवदेहात से लोग तीर्थ करने के लिए इसलिए नहीं भागते कि इस से पुण्य या भगवान मिलता है बल्कि इसलिए जाते हैं कि फलां गया था. ये धार्मिक पाखंड शीर्ष स्तर तक फैले हैं, इस खर्चीली मानसिकता का कोई इलाज भी नहीं है जो हर स्तर पर पंडावाद को बढ़ावा देती है.

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पनाह चाहिए

कोई दूसरा देश पनाह दे तो उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ मंत्री आजमखान देश छोड़ने को तैयार हैं. कोई आंधीतूफान नहीं आया, हाहाकार नहीं मचा था. हुआ यह था कि रामपुर के 80 वाल्मीकि परिवार सांकेतिक रूप से टोपी पहन कर मुसलमान बन गए तो शक की सुई आजम खान की तरफ घूमी क्योंकि रामपुर में उन की तूती बोलती है. आमतौर पर विदेशों में पनाह कलाकार, साहित्यकार और अभिनेता किस्म के लोग लेते हैं क्योंकि उन के पीछे कट्टरवादी पड़ जाते हैं पर इधर समीकरण उलट हैं. एक कट्टरवादी नेता ही देश छोड़ने को तैयार है. आजम खान देश में रहें या विदेश में, किसी की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ना लेकिन जो 80 परिवार मुसलमान बने उन पर से वाल्मीकि यानी देशी भाषा में मेहतर, भंगी होने का ठप्पा नहीं हटने वाला. फर्क इतना है कि अब वे मुसलमान वाल्मीकि कहलाने लगेंगे.      

ब्रौडबैंड की स्पीड तो बढ़ानी ही होगी

अखबारों का यह आंकड़ा देख कर चेहरे पर मुसकान खिलती है कि देश में मोबाइल और इंटरनैट उपभोक्ताओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है. कई राज्य सरकारें छात्रों को लैपटौप बांट रही हैं लेकिन लैपटौप को चार्ज करने के लिए बिजली नहीं दे पा रही हैं. कई पार्टियों ने चुनाव में लोगों को लुभाने के लिए निशुल्क वाईफाई जैसी सुविधा देने के वादे किए और सत्ता में आने के बाद वे नाममात्र के लिए उस का अनुपालन कर रही हैं. बाजार में 4जी तथा 5जी की सुविधा वाले मोबाइल फोन हैं लेकिन हमारे सेवा प्रदाताओं का 3जी सुविधा देने में ही पसीना निकल रहा है. मोबाइल पर नैट है लेकिन उस की गति देख कर चिढ़ पैदा होती है और फिर आप के पास शांत बैठने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है. बहरहाल, भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण यानी ट्राई ने लोगों की इस परेशानी को समझा है, इसलिए इस संगठन ने इस साल के अंत तक 2 मेगावाट्स प्रति सैकंड की स्पीड से ब्रौडबैंड सेवा उपलब्ध कराने को कहा है. वर्तमान में यह गति 512 केबीपीएस है. उम्मीद की जा रही है कि यदि ब्रौडबैंड सेवा में सुधार होता है तो 2020 तक 60 करोड़ लोग उस सेवा से जुड़ जाएंगे. ट्राई का मानना है कि ढांचागत सुविधा नहीं होगी तो उपभोक्ता को बेहतर सेवा नहीं दी जा सकती. ट्राई ने यह भी सिफारिश की है कि टैलीकौम औपरेटर को इंटरनैट टैरिफ स्कीम के साथ ही अन्य जरूरी सुविधा की अनुमति भी दी जानी चाहिए. उस का कहना है कि पहले से ही कमजोर सेवा सुविधा को बढ़ाने के लिए यदि ढांचागत विकास को महत्त्व नहीं दिया जाता है तो भारत की इंटरनैट रैंकिंग और गिर सकती है. भारत की रैंकिंग इस समय इस क्षेत्र में भूटान और श्रीलंका से भी कम है.

मारुति 800 और बजाज स्कूटर

हाल ही में खबर आई कि कार निर्माता मारुति सुजूकी ने अपनी मारुति 800 कार के पहले मौडल की पहली कार को ग्राहक से वापस लेने का फैसला किया है. यह कार करीब 32 साल पहले बनी थी और इस पर कार निर्माता और खरीदार दोनों का प्यार इस कदर उमड़ा कि इस मौडल को खरीदार ने सुरक्षित रखा हुआ है और अब कंपनी ने इस कार को खरीद कर शायद अपने एंटीक शोरूम में रखने का निर्णय ले लिया है. इसी तरह से बजाज आटो ने स्कूटर निर्माण का कार्य बंद करने का फैसला कर लिया है. इन दोनों वाहनों का जिक्र इसलिए कर रहे हैं कि ये दोनों वाहन अपने समय में हमारे समाज का हिस्सा बन गए थे और सामान्य आदमी सिर्फ इन दोनों मौडलों को ही देश का एकमात्र वाहन समझता था. इसी वजह से मारुति 800 और बजाज का स्कूटर कभी लोगों का सपना हुआ करता था. इन दोनों वाहनों के लिए बुकिंग करानी पड़ती थी और काफी दिन इंतजार के बाद नंबर आ पाता था. ‘हमारा बजाज’ का नारा तो हर जबान का हिस्सा बन चुका था, लेकिन आज दोनों वाहन सड़कों से गायब हो चुके हैं. बाजार में वाहनों की भीड़ बढ़ गई है. आएदिन नए मौडल आ रहे हैं और पुराने मौडल कबाड़े का हिस्सा बन रहे हैं. विभिन्न कंपनियों के कितने ही मौडल हर साल आते हैं और कितने ही लोग इन्हें खरीद कर उन की सवारी का आनंद उठाते हैं. एक समय था जब मारुति 800 और बजाज का स्कूटर जब कोई खरीदता तो पूरे महल्ले में यह खबर फैल जाती थी. अजीब किस्म का लगाव लोगों का इन दोनों वाहनों के प्रति रहा है. भविष्य में शायद ही कोई तिपहिया या चौपहिया वाहन इस तरह की भावुक लोकप्रियता हासिल कर सके. सामाजिक परिवेश और माहौल भी अब बदल रहा है, इसलिए इन दोनों वाहनों की याद पुरानी होती पीढ़ी को आती रहेगी.

सरकारी बीपीओ में 48 हजार नौकरियां

बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ ही अब सरकार का भी मानना है कि गांव में कारोबार बढ़ाने की प्रबल संभावनाएं हैं. इस से न सिर्फ गांव मजबूत होंगे बल्कि गांव में ही युवकों को रोजगार के अवसर मिलेंगे और शहरों पर दबाव घटेगा. इस के लिए सरकार गांव में बीपीओ केंद्र खोलेगी. ये केंद्र 3 शिफ्टों में काम करेंगे और इन से करीब 48 हजार युवाओं को नौकरी के अवसर प्राप्त हो सकेंगे. संचार मंत्री रवि शंकर प्रसाद का कहना है कि इन केंद्रों की शुरुआत जल्द की जाएगी और इस के तहत बिहार में 44 तथा उत्तर प्रदेश में 84 केंद्र खोले जाएंगे. ये केंद्र मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, गोरखपुर, देवरिया, इदुकी जैसे छोटेछोटे स्थानों पर खोले जाएंगे. इन केंद्रों पर इंदिरा आवास योजना तथा महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के साथ ही केंद्र तथा राज्य सरकारों की आम जनता से जुड़ी योजनाओं के बारे में भी जानकारी दी जाएगी. इस काम के लिए सूचना तकनीकी क्षेत्र के विशेषज्ञों को गांव में ही नौकरी मिल सकेगी और उन्हें आईटी शहर बेंगलुरु आदि शहरों में नहीं जाना पड़ेगा.

सरकार का यह प्रयास गांव को मजबूत बनाने की दिशा में उत्साहजनक है. उन में छोटे शहरों के उन युवाओं के लिए अवसर पैदा होंगे जो उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए शहरों में धक्के खा रहे हैं. साथ ही, गांव के लोगों को उन की भाषा में सरकारी योजनाओं की जानकारी मिल सकेगी. इन केंद्रों पर सरकारी योजनाओं का डाटा उपलब्ध रहेगा. सरकार किस तरह की योजनाएं चला रही है, इस का भी गांव के लोगों को आसानी से पता चल सकेगा. कई सरकारी योजनाएं हैं जिन की जानकारी लोगों को नहीं होती है. इन योजनाओं का ज्यादा प्रचार प्रसार भी नहीं होता है और इस वजह से योजनाओं के लिए आवंटित पैसा भी खर्च नहीं हो पाता है. बीपीओ केंद्रों पर इस तरह की सारी जानकारी उपलब्ध होगी. यह प्रयास अच्छा है लेकिन इन केंद्रों पर यदि सरकारी विभागों की तरह काम होगा तो उस का लाभ आम जनता को नहीं मिलेगा. सरकार को निजी क्षेत्रों के बीपीओ की तर्ज पर इन्हें विकसित करना होगा और सारी सूचनाएं उन्हें देनी होंगी.

तिमाही पर टिका है बाजार का भरोसा

विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक, आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर के चीन से आगे रहने के अनुमान और कंपनियों के तिमाही परिणाम संतोषजनक रहने के बावजूद शेयर बाजार में अप्रैल के दूसरे सप्ताह की शुरुआत कमजोर रही. अप्रैल 17 को समाप्त सप्ताह के दौरान बंबई शेयर बाजार के सूचकांक की 2 सप्ताह की तेजी को करारा झटका लगा. ऐसा लगता है कि निवेशकों को इस तरह के अनुमानों पर ज्यादा भरोसा नहीं है और देश की कंपनियों के तिमाही परिणाम को निवेश का आधार माना जा रहा है. 2 सप्ताह के दौरान बाजार लगातार 3 दिन गिरावट पर बंद हुआ और 2 सप्ताह में यह बाजार का सब से खराब प्रदर्शन रहा. इस अवधि में विदेशी मुद्रा भंडार भी लगातार 3 सप्ताह की तेजी के बाद 2.592 अरब डौलर तक लुढ़क गया. खुदरा बाजार में मुद्रास्फीति की दर में भी गिरावट रही और यह 3 माह के निचले स्तर पर आ गया.

अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडीज के अनुसार, भारत की विकास दर इस साल पिछले वर्ष की तुलना में बढ़ेगी, हालांकि यह बढ़त मामूली ही रहेगी. चीन की आर्थिक विकास दर घटने के अनुमान के कारण निवेशकों का बाजार पर भरोसा टिका हुआ है. कुछ कंपनियों के तिमाही परिणाम भी अच्छे रहे और इन्हीं परिणामों पर ही बाजार का विश्वास टिका रहा.

दिन दहाड़े

एक दिन मेरा ग्वाला आया. बोलाकि उसे भैंस खरीदनी है, 10 हजार रुपए कम पड़ रहे हैं. उसे बैंक से लोन मिल रहा है, आप कृपया गवाह बन जाएं. मैं ने पहले मना कर दिया पर उस के बहुत आग्रह करने पर मैं तैयार हो गई. बहुत समय बीत जाने पर न उस ने लोन भरा और न रुपया लौटाया. गवाह बनने से बैंक ने मु झे बारबार नोटिस भेजा और मु झे 10 हजार रुपए चुकान पड़े. इस तरह एक अनपढ़ ग्वाला मु झे दिन दहाडे़ बेवकूफ बना गया. 

चंद्रिका जागानी, बर्दवान (प.बं.)

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कुछ वर्ष पहले की बात है. जाड़े के दिन थे. मैं और मेरी चाची बरामदे में बैठ कर गुनगुनी धूप का आनंद ले रहे थे. तभी एक व्यक्ति आया और बोला कि 10 रुपए में पायल साफ करा लीजिए. मैं ने व मेरी चाची ने 20 रुपए में पायलें साफ करवा लीं. तभी वह चाची की तरफ मुड़ कर बोला, ‘‘बहनजी, आप चेन भी साफ करवा लीजिए.’’ चाची ने गले से चेन उतार कर उसे दे दी. हम सामने ही बैठे थे. जब उस ने चेन साफ कर के दी तो वह बहुत पतली हो गई थी. मैं ने उस से कहा, ‘‘अरे, यह तो बहुत पतली हो गई. यह क्या किया तुम ने.’’

मैं चिल्लाने लगी, ‘‘चाची, पुलिस को फोन करो.’’ तभी वह तुरंत अपना सामान एवं साफ किया पानी उठा कर भागने लगा. घर में कोई और न होने पर वह भागने में सफल हो गया. चेन दिखाने पर पता चला कि वह तेजाब में सोना साफ कर के सोना गला कर ले गया और चेन पतली कर गया.   

मनोरमा अग्रवाल, बांदा (उ.प्र.)

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कुछ वर्ष पहले मेरी मामीजी के यहां एक छोटा लड़का आया. देखने में वह बिलकुल मासूम और भोला था. उस ने विनम्रता से कहा, ‘‘आंटी, आप के कंगन तो पुराने हो गए हैं. मैं कुछ रुपए में ही इसे ऐसा चमकाऊंगा कि वे एकदम नए लगेंगे.’’ जब मामीजी ने मना कर दिया तो वह लड़का जोर दे कर बोला, ‘‘अरे आंटी, सारा काम आप की आंखों के सामने ही होगा. काम पूरा होने के बाद ही पैसे देना.’’ मामीजी ने फौरन कंगन उतार कर उसे दे दिए. उस ने एक बरतन में डिटरजैंट जैसा घोल बना कर उस में कंगन डाल दिए. 5 मिनट बाद उस ने कहा, ‘‘आंटी, काम होने में 10 मिनट और लग जाएंगे तब तक मैं बाहर खड़े अपने दोस्त से बात कर के आता हूं.’’ जब कुछ देर बाद भी वह वापस नहीं आया तो मामीजी ने बरतन में हाथ डाला तो चकरा गईं. वहां सोने के कंगन के बदले उस ठग ने लोहे के कडे़ रख दिए थे. मामीजी के बरतन लाने के क्रम में ही उस ने यह हाथ की सफाई कर दी थी.

सुधा विजय, मदनगीर (न.दि.)

गंगा : पवित्र या पलीद?

संस्कृत में एक शब्द है-पिष्टपेषण. इस का सरलार्थ है पीसे हुए को पीसना अर्थात व्यर्थ का कोई काम करना. हमारे यहां कई दशकों से यही कुछ हो रहा है और अरबों रुपया पानी में बहाया जा रहा है. मेरी मुराद गंगा शुद्धीकरण के नाम पर हो रही नौटंकी से है. इस वर्ष के बजट में भी गंगा के लिए करोड़ों रुपयों का प्रावधान किया गया है. ‘हर हर गंगे’ या ‘गंगा ने बुलाया है’ के धार्मिक जुमले छोड़ने वाले सभी धर्मध्वजी, धर्म के सभी धंधेबाज और सभी धर्मगर्द सुबहशाम यह दावा करते हैं कि गंगा पवित्र है, गंगा का जल अमृत है, गंगा स्वर्ग से लाई गई नदी है, तभी तो हमारे प्रधानमंत्री तक गंगा की आरती में शामिल हो कर पुण्य अर्जित करने का लोभ संवरण नहीं कर पाते. वर्तमान हिंदू धर्म एक तरह से पौराणिक हिंदू धर्म है, जिस में भागवत पुराण, गरुड़ पुराण जैसे पुराणों को वेदों से भी ज्यादा प्रामाणिक मान कर प्रस्तुत किया जाता है. इन 18 पुराणों में गंगा की जो महिमा गाई गई है, उसी से प्रेरित हो कर लोग जीतेजी भी गंगा में डुबकी लगाने के लिए दौड़ते हैं और मुर्दे की अस्थियां भी उस में डुबो कर या शव को उस में प्रवाहित कर उस के लिए तथाकथित स्वर्ग में सीट बुक कराने का प्रयास करते हैं.

बृहन्नारदीय पुराण में कहा गया है कि गंगा के दर्शन, उस के जल के स्पर्श और उस में स्नान करने वाले की पहले की 7 और उन से भी पहले की 7 अर्थात 14 पीढि़यां तर जाती हैं. गंगा में इतनी शक्ति है कि यदि कोई उस से हजारों मील के अंतर पर रहता हुआ भी उसे याद करता है तो वह परम गति को प्राप्त होता है, क्योंकि गंगा के स्मरण मात्र से पापों के समूह उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जैसे वज्र के आघात से पर्वत. जो गंगा का स्मरण करता है वह सुंदर भवन, आभूषणों से युक्त नारियां, आरोग्य, वित्त और संपत्ति प्राप्त करता है. गंगा का श्रद्धा से स्मरण करने वाला तो कल्याण को प्राप्त होता ही है, उस का अश्रद्धा से स्मरण करने वाला भी स्वर्ग को प्राप्त होता है. गंगा के कीर्तन से ब्रह्महत्या,

गुरुहत्या, गोहत्या आदि पाप करने वाला मनुष्य भी पवित्र एवं पापमुक्त हो जाता है :

सप्तावरान् सप्त परान् पितृन्स्तेभ्यश्च ये परे,

पुमांस्तारयते गंगां वीक्ष्य स्पृष्ट्वावगाह्य च.  2

योजनानां सहस्रेषु गंगां स्मरति यो नर:.  12

अपि दुष्कृतकर्मा हि लभते परमां गतिम्,

स्मरणादेव गंगाया: पापसंघातपंजरम्.    13

भेदं सहस्रधा याति गिरिर्वज्रहतो यथा.   14

भवनानि विचित्राणि विचित्राभरणास्त्रिय:,  17

आरोग्यं वित्तसम्पत्तिर्गंगास्मरणजं फलम्. 18

अश्रद्धया तु गंगाया यस्तु नामानुकीर्तनम्,   22

करोति पुण्यवाहिन्या: सोऽपि

स्वर्गस्य भाजनम्.                     23

गंगाया: कीर्तनेनैव शुभां गतिमवाप्नुयात्,

ब्रह्महा गुरुहा गोघ्न: स्पृष्टो वा सर्वपातकै:. 24

(बृहन्नारदीयपुराण, गंगामाहात्म्य, अ. 5)

यह लिस्ट बहुत लंबी है. पुराणों के पूरे के पूरे अध्याय इसी तरह गंगा की महिमा गाते हैं. बृहन्नारदीय पुराण कहता है कि सब तीर्थों की खाक छानने, सभी तरह के यज्ञ करने और विभिन्न मंदिरों के दर्शन करने पर जो पुण्य प्राप्त होता है, वह अकेले गंगास्नान से मनुष्य को प्राप्त हो जाता है, इस में संदेह नहीं :

सर्वतीर्थेषु यत्पुण्यं सर्वेष्टायतनेषु च,

तत्फलं लभते मर्त्यो गंगास्नानान्न संशय:.

(बृहन्नारदीय पुराण, गंगामाहात्म्य,

अ. 5, श्लोक 34)

स्कंदपुराण (केदारखंड) में गंगा के एक हजार नामों वाला स्तोत्र दिया गया है. उस के अंत में लिखा है कि जो इस स्तोत्र को प्रतिदिन पढ़ता है, वह पापों से मुक्त हो जाता है, उसे जल्दी ही भगीरथ के समान पुत्र प्राप्त होता है, विद्यार्थी को इस के पाठ से विद्या की प्राप्ति होती है और वह बृहस्पति के समान ज्ञानी हो जाता है:

नाम्नां सहस्रमाख्यानं गंगाया: सर्वकामदम्,

यस्तु वै पठते नित्यं मुक्तिभागी भवेन्नर:.

158

पुत्रार्थी लभते पुत्रं भगीरथसमं द्रुतम्,

विद्यार्थी लभते विद्यां वाचस्पतिसमो भवेत्.              

159

(स्कंदपुराण, गंगावतरण, अ. 2)

ब्रह्मवैवर्तपुराण कहता है कि गंगा के पानी की एक बूंद से भी यदि आदमी छू जाए तो उस के करोड़ों जन्मों के ब्रह्महत्या जैसे पाप भी तत्काल नष्ट हो जाते हैं :

यत्तोयकणिका स्पर्श: पापिनां च पितामह,

ब्रह्महत्यादिकं पापं कोटिजन्मार्जितं दहेत्.

(ब्रह्मवैवर्तपुराण, गंगास्तोत्र,

अ. 3, श्लो. 21)

बृहन्नारदीय पुराण गंगा के पवित्र व शुद्ध जल की महिमा गाते हुए कहता है कि जो व्यक्ति गंगा के पावन जल में स्नान करता है, वह इतना शुद्ध हो जाता है जितना सैकड़ों यज्ञों को करने से भी शुद्ध नहीं हो सकता :

स्नातानां शुचिभिस्तोयै: गांगेयै: प्रयतात्मनाम्

व्युष्टिर्भवति या पुंसां न सा क्रतुशतैरपि,

(बृहन्ना. गंगा. अ. 5, श्लो. 28)

आदिशंकर ने अपने गंगास्तोत्र में लिखा है कि जो व्यक्ति गंगा के निर्मल जल का पान करता है, उसे यमराज देख नहीं पाता अर्थात वह यमलोक में न जा कर बैकुंठ में वास करता है :

तव जलममलां येन निपीतं

परमपदं खुल तेन गृहीतम्,

मातर्गंगे त्वयि यो भक्त:

किल तं द्रष्टुं न यम: शक्त:.

(गंगास्तोत्र, पद्य 4)

वाल्मीकिकृत गंगाष्टकस्तोत्र के अंत में कहा गया है कि जो इस का पाठ करता है उस के कलियुग के सब पाप धुल जाते हैं, वह मुक्ति प्राप्त कर लेता है और उसे संसार में बारबार जन्म नहीं लेना पड़ता :

गंगाष्टकं पठति य: प्रयत: प्रभाते

वाल्मीकिना विरचितं शुभदं मनुष्य:,

प्रक्षाल्य सोऽत्र कलिकल्मषपंकमाशु

मोक्षं लभेत्पतति नैव पुनर्भवाब्धौ.

(गंगाष्टकस्तोत्र, पद्य 9)

विभिन्न पुराणों और धर्माचार्यों के ये वचन गंगा के पानी को पवित्र, सशक्त और सब तरह के पापों, प्रदूषणों का नाशक बताते हैं. सभी हिंदू इन की सत्यता में विश्वास करते हैं, इसी आस्था के कारण वे गंगाजल को परमपवित्र मानते हैं, यहां तक कि मरणासन्न व्यक्ति के मुंह में इस की दो बूंद डाल कर यह सम झते हैं कि मृतक पापमुक्त हो कर सद्गति को प्राप्त होगा. ऐसे में जो लोग यह कोलाहल मचाते हैं कि गंगा मैली हो गई है, गंगा का पानी पीने से आदमी बीमार हो सकता है और इस में नहाने से व्यक्ति कैंसर रोग का शिकार हो सकता है, क्या वे हिंदूधर्म की खिल्ली नहीं उड़ा रहे? क्या वे आस्था को ठेस नहीं पहुंचा रहे? जो सरकारें गंगा शुद्धिकरण अभियान के नाम पर करदाताओं का पैसा पानी में निर्ममतापूर्वक बहा रही हैं, क्या वे हिंदू आस्था का मजाक नहीं उड़ा रहीं? क्या वे गंगाआरती को ढोंग नहीं बताना चाह रही हैं? या तो गंगा आम नदी की तरह है, उस में कुछ भी अलौकिक, आध्यात्मिक एवं दिव्य नहीं और पुराणों की बातेंकोरी गप हैं, पंडों द्वारा फैलाया गया मकड़जाल मात्र हैं या फिर वह अलौकिक, आध्यात्मिकतासंपन्न और दिव्य सुरनदी है तथा पुराणों की बातें प्रामाणिक एवं पत्थर पर लकीर हैं. दोनों बातें एकसमान सत्य नहीं हो सकतीं यानी या तो सरकार का शुद्धीकरण अभियान पाखंड है या फिर पुराणों के वचन मिथ्या हैं.

जो सरकारें, मंत्रिगण (प्रधानमंत्री सहित), गंगा को पवित्र व पुनीत रटे जा रहे हैं, वे किस मुंह से उस की शुद्धि की बात कर सकते हैं? जब गंगा स्वयंशुद्ध है, जब वह पापों व प्रदूषणों का विनाश करती है तब उस की शुद्धि की बात करना क्या आत्मविरोधी कथन नहीं? आप दूसरों को शुद्ध करने वाली गंगा को शुद्ध कैसे कर सकते हैं? यदि वह शुद्ध किए जाने के योग्य है तो स्पष्ट है कि उस की अपनी शुद्धता के दावे  झूठे हैं, फिर प्रधानमंत्री के गंगाआरती के आडंबर में शामिल होने का क्या औचित्य रह जाता है? फिर पुराणों के कथनों को प्रामाणिक मानने में क्या तुक है?

आप दोनों हाथों में लड्डू नहीं पकड़ सकते. दो नावों पर सवार होने वाला गंगा में गिर कर जहां से उठ जाएगा. यदि गंगा पतितपावनी है तो उन लोगों के विरुद्ध हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के अपराध में एफआईआर दर्ज होनी चाहिए और अदालत में उन पर मुकदमा चला कर उन्हें दंडित करना चाहिए, जो उसे मैली व प्रदूषित कह कर अपमानित कर रहे हैं और उसे शुद्ध करने के नाम पर न केवल हिंदू आस्थाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं, बल्कि करदाताओं के पैसे का दुरुपयोग भी कर रहे हैं. यदि वास्तव में गंगा मैली हो चुकी है और वह एक आम नदी की तरह विषाक्त हो चुकी है तो स्पष्ट है कि पुराणों की बातें निराधार और समाज में अंधविश्वास फैलाती हैं. ऐसे में उन के संविधान की धारा 51(ए) के विरुद्ध जाने के कारण उन पुराणों को प्रतिबंधित कर देना चाहिए. तब उन मंत्रियों और प्रधानमंत्री को भी देश को यह बताने का कष्ट करना पड़ेगा कि वे गंगाआरती जैसे आडंबरों में शामिल हो कर उस संविधान के विरुद्ध आचरण क्यों करते हैं जिस के प्रति प्रतिबद्ध रहने की वे शपथ ले कर मंत्री व प्रधानमंत्री बने हैं.

कोई कह सकता है कि प्राचीनकाल में गंगा में गंदे पानी के नाले नहीं गिरते थे, सो तब वह पवित्र थी, हमें आज भी पहले वाली स्थिति पैदा कर के गंगा की महानता को फिर से प्रतिष्ठित करना है.ऐसी बातें वही कह सकता है जो या तो इतना मूढ़ हो कि उसे हिंदू संस्कृति का क ख ग भी न पता हो या फिर वह इतना धूर्त हो कि सबकुछ जानते हुए भी अनजान बनने का ढोंग कर रहा हो. प्राचीनकाल में यदि गंगा में गंदे पानी के नाले नहीं गिरते थे तो अन्य नदियों में भी नहीं गिरते थे. वे सब भी गंगा के समान ही साफ थीं. फिर उन्हें उस तरह महिमामंडित क्यों नहीं किया गया जिस तरह गंगा को किया गया? वस्तुत: हिंदुओं का तो यह घोषित मंतव्य रहा है कि गंगा में चाहे कितनी ही गंदगी क्यों न आ कर पड़े, वह कभी गंदी होती ही नहीं, उलटे वह गंदगी को भी पवित्र बना देती है.

तुलसीदास ने कहा है कि जैसे सारी गंदगी को सूर्य नष्ट कर देता है, पर खुद गंदा नहीं होता, जैसे आग में फेंकी गई सारी गंदगी जल कर नष्ट हो जाती है, पर आग खुद गंदी नहीं होती, उसी प्रकार गंगा में फेंकी हुई सारी गंदगी नष्ट हो जाती है, लेकिन उस से गंगा कभी गंदी या मैली नहीं होती, क्योंकि जिन में सामर्थ्य होता है, उन पर गंदगी आदि का कोई दोष प्रभावकारी नहीं होता. स्पष्ट है, हिंदू आस्था और संस्कृति के अनुसार गंगा गंदे नालों एवं अन्य प्रकार के गंदे पदार्थों के संपर्क में आ कर भी दूषित नहीं होती. सो, प्राचीनकाल वाली स्थिति पैदा करने का तर्क बेतुका है. अब जब तुलसी की रामायण यह घोषित करती है कि गंगा उसी तरह गंदगी को नष्ट कर देती है जिस तरह सूर्य एवं अग्नि करते हैं, तब यह कैसे मान लिया जाए कि वर्तमान में वह गंदगी से गंदी हो चुकी है?

ऐसे में तो गंगा शुद्धीकरण का अभियान और भी ज्यादा शिद्दत से एक ढकोसला प्रतीत होता है. इसलिए इस के नाम पर करदाताओं के धन को पानी में बहाना सख्ती से बंद होना चाहिए और कभी पलीद न होने वाली पवित्र गंगा को ‘गंदी’, ‘दूषित’, ‘मैली’, ‘विषैली’ आदि कहने वाले तत्त्वों के खिलाफ हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को दुर्भावनापूर्वक आहत करने का मामला दर्ज होना चाहिए. वे तत्त्व चाहे सरकारी हों, अर्धसरकारी या गैरसरकारी स्वयंसेवी संगठन. यदि वैज्ञानिक परीक्षण वास्तव में यह सिद्ध कर रहे हैं कि गंगा गंदी है, मैली है तो आस्था को तिलांजलि दे कर अक्ल का रास्ता अपनाओ और पुराणों व धर्माचार्यों के गंगा के बारे में व्यक्त किए गए अतिशयोक्तिपूर्ण उद्गारों को एकदम रद्द करो, गंगा की  झूठी महिमा गाना व उस की आरती उतारने का आडंबर करना बंद करो एवं गंगा के नाम पर चलाए जा रहे धर्म व परलोक के धंधे को प्रतिबंधित करो. तभी हम इस प्रवहमान जलराशि की भलीभांति रक्षा कर सकने की मानसिकता अपना सकेंगे. अन्यथा यह नदी भी उसी तरह धर्म की बलि चढ़ती रहेगी जैसे हम श्रीकृष्ण के नाम के साथ यमुना को जोड़ कर, उस की बलि दिए जा रहे हैं.

यह खेद का विषय है कि श्रद्धा की पात्र बनाई गई नदियों को श्रद्धांधता व इस कुतर्क से सैप्टिक टैंक बनाया जा रहा है कि नदी में नाली का पानी मिल कर नदी ही बन जाया करता है. गंगा में गिरा नाली का गंदा पानी गंगाजल ही बन जाया करता है. जब किसी नदी को धर्म से जोड़ दिया जाता है तब कहा जाता है कि यह दिव्य है, यह पवित्र है, यह सारी गंदगी को वैसे ही आत्मसात कर लेती है जैसे शिव ने पौराणिक कथा में विष का पान कर लिया था, जबकि वास्तविकता यह है कि कोई भी नदी उपयोगी होने के बावजूद न दिव्य होती है न अलौकिक. वह एचटूओ (॥२हृ) के फार्मूले से बने सामान्य पानी की अचेतन व प्रवहमान विशाल राशि मात्र होती है, जिस का दिव्यता/अदिव्यता जैसे मानवीय संकल्पों से कोई संबंध नहीं होता. नदियों को धर्म के व्यापार का जलमार्ग बनाने की अनुमति दे कर प्रदूषण से नहीं बचाया जा सकता. उन्हें इहलौकिक चीज ही बनी रहने दो, सामान्य प्रवहमान विशाल जलराशियां मात्र, जो सूखती भी हैं, प्रदूषित भी होती हैं और बाढ़ग्रस्त हो कर जानमाल को हानि भी पहुंचाती हैं. इन के साथ तदनुसार ही व्यवहार अपेक्षित है. ये कल्पित स्वर्ग का साधन नहीं बन सकतीं, क्योंकि बाढ़ के दिनों यही (नदियां) उस (स्वर्ग) के कल्पित कू्रर भाई नरक का नजारा पेश किया करती हैं.  मानो तथाकथित माताएं आदमखोर डायनें बन जाया करती हैं. सो, नदी को नदी ही रहने दो और अपनी मानसिक वयस्कता का परिचय दो.

शिक्षा अधिकार कानून प्राइवेट स्कूलों के ठेंगे पर

शिक्षा अधिकार कानून के तहत देश में रहने वाले गरीब बच्चों को यह अधिकार दिया गया है कि वे भी अच्छे व महंगे प्राइवेट स्कूल में पढ़ाई कर सकें. साल 2009 में जब से केंद्र सरकार ने इस कानून को लागू किया उसी समय से प्राइवेट स्कूलों ने इस का विरोध शुरू कर दिया था. साल 2012 में उच्चतम न्यायालय ने इस को पूरे देश में लागू कर दिया. स्टेट औफ नेशन की रिपोर्ट के मुताबिक, शिक्षा अधिकार कानून के तहत देश के प्राइवेट स्कूलों में 21 लाख सीटें कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए रखी गई हैं. इन में से 6 लाख यानी करीब 30 फीसदी केवल उत्तर प्रदेश में हैं. 24 मार्च, 2015 तक 6 लाख सीटों में से केवल 54 ही दाखिले हो सके हैं. जिस समय शिक्षा अधिकार कानून का मसौदा बना था उसी समय प्राइवेट स्कूलों की लौबी इस में ऐसे नियम बनवाने में सफल हो गई जो शिक्षा अधिकार कानून के लागू होने में बाधा बने हैं.

3 दिसंबर, 2012 को सरकार द्वारा जारी शासनादेश के नियम 6 के अनुसार, गरीब और कमजोर वर्ग के बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में प्रवेश से पहले उन के पड़ोस के सरकारी स्कूल में दाखिला दिए जाने का प्रयास किया जाएगा. अगर उन को वहां दाखिला नहीं मिलता है तो वे शिक्षा अधिकार कानून की धारा 12 के तहत प्राइवेट स्कूलों में दाखिला पा सकेंगे. यह शासनादेश शिक्षा अधिकार कानून को लागू करने की राह में बाधा बना हुआ है. शिक्षा अधिकार कानून के साथ शुरू से ही खिलवाड़ होता आ रहा है. जब इस कानून को पूरे देश में लागू किया गया तो इस का खर्च प्रदेश सरकारों से उठाने के लिए कहा गया था. इस के चलते राज्य सरकारों ने इस में रुचि नहीं ली. अप्रैल 2014 में केंद्र सरकार ने शिक्षा अधिकार कानून को सर्व शिक्षा अभियान से जोड़ दिया, जिस के बाद राज्यों का खर्च केंद्र सरकार ने अपने ऊपर ले लिया.

उत्तर प्रदेश में शिक्षा विभाग ने सब से पहले लखनऊ, कानपुर, वाराणसी, आगरा, मुरादाबाद, बरेली, इलाहाबाद, गोरखपुर, फैजाबाद, मेरठ और नोएडा जैसे 11 जिलों में इस को लागू करने की शुरुआत की. इन जिलों के बेसिक शिक्षा अधिकारियों को शिक्षा अधिकार कानून के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए कहा गया. इस के लिए एक हैल्पलाइन नंबर भी दिया गया, जिस से गरीब बच्चे अपना अधिकार लेने के लिए प्राइवेट स्कूलों में दाखिला लें. 7 अप्रैल, 2015 को लखनऊ के जिलाधिकारी ने 36 बच्चों की पहली सूची जारी की. इन में से 31 बच्चों का प्रवेश लखनऊ के सिटी मोंटेसरी स्कूल की इंदिरानगर, शाखा में हो गया. प्रवेश की आखिरी तारीख 15 अप्रैल रखी गई. 8 अप्रैल को इन बच्चों के मातापिता स्कूल गए तो उन को 15 अप्रैल को आने के लिए कहा गया. जब ये लोग 16 अप्रैल को फिर स्कूल गए तो स्कूल वालों ने प्रवेश लेने से मना कर दिया. स्कूल और बच्चों के मातापिता दोनों ही अदालत की शरण में पहुंचे हैं. अदालत के फैसले तक बच्चों का भविष्य अधर में लटका है. अभ्युदय फाउंडेशन की संचालिका समीना बानो कहती हैं, ‘‘शिक्षा अधिकार कानून देश के कई राज्यों में बहुत अच्छी तरह से चल रहा है. उत्तर प्रदेश में प्राइवेट स्कूल इस कानून को लागू करने में रोडे़ अटका रहे हैं. यह गलत है. सिटी मोंटेसरी स्कूल के प्रबंधक जगदीश गांधी कहते हैं, ‘‘हमारे पास सीटें खत्म हो गई हैं तो कैसे प्रवेश दें. हमें जो परेशानियां आ रही हैं उन को ले कर ही हम अपनी बात विस्तार से कह रहे हैं. 31 बच्चों का प्रवेश केवल एक ही स्कूल में क्यों किया जा रहा है, यह समझ नहीं आ रहा है. जबकि उसी जगह पर दूसरे प्राइवेट स्कूल भी हैं.’’

गरीबअमीर बच्चों का भेदभाव

देश में शिक्षा की दोहरी प्रणाली चल रही है. एक तरफ महंगी शिक्षा देने वाले प्राइवेट स्कूल हैं जहां अमीरों के बच्चे पढ़ते हैं. ये फाइवस्टार स्कूल हैं. दूसरी तरफ सरकारी स्कूल हैं जहां पर मुफ्त में शिक्षा के साथ ही साथ खाना, किताबें और यूनीफौर्म के अलावा पढ़ने वाले बच्चों को वजीफा भी मिलता है. सरकारी स्कूलों को सुधारने के लिए सरकार जितने भी काम कर रही है, सरकारी स्कूलों की हालत उतनी ही खराब होती जा रही है. सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के भेद को खत्म करने के लिए सरकार ने शिक्षा अधिकार कानून बनाया और प्राइवेट स्कूलों से कहा कि वे अपने विद्यालय की 25 फीसदी सीटें गरीब वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित रखें. इस के लिए सरकार प्राइवेट स्कूलों को प्रति बच्चा 450 रुपए क्षतिपूर्ति देने की बात कहती है.

प्राइवेट स्कूलों को डर है कि गरीब बच्चों के साथ पढ़ने से अमीर बच्चे उन के स्कूल से अपना नाम कटा सकते हैं. इसलिए वे शिक्षा अधिकार कानून के तहत बच्चों को अपने यहां प्रवेश नहीं देना चाहते हैं. प्राइवेट स्कूलों का दूसरा तर्क है कि सरकार सरकारी स्कूल में प्रति बच्चा 2200 रुपए व्यय करती है. जब वही बच्चा प्राइवेट स्कूल में पढ़ने आता है तो उस को केवल 450 रुपए देने की बात कहती है. प्राइवेट स्कूलों ने ऐसे कई पेंच फंसा कर बच्चों को प्रवेश देने में आनाकानी की है. अभी जिन बच्चों का प्राइवेट स्कूलों की दहलीज तक जाने का साहस हुआ है उन के पीछे किसी न किसी प्रकार से स्वयंसेवी संगठन रहे हैं. अगर इन बच्चों के मातापिता को अपने आप चल कर इन प्राइवेट स्कूलों तक जाना होगा तब तो प्राइवेट स्कूल मालिक इन को स्कूल में शायद घुसने ही नहीं देंगे. जिन स्कूलों ने दबाव में आ कर गरीब बच्चों का प्रवेश शिक्षा अधिकार कानून के तहत लिया है, वहां बच्चों को तमाम परेशानियां झेलनी पड़ रही हैं. गरीब बच्चों को पहली बार बडे़ स्कूलों में प्रवेश तो मिल गया पर उन के पास पढ़ाई की बुनियादी सुविधाएं, जैसे किताबें, ड्रैस नहीं हैं.

5 साल के बाद शिक्षा अधिकार कानून क ा पालन शुरू किया गया है. इस को देख कर कहा जा सकता है कि अमीरी और वर्णव्यवस्था जैसे रोडे़ शिक्षा अधिकार कानून को लागू नहीं होने दे रहे हैं. जिस दिन शिक्षा अधिकार कानून के तहत अमीर और गरीब बच्चे एकसाथ एक ही क्लास में पढ़ सकेंगे, उस दिन सही माने में शिक्षा अधिकार कानून सफल हो सकेगा.

लचर न्याय व्यवस्था

केंद्र सरकार का कहना है कि उस ने अदालतों में बकाया मामलों की गिनती घटाने के लिए सुबह व शाम को अदालतें चलाने के लिए काफी पैसा दिया है पर इस का इस्तेमाल नहीं हो रहा क्योंकि वकीलों की एसोसिएशनें इस प्रयोग को अपनाना नहीं चाहतीं. लोक अदालतों व कानूनी सहायता के लिए स्वीकृत किए गए पैसे का उपयोग नहीं हो रहा है क्योंकि वकील आमतौर पर लोक अदालतों के पक्ष में नहीं हैं. हमारी न्याय व्यवस्था असल में एक बड़ी माफिया बन गई है जिस में मुवक्किल, वकील, सरकार, अदालत सब भरभर कर पैसा बना रहे हैं. अदालतों में मामले यदि बकाया रहते हैं तो कुछ तड़पते हैं तो ज्यादातर लोग मौज करते हैं. अदालतों में तारीखें देने पर खूब पैसा बनता है. सर्वोच्च न्यायालय तक में मामले की जल्दी या देर से सुनवाई के लिए हेराफेरी हो सकती है. सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने मार्च 15 में एक मामले में इस बारे में फटकार लगाई भी थी. निचली अदालतों में तो न जाने क्याक्या होता है.

मामला लटका रहे तो वकीलों की बनती है. हर थोड़े दिन पर तारीख पड़ती है. दोनों तरफ के वकील बिना कुछ किए फीस लेते हैं जबकि सुनवाई होती नहीं. अदालत में जाने वाले मुंह लटका कर लौटते हैं. सरकार को भी मजा रहता है. सरकारी कारिंदे मामला दायर कर घर बैठ जाते हैं और सरकारी वकील उन का काम करते रहते हैं, पिसता है नागरिक. सरकार जानती है कि नागरिक थकहार जाएगा, इसलिए सरकारी आदमी पहले से लेदे कर फैसला करने का हक रखता है. यदि अदालतों में मामले सही समय पर निर्णायक हो जाएं तो भ्रष्टाचार 5 प्रतिशत ही रह जाए और यह स्थिति सरकार, वकीलों, अदालतों आदि के लिए भयावह है. इसीलिए, वे अदालतों का सुधार नहीं चाहते.

केंद्र सरकार का कहना है कि सुबहशाम की अदालतों के स्वीकृत 2,500 करोड़ रुपए में से 234 करोड़ रुपए इस्तेमाल हुए, लोक अदालतों के लिए स्वीकृत 300 करोड़ रुपए में से 65 करोड़ रुपए, जजों के प्रशिक्षण पर 400 में से 157 करोड़ रुपए, न्यायिक एकेडमी पर 300 में से 17 करोड़ रुपए और अदालतों के मैनेजरों पर 300 में से 37 करोड़ रुपए ही खर्च हुए. कुल स्वीकृत 5,000 करोड़ रुपए में से 930 करोड़ रुपए ही खर्च किए गए. सवाल पैसे की कमी का नहीं, सवाल उस पैसे का है जो जनता के जरिए न्याय व्यवस्था और शासन व्यवस्था की जेब में जाता है, जो लाखोंकरोड़ों का है.

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