केंद्र सरकार का कहना है कि उस ने अदालतों में बकाया मामलों की गिनती घटाने के लिए सुबह व शाम को अदालतें चलाने के लिए काफी पैसा दिया है पर इस का इस्तेमाल नहीं हो रहा क्योंकि वकीलों की एसोसिएशनें इस प्रयोग को अपनाना नहीं चाहतीं. लोक अदालतों व कानूनी सहायता के लिए स्वीकृत किए गए पैसे का उपयोग नहीं हो रहा है क्योंकि वकील आमतौर पर लोक अदालतों के पक्ष में नहीं हैं. हमारी न्याय व्यवस्था असल में एक बड़ी माफिया बन गई है जिस में मुवक्किल, वकील, सरकार, अदालत सब भरभर कर पैसा बना रहे हैं. अदालतों में मामले यदि बकाया रहते हैं तो कुछ तड़पते हैं तो ज्यादातर लोग मौज करते हैं. अदालतों में तारीखें देने पर खूब पैसा बनता है. सर्वोच्च न्यायालय तक में मामले की जल्दी या देर से सुनवाई के लिए हेराफेरी हो सकती है. सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने मार्च 15 में एक मामले में इस बारे में फटकार लगाई भी थी. निचली अदालतों में तो न जाने क्याक्या होता है.
मामला लटका रहे तो वकीलों की बनती है. हर थोड़े दिन पर तारीख पड़ती है. दोनों तरफ के वकील बिना कुछ किए फीस लेते हैं जबकि सुनवाई होती नहीं. अदालत में जाने वाले मुंह लटका कर लौटते हैं. सरकार को भी मजा रहता है. सरकारी कारिंदे मामला दायर कर घर बैठ जाते हैं और सरकारी वकील उन का काम करते रहते हैं, पिसता है नागरिक. सरकार जानती है कि नागरिक थकहार जाएगा, इसलिए सरकारी आदमी पहले से लेदे कर फैसला करने का हक रखता है. यदि अदालतों में मामले सही समय पर निर्णायक हो जाएं तो भ्रष्टाचार 5 प्रतिशत ही रह जाए और यह स्थिति सरकार, वकीलों, अदालतों आदि के लिए भयावह है. इसीलिए, वे अदालतों का सुधार नहीं चाहते.
केंद्र सरकार का कहना है कि सुबहशाम की अदालतों के स्वीकृत 2,500 करोड़ रुपए में से 234 करोड़ रुपए इस्तेमाल हुए, लोक अदालतों के लिए स्वीकृत 300 करोड़ रुपए में से 65 करोड़ रुपए, जजों के प्रशिक्षण पर 400 में से 157 करोड़ रुपए, न्यायिक एकेडमी पर 300 में से 17 करोड़ रुपए और अदालतों के मैनेजरों पर 300 में से 37 करोड़ रुपए ही खर्च हुए. कुल स्वीकृत 5,000 करोड़ रुपए में से 930 करोड़ रुपए ही खर्च किए गए. सवाल पैसे की कमी का नहीं, सवाल उस पैसे का है जो जनता के जरिए न्याय व्यवस्था और शासन व्यवस्था की जेब में जाता है, जो लाखोंकरोड़ों का है.