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सास बहू सोप ओपेरा

‘नख से शिख तक गहनों से लदीफंदी, हैवी वर्क वाली साडि़यों में लिपटी, सोलहशृंगार किए दिनरात साजिशों में व्यस्त, खुन्नस खाई हुई, बातबात पर आंखें मटकाती, लंबीलंबी सांसें लेती, एकदूसरे के खिलाफ आग उगलती, जहरीली हंसी हंसती, आठों पहर होंठों पर कुटिल मुसकान बनाए रखती’, कुछ यही है टीवी धारावाहिकों की सासबहू का असली चित्रण. इन सासबहू के धारावाहिकों में कुछ तो ऐसा है कि रात के 8 बजे ही घरों में सासबहू की साजिश भरे किस्से देखने के लिए टीवी औन हो जाते हैं और घरों में कर्फ्यू सा लग जाता है. दरअसल, सासबहू परिवार का वह महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं या कहें परिवार की धुरी हैं जिन के संबंधों को ले कर न केवल चर्चाएं होती हैं, लेख लिखे जाते हैं बल्कि टीवी धारावाहिकों पर तो इस विषय का मानो एकछत्र राज्य है.

सासबहू ओपेरा का इतिहास

एकता कपूर ने महिलाओं की नब्ज टटोलते हुए वर्ष 2000 में टैलीविजन के स्टार प्लस चैनल पर धारावाहिक ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ से सासबहू के धारावाहिकों का इमोशनल ट्रैंड शुरू किया. साढ़े 8 साल से भी अधिक चलने वाला यह धारावाहिक उस समय का सब से अधिक देखा जाने वाला लोकप्रिय धारावाहिक था. तुलसी, मिहिर, कोमालिका इस धारावाहिक के सर्वाधिक लोकप्रिय किरदार थे. धारावाहिक में इन किरदारों की जिंदगी में कुछ भी घटता था तो लोगों में वह विचारविमर्श का अहम मुद्दा होता था. लोग खुद को उस से जुड़ा पाते थे. धारावाहिक में तुलसी का किरदार भारतीय परिवारों में स्त्रियों के लिए आदर्श बन गया था. इन धारावाहिकों के किरदारों की शोहरत आसमान छूने लगी. ये दर्शकों के बीच खासे लोकप्रिय हो गए. धारावाहिक में भारतीय परंपरा, संस्कृति, रिश्तों की खट्टीमीठी चुहलबाजी, लेटेस्ट फैशन, घर का इंटीरियर आदि सबकुछ था. इस धारावाहिक ने टीवी क्षेत्र में एक क्रांति ला दी थी. इस धारावाहिक को सासबहू पर आधारित धारावाहिकों की सफलता का मापदंड माना जाने लगा. लेकिन बदलते समय के साथ टीवी धारावाहिक का अर्थ सासबहू के झगड़े और षड्यंत्र रचने की कहानी बन गया. सासबहू पर आधारित फार्मूला इतना हिट हुआ कि टीवी की दुनिया इस खास और अनूठे रिश्ते के इर्दगिर्द घूमने लगी.

अगर वर्तमान धारावाहिकों की बात करें तो वे भी घूमफिर कर सासबहू का ही राग अलाप रहे हैं. धारावाहिक में अगर कुछ दिखता है तो केवल सासबहू का राग जिस में सास हमेशा बहू के खिलाफ खड़ी नजर आती है तो बेचारी बहू सास की उम्मीदों पर खरा उतरने की कोशिश करती दिखती है. एक ऐसा ही धारावाहिक है ‘दीया और बाती हम’, जिस में नायिका संध्या आईपीएस औफिसर बनना चाहती है. वह पढ़ीलिखी समझदार, सुशील व पारिवारिक दायित्वों को निभाने वाली बहू है. धारावाहिक के थीम के अनुसार, शुरुआत में तो पति सूरज संध्या को सपोर्ट करता दिखाई देता है लेकिन धीरेधीरे धारावाहिक थीम से हट कर सासबहू पर केंद्रित हो जाता है जिस में सास यानी भाभो चाहती है कि बहू पहले खुद को अच्छी बहू साबित करे, घर व नौकरी में पहली प्राथमिकता घर को दे. यानी वही, बहू पर नियंत्रण करने वाली सास का चरित्र.

नकारात्मक प्रभाव

सासबहू के रिश्ते को आधार बना कर बनने वाले सभी सीरियलों में इस रिश्ते में तनाव, तनातनी, प्रतियोगिता, एकदूसरे को नीचा दिखाने के दृश्य दिखाए जाते हैं जहां सास षड्यंत्र रचती रहती है, घर पर अपना राज चाहती है. वहीं बहू को पीडि़ता के रूप में दिखाया जाता है जो बिना कुछ बोले सबकुछ सहती रहती है. सासबहू के तनावपूर्ण रिश्ते का असर वास्तविक जिंदगी में परिवारों पर पड़ता है. विभिन्न सर्वेक्षणों और शोधों में भी यह बात सामने आई है कि संयुक्त परिवारों में तनाव का 60 प्रतिशत कारण सासबहू के बीच का रिश्ता होता है और सासबहू के ये धारावाहिक इस रिश्ते पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं. ये धारावाहिक सास की इमेज को खराब करते हैं जबकि वास्तविक जीवन में सासबहू का रिश्ता इतना खराब नहीं है जितना धारावाहिकों में दिखाया जाता है. धारावाहिकों में महिलाओं को या तो चालाक व चालबाज या फिर कमजोर या कुंठित दिखाया जाता है जबकि वास्तविक जीवन की बहुओं व सासों के बीच रिश्ते बदल रहे हैं.

बहुएं कामकाजी हैं जिन का सास से कम ही वास्ता पड़ता है और सास भी बहू के साथ एडजस्ट करने की कोशिश करती है लेकिन ये धारावाहिक वास्तविक जीवन के रिश्तों की इस कोशिश पर पानी फेरते नजर आते हैं. वे सासबहू को एकदूसरे के खिलाफ षड्यंत्र करना, चालें चलना सिखाते हैं. जो दांवपेंच इन धारावाहिकों में दिखाए जाते हैं वे आम महिला के वश की बात नहीं है. वे मात्र इस रिश्ते को दिग्भ्रमित कर रहे हैं.

समाज से कोई सरोकार नहीं

भारत में कुल मिला कर 200 से अधिक चैनल हैं और ये मनोरंजन के सब से सस्ते माध्यम हैं. धारावाहिकों में जो दिखाया जाता है उस का समाज या परिवार की समस्याओं से कोई लेनादेना नहीं है. जो इन धारावाहिकों का कंटैंट बनाते हैं उन्हें समाज की समस्याओं की न तो समझ है न ही उन का उद्देश्य इन समस्याओं को समझ कर उस का समाधान पेश करना है. दरअसल, उन का एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना है. क्या दिखाया जाए इस की निर्णयशक्ति इन चैनलों को चलाने वाले कौर्पोरेट के पास है जो अपनी कहानियों में ऐसे पात्र गढ़ते हैं जो न सीधेसच्चे हैं और न ही उन में कोई समझदारी है. वे दिखाते हैं केवल हत्या, हिंसा, जालसाजी धोखाधड़ी करती 2 किनारों पर खड़ी 2 औरतें जो एकदूसरे के खिलाफ हैं. ये पात्र समाज को कोई सकारात्मक संदेश देते नहीं दिखाई देते. इन धारावाहिकों में सिर्फ उच्चवर्ग का रहनसहन और उन की तड़कभड़क दिखाई जाती है जिस में आम सासबहू की समस्याएं दूरदूर तक नजर नहीं आतीं. इन धारावाहिकों में घरों में होने वाली उठापटक काफी तड़कभड़क के साथ परोसी जाती है. इन के किरदार या तो पूरी तरह नैतिकता से दूर होते हैं या पूरी तरह आदर्शवादी. वास्तविक जीवन में ऐसी महिलाएं कहां दिखाई देती हैं जो दिनभर सजधज कर कुटिल चालें चलती व षड्यंत्र करती हों.

धर्मभीरु व अंधविश्वासी

एक तरफ इसरो ने मंगल ग्रह में अपना यान छोड़ दिया है लेकिन हमारे टीवी धारावाहिक आज भी पूजापाठ, यज्ञहवन, ग्रहशांति, जन्मकुंडली आदि पर अटके हैं. इन धारावाहिकों में पत्नी के ग्रहों की वजह से पति का जीवन खतरे में पड़ जाता है और वह पति के जीवन की रक्षा के लिए धर्मकर्म, आडंबरों का सहारा लेती है. ये धारावाहिक महिलाओं की छवि को मनमाने तरीके से तोड़मरोड़ कर अपना स्वार्थ साधने हेतु पेश किए जा रहे हैं जो समाज को आगे ले जाने की बजाय पीछे ले जाते प्रतीत होते हैं. शहर में बढ़ते अपराधों के बीच ऐसे पात्र गढ़ने की जरूरत है जो घरबैठी महिलाओं में छद्म डर रोपित करने के बजाय उन्हें मानसिक तौर पर आधुनिक व सुदृढ़ बनाएं, न कि धार्मिक आडंबरों की दलदल में धकेलें.

धारावाहिक का असर

टीवी धारावाहिक का आम महिला पर असर कुछ इस तरह देखने को मिला. गे्रटर नोएडा में एक महिला जो कई दिनों से टीवी पर एक सीरियल देख रही थी, जिस में युवक ससुराल की हालत सुधारने के लिए घरजमाई बन कर रहने लगता है. टीवी सीरियल देख कर यह महिला, जिद पर अड़ गई कि वह भी पति को घरजमाई ही बनाएगी. लेकिन जब पति तैयार नहीं हुआ तो उस ने दहेज का सारा सामान ट्रक में भर कर मायके जाने की तैयारी कर ली. इस तरह धारावाहिकों में दिखाए जाने वाले घटनाक्रम आम जनजीवन की जीवनशैली पर अप्रत्यक्ष रूप से गलत प्रभाव डालते हैं और पारिवारिक अलगाव का कारण बनते हैं.

हमारी बेडि़यां

मेरे एक रिश्तेदार सपरिवार बनारस से रेणुकूट जा रहे थे. रास्ते में दुर्घटना हो गई. उन की कार ट्रक से जा टकराई. 10 दिन हौस्पिटल में रहने के बाद वे लोग घर आए. घटना के बाद उन लोगों को अपनी पड़ोसिन की कही बात याद आई. पड़ोसिन ने कहा था, ‘‘दुर्गाजी की जिस भी मूर्ति में बाघ का मुंह खुला हो वह अशुभ होती है.’’ उन के घर में भी दुर्गा की चांदी की एक मूर्ति थी जिस में बाघ का मुंह खुला हुआ था. यह मूर्ति उपहार में किसी ने दी थी. उन लोगों ने मूर्ति को मंदिर में दान कर दिया. बाद में पता चला कि दुर्घटना का कारण मूर्ति नहीं, ड्राइवर को झपकी आना था. हमारे समाज की विडंबना है कि ज्यादातर पढ़ेलिखे लोग सब सोचतेसमझते हुए भी अंधविश्वास की बेडि़यों से बंध जाते हैं.      

नीरू श्रीवास्तव, मथुरा (उ.प्र.)

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एक बार हमारे गांव राहमर, जनपद गाजीपुर में कामाख्या धाम (जो राहमर के नजदीक है) में 6-7 साधुमहात्मा जैसे लोग पधारे और लोगों की सुखशांति व धनसंपत्ति में बढ़ोतरी के लिए यज्ञ करने के लिए ऐलान किया. धर्मांध जनता उन के दर्शनों के लिए उमड़ी. जिस से जो कुछ बनता, उन के चरणों में चढ़ावा चढ़ाता. उन लोगों ने यज्ञ करने के नाम पर बहुत से धन की उगाही कर ली और एक दिन आधी रात के बाद सारा रुपयापैसा ले कर चंपत हो गए. जब सुबह लोगों को पता चला तो सब हाथ मलते रह गए.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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गरमी के दिनों में हमारी भांजी का विवाह था. पहली भांजी थी, लिहाजा हम तीनों मामामामियां उत्साह के साथ ‘चीकट’ (भात) ले कर पहुंचे. ननद का औपरेशन हुआ था. वे नीचे नहीं बैठ पाती थीं. रस्में शुरू हुईं. हम सभी के लिए साडि़यां, पैंटशर्ट आदि ले कर गए थे. तभी उन की बुजुर्ग रिश्तेदार कहने लगीं कि मामामामी को भांजी के पैर धो कर पीना है. मैं ने विरोध किया पर जेठानीजी तैयार हो गईं. भांजी का अंगूठा धोया गया व हम सब को चरणामृतस्वरूप पीने को दिया गया. बात यहीं खत्म नहीं हुई. वह बुजुर्ग कहने लगीं, बहनबहनोई व भांजी की लटें धो कर उस का पान करना है. उन्होंने एक कटोरा ले कर तीनों के बाल धोए व हमें दिए. मैं ने तो फेंक दिया पर हमारे जेठजी ने पसीनेभरा गंदा पानी पी लिया. गरमी चरम पर थी. थोड़ी देर बाद उन्हें उल्टियां होने लगीं. छोटी जगह होने के कारण वहां डाक्टर भी नहीं था. उन्हें तुरंत गाड़ी में निकटतम शहर ले जाना पड़ा. एक मूखर्तापूर्ण रस्म के कारण हम शादी छोड़ अस्पताल में बैठे थे.

सुजाता गुप्ता, भोपाल (म.प्र.)

सहारे की तलाश

दिल आज फिर दिमाग से विद्रोह कर बैठा. क्या ऐसी ही जिंदगी की उम्मीद की थी उस ने? क्या ऐसे ही जीवनसाथी की कल्पना की थी उस ने? खुद वह कितनी संभावनाओं से भरी हुई थी, अपना रास्ता तलाश कर मंजिल तक पहुंचना वह जानती है, रिश्तों के तारों के छोर सहला कर उन्हें जोड़ना भी उसे आता है. जीवनसाथी ऐसा हो जिस पर नाज कर सके. उस का कोई तो रूप ऐसा हो, वह शारीरिक रूप से ताकतवर हो या मानसिक रूप से परिपक्व हो, खुला व्यक्तित्व हो या फिर आर्थिक रूप से हर सुख दे सके या फिर भावनात्मक रूप से इतना प्रेमी हो कि उस के माधुर्य में डूब जाओ. कोई तो कारण होना चाहिए किसी पर आसक्ति का. प्यार सिर्फ साथ रहने भर से हो सकता है, एकदूसरे की कुछ मूलभूत जरूरतें पूरी करने से हो सकता है. लेकिन आसक्ति, बिना काण नहीं हो सकती.

छलकपट से भरा दिमाग, कभी किसी को निस्वार्थ प्यार नहीं कर सकता और न पा सकता है. ऐसे इंसान पर प्यार लुटाना लुटने जैसा प्रतीत होता है. दिमाग समझता है जिंदगी को नहीं बदल सकते हम. इंसान को नहीं बदल सकते. पति की काबिलीयत, स्वभाव या क्षमता को घटाबढ़ा नहीं सकते, सबकुछ ले कर चालाकी से अपनी टांग ऊपर रखने की आदत को नहीं बदल सकते. पर खुद को बदल सकते हैं, खुद के नजरिए को बदल सकते हैं. दिमाग की यह घायल समझ दिल से आंसुओं के सैलाब में बह जाती है जब दिल नहीं सुन पाता है किसी की, जब दिल खुद से ही तर्क करने लग जाता है. पूरी जिंदगी रीत गई, अब क्या समेटना है. अब तक जिंदगी के हर पहलू को अपने सकारात्मक नजरिए से देखती रही. पर कब तक दिल में उठ रही नफरत को दबाती रहती. क्या किसी ऐसे ही जीवनसाथी की कल्पना की थी उस ने जो सिर्फ बिस्तर पर ही रोमांटिक प्रणयी हो.

आज वैभवी के दिल के तार झनझना गए थे. उस के पिताजी ने अपनी छोटी सी जायदाद के 2 हिस्से कर अपने दोनों बच्चों में बांट दिए थे. भैया का परिवार मुंबई में रहता था. उस की नौकरी वहीं पर थी. वह खुद दिल्ली में रहती थी और मांपिताजी चंडीगढ़ में रहते थे. डाक्टर ने पिताजी को हर्निया का औपरेशन कराने के लिए कह दिया था. पिताजी काफी समय से तकलीफ में थे. जब वह पिछली बार चंडीगढ़ गई थी तो मां ने पिताजी की तकलीफ के बारे में उसे बताया था. वह विचलित हो गई थी. उस ने भैया से फोन पर बात की तो भाई ने यह कह कर मजबूरी जता दी थी कि इतनी छुट्टी उसे एकसाथ नहीं मिल सकती कि वह चंडीगढ़ जा कर औपरेशन करा सके और साथ ही मां से तेरी भाभी की बिलकुल नहीं बनती, इसलिए मुंबई ला कर भी औपरेशन की बात नहीं सोच सकता.

‘‘वैसे भी तू जानती है वैभवी, छोटा सा फ्लैट, पढ़ने वाले बच्चे, बीमार आदमी के साथ बडे़ शहर में बहुत मुश्किल हो जाती है,’’ भैया ने मजबूरी जताते हुए कहा.

‘‘तो फिर क्या पिताजी को ऐसे ही तकलीफ में मरने के लिए छोड़ दें,’’ वैभवी के स्वर में तल्खी आ गई थी.

‘‘तो फिर तू चली जा या फिर प्रकाश चला जाए. उस की तो सरकारी नौकरी है, छुट्टी मिलने में इतनी दिक्कत भी नहीं होगी,’’ उस के स्वर की तल्खी भांप कर वह भी चिढ़ गया था.

‘‘लेकिन भैया, बेटे के होते हुए दामाद का एहसान लेना क्या ठीक है?’’ वह अपने को संयमित कर लाचारी से बोली थी.

‘‘क्यों? जब हिस्सा मिला तब तो बेटीदामाद जैसी कोई बात नहीं हुई और जब जिम्मेदारी निभाने की बात आई तो वह दामाद हो गया,’’ भैया भुन्नाता हुआ बोला.

वह दुखी हो गई थी. दिल किया कि कोई तीखा सा जवाब दे दे. पर चुप रह गई. आखिर गलत भी नहीं कहा था. पर यह सब कहने का अधिकार भी भैया को तब ही था जब वह अपने कर्तव्य का हर समय पालन करता.

वह तो जायदाद में हिस्सा बिलकुल भी नहीं चाहती थी. उस ने पिताजी को बहुत मना भी किया था पर एक तो मांपिताजी की जिद और दूसरे, प्रकाश की चाहत भांप कर उस ने हां बोल दी. सोचा, जायदाद पा कर ही सही, प्रकाश उस के मांपिताजी के लिए नरम रुख अपना ले. इस के अलावा जरूरत पड़ने पर उसे चंडीगढ़ जाने में भी आसानी हो जाएगी. एकदम मना नहीं कर पाएगा प्रकाश उसे. पर भैया के व्यवहार में तब से तटस्थता आ गई थी. भाभी तो हमेशा से ही तटस्थ थीं. पर भैया का व्यवहार वैसे सामान्य था. उसे अपनी परवा नहीं थी. बस, मांपिताजी का ध्यान रख ले भैया, इसी से वह खुश रहती. पर भैया के जवाब से उस का दिल टूट गया था. भैया का अगर जवाब ऐसा है तो प्रकाश का जवाब तो वह पहले से ही जानती है. फिर भी उस ने सोचा एक बार तो प्रकाश से बात कर के देख ले. उस से और मां से पिताजी के औपरेशन का तामझाम नहीं संभलेगा. कोई भी परेशानी खड़ी हो गई तो एक पुरुष का साथ तो होना ही चाहिए औपरेशन के समय. प्रकाश का मूड ठीक सा भांप कर एक दिन उस ने प्रकाश से बात कर ही ली.

‘‘पिताजी की तकलीफ बढ़ती ही जा रही है प्रकाश, कल भी बात हुई थी मां से. डाक्टर कह रहे हैं कि समय से औपरेशन करवा लो.’’

‘‘हां तो करवा लें,’’ प्रकाश के चेहरे के भाव एकदम से बदल गए थे.

‘‘तुम चलोगे चंडीगढ़, कुछ दिन की छुट्टी ले कर?’’

‘‘क्यों, उन के बेटे का क्या हुआ?’’

‘‘किस तरह से बोल रहे हो, प्रकाश. बात की थी मैं ने भैया से, छुट्टी नहीं मिल रही उन्हें. थोड़े दिन की छुट्टी तुम ले लो न. औपरेशन करवा कर तुम आ जाना. फिर कुछ दिन मैं रह लूंगी. फिर थोड़े दिन के लिए भैया भी आ जाएंगे. तो पिताजी की देखभाल हो जाएगी.’’

‘‘मुझे भी छुट्टी नहीं मिलेगी अभी,’’ कह कर प्रकाश उठ कर बैडरूम की तरफ चल दिया, ‘‘और हां,’’ वह रुक कर बोला, ‘‘तुम भी वहां लंबा नहीं रह सकती हो, यहां खानेपीने की दिक्कत हो जाएगी मुझे,’’ इतना कह कर प्रकाश चला गया.

उस ने भी हार नहीं मानी. और उस के पीछे चल दी, चलतेचलते उस ने कहा, ‘‘प्रकाश, उन्होंने हम दोनों भाईबहन को अपना सबकुछ बांट दिया है तो हमारा भी तो उन के प्रति फर्ज बनता है.’’

‘‘तो,’’ प्रकाश तल्खी से बोला, ‘‘बेटी को ही दिया है क्या, बेटे को नहीं दिया, वह क्यों नहीं आ जाता?’’

‘‘उफ,’’ वैभवी का सिर भन्ना गया. प्रकाश के तर्क इतने अजीबोगरीब होते हैं कि जवाब में कुछ भी कहना मुश्किल है. संवेदनहीनता की पराकाष्ठा तक चला जाता है. दिल घायल हो गया. पिताजी के 2 अपंग सहारे प्रकाश और भैया जिन पर पिताजी ने अपना सबकुछ लुटा दिया, जिन्हें पिताजी ने अपना आधार स्तंभ समझा, आज कैसा बदल गए हैं. इस के बाद उस ने प्रकाश से कोई बात नहीं की. चुपचाप अपना रिजर्वेशन करवाया और जाने की तैयारी करने लगी. प्रकाश के तने हुए चेहरे की परवा किए बिना वह चंडीगढ़ चली गई. उस की बेटी इंजीनियर थी और जौब कर रही थी. 2 दिन बाद वह कुछ दिनों की छुट्टी में घर आ रही थी. वैभवी ने उसे वस्तुस्थिति से अवगत करवाया और चंडीगढ़ चली गई. मां ने वैभवी को देखा तो उन्हें थोड़ा सुकून मिला.

वैभवी को देख मां ने कहा, ‘‘दामाद जी नहीं आए?’’

‘‘तुम्हारा बेटा आया जो दामाद आता,’’ वह चिढ़ कर बोली, ‘‘बेटी काफी नहीं है तुम्हारे लिए?’’

मां चुप हो गईं. एक वाक्य से ही सबकुछ समझ में आ गया था. पिताजी ने कुछ नहीं पूछा. दुनिया देखी थी उन्होंने. फिर कुछ पूछना और उस पर अफसोस करने का मतलब था पत्नी के दुख को और बढ़ाना. सबकुछ समझ कर भी ऐसा दिखाया जैसे कुछ हुआ ही न हो. पिताजी का जिस डाक्टर से इलाज चल रहा था उन से जा कर वह मिली. औपरेशन का दिन तय हो गया. उस ने प्रकाश व भाई को औपचारिक खबर दे दी. डरतेडरते उस ने पिताजी का औपरेशन करवा दिया. मन ही मन डर रही थी कि कोई ऊंचनीच हो गई तो क्या होगा. पर पिताजी का औपरेशन सहीसलामत हो गया, उस की जान में जान आई. पिताजी को जिस दिन अस्पताल से घर ले कर आई, मन में संतोष था कि वह उन के कुछ काम आ पाई. पिताजी को बिस्तर पर लिटा कर, लिहाफ उढ़ा कर उन के पास बैठ गई. उन के चेहरे पर उस के लिए कृतज्ञता के भाव थे जो शायद बेटे के लिए नहीं होते. आज समाज में बेटी को पिता की जायदाद में हक जरूर मिल गया था लेकिन मातापिता अपना अधिकार आज भी बेटे पर ही समझते हैं.

पिताजी ने आंखें बंद कर लीं. वह चुपचाप पिताजी के निरीह चेहरे को निहारने लगी. दबंग पिताजी को उम्र ने कितना बेबस व लाचार बना दिया था. भैया व प्रकाश, पिताजी के 2 सहारे कहां हैं? वह सोचने लगी, उसे व भैया को पिताजी ने कितने प्यार से पढ़ायालिखाया, योग्य बनाया, वह लड़की होते हुए भी अपने पति की इच्छा के विरुद्ध अपने पिता की जरूरत पर आ गई. लेकिन भैया, वह पुरुष होते हुए भी अपनी पत्नी की इच्छा के विरुद्ध अपने पिता के काम नहीं आ पाए. सच है रिश्ते तो स्त्रियां ही संभालती हैं, चाहे फिर वह मायके के हों या ससुराल के. लेकिन पुरुष, वह ससुराल के क्या, वह तो अपने सगे रिश्ते भी नहीं संभाल पाता और उस का ठीकरा भी स्त्री के सिर फोड़ देता है. पिताजी कुछ दिन बिस्तर पर रहे. उन की तीमारदारी मां और वह दोनों मिल कर कर रही थीं. भैया ने पापा की चिंता इतनी ही की थी कि एक दिन फुरसत से मां व पिताजी से फोन पर बातचीत करने के बाद मुझ से कहा, ‘‘कुछ जरूरत हो तो बता देना, कुछ रुपए भिजवा देता हूं.’’

‘‘उस की जरूरत नहीं है, भैया,’’ रुपए का तो पिताजी ने भी अपने बुढ़ापे के लिए इंतजाम किया हुआ है. उन्हें तो तुम्हारी जरूरत थी. उस ने कुछ कहना चाहा पर रिश्तों में और भी कड़वाहट घुल जाएगी, सोच कर चुप्पी लगा गई और तभी फोन कट गया.

वैभवी 15 दिन रह कर घर वापस आ गई. प्रकाश का मुंह फूला हुआ था. उस ने परवा नहीं की. चुपचाप अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई. प्रकाश ने पिताजी की कुशलक्षेम तक नहीं पूछी पर उस की सास का फोन उस के लिए भी और उस के मांपिताजी के लिए भी आया, उसे अच्छा लगा. सभी बुजुर्ग शायद एकदूसरे की स्थिति को अच्छी तरह से समझते हैं. उस की बेटी वापस अपनी नौकरी पर चली गई थी. पिताजी की हालत में निरंतर सुधार हो रहा था, इसलिए वह निश्ंिचत थी. उस के सासससुर देहरादून में रहते थे. सबकुछ ठीक चल रहा था कि तभी एक दिन उस की सास का बदहवास सा फोन आया. उस के ससुरजी की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा था. वे दोनों तुरंत देहरादून के लिए निकल पड़े. प्रकाश का भाई अविनाश, जो पुणे में रहता था, अपनी पत्नी के साथ देहरादून पहुंच गया. पता चला कि प्रकाश के पापा को दिल का दौरा पड़ा था. एंजियोग्राफी से पता चला कि उन की धमनियों में रुकावट थी. अब एंजियोप्लास्टी होनी थी.

अविनाश की पत्नी छवि स्कूल में पढ़ाती थी, वह 2-4 दिन की छुट्टी ले कर आई थी. पापा को तो एंजियोप्लास्टी और उस के बाद की देखभाल के लिए लंबे समय की जरूरत थी. प्रकाश के पापा अभी अस्पताल में ही थे. छवि की छुट्टियां खत्म हो गई थीं. वह वापस जाने की तैयारी करने लगी.

‘‘मैं भी चलता हूं, भैया,’’ अविनाश बोला, ‘‘छवि अकेले कैसे जाएगी?’’

‘लेकिन अविनाश, पापा को लंबी देखभाल और इलाज की जरूरत है. कुछ दिन हम रुक लेते हैं, कुछ दिन तुम छुट्टी ले कर आ जाओ,’’ प्रकाश बोला.

‘‘भैया, हम दोनों की तो प्राइवेट नौकरी है, इतनी लंबी छुट्टियां नहीं मिल पाएंगी और मम्मीपापा को पुणे भी नहीं ले जा सकता, छवि भी नौकरी करती है,’’ कह कर उन्हें कुछ कहने का मौका दिए बिना दोनों पतिपत्नी पुणे के लिए निकल गए.

अब प्रकाश पसोपेश में पड़ गया. बड़ा भाई होने के नाते वह अपनी जिम्मेदारियों से नहीं भाग सकता था. उस ने सहारे के लिए वैभवी की तरफ देखा. पर वहां तटस्थता के भाव थे. मौका पा कर धीरे से बोला, ‘‘वैभवी, मम्मीपापा को अपने साथ ले चलते हैं, वहां आराम से इलाज और देखभाल हो जाएगी. यहां तो हम इतना नहीं रुक पाएंगे. या फिर एंजियोप्लास्टी करवा कर मैं चला जाता हूं, तुम रुक जाओ, मैं आताजाता रहूंगा.’’

‘‘क्यों? मैं क्यों रुकूं, फालतू हूं क्या? नौकरी नहीं कर रही हूं? तो क्या मेरी ही ड्यूटी हो गई, छवि या अविनाश नहीं रह सकता यहां?’’

‘‘लेकिन जब वे दोनों जिम्मेदारियां नहीं उठाना चाह रहे हैं तो पापा को ऐसे तो नहीं छोड़ सकते हैं न. किसी को तो जिम्मेदारी उठानी ही पड़ेगी.’’

‘‘हां तो, जिम्मेदारी उठाने के लिए सिर्फ हम ही रह गए. और सेवा करने के लिए सिर्फ मैं. कल को पापा की संपत्ति तो दोनों के बीच ही बंटेगी, सिर्फ हमें तो नहीं मिलेगी, मुझ से नहीं होगा.’’ कह कर पैर पटकती हुई वैभवी कमरे से बाहर निकल गई. बाहर लौबी में सास बैठी हुई थीं, उदास सी. उन का हाथ पकड़ कर किचन में ले गई वैभवी. उन्होंने सबकुछ सुन लिया था, उन के चेहरे से ऐसा लग रहा था. आंखों में आंसू डबडबा रहे थे. चेहरे पर घोर निराशा थी.

‘‘मां,’’ वह उन का चेहरा ऊपर कर के बोली, ‘‘खुद को कभी अकेला मत समझना, हम हैं आप के साथ और आप की यह बेटी आप की सेवा करने के लिए है, मुझ पर विश्वास रखना, मैं प्रकाश के साथ सिर्फ नाटक कर रही थी, मैं उन्हें कुछ एहसास दिलाना चाहती थी, मुझे गलत मत समझना. आप के पास कुछ भी न हो, तब भी आप के बच्चों के कंधे बहुत मजबूत हैं, वे अपने मातापिता का सहारा बन सकते हैं.’’

सास रो रही थीं. उस ने उन्हें गले लगा लिया. सास को सबकुछ मालूम था, इसलिए सबकुछ समझ गई थीं. मांबेटी जैसा रिश्ता कायम कर रखा था वैभवी ने अपनी सास के साथ. और हर प्यारे रिश्ते का आधार ही विश्वास होता है. उस की सास को उस पर अगाध विश्वास था.

‘‘मां, चलने की तैयारी कर लो चुपचाप. यहां लंबा रहना संभव नहीं हो पाएगा. आप और पापा हमारे साथ चलिए, दिल्ली में अच्छी चिकित्सा सुविधा मिल जाएगी और पापा की देखभाल भी हो जाएगी, आप बिलकुल भी फिक्र मत करो, मां. सारी जिम्मेदारी हमारे ऊपर डाल कर निश्ंिचत रहो. पापा की देखभाल हमारी जिम्मेदारी है.’’ सास का मन बारबार भर रहा था. वे चुपचाप अपने कमरे में आ गईं. वैभवी भी अपने कमरे में गई और अटैची में कपड़े डालने लगी. प्रकाश सिटपिटाया सा चुपचाप बैठा था. वह स्वयं जानता था कि वह वैभवी को कुछ भी बोलने का अधिकार खो चुका है. अटैची पैक करतेकरते वैभवी चुपचाप प्रकाश को देखती रही. अपनी अटैची पैक कर के वैभवी प्रकाश की तरफ मुखातिब हुई, ‘‘तुम्हारी अटैची भी पैक कर दूं.’’

‘‘वैभवी, एक बार फिर से सोच लो, पापा को ऐसे छोड़ कर नहीं जा सकते हम. मुझे तो रुकना ही पड़ेगा, लेकिन नौकरी से इतनी लंबी छुट्टी मेरे लिए भी संभव नहीं है. मांपापा को साथ ले चलते हैं, वरना कैसे होगा उन का इलाज?’’

प्रकाश का गला भर्राया हुआ था. वह प्रकाश की आंखों में देखने लगी, वहां बादलों के कतरे जैसे बरसने को तैयार थे. अपने मातापिता से इतना प्यार करने वाला प्रकाश, आखिर उस के मातापिता के लिए इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है?

पिताजी की याद आते ही उस का मन एकाएक प्रकाश के प्रति कड़वाहट और नकारात्मक भावों से भर गया. लेकिन उस के संस्कार उसे इस की इजाजत नहीं देते थे. वह अपने सासससुर के प्रति ऐसी निष्ठुर नहीं हो सकती. कोई भी इंसान जो अपने ही मातापिता से प्यार नहीं कर सकता, वह दूसरों से क्या प्यार करेगा. और जो अपने मातापिता से प्यार करता हो, वह दूसरों के प्रति इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है? उसे अपनेआप में डूबा देख कर प्रकाश उस के सामने खड़ा हो गया, ‘‘बोलो वैभवी, क्या सोच रही हो, पापा को साथ ले चलें न? उस ने प्रकाश के चेहरे पर पलभर नजर गड़ाई, फिर तटस्थता से बोली, ‘‘टैक्सी बुक करवा लो जाने के लिए.’’

कह कर वह बाहर निकल गई. प्रकाश कुछ समझा, कुछ नहीं समझा पर फिर घर के माहौल से सबकुछ समझ गया. पर वैभवी उसे कुछ भी कहने का मौका दिए बगैर अपने काम में लगी हु थी. तीसरे दिन वे मम्मीपापा को ले कर दिल्ली चले गए. पापा की एंजियोप्लास्टी हुई, कुछ दिन अस्पताल में रहने के बाद पापा घर आ गए. उन की देखभाल वैभवी बहुत प्यार से कर रही थी. प्रकाश उस के प्रति कृतज्ञ हो रहा था. पर वह तटस्थ थी. उस के दिल का घाव भरा नहीं था. प्रकाश को तो उस के पिताजी की सेवा करने की भी जरूरत नहीं थी. उस ने तो सिर्फ औपरेशन के वक्त रह कर उन को सहारा भर देना था, जो वह नहीं दे पाया था. उस के भाई के लिए भलाबुरा कहने का भी प्रकाश का कोई अधिकार नहीं था. जबकि उस ने अपना भी हिस्सा ले कर भी अपना फर्ज नहीं निभाया था. ये सब सोच कर भी वैभवी के दिल के घाव पर मरहम नहीं लग पा रहा था. पापा की सेवा वह पूरे मनोयोग से कर रही थी, जिस से वह बहुत तेजी से स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे. उस के सासससुर उस के पास लगभग 3 महीने रहे. उस के बाद सास जाने की पेशकश करने लगीं पर उस ने जाने नहीं दिया, कुछ दिनों के बाद उन्होंने जाने का निर्णय ले लिया. प्रकाश और वैभवी उन्हें देहरादून छोड़ कर कुछ दिन रुक कर, बंद पड़े घर को ठीकठाक कर वापस आ गए.

सबकुछ ठीक हो गया था पर उस के और प्रकाश के बीच का शीतयुद्ध अभी भी चल रहा था, उन के बीच की वह अदृश्य चुप्पी अभी खत्म नहीं हुई थी. प्रकाश अपराधबोध महसूस कर रहा था और सोच रहा था कि कैसे बताए वैभवी को कि उसे अपनी गलती का एहसास है. उस से बहुत बड़ी गलती हो गई थी. वह समझ रहा था कि इस तरह बच्चे मातापिता की जिम्मेदारी एकदूसरे पर डालेंगे तो उन की देखभाल कौन करेगा. कल यही अवस्था उन की भी होगी और तब उन के बेटाबेटी भी उन के साथ यही करें तो उन्हें कैसा लगेगा. एकाएक वैभवी की तटस्थता को दूर करने का उसे एक उपाय सूझा. वह वैभवी को टूर पर जाने की बात कह कर चंडीगढ़ चला गया. प्रकाश को गए हुए 2 दिन हो गए थे. शाम को वैभवी रात के खाने की तैयारी कर रही थी, तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. उस ने जा कर दरवाजा खोला. सामने मांपिताजी खड़े थे.

‘‘मांपिताजी आप, यहां कैसे?’’ वह आश्चर्यचकित सी उन्हें देखने लगी.

‘‘हां बेटा, दामादजी आ गए और जिद कर के हमें साथ ले आए, कहने लगे अगर मुझे बेटा मानते हो तो चल कर कुछ महीने हमारे साथ रहो. दामादजी ने इतना आग्रह किया कि आननफानन तैयारी करनी पड़ी.’’

तभी उस की नजर टैक्सी से सामान उतारते प्रकाश पर पड़ी. वह पैर छू कर मांपिताजी के गले लग गई. उस की आंखें बरसने लगी थीं. पिताजी के गले मिलते हुए उस ने प्रकाश की तरफ देखा, प्रकाश मुसकराते हुए जैसे उस से माफी मांग रहा था. उस ने डबडबाई आंखों से प्रकाश की तरफ देखा, उन आंखों में ढेर सारी कृतज्ञता और धन्यवाद झलक रहा था प्रकाश के लिए. प्रकाश सोच रहा था उस के सासससुर कितने खुश हैं और उस के खुद के मातापिता भी कितने खुश हो कर गए हैं यहां से. जब अपनी पूरी जवानी मातापिता ने अपने बच्चों के नाम कर दी तो इस उम्र में सहारे की तलाश भी तो वे अपने बच्चों में ही करेंगे न, फिर चाहे वह बेटा हो या बेटी, दोनों को ही अपने मातापिता को सहारा देना ही चाहिए.

ऐसा भी होता है

मेरी एक सहेली है जो निसंतान है. एक दिन अचानक उस के पति को दिल का दौरा पड़ा. उन्हें तुरंत सरकारी अस्पताल में दाखिल कराया गया. डाक्टरों ने जांच के बाद कहा कि 12 घंटे के भीतर एक औपरेशन करना पड़ेगा. इस के लिए रुपए जमा करा दें. उस दिन इतवार था सो बैंक बंद होने के कारण मदद के लिए हमारी मित्र ने अपने पति के बड़े भाई को फोन किया. उन से कहा कि अगले दिन वे रुपए निकाल कर दे देंगी. पर पति के बड़े भाई ने रुपए होते हुए भी इनकार कर दिया. बहुत दौड़धूप के बाद भी रुपए का इंतजाम नहीं हो सका और उस के पति की मौत हो गई. कोई संतान न होने के कारण अंतिम क्रिया के लिए फिर से मदद मांगने पर पति के भाई ने जवाब दिया कि पहले मकान हमारे नाम करो, तब साथ देंगे. उस ने ऐसे स्वार्थी लोगों के नाम मकान करना उचित नहीं सम झा. इसलिए उस ने आसपास के लोगों की मदद से सारे काम निबटाए. यह सुन कर मैं दंग रह गई कि क्या ऐसा भी होता है कि मौत के गम में डूबी अकेली महिला से उस के रिश्तेदार सौदेबाजी करते हैं? लोगों में मानवता क्या एकदम मर चुकी है?

उषा शर्मा, कोलकाता (प.बं.)

*

मेरी नईनई नौकरी लगी थी. कालेज तक की पढ़ाई घर पर रह कर की थी और अकेला कभी बाहर नहीं रहा था. सो, दुनियादारी का ज्यादा ज्ञान नहीं था. दीवाली आने में 3 दिन थे. छुट्टी ले कर मैं अपने घर, जोकि दूसरे शहर में था, जाने के लिए बस अड्डे पर पहुंचा. उसी दिन मेरे अकाउंट में बोनस की रकम आई थी. सो, वहां एक एटीएम से बोनस के सारे रुपए निकाल कर बस का इंतजार करने लगा. कुछ देर बाद एक नवयुवक, जिस की उम्र 16-17 साल रही होगी, गेरुआ वस्त्र पहने और हाथ में सांप पकड़े हुए आया. उस ने मु झ से 1-2 रुपए मांगे. मैं ने पर्स से निकाल कर उसे 2 रुपए देने की कोशिश की. उस की नजर मेरे पर्स के पैसों पर पड़ गई. सो, पता नहीं कैसे उस ने मु झे सम्मोहित कर पैसे लूटने शुरू किए. लोग देख कर हंस रहे थे, बस. इतने में मेरी कंपनी का सुपरवाइजर, जो वहां अपने रिश्तेदारों को छोड़ने आया था, ने देखा तो उस लड़के को पकड़ कर 2-3 थप्पड़ रसीद कर दिए और लूटे गए पैसे वापस ले कर मु झे दे दिए. अब  मैं सांप वालों या ऐसे ठग लोगों से दूर रहता हूं.

सुमित कौशल, आगरा (उ.प्र.)

बच्चों के मुख से

मेरी 5 वर्षीया बेटी दिव्या बड़ी बातूनी और हाजिरजवाब है. एक दिन मेरे पति औफिस से आते हुए 1 किलो गाजर ले आए और शाम को गाजर का हलवा बनाने की फरमाइश की. हलवा बनाते समय दूध तो सूख गया पर चीनी नहीं सूखी. तब मैं ने कहा, ‘क्या करें, हलवा तो बन गया पर चीनी बहुत पानी छोड़ रही है.’ पति के जवाब से पहले ही दिव्या ने तुरंत कहा, ‘तो चीनी को निचोड़ कर हलवे में डालना था.’ उस के जवाब पर हम दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

अनिल कुमार  झा, बूंदी (राज.)

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मेरा 6 साल का बेटा विकास दूसरी कक्षा में पढ़ता था. एक बार उस के पापा बीमार हो गए. एक दिन विकास नामालूम किस तरह घर से निकल कर बाजार में केमिस्ट की दुकान पर पहुंच गया और केमिस्ट को 1 रुपया देते हुए बोला, ‘दवाई दे दो, मेरे पापा बीमार हैं.’ दुकानदार उसे पहचान गया, चूंकि वह 2-4 बार अपने पापा के साथ दुकान पर गया था. दुकानदार ने उसे हाजमोला की एक गोली दे दी. उस ने विकास को अपने नौकर के साथ घर तक पहुंचा दिया. आज भी वह बात याद कर के मेरा मन भर आता है.

आशा भटनागर, कल्यान (महा.)

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जब मेरी छोटी बेटी विदिशा नर्सरी में थी तो मैं ने एक बार टिफिन में उसे खजूर दिए थे. थोड़ी दूर पर बैठे उस के सहपाठी को सम झ नहीं आ रहा था कि मेरी बेटी कौन सा, फल लाई है. उस ने कहा, ‘‘मु झे पता है, तुम इमली खा रही हो न?’’ मेरी बेटी ने ‘हां’ में सिर हिला दिया. घर पर आ कर सारा वृत्तांत सुनाया तो मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम ने सच क्यों नहीं बताया?’’

तो उस ने तपाक से कहा, ‘‘सरप्राइज रखने के लिए.’’ उस की बातें सुन कर हम हंसे बिना नहीं रह सके.

सुधा विजय, मदनगीर (न.दि.)

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मेरी बड़ी बेटी दर्शिता जब ढाई साल की थी तब उस के पेट में बहुत दर्द होता था और मैं पानी में हींग मिला कर उस के पेट पर लगा देती थी. एक बार हम टीवी देख रहे थे. एक नया सीरियल शुरू हुआ जिस का टाइटल सौंग था ‘प्यार का दर्द है मीठामीठा प्यारा…’ टीवी पर बारबार यह लाइन आ रही थी. मेरी बेटी उसे देखती रही. फिर अचानक बोली, ‘‘मम्मी, इस को हींग लगा दें.’’ जब हमें सम झ में आया कि वह टीवी के हींग लगाने की कह रही है तो हंसतेहंसते हमारे पेटदर्द हो गया.

नेहा प्रधान, कोटा (राज.)

पल दो पल

ऐ खूबसूरत पल

बंद कर लूं तुझे मुट्ठी में

जी लूं तुझे जी भर के

महसूस कर लूं

प्यार का रेशमी एहसास

जगा लूं कुछ देर और

जीने की आस

वो सपना जो बंद था कभी पलकों में

छू के महसूस कर लूं उसे

बुझा लूं आज वो

अनबुझी सी प्यास

भीग जाने दो मुझे

चाहतों की बारिशों में

आज पूरी कर लूं

वो अधूरी गजल

जो उगा है सूरज

खिले अरमानों के उजालों वाला

ओढ़ लेने दो

इस की किरणों को मुझे

ढल जाने दो

अब अंधेरी रात

             – अंजु जायसवाल

स्मार्ट टिप्स

  1.  अगर आप के दांत संवेदनशील हैं तो गरम दूध आप को जरूर फायदा करेगा. गरम दूध में कैल्शियम, आयोडीन और फौस्फोरस पाया जाता है जो दांतों और मसूड़ों को मजबूती प्रदान करता है. भोजन के बीच में गरम दूध पीने से दांतों की कोटिंग बरकरार रहती है.
  2.  आप बालों में नारियल, राई, तिल या कैस्टर औयल का प्रयोग कर रही हैं तो इसे पहले गरम करें. गरम तेल बालों के लिए अच्छा माना जाता है क्योंकि यह बालों के रोमछिद्रों को खोलता है.
  3.  लकड़ी के पुराने फर्नीचर की खरोंचों पर पिसी हुई कौफी लगाएं. 10 मिनट के बाद सूखे नरम कपड़े से पोंछ दें. हलके रंग के फर्नीचर के लिए पिसे अखरोट के चूर्ण का उपयोग करें.
  4.  तुलसी को फ्रिज में रखने पर यह अपने आसपास रखे सभी खाद्य पदार्थों की गंध को सोख लेती है. फ्रिज में रखने के बजाय इसे एक कप ताजे पानी में फ्रिज से बाहर रखें.
  5.  गुलाबजल को दूध के साथ चेहरे पर लगाएं, यह आप के चेहरे की टोनिंग कर के पोषण करता है. अच्छा होगा कि आप इसे रात को सोने से पहले लगाएं. इस से त्वचा चमकदार बनेगी.
  6.  यदि आप साफ व गोरी त्वचा चाहती हैं तो टमाटर खाना शुरू करें. इस से त्वचा पर पड़े पिंपल के निशान भी दूर होते हैं व त्वचा भी कम तैलीय होती है.

सूक्तियां

रहस्य

जिस ने इतना भी जाहिर कर दिया है कि उस के पास कोई भेद है, तो उस ने आधा भेद तो खोल दिया, बाकी आधा वह कब तक सुरक्षित रख पाएगा?

मस्तिष्क

एक स्वस्थ दिमाग की यह खूबी है कि न केवल वह स्वयं काम में लगा रहता है, बल्कि औरों को भी रचनात्मक कार्य में संलग्न रखता है.

वाणी

अक्लमंद आदमी जो कुछ बोलता है, सोचसमझ कर बोलता है. बेवकूफ बोल लेता है, तब सोचता है कि वह क्या कह गया.

महत्त्वाकांक्षा

महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति के लिए प्रसिद्धि प्यासे को खारे पानी के समान है. जितना ही वह पीता है उतनी ही प्यास बढ़ती है.

योग्यता

योग्यता नीच मस्तिष्कों में द्वेष उत्पन्न करती है, जबकि महान हृदयों में प्रतिस्पर्धा.

मनुष्य

कोई भी आदमी इतना महत्त्चहीन नहीं होता कि उस का उदाहरण दूसरों के सामने न रखा जा सके.

महायोग : अंतिम किस्त भाग- 15

अब तक की कथा 

भविष्य के तानोंबानों में लिपटी दिया अपने घर पहुंच गई थी, जहां अनेक अनसुलझे प्रश्न उस के समक्ष मुंहबाए खड़े थे. दादी अतिउत्साहित थीं परंतु दिया किसी से भी बात नहीं करना चाहती थी. वह सीधे अपने कमरे में आराम करने चली गई थी. अब आगे…

‘अरे, ऐसी भी क्या नींद हो गई, लड़की सीधे मुंह बात भी नहीं कर रही है,’ स्वभावानुसार दादी ने बड़बड़ करनी शुरू कर दी थी.कामिनी 3 बार दिया के कमरे में  झांक आई थी. हर बार दिया उसे गहरी नींद में सोती हुई दिखाई दी. चाय के समय उस से रहा नहीं गया. सुबह से बच्ची ने कुछ भी नहीं खाया था. आखिर दिया को नीचे उतरते देख दीप चहका, ‘‘क्या महारानी, जल्दी आओ न, कितना इंतजार करवाओगी?’’ दीप वातावरण को सहज करना चाहता था. आखिर कहीं न कहीं से, किसी को तो बात शुरू करनी ही होगी. दिया चुपचाप टेबल पर बैठ गई.

‘‘महाराज, फटाफट चाय लगाइए. देख दिया, कैसे करारे गरमागरम समोसे उतारे हैं महाराज ने,’’ दीप ने गरम समोसा हाथ में उठाया फिर एकदम प्लेट में छोड़ कर अपनी उंगलियों पर जोकर की तरह फूफू करने लगा. दिया के चेहरे पर भाई की हरकत देख कर पहली बार मुसकराहट उभरी. आदत के अनुसार, दीप की बकबक शुरू हो गई और दिया की मुसकराहट गहरी होती गई. भरे दिल और नम आंखों से उस ने सोचा, ‘यह है मेरा घर.’

‘‘सुबह मंगवाई थी रसमलाई तेरे लिए. अभी तक किसी ने छुई भी नहीं…दीनू, निकाल के तो ला फ्रिज से,’’ दादी के प्यार का तरीका यही था.

‘‘अब बता कैसी है तेरी ससुराल? और हां, फोन खराब है क्या? कई दिनों से कोई फोन ही नहीं उठा रहा था. कहीं घूमनेवूमने निकल गए थे क्या सब के सब? तेरी सास और नील तो ठीक हैं न? अभी तो रहेगी न? और हां, तेरा सामान कहां है?’’

दादी ने एक बड़े से बाउल में दिया के सामने 5-7 रसमलाई रख दीं और दिया को उस ओर देखने का समय दिए बिना ही अपनी प्रश्नोंभरी बंदूक उस की ओर तान दी.

‘‘मां, पहले उस के पेट में कुछ जाने दें. सुबह से कुछ भी नहीं खाया उस ने,’’ यश ने बिटिया पर दृष्टि गड़ा रखी थी.

‘‘ले, इतना कुछ सामने है, खाती जा बात करती जा. लड़की बात ही नहीं बता रही अपनी ससुराल की.’’

‘‘क्या चाहती हैं आप? क्या बताऊं?’’ दिया बोली, ‘‘जब आप ने मेरे ग्रहों को मिलवाने और उन को ठीक करवाने में इतनी मशक्कत की है तो सब बढि़या ही होगा न? फिर जानना क्या चाहती हैं आप?’’ दिया गुस्से में बोल उठी थी.

‘‘अरे, देखो तो, लड़की है या…’’

दादी अपना वाक्य पूरा कर पातीं इस से पहले ही दीनू तेजी से अंदर आया, ‘‘साब, गहलौत साब आए हैं. मेमसाब भी हैं. पुलिस की गाड़ी वाले…’’

‘‘क्या? डीआईजी गहलौत?’’ स्वदीप ने दोहराया और उठ कर बाहर की ओर चल दिया.

डीआईजी गहलौत शर्मा परिवार से अच्छी प्रकार परिचित थे. कुछ ही क्षणों में गहलौत साहब और उन की पत्नी बरामदे में पहुंच गए थे. अभिवादन के बाद दीनू को ड्राइंगरूम खोलने का आदेश मिला. ‘‘अरे नहीं, गहलौत साहब यहीं बैठेंगे,’’ उन्होंने एक कुरसी सरका ली और पत्नी को भी बैठने का इशारा किया.

‘‘हैलो दिया, कैसी हो बेटी?’’

‘‘जी, ठीक हूं अंकल, थैंक्स,’’ दिया ने गहलौत अंकल का अभिवादन किया.

गहलौत साहब इधरउधर की बातें करने लगे. कामिनी को उन का इस समय आना बहुत अजीब लग रहा था. शायद किसी काम से आए हों परंतु…

‘‘आज इधर की तरफ कैसे गहलौत साहब?’’ यशेंदु भी उन के आने के बारे में हिसाबकिताब लगा रहे थे.

गहलौत साहब ने बड़ी स्पष्टता से अपनी बात कह दी फिर दिया की ओर उन्मुख हो गए, ‘‘तुम बताओ, तुम कैसी हो, बेटा? कब पहुंचीं? टाइम पर पहुंच गई थी फ्लाइट? इस समय हम तुम से ही मिलने आए हैं,’’ उन्होंने भी कई सारे प्रश्न एकसाथ ही दिया के समक्ष परोस दिए.

दिया कुछ भी उत्तर नहीं दे पाई. हां, घर के सभी सदस्यों के मन में गहलौत साहब ने और कुतूहल पैदा कर दिया.‘‘आप की बेटी बड़ी हिम्मती है, यशजी. इंगलैंड के भारतीय दूतावास में इतनी प्रशंसा की जा रही है कि बस…मैं जानता हूं आप सब लोग कुतूहल से भर गए हैं कि मैं यह सब…दरअसल, वहीं से हमारे डिपार्टमैंट में खबर आई है. बात मेरे पास आई तो मैं ने कहा कि भई, वह तो हमारी ही बेटी है. हम उस से मिलने जाएंगे. मिसेज गहलौत भी बिटिया से मिलना चाहती थीं. बस…’’ गहलौत साहब की गोलगोल बात अब भी सब के सिर पर से हो कर गुजर रही थी. खूब बोलने वाले व्यक्ति थे गहलौत साहब, साथ ही स्पष्ट भी परंतु इस समय तो वे बिलकुल उल झे हुए लग रहे थे, उन की बातें एकदम अस्पष्ट.

‘‘अरे, पर ऐसे क्या  झंडे गाड़ कर आई है यह. कुछ बोल भी नहीं रही लड़की. इस की ससुराल कितनी बार फोन किया, कोई फोन भी नहीं उठाता. अब आप?’’ दादी कहां चुप रहने वाली थीं.

‘‘कौन उठाएगा ससुराल में फोन, 2 लोग ही तो हैं. और दोनों ही सरकारी ससुराल में,’’ गहलौत साहब दादी की ओर देख कर मुसकराए.

‘‘सरकारी ससुराल में?’’ दादी कुछ सम झ नहीं पाईं.

‘‘माताजी, सरकारी ससुराल यानी जेल.’’

‘‘क्या, जेल में? क्यों? आप क्यों ऐसी बातें कर रहे हैं? हमारी भी समाज में कोई इज्जत है. जब यह बात समाज में फैलेगी तो…’’ दादी रोनेबिलखने लगी थीं.

दादी के अतिरिक्त घर के सभी सदस्यों के मुख पर मुर्दनी फैल गई थी. जिस प्रकार दिया आई थी उस से कुछ गड़बड़ी का आभास तो सब को ही हो गया था परंतु…यह पहेली अभी भी सम झ से बाहर थी. अचानक दिया ने मानो बिजली का नंगा तार पकड़ लिया था.

‘‘क्या समाज…समाज…किस समाज की बात कर रही हैं, दादी? उस समाज की जिसे आप के दिग्गज पंडितों ने तैयार किया है या उस समाज की जिसे कुछ पता ही नहीं है कि मैं ने क्या  झेला है? क्या…है क्या समाज? मैं समाज नहीं हूं क्या? मैं अपनेआप में एक पूरा समाज हूं.’’

दिया बुरी तरह फट पड़ी थी और फूटफूट कर रोने लगी थी.

‘‘हाय रे! इस की तो अक्ल पर पत्थर पड़ गए हैं. क्या कर के आई है वहां जो सास और आदमी को जेल हो गई? हमेशा कहती थी, यश, बेटा, लड़की की जात है, जरा संभाल कर रखो. पर इन्हें तो आजादी देने का नशा चढ़ा हुआ था. अब भुगतो…अरे, मैं तभी सोचूं, यह सुबह से ऐसा बरताव क्यों कर रही है.’’

‘‘माताजी, शांत हो जाइए और मेरी बात शांति से सुनिए. आप की पोती कुछ गलत कर के नहीं आई है बल्कि ऐसा काम कर के आई है जो आज तक कोई नहीं कर सका. यश जी, आप को कुछ नहीं बताया क्या बिटिया ने?’’ गहलौत साहब ने आश्चर्य से पूछा.

यह सच था कि उसे सब का सामना भी करना ही था. यह तो अच्छा अवसर था, उसे अपनेआप कुछ कहने की जरूरत ही नहीं. वह शांति से गहलौत अंकल की बातें सुनती रही.

‘‘आप लोगों ने ब्रिटेन का वह कांड नहीं देखा टीवी पर जिस में ईश्वरानंद नाम के एक संन्यासी का परदाफाश किया गया था? 3-4 दिन पहले ही तो यह ‘ब्रेकिंग न्यूज’ हर चैनल पर दिखाई गई थी.’’

‘‘जी, देखा था न अंकल. किसी इंडियन लड़की ने ही उस संन्यासी का भंडाफोड़ किया है,’’ दीप बहुत उत्साह से बोला था.

‘‘हां, हां, वही केस. उस का भंडाफोड़ और किसी ने नहीं, तुम्हारी बहन ने किया है. न जाने यह कैसेकैसे वहां से बच कर निकल पाई है,’’ इतनी देर के बाद अब निशा गहलौत पहली बार बोली थीं.

‘‘वी औल आर प्राउड औफ यू, दिया,’’ निशा गहलौत ने पास में बैठी हुई दिया का हाथ अपने हाथ में ले लिया था. दिया टुकुरटुकुर उन्हें नापने का प्रयास करने लगी.

‘‘मु झे भी तो बताओ कोई, क्या भंडाफोड़ किया? कैसे भंडाफोड़ किया? और नील को किस बात की सजा दिलवा कर आई है यह? हाय, पति के बिना आखिर एक औरत की जगह ही क्या रह जाती है समाज में?’’ दादी फिर से टसुए बहाने लगीं.             

‘‘किस पति की बात कर रही हैं आप, दादी? क्या पति को भी मालूम है कि वह पति है? या पति, बस सात फेरों की जंजीर गले में फंसा कर लड़की को अपने हिसाब से नचाने में बन जाता है? शायद दादी तभी खुश होतीं जब इन की पोती महायोग के कुंड में अपनी आहुति दे देती, उसी में स्वाहा हो जाती, लौट कर इन्हें अपना मुंह न दिखाती.’’ दिया के शब्दों में उस के भीतर का दर्द स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था.‘‘पर बेटा, कम से कम हमें बताती तो सही. हम तुम्हारे लिए कुछ नहीं रह गए थे क्या?’’ दिया की बात जान कर यशेंदु बस इतना ही कह पाए. उन की आंखों से आंसू टपकते रहे. कई बार सशक्त आदमी भी कितना लाचार हो जाता है.‘‘लगता है, दिया उन दर्दभरी बातों को दोहराना नहीं चाहती, ठीक भी है. इस की शादी का सारा खेल उस ढोंगी ईश्वरानंद का ही रचाया हुआ था. नील और उस की मां भी उस में शामिल थे…’’ डीआईजी गहलौत ने थोड़ी देर में सब के सामने पूरी कहानी बयान कर दी. दिया फिर भी चुप ही बनी रही.

‘‘ब्रिटेन के सब अखबारों में ईश्वरानंद और उस के चेलेचेलियों की तसवीरें छपी हैं. दिया की बहुत प्रशंसा हो रही है. अगर दिया हिम्मत न करती तो बरसों से यह सब चल ही रहा था. दिया बेटा, तुम्हें सैल्यूट करने का दिल होता है,’’ गहलौत साहब दिया से बात करना चाहते थे.

‘‘मैं ने किसी के लिए कुछ नहीं किया, अंकल. मैं तो बस अपनी फंसी हुई गरदन को निकालने की कोशिश कर रही थी.’’

‘‘तुम ने कभी नहीं सोचा कि अपने मम्मीडैडी को सबकुछ बता दो?’’ गहलौत आंटी ने दिया से पूछा.

‘‘आप लोग पापा की हालत तो देख ही रहे हैं. यह भी तो मेरी वजह से ही हुई है. सवाल यह है कि यह सब हुआ क्यों?’’ दिया ने सजल  नेत्रों से गहलौत आंटी की ओर देखते हुए प्रतिप्रश्न किया.

‘‘हां, हुआ क्यों?’’ बात निशा गहलौत के मुंह में ही रह गई.

‘‘ईश्वरानंद के पैर धर्म तक ही नहीं फैले हैं, उस की जड़ें बहुत गहरी हैं. वह डाकुओं के दल का सरगना भी है और नाम व काम बदलता हुआ दुनियाभर में घूमता रहता है. उस के साथ और भी 4 मुख्य लोग पकड़ लिए गए हैं, जो टैरेरिस्ट ग्रुप से जुड़े हुए हैं. ये लोग किस चीज में माहिर नहीं हैं? कभी धर्म के बहाने जुड़ते हैं तो कभी किसी और बहाने. ईश्वरानंद सब का गुरु है, सब को अलगअलग कामों में फंसा कर स्वयं मस्ती करता रहता है. उस का काम ही है अलगअलग बहानों से लोगों को फंसाना,’’ डीआईजी गहलौत एक सांस में अपनेआप को खाली कर देना चाहते थे.

‘‘और…माफ करिएगा माताजी, जिस नील से आप ने अपनी पोती के गुण मिलवाए थे वह तो पहले से ही किसी जरमन लड़की के चक्कर में फंसा हुआ था. आप ने उस के सारे गुण ही दिया से मिलवा दिए?’’ गहलौत साहब ने दिया की दादी से कहा जो गालों पर बहते आंसुओं को बिना पोंछे ही मुंह खोले उन की सब बातें सुन रही थीं.

‘‘माताजी. जो धर्म हमें अंधविश्वास में घसीट ले, जो हमें शक्ति न दे, बल न दे, वह धर्म हो ही नहीं सकता.’’

सब लोग दिया की ओर एकटक निहार रहे थे. कुछ बोले तो सही, सब कुछ न कुछ पूछना चाहते थे. निशा आंटी ने दिया को सहारा दिया, ‘‘यह इतने लंबे समय तक किस तकलीफदेह वातावरण से जूझ कर आई है. शरीर की तकलीफ तो किसी तरह बरदाश्त हो जाती है पर मन की तकलीफ को दूर करने में बहुत लंबा समय लगता है,’’ सब के चेहरे दुख और विस्मय से भर उठे थे. दादी मुंहबाए कुछ समझने की चेष्टा में लगी थीं.

‘‘पर…अब क्या होगा इस लड़की का? ब्याही लड़की घर में बैठी रहेगी. कौन पकड़ेगा इस का हाथ? मुझे क्या पता था कि इतने अच्छे ग्रह मिलने के बाद भी…’’ अब भी वे ग्रहों को रो रही थीं.दिया ने आंखें खोल कर दुख से दादी की ओर देखा, बोली कुछ नहीं. ‘‘मां…आप क्या कह रही हैं? बच्ची है मेरी. सात फेरे क्या करवा दिए, बस, मांबाप का कर्तव्य पूरा हो गया. और फेरे भी किस से? कितना कहा था मैं ने पर आप…’’ यशेंदु को मां पर बहुत गुस्सा आ रहा था. दादी अब भी बच्ची के बारे में न सोच कर समाज के बारे में ही चिंतित हो रही थीं. आखिर क्यों?

कामिनी के आंसुओं ने तो एक स्रोत ही बहा दिया था. वह बारबार स्वयं को ही कोस रही थी, ‘‘यह सब मेरी वजह से ही हुआ है. मैं एक शिक्षित और जागृत मां हूं. मैं ही अगर अपनी बेटी को नहीं बचा सकी तो उन अशिक्षित लोगों के बारे में क्या सोचा जा सकता है जो अपने दिमाग से चल ही नहीं सकते. चलते हैं तो केवल पंडितों और तथाकथित गुरुओं के दिखाए व सु झाए गए ग्रहों के हिसाब से. आखिर क्यों मैं उस समय अड़ नहीं सकी? अड़ जाती तो क्या होता? ज्यादा से ज्यादा मां और यशेंदु मुझ से नाराज हो जाते. समर्थ थी मैं, छोड़ देती बेटी को ले कर घर. उस के जीवन से इस प्रकार खिलवाड़ तो न होता.’’ न जाने कैसे आज कामिनी के मुख से ये शब्द निकल गए थे. उस की आंखों से आंसू नहीं लावा प्रवाहित हो रहा था. सास के समक्ष सदा आंखें  झुका कर हर बात को स्वीकार करने वाली कामिनी की सास ने जब ये सब बातें सुनीं तो चुप न रह सकीं.

‘‘हां, तो छोड़ देतीं. जैसे ये बिना कन्यादान किए ऊपर चले गए थे, ऐसे ही हम भी चले जाते. तुम्हारे मुंह से सब के सामने ये अपमान तो न  झेलना पड़ता,’’ थोड़ी देर में ही उन के रुके हुए आंसुओं का स्रोत फिर से उमड़ने लगा.

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ऐसे हों नन्हे हाथों में खिलौने

अनिमा की गाड़ी जब भी ट्रैफिक सिग्नल पर रुकती, उस का बेटा कुश वहां पर बिकते खिलौनों को खरीदने की जिद करने लगता. जब तक सिग्नल पर गाड़ी खड़ी रहती, उतनी देर खिलौने बेचने वालों का हुजूम गाड़ी के आसपास चक्कर काटता रहता. रंगबिरंगे खिलौनों को देख कुश का रोनाचिल्लाना बढ़ने लगता और मन मार कर अनिमा को उस के लिए 2-4 खिलौने खरीदने पड़ते. अनिमा बताती हैं कि उस का बच्चा पिछले 4 महीने से काफी बीमार और कमजोर होने लगा था. डाक्टर कई तरह की जांच के बाद इन्फैक्शन और एलर्जी बता कर दवा लिख देते. दवा खाने के कुछ दिनों तक तो कुश की तबीयत ठीक रहती पर फिर वह बीमार पड़ जाता. बाद में डाक्टरों ने बताया कि सड़कों और फुटपाथों पर बिकने वाले सस्ते व चाइनीज खिलौने कुश की बीमारी की बड़ी वजह हैं. खिलौनों से बच्चों को काफी लगाव और जुड़ाव होता है. यही वजह है कि खिलौनों की कई कंपनियां बाजार में हैं और उन में ऐसे खिलौने बनाने की होड़ मची रहती है जो बच्चों को ज्यादा से ज्यादा लुभा सकें. आएदिन कंपनियां नए और लुभावने खिलौने बाजार में उतारती रही हैं. खिलौनों को खरीदने से पहले पेरैंट्स को इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि कौन सा खिलौना बच्चे के लिए बढि़या है और कौन सा खराब है. खिलौनों को बच्चों की उम्र के हिसाब से खरीदना बेहतर होता है और साथ ही, उस की क्वालिटी का भी खास ध्यान रखने की जरूरत है. पेरैंट्स कई बार अति उत्साह में ऐसे खिलौने खरीद लाते हैं जिन्हें देख कर बच्चे खुश होने के बजाय डर जाते हैं.

खिलौनों का प्रभाव

खास तरह के खिलौने बच्चों को उम्र और समय से पहले देना आफत का सबब बन जाता है. कई खिलौने तो बच्चों के दिल और दिमाग पर बुरा असर डालते हैं. रांची की रहने वाली रश्मि सिन्हा बताती हैं कि उन का बेटा रोहित जब 3 साल का था तो उन्होंने उसे बड़ा सा रोबोट खिलौना ला कर दिया. रोबोट का स्विच औन करने के बाद उस से निकलने वाली तेज आवाज को सुन कर वह इतना डर गया कि कई दिनों तक उसे देखते ही रोने लगता था. जब वह 4 साल का हुआ तो उस के साथ मजे से खेलने लग गया. ऐसा ही वाकेआ नागपुर की पूनम शर्मा बताती हैं कि उन्होंने अपनी ढाई साल की बेटी ईशा के लिए बड़ा सा टैडीबीयर यह सोच कर खरीदा कि उसे देख कर वह काफी खुश होगी और उस के साथ मजे से खेलेगी, पर हुआ इस का उलटा. टैडीबीयर को देखते ही वह चिल्लाचिल्ला कर रोने लगी. उसी समय पूनम को समझ में आया कि बच्चों की उम्र के हिसाब से ही उन के लिए खिलौने खरीदने चाहिए. 2-3 साल के बच्चों के लिए बड़े साइज के और तेज आवाज करने वाले खिलौने खरीदने से बचना चाहिए. तेज आवाज करने वाले खिलौनों से बच्चों के कान खराब होने का खतरा बढ़ जाता है.

मनोवैज्ञानिक अजय मिश्रा कहते हैं कि पेरैंट्स के लिए जरूरी है कि खिलौनों को खरीदते समय बच्चे की किलकारी नहीं, बल्कि अपनी समझदारी को देखने की दरकार है. दुकानों या शोरूम में अपने पेरैंट्स के साथ घूमते हुए बच्चे किसी भी खिलौने को देख कर खरीदने की जिद कर बैठते हैं. उन के मातापिता भी उन की पसंद के खिलौनों को खरीद देते हैं और खिलौने को थामे बच्चे की मुसकान को देख कर फूले नहीं समाते हैं. कई खिलौने बच्चों को कुछ पल के लिए खुशियां तो देते हैं पर बाद में वही उन की हैल्थ और दिमाग के लिए घातक भी बन जाते हैं.

बरतें सावधानी

बिजली से चलने वाले खिलौनों से तो बच्चों को दूर रखना ही बेहतर है. कई बार बच्चे मातापिता की गैरमौजूदगी में खुद ही खिलौनों या बैटरी को चार्ज करने की कोशिश करने लगते हैं. इस से बिजली का झटका लगने और जान जाने का खतरा बना रहता है. अकसर देखा जाता है कि अभिभावक किसी भी तरह का खिलौना अपने बच्चों को थमा कर खुश होते हैं. वे इस बात पर जरा भी ध्यान नहीं देते कि कौन सा खिलौना उन के बच्चों के लिए अच्छा होगा या उस को दिमागी तौर पर मजबूत करेगा. चाइल्ड स्पैशलिस्ट डा. किरण शरण कहती हैं कि बच्चों की उम्र, समझ और मानसिकता का खयाल रखते हुए ही उन्हें खिलौने दिए जाने चाहिए. इस के साथ ही, खिलौनों को हाइजीनिक होना भी जरूरी है, वरना उस के साथ खेलने से बच्चे को स्किन इन्फैक्शन, एलर्जी समेत कई तरह की बीमारियां हो सकती हैं. इसलिए घटिया और सस्ते खिलौने खरीदने के बजाय ब्रैंडेड और दिमाग विकसित करने वाले खिलौने ही अपने बच्चों के लिए खरीदें.

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